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कहते हैं कि ययाति की उम्र एक हजार वर्ष की हुई । हर सौ वर्ष के बाद उसने अपने पुत्र का जीवन उधार लिया लेकिन एक बार भी उसे नहीं सूझी कि मैं मर जाऊँ । एक हजार वर्ष बाद मृत्यु ने जीवन बदलने की अनुमति नहीं दी तब उसे मरना पड़ा । यह कहानी एक प्रतीक है । मुझे तो नहीं लगता कि ययाति एक हजार वर्ष में भी कोई उपलब्धि प्राप्त कर पाया होगा । जो आदमी सौ साल में परितृप्त नहीं हो सका वो एक हजार साल में भी अतृप्त ही रहा होगा । ऐसा व्यक्ति तो लाख साल में भी परितृप्त नहीं हो सकता ।
जिस प्रकार राजा ययाति का पात्र इतने वर्ष जीने के बाद भी रीता ही रहा, वैसी ही कहानी कमोबेश हर आदमी की दिखाई देती है । मनुष्य की इच्छाएँ इतनी असीमित हैं कि इस संसार में भिखमंगे ही नहीं, सिकन्दर का पात्र भी खाली रहता है । ऐसा नहीं है कि जिसका पात्र खाली है, वही भीख माँग रहा है, दरअसल पात्र तो भरा है, लेकिन मन नहीं भरा है । यह पात्र ही ऐसा है । इसमें पेंदा नहीं है और बिन पेंदे के पात्र में भला कभी कुछ ठहर सकता है ? वह तो रीता ही रहता है । ऐसे व्यक्ति को सोने और चांदी की दो-चार तिजोरियां ही नहीं, दो-चार कैलाश पर्वत भी मिल जाए तो वो सोनाचांदी भी उसके लिए कम है ।
मनुष्य का मन कभी नहीं भरता । असीम अपरितृप्त रहता है । एक हजार रुपए कमाने वाला तीन हजार रुपए की इच्छा करता है । साइकिल पर चलने वाला स्कूटर की चाह रखता है, स्कूटर वाला कार की । यह संसार तो क्षितिज तक ही नजर आता है लेकिन एक क्षितिज के पास जाओ तो वहाँ से दूसरा क्षितिज नजर आने लगेगा | एक इच्छा पूरी हुई तो दूसरी पैदा हो जाती है । पहले इच्छा होती है कि शादी हो जाए, फिर बच्चे और उसके बाद उनकी शादी की तमन्ना, इसके बाद पोते-पोतियां देखना चाहता है आदमी ।
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