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वह अंधा आपका मित्र, गुरु, संत कोई भी हो सकता है । इसलिए खोज लाजिमी है |
यदि आपको विश्वास नहीं है कि आप जिसके नक्शे कदम पर चल रहे हैं, उसने सत्य को पाया है या नहीं, तो बेहतर यह होगा कि आप जो कुछ करें, पहले उसे जान लें । ज्ञात सत्य का आचरण और आचरण का ज्ञात सत्य, दोनों जरूरी हैं ।
आपने जिसे जान लिया है, वह करो और जो कर रहे हो, उसे पहले जानो । आपने जान लिया मगर उसे जीवन में नहीं जिया तो वह 'जानना' अर्थहीन रहेगा । और किया मगर जाना नहीं तो
अधूरे ही रहोगे । हम जानें और जियें । देखें और सोचें । यह सोचना ही खोज है । दर्शन के बाद जो चिन्तन होगा, जो मनन होगा, वही हमारी चेतना में रूपान्तरण घटित करेगा, वह मनन हमें मनुष्य बनाएगा, जीवन का कायाकल्प करने में सहायक होगा । तुम जितना जगत् को देखोगे, जीवन की गहराई में जियोगे, तुम्हारी खोज उतनी ही गतिमान् होगी । तुम सत्य के उतने ही करीब पहुँचोगे । मनुष्य, मनुष्य होकर अगर अस्तित्व को उपलब्ध न हो पाया, तो प्रभु नहीं, पशु की भूमिका में ही जी जाएगा । मेरे देखे, मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो खोज कर सकता है, सत्य की खोज उसी के बस का काम हैं । जीवन भी सत्य है और जगत् भी, पर इस सत्य की अन्तरात्मा का स्पर्श कर लेना न केवल हमारा आध्यात्मिक पहलू है, अपितु वैज्ञानिक पहलू भी है ।
जीवन तो वनस्पति में भी होता है, जानवर में भी होता है । जीवन मनुष्य में भी होता है । मनुष्य का ज्यों-ज्यों मनोवैज्ञानिक विकास होता जाएगा, वैसे ही जीवन में खोज की संभावनाएँ भी
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