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'तो भाई, तीन साल तो लगेंगे, इससे कम नहीं हो सकता ।' गुरु ने अन्तिम सीमा तय कर दी ।
'मुझे मंजूर है ।' अन्ततः सम्राट राजी हो गया ।
और सम्राट गुरु की कुटिया में रहने लगा। गुरु ने उससे कहा कि मैं क्या सिखाता हूं, कैसे सिखाता हूं, इस पर कोई टिप्पणी नहीं करनी होगी। जो काम मैं दूंगा, वो चुपचाप करते चले जाना । सम्राट ने मंजूर कर लिया ।
गुरु ने सम्राट से कहा कि रोज सुबह-शाम मेरे लिए खाना बनायो । अब सम्राट लगा चूल्हा फूंकने । 'आये थे हरिभजन को, प्रोटन लगे कपास ।' एक दिन गुरु ने कहा कि आज से तुम खाना बनाने से पहले जंगल जाकर लकड़ियाँ लाओगे । तीन माह बीत गए । एक दिन गुरु ने पानी भरने की जिम्मेदारी भी सौंप दी। दो वर्ष बीत गए । सम्राट परेशान कि यह कैसा गुरु है जो समाधि नहीं सिखा रहा । रोटियाँ बनवाता है, पानी भरवाता है । फिर भी वह चुपचाप यह काम करता रहा ।
एक दिन गुरु सम्राट के कमरे में गया और एक लाठी का वार उसकी पीठ पर किया । वह असावधान था, इसलिए भौंचक्क रह गया । ये क्या गुरु है ? समाधि देना तो दूर रहा, लठ्ठ और मारता है । लेकिन तीन साल का वादा किया था इसलिए चुप रहा। करीब एक पखवाड़ा बीत गया । सोलहवें दिन जैसे ही गुरु ने लठ्ठ मारना चाहा, सम्राट ने हाथ से रोक दिया। गुरु हंसा और वापस चला गया। एक बार गुरु प्राधी रात को पाया और लठू मारा। अब सम्राट की रातों की नींद हराम । वह तो परेशान हो गया। अब रात्रि में नींद के दौरान भी वह सजग रहने लगा। इधर गुरु के कदमों की आहट सुनी, उधर उसकी आँख खुली।
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