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वरन् व्यक्तियों का
वह कुछ लोगों के
हम केवल वस्तुओं का परिग्रह नहीं करते, भी करते हैं । आदमी सोचता है, ये मेरा मित्र । बीच अपना जीवन गुजार देता है । अरे, सौ करोड़ लोग हैं, उनसे भी तो मैत्री - संबंध जोड़े जा सकते हैं । आदमी के लिए विश्व कोई विश्व नहीं है । सामाजिकता कोई सामाजिकता नहीं है । उसका समाज सौ लोगों का है । कमाना प्राजीविका भी इतने ही लोगों के मध्य है । मूल बात है आदमी की भावना | आदमी कहता है - मैं इसका मालिक | कौन, किसका मालिक ? कोई आदमी गरीब है और नौकरी करता है तो सेठ कहता है, हम इसके मालिक ! कभी पासा पलटे तो सेठ नौकरी करता नजर आए !
कौन किसका मालिक ! सब में वही आत्मा है । उसी परमेश्वर का अंश है । " अप्पा सो परमप्पा" तो फिर कौन किसका मालिक ? ठीक है, भाग्य का मारा है, इसलिए गरीब है । वह अपनी सेवाएं देता है, इसका अर्थ यह नहीं है कि हमारा गुलाम हो गया । और ये बड़ी अजीब बात है कि प्रादमी लाख रुपये का दान दे देगा लेकिन अपने नौकरों से अच्छा व्यवहार नहीं करेगा । यों तो लाखों रुपए का दान करोगे लेकिन नौकर बीमार पड़ गया और कुछ देरी से आया तो उससे हजार सवाल-जवाब करोगे । फिर मानवता कहां रही ? करुणा कहां रही ? सच में तो एक बकरी, गाय और व्यक्ति के प्रति वही करुणा कर सकता है जो पहली करुणा अपने नौकर के प्रति करता है ।
करुणा-धर्म की शुरुआत अपने नौकर के प्रति सहृदय होकर की जा सकती है । असली सेठ वही है जो अपने नौकर को भी अपने समान सेठ बना दे । भगवान वो नहीं है जो भक्त को हमेशा भक्त बनाए रखे । असली भगवान तो वो है जो भक्त को भी अपने
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