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में हुं ही नही। मुझ पर उस खटपट का असर ही नहीं होता। मेरे मन में एक बात घर कर गई है कि मेरे पिताजी कमाते-कमाते मर गए। जो कुछ बटोरा, वो छोड़कर चले गए। अब मैं सोचता हूं कि फिर मैं क्यों कुछ पोछे छोड़कर जाऊं । मैं जितना कमाता हूं, जरूरत के खर्च के अलावा दान कर देता हूं। जरूरतमंद तक पहुंचा देता हूं।
आप ऐसा न भी करें तो चलेगा । एक प्रण करें कि महीने में एक दिन जिस भाव लाया, उसी भाव माल बेचूंगा। लाभ न कमाऊंगा? यह एक महान सेवा होगी। अपरिग्रह का आचरण होगा। दीपावली पर आप घर में रंग-रोगन करवाते हैं। इस बार दीपावली पर एक संकल्प करिये कि जो सामान पूरे साल उपयोग में आया उसे किसी जरूरतमंद को दे देंगे। एक साल नहीं तो तीन साल तय कर लीजिये । यह अपने आप में अपरिग्रह का आचरण होगा।
महावीर ने कहा-मुच्छा परिग्गहो । महावीर की दृष्टि में मूर्छा ही परिग्रह है और अमूर्छा ही अपरिग्रह । किसी वस्तु को रखने या रखने से परिग्रह नहीं होता न वस्तु के प्रति रहने वाली पकड़ से ही परिग्रह-अपरिग्रह होता है । यह मेरा, यह तुम्हारा, यही परिग्रह है । परिग्रह का अर्थ है मेरे का आरोपण, मालकियत की भावना । मैं दूसरे का मालिक बनू। दूसरे का मालिक वही बनना चाहता है, जो खुद अपना मालिक नहीं बन सकता । पति अपनी पत्नी का मालिक बनना चाहता है। पिता अपने पुत्र का मालिक बनना चाहता है। गुरु अपने शिष्य का मालिक बनना चाहता है। पत्नी, पुत्र, शिष्य सब परिग्रह बन गए।
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