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जिस तरह मृत्यु का कोई रूप नहीं होता, वह कब, कहां, कैसे और किस रूप में सामने आ जाती है, इसका पता नहीं चलता । ठीक उसी तरह समय है। शेरों से लड़ने वाला हाथी चींटी से चित हो जाता है।
समय बदलता है और इतनी तेजी से बदलता है कि आदमी हतप्रभ रह जाता है। एक आदमी छत की मुडेर पर खड़ा मूछों को ताव दे रहा है। मन में विचार कर रहा है कि मेरे जितना बलशाली और कोई नहीं है । उसी क्षण हवा चलती है और एक तिनका उसकी आंख में अटक जाता है। बस, उसकी सारी बहादुरी हवा हो जाती है। वह तिलमिलाने लगता है। जब एक मामूली तिनका समय का सहारा लेकर आदमी को उसकी औकात दिखा सकता है तो आदमी को किस बात का गुमान ? उपलब्धियों का कैसा गुरूर ? औरों की कैसी उपेक्षा ? समय सबका एक जैसा नहीं रहता। इसलिए न तो उपलब्धियों का अभिमान हो और न ही छोटों की उपेक्षा।
जिन लोगों को मैंने कल तारीफ करते सुना, आज उन्हीं से बदनामी के चर्चे सुनने को मिले । कल न जाने फिर क्या रंग बदलेगा। सब समय का खेल है। कब कौन आकर साथ निभा जाता है और कब साथ निभाने वाला दूर जा खड़ा होता है, कुछ नहीं कहा जा सकता। सुधरने का समय आता है तो दूर का आदमी पाकर संभाल जाता है और जब बिगड़ने की बारी आती है तो घर वाले ही उसका सत्यानाश कर देते हैं। अपने ही दगा दे जाते हैं । सच तो यह है कि इस दुनिया में दुश्मनों से जितना खतरा नहीं है, उससे अधिक खतरा अपनों से है।
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