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हमने मात्र इतना ही समझा कि जो गृहस्थ में रहता है वह परिग्रही है और जो साधु-संन्यासी हो गया, वह अपरिग्रही । अगर आप इसे ही परिग्रह और अपरिग्रह की परिभाषा समझते हैं तो आप गलती कर रहे हैं । मैंने तो ऐसे-ऐसे गृहस्थ देखे हैं जो सिर्फ एक अंगोछा पहनकर बारह महीने निकालते हैं और ऐसे साधु भी देखे हैं जिनके पास चीवरों, कपड़ों और पातरों से अलमारियां भरी हैं ।
जो जितना बड़ा साधु. उतना ही बड़ा परिग्रह । एक तरह का परिग्रह हो तो सोचा जाए । उनके परिग्रह तो अनेक तरह के हैं । पातरों की बात करें तो गृहस्थ के पास एक अलमारी पात्र होंगे, लेकिन मैंने ऐसे साधु देखे हैं जिनके पास इतने वस्त्र हैं कि किसी महिला के पास भी न होंगे। अब तक यही विरोधाभास चल रहा है लोग समझते रहे कि गृहस्थ परिग्रही और साधु अपरिग्रही ।
मूल बात यह है कि महावीर ने कभी वस्तु को परिग्रह नहीं कहा । वस्तु को परिग्रह समझोगे तो कितना त्याग करोगे। लोग नग्न मुनि हो जाते हैं। कपड़े त्याग देते हैं। ऐसे लोग कहेंगे कि नारी इसलिए मुक्ति नहीं पा सकती, क्योंकि वह निर्वस्त्र नहीं हो सकती। हमने मुक्ति के सारे आधार और दारोमदार को वस्त्रों पर डाल दिया । वस्त्र उतारें, तभी वीतरागी-अपरिग्रही बन पायोगे । जो लोग वस्त्रों के परिग्रह को ही परिग्रह मानते हैं उनसे मेरा कहना है कि आत्मा के लिए तो शरीर भी परिग्रह है। हमारे शास्त्र, किताबें, मंदिर, मन, मानसिकता, सभी तो परिग्रह हैं।
___ जब हम वस्तुओं के परिग्रह पर अंकुश लगाना चाहते हैं तो फिर विचारों पर भी अपरिग्रह की कैंची चलानी चाहिए । व्यक्ति की महत्वाकांक्षा रहती है कि 'मैं इतना बटोरू', दूसरा कहता है- 'मैं
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