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पूजा पहला चरण है । समर्पण से शुरूआत करोगे तभी उपलब्धियां तुम्हारे कदम चूमेगी । अन्तिम उपलब्धि तब होगी जब तुम्हारी पूजा ही समर्पण बन जाएगी । तब पूजा तुमसे नहीं होगी, वरन् तुम ही पूजा बन जाओगे । तुम, तब तुम न रहोगे। तुम पूजा के पर्याय होगे । मेरे देखे, सद्गुरु का काम यही है कि वह व्यक्ति के भीतर उस ज्योति को जगा दे, जो खुद उसके भीतर जगी हुई है । असली गुरु वही है जो खुद में जगी ज्योति औरों में भी प्रकट कर दे । गुरु यानी जो अन्धकार दूर करे ।
सच्चा गुरु कभी नहीं सोचेगा कि शिष्यों की संख्या बढ़ाऊँ, भीड़ एकत्र करू । शिष्य की तमन्ना रखने वाले और शिष्य को अपने जैसा बना लेने वाले में काफी फर्क है । अगर महावीर को भी केवल शिष्य ही बनाने होते तो और उन्हें शिष्य ही बनाकर रखना होता तो वे कभी नहीं कहते - गौतम ! परमात्मा का राग भी एक राग ही है, तुम्हें तो इस राग से भी पार चलना है ।
इसलिए गुरु पूर्णिमा पर मैं यह संकेत दे रहा हूं कि अहंकार रूपी अन्धकार जब तक तुम्हारे सामने रहेगा, सद्गुरु तक पहुंचने के सारे द्वार बन्द मिलेंगे । जिस दिन अहंकार का अन्धकार हट गया, आदमी का चित्त विनम्र हो गया तो समझो गुरु तक जाने का मार्ग प्रशस्त हो गया । वह अहोभाव का स्वामी हो गया ।
व्यक्ति की एक सबसे बड़ी दुविधा यह है कि उसे अपना अहंकार समाप्त करना आसान नहीं लगता । वह गुरु के पास जाता है, उसके चरणों में शीश भी झुका देता है लेकिन भीतर का अहंकार जिन्दा रखता है । आप गुरु के पास कुछ पाने जाते हैं । पाने की पहली शर्त ही विनम्र होना है। जब तक अहंकार नहीं जाएगा, आप कोरे ही रहेंगे, गुरु का रंग प्राप पर नहीं चढ़ पाएगा ।
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