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पहले बंजारे के मजे हो गए। गदहा तो मरने के बाद उसे ज्यादा कमाई का रास्ता बता गया। उसने तो गांव-गांव घूमना छोड़कर वहीं ठिकाना बना लिया। धीरे-धीरे वहाँ अच्छा धार्मिक स्थान बन गया। धर्मशाला बन गई । राहगीर ठहरते । समाधि पर दो रुपये चढ़ाते और विश्राम के बाद गंतव्य की ओर निकल पड़ते।
एक दिन वही संत वहाँ से गुजरा तो उसने अपने शिष्य को पहचान लिया। उसने पूछा- यह क्या गोरख धंधा है ? बंजारे ने कहा, गुरुजी आपसे क्या छिपाना । आपने जो गदहा दिया था, यह उसकी कब्र है । आज तक किसी ने नहीं पूछा कि यह किसकी कब्र है, लोग आते हैं, भेंट चढ़ाते हैं और चले जाते हैं ।
संत ने जोरदार कहकहा लगाया। थोड़ी देर बाद जब उसकी हँसी थमी तो उसने कहा-'यह दूसरी बार हुआ है। मैं जहाँ बैठता हूँ, वहाँ जो समाधि है, वह इस गदहे की माँ की कब्र है।
लोग तो अंधानुकरण करते हैं, प्रात्म-अनुसंधान कोई नहीं करता। आप गदहे नहीं हैं, आप इंसान हैं । विडम्बना की बात यह है कि आज का इंसान अपनी इंसानियत को भूल चुका है। वह गदहे की हरकतें कर रहा है। एक इंसान गदहे की ही भांति बोझ लादे घर से दूकान, दुकान से घर चक्कर लगाते-लगाते जिन्दगी पूरी कर लेता है। ऐसे में विचार आता है कि आदमी और गदहे में कहाँ फर्क है।
___मैं नहीं चाहता कि आप इंसान होकर गदहे का जीवन जीयें । इंसान में इंसान की खोज ही इंसानियत को अपने भीतर पैदा करने का पहला सबक है । इंसानियत को पैदा करना ही स्वयं का ईश्वर से साक्षात्कार है । जिस दिन इंसान के भीतर का जानवर मर जाएगा
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