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जीवन का अपना एक विज्ञान है । विज्ञान हमेशा सार्वजनिक होता है । विज्ञान की भाषा में जिसे प्रयोग कहते हैं, अध्यात्म की भाषा में उसे अनुभव कहते हैं । जब तक कोई चीज प्रयोग में खरी नहीं उतरती, वैज्ञानिक उसे नहीं मानते । इसी तरह जब तक कोई चीज अनुभव की कसौटी पर खरी नहीं उतरती तब तक एक आत्ममनीषी यह नहीं मानेगा कि यह चीज आविष्कृत हो चुकी है ।
आप सामान्य आदमी हैं, आपकी खोज अधिक सार्थक होगी। आदमी चल सकता है, स्वयं सक्रिय हो सकता है । इसलिए वह खोज भी कर सकता है । पेड़ में भी जान होती है लेकिन वो सक्रिय नहीं हो सकता। जानवर भी खोजी है, लेकिन मनुष्य की खोज उससे भी आगे होती है । जानवर की खोज पेट से आगे नहीं जाती। उसे शिकार मिल गया तो समझो उसकी खोज भी समाप्त हो गई । आदमी चूकि जानवर नहीं है इसलिए उसे यदि किसी चीज की उपलब्धि नहीं हुई तो वह परिश्रम करेगा, उसे खोजेगा ।
खोज की संभावनाएँ अनन्त हैं।
डार्विन ने मनुष्य के विकास के सम्बन्ध में खोज की, मगर वे कई मायनों में मनुष्य पर लागू न हो सकी। उसका सिद्धांत 'विकासवाद' का है। मनुष्य का विकास नहीं होता, वह खुद अपना विकास करता है । वनस्पति का विकास होता है। होने और करने में अन्तर है। होना स्वभाव है, करना क्रांति है । विकास प्रकृति का होता है, मनुष्य अपना विकास स्वयं करता है । आपने कभी कौव्वे को नहाते देखा है ? जो है, ठीक है । मनुष्य ने इसे बदला है । जैसा है, उसे वैसा नहीं रहने दिया । यह प्रकृति पर मनुष्य की विजय है।
खोज तो जारी रहती है । महावीर के जीवन की खास बात यह है कि उन्होंने सोच लिया कि जंगल में जंगल के स्वभाव से रहेंगे ।
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