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सकता है । तुम जैसे स्वयं हो, वैसे ही बन सकते हो। दूसरा महावीर नहीं बन सकते । हम जैसे हैं, वैसे ही बनने का प्रयास करें, मुखौटा चढ़ाने से बचें। महावीर कहते हैं कि मेरे मार्ग पर चलना है तो जागरूकता पैदा करो। ध्यान, होश और संबोधि पाओ। मैने स्वयं को आत्मसात् किया है इसी जागरूकता और ध्यान के माध्यम से । इस मार्ग में बेहोशी का क्या काम ?
महावीर का मार्ग तो जिनत्व का मार्ग है। अपने आपको जीतने का मार्ग है । वह जैनत्व का नहीं, जिनत्व का मार्ग है। अनुशासन का नहीं, आत्मशासन और आत्म-विजय का मार्ग है। यह अरिहंत का मार्ग है और अरिहन्त तो खुद को ही होना होता है । इसलिए जब मन्दिर जाते हो और वहां भगवान की पूजा करते हो तो इसका मतलब यह होता है कि उनके गुणों को हम अपने में प्रात्मसात् कर पाएं। भगवान ने किस तरह अपने आप को जीता। उन्हीं तरीकों से हमें अपने आपको जीतना होगा। स्वयं को अपराजेय करना होगा।
मन्दिर में रखी मूर्ति का आलंबन इसलिए है ताकि हमें अपने अरिहंत स्वरूप की याद आ जाए। हमारा. कोई भी कदम हो. आत्म-विजयी जागरूकता के साथ हो । बैठो तो सोये-सोये मत बैठना। जाग्रत बैठना । बोलो तो भी जाग्रत रहना । सोमो तो भी जागे रहना। इसका मतलब यह नहीं है कि तुम अपनी आँखें खोलकर सोना । सोप्रो तो भी अपना बोध मत खोना। स्वयं को सदा कायम रखना। बाहर भी और भीतर भी। चेतन में भी और अवचेतन में भी। जब अवचेतन में, सुषुप्ति में भी स्वयं का बोध कायम रहे, तो यही सम्बोधि है स्वयं का बोध, सम्यक् बोध । सोये-सोये ही अपने 'फूल' को मत मुरझा देना। जीवन का यह फूल बड़ी मुश्किल से और एक
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