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सिद्ध वह है जिसने अपनी ज्योति को जगाया और वह ज्योति अनंत ज्योति में समा गई लेकिन सद्गुरु वह है जिसने पहले अपने भीतर ज्योति जलाई और बाद में दूसरों की ज्योति जलाने में जुट गया । सिद्ध तो पाकर चले जाते हैं, लेकिन गुरु पाकर बांटने में लग जाता है | वास्तविक प्रभावना भी यही है कि जब व्यक्ति को कुछ मिले और वह उसे बांटने में जुट जाए ।
कार्ल गुस्ताव जुंग ने एक सिद्धान्त दिया 'सिन क्रोनिसिटी' | उसकी मूल भावना यही है कि जिस व्यक्ति के भीतर की वीणा झंकृत हो गई, तुम उसके पास जाकर बैठो। तुम देखोगे कि तुम्हारी अंगुलियां अपने आप चलने लगेगी। किसी ने कुछ नहीं कहा, लेकिन तुम गाने लगोगे, झूमने लगोगे, तुम्हारे पांव थिरकने लगेंगे, प्रानन्द घटित होने लगेगा | सद्गुरु की असली पहचान यही है कि जिसके पास जाने से तुम्हारे भीतर कुछ घटित होता सा लगे । बिना कहे तुममें कथ्य प्रगट हो जाये । बिना बताये सत्य साकार हो जाये ।
मुनि या साधु हो जाना सद्गुरु होना नहीं है । प्रवचन तो एक पण्डित भी दे देगा, लेकिन सद्गुरु कोई पण्डित नहीं है । शास्त्रार्थ नहीं है । सद्गुरु वह है जो अपने आपको जान गया । अपने आप में जी रहा है । अगर कहने वाला स्वयं ही कही गई बात के प्रति प्राश्वस्त नहीं है तो उस बात को कहने का अर्थ ही क्या है ? प्रवचन करने वाला 'ज्ञाता' नहीं है, तो वह प्रवचन अर्थहीन है । ऐसा प्रवचनकार तो एक माध्यम है जो किताब का पन्ना पढ़कर आपको सुना रहा है, वह खुद किताब बने तभी उसकी सार्थकता है ।
किताबों में लिखे शब्द तब तक 'शब्द' ही रहेंगे, जब तक व्यक्ति उन्हें अपने आचरण में नहीं उतारेगा । शब्दों को प्राचरण में
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