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कल वल्लतोल की लिखी एक कहानी पढ़ रहा था। एक तीर्थ था ऊँचे पहाड़ों पर। हजारों यात्री उस तीर्थ में आते थे । जान जोखिम में डालकर भी आते । मूर्ति ने जब यह देखा, तो गर्व में अकड़ गयी। अपने-आप से बोली कि पत्थर कहकर अपमानित करने वाली इस मानव-जाति का दिमाग मैंने ही दुरुस्त किया है। मेरी पूजा के बगैर इस जाति का कोई उद्धार नहीं है ।
मूर्ति अभी ऐसा सोच ही रही थी कि तभी उसने सुना-मूर्ख, तू मूर्ति नहीं, पत्थर-की-पत्थर रही। इंसान तुम्हें यहाँ पूजने के लिए नहीं आता। वह तो पाता है भीतर के सत्य को पूजने । करीब के सत्य को दूर जाकर पूजने की इसकी पुरानी आदत रही है।
दूर जाकर पूजने की आदत !
मनुष्य का मन दो तरह का होता है। एक तो 'यात्रालु' होता है जबकि दूसरा 'ध्यानी' होता है। यात्रालु मन परमात्मा को बाहर ढुंढता है और ध्यानी मन भीतर ढ़ढता है। यात्रालु मन इधर-उधर जाएगा। कभी पहाड़ पर तो कभी जंगल में, उसकी यात्रा समाप्त ही नहीं होगी। दूसरी ओर जिनके मन में ध्यान और जप का प्रभाव है, वे अपने भीतर ही उसे तलाशेंगे ।
परमात्म-स्वरूप तो तुम खुद हो। बोध के रूपान्तरण की जरूरत है, हमें उसके दर्शन हो जाएंगे। व्यक्ति माला फेरता है और परमात्मा को पाना चाहता है, लेकिन परमात्मा उससे दूर है ही कहां? हमें किसी की याद तभी आती है जब वो हमारे पास नहीं होता। आपकी पत्नी आपके पास रहती है तो क्या आपको उसकी याद आती है ? वही पत्नी कुछ दिन के लिए मायके चली जाए तो आपकी नींद हराम हो जाती है। उसकी याद सताने लगती है ।
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