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ज्ञान, चेतना के परिवर्तन के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कदम है। तुम ज्ञानी होकर, पंडित होकर अपने को उतना उपलब्ध नहीं कर पात्रोगे, जितना अपने अज्ञान को पहचान कर उपलब्ध हो सकते हो | तुम किताबों, ग्रन्थों और शास्त्रों को पढ़कर मार्गदर्शन प्राप्त कर सकते हो, पांडित्य का तिलक कर सकते हो, पर तुम्हारे लिए उन किताबों का अर्थ और अभिप्राय उस दिन होगा, जब तुम उनसे, उनके ज्ञान से अपने अज्ञान को पहचान लोगे । तब एक सरलता स्वयं में घटित होगी, एक ऐसी सरलता जो 'मैं- शून्य' हो ।
एक बार बहुत से लोग एकत्र होकर सुकरात के पास पहुँचे और उनसे कहने लगे कि आप ज्ञानी हैं । सुकरात कुछ देर चुप रहे । बाद में बोले – 'आज से दो साल पहले तक मैं भी यही समझता था, मगर जब से मैंने अपने अज्ञान को पहचाना है, उसी दिन से मैंने जान लिया है कि दुनिया में मेरे जैसा प्रज्ञानी कोई नहीं है । 'मेरा ज्ञान मेरी मूर्खता और मूढ़ता पर व्यंग्य है ।'
मैं भी आपको कोई ज्ञान नहीं दे रहा हूँ। मैं आपको आपके भीतर के अज्ञान की पहचान करवा रहा हूँ। मैं चाहता हूँ कि आप उस अज्ञान में से ही ज्ञान की खोज प्रारम्भ करें। तभी ग्राप खुद जान पाएँगे कि ज्ञान और सत्य का तत्त्व-बोध क्या है । अंधानुकरण में मेरा विश्वास नहीं है । अगर अंधानुकरण ही ज्ञान प्राप्ति का मार्ग होता तो महावीर कभी तीर्थंकर नहीं बन पाते । वे भी पार्श्वनाथ के मार्ग पर चलते । लेकिन उन्होंने अपना मार्ग अलग चुना ।
हमें खोजना है | सबका ज्ञान अलग-अलग होता है । कृष्ण ने कहा कि तुम ईश्वर के अंश हो । इसके विपरीत महावीर ने कहा कि तुम किसी के अंश नहीं हो, अपने आप में एक स्वतंत्र आत्मा हो । सत्य हो, नित्य हो, सनातन हो । अपने को आत्मा मानो ।
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