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यह सूचना पहुंची तो तहलका मच गया कि अंगुलिमाल संन्यासी हो गया, भिक्षु हो गहा ।
___ दोपहर के बारह बजे, तो अंगुलिमाल ने कहा- भंते ! आहार के लिए जाऊं ?' बुद्ध ने कहा कि जानो, लेकिन ध्यान रखना, ये तुम्हारी आहार चर्या नहीं, तुम्हारे पापों की प्रक्षालन-चर्या होगी। स्थित प्रज्ञ होकर जानो। ठीक वैसे ही जागो, जैसे मैं तुम्हारे सामने आया था। ऐसे गए तो जीत जाओगे, अन्यथा परास्त तो तुम हो ही।
अंगुलिमाल शहर की गलियों में आहार के लिए निकला । वह हाथ में पात्र लेकर, सिर झुकाए जा रहा था। लोग एकत्र होने लगे । किसी ने एक पत्थर मारा और फिर तो जैसे पत्थरों की बौछार होने लगी। वह लहुलूहान होकर नीचे गिर पड़ा। उसके चेहरे पर लहू बहने लगा। कुछ देर बाद उसके माथे पर एक हाथ आया । उसने देखा कि बुद्ध उसका सिर सहला रहे हैं।
बुद्ध ने उससे पूछा- 'वत्स ! इस समय तुम्हारे मन में क्या भाव जन्म ले रहे हैं, तुम्हारी भाव-दशा कैसी है ?' वह बोला--'प्रभु,
आप पूछते हैं ? इस समय मेरे मन में महान करुणा जन्म ले रही है। क्षमा का भाव आ रहा है कि ये लोग कितने धन्य हैं। मैंने उम्र भर पाप बटोरे, लेकिन ये लोग मेरे पाप धोने में मेरी मदद कर रहे हैं। ये सभी मेरे कितने शुभ चिंतक है। मेरे मन में इनके प्रति करुणा उमड़ रही है ।' बुद्ध की प्रांखें भींग उठी। उनकी प्रांखों से दो आंसू निकलकर अंगुलिमाल के सिर पर गिरे । अंगुलिमाल ने कहा 'बस ! मैं धन्य हो गया। अाज अापके अश्रु मेरे सिर पर गिरे, इससे बड़ा मेरा सौभाग्य और क्या होगा ?
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