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________________ बुद्ध ने कहा--'वत्स ! तुमने भले ही जिन्दगी भर पाप किये, लेकिन वे बेहोशी में किए गए कृत्य थे। होश में किया गया एक पुण्य भी आदमी के पापों को भस्म कर देता है। तुम्हारी मृत्यु, मृत्यु नहीं है। वह तो निर्वाण का महोत्सव है। तुम डाकू होकर नहीं मर रहे हो, तुम भिक्षु होकर मर रहे हो । स्वयं अरिहंत होकर जा रहे हो और जो भी अरिहंत होकर जाता है, जैनी कहते हैं - णमो अरिहंताणं, उस प्रारहंत को प्रणाम । यह एक जातक कथा है और यह संदेश देती है कि आदमी जब भी जागे, सवेरा है। जब आंख खुली तभी प्रभात है। अांख ही बन्द होगी तो सवेरा कैसे देख पायोगे ? भोर तो रोज होती है, अगर हमारी आंखें ही बन्द हैं तो सूर्य की किरणें हमें नजर कैसे आएंगी? दोष सूर्य का नहीं, हमारी आंखों का है। परमात्मा के फूल तो आकाश से निरन्तर झर रहे हैं, हमारा प्रांचल ही छोटा है तो इसमें आकाश का क्या दोष ? आदमी चाहता है कि बदल जाऊं, लेकिन उसके कृत्य इससे विपरीत होते हैं। वह जीवन में रूपान्तरण भी चाहता है और इसके लिए प्रयास भी नहीं करता। दोनों बातें कैसे संभव है । आनन्द हमारा स्वभाव हो सकता है। हमारी झोली में खुशियां आ सकती है लेकिन इसके लिए हमें अांचल को फैलाना तो पड़ेगा। हमें अपने घट का ढक्कन तो खोलना ही होगा। अहंकार को सर्वकार में बदलना होगा। नदिया तो बह रही है। हमारे प्रागे से पानी बहता चला जा रहा है। हम इस पानी में अपनी अंजुरी नहीं डालेंगे तो यह संभव ही नहीं है कि पानी अपने आप हमारी अंजुरी में आ जाए । नदी तो जहां है, वहीं बहती रहेगी। हमें ही नदी की ओर झुकना ( ११२ ) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003889
Book TitleSamay ki Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1995
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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