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उल्टे चलना है, बहना नहीं वरन् तैरना है। साधना मूल उत्स की ओर बढ़ने और तैरने का ही उपनाम है ।
एक मार्ग राम-कृष्ण का है, सूरदास का है, दूसरा बुद्ध, महावीर और पंतजलि का है। रामकृष्ण परमहंस कहते हैं - मां, मुझे तो बेहोशी चाहिए । तुम्हारे चरणों का सहारा चाहिए । यह मार्ग मीरा, चैतन्य महाप्रभु का है । भक्ति का मार्ग है। इस मार्ग में ही अहोभाव उत्पन्न होता है, जब परमात्मा हमारे में स्वयं में साकार होने लगता है। इसके साथ ही हमारे पाँव खुद-ब-खुद थिरकने लगते हैं। बिना घुघरू ही छनक पैदा होने लगी है। प्रेम की झील में हमारा मानस अपने आप तैरने लगता है। स्पर्शातीत के स्पर्श से पुलकित होने लगता है।
आदमी मंदिर जाता है। पांच मिनट मूर्ति के आगे खड़ा होकर वापस चला पाता है। इससे काम नहीं चलेगा। परमात्मा के प्रति समर्पित होना है तो मीरा बनना पड़ेगा । मीरा की भावना से ही प्रभु अपने में विलीन कर लेते हैं। तब पत्थर की प्रतिमा में भी भगवान प्रकट हो जाते हैं। मीरा जहर का प्याला पी लेती है।
एक नारी महलों का राज-पाट छोड़कर कृष्ण के प्रेम में दीवानी हो जाती है तो सोचिएगा, उस नारी में कितना अहोभाव जाग्रत हो गया होगा । कितना परम प्रसाद होगा उस अमर आत्मा के लिए। ऐसे लोगों को ही परमात्मा मिलते हैं। और इतना ही नहीं, ऐसे लोग स्वयं परमात्मा हो जाते हैं। परमात्मा ऐसे ही लोगों में जीते हैं। दुनिया की नजरों में यह भले ही पागलपन या दीवानापन हो लेकिन वह 'पागल' जानता है कि यह पागलपन नहीं, परमात्मा द्वारा पिलाया गया अमृत है ।
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