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अब उसे परमात्मा के श्रीचरणों की ही जरूरत थी। दुनिया को उसने खूब देख लिया था।
मैं भी यही आश्वासन देना चाहता हूं कि जब कोई करने वाला न बचे, सब तरफ से निराश हो जाओ तो मेरे पास चले आना । ये हाथ बहुत कुछ करने को तत्पर रहेंगे। सारी मानव जाति के उद्धार को तैयार मिलेंगे। प्रेम, मैत्री बंधुत्व का संसार है । भीतर का सारा मवाद निकल जाएगा ।
मेरे सामने जब भी कोई आता है तब भीतर का परमात्मभाव उमड़ने लगता है। तब मैं उसे नमस्कार करने लगता हैं । कई लोगों को यह अखरता है। स्वाभाविक है। व्यक्ति का सम्यक दर्शन जितना निर्मल होता जाएगा, उसके प्राण उतने ही विस्तार पाते चले जाएंगे। मेरे देखे परमात्मा की प्रतिमा को नमस्कार करना तभी सार्थक होगा जब हम परमात्मा के बनाए इन्सान को प्रणाम करें। अपने हाथों बनाए गए परमात्मा को प्रणाम करने की बजाय उस परमात्मा की प्रार्थना करो, जिसने हमारा निर्माण किया है।
मूर्तियों को हमने, हमारे समाज ने ही तो बनाया है मगर उस परमात्मा द्वारा बनाए गए इन्सान को प्रणाम करना, उसके आगे नत-गस्तक होना, तभी पता चलेगा। कभी उसकी भी प्रार्थना करके देखिएगा। बड़ा आनन्द मिलेगा। मनुष्य के प्रति अपने अहोभाव को जगाइएगा। उसमें चेतना होगी, जीवंतता होगी। जीवित और चैतन्य-सामीप्य प्रभुता का ही सान्निध्य है।
हमारे अन्तर्मन में जीवन के प्रति सम्मान का भाव हो । हम जीवन का आदर करें। जीवन के प्रति अहोभाव लाएं। चाहे
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