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12.0
सचित्र
श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र
ILLUSTRATED
SHRI SUSHIL KALYAN MANDIR STOTRA
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रचयिता
कल्याण-मन्दिर की साधना
SUS
।। नमामि सादरं सुशील सूरीशं ।। जन्म-वि. सं. १६७३, भाद्रपद शुक्ल द्वादशी चाणस्मा (उत्तर गुजरात)
२८-६-१९१७ माता-श्रीमती चंचलबेन मेहता पिता श्री चतुरभाई मेहता दीक्षा-प. पू. आचार्य भगवंत श्री लावण्य
सूरि जी म. सा. की शुभ निश्रा में वि. सं. १६८८, कार्तिक (मार्गशीष) कृष्णा २,
उदयपुर (राज. मेवाड़)२७-११-१९३१ गणि पदवी-वि. सं. २००७, कार्तिक (मार्गशीष) कृष्णा ६, वेरावल (गुजरात)
१-१२-१९५० पंन्यास पदवी-वि. सं. २००७, वैशाख
शुक्ल ३, अक्षय तृतीया, अहमदाबाद (गुजरात) ६-५-१६५१ उपाध्याय पद-वि. सं. २०२१ माघ शुक्ल
३, मुंडारा (राजस्थान)४-२-१९६५ आचार्य पद-वि.सं. २०२१ माघ शुक्ल ५ (बसन्त पंचमी) मुंडारा ६-२-१९६५
अलंकरण १. साहित्यरत्न, शास्त्रविशारद एवं कविभूषण-श्री
चरित्रनायक को मुंडारा में पूज्यपाद आचार्य भगवन्त श्रीमद् विजयदक्ष सूरीश्वरजी म. सा.
के वरदहस्त से अर्पित हैं। २. जैनधर्मदिवाकर-वि. सं. २०२७ में श्री
जैसलमेर तीर्थ के प्रतिष्ठा-प्रसंग पर श्री संघ
द्वारा। ३. मरुधरदेशोद्वारक-वि. सं. २०२८ में रानी
स्टेशन के प्रतिष्ठा प्रसंग पर श्रीसंघ द्वारा। ४. तीर्थप्रभावक-वि. सं. २०२६ में श्री चंवलेश्वर
तीर्थ में संघमाला के भव्य प्रसंग पर श्री केकड़ी
संघद्वारा। ५. राजस्थान-दीपक-वि. सं. २०३१ में पाली नगर
में प्रतिष्ठा प्रसंग पर श्रीसंघ द्वारा ६. शासनरत्न-वि. सं. २०३१ में जोधपुर नगर में
प्रतिष्ठा-प्रसंग पर श्रीसंघ द्वारा। ७. श्री जैन शासन शणगार-वि. सं. २०२६ मेड़ता 15 शहर में श्री अंजनशलाका प्रतिष्ठा महोत्सव के
प्रसंग पर। ८. प्रतिष्ठा शिरोमणि-वि. सं. २०५० श्री नाकोड़ा
तीर्थ में चातुर्मास के प्रसंग पर। जैन शासन शिरोमणि-वि. सं. २०५५ पाली (नेहरू नगर) प्रतिष्ठा पर
कल्याण-मन्दिर स्तोत्र आचार्य सिद्धसेन दिवाकर रचित चमत्कारी स्तोत्र है। भक्तामर स्तोत्र की भांति इसकी रचनाभी अत्यन्तचमत्कारी श्रद्धा-भक्ति के उद्रेकमय क्षणों में हुई है। वर्षभरके लिए निरन्तरजप करना हो, तो भगवान पार्श्वनाथ के जन्मदिन पोषवदी दशमी के दिन से प्रारम्भ करना चाहिए। उस दिन उपवास रखें, ब्रह्मचर्य से रहें। स्तोत्र का पाठ पूर्व और उत्तर दिशा की तरफ मुरव करके करना चाहिए।
कल्याण-मन्दिरका पाँचवाँकाव्य लक्ष्मी औरव्यापार के लिए; छठा सन्तान-प्राप्ति के लिए है। दसवें से सब प्रकार के भय, सतरहवें से गृह-कलह एवं पच्चीसवें से रोग-शोक दूरहोते हैं। सताईसवेंसेशत्रुशान्त हो, विजय हो। इकत्तीसवें से शुभाशुभ प्रश्न का उत्तर मिले। सैतीसवें से राजा, प्रजा और परिवार में सम्मान हो, प्रतिष्ठा बढ़े। तैतालीसवें से बन्दीरवाने से छूटे, सब प्रकार से लक्ष्मी का लाभ होता है।
स्तोत्र पाठ करते समय सदा ही अडिग आस्था और शुभ पवित्र भावना रखना चाहिए। पाठ में एकाग्र होने के लिए प्रभु स्वरूप का एवं उनके गुणों का दर्शन, चिन्तन करना चाहिए तथा धीमे श्वास-उछ्वास में मंत्र का ताल लयपूर्वक उच्चारण करते समय उन शब्दोंववर्णों परध्यान देना चाहिए जिससे मन उसी केन्द्र पर स्थिररहेगा। उच्चारण की शुद्धता, मंत्राक्षरों की शुद्धता, आसन की शुद्धता, विचारों की शुद्धता
और वातावरण की शुद्धता आदि पर पूरा ध्यान रखने से इष्ट प्राप्ति में शीघ्र सफलता मिलती है।
-आचार्य विजय जिनोत्तम सूरि.
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श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र
દિવ્ય દર્શન ટ્રસ્ટ,
रस्परोपग्रहो जीवानाम्
परस्परोपग्रहो जीवानाम्
नही
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॥ ॐ ही श्री अर्ह नमः शासन सम्राट् परम पूज्य आचार्य महाराजधिराज श्रीमद् विजय नेमि-लावण्य-दक्ष- सुशील सूरीश्वर सद्गुरूभ्यो नमः
सचित्र
आचार्य श्री सिद्धसेन दिव
विरचित
श्री कल्याण मन्दिर स्तोत्र
ILLUSTRATED SHRI KALYAN MANDIR STOTRA
संस्कृत, हिन्दी, गुजराती, अंग्रेजी ®000000000000000000000000
आचार्य श्री सुशील सूरि.
विरचित
श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र
यंत्र-मंत्र साधना विधि सहित)
SHRI SUSHIL KALYAN MANDIR STOTRA
'आचार्य श्री जिनोत्तम सूरि.
द्वारा लिखित
म सूरि.
क्षमावतार भगवान पार्श्वनाथ
(सचित्र जीवन कथा)
Main Education International 2016-02
For Private & Personal use only
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सचित्र श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र ILLUSTRATED SHRI SHUSHIL KALYAN MANDIR STOTRA
संपादक:
Conceptor, Organiser, Editor: परम पूज्य आचार्यदेव
P.P.Achrya Dev Shrimad श्रीमद् विजय जिनोत्तम सूरीश्वरजी म.सा. Vijay Jenotam Suriswarji M.S. सह-संपादक :
Co-Editor: आचार्य शम्भुदयाल पाण्डेय
Acharya Shambhudayal Pandeya संजय सुराणा
Sanjay Surana अंग्रेजी अनुवाद :
English Translation : सुरेन्द्र बोथरा
Surendra Bothra गुजराती अनुवाद :
Gujrati Translation : श्रीमती शोभा संजय शाह
Smt. Shobha Sanjay Shah प्रकाशक :
Publisher : श्री सुशील साहित्य प्रकाशन समिति
Shri Sushil-Sahitiya जोधपुर
Prakashan Samiti, Jodhpur प्रथम संस्करण : वि. सं. 2060
First Edition : V. S. 2060 ई. सन् 2004
A.D.2004 प्रतियाँ 3000
Copies : 3000 सदुपयोग मूल्य
Price
: PROPER USE विमोचन भाद्रपद शुक्ल 12, शनिवार
Inauguration : 25th. Sept. 2004 25 सितम्बर 2004
(88th Birthday of P. P. Shri Sushil Suri Ji. M. S.) (पूज्य श्री सुशील गुरुदेव का 88वाँ जन्मदिवस)
Inauguration-Place: विमोचन-स्थल : श्री जैन आराधना भवन, चेन्नई
Shree Jain Aradhana Bhawan, Chennai चित्रांकन एवं मुद्रण :
Illustration Designing & Printed by : संजय सुराणा
SANJAY SURANA श्री दिवाकर प्रकाशन, आगरा
SHREE DIWAKAR PRAKASHAN, AGRA निवेदक :- यह पुस्तक ज्ञानखाता की रकम से प्रकाशित हैं साधु-साध्वी जी एवं ज्ञान भंडारों में सादर समर्पित हैं।
जिज्ञासु सद्गृहस्थ ज्ञानखाता भंडार में 350/- रू. प्रदान कर इस ग्रंथ को निजिस्वामित्व में रख सकते हैं।।
प्राप्ति-स्थान:
श्री सुशील-साहित्य प्रकाशन समिति Clo संघवी श्री गुणदयालचंद जी भंडारी राइकाबाग, पुरानी पुलिस लाइन के पास पो. जोधपुर (राज.) दूरभाष - (0291) 2511829, 2510621. श्री दिवाकर प्रकाशन A-7, अवागढ़ हाऊस, एम.जी.रोड, अंजना सिनेमा के सामने, आगरा-282 002 दूरभाष - (0562)2151165, 3203291.
BOOKS AVAILABLE AT: SHRI SUSHIL-SAHITIYA PRAKASHAN SAMITI Clo Sanghvi Shri Gundayal Chand Ji Bhandari Rai Ka Bagh, Near Old Police Line, Jodhpur-342 001 (Raj.) Ph. : (0291) 2511829, 2510621. SHREE DIWAKAR PRAKASHAN A-7, Awagarh House, Opp. Anjna Cinema, M.G.Road, Agra-282002. Ph. :(0562)2151165, 3203291
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ऊँ ही श्री अर्ह श्री संभवनाथाय नमो नमः।
श्री विजयवाडा नगर मंडण - महाप्रभावशाली
|| श्री विमलनाथ भगवान ।।
।। श्री संभवनाथ भगवान ।।
।। श्री विमलनाथ भगवान।।
सेना नंदन सुखदायक ओ, संभव जिनवर वंदन हो, कर्मताप से दग्ध हुए जीवों के लिये तुम चन्दन हो। राजा जितारी के कुलदीपक, शुद्ध-बुद्ध और सिद्ध हुए, त्रिभुवन तिलक हे तीर्थंकर सारे जग में प्रसिद्ध हुए।।
श्री विजयवाडा नगर में गच्छाधिपति प.पू. आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी म. सा. एवं प.पू. आचार्यदेव श्रीमद् विजय जिनोत्तम सूरीश्वर जी म. सा. आदि
श्रमण-श्रमणी परिवार ठाणा-17 के वि.सं. 2059 के वर्ष में
ऐतिहासिक यशस्वी चातुर्मास की पावन स्मृति में श्री संभवनाथ जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघ
विजयवाडा (A. P.) के द्वारा ज्ञानरवाता से आर्थिक सहयोग प्राप्त हुआ है।
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आरस पाषाण में भव्य शिल्पकला
| ढाई क्रोड से भी अधिक श्री नमस्कार महामंत्र के आराधक-समता मूर्ति स्व. पूज्य मुनिराज श्री अरिहंत विजय जी म.सा.
की पावन स्मृति में निर्माणाधीन
लाज के वैभव युक्त निर्माणाधीन
श्री अरिहंत धाम
विजयवाड़ा-हैद्राबाद हाईवे रोड, NH-2, गुन्टुपल्ली - 521956
श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ जिनालय
पू. मुनि श्री अरिहंत विजय जी म.सा.
प्रेरक: परम पूज्य आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वर जी म. सा.एवं
परम पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय जिनोत्तम सूरीश्वर जी म. सा. तीर्थ निर्माण के महान आयोजन में लाभ लेकर पुण्यानुबन्धी पुण्योपार्जन करें।
विनीत : श्री संभवनाथ जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघ, विजयवाड़ा
द्वारा अनुमोदित श्री अरिहंत धाम जैन श्वेताम्बर ट्रस्ट, विजयवाड़ा Clo. SHRI SAMBHAVNATH JAIN SWETAMBER, MURTI PUJAK SANGH Jain Temple Street, Apo. : VIJAYWADA - 520 001 (A.P.) Ph. : 0866-2421031
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श्री चेन्नई नगर मंडण श्री चन्द्रप्रभु भगवान
चंदा की किरणों से शीतल, चन्द्रप्रभ स्वामी प्यारे, लक्ष्मणा रानी के हैं दुलारे, सृष्टि के तारण हारे। स्नेह सुधा बरसा के हमारे, पाप ताप को शांत करो, विषय विकारों में डूबी, इस आत्मा को उपशांत करो।।
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।। नैं ही श्री चंद्रप्रभस्वामिने नमः ।। श्री चन्द्रप्रभु जैन नया मंदिर ट्रस्ट, चेन्नई
एक अवलोकन.... श्री चंद्रप्रभु जैन नया मंदिर ट्रस्ट दक्षिण भारत के जैन ट्रस्टों में प्रमुख ट्रस्ट है। इस न्यास के लगभग २,००० सदस्य हैं। यह न्यास जालोर, सिरोही, पाली, बाडमेर (जोधपुर) आदि जिलों से एक व्यापार हेतु पधारे प्रवासी राजस्थानियों का प्रतिनिधि न्यास
'नया मंदिर' चेन्नई महानगर के प्रमुख मार्ग मिन्ट स्ट्रीट में स्थित है। सन् १८१८ में मंदिर का निर्माण हुआ था एवं सन् १९७६ में जीर्णोद्धार का खनन मुहूर्त एवं शिलान्यास प. पू. श्री विशाल विजय जी म. सा. की निश्रा में सम्पन्न हुआ था। सन् १९६४ नये मंदिर के इतिहास का स्वर्णिम वर्ष था। इसी वर्ष प. पू. आ. देव श्रीमद् विजय कलापूर्ण सूरीश्वर जी म. सा. के वरदहस्तों से
सं. २०५० माघ शुक्ला १३, दि. २४-२-१६६४ को श्री चंद्रप्रभ स्वामी श्रा चन्द्रप्रभजन नया मादर, चन्नई की ऐतिहासिक प्रतिष्ठा संपन्न हई। प्रतिष्ठा के अर्ध-वार्षिक समारोह के दिन मंदिर जी में शहर के हजारों श्रद्धालुओं की उपस्थिति के मध्य केशर-अमी की वृष्टि हुई। शहर के प्रमुख समाचार-पत्रों में यह ऐतिहासिक चमत्कार सुर्खियों में प्रकाशित हुआ। नूतन मंदिर शास्त्रोक्त आधार पर श्वेत संगमरमर से निर्मित है। इसकी ऊँचाई ८१ फीट है व इसमें स्तंभ-१२४, द्वार-२३, कलात्मक गोखले-३४, झरोखे-५, तोरण-६२ निर्मित हैं। मंदिर में सुनाभ मेघनाद मंडप, गूढ़ मंडप, रंग मंडप का निर्माण सुरम्य बन पड़ा है। कलात्मक दिग्पाल, इन्द्र एवं देवांगनाओं से सुशोभित यह मंदिर चाँदनी रात में हिम की सफेदी लिये चमकता है। जयपुर में शास्त्रोक्त पद्धति से निर्मित प्रभु प्रतिमाएँ अत्यंत ही आकर्षक हैं एवं अंजनशलाका के पश्चात् उनके निखार में कई गुणा अभिवृद्धि हुई है। मंदिर में नित्य हजारों व्यक्ति दर्शन, पूजा का लाभ लेते हैं।
न्यास के तत्त्वावधान में चलने वाली प्रमुख संस्थाओं का संक्षिप्त विवरण नीचे प्रस्तुत किया गया है
श्री चन्द्रप्रभ जैन नया मन्दिर ट्रस्ट, चेन्नई के तत्वावधान में चलने वाली प्रमुख संस्थाएं। 1.श्री जैन आराधना भवन, 351. मिन्ट स्ट्रीट, चेन्नई-600 079. फोन : 25368917,253867152. श्री प्रकाशमल कानमल समदड़िया जैन आयंबिल खाता भवन, 5 एवं 9, विनायक मुदली स्ट्रीट, चेन्नई-600079. फोन : 25291720 3. श्री क्रियाभवन,142. मिन्ट स्ट्रीट, चेन्नई-600079. फोन : 253826284.श्री जिनेन्द्र श्रीपाल भवन जैन भोजनशाला, 136, मिन्ट स्ट्रीट, चेन्नई-600079. फोन : 25291663 5. श्री चंद्रपुरी भवन, 141, अन्ना पिल्लै स्ट्रीट, चेन्नई-600 079. फोन : 25281024, 25281025 6. श्री चंदनबाला आराधना भवन, 129, मिन्ट स्ट्रीट, चेन्नई-600079. फोन : 252941787.श्री कानमल जी कृपाचन्द जी समदड़िया भवन महिला उपाश्रय, 38, वीरप्पन स्ट्रीट, चेन्नई-6000798. श्री चंद्रपुरी जिनालय, 141, अन्ना पिल्लै स्ट्रीट, चेन्नई-600079. फोन :25213024,25210025
दक्षिण भारत की धर्मनगरी श्री चेन्नई महानगर में श्री जैन आराधना भवन में श्री चंद्रप्रभुजैन मन्दिर ट्रस्टचेन्नई के तत्वावधान में प्रतिष्ठा शिरोमणि-गच्छाधिपति प.पू. आचार्य भगवंत श्रीमद विजय सशील सूरीश्वरजी म. सा. एवं प.पू. आचार्यदेव श्रीमद् विजय जिनोत्तम सूरीश्वरजी म.सा, आदि श्रमण-श्रमणी परिवार ठाणा-27 के वि.सं. 2060 वर्ष के चातुर्मास की पावन समृति में ॐ श्री चन्द्रप्रभु जैन नया मन्दिर ट्रस्ट, चेन्नई॥
द्वारा ज्ञानरवाता से सुन्दर आर्थिक सहयोग प्राप्त हुआ है।
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समपणमा
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श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र
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प्रातःस्मरणीयानां पतितपावनानां
श्री पार्श्वजिनेश्वराणाम् भक्ति-स्तुतिगुञ्जन-स्वरूपं
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श्री सुशील कल्याण मन्दिर-स्तोत्रम्
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तेषामेव करुणावरुणालयानां परम पावनानां चरणकमलयोः सादरं सविनयं समर्पयतिआचार्य विजय सुशील सूरि.
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श्री धरणेन्द्राय नमः
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श्री पद्मावत्यै नमः
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शासन सम्राट
साहित्य सम्राट
प. पू. आचार्य देवेश श्रीमद् विजय लावण्य सूरीश्वर जी म. सा.
संयम सम्राट्
'प. पू. आचार्य महाराजाधिराज श्रीमद् विजय नेमि सूरीश्वर जी म.सा.
प. पू. आचार्य प्रवर श्रीमद् विजय दक्ष सूरीश्वर जी म. सा.
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For Private &Preoraireonly.
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जैन शासन का गौरवशाली वर्तमान
प्रतिष्ठा शिरोमणि-श्री अष्टापद
जैन तीर्थ के संस्थापक
प. पू. आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वर जी म. सा.
उज्ज्वल भविष्य
सुमधुर प्रवचनकार
प. पू. आचार्यदेव श्रीमद् विजय जिनोत्तम सूरीश्वर जी म. सा.
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प्रकाशकीय
सत्साहित्य, मानव जीवन में सद्गुण सौरभ का विकास करके सृष्टि में सुरम्यता तथा सहृदयता का संचार करता है। भारतीय सन्तों की उदात्त परम्परा में स्वनामधन्य विद्वन्मूर्धन्य, प्रतिष्ठाशिरोमणि, प. पू. आचार्यदेव श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वर जी महाराज साहब का साहित्य भी सद्गुण समृद्धि के लिए निरन्तर प्रयासरत है।
ट्रस्ट मंडल,
सीमा सील
श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र, आचार्य श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वर जी महाराज साहब की एक अनुपम कृति है क्योंकि इसमें प्राचीन कल्याण मन्दिर स्तोत्र, का भक्ति सागर नूतन स्वरूप धारण कर भक्ति-भाव का अलौकिक रत्नाकर बन तरंगायित हो रहा है। साथ में प्राचीन कल्याण-मन्दिर स्तोत्र को भाविकों के हृदय में आत्मसात् करने के उद्देश्य से एक-एक श्लोक को रंगीन भावपूर्ण चित्रों के माध्यम से प्रदर्शित करने का प्रयास किया गया है।
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PERFACCHI
परम पूज्य गुरुदेव ने अपने सफल साधक जीवन की अनुभूतियों एवं जैन मन्त्र-तन्त्र शास्त्रों के गहन ज्ञान से उद्भुत नूतन मन्त्र-यन्त्रों की समायोजना के साथ - इस पावन कृति को भाव- वन्दना करने योग्य बना दिया है।
प्रका
हम जैसे अल्पज्ञ, कुछ अधिक लिखने की स्थिति में नहीं हैं। प्रस्तुत प्रणयन को सुविज्ञ पाठकों के लिए प्रकाशित करते हुए हम अपने आपको कृतार्थ मानते हैं तथा पूर्ण श्रद्धा भक्ति एवं समर्पण भाव के साथ, प्रस्तुत ग्रन्थरत्न एवं श्री गुरुचरणों में भाव-वन्दना करते हैं।
साथ ही पुरुषादानी भगवान पार्श्वनाथ का सचित्र जीवन चरित्र भी इस कृति में प्रकाशित किया जा
रहा है।
प. पू. आचार्यदेव श्री जिनोत्तम सूरीश्वरजी म.सा. के प्रति भी कृतज्ञ हैं क्योंकि उनके मार्गदर्शन, संपादन बिना शायद इस महान कार्य का प्रकाशन सम्भव नहीं होता ।
संघवी श्री गुणदयालचंदजी भंडारी,
•
शा. गणेशमल जी हस्तिमलजी मुठलिया,
●• संघवी श्री प्रकाशराजजी गेनमलजी मरडीया,
·
संघवी श्री मांगीलालजी चुनीलालजी,
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शा. नैनमलजी विनयचंन्द्रजी सुराणा, शा. मांगीलालजी तातेड,
शा. देवराजजी दीपचंदजी राठौड,
• शा. रमणीकलाल मिलापचंदजी,
शा. पारसमलजी सराफ,
शा. गनपतराजजी चोपडा,
· शा. सुखपालचंदजी भंडारी,
•
•
BAIR-TRIR
कल्याण मन्दिर स्तोत्र के चित्रों को कलात्मक तरीके से बनवाने एवं पुस्तक की सुन्दर साज-सज्जा, मुद्रण आदि में 'श्री दिवाकर प्रकाशन, आगरा के श्री संजय सुराना ने भी अपनी कलात्मक दृष्टि का परिचय दिया है। एतदर्थ उन्हें भी धन्यवाद ।
-जैनं जयति शासनम् ।
नीलम
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प्रकाशक
श्री सुशील साहित्य प्रकाशन समिति, जोधपुर
जोधपुर तखतगढ (मुम्बई) जावाल (चैन्नई)
तखतगढ (चैन्नई) सिरोही (मुंबई) मेडता सिटी (चैन्नई) जवाली (पाली) नोवी (सूरत) बिलाड़ा
पचपदरा (मुंबई) जोधपुर
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कल्याण मन्दिर की कीर्ति कथा
आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने भगवान पार्श्वनाथ की स्तुति के रूप में 'कल्याण मन्दिर' नामक अद्भुत चमत्कारिक काव्यमय स्तोत्र की रचना की। उन्होंने शिव और भगवान पार्श्वनाथ में अभेद स्थापित कर धर्म के सच्चे स्वरूप की व्याख्या की। भगवान पार्श्वनाथ और महाकाल शिव नाम व रूप से भले ही अलग लगते हों पर दोनों ही अपने-अपने क्षेत्र में कल्याण के प्रतीक माने जाते हैं।
राजा विक्रमादित्य के शासनकाल में उज्जयिनी नगरी में कात्यायन गौत्रीय देवर्षि नामक ब्राह्मण रहते थे। उनकी पत्नी देवश्री ने एक बालक को जन्म दिया। जिसका नाम कुमुदचन्द्र रखा। कालांतर में यही बालक महापंडित कुमुदचन्द्र के रूप में प्रसिद्ध हुये। कुमुदचन्द्र सर्व शास्त्र, वेद-वेदांग, ज्योतिष आदि के प्रकाण्ड विद्धान थे। अपनी विद्वत्ता के कारण वे सर्वत्र सम्माननीय थे। उन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि जो कोई उन्हें शास्त्रार्थ में पराजित कर देगा, वे उसके शिष्य बन जायेंगे।
_ उन्हीं दिनों जैनधर्म के प्रभावक आचार्य वृद्धवादी दशपुर नगर से विहार करते हुए उज्जयिनी की ओर आ रहे थे। इनकी प्रसिद्धि सुनकर महापंडित कुमुदचन्द्र इनको शास्त्रार्थ में पराजित करने के विचार से चल दिये। जंगल में जहाँ ग्वाले भेड़-बकरी और गायें चरा रहे थे, वहीं दोनों की भेंट हो गई। महापंडित कुमुदचन्द्र ने आचार्य वृद्धवादी को शास्त्रार्थ की चुनौती दी। लेकिन वहाँ कोई ऐसा विद्धान नहीं था जो दोनों की हार-जीत का निर्णय दे सके। तब कुमुदचन्द्र ने ग्वालों को ही निर्णायक मानने का प्रस्ताव रखा तो आचार्य वृद्धवादी ने भी स्वीकृति दे दी।
वृद्धवादी मुनि ने सहज साधारण बोलचाल की भाषा में ग्वालों को जो बात समझाई वह शुद्ध संस्कृत में बोले गये कुमुदचन्द्र के श्लोकों की अपेक्षा ग्वालों को जल्दी समझ में आ गई और उन्होंने वृद्धवादी को विजेता घोषित कर दिया। अपनी प्रतिज्ञानुसार कुमुदचन्द्र ने वृद्धवादी का शिष्य बनना स्वीकार कर लिया। वृद्धवादी ने उन्हें दीक्षा देकर उनका नाम सिद्धसेन रख दिया। विद्धान मुनि सिद्धसेन शीघ्र ही जैन दर्शन शास्त्रों आदि का अध्ययन करके जैनधर्म के गहन ज्ञाता बन गये। आचार्य वृद्धवादी ने उन्हें आचार्य पद प्रदान किया।
एक बार आचार्य सिद्धसेन विहार करते हुये प्रतिष्ठानपुर पहुंचे। उन्होंने जैनागमों को प्राकृत से संस्कृत में अनुवाद करने का विचार किया और नवकार महामंत्र का अनुवाद संस्कृत में करके अपने गुरू आचार्य वृद्धवादी को बताया। आचार्य वृद्धवादी ने इसकी भर्त्सना करते हुये इसे दुस्साहस और तीर्थंकर प्रभु की अशातना का घोर अपराध बताया और प्रायश्चित स्वरूप बारह वर्षों तक अज्ञातवास में तप करने और किसी बड़े सम्राट् को प्रतिबोध देकर जैनधर्म की प्रभावना करने का आदेश दिया। आचार्य सिद्धसेन ने गुरू आज्ञा मानकर दण्ड को स्वीकार कर लिया और अवधूत वेष में गुप्त रूप से विचरण करने लगे।
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सिद्धसेन के अज्ञातवास के सात वर्ष बीत चुके थे। विचरण करते-करते एक दिन वे उज्जयिनी नगरी पहुँचे। उज्जयिनी के महाकाल मन्दिर के भीतर जाकर आराम करने लगे। उनके पैर शिवलिंग की तरफ थे। पुजारी ने यह दृश्य देखा तो उन्हें उठाने लगा। जब सिद्धसेन नहीं जगे तो ८-१० व्यक्तियों ने उन्हें बलपूर्वक हटाने का प्रयत्न किया, परन्तु वे टस से मस नहीं हुये। लोगों ने राजा विक्रमादित्य को इस घटना की खबर की। विक्रमादित्य ने आदेश दिया-"जाओ उसे मार-मार कर उठाओ और पकड़कर हमारे पास लाओ।" राजा के आदेश से अवधूत पर कोड़े बरसाये गये। जैसे-जैसे अवधूत पर कोड़े बरसते विक्रमादित्य की रानियाँ अन्तःपुर में चीख पुकार करने लगी-"अरे कोई हमें मार रहा है।"
विक्रमादित्य को समाचार मिला, उन्हें तत्काल समझ में आया-" जरूर यह उसी अवधूत की माया है।" राजा तुरन्त महाकाल मन्दिर में पहुंचे और अवधूत रूप में लेटे सिद्धसेन से क्षमा माँगकर महाकाल शिव की उपेक्षा का कारण जानना चाहा। सिद्धसेन ने बताया-"स्वर्ग या मोक्ष सुख कोई देव या महादेव नहीं देते। वह तो मनुष्य के अपने पुरूषार्थ से ही प्राप्त होता है।" जब राजा विक्रमादित्य ने उन्हें कल्याण रूप शिव को नमस्कार करने को कहा तो सिद्धसेन ने शिवलिंग के सामने हाथ जोड़कर उच्च स्वर में स्तोत्र पाठ प्रारम्भ कर दिया धीरे-धीरे शिवलिंग से धुंआ निकलने लगा।
अचानक कुछ देर में शिवलिंग के भीतर से एक दिव्य प्रतिमा प्रगट हुई। सभी लोग आश्चर्य के साथ इस चमत्कार को देखने लगे। सिद्धसेन ने बताया-"राजन! यह वीतराग प्रभु पार्श्वनाथ की प्रतिमा है। शिव और पार्श्वनाथ दोनों ही कल्याण के प्रतीक हैं। जो भी कषायादि शत्रुओं के विजेता वीतराग देव हैं वही वन्दनीय हैं। राजा विक्रमादित्य अवधूत रूपी सिद्धसेन के समक्ष नतमस्तक हो गये। तब सिद्धसेन ने अपना परिचय दिया और उपदेश देते हुये कहा-"राजन ! धर्मों में भेद की जगह अभेद और विरोध की जगह समन्वय करना ही धर्म-प्राप्ति का सम्यक उपाय है।
सिद्धसेन के उपदेशों से प्रभावित होकर राजा विक्रमादित्य जैन-धर्म के अनुरागी बन गये। आचार्य सिद्धसेन को अपनी सभा की विद्द मण्डली में सम्मानपूर्वक स्थान दिया। जब यह समाचार आचार्य वृद्धवादी के पास पहुँचा तो जिन शासन की इतनी प्रभावना करने के कारण आचार्य वृद्धवादी ने सिद्धसेन के प्रायश्चित के शेष पाँच वर्ष कम कर दिये और उन्हें पुनः आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया।
आचार्य सिद्धसेन द्वारा रचित वह भक्तिप्रधान काव्य "कल्याण मन्दिर स्तोत्र" के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसके श्लोकों की संख्या ४४ है। ४३ श्लोक बसन्त तिलका छन्द में है और एक आर्यावृत्त है।
माना जाता है कि इस स्तोत्र के ग्यारहवें काव्य बोलने पर शिवलिंग से पार्श्वनाथ प्रतिमा प्रगट हुई। यह प्रतिमा आज भी उज्जयिनी के जिन मन्दिर में अवन्ति पार्श्वनाथ के रूप में प्रतिष्ठित
है।
यह घटना शिव और पार्श्वनाथ में एकरूपता तथा तदाकारता सूचित करती है। भेद को अभेद समझने का संकेत करती है।
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आचार्य श्री सिद्धसेन दिवाकर
सूरि. विरचित
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सचित्र श्री कल्याण मन्दिर
स्तोत्र ILLUSTRATED SHRI KALYAN MANDIR
STOTRA
• संस्कृत• • हिन्दी. • गुजराती. अंग्रेजी
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कल्याण - मन्दिरमुदारमवद्यभेदि, भीताभयप्रदमनिन्दितमध्रि - पद्मम्। संसार - सागर - निमज्जदशेष - जन्तु,
पोतायमानमभिनम्य जिनेश्वरस्य।।१।। कल्याण के मन्दिर, उदार, पापों का नाश करने वाले, दुःखों के भय से आकुल प्राणियों को अभय प्रदान करने वाले, सर्वत्र प्रशंसनीय, संसाररूपी सागर में डूबते हुए सभी प्राणियों के लिये जहाज के समान आधारभूत, श्री जिनेश्वरदेव के चरण-कमलों को भलीभाँति नमस्कार करके.........।
કલ્યાણના મંદિર, ઉદાર, પાપોનો નાશ કરનાર, દુ:ખોના ભયથી આકુળ પ્રાણીઓને અભય પ્રદાન કરનાર, સર્વત્ર પ્રસંશનીય, સંસારરૂપી સાગરમાં ડૂબતા સર્વ પ્રાણીઓ માટે જહાજ સમાન આધારભૂત, શ્રી हिनेश्वरविनायरस-भसमां नमस्कार रीने......!
After sincerely bowing at the lotus-feet of Shri Jineshvara Dev (the god of conquerors), the temple of beatitude, kind, extirpator of sins, provider of solace to beings tormented by fear, ever praiseworthy, shiplike savior of all beings drowning in the ocean of mundane existence (cycles of rebirth)...
| चित्र-परिचय
प्रभु पार्श्वनाथ के चरण कमलों में नमस्कार मात्र से दुःख और भय से मुक्ति मिलती है । संसार रूपी भव सागर में डूबते भक्तों के जहाज रूपी आलम्बन जिनेश्वर देव !
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प्रभु पार्श्वनाथ के चरण कमलों में नमस्कार मात्र से दुःख और भय से मुक्ति मिलती है।
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संसार रूपी भव सागर में डूबते भक्तों के जहाज रूपी आलम्बन जिनेश्वर देवा
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यस्य स्वयं सुर-गुरुर्गरिमाम्बुराशेः, स्तोत्रं सुविस्तृतमतिर्न विभुर् विधातुम्। तीर्थेश्वरस्य कमठ - स्मय - धूमकेतोः
तस्याहमेष किल संस्तवनं करिष्ये।।२।। जो कमठ दैत्य के अभिमान को भस्म करने के लिये धूमकेतु के समान थे। जिनके गुणों की गरिमा सागर के समान अपार थी। जिनकी स्तुति करने के लिये अतिशय बुद्धिशाली देवताओं के गुरु स्वयं बृहस्पति भी समर्थ नहीं हो सके, उन तीर्थपति पार्श्वनाथ भगवान की मैं स्तुति करूँगा।
જે કમઠ દૈત્યના અભિમાનને ભસ્મ કરવા માટે ધૂમકેતુ સમાન હતાં. જેમના ગુણોની ગરિમા સાગર સમાન અપાર હતી. જેમની સ્તુતિ કરવા માટે અતિશય બુદ્ધિશાળી દેવતાઓના ગુરૂ સ્વયં બૃહસ્પતિ પણ સમર્થ ન થઈ શક્યા, તેવા તીર્થપતિ પાર્શ્વનાથ ભગવાનની સ્તુતિ હું કરીશ.
I will sing a panegyric in praise of that Lord of the ford (Tirthapati or Tirthankar), Bhagavan Parshva Naath, who was like a comet for reducing to ashes the pride of demon Kamath. The glory of whose virtues was boundless like an ocean. Even Brihaspati, the extremely wise guru of gods, found himself incapable of singing in his praise.
| चित्र-परिचय
भगवान पार्श्वनाथ के धूमकेतु समान तीव्र तेज के सामने कमठ का अहंकार जलकर भस्म हो गया।
देवताओं के गुरु बृहस्पति प्रभु पार्श्वनाथ के असंख्य गुणों का वर्णन करने का प्रयास करते हुये।
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भगवान के तीय तेज से कमठ का अभिमान भस्म हो गया।
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देवताओं के गुरु बृहस्पति भगवान की स्तुति करते हुये।
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सामान्यतोऽपि तव वर्णयितुं स्वरूपमस्मादृशाः कथमधीश ! भवन्त्यधीशाः। धृष्टोऽपि कौशिक-शिशुर् यदि वा दिवान्धो, रूपं प्ररूपयति किं किल घर्मरश्मेः?।।३।।
हे स्वामी ! आपके अनन्त स्वरूप को साधारण रूप से भी वर्णन करने के लिये हमारे जैसे पामर प्राणी कैसे समर्थ हो सकते हैं ? दिन में अन्धा रहने वाला उल्लू क बच्चा कितना ही धीठ क्यों न हो, क्या वह प्रचण्ड किरणों वाले सूर्य के उज्ज्वल स्वरूप का वर्णन कर सकता है ? नहीं कर सकता।
હે સ્વામી! આપના અનંત સ્વરૂપનું સાધારણ રૂપે વર્ણન કરવા પણ અમારા જેવા પામર પ્રાણી કેવી રીતે સમર્થ હોઈ શકે છે? દિવસના ન જોઈ શકનાર ઘુવડનું બચ્ચું ગમે તેવું હોશિયાર કેમ ન હોય, શું તે પ્રચંડ કિરણોવાળા સૂર્યના ઉજ્જવળ સ્વરૂપનું વર્ણન કરી શકે છે? નથી કરી શકતો.
O Prabhu (Lord) ! How is it possible for an ignorant like me to describe your infinitely magnificent form ? Can a day-blind chick of owl ever be able to describe the scintillating sun, no matter how headstrongitis? No! Never!
चित्र-परिचय
जिस प्रकार उल्लू का छोटा बच्चा सूर्य के तीव्र प्रकाश के सामने आँखें बन्द कर लेता है और सूर्य के स्वरूप का वर्णन नही कर सकता है उसी प्रकार आचार्य सिद्धसेन सूरि भी प्रभु पार्श्वनाथ की प्रतिमा के सामने खड़े होकर उनके अनन्त गुणों का वर्णन करने में स्वयं को असमर्थ मानते हैं।
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करते आचार्य सिद्धसेना
सूर्य को देखने में असमर्थ उल्लू का छोटा बच्चा।
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मोहक्षयादनुभवन्नपि नाथ ! मर्यो, नूनं गुणान् गयितुं न तव क्षमेत। कल्पान्तवान्तपयसः प्रकटोऽपि यस्माद्,
मीयेत केन जलधेर्ननु रत्नराशिः ? ।।४।। जैसा कि प्रलय के समय जब समुद्र पानी से बिलकुल खाली हो जाता है उस समय समुद्र में जितने रत्न हैं, वे सामने दीखने पर भी उनकी गणना नहीं हो सकती। उसी प्रकार हे नाथ ! मोहनीय कर्म के क्षय होने से यद्यपि मनुष्य को आपके स्वरूप का प्रतिभास होने लगता है, तो भी आपके गुणों की गणना नहीं हो सकती है, क्योंकि आपके गुण अनन्त हैं।
જેમ કે પ્રલયના સમયે જ્યારે સમુદ્રનું પાણી બિલ્કલ ખાલી થઈ જાય છે, તે સમયે સમુદ્રમાં જેટલાં રત્નો છે તે સામે દેખાવા છતાં તેમની ગણતરી નથી થઈ શકતી. તેવી જ રીતે હે નાથ! મોહનીય કર્મનો ક્ષય થવાથી જો મનુષ્યને તમારા સ્વરૂપનો પ્રતિભાસ થાય, તો પણ આપના ગુણોની ગણના ન થઈ શકે, કારણ આપના ગુણ અનંત છે.
Although on complete uprooting of Mohaniya Karmas the enlightened has a glimpse of your form, even then your infinite virtues are impossible to enumerate. Just as the heap of gems the ocean contains becomes visible at the time of a terrible tempest when it is empty of water, but even then can someone count this heap of gems? No, never!
चित्र-परिचय
जिस प्रकार समुद्र का पानी पीछे हटने से खाली समुद्र की तली में पड़ी असंख्य रत्न राशि दिखाई देती है, परन्तु उसकी गणना नही हो सकती।
उसी प्रकार प्रभु पार्श्वनाथ की प्रतिमा के समक्ष खड़े केवलज्ञानी साधु भगवन्त जिन्हें भगवान के गुणों का प्रतिभास तो है परन्तु उनका वर्णन करने में असमर्थ हैं।
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समुद्र का पानी पीछे हटने से तल में पड़े असंख्य रत्नों को
देखकर उनकी गणना करने में असमर्थ व्यक्ति।
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जना प्रमु प्रतिमा कासमक्ष खड़े केवल ज्ञानी साधू प्रभु AGIGIGAOAGIUSICILIA
के असंख्य गुणों की गणना करने में असमर्थी
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अभ्युद्यतोऽस्मि तव नाथ ! जडाशयोऽपि, कर्तुं स्तवं लसदसंख्य-गुणाकरस्य। बालोऽपि किं न निजबाहुयुगं वितत्य, विस्तीर्णतां कथयति स्वधियाम्बुराशेः ?।।५।।
जैसा कि बालक अपनी भुजाएँ फैलाकर छोटी बुद्धि के अनुसार समुद्र के विस्तार को बतलाता है। उसी तरह हे स्वामी ! मैं अल्प-बुद्धि होकर भी आप जैसे अनन्त गुण सागर की स्तुति करने का प्रयास करता
જેમ બાળક પોતાની ભુજાઓ ફેલાવીને ટૂંકી બુદ્ધિપ્રમાણે સમુદ્રના વિસ્તારનું વર્ણન કરે છે, તે જ પ્રમાણે હે સ્વામી! હું અલ્પ બુદ્ધિનો માનવી આપના જેવા અનંત ગુણ સાગરની સ્તુતિ કરવાનો પ્રયાસ કરું છું.
Does an ignorant child not spread both his tiny arms to show the limitless expanse of a great ocean ? In the same way, O Lord ! Though an ignorant, I hereby endeavour to sing a panegyric in praise of an ocean of infinite virtues like You.
चित्र-परिचय
जैसे, छोटा बालक अपनी छोटी भुजाएँ फैलाकर विस्तृत समुद्र का माप करने का बाल प्रयास कर रहा है।
उसी प्रकार प्रभु पार्श्वनाथ के अनन्त गुणों का वर्णन करने का प्रयास करते आचार्यश्री सिद्धसेन सूरि ।
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WUUTUNDINUUJUZUUJUNGOVOUTUU CLAINAU O TolamATIONAMMA
में प्रभु के अनन्त गुण सागर की स्तुति करते
आचार्य सिद्धसेना
RANATANA
अपनी भजायें फैलाकर समुद्र के विस्तार को मापता बालका
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ये योगिनामपि न यान्ति गुणास्तवेश ! वक्तुं कथं भवति तेषु ममावकाशः ? जाता तदेवमसमीक्षित - कारितेयं,
जल्पन्ति वा निज-गिरा ननु पक्षिणोऽपि।।६।। हे जगत् के स्वामी ! आपके गुणों का यथार्थ वर्णन करने में तो योगी भी समर्थ नहीं है। तब भला मेरी शक्ति कहाँ है? फिर भी स्तुति का यह कार्य मैंने बिना विचारे ही शुरू कर दिया है; वस्तुतः यह कार्य मेरी पहुँच के बाहर है। मुझ में भले ही इतनी शक्ति नहीं है, फिर भी प्रयत्न तो करूँगा ही, जैसे पक्षी मनुष्य-सी स्पष्ट भाषा बोलना नहीं जानता तो क्या हुआ, अस्पष्ट भाषा बोलकर भी अपना काम चलाता ही है।
હે જગતના સ્વામી! આપના ગુણોના યથાર્થ વર્ણન કરવા માટે તો યોગી પણ સમર્થ નથી, તો ભલા મારી શું વિસાત? આ સ્તુતિ કરવાનું કાર્ય મેં વગર વિચાર્યું જ ચાલુ કરી દીધું છે. વસ્તુત: આ કાર્ય મારી પહોંચની બહાર છે. મારામાં ભલે એટલી શક્તિ ન હોય, છતાં પ્રયત્ન તો કરતો રહીશ. જેમ પક્ષીને મનુષ્ય જેવી સ્પષ્ટ ભાષા બોલતાં નથી આવડતું તો શું થયું, અસ્પષ્ટ ભાષા બોલીને પણ પોતાનું કામ ચલાવી જ લે છે.
O Lord of the world ! When even great yogis are unable to narrate your virtues with verity, where is the scope of my doing so ? I have thoughtlessly commenced authoring this panegyric but in fact it is beyond me. In spite of the lack of ability I will continue my endeavor. Just as birds, though incapable of intelligible speech like humans, express themselves by incoherent utterances and their purpose is served well.
| चित्र-परिचय
जिस प्रकार पक्षी मनुष्य की स्पष्ट भाषा नहीं बोल सकता परन्तु अस्पष्ट भाषा बोलकर अपनी बात कह रहा है।
उसी प्रकार जिनेश्वर पार्श्वनाथ के गुणों के वर्णन करने का अस्पष्ट प्रयास करते ज्ञानी साधु महाराज।
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ज्ञानी साधु महाराज भगवान के
गुणों का वर्णन करने में असमर्थ हैं।
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पक्षी अस्पष्ट भाषा बोलकर
अपनी बात कह रहा है।
包含6
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Solid
आस्तामचिन्त्यमहिमा जिन ! संस्तवस्ते, नामाऽपि पाति भवतो भवतो जगन्ति। तीव्रातपोपहत - पान्थ - जनान्निदाघे,
प्रीणाति पद्मसरसः सरसोऽनिलोऽपि।।७।। जिस प्रकार ग्रीष्म काल में आतप से सताये हुए पुरुषों को कमलयुक्त सरोवर ही शान्ति देने वाले नहीं होते, अपितु उनका शीतल पवन भी सुखप्रद होता है। उसी प्रकार हे भगवन् ! आपका स्तवन ही प्रभावशाली नहीं है अपितु आपका नाम भी संसार के दुःखों से बचाता है।
- જે પ્રકારે ગ્રીષ્મના તાપથી હેરાન પુરુષને કમળયુક્ત સરોવર જ શાંતિ દેનાર નથી હોતા, પરંતુ તેમની શીતળ હવા પણ સુખપ્રદ હોય છે. તેજ પ્રકારે હે ભગવાન! આપના સ્તવન જ પ્રભાવશાળી નથી પરંતુ આપનું નામ પણ संसारनामोथी जयावे छे.
In summer it is not just a lotus-pond that gives relief to people tormented by sun, even the cool wind blowing from it provides comfort to them. In the same way, O Bhagavan! It is not just your panegyric that is unimaginably miraculous, even chanting of your name has so much power that it protects one from the miseries of this world.
चित्र-परिचय
जिनेश्वर देव की प्रतिमा के सामने स्तवन से स्तुति करते हुए भक्त के हृदय से संसारिक दुःख, रोग, शोक, डर आदि दूर हो जाते हैं और उसे असीम शान्ति का अनुभव हो रहा है।
जैसे सूर्य के तीव्र प्रकाश से सताये मनुष्य को कमलयुक्त सरोवर से उठते शीतल पवन के झोंके शान्ति प्रदान करते हैं।
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रोग
दुःख
शोक
जिनेश्वर देव के सामने स्तवन करने से भक्त के हृदय में से दुःख, रोग, शोक दूर हो गये।
तीट गर्मी से सताये मनुष्य को सरोटर की शीतल
पवन के झोंके शान्ती प्रदान कर रहे हैं।
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हद्वर्तिनि त्वयि विभो ! शिथिली भवन्ति, जन्तोः क्षणेन निबिडा अपि कर्म-बन्धाः। सद्यो भुजङ्गममया इव मध्यभाग
मभ्यागते वनशिखण्डिनि चन्दनस्य।।८।। प्रभो ! आप जिसके हृदय में आकर विराजमान हो जाते हैं, उसके जन्म जन्म के कर्मबन्धन ढीले पड़ जाते हैं, अर्थात् वह हलुकर्मी हो जाता है जैसे कि वन में चन्दन वृक्ष पर सांप लिपटे रहते हैं, किंतु मोर को पास आया देखते ही वृक्ष को छोड़कर वे दूर-दूर भागने लग जाते हैं।
પ્રભુ! આપ જેના હૃદયમાં આવીને બિરાજો છો, તેના જન્મ-જન્મ નાં કર્મબંધન ઢીલા પડી જાય છે, અર્થાત તે હળુકમી બની જાય છે. જેવી રીતે વનમાં ચંદનનાં વૃક્ષ પર સર્પ લપેટાયેલા હોય પણ મોરને નજીક આવતો જોઈને જ વૃક્ષ છોડીને તે દૂર-દૂર ભાગવા લાગે છે.
Prabho ! The karmic bondage, acquired in past many births, of the devotee in whose heart you dwell gets weak. This means that he is soon liberated from the karmic bondage. Just as when peacocks approach a sandalwood tree, the snakes entwining the tree at once start slithering away.
| चित्र-परिचय
हृदय में प्रभु पार्श्वनाथ विराजमान होने पर अशुभ कर्म स्वयं भाग जाते हैं। जैसे चन्दन वृक्ष पर लिपटे सांप, मोर को आते देखकर भागने लगते हैं।
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चन्दन वृक्ष पर लिपटे सर्प मोर को आते देख भागने लगे।
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हृदय में प्रभु को विराजमान करने पर अशुभ कर्म स्वयं भाग जाते हैं।
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मुच्यन्त एव मनुजाः सहसा जिनेन्द्र ! रौद्रैरुपद्रवशतैस् त्वयि वीक्षितेऽपि। गो-स्वामिनि स्फुरिततेजसि दृष्टमात्रे,
चौरैरिवाशु पशवः प्रपलायमानैः।।६।। हे जिनेन्द्र ! आपके दर्शनमात्र से भक्तजन सैकड़ों भयंकर उपद्रवों से शीघ्र ही मुक्त हो जाते हैं। जैसे गाँव के पशुओं को चोर चुराकर ले जाते हैं, किन्तु ज्यों ही बलवान तेजस्वी ग्वाला दिखाई देता है, त्यों ही पशुओं को छोड़कर वे चोर झटपट भाग खड़े होते हैं। मालिक के सामने कहीं चोर ठहर सकते हैं? कदापि नहीं। | હે જિનેન્દ્ર ! આપના દર્શન માત્રથી ભક્તજન સેંકડો ભયંકર ઉપદ્રવોથી શીઘ્ર મુક્ત થઈ જાય છે. ગામના પશુઓને ચોર ચોરી કરીને લઈ જાય છે, પરંતુ જેવો બળવાન, તેજસ્વી ગોવાળ દેખાય છે, કે તરત જ તે ચોર પશુઓને છોડીને ઝટપટ ભાગી જાય છે. માલિકની સામે શું ચોર ઊભો રહી श? ध्यारेय नही.
O Jinendra ! The pious beholding of your image at once makes your devotees free of hundreds of terrible torments. Thieves steal cattle from a village but on seeing the strong and alert cowherd they elope in a hurry abandoning the cattle. Can thieves dare face the owner of the cattle ? No chance!
| चित्र-परिचय
प्रभु पार्श्वनाथ के दर्शन करते भक्तजनों के हृदय से भय, रोग, शोक, उपद्रव आदि भाग जाते हैं।
जैसे मालिक को देखते ही पशु चोर, झटपट भागने लगता है।
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भय
भय
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शोक
शोक
rimuTICEL
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राणायाम
NHƯ Total Dần 2
प्रमुदर्शन से भरा, शोक, उपदा आदि हृदय से भाग गयो।
मालिक को देखकर पशु चोर भाग रहा है।
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त्वं तारको जिन ! कथं भविनां त एव, त्वामुद्वहन्ति हृदयेन यदुत्तरन्तः। यद्वा दृतिस्तरति यज्ज्लमेष नून
मन्तर्गतस्य मरुतः सः किलानुभावः ।।१०।। हे देव ! आप भव्यजनों को संसार-सागर से पार उतारने वाले तारक कैसे बन सकते हैं? क्योंकि भव्य जीव जब संसार-सागर से पार उतरते हैं, तब वही आपको अपने हृदय में धारण करते हैं। हाँ, समझ में आ गया। अन्दर से पवन से भरी हुई मशक जब जल में तैरती है, तब वह अन्दर में स्थित पवन के प्रभाव से ही तो तैरती हैं। उसी प्रकार हृदय में आपको धारण करने के कारण ही जीव संसार-सागर को पार करते हैं।
હે દેવ ! આપ ભવ્યજનોને સંસાર-સાગરથી પાર ઊતારનાર તારક કેવી રીતે બની શકો છો? કારણ ભવ્ય જીવ જ્યારે સંસાર-સાગરથી પાર ઊતરે છે, ત્યારે તેઓ આપને તેમના હૃદયમાં વસાવી લે છે. હા, હવે સમજાયું, અંદરથી પવનથી ભરેલી મશક જ્યારે જળમાં તરે છે, ત્યારે તે અંદર રહેલા પવનને કારણે જ તો તરે છે. તે જ પ્રકારે હૃદયમાં આપને ધારણ કરવાથી જ જીવ સંસાર-સાગરને પાર કરે છે.
O Dev! Why are you called Tarak or one who helps the worthy cross the ocean of worldly existence ? Apparently it is the devotees who install you in their pure hearts and carry you across when they cross the ocean. But now that misconception has been removed. I have understood that a leather bag filled with air floats only due to the buoyancy provided by that air inside. This indicates that beings cross the ocean of worldly existence only because you are installed in their hearts.
| चित्र-परिचय
जैसे मशक या घड़ा भीतर हवा भरी रहने के कारण पानी में डूबे बिना तैरता ही चला जाता है।
उसी प्रकार भगवान को हृदय में धारण करने वाले भव्यजन संसार रूपी सागर से तिर जाते हैं और शेष लोग संसार सागर में डूब रहे हैं।
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ENNAND भगवान को हृदय में धारण करने वाले भक्तजन संसार सागर से तैर कर पार हो रहे हैं। शेष डूब रहे हैं।
हवा भरी मशक पानी में तैर रही है।
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यस्मिन् हर-प्रभृतयोऽपि हतप्रभावाः, सोऽपि त्वया रतिपतिः क्षपितः क्षणेन। विध्यापिता हुतभुजः पयसाथ येन, पीतं न किं तदपि दुर्धर-वाडवेन ?।।११।।
जैसे जो जल अग्नि को बुझाता है उस जल को भी बड़वानल सोख लेती है। इसी तरह से हे भगवन् ! जिस कामदेव ने समस्त हरि-हरादिक देवों को जीत लिया है उस कामदेव को भी आपने क्षणभर में पराजित कर दिया है।
જેવી રીતે જે જળ અગ્નિને બુઝાવે છે, તે જળને પણ અગ્નિજ્વાળા શોષી લે છે. તે જ રીતે હે ભગવાન ! જે કામદેવે સમસ્ત હરિ-હરાદિક દેવોને જીતી લીધા છે, તે કામદેવને પણ આપે ક્ષણમાં પરાજિત કરી દીધાં છે.
Water, that extinguishes fire, is turned into fuel by marine-fire. In the same way, O Bhagavan ! You have vanquished Kaam Dev (the god of love; Cupid) within no time; the Kaam Dev who has overwhelmed all gods including Hari and Har.
| चित्र-परिचय
जिस प्रकार जल से अग्नि तो शान्त हो जाती है, परन्तु बड़वानल की आग जल को भी जला देती है।
उसी प्रकार हे प्रभु ! हरि-हरि आदि देवों को जीतने वाले काम (कामदेव को बड़वानल की उपमा दी है) को भी आपने पराजित कर दिया।
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फूलों (काम) के बाण चलाते कामदेवा
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कामदेव को पराजित करने वाले वीतरागी प्रभु की स्तुति करता भक्ता
जल द्वारा अग्नि शान्त
हो जाती है।
सागर में जलती बडवानल की अग्निान
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स्वामिन्ननल्प-गरिमाणमपि प्रपन्नास्, त्वां जन्तवः कथमहो हृदये दधानाः? जन्मोदधिं लघु तरन्त्यतिलाघवेन, चिन्त्यो न हन्त महतां यदि वा प्रभावः।।१२।।
आश्चर्य है कि अनंतानंत गरिमायुक्त आपको अपने हृदय में धारण करके भव्यात्माएँ संसार-सागर को बहुत ही आसानीपूर्वक कैसे तिर जाते हैं ? ठीक ही कहा है-महापुरुषों का प्रभाव अचिन्त्य होता है।
આશ્ચર્ય થાય છે કે અનંતાનંત ગરિમાયુક્ત આપને પોતાના હૃદયમાં ધારણ કરીને ભવ્યાત્માઓ સંસાર-સાગરને ખૂબ જ સહેલાઈથી કેવી રીતે તરી જાય છે? સાચું જ કહ્યું છે- મહાપુરુષોનો પ્રભાવ અચિંત્ય હોય છે.
It is surprising how the worthy noble souls in this world cross the ocean of worldly existence with ease simply by installing your in finitely glorious image in their hearts? It is, indeed, rightly said -- the influence of great men is beyond imagination.
चित्र-परिचय ___ मेरू के सामन महिमावान प्रभु के हृदय में धारण करने वाला भक्त ऊर्ध्वगति में जाता है। मोह का थोड़ा सा भार ढोने वाला प्राणी संसार में डूब जाता है।
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मोह रूपी भार ढोने वाला प्राणी संसार सागर में डूब जाता है।
भगवान को हृदय में धारण करने वाले भक्त ऊर्ध्वगति को प्राप्त करता है।
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क्रोधस्त्वया यदि विभो ! प्रथमं निरस्तो, ध्वस्तास्तदा वत कथं किल कर्म-चौरा: ? प्लोषत्यमुत्र यदि वा शिशिरापि लोके, नीलदुमाणि विपिनानि न किं हिमानि ? ।।१३।।
हे प्रभो ! आपने क्रोध को पहले ही नष्ट कर दिया है; तो फिर बताइये कि बिना क्रोध किये कर्मरूपी चोरों को कैसे नष्ट किया ? ठीक है; क्रोध की अपेक्षा क्षमा की शक्ति महान् है, आग की अपेक्षा हिम-बर्फ की शक्ति अधिक है। बर्फ ठण्डा होने पर भी क्या हरे-भरे वृक्षों और पत्तों को नहीं जला देता है ?
હે પ્રભુ ! આપે તો ક્રોધને પહેલાં જ નષ્ટ કરી દીધો છે, તો પછી સમજાવો કે વગર ક્રોધ કર્યે કર્મરૂપી ચોરોને કેવી રીતે નષ્ટ કર્યા? ઠીક છે, ક્રોધની સરખામણીમાં ક્ષમાની શક્તિ મહાન છે, આગની સરખામણીમાં હિમ-બરફની શક્તિ અતુલ્ય છે. બરફ ઠંડો હોવા છતાં શું હર્યા-ભર્યા વૃક્ષો અને પાંદડાઓને બાળી નથી દેતો?
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O Prabho ! You eliminated anger at the outset, then how, without anger, you destroy the thieves in the form of karmas? This proves that forgiveness is more potent than anger; snow or ice is much more effective as compared with fire. Although snow is cold, does it not burn lush green trees and leaves ?
चित्र - परिचय
जैसे आग से नही जलने वाले वृक्ष भी शीतल बर्फ गिरने से नष्ट हो जाते हैं ।
उसी प्रकार क्रोध के बिना ही करुणावतार क्षमाशील प्रभु ने आठ कर्मरूपी महाशत्रुओं का नाश कर डाला ।
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नाम
गान
मोहनीय
अन्तराय
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क्षमाशील प्रभु ने अष्ट कर्मरूपी शत्रुओं का नाश कर डाला।
ज्ञानावरण
आयुष
वेदनीय
दर्शनावरण
आग से न जलने वाले वृक्ष शीतल बर्फ से नष्ट हो गये।
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त्वां योगिनो जिन ! सदा परमात्मरूपमन्वेषयन्ति हृदयाम्बुज- कोशदेशे ।
पूतस्य निर्मलरुचेर्यदि वा किमन्यदक्षस्य संभविपदं ननु कर्णिकायाः । ।१४।।
हे प्रभो ! बड़े-बड़े योगी लोग अपने हृदय-कमल की कर्णिका (मध्य) में आपका ध्यान करते हैं। ठीक है; पवित्र और उज्ज्वल कांति वाले कमल के बीज का उत्पत्ति स्थान कमल की कर्णिका को छोड़कर अथवा शुद्धात्मा की खोज करने का स्थान, हृदय-कमल की कर्णिका को छोड़कर दूसरा क्या हो सकता है ? ।
હે પ્રભુ ! મોટા મોટા યોગીઓ પોતાના હ્રદય-કમળની કર્ણિકા (મધ્ય) માં આપનું ધ્યાન કરે છે. એ ખરું કે પવિત્ર અને ઉજ્જવળ કાંતિવાળા કમળના બીજનું ઉત્પત્તિ સ્થાન કમળની કર્ણિકાને છોડીને અથવા શુદ્ધાત્માની શોધ કરવાનું સ્થાન, હ્રદય-કમળની કર્ણિકાને છોડીને બીજું શું હોઈ શકે?
O Prabho! Great yogis meditate on your image in the pericarp of the lotus that is their heart. It is proper because where else to look for the place of origin of the glowing seed of lotus but the pericarp of lotus. Indeed, where else to look for the perfected soul but the pericarp of the lotus-heart.
चित्र - परिचय
जैसे श्वेत कमल के बीज उसके मध्य कणिका पर ही उत्पन्न होते हैं, वैसे ही योगीजन हृदय कमल के मध्य प्रभु का ध्यान करते हैं और उन्हें पाते हैं ।
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श्वेत कमल के मध्य कणिका में बीज हैं।
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बीज
हृदय कमल के मध्य प्रभु का
ध्यान करता भक्ता
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ध्वानाज्जिनेश! भवतो भविनःक्षणेन, देहं विहाय परमात्मदशां व्रजन्ति। तीव्रानलादुपलभावमपास्य- लोके,
चामीकरत्वमचिरादिव धातुभेदाः।।१५।। जैसे स्वर्णकार अशुद्ध मिट्टी मिले सोने को अग्नि में डालकर अशुद्धता हटा देता है, तब मिट्टी अलग हो जाने पर शुद्ध सोना प्रकट हो जाता है। उसी प्रकार हृदय में आपका ध्यान करने से जीव अपनी अशुद्धता को छोड़कर शुद्ध परमात्म-स्वरूप को प्राप्त हो जाता है।
જેમ સોની અશુદ્ધમાટી મિશ્રિત સોનાને અગ્નિમાં નાખે છે, ત્યારે તેની અશુદ્ધતા દૂર થાય છે અને માટીના અલગ થવાથી શુદ્ધસોનું પ્રગટ થાય છે. તેવી જ રીતે હૃદયમાં આપનું ધ્યાન ધરવાથી જીવ પોતાની અશુદ્ધતા છોડીને શુદ્ધપરમાત્મા-સ્વરૂપને પ્રાપ્ત કરી લે છે.
When a goldsmith puts sand mixed impure gold in fire in order to remove impurities. The intense heat separates the impurities and pure gold is yielded. In the same way by meditating on your image a living being removes his impurities and gains the pristine form of supreme soul (Paramatma).
| चित्र-परिचय __ जैसे अग्नि में पकने के पश्चात् सोना मिट्टी को त्याग देता है और कुन्दन बन जाता है।
उसी प्रकार हृदय में प्रभु के ध्यान का तीव्र प्रकाश प्रकट करके योगीजन प्रभु के स्वरूप को प्राप्त करते हैं।
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भक्त ने हृदय में प्रभु के ध्यान का तीन प्रकाश प्रकट करके प्रमु स्वरूप को प्राप्त किया।
णणणगए णणणणणणणण
स्वर्णकार स्वर्ण मिश्रित मिट्टी को अग्नि में
जलाकर शुद्ध स्वर्ण निकाल रहा है।
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अन्तः सदैव जिन ! यस्य विभाव्यसे त्वं, भव्यैः कथं तदपि नाशयसे शरीरम्। एतत्स्वरूपमथ मध्यविवर्तिनो हि,
यद्विग्रहं प्रशमयन्ति महानुभावाः ।।१६।। यहाँ विग्रह शब्द के दो अर्थ हैं-एक शरीर तथा दूसरा उपद्रव। आशय यह है कि जिस शरीर का आधार ले करके भव्य पुरुष आपका ध्यान करते हैं उस शरीर को आप क्यों नाश कर देते हैं ? जिस शरीर में आपका ध्यान किया था, आपको चाहिए था कि उसकी रक्षा करते किन्तु आपने उससे विपरीत ही किया। अर्थात् वह प्राणी अशरीरी (शरीर-मुक्त) बन जाता है। दूसरे पक्ष में इसका भाव है-महापुरुष जहाँ बीच में मध्यस्थ होते हैं, उनके विग्रह-कलह शांत हो ही जाते है।
અહીં વિગ્રહ શબ્દનાં બે અર્થ છે - એક શરીર અને બીજું ઉપદ્રવ. આશય એ છે કે જે શરીરનો આધાર લઈને ભવ્ય પુરૂષ આપનું ધ્યાન ધરે છે, તે શરીરનો આપ કેમ નાશ કરો છો? જે શરીરે આપનું ધ્યાન કર્યું હતું, આપે તેની રક્ષા કરવી જોઈતી હતી, પરંતુ આપે તેનાથી વિપરીત કર્યું. અર્થાત તે પ્રાણી અશરીરી (શરીર-મુક્ત) બની જાય છે. બીજા પક્ષમાં તેના ભાવ છે - મહાપુરુષ જ્યાં મધ્યસ્થ હોય છે, તેમના વિગ્રહ-કલહ શાંત થઈ જાય છે..
O Jina ! Why does the bodies of the righteous devotees in this world get destroyed ? The bodies that are instrumental in their meditation on your image. Indeed, when great men become mediators all sources of ambiguity and duality or mundane debate and dispute are rooted out or eliminated.
चित्र-परिचय
जैसे महापुरुष जहाँ मध्यस्थ होते हैं, वहाँ विग्रह (कलह) मिट जाता है।
उसी प्रकार शरीर से प्रभु का ध्यान किया और साधक उस शरीर से ही मुक्त हो जाता है । (मानव देह को मुक्ति का माध्यम माना है।)
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मानव शरीर द्वारा प्रभु का ध्यान कर के
शरीर से मुक्ति प्राप्त की।
सदपुरुष की मध्यस्था से कलह मिट गया।
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आत्मा मनीषिभिरयं त्वदभेदबुद्ध्याध्यातो जिनेन्द्र ! भवतीह भवत्प्रभावः। पानीयमप्यमृतमित्यनुचिन्त्यमानं,
किं नाम नो विषविकारमपाकरोति।।१७।। हे प्रभो ! मनीषी पुरुष अपनी आत्मा को आपसे अभेदरूप में अर्थात् परमात्मारूप में ध्यान करते हैं, तो उनकी वही साधारण आत्मा भी आप जैसी महान बन जाती है। पानी को भी यदि सर्वथा अभेद बुद्धि से अमृत समझकर उपयोग में लाया जाए तो क्या वह अमृत के समान विष विकार को दूर नहीं करता है ?।
હે પ્રભુ ! મનીષી પુરુષ પોતાના આત્માને આપથી અભેદરૂપે અર્થાત્ પરમાત્મારૂપ માં ધ્યાન ધરે છે, ત્યારે તેમનો સાધારણ આત્મા પણ આપના જેવો મહાન બની જાય છે. પાણીને પણ જો સર્વથા અભેદ બુદ્ધિથી અમૃત સમજીને ઉપયોગમાં લેવામાં આવે તો શું તે અમૃત સમાન વિષ વિકારને દૂર નથી કરતું?
0 Jineshvar ! The sagacious ever indulgent in spiritual contemplation meditate upon your image as inalienable from their own soul. Undergoing this process of meditation they make their soul as supreme as you. Does ordinary water not act as ambrosia for detoxification when it is used with an absolutely unalterable belief that itisambrosia?
| चित्र-परिचय
जैसे मणि मंत्र के श्रद्धा पूर्वक स्मरण से पानी को अमृत तुल्य बना दिया और सर्प-विष से मृत व्यक्ति को पिलाकर जिन्दा कर दिया, उसी प्रकार साधु पुरुष आपके स्वरूप का चिन्तन करके ही परमात्मा पद को प्राप्त कर लेते हैं।
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साधु पुरुष परमात्मा के स्वरूप का ध्यान कर
परमात्मा पद को प्राप्त कर लेते हैं।
मणिमंत्र का श्रद्धा पूर्वक स्मरण करके सर्प विष से प्रभावित व्यक्ति को साधारण जल पिलाने से पानी भी अमृत तुल्य हो जाता है।
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त्वामेव वीततमसं परवादिनोऽपि, नूनं विभो ! हरिहरादि धिया प्रपन्नाः । किं काचकामलिभिरीश ! सितोऽपि शंखो, नो गृह्यते विविध - वर्णविपर्ययेण ।। १८ ।।
हे प्रभो ! अन्य मतावलम्बी जो हरि-हरादि देवों की पूजा करते हैं सो मेरी समझ में आप ही को वे अपने मिथ्यात्वादि के प्रभाव से हरि-हरादि समझकर पूजते हैं, जैसे-पीलिया रोग वाला सफेद शंख को भी पीला समझकर ग्रहण करता है।
हे પ્રભુ ! અન્ય મતાવલંબી જે હરિ-હરાદિ દેવોની પૂજા કરે છે, તેઓ મારી સમજ પ્રમાણે આપને જ તે પોતાના મિથ્યાત્વાદિના પ્રભાવથી હરિ-હરાદિ સમજીને પૂજે છે, જેવી રીતે કમળાનો રોગી સફેદ શંખને પણ પીળો સમજીને ગ્રહણ કરે છે.
O Prabhu! The followers of other religions worship deities like Hari and Har. To me it appears that they, in fact, venerate only you considering you to be Hari or Har under the influence of their unrighteousness. In the same way as a jaundiced person accepts a white conch-shell considering it to be yellow.
चित्र-परिचय
जैसे पीलिया रोगग्रस्त पुरुष को श्वेत शंख भी पीला दीखने लगता है ।
वैसे ही हरि-हर-ब्रह्मा-बुद्ध आदि को पूजने वाला शायद मतिभ्रम के कारण ही ऐसा करता होगा । वास्तव में सर्वत्र प्रभु पार्श्वनाथ का ही दिव्य स्वरूप विद्यमान है ।
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हरी-हर- ब्रह्म, बुद्ध आदि में सर्वत्र प्रभु पार्श्वनाथ का दिव्य स्वरूप ही विद्यमान है।
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पीलिया रोग से ग्रस्त व्यक्ति को वह श्वेत शंख भी पीला दीखता है।
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धर्मोपदेशसमये सविधानुभावा- दास्तां जनो भवति ते तरुरप्यशोकः । अभ्युद्गते दिनपतौ समहीरुहोऽपि, किं वा विबोधमुपयाति न जीवलोकः ।। १६ ।।
हे प्रभो ! जिस समय आप धर्मोपदेश करते हैं, उस समय आपके सत्संग के प्रभाव से वृक्ष भी अशोक हो जाता है, तब फिर मानव-समाज के शोकरहित होने में तो आश्चर्य ही क्या ? जैसे सूर्य उदय होता है, तब केवल मानव समाज ही नहीं अपितु कमलादि समस्त जीव-लोक भी प्रबुद्ध हो जाता है (प्रतिहार्य १) ।
હે પ્રભુ ! જે વખતે આપ ધર્મોપદેશ કરો છો, તે વખતે આપના સત્સંગના પ્રભાવથી વૃક્ષ પણ અશોક બની જાય છે, તો પછી માનવ-સમાજના શોકરહિત બનવામાં તો આશ્ચર્ય જ ક્યાં છે? જ્યારે સૂર્યનો ઉદય થાય છે, ત્યારે ફક્ત માનવ સમાજ જ નહીં પરંતુ કમલાદિ સમસ્ત જીવ-લોક પણ પ્રબુદ્ધથઈ જાય છે (પ્રતિહાર્ય૧)
O Prabho! When you give your discourse an ordinary tree turns into an Ashoka tree, what is there to be astonished if the human society becomes free of grief (a-shoka) under your influence ? Indeed, when the sun rises it is not only the humans who are enlightened but the whole world of the living, including lotuses, flourishes and blooms. (first divine felicitation)
चित्र-परिचय (प्रतिहार्य १) अशोक वृक्ष
जिस प्रकार सूर्योदय होने पर मानव समूह तो प्रफुल्लित होता ही है, साथ ही समस्त प्राणिजगत् और कमल पुष्प आदि भी खिल उठते हैं ।
वैसे ही प्रभु के सत्संग के दिव्य प्रभाव से केवल मनुष्य समाज ही शोक मुक्त नहीं होता, वृक्ष भी अशोक (शोक मुक्त) बन जाता है ।
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भगवान के सत्संग के प्रभाव से केवल मानव ही नहीं।
अपितु वृक्ष भी अशोक (शोक रहित) हो गया।
सूर्योदय होने पर मानव, पक्षी, कमल के फूल आदि समस्त प्राणी जगत खिल उठा।
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चित्रं विभो ! कथमवाङ्मुखवृन्तमेव, विष्वक् पतत्यविरला सुरपुष्पवृष्टिः। त्वद् गोचरे सुमनसां यदि वा मुनीश !
गच्छन्ति नूनमध एव हि बन्धनानि।।२०।। हे प्रभो ! आपके समवसरण में देवकृत पुष्प-वर्षा के फूल सब के सब अपने डण्ठल नीचे की ओर किये हुए ऊर्ध्वमुख ही पड़ते हैं। ठीक है, जब भी कोई सुमन (अच्छे मन वाले) आपके पास आते हैं तो उसके बन्धन सदा नीचे की ओर ही चले जाते हैं इसमें आश्चर्य ही क्या है ? (प्रतिहार्य २)।
હે પ્રભુ ! આપના સમવસરણમાં દેવકૃત પુષ્પ-વર્ષા ના ફૂલ બધાં જ પોતાની દાંડી નીચેની તરફ કરીને ઉર્ધ્વમુખ જ પડે છે. ઠીક છે, જ્યારે પણ કોઈ સુમન (સારા મનવાળા) આપની પાસે આવે છે, ત્યારે તેમના બંધન સદા નીચેની તરફ જ ચાલ્યા જાય છે, તેમાં આશ્ચર્ય જ ક્યાં છે? (प्रतिहार्य २)
O Prabho ! All the Parijat flowers (a type of lotus) of the divine shower of flowers over your Samavasaran (divine assembly) fall with their stems downwards and face up. It is not surprising, indeed, that when any person with a noble mind (su-man) comes near you his bonds always slide down. (second divine felicitation)
चित्र-परिचय (प्रतिहार्य २) दिव्य पुष्प वृष्टि
जैसे समवसरण में देवगण पुष्प वर्षा करते हैं तब पुष्पों के डंठल नीचे की ओर झुके रहते हैं।
प्रभु की स्तुति करने वाले सुमन (शुभ मन वाले) के बंध भी स्वतःही नीचे की ओर चले जाते हैं।
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प्रभु की स्तुति करने पर बन्धनों से मुक्त होता भक्ता
प्रभु के समवसरण में। पुष्प वर्षा करते देवगणा
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स्थाने गभीरहृदयोदधि-सम्भवायाः, पीयूषतां तव गिरः समुदीरयन्ति। पीत्वा यतः परमसम्मदसंगभाजो,
भव्या व्रजन्ति तरसाऽप्यजरामरत्वम्।।२१।। हे मुनीश ! आपके गंभीर हृदयरूपी समुद्र से उत्पन्न होने वाली आपकी मधुर वाणी को ज्ञानीजन अमृत मानते हैं। वह उचित ही है। जिस प्रकार मनुष्य अमृत का पान कर अजर-अमर हो जाते हैं। उसी प्रकार भव्य जीव भी आपके वचनामृत का पान करके शीघ्र ही जन्म-जरा-मरण के दुःखों से छुटकारा पाते हैं। (यह दिव्य ध्वनि प्रातिहार्य का वर्णन है, प्रतिहार्य ३)
હે મુનીશ ! આપના ગંભીર હૃદયરૂપી સમુદ્રમાંથી ઉત્પન્ન થનારી આપની મધુર વાણીને જ્ઞાનીજન અમૃત માને છે, તે સાચુજ છે. જે પ્રકારે મનુષ્ય અમૃતનું પાન કરીને અજર-અમર થઈ જાય છે, તે જ પ્રકારે ભવ્ય જીવ પણ આપના વચનામૃતનું પાન કરીને શીધ્ર જ જન્મ-જરા-મરણના દુ:ખોથી છૂટકારો પામે છે. (माहव्य ध्वनि प्रतियनुवान छ. प्रतिकार्य 3)
Jinendra ! The sagacious believe your soothing speech, emanating out of your ocean-like calm and tranquil heart, to be ambrosia. That is, indeed, right. As those who drink ambrosia become free of decay and death, in the same way the worthy ones who taste your ambrosia-like speech are soon emancipated from the miseries of birth, decay, and death. (third divine felicitation)
चित्र-परिचय (प्रतिहार्य ३) दिव्य ध्वनि
जैसे समुद्र से उत्पन्न अमृत-पान करके मनुष्य अमरत्व को प्राप्त करता है।
समवसरण में भक्तजन प्रभु पार्श्वनाथ के हृदय समुद्र से प्रवाहित अमृत रुपी वाणी का स्मरण करके जन्म-मरण के दुःखों से छुटकार पाते हैं।
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प्रभु पार्श्वनाथ की अमृतमय वाणी सुनते भक्तजन।
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समुद्र से उत्पन्न अमत का पान करने से मनुष्य संसार चक्र से मुक्त हो जाते हैं।
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स्वामिन् ! सुदूरमवनम्य समुत्पतन्तो, मन्ये वदन्ति शुचयः सुर-चामरौघाः । येऽस्मै नतिं विदधते मुनि पुंगवाय, ते नूनमूर्ध्वगतयः खलु शुद्ध - भावाः ।। २२ ।।
हे प्रभो ! देवताओं द्वारा दुलाए जाने वाले पवित्र श्वेत चँवर पहले नीचे झुककर फिर ऊपर की ओर जाते हैं। भाव यह है कि जो भव्य आत्माएँ प्रभु के चरणों में नमस्कार करती हैं, झुकती हैं वे निश्चय ही शुद्ध स्वरूप प्राप्त कर ऊर्ध्व गति को प्राप्त होती हैं (प्रतिहार्य ४) ।
હે પ્રભુ ! દેવતાઓ દ્વારા ડોલાવવામાં આવતા પવિત્ર શ્વેત ચામર પહેલા નીચે નમીને પછી ઉપર તરફ જાય છે. તાત્પર્ય એ છે કે જે ભવ્ય આત્માઓ પ્રભુના ચરણોમાં નમસ્કાર કરે છે, ઝૂકે છે, તે નિશ્ર્ચય જ શુદ્ધસ્વરૂપ પ્રાપ્ત કરીને ઉર્ધ્વ ગતિને પ્રાપ્ત કરે છે. (પ્રતિહાર્ય ૪)
O Prabho! The movement of the whisks that the Gods in your attendance swing is first downwards and then upwards. This indicates that the worthy devotees who pay homage by bowing at the feet of Bhagavan are sure to achieve spiritual purity and attain higher status on rebirth. (fourth divine felicitation)
चित्र-परिचय (प्रतिहार्य ४) चँवर
समवसरण में देवताओं द्वारा ढुलाये श्वेत चंवर पहले नीचे की ओर जाते हैं फिर ऊपर उठते हैं ।
उसी प्रकार भव्य आत्माएँ प्रभु के चरणों में नमस्कार करने झुकती हैं और मोक्ष को प्राप्त करती हैं ।
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प्रभु को चंवर दुलाते देवगण
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प्रभु चरणों में वन्दन करने से भक्त को मोक्ष मिला।
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श्यामं गभीर
गिरमुज्ज्वलहेमरत्न
सिंहासनस्थमिह भव्यशिखण्डिनस्त्वाम् । आलोकयन्ति रभसेन नदन्तमुच्चैश्चामीकराद्रि शिरसीव नवाम्बुवाहम् ।। २३ ।।
हे प्रभो ! जब आप रत्नजड़ित स्वर्णमयी सिंहासन पर विराजमान होते हैं और गम्भीर वाणी से धर्मदेशना करते हैं, तब भव्य प्राणी रूपी मूयर, श्याम वर्ण वाले आपको बहुत ही उत्सुकता पूर्वक देखते हैं। मानो सुवर्णमय सुमेरु पर्वत के शिखर पर वर्षाकालीन श्याम मेघ घुमड़ता हुआ जोर-जोर से गरज रहा हो (प्रतिहार्य ५) ।
हे પ્રભુ ! જયારે આપ રત્નજડિત સ્વર્ણમયી સિંહાસન પર બિરાજમાન થાવ છો અને ગંભીર વાણીમાં ધર્મદેશના કરો છો, ત્યારે ભવ્ય પ્રાણી રૂપી મયૂર શ્યામ વર્ણના આપને જોઈને ખુશ થાય છે. લાગે છે, જાણે સુવર્ણમય સુમેરુ ના શિખર પર વર્ષાકાલીન શ્યામ મેઘ ઘેરાઈને જોરથી ગરજી રહ્યા છે. (प्रतिहार्य प )
O Prabho! When you sit on the gem studded throne in your Samavasaran and give your sermon in resonating voice, beholding your beautiful dark complexioned body the worthy are brimmed with joy. As if, like peacocks, they are witnessing dark and thundering fresh rain clouds hovering over the golden peaks of Sumeru mountain. (fifth divine felicitation)
चित्र-परिचय (प्रतिहार्य ५) सिंहासन
जैसे मेरु पर्वत के शिखर पर नीले-काले घुमड़ते, बरसते मेघ को देखकर मयूर प्रसन्न होता है ।
नील वर्ण से दैदिप्यमान प्रभु पार्श्वनाथ, रत्नजड़ित सिंहासन पर विराजमान होकर धर्मदेशना करते हैं तो उन्हें देखकर भव्य प्राणी उसी प्रकार प्रसन्न होते हैं ।
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नील वर्ण से दैदिप्यमान, रत्न जड़ित सिंहासन पर । विराजमान प्रभु को देखकर ।
हर्षित होते भक्तगणा
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मेरू पर्वत पर घुमड़ते नीले-काले मेघों को देखकर प्रसन्नता से नृत्य करता मयूर।
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उद्गच्छता तव शितद्युतिमण्डलेन, लुप्तच्छद - च्छविरशोकतरुर्बभूव। सान्निध्यतोऽपि यदि वा तव वीतराग!
नीरागतां व्रजति को न सचेतनोऽपि।।२४।। हे नाथ ! आपके दिव्य शरीर से ऊपर की ओर निकलने वाली किरणों के नील प्रभामण्डल से अशोक-तरु के लाल पत्ते भी अपनी रागरूप लालिमा छोड़ देते हैं। उसी प्रकार हे भगवन् ! आपके समीप रहने मात्र से कौन ऐसा सचेतन प्राणी है, जो रागरहित नहीं हो जाता हो ? अर्थात् वीतराग बन जाता है (प्रतिहार्य ६)।
હે નાથ ! આપના દિવ્ય શરીરમાંથી ઊપર તરફ નીકળનારા કિરણોના નીલરંગી પ્રભામંડળથી અશોક-તરુના લાલ પાન પણ પોતાની રાગરૂપી લાલિમા છોડે છે. તે જ પ્રકારે હે ભગવન ! આપની સમીપ રહેનારામાં કોણ એવું સચેતન પ્રાણી છે જે રાગરહિત નથી થઈ જતું? અર્થાત્ વિતરાગ બની हाय छे. (प्रतितार्थ६)
O Prabho ! Touched by the blue orb of the radiant glow rising from your divine blue body the red hue of the leaves of Ashoka tree suddenly turns yellow. In the same way, O Vitaraag The detached one)! Where is that sentient being who is not freed of his attachments (to become vitaraag) just by being in Your proximity? Nowhere, indeed. (sixth divine felicitation)
चित्र-परिचय (प्रतिहार्य ६) प्रभामण्डल
प्रभु के नील आभा मंडल से निकली किरणों के प्रभाव से अशोक वृक्ष के पत्ते भी लालिमा रहित होकर नीलवर्ण के हो गए हैं।
उसी प्रकार पार्श्वनाथ प्रभु की प्रतिमा के समीप बैठा भक्ति करता भक्त प्रभु के दिव्य प्रभाव से राग रहित हो गया है।
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प्रभु के आभामंडल से निकली किरणों के प्रभाव से वृक्ष के पत्ते भी लालिमा
रहित हो गये। प्रभु भक्ति के प्रभाव से भक्त राग रहित हो गया।
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भोः भोः प्रमादमवधूय भजध्वमेनमागत्य निर्वृतिपुरी प्रतिसार्थवाहम्। एतन्निवेदयति देव ! जगत्त्रयाय,
मन्ये नदन्नभिनभः सुरदुन्दुभिस्ते।।२५।। हे प्रभो ! आकाश में सब ओर गर्जन करती हुई देव-दुंदुभि तीन जगत् को इस प्रकार सूचना देती है "ये भगवान पार्श्वनाथ मोक्षपुरी के बड़े सार्थवाह हैं। मोक्षपुरी की यात्रा के इच्छुक यात्रियो ! आलस्य त्यागकर इनकी शरण ग्रहण करो" (प्रतिहार्य ७)।
હે પ્રભુ! આકાશમાં બધી બાજુ ગર્જના કરતી દેવ-દુંદુભિ ત્રણે જગતને આ પ્રકારે સૂચના દે છે ? આ ભગવાન પાર્શ્વનાથ મોક્ષપુરીના મહાન સાર્થવાહ છે. મોક્ષપુરીની યાત્રાના ઈચ્છુક યાત્રિઓ ! આળસ ત્યાગીને તેમની शर। ग्रह। रो." (प्रतिहार्य ७)
O Naath ! The divine drums beating in the sky and reverberating in all directions appear to be informing all beings in the three worlds —“Bhagavan Parshva Naath is the ultimate guide for the goal of liberation (Nirvritipuri or the abode of liberation). All the worthy desirous of attaining liberation should abandon lethargy and seek his refuge.” (seventh divine felicitation)
चित्र-परिचय (प्रतिहार्य ७) देव दुंदुभि
प्रभु के समवसरण के ऊपर आकाश में चारों ओर देवताओं द्वारा देव दुर्दुभि बजाई जा रही है। यह देव दुर्दुभि तीनों लोकों मे प्राणियों को इस बात की सूचना देती है कि मोक्ष की यात्रा के इच्छुक भव्यजन, मोक्ष के सार्थवाह प्रभु पार्श्वनाथ की शरण ग्रहण करें। चित्र के बायी तरफ एक कोनों में तीनों लोक के प्राणी प्रभु को हाथ जोड़कर प्रणाम करते बताये गये हैं।
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समवसरण के ऊपर आकाश में देवगण देव दुदंभी बजा रहे हैं।
प्रणाम
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तीनों लोकों के प्राणी मोक्ष के सार्थवाह प्रभु की शरण में जा रहे हैं।
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जलचर नागकुमार
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उद्द्योतितेषु भवता भुवनेषु नाथ ! तारान्वितो विधुरयं विहताधिकारः। मुक्ताकलाप-कलितोल्लसितातपत्र
व्याजात्रिधा धृततनु वमभ्युपेतः।।२६।। हे प्रभो ! जब आपने अपने दिव्य ज्ञान के प्रकाश से तीनों लोक को प्रकाशित कर दिया है। इससे मानो, मोतियों की झालर से शोभायमान तीन छत्र के बहाने तारों से युक्त चन्द्रमा अपनी कांति को छत्र में विलीन कर तीन शरीर धारणकर आपकी सेवा कर रहा है (प्रतिहार्य ८)।
હે પ્રભુ ! જ્યારે આપે આપના દિવ્ય જ્ઞાનના પ્રકાશથી ત્રણે લોકને પ્રકાશિત કરી દીધા છે, ત્યારે જાણે મોતીઓની ઝાલરથી શોભાયમાન ત્રણ છત્રના બહાને તારોથી યુક્ત પોતાના અધિકારથી ભ્રષ્ટ થયેલ આ ચંદ્રમા પોતાના ત્રણ શરીર ધારણ કરીને નિશ્ચય જ આપની સેવા કરી રહ્યો છે. (પ્રતિહાર્ય ૮)
O Prabho ! The three worlds are illuminated by the divine light of your knowledge. This has reduced the star-surrounded moon to insignificance. It appears as if the moon has also come in your attendance in the form of the three tier canopy over your head with stars dangling around as pearl frills. (eighth divine felicitation)
चित्र-परिचय (प्रतिहार्य ८) छत्र
प्रभु के दिव्य ज्ञान प्रकाश से आलोकित होते तीनों लोक।
चित्र में मोतियों की झालर से शोभायमान तारों से युक्त चन्द्रमा रूपी तीन छत्र दिखाये गये हैं। मानो चन्द्रमा छत्र रूप धारण कर प्रभु की सेवा कर रहा हो।
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चन्द्रमा तीन छत्रों के रूप में भगवान की सेवा करते हाण
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प्रभु के दिव्य ज्ञान के प्रकाश से आलोकित होते
तीनों लोका
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स्वेन प्रपूरित-जगत्त्रय-पिण्डितेन, कान्ति-प्रताप-यशसामिव संचयेन। माणिक्य-हेम-रजतप्रविनिर्मितेन,
साल-त्रयेण भगवन्नभितो विभासि।।२७।। हे भगवन् ! आप (समवरण में) अपने चारों ओर के माणिक्य, सुवर्ण और चाँदी से बने हुए तीन कोटों से बहुत ही सुन्दर लगते हो। मानो, आपके शरीर की कांति, आपका प्रताप और आपका यश ही तीनों जगत् में सर्वत्र फैलने के बाद आगे स्थान न मिलने के कारण आपके चारों ओर तीन कोट के रूप में पिण्डीभूत हो गया है।
हे भगवान ! मा५ (समवसरमां) मापनी यारे त२६ ना भाई, સુવર્ણ અને ચાંદીથી બનેલા ત્રણ પડથી ખૂબ જ સુંદર લાગો છો. જાણે, આપના શરીરની કાંતિ, આપનો પ્રતાપ અને આપનો યશ જ ત્રણે જગતમાં સર્વત્ર ફેલાઈને આગળ સ્થાન ન મળવાને કારણે આપની ચારે તરફ ત્રણ પડરૂપે પિન્ડીભૂત થઈ ગયા છે.
O Bhagavan ! You look glorious sitting inside the Samavasaran with three parapet walls exquisitely built of gold, silver and rubies. It appears as if the orbs of your radiance, your glory and your fame have crystallized into these three parapet walls after covering the three worlds and finding nothing more to illuminate.
| चित्र-परिचय
___ भगवान की कांति, प्रताप एवं यश तीनों जगत में फैलने के पश्चात् स्थान न मिलने के कारण चारों ओर तीन गड़ के रूप में विराजमान हो गये।
नीलवर्ण की कांति रूपी पहला नील रत्नों का गड़, प्रताप अग्नि रूपी दुसरा पीला स्वर्ण गड़, यश जैसा उज्जवल तीसरा चांदी का गड़।
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भगवान की कान्ति, प्रताप एवं यश तीनों लोकों में फैलकर तीन गड के रूप में स्थापित हो गया।
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दिव्यस्रजो जिन ! नमत्-त्रिदशाधिपानामुत्सृज्य रत्नरचितानपि मौलिबन्धान्। पादौ श्रयन्ति भवतो यदि वा परत्र, त्वत्संगमे सुमनसो न रमन्त एव।।२८।।
हे नाथ ! जब इन्द्र आपको नमस्कार करते हैं, तब उनकी दिव्य पुष्पमालाएँ रत्नजड़ित मुकुटों का परित्याग कर झटपट आपके श्रीचरणों का आश्रय ले लेती हैं। ठीक है; आपका समागम होने पर (सुमन) फूलमालाएँ अथवा अच्छे मन वाले सज्जन अन्यत्र नहीं रमते हैं।
હે નાથ ! જ્યારે ઈન્દ્ર આપને નમસ્કાર કરે છે, ત્યારે તેમની દિવ્ય પુષ્પમાળાઓ રત્નજડિત મુગટનો પરિત્યાગ કરીને ઝટપટ આપના શ્રીચરણોનો આશ્રય લઈ લે છે. ઠીક છે, આપનો સમાગમ થવાથી (સુમન) ફૂલમાળાઓ અથવા સારા મનવાળા સજ્જન અન્યત્ર વિહરતાં નથી.
ONaath ! When Indra, the king of gods bows at your lotus-feet to pay his homage, the divine garlands abandon his gem studded crown and get scattered at your beatific feet. It is true, indeed, that when refuge is available at your pious feet the worthy, like flowers, abandon every other place.
चित्र-परिचय
जिनेश्वर देव के चरणों में वन्दना करते इन्द्र आदि देवों के गले की दिव्य पुष्प (सुमन) मालायें निकालकर भगवान के चरणों का आश्रय ले लेती हैं।
उसी प्रकार अच्छे मन (सुमन) वाले व्यक्ति की प्रभु के प्रति प्रीति होने के कारण मन अन्यत्र कहीं नहीं रमता । वह भी आपके चरणों का आश्रय ले लेते हैं। -
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MARIAN
जिनेश्वर देव के चरणों में वन्दना
करते इन्द्र आदि देवा
दिव्य पुष्प मालाया
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प्रभु से प्रीति होने पर राग-रंग
में मन नहीं रमता।
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त्वं नाथ ! जन्म-जलधेर्विपराङ्मुखोऽपि, यत्तारयस्यसुमतो निजपृष्ठलग्नान्। युक्तं हि पार्थिव-निपस्य सतस्तवैव,
चित्रं विभो ! यदसि कर्म-विपाकशून्यः।।२६।। हे प्रभो ! आप संसार-समुद्र से पराङ्मुख (उदासीन) हैं, किंतु फिर भी जो भक्तजन श्रद्धाभाव से आपके पीछे लगते हैं अर्थात् आपके अनुगामी होते हैं, उन्हें आप उसी प्रकार तार देते हैं जैसे उलटे घड़ों की पीठ पर नौका बनाकर बैठे हुए प्राणी समुद्र पार कर जाते हैं। यद्यपि मिट्टी का घड़ा (पार्थिव निप) तो विपाक सहित (पका हुआ है) है, किंतु आप तो कर्म विपाक से रहित हैं, फिर भी आपके अनुगामी भव-समुद्र पार कर जाते हैं।
હે પ્રભુ ! આપ સંસાર-સમુદ્રથી ઉદાસીન છો, છતાં પણ જે ભક્તજન શ્રદ્ધાભાવથી આપના અનુગામી બને છે, તેને આપ તે જ પ્રકારે તારો છો જેમ ઉલ્ટા ઘડાની પીઠ પર નૌકા બનાવીને બેઠેલો પ્રાણી સમુદ્ર પાર કરે છે. જ્યારે માટીનો ઘડો (પાર્થિવ નિપ) તો વિપાક સહિત છે (પાકેલો છે), પરંતુ આપ તો કર્મ વિપાકથી રહિત છો, છતાં પણ આપના અનુગામી ભવ-સમુદ્ર પાર કરી જાય છે.
O Prabho ! Although you have turned away from the ocean of worldly existence, you are the taarak (one who helps cross the ocean of mundane existence) for the followers who worship you with devotion in the same way as a ferry on inverted earthen pitchers takes across an ocean. It is surprising that though the earthen pitchers are fired and you are beyond the fire of karmas, your devotees still cross the ocean of mundane existence.
| चित्र-परिचय
जिस प्रकार मिट्टी के पके हुये उल्टे घड़े की पीठ पर बैठकर व्यक्ति सागर पार कर लेते हैं, उसी प्रकार प्रभु पार्श्वनाथ का अनुसरण करके (सम्यक ज्ञान, दर्शन, चारित्र का पालन करते हुये) भक्त संसार समुद्र को पार कर लेता है।
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प्रभु के गुणों का अनुगमन करके भक्तगण
संसार सागर से पार हो जाते हैं
उल्टे घड़े की पीठ पर नौका रखकर बैठे प्राणी सागर पार हो जाते हैं।
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विश्वेश्वरोऽपि जनपालक ! दुर्गतस्त्वं, किंवाऽक्षर-प्रकतिरप्यलिपिस्त्वमीश !
अज्ञानवत्यपि सदैव कथंचिदेव,
ज्ञानं त्वयि स्फुरति विश्वविकासहेतुः।।३०।। हे जनपालक ! आप तीन लोक के स्वामी होकर भी दुर्गत अर्थात् दुर्जेय हैं। आप अक्षर (कभी क्षय नहीं होने वाला तथा अक्षर-वर्ण) स्वभाव वाले होकर भी लिखे नहीं जा सकते हैं। हे स्वामिन् ! आप अज्ञानवत्-अज्ञ प्राणियों के रक्षक हो तो भी आपमें वह ज्ञान सदा स्फुरायमान रहता है जो तीन लोक के सब पदार्थों की सर्वकालीन सम्पूर्ण पर्यायों को युगपत् जानता है।
विशेषार्थ-विरोधालंकार है-(दुर्गत) दुर्जेय अथवा कठिनाई से जाने जा सकने वाले आप (अक्षर-प्रकृतिः अपि अलिपिः) अक्षर स्वभाव है तो भी लिखने में नहीं आ सकते अथवा अविनाशी स्वरूप वाले अलिपिः निराकार परमात्मा होने के कारण लिखे नहीं जा सकते हैं (अज्ञान् अवति) अज्ञजनों की रक्षा करने वाले, अतः आप सर्वज्ञ हो।
હે જનપાલક ! આપ ત્રણ લોકના સ્વામી થઈને પણ દુર્ગત અર્થાત્ દુર્રેય છો અથવા અક્ષર ક્યારેય ક્ષય ન થનાર તથા અક્ષર-વણ) સ્વભાવ હોવા છતાં આપ લખી શકાતા નથી. હે સ્વામિ ! આપ અજ્ઞજનોના રક્ષકછો તો પણ આપનામાં તે જ્ઞાન સદા ફુરાયમાન રહે છે જે ત્રણે લોકના સર્વ પદાર્થોના સર્વકાલીન સંપૂર્ણ પર્યાયોને યુગપત્ જાણે છે.
विशेषार्थ-विरोधासंडार छ- (d) निधन अथवा 88थी मोजणी शाय छे. આપ (અક્ષર-પ્રવૃત્તિ: અપિ અલિપિ:) અક્ષર સ્વભાવ છો, છતાં લખવામાં નથી આવી શકતાં અથવા અવિનાશી સ્વરૂપ વાળા અલિપિ : નિરાકાર પરમાત્મા હોવાથી લખી શકાતા નથી (महान् मति) मनोनी रक्षा २नारा, मत: माप सर्वछो.
O Janapalak (support of masses) ! Though you are the Lord of the three worlds, you are still without any possessions. Also, though you are akshar (indestructible; also letter of the alphabet), you are still alipi (formless; also cannot be written). In a way you are devoid of knowledge (as it is outwardly dormant) but the knowledge of all substances and all their modes is ever present and inwardly pulsating within you.
चित्र-परिचय
सामने के चित्र में ही चित्र परिचय दिया गया है।
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390
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सर्व जगत्
के प्राणियों
के रक्षक हे
जिनेश्वर !
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आप विश्व स्वामी होते हुए भी दुर्गत दरिद्र हैं। यहाँ विश्व के स्वामी होते हुए दरिद्र बताने में विरोधाभास है, इसे दूर करने के लिए दुर्गत का अर्थ "कष्ट पूर्वक जाने जा सकने योग्य है।"
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अध्यापक विद्यार्थी को भगवान का स्वरूप समझाते हैं पर विद्यार्थी नहीं समझ पाता ।
हे ईश ! आप अक्षर के स्वभाव वाले होते हुए भी अलिपि-लिपि रहित अर्थात् अक्षर रहित हैं। इस अर्थ में भी विरोधाभास है। इसे दूर करने के लिये अक्षर अर्थात् मोक्ष के स्वभाव वाले और अलिपि का अर्थ कर्म के लेप से रहित लगाया गया है।
हे ईश्वर आप अपने कैवल्य ज्ञान द्वारा तीनों लोकों के सम्पूर्ण पदार्थों और उनकी सम्पूर्ण पर्यायों को जानने वाले हैं अतः आप सर्वज्ञ हैं।
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प्राग्भार-संभृत-नभांसि रजांसि रोषादुत्थापितानि कमठेन शठेन यानि। छायाऽपि तैस्तव न नाथ ! हता हताशो, ग्रस्तस्त्वमीभिरयमेव परं दुरात्मा ।।३१।।
हे प्रभो ! दुष्ट कमठ ने क्रोध में आकर आप पर भीषण धूल एवं पत्थर की वर्षा की, जिसके समूह से समग्र आकाश भर गया, परन्तु आपका कुछ भी नहीं बिगड़ा। आपकी छाया भी मलिन नहीं हुई, बल्कि वही दुरात्मा कमठ पापों के भार से दुष्कर्मों की धूल में धंस गया।
પ્રભુ ! દુષ્ટ કામઠે કોશમાં આવીને આપ પર ભીષણ ધૂળ અને પત્થરની વર્ષા કરી, જેના સમૂહથી સમગ્ર આકાશ ભરાઈ ગયું, પરંતુ આપનું કશું ન બગડયું. આપનો પડછાયો શુદ્વા ન ઢંકાયો, અને તે દુરાત્મા કમઠ પાપોના ભારથી દુષ્કર્મોની ખાઈમાં ખૂંપી ગયો.
O Prabho! That evil Kamath (a specific demigod) afflicted you with terrifying sand storm that covered every part of the sky but those particles of sand could not even touch your shadow. However, as a consequence of that evil deed Kamath's own soul was pushed into the ditch of karmic bondage.
चित्र-परिचय
पार्श्व प्रभु के ऊपर कमठ ने भीषण धूल वर्षा की परन्तु ध्यान मग्न भगवान का कुछ नहीं बिगड़ सका बल्कि कमठ अपने पापों के भार से उस धूल में लिप्त हो दब गया।
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पार्श्व प्रभु के ऊपर भीषण धूल वर्षा करता कमठ
अविचल खड़ें पार्श्व प्रभु
अपने ही पाप कर्मों की धूल में दबा कमठ
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यद्गर्जदूर्जित - घनौघमदभ्र - भीमं, भ्रश्यत्तडिन्मुसलमांसल - घोरधारम्। दैत्येन मुक्तमथ दुस्तरवारि दधे,
तेनैव तस्य जिन ! दुस्तरवारि कृत्यम्।।३२ ।। हे प्रभो ! कमठ ने आपके ऊपर भयंकर जल वर्षा की, ऐसी वर्षा कि जिसमें बड़े-बड़े विशाल मेघ समूह गर्जन कर रहे थे, बिजलियाँ गिर रही थीं और मूसल के समान मोटी-मोटी जलधाराएँ बरस रही थीं। किन्तु उस वर्षा से आपका कुछ भी नहीं बिगड़ा, किन्तु उस अज्ञानी कमठ असुर ने अपने लिए तीक्ष्ण तलवार का काम कर लिया और वही अपने पापों के कीचड़ में डूब गया।
હે પ્રભુ ! કમઠે આપના ઉપર ભયંકર જળ વર્ષા કરી, એવી વર્ષા કે જેમાં મોટા-મોટા વિશાળ મેઘ સમૂહ ગર્જના કરી રહ્યા હતાં, વિજળી પડતી હતી અને મૂસળધાર વરસાદ વરસી રહ્યો હતો. પરંતુ એ વરસાદથી આપનું કશું ન બગડયું, પરંતુ તે અજ્ઞાની કમઠ અસુરે પોતા માટે તીક્ષ્ણ તલવારનું કામ કર્યું અને તે પોતાના પાપના કીચડમાં ડૂબી ગયો.
O Prabho ! That evil Kamath once again tormented you with a fearsome down-pour accompanied by thunder and lightening. Water poured in streams as thick as a mace. But even that could not do any harm to you. However, that evil deed acted as a sword for him and he was sucked into the quagmire of karmas.
| चित्र-परिचय
दुष्ठ कमठ ने बदला लेने के लिये ध्यान मग्न पार्श्वप्रभु के ऊपर मूसल के समान मोटी जल धाराओं की वर्षा की। और स्वयं ही अपने पापकर्मों से उस भयंकर जल वृष्टि में डूबने लगा । प्रभु अविचल ध्यान मग्न रहे।
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पार्श्व प्रभु के ऊपर भीषण जलवृष्टि करता कमठ
अविचल खड़े पार्श्व प्रमु
अपने ही पाप कर्मों की जलवृष्टि में डूबा कमठ
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ध्वस्तोलकेश-विकृताकृति-मर्त्यमुण्डप्रालम्बभृद्-भयद-वक्त्रविनिर्यदग्निः। प्रेतव्रजः प्रतिभवन्तमपीरितो यः,
सोऽस्याऽभवत् प्रतिभवं भवदुःखहेतुः।।३३।। हे जिनेन्द्र ! उस दुष्ट कमठ ने आपको ध्यानभ्रष्ट करने के लिये अत्यन्त निर्दय पिशाचों के दल भी भेजे। वे कैसे थे-जिनके गले में नर मुण्डों की मालाएँ पड़ी हुई थीं और जो अपने भयानक मुख से आग निकाल रहे थे। वे आपका कुछ भी नहीं बिगाड़ सके, प्रत्युत वे उसी कमठ के लिये अनेक भवों में भयंकर दु:खों के कारण बन गये।
હે જિનેન્દ્ર ! એ દુષ્ટ કમઠે આપનું ધ્યાનભ્રષ્ટ કરવા માટે અત્યંત નિર્દય પિશાચોનાં દળ પણ મોકલ્યાં. તે કેવાં હતાં - જેમના ગળામાં નર મુંડોની માળાઓ પડેલી હતી અને જે પોતાના ભયાનક મુખમાંથી આગ ઝરતા હતાં. તે આપનું કાંઈ ન બગાડી શક્યા, પણ તે કમઠ માટે જ અનેક ભવમાં ભયંકર દુ:ખોનું કારણ બની ગયાં.
O Jinendra ! The evil Kamath also sent cruel pishachas (demonlike lower gods) with horrifying appearance and adorned with garlands of skulls in order to disturb your pious meditation. But even those fire emitting pishachas could do no harm to you. This despicable deed too turned into the cause of terrible torments for him in many future rebirth.
चित्र-परिचय
उस कमठासुर ने प्रभु को मारने के लिये भयंकर आकृति वाले गले में नरमुण्ड लटकाये, मुँह से आग उगलते पिशाचों को भेजा । वे भी ध्यान मग्न प्रभु का बाल भी बांका नही कर सके । इस कृत्य के प्रतिफल स्वरूप कमठ को कई भवों तक नर्क के भयंकर कष्ट सहने पड़े।
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STAGE
AAR निर्दयी राक्षसों के द्वारा प्रभु को
डराने का प्रयास करता कमठा
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अपने पापकर्मों के फलस्वरूप नर्क की भयंकर यातनाएँ सहता कमठ।
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मान
धन्यास्त एव भुवनाधिप ! ये त्रिसन्ध्यमाराधयन्ति विधिवद् विधुतान्यकृत्याः। भक्त्योल्लसत्-पुलक-पक्ष्मल-देहदेशाः, पाद-द्वयं तव विभो ! भवि जन्मभाजः।।३४।।
हे प्रभो ! संसार के वे ही प्राणी धन्य हैं, जिनके शरीर का रोम-रोम आपकी भक्ति के कारण उल्लसित एवं पुलकित हो जाता है और दूसरे सब काम छोड़कर आपके चरण-कमलों की विधिपूर्वक त्रिकाल उपासना करते हैं।
હે પ્રભુ ! સંસારના એજ પ્રાણીઓ ધન્ય છે, જેમના શરીરનાં રોમ-રોમ આપની ભક્તિને કારણે આનંદિત અને પુલકિત થઈ જાય છે અને બીજા બધાં કામ છોડીને આપના ચરણ કમલોની ત્રિકાલ ઉપાસના કરે છે.
O Prabho ! Revered are the devotees who worship your lotus-feet during all the three sections of the day leaving all other work and following the prescribed procedure. Indeed, blessed are those beings every pore of whose bodies is elated and delighted with the joy of devotion for you.
चित्र-परिचय
प्रातःकालः प्रक्षाल और धूप से, मध्यकाल नैवेद्य तथा फूल से, सायंकाल आरती करके प्रभु की उपासना करता भक्त।
संसार के भौतिक कार्य छोड़कर प्रभु उपासना को जाता भक्त।
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तीन समय की पूजा
सायंकाल
प्रातः
मध्यान्ह
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മത്തത്തിന്
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பலாவாவவவவவவவவவவவவவவவலா
Baal
ANNADAR
संसार के कार्य छोड़कर प्रभु-उपासना
के लिए जाता भक्ता
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अस्मिन्नपार - भववारिनिधौ मुनीश ! मन्ये न मे श्रवण-गोचरतां गतोऽसि। आकर्णिते तु तव गोत्रपवित्रमंत्रे, किं वा विपद् विषधरी सविधं समेति।।३५।।
हे मुनीश ! इस अपार संसार-सागर में परिभ्रमण करते हुए अनन्तकाल हो गया। मैं मानता हूँ आपका नाम कभी भी श्रुतिगोचर नहीं हुआ। क्योंकि आपके नाम का पवित्र मंत्र सुनने में आया होता, तो फिर क्या वह विपत्तिरूपी काली नागिन मेरे पास आती? अर्थात् कभी नहीं।
| હે મુનિશ ! આ અપાર સંસાર સાગરમાં પરિભ્રમણ કરતાં કરતાં અનંત કાળ થઈ ગયો. હું માનું છું કે આપનું નામ કદી પણ શ્રુતિગોચર નથી થયું. કારણકે આપના નામનો પવિત્ર મંત્ર સંભળાયા બાદ શું વિપત્તિરૂપી કાળી નાગણ મારી નજીક આવે ખરી? અર્થાત કદાપિ નહી.
O Devesh ! I have been drifting around in this world of cycles of rebirths for infinite period of time. I am sure that I never heard your pious name. Because had it been otherwise and had I heard the mantra of your pious name, could the black serpent of miseries confront me? Never.
चित्र-परिचय
अनन्त काल से भव भ्रमण करते भक्त ने प्रभु पार्श्वनाथ के नाम का स्मरण किया तो संसार के दुख और भव परिभ्रमण रूपी नागिन उसके पास से दूर हो गई।
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विपत्ती रूपी नागिन
जन्म-जन्मान्तरों तक कष्ट देती है।
हालयाला
बालपणा
प्रभु स्मरण से विपत्ती रूपी नागिन कभी पास नहीं आती।
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जन्मान्तरेऽपि तव पादयुगं न देव ! मन्ये मया महितमीहित-दान-दक्षम्। तेनेह जन्मनि मुनीश ! पराभवानां, जातो निकेतनमहं मथिताशयानाम्।।३६।।
__हे प्रभो ! समझ गया हूँ कि मैंने जन्म-जन्मान्तर में भी, मनोवांछित फल देने में समर्थ ऐसे आपके चरण-युगलों की उपासना नहीं की। यही कारण है कि मैं इस जन्म में हृदय को मथ देने वाले असह्य तिरस्कारों का केन्द्र बन गया हूँ।
હે પ્રભુ ! હું સમજી ગયો છું કે મેં જન્મ-જન્માંતરમાં પણ મનોવાંછિત ફળ આપવા સમર્થ એવા આપના ચરણ યુગલોની ઉપાસના નથી કરી. એ જ કારણ છે કે આ જન્મમાં હૃદયને માત દેવાવાળા અસહ્ય તિરસ્કારોનું કેન્દ્ર | બની ગયો છું.
O Prabho ! I have fully realized that I did not meditate upon your pious lotus-feet during my numerous rebirths, the lotus-feet that are the source of the desired fruits. That is the reason that I have become the target of intolerable insults.
चित्र-परिचय ___अष्ट मंगल युक्त भगवान के चरण कमलों की उपासना करते भक्त जन विपत्तियों से छुटकारा पाते हैं।
भगवान के नाम का स्मरण नहीं किया तो असहय तिरस्कार रूपी विपत्ती सहनी पड़ती है।
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भक्ति के फलस्वरूप पुण्योदय से प्राप्त सुखा
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भगवान के चरण कमलों की
उपासना करता भक्ता
तिरस्कार
भय
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पीड़ा
प्रभु के प्रति अश्रद्धा रखने वाला व्यक्ति।
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नूनं न मोहतिमिरावृतलोचनेन, पूर्व विभो ! सकृदपि प्रविलोकितोऽसि। मर्माविधो विधुरयन्ति हि मामनर्थाः,
प्रोद्यत्प्रबन्ध-गतयः कथमन्यथैते।।३७।। हे प्रभो ! मेरी आँखों पर मिथ्यात्व-मोह का गहरा अंधेरा छाया रहा, फलतः मैंने पहले कभी एक बार भी आपके दर्शन नहीं किये। यदि कभी आपके दर्शन किये होते तो अत्यन्त तीव्र गति से विस्तार पाने वाले ये मर्मभेदी अनर्थ मुझे क्यों पीड़ित करते?
હે પ્રભુ ! મારી આંખો ઊપર મિથ્યાત્વ-મોહનો ગહન અંધકાર છવાયેલો રહ્યો, ફલત: મેં પહેલાં એક વાર પણ આપના દર્શન ન કર્યા. જો કદી પહેલાં આપના દર્શન કર્યા હોત, તો અત્યંત તીવ્ર ગતિથી વિસ્તાર પામવાવાળા આ મર્મભેદી અનર્થ અને શા માટે પીડિત કરત?
O Prabho ! As the dense mist of deluding fondness was covering my eyes, I never got an opportunity to behold you even once. Had I beheld you earlier, why these heart rending and fast multiplying miseries would have tormented me?
| चित्र-परिचय ___भक्त की आँखों पर जब तक मोह रूपी अंधकार छाया रहा तब तक उसे मर्म स्थानों को बींधने जैसे असाध्य कष्टों का सामना करना पड़ा।
जैसे ही प्रभु दर्शन प्राप्त हुये, मिथ्यात्व का अंधकार दूर हुआ और अनर्थकारी कष्टों से छुटकारा मिल गया।
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कष्टरूपी राक्षस
कष्टरूपी राक्षस
कष्टरूपी राक्षस
कष्टरूपी राक्षस
मोह रूपी गहरे अन्धकार के कारण कष्टरूपी राक्षस भक्त को विविध रूप से
पीड़ित करते हैं।
-प्रभु दर्शन से मोह का अन्धकार दूर हो गया।
कष्टरूपी राक्षस भाग गयो AVM
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茶中
आकर्णितोऽपि महितोऽपि निरीक्षितोऽपि, नूनं न चेतसि मया विधृतोऽसि भक्त्या । जातोऽस्मि तेन जनबान्धव ! दुःखपात्रं, यस्मात् क्रियाः प्रतिफलन्ति न भावशून्याः ।।३८।।
हे दीनबन्धु ! मैंने आपका पवित्र नाम भी सुना, उपासना भी की और दर्शन भी किये। केवल दिखावे के तौर पर, किन्तु भक्तिभावपूर्वक कभी भी आपको अपने हृदय में धारण नहीं किया। यही कारण है कि आज मैं अनेकानेक भयंकर दुःखों का पात्र बन रहा हूँ। क्योंकि भावनारहित क्रियाएँ सफल नहीं होतीं ।
હે દીનબંધુ ! મેં આપનું પવિત્ર નામ પણ સાંભળ્યું, ઊપાસના પણ કરી અને દર્શન પણ કર્યાં, માત્ર દેખાડો કરવા માટે, પરંતુ ભક્તિભાવપૂર્વક કદી પણ આપને પોતાના હ્રદયમાં ધારણ ન કર્યા. આ જ કારણ છે કે આજે હું 1 અનેકાનેક ભયંકર દુ:ખોનું પાત્ર બની રહ્યો છું, કારણકે ભાવનારહિત ક્રિયાઓ સફળ નથી થતી.
O Deenabandhu (friend of the poor) ! I have heard your pious name, beheld your image and worshipped you as well. But all that was mere ritual display. I never installed you in my heart with a feeling of spiritual devotion. That is why today I am caught in the quagmire of numerous terrible miseries. As long as action is not done with sincerity and spiritual purity it does not bring forth desired results.
चित्र - परिचय
परन्तु
भक्त प्रभु पार्श्वनाथ की भक्ति कर रहा है, उसका ध्यान कहीं दूसरी जगह है। इसलिए भाव रहित भक्ति करने के कारण उसकी भक्ति निष्फल हो गई । उसे जन्म-जन्मान्तर तक भयंकर कष्ट उठाने पड़े ।
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नाराकाटकर
प्रभु दर्शन करते भक्त का मन
संसार में रमा हुआ है।
जन्म जन्मान्तर तक भयंकर कष्ट सहता व्यक्ति।
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त्वं नाथ ! दुःखिजनवत्सल ! हे शरण्य ! कारुण्यपुण्यवसते ! वशिनां वरेण्य ! भक्त्या नते मयि महेश ! दयां विधाय,
दुःखांकुरोद्दलन - तत्परतां विधेहि।।३६।। हे नाथ ! आप दुःखी जीवों के प्रति वत्सल हैं, शरणागतों के प्रतिपालक हैं, करुणा के निधान हैं और जितेन्द्रिय पुरुषों में श्रेष्ठ हैं। हे महेश ! भक्ति से नम्रीभूत मुझ पर दया करके मेरे दुःखरूप अंकुरों का नाश करने में आप तत्पर होवें।
હે નાથ ! આપ દુ:ખી જીવો પ્રત્યે વત્સલ છો, શરણાગતોના પ્રતિપાલક છો, કરૂણાના નિશાન છો અને જિતેન્દ્રિય પુરુષોમાં શ્રેષ્ઠ છો. હે મહેશ ! ભક્તિથી નમ્રીભૂત મારા પર દયા કરીને મારા દુ:ખરૂપ અંકુરોનો નાશ કરવા આપ તત્પર થાવ.
O Lord ! You are the benefactor of the suffering. You are the support of those who take refuge at your feet. You are the ocean of compassion. You are the supreme among vanquishers of the five senses. O Embodiment of beatitude! Please at once show mercy on me, who bows with devotion, and proceed to liberate me by destroying the sprouting miseries.
| चित्र-परिचय
दुःखी जीवों पर वत्सलता रखने वाले प्रभु की भक्ति करता भक्त अपने जीवन में उत्पन्न होने वाले दुःख रुपी बीजांकुरों को नष्ट करने की प्रार्थना पार्श्वनाथ से कर रहा है।
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इन्द्रों द्वारा पूजित
करूणानिधान
शरणागत केप्रतिपालक
भक्त के जीवन से दु:ख रूपी अंकुरों का नाश करने वाले।
दुःख रूपी अंकुर
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निःसंख्यसारशरणं शरणं शरण्यमासाद्य सादितरिपु - प्रथितावदातम्। त्वत्पाद - पङ्कजमपि प्रणिधानवन्ध्यो, वध्योऽस्मि चेद् भुवनपावन ! हा हतोऽस्मि।।४०।।
हे प्रभो ! आपके चरण-कमल अतुल बल के स्थान हैं, दुःखित जनों की रक्षा करने वाले हैं, शरणागतों के प्रतिपालक हैं और कर्म शत्रुओं को नष्ट करने के कारण विश्वविख्यात यश वाले हैं। किन्तु मैं अभागा रहा। आपकी भावनापूर्वक सेवा न कर सका।
હે પ્રભો ! આપના ચરણ-કમલ અતુલ બળનું સ્થાન છે. દુ:ખિત જનોની રક્ષા કરવાવાળા છે, શરણાગતોના પ્રતિપાલક છે અને કર્મશત્રુઓને નષ્ટ કરવાને કારણે વિશ્વવિખ્યાત યશસ્વી છે. પરંતુ હું અભાગિયો રહ્યો. આપની भावनापूर्व सेवान हरीशज्यो.
O Prabho ! Your lotus-feet are the source of immeasurable power, protectors of the tormented, support for those who seek refuge, and renowned as the destroyers of the foe-like karmas. But I remained ill fated and failed to serve you with devotion.
| चित्र-परिचय
प्रभु पार्श्वनाथ के चरण कमल की भावपूर्वक वन्दना करते भक्त के हृदय से दुःख दूर हो रहा है, कर्मों की निर्झरा हो रही है और भक्त के ऊपर आया प्राण संकट टल गया है। यह सब देखते सुनते हुये भी हे प्रभु ! मैं तेरी भावपूर्वक भक्ति नहीं कर पा रहा हूँ।
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प्रभु पार्श्वनाथ के चरण कमल की भावपूर्वक वन्दना करते भक्त।
भाव पूर्वक प्रमु-भक्तिकरने में असमर्थी
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देवेन्द्रवन्ध ! विदिताखिलवस्तुसार ! संसार-तारक ! विभो ! भुवनाधिनाथ ! त्रायस्व देव ! करुणाह्रद ! माम् पुनीहि, सीदन्तमद्य भयद-व्यसनाम्बुराशेः।।४१।।
हे देवेन्द्र वन्दनीय ! सब पदार्थों के रहस्य को जानने वाले, संसार-सागर से पार उतारने वाले, तीन लोक के नाथ, हे दया के सरोवर ! आप मुझ दुःखी को जन्म-मरण से भरे भयंकर दुःखों के संसार से बचाओ।
હે દેવેન્દ્ર વંદનિય ! બધા પદાર્થોના રહસ્યોને જાણવાવાળા, સંસાર-સાગરથી પાર ઊતારવાવાળા, ત્રણ લોકના નાથ, હે દયાના સરોવર ! આપ મુજ દુ:ખીને જન્મ-મરણથી ભરેલા ભયંકર દુ:ખોના સંસારથી બચાવો.
_____Devendra Vandaniya (Venerated by kings of gods) ! 0 Omniscient, who knows all secrets of all substances! O Saviour, who helps cross over the ocean of mundane existence ! O Lord of the three worlds ! O ocean of compassion! Kindly save me from this world of terrible miseries of cycles of rebirth.
चित्र-परिचय
तीनों लोकों के स्वामी प्रभु पार्श्वनाथ को इन्द्रादि वन्दना करते हैं । दुःखी मानव को प्रभु की शरण में जाने से जन्म मरण के दुःखों से मुक्ति प्राप्त होती है।
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। तीनों लोकों के स्वामी प्रभु पार्श्वनाथ
को इन्द्रादि देवगण वन्दना करते हो
प्रमु शरण में जाने से संसार के दुखों से मुक्ति मिलती है।
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यद्यस्ति नाथ ! भवदंघ्रि-सरोरुहाणां, भक्तेः फलं किमपि सन्तत-संचितायाः। तन्मे त्वदेकशरणस्य शरण्य ! भूयाः,
स्वामी त्वमेव भुवनेऽत्र भवान्तरेऽपि।।४२।। हे नाथ ! मैं एक अतीव निम्न श्रेणी का भक्त हूँ। मेरी भक्ति ही क्या है ? फिर भी आपके चरण-कमलों की चिरकाल से संचित की हुई भक्ति का यदि कुछ भी फल हो, तो हे शरणागत वत्सल ! जन्म-जन्मान्तर में आप मेरे स्वामी बनें। मुझे केवल आपकी शरण ही अपेक्षित है और कुछ भी नहीं।
હે નાથ ! હું એક અતિવ નિમ્ન શ્રેણીનો ભક્ત છું. મારી ભક્તિ જ શું છે, છતાં પણ આપના ચરણ-કમલોની ચિર-કાલથી સંચિત થયેલી ભક્તિનું યદિ કાંઈ પણ ફળ હો, તો હે શરણાગત વત્સલ ! જન્મ-જન્માંતરમાં આપ મારા સ્વામી બનો. મને કેવળ આપનું શરણ જ અપેક્ષિત છે, બીજું કાંઈ પણ નહીં.
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O Naath ! I am a very ordinary devotee. Though my devotion is insignificant but if at all there is some reward for my devotion, since time immemorial, for your pious lotus-feet then, O Saviour of all, I beseech you to be my Lord for all my future rebirths. I only seek refuge at your feet and nothing else.
चित्र-परिचय
प्रभु पार्श्वनाथ के चरण कमलों की भक्ति पूर्वक वन्दना करता भक्त जन्म जन्मान्तर तक प्रभु भक्त बनना चाहता है। नीचे के चित्र में अलग-अलग जन्मों में प्रभु भक्ति करता भक्त दिखाया गया है।
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प्रभु के चरण कमलों की भक्ति भाव
पूर्वक वन्दना करता भक्त।
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वध जन्मों में प्रभु के चरण कमलों की भक्ति करता भक्त।
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इत्थं समाहितधियो विधिवज्जिनेन्द्र ! सान्द्रोल्लसत्पुलक-कंचुकिताङ्गभागाः । त्वद् बिम्ब-निर्मलमुखाम्बुज बद्धलक्ष्या, ये संस्तवं तव विभो ! रचयन्ति भव्याः ।।४३।।
हे जिनेन्द्र ! अटल श्रद्धा के द्वारा स्थिर बुद्धि वाले प्रेमाधिक्य के कारण भव्य प्राणी आपके निर्मल मुख-कमल की ओर अपलक निहारते हुए सघन रूप से उठे हुए रोमांचों से व्याप्त अंगों वाले होकर हे प्रभो ! आपकी इस प्रकार विधिपूर्वक स्तुति रचते हैं।
હે જિનેન્દ્ર ! અટલ શ્રદ્ધા દ્વારા સ્થિર બુદ્ધિવાળા પ્રમાધિક્યને કારણે ભવ્ય પ્રાણી આપના નિર્મલ મુખ-કમલ તરફ અપલક નજરે નિહાળતાં સઘન રૂપથી ઉઠેલા રોમાંચોથી વ્યાપ્ત થઈને હે પ્રભુ ! આપની આ પ્રકારે વિધિપૂર્વક સ્તુતિ રચે છે.
O Jinendra! With stability derived through unwavering faith in you, with the resultant effusion of love, the worthy ones look unblinking at your unblemished lotus-face and are saturated with exhilaration in every part of their body. In such state, O Prabho! The worthy ones compose lovely panegyrics in your praise.
चित्र - परिचय
अत्यन्त प्रेम पूर्वक प्रभु के मुख को निहारते हुये और विधीपूर्वक पार्श्व प्रभु की स्तुति करते भक्तजन ।
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अत्यन्त श्रद्धा पूर्वक प्रमु के मुख कमल को निहार
कर विधिपूर्वक स्तुति करते भक्तगण।
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जननयनकुमुदचन्द्र ! प्रभास्वराः स्वर्ग-सम्पदो भुक्त्वा। ते विगलितमलनिचयाः, अचिरान्मोक्षं प्रपद्यन्ते।।४४।।
हे भक्त जनता के नेत्ररूपी कुमुदों को विकसित करने वाले विमल चन्द्र ! वे (पूर्व कथित भव्यजन) अत्यन्त रमणीय स्वर्ग सम्पदाओं को भोगकर अन्त में कर्ममल से रहित होकर शीघ्र ही मोक्ष को प्राप्त होते हैं।
इसके रचनाकार आचार्य सिद्धसेन दिवाकर का मूल नाम भी कुमुदचन्द्र था।
હે ભક્ત જનતાના નેત્રરૂપી કુમુદોને વિકસિત કરવાવાળા વિમલચંદ્ર ! તેઓ (પૂર્વકચિત ભવ્યજન) અત્યંત રમણિય સ્વર્ગ સંપદાઓને ભોગવીને અંતમાં કર્મમલથી રહિત થઈને શીધ્ર મોક્ષ પ્રાપ્ત કરે છે.
આના રચયિતા આચાર્ય સિદ્ધસેન દિવાકરનું મૂળ નામ પણ કુમુદચંદ્ર तुं.
O Enchanting Moon, who makes the lotus-like eyes of the devotees bloom ! The aforesaid worthy ones, after enjoying the intensely delightful divine wealth of heavens, finally get free of the slime of karmas and soon get liberated.
चित्र-परिचय 7 भाव-विभोर होकर प्रभु की भक्ति करता भक्त । स्वर्ग के सुख भोगकर शीघ्र ही मोक्ष को प्राप्त करता है।
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स्वर्ग सुख
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मोक्ष
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प्रभु भक्ति करता भक्त
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सस्थाहमेष किलसंत्याकरिष्यासा
श्री कल्याण मन्दिर स्तोत्र यंत्र
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सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र
आचार्यश्री
सुशील सूरीश्वर विरचित
श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र की रचना करते हुये प्रतिष्ठा शिरोमणि गच्छाधिपति
आचार्यश्री सुशील सूरीश्वर जी म. सा.
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ILLUSTRATED
SHRI SUSHIL KALYAN MANDIR
STOTRA
સચિત્ર
શ્રી સુશીલ કલ્યાણ મન્દિર સ્તોત્ર
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कल्याण मन्दिर
पूज्याचार्य श्री सुशील सूरि विरचित
यंत्र मंत्र, साधना विधि एवं फल
मूल श्लोक
संस्कृत भावार्थ
श्री सुशील
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हिन्दी भावानुवाद
अंग्रेजी भावानुवाद
गुजराती भावानुवाद
स्तोत्र
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प्रस्तावना
कल्याण मन्दिर स्तोत्र का श्रमण संस्कृति में श्रद्धास्पद स्थान है। श्वेताम्बर-दिगम्बर उभयविध सम्प्रदायों में यह स्तोत्र अत्यन्त श्रद्धा, भक्ति एवं निष्ठा से आत्मसात् किया गया है।
वस्तुतः कल्याण मन्दिर स्तोत्र जन-जन के कल्याण का पावन धाम है। इसका एक-एक अक्षर & मन्त्रशक्ति से अनुप्राणित है। इसका चमत्कारिक प्रभाव भी जन-जन के मन में बसा हुआ है। है श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार यह कृति सिद्धसेन दिवाकर की मानी जाती है तथा दिगम्बर
मान्यता के अनुरूप आचार्य कुमुदचन्द्र की। ऐतिहासिक दृष्टिकोण से यह रचना ग्याहरवीं शताब्दी की है।
प्रस्तुत स्तोत्र के भावपूर्ण वैशिष्ट्य को देखकर पूज्य आचार्यश्री सुशील सूरीश्वर जी म. ने श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र की रचना की है। स्तोत्र के मूल भाव तथा आत्मभक्ति भावना को एकीकृत रूप में प्रस्तुत करने के लिए आचार्यश्री ने वसन्ततिलका छन्द तथा कल्याण
मन्दिर स्तोत्र के चतुर्थ चरण को यथावत् प्रस्तुत करके पूर्ण सफलता प्राप्त की है। स्तोत्र का - प्रत्येक श्लोक भक्ति का अनुपम स्रोत है। एक-एक अक्षर आचार्यश्री की साधना, आराधना, जप * एवं तपस्या से अनुप्राणित है। * मैंने 'श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र' को अक्षरशः पढ़ा है तथा सूक्ष्मेक्षिका से देखा है,
जिससे मुझे यह ज्ञात हुआ है कि आचार्यश्री ने कल्याण मन्दिर स्तोत्र के प्रति अपनी अनन्य आस्था को प्रकट करने के लिए यह नूतन प्रयास किया है। इससे पूर्व भक्तामर स्तोत्र के सन्दर्भ में इसी प्रकार का अनूठा प्रयोग आप कर चुके हैं। आप महातपस्वी मनीषी आचार्य हैं। आपकी नवनवोन्मेषिणी प्रतिभा से अनेक ग्रन्थरत्न प्रकट हुए हैं। 'श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र' में सरलता, सरसता, भक्तिभावों की सहज स्फुटता के साथ-साथ लोककल्याण भावना का क्षीरसागर लहरा रहा है।
श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र का संस्कृत भावार्थ संस्कृत प्रेमियों के लिए हितावह है तथा हिन्दी व्याख्या हिन्दी भाषा प्रेमियों के लिए परमोपयोगी है। आचार्यश्री ने मूल लेखन के साथ-साथ व्याख्यात्मक लेखन द्वारा तो मानो सोने में सुगन्ध का संचार कर दिया है। श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र में कुल ५१ श्लोक हैं जबकि प्राचीन कल्याण मन्दिर श्लोक में कुल ४४ श्लोक । आचार्यश्री ने ७ श्लोकों के चतुर्थ चरण की आवृत्ति-सी की है। अतः ऐसा कोई श्लोक नहीं है, जिसमें कल्याण मन्दिर के श्लोक की चतुर्थ पंक्ति न हो। आचार्यश्री का सम्पूर्ण प्रयास भावग्राही दृष्टिगोचर होता है।
अन्त में प्रत्येक श्लोक पर आधारित नूतन ५१ मन्त्रों तथा यन्त्रों के माध्यम से आपने जो कौशल प्रस्तुत किया वह आपको मन्त्रद्रष्टा ऋषियों की पंक्ति में सहज रूप में स्थापित * करता है।
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आचार्य श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वर जी महाराज, लघुता में प्रभुता के असाधारण र * उदाहरण हैं। आपकी प्रत्येक क्रिया, चेष्टा तथा सर्जना सरलता, विनम्रता एवं विशुद्ध साधुता से %
ओतप्रोत होती है। आपकी यह कृति अपनी शुद्धता, पवित्रता के कारण अनुपम है। जैन संस्कृति में भी मन्त्र-तन्त्र-यन्त्र का प्रभाव बहुशः दृष्टिगोचर होता है। 'विद्यानुवाद' नामक ग्रन्थ मन्त्र-तन्त्र का उत्कृष्ट ग्रन्थ माना गया है किन्तु सम्प्रति वह अनुपलब्ध है। 'लघुविद्यानुवाद' जैनतन्त्र आदि कुछ ग्रन्थ प्रकाश में आए हैं किन्तु संस्कृत का यथार्थसंज्ञान एवं मन्त्र-तंत्र-यंत्र के परिनिष्ठित परिज्ञान के अभाव में अनेक भूलें दृष्टिगोचर होती हैं। अतः उनकी शुद्धता संदिग्ध है। चिरकाल से यह अपेक्षा थी कि जैन मन्त्र-तन्त्र-यन्त्र की परम्परा में कोई शुद्ध एवं असंदिग्ध प्रकाशन उपलब्ध हो, जिसकी पूर्ति आचार्यश्री के स्तोत्र, मन्त्र-यन्त्रों के माध्यम से हो रही है, इसकी मुझे प्रसन्नता है।
आचार्यश्री संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी तथा गुजराती के अधिकारी विद्वान् मनीषी हैं तथा परम साधक, महातपस्वी भी। अतः आपकी प्रतिभा से प्रसूत कृति की शुद्धता में कोई सन्देह नहीं है।
यहाँ मैं यह लिखते हुए गौरव का अनुभव करता हूँ कि आचार्यश्री की साहित्यिक यात्रा में सहयात्री हूँ। आप, प्रत्येक छोटे-मोटे साहित्यिक एवं तात्विक विषयों पर मुझसे अवश्य परामर्श करते हैं। मैं अल्पज्ञ भला उन्हें क्या परामर्श दे सकता हूँ तथापि उनकी महती कृपा है कि वे मुझे उत्कृष्ट सम्मान प्रदान करते हैं।
आपके स्वनाम धन्य शिष्यरत्न आचार्यदेव श्रीमद् विजय जिनोत्तम सूरि जी म. सा. भी आपके चरणानुगामी हैं। जिनशासन सेवा के महनीय कार्यों में सतत् व्यस्त रहते हुए भी
गुरुसेवा, गुरुसाहित्य प्रकाशन को आप विशेष महत्त्व देते हैं। अतः 'श्री सुशील कल्याण मन्दिर o स्तोत्र' ग्रन्थ प्रकाशन की मंगल वेला में आचार्यश्री जिनोत्तम सूरि जी महाराज कृतज्ञता ज्ञापित करना चाहता हूँ।
अन्त में कृति एवं कृतिकार की यशस्विता की मंगल-मनीषा के साथ 'श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र' सुविज्ञ, भक्त पाठकों के कर-कमलों में अग्रसारित करता हूँ |
। महाराज के प्रति भी
कवियशः प्रार्थी -आचार्य शम्भुदयाल पाण्डेय व्याकरणाचार्य, साहित्यरत्न (एम.ए. शिक्षाशास्त्री)
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Preface
Kalyan mandir Stotra finds a revered place in Shraman Culture. Both Digambar and Shvetambar sects have accepted this Stotra with great reverence, devotion and faith. In fact Kalyan Mandir Stotra is the pious abode of universal beatitude. Each and every letter of this Stotra is infused with the potency of mantra. Its miraculous influence has been accepted by masses. According to the Shvetambar belief its author was Siddhasen Diwakar. Digambars date this work by Kumud Chandra (another name of the same of the same acharya) to be of eleventh century.
Inspired by the unique sentiment of this Stotra revered Acharya Shrimad Vijaya Susheel Surishvar has written Shri Susheel Kalyan Mandir Stotra. Acharyashri has accomplished the task of combining the original theme of the Stotra with his own feelings of devotion and successfully presenting it in Vasantatilaka Chhand and retaining verbatim the fourth line of the of every quatrain of original Kalyan Mandir Stotra. Each and every verse of the panegyric is a lucid source of sentiment of devotion. Each and every letter is charged with the vitality of Acharyashri's spiritual practices, devotion, chanting and austerities.
I have not just read but also minutely studied each and every word of Shri Susheel Kalyan mandir Stotra. This has revealed on me that Acharyashri has made a fresh attempt of expressing his faith in Kalyan Mandir Stotra. In the past he made a similar unique experiment with Bhaktamar Stotra. He is a scholarly acharya who has reached great heights in austerities as well. His ever-pulsating talent has produced many literary works. Shri Susheel Kalyan Mandir Stotra is like a wavy milky sea of simplicity, lucidity, spontaneity of sentiments of devotion combined with the feeling of universal beatitude.
The Sanskrit, Hindi and English free flowing translations of Shri Susheel Kalyan Mandir Stotra will be found extremely useful for readers of these languages. Inclusion of explanations to the original by Acharyashri appears to be like adding fragrance to gold. Shri Susheel Kalyan Mandir Stotra has 51 quatrains as compared with the 44 in the ancient original work. In the seven extra verses too the fourth lines of some of the original quatrains have been repeated. Thus there is not single verse that does not contain a fourth line from the original Kalyan Mandir Stotra. Acharyashri has made an effort in the direction of fully absorbing the sentiment of the original.
The expertise with which he has included 51 new mantras and yantras based on each verse naturally places him in the front rank of mantra-visionary sages.
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Acharya Shrimad Vijaya Susheel Surishvar ji Maharaj is a unique example of greatness in minuteness. Every action, effort and creative endeavour by him is filled with simplicity, humility and sublime asceticism. This work by him is unique due to its purity and piety. There are plenty of evidences of influence of mantra, tantra and yantra on Jain culture too. Vidyanuvad was an excellent work on mantra and tantra but it is not available today. Some works like Laghuvidyanuvad and Jain Tantra have come to light but they filled with errors, may be due to lack of expertise in Sanskrit language and absence of faith in and actual practice of mantra-tantra-yantra. Therefore their genuineness and authenticity is doubtful. Some genuine and authentic work in the Jain mantra-tantrayantra tradition was long awaited. I am glad that various works on Stotras, mantras and tantras by Acharyashri are filling this gap.
Acharyashri is an established and accomplished scholar of Sanskrit, Prakrit, Hindi and Gujarati languages. In addition he is a great spiritual aspirant as well as accomplished pursuer of austerities. Therefore any work flowing from his genius is undoubtedly genuine and authentic.
I feel honoured to express that I am a fellow traveler in this literary journey of Acharyashri. He consults me regularly on almost every literary and philosophical matter, simple or complex. What a comparative novice could advise him? However, it is very kind of him that he gives me ample respect.
Accomplished in his own right, his able disciple Acharyadev Shrimad Vijaya Jinottam Suri ji M. Sa also follows his path. Ever busy in various activities of serving the Jain order, he gives due importance to serving his guru and getting his guru's works published. I wish to express my gratitude for Acharyashri Jinottam Suri ji M. on this auspicious occasion of publication of Shri Susheel Kalyan Mandir Stotra.
In the end I place Shri Susheel Kalyan Mandir Stotra in the hands of able and devoted readers with my best wishes for the fame and glory of the work and its author.
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Acharya Shambhudayal Pandeya Vyakaranacharya, Sahityaratna (M.A.; Educationist)
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आत्म-निवेदनम्
शमण संस्कृति के स्तोत्रसाहित्य की महिमा अपार है।भक्तामर स्तोत्र Mएवं कल्याण मन्दिर स्तोत्र तो विशेष रूप में सर्वत्र आदरणीय एवं प्रशंसनीय है। इन दोनों स्तोत्रों का मेरे जीवन पर असीम प्रभाव पड़ा है। इनमें प्रयुक्त वसन्ततिलका छन्द भी मुझे बहुत पसन्द है। बाल्यकाल से ही ये दोनों स्तोत्र मुझे आकर्षित करते रहे हैं । दीक्षोपरान्त संस्कृत, प्राकृत एवं दर्शन का ज्ञानार्जन करने के पश्चात् मैं साहित्य सृजन के क्षेत्र में प्रवृत्त के हुआ। अनेक ग्रन्थों के सृजन में तल्लीन रहते हुए भी मेरे मानस में इन दोनों स्तोत्रों के यथावत् भाव को ग्रहण करके नूतन श्लोक रचना करने *
की भावना बारम्बार उदित होती रहती थी। मैं यह निश्चय नहीं कर पा . * रहा था कि क्या इसके स्वरूप को पूर्णतः नूतन रूप में प्राप्त करूँ या
मिश्रित स्वरूप में। ___ व्याकरणाचार्य, संस्कृत साहित्य रत्न-कविरत्न शम्भुदयाल पाण्डेय से * जो कि मेरी साहित्य यात्रा में परिष्कारक संशोधक एवं सम्पादक के रूप
में अहर्निश कार्यरत हैं, उनसे जब मैंने अपनी भावना बताई तब उन्होंने सुझाव दिया कि चतुर्थ चरण पादपूर्ति के रूप में लेकर नूतन रचना करें किन्तु यथासम्भव प्राचीन स्तोत्र के केन्द्रीय भाव को अपने नूतन शब्दों में इस प्रकार पिरोयें कि जिनका प्रत्येक अक्षर मन्त्र-सा बन जाए। श्री पाण्डेय की बात, मुझे सार्थक लगी किन्तु निरन्तर मन्दिर-प्रतिष्ठाओं की
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* व्यस्तता तथा पूर्व में प्रारम्भ किए गए आधे-अधूरे पड़े साहित्य सृजन की
व्यग्रता के कारण काफी विलम्ब हो गया। इस बीच मेरे शिष्यरत्न आचार्य जिनोत्तम सूरि ने अनेक बार मुझसे अनुरोध किया कि स्तोत्र रचना के कार्य को यथाशीघ्र प्रारम्भ कीजिए। मैं भी उत्सुक था, भावना भी उत्कृष्ट
थी किन्तु फिर भी स्फुरणा त्वरित न हो सकी। अब, काफी समय पश्चात् * देव-गुरु-कृपा से अनुकूल स्फूर्ति आई। दोनों स्तोत्रों का क्रमशः कार्य
पूर्ण किया । वृद्धावस्था के कारण कोई विस्मृतिजन्य स्खलना न रहे, अतः संशोधन का कार्य श्री पाण्डेय को प्रदान किया। उन्होंने पूर्ण सावधानी से सहर्ष कार्य को सम्पादित किया। ___ 'श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र' की प्रत्येक पंक्ति का सौरस्य यदि सुधी पाठकों, भक्तों को भक्तिभाव से भर सके तो मैं अपना प्रयास सार्थक समझूगा। संस्कृत-हिन्दी भाषा में अर्थ लिखकर मैंने सुगम सुबोध बनाने का प्रयास किया। साथ ही ५१ मन्त्र-यन्त्रों का सुदेव-गुरु-कृपा से गुम्फन किया है। मेरा प्रयास लोक कल्याणकारी हो-"शिवमस्तु सर्वजगतः' की * सद्भावना के साथ.....!
श्रीगुरुचरणचंचरीकः -आचार्य श्रीमद् विजय सुशील सूरिः
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Editor's Note
Shraman culture gives great importance to Stotra (panegyrics and other devotional poetry) literature. Bhaktamar Stotra and Kalyan Mandir Stotra are among specially and widely venerated and praised works. These two have profoundly influenced my life. I have a special liking for the Vasantatilaka Chhand (specific meter in Sanskrit poetry) used in these panegyrics. These two Stotras have attracted me since my childhood. After initiation I studied Sanskrit and Prakrit languages besides philosophy and then joined the field of literary writing. While absorbed in writing numerous books the desire of understanding the true sentiment of these two Stotras and then writing new verses crystallizing those very sentiments continued to haunt me. I was not able to decide whether to present those sentiments in completely new format or mixed format.
I conveyed this dilemma to Shri Shambhudayal Pandeya (Vyakaranacharya, Sanskrit Sahitya Ratna and Kavi Ratna), who is ever involved in my literary activities as editor (in various capacities). He advised me to retain the fourth line of each quatrain and write the first three lines anew, retaining the central theme of the original work. The selection of new terms should be such that every letter may work like a mantra. I found this suggestion by Shri Pandeya meaningful. However, my continued involvement with the rituals of installations of images in various temples as well as completing the literary works started in the past delayed this project. In the meantime my worthy disciple Acharya Jinottam Suri as well as Shri Pandeya continued to remind me to commence my work on these Stotras. I too was eager and inspired enough to do so but was somehow plagued with the writer's block. Now after a lapse of considerable time, by the grace of the Lord and the guru, I have been able to acquire the right mood. One after the other I have concluded the writing of the two Stotras. To avoid any discrepancies due to memory lapses in dotage, the editing work was entrusted to Shri Pandeya. He has accomplished the task with due care and enthusiasm.
When the flavour of each line of "Shri Susheel Kalyan Mandir Stotra" fills the worthy readers and devotees with the sentiments of devotion, I will consider my effort to be meaningful. I have tried to make this work easily comprehensible by including Sanskrit and Hindi translation of the verse. By the grace of the Lord and the guru I have also been able to include 51 Mantras and Yantras related to these verses. May my effort be benefic for all. With my earnest wishes for universal beatitude...
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Acharya Shrimad Vijaya Susheel Surishvar Humble subject at the pious feet of Shriguru
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मन्त्र-यन्त्र-साधनार्थ आवश्यक निर्देश
मन्त्र-साधना या यन्त्र-साधना में प्रवृत्त होने से पूर्व साधक को कुछ अनिवार्य * बातों का ध्यान रखना श्रेयस्कर होगा। अन्यथा साधना में आने वाली बाधा एवं विपत्ति १
का वह स्वयं जिम्मेदार होगा । मन्त्र-यन्त्र-साधना का पथ सामान्य नहीं है, अतिविशिष्ट है। इसके लिए सर्वप्रथम आवश्यक है-विशिष्ट गुरु का चयन मन्त्र की ध्वन्यात्मकता का तात्त्विक ज्ञान गुरुमुख से ही सम्भाव्य है। पुस्तक या ग्रन्थ पढ़कर सीधे ही मन्त्र, यन्त्र या तन्त्र का प्रयोग करने में प्रवृत्त होना सुखावह नहीं है। ग्रन्थ मन्त्रादि से परिचित करवाते हैं, उचित मार्गदर्शन देते हैं किन्तु गुरु की गरिमा मन्त्र-साधना के लिए सर्वोपरि है। गुरु के बिना मन्त्र का ध्वन्यात्मक ज्ञान सम्भव नहीं है। साधक की योग्यता
साधक की पात्रता, कर्त्तव्य-पद्धति एवं योग्यता के सन्दर्भ में कुछ बताना आवश्यक ? है। क्योंकि पात्रता, आचार-शुद्धि, कर्त्तव्य-परायणता, निष्ठा के बिना योग्यता नहीं
आती है। योग्यता के बिना साधना के मार्ग में प्रविष्ट होना उचित नहीं है। सफलता * प्राप्त करने के लिए साधक को जिस आचरण पद्धति का अनुसरण करके योग्यता १ हासिल करनी चाहिए उनका निर्देश भी निम्न बिन्दुओं में समाहित है
1. साधक सात्त्विक भोजन करें तथा मिर्च-मसालों के प्रयोग से बचें। सात्त्विकता, *
सफलता की कुंजी है। "जैसा खाये अन्न वैसा होवे मन' इस उक्ति का सदैव ध्यान रहना चहिए। कब्ज या वायु-विकार आदि से मन अस्थिर होता है। आयम्बिल की तपश्चर्यापूर्वक साधना सर्वोत्तम है। आयम्बिल न हो।
सके तो एकासणा का तप तो आवश्यक है। 2. मन चंचल है किन्तु साधना में मन की एकाग्रता नितान्त आवश्यक है। अतः __ मनोनिग्रह का विशेष ध्यान रखें। 3. जीवन में वाणी का सौंदर्य निखरे। एतदर्थ वाणी-संयम, मौन-साधना का *
अभ्यास करें। सत्साहित्य पढ़कर साधु शब्द प्रयोग विधि से वाणी के सौंदर्य को निखारें।
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__4. मन्त्र-यन्त्र-साधना के समय आलस्य, जंभाई, नींद, छींक, थूकना, गुप्तेन्द्रिय
स्पर्श, क्रोध एवं किसी से वार्तालाप नितान्त वर्जित है। 5. मन्त्रोच्चारण में मध्यम गति का आश्रयण करें। शीघ्रता या अति मन्दता से २
बचें। 6. मन्त्रों का गायन की रीति से जप न करें। 7. मन्त्र-जप के समय आसन की स्थिरता, रीढ़ की हड्डी को सीधा रखना __आवश्यक है तथा सिर आदि को न हिलायें । 8. साधक को भूमि या काष्ठफलक (पाट) पर सोना चाहिए। 9. ब्रह्मचर्य, गुरु-सत्संग, गुरु-सेवा, मौन, पापकर्म-त्याग, तपश्चरण, नित्य इष्ट
पूजा, प्रतिक्रमण, जपनिष्ठा, मन्त्रनिष्ठा आदि साधक के लिए वरदान सिद्ध ।
होते हैं। 10. शारीरिक एवं मानसिक शुद्धि एवं स्वस्थता के लिए योगासन, प्राणायाम, __ ध्यान करना श्रेयस्कर होता है। 11. साधक की आस्था, श्रद्धा, भक्ति, निष्ठा एवं निरहंकारिता साधना में
संजीवनी का कार्य करती है। साधक प्रातःकाल पूरव दिशा अथवा उत्तर दिशा की ओर मुख करके आसन ** ग्रहण करें। शाम या रात्रि के समय पश्चिम दिशा का प्रयोग करें। विशिष्ट सिद्ध गुरुदेव के परामर्श के अनुसार दिशा का निश्चय करना श्रेयस्कर रहता है। विविधा
मन्त्रों एवं यन्त्र के अनुसार अलग-अलग दिशाओं का विधान है। साधक स्वेच्छा से * किसी दिशा के चयन की त्वरा न दिखायें। गुरुदेवों से परामर्श अवश्य लेवें । शारीरिक एवं मानसिक शुद्धि
मन्त्र-यन्त्र की आराधना से पूर्व साधक को विधिवत् शारीरिक एवं मानसिक रूप * * से शुद्ध होना परमावश्यक है। उभय शुद्धि के बिना चित्त की एकाग्रता सम्भव नहीं है।
विधिवत् शुद्धि के लिए भी गुरुमुख से इन मन्त्रों का ध्वन्यात्मक बोध अर्जित करके साधकों को प्रयोग में लाना चाहिए।
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कल्याणमन्दिरमपारसुखस्य सारं, सद्यो विनाशकमहो दुरितस्य जालम्। संतारकं परमपूत-सुपाद-पद्मम्,
पोतायमानमभिनम्य जिनेश्वरस्य॥१॥ अनन्तसुखसागरं सकलपापताप-संताप निवारकं संसारसागर संतारकं, * परमकरुणावरुणालयस्य भगवतो जिनेश्वरस्य प्रभोः पार्श्वनाथस्य पोतायमानं
चरणकमलं प्रणम्य निःसंशयं भक्तः भवसागरात् पारं याति। अत्र मनसि * सर्वदाऽवधेयं यत् प्रभुपार्श्वजिनेश्वरस्य चरणकमलयुगलं दोष-दुःख तरंग* जाल सम्पूरितात् संसारसागरात् पारं गन्तुं पोतायमानमस्तीति कृत्वा स्वप्नेऽपि * * न विस्मर्तव्यं मुक्ति-श्रियमभिलषता जिज्ञासुना भक्तिभावितेन मनुजेन।
अनन्त सुख के सागर, अपार कल्याण के धाम, सकल-पाप-ताप-निवारक, संसाररूपी सागर से पार उतारने वाले, करुणासागर भगवान जिनेश्वर, प्रभु पार्श्वनाथ के चरण-कमलों में प्रणाम करके भक्तजन, निश्चित रूप में भवसागर पार कर लेते हैं।
यहाँ यह ध्यातव्य है कि प्रभु पार्श्व जिनेश्वर के चरणयुगल कष्ट-तरंगों से * आकुल-व्याकुल संसार से पार उतरने के लिए जहाज के समान हैं। अतएव मुमुक्षु स्वप्न अ में भी प्रभु के चरण-कमलों का विस्मरण न करें ।
અનંત સુખના સાગર, અપાર કલ્યાણના ધામ, સકળ પાપ-તાપ-નિવારક, સંસારરૂપી સાગરમાંથી પાર ઊતારનાર, કરૂણાસાગર ભગવાન જિનેશ્વર, પ્રભુ પાર્શ્વનાથના એ ચરણ-કમળમાં પ્રણામ કરીને ભક્તજન નક્કી ભવસાગર પાર કરી જાય છે.
અહીંએ સમજાય છે કે પ્રભુ પાર્શ્વજિનેશ્વરના ચરણયુગલ, કષ્ટતરંગોથી આકુળ-વ્યાકુળ માનવીને સંસારથી પાર ઉતારનાર એક જહાજ સમાન છે. તેથી જ મુમુક્ષુએ સપનામાં પણ પ્રભુના ચરણ કમળને ભૂલવા ન જોઇએ.
Devotees are sure to cross the ocean of rebirths by bowing at the lotus-feet of Prabhu Parshva Naath, the ocean of infinite bliss, abode of unlimited beatitude, remover of all torments of sin, carrier across the ocean of mundane existence (cycles of rebirth), and ocean of compassion.
Here the indication is that the lotus-feet of Prabhu Parshva Naath are like a ship for crossing the ocean of mundane existence in turmoil due to the disturbance of waves of torments. Therefore, the aspirant should not even dream of forgetting the lotus-feet of Prabhu (honorific address, like Lord).
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अभीष्ट कार्य सिद्धिदायक मन्त्र एवं यन्त्र) मन्त्र : ॐ हीं श्रीं अर्ह, अर्ह अभयप्रदाय सकलसंसार भीतिभेदकाय
शिवंकराय भगवते पार्श्वनाथाय नमो नमः । प्रयोग-विधि : आध्यात्मिक गुरुजनों से इस पावन मन्त्र को ग्रहण करें । मंत्रोच्चारण की।
शुद्धि गुरुजनों के सान्निध्य में ही सम्पन्न करें। उक्त मन्त्र का १००८ बार जप अभीष्ट कार्य सिद्धि प्रदान करता है। अहिंसक तथा सात्विक कार्यों के लिए ही इसका प्रयोग करें। मन्त्र-जप के समय स्नान-शुद्धि वस्त्र-शुद्धि के साथ-साथ चित्त-शुद्धि आवश्यक है। मन्त्र-जप के समय भगवान पार्श्वनाथ का विशुद्ध ध्यान करना तथा निम्न यन्त्र की सम्मुख स्थापना करना न भूलें। ध्यान की एकाग्रता के लिए श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र का प्रथम श्लोक लयबद्ध रीति से २१,
-यन्त्रम्ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
बार पढ़ें।
अभीष्टां
कार्यसिद्धि
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
भी.
कुरु
श्री
It hallelepaih Ablut HEGE
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यस्य प्रभावमतुलं चरितं पुनीतं, गातुं सुधीश्वरवरेण्य-गुरुर्न शक्तः। तीर्थङ्करस्य विभुपार्श्वजिनेश्वरस्य, तस्याहमेष किल संस्तवनं करिष्ये॥२॥ (युग्मम्)
MEIN
यस्य पवित्रं चरित्रं दुःखसंदोह-लवित्रम्, यस्यातुलनीयं प्रभावस्वरूपं वर्णयितुं बुद्धिमतां वरेण्यः सुरगुरु बृहस्पतिरपि न समर्थः। का कथा मादृशामल्पज्ञानां छद्मस्थानां जीवानाम् ? तथापि तद्गुणग्राम-भक्ति-भावितोऽहं तीर्थंकरस्य प्रभुपार्श्वनाथ-जिनेश्वरस्य श्रद्धया भक्त्या यथामति संस्तुति करिष्यामि।
जिनका पवित्र-चरित्र, दुःखराशि का कर्तन करने में समर्थ है तथा जिनका अतुलनीय प्राभाविक स्वरूप का वर्णन करने की सामर्थ्य देवताओं के गुरु, बृहस्पति
में भी नहीं है, उन अनुपम प्रभाव के धनी जिनेश्वरदेव के उत्कृष्ट चरित्र एवं * स्वभाव का वर्णन करने के सन्दर्भ में मेरे जैसे छद्मस्थ अल्पज्ञ की कथा तो वृथा . * ही मानी जायेगी तब भी प्रभु के गुणग्राम की भक्ति से भावित होकर अत्यन्त * * श्रद्धा एवं भक्ति से यथामति प्रभु पार्श्वनाथ की स्तुति करूँगा।
જેમનું પવિત્ર-ચારિત્ર, દુઃખોને હરવામાં સમર્થ છે તથા જેમના અતુલનીય પ્રભાવિક સ્વરૂપનું વર્ણન કરવાનું સામર્થ્ય દેવતાઓના ગુરૂ બૃહસ્પતિમાં પણ નથી, ને અનુપમ પ્રભાવના મી ધની જિનેશ્વરદેવના ઉત્કૃષ્ટ ચારિત્ર અને સ્વભાવનું વર્ણન કરવા માટે મારા જેવા છદ્મસ્થ જે અલ્પજ્ઞની કથા તો વ્યર્થ જ માની શકાય. છતાં પણ પ્રભુના ગુણોની શકિતથી ભાવુક થઈને
અત્યંત શ્રદ્ધા અને ભક્તિથી યથાશક્તિ પ્રભુ પાર્શ્વનાથની સ્તુતિ કરીશ.
The pious story of his life is potent enough to shred the heap of miseries. When even Brihaspati, the guru of gods, is incapable of describing his Yr immeasurable power of influence, what to say of the attempt of describing the
noble life and nature of the Jineshwar Dev endowed with endless power of influence. Even then, inspired by my devotion for his virtues, I will sing in praise of Prabhu Parshva Naath with extreme faith and devotion and to the best of my abilities.
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वाद-विवाद विजयदायक मन्त्र एवं यन्त्र
मन्त्र : ॐ नमो भगवते सुरगुरुसेविताय वाद-प्रतिवाद-विजयंकराय र
न्यायंकराय वाक्पटुता वृद्धिंकराय नमो नमो ही ही ऐं स्वाहा।। प्रयोग-विधि : आध्यात्मिक आचार्यों से मन्त्र का सविधि उच्चारण सीखकर
शुद्धिपूर्वक निम्न यन्त्र की पूर्ण श्रद्धा से स्थापना करके सवा लाख मन्त्र-जप करने से सिद्धि अवश्य प्राप्त होती है। मन्त्र प्रयोग में भावनात्मक एकाग्रता एवं शुद्धि निष्तात अनिवार्य हैं। ध्यान की एकाग्रता के लिए श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र का द्वितीय, श्लोक लयबद्ध रीति से शुद्ध उच्चारणपूर्वक २१ बार पढ़ें।
-यन्त्रम्ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः ।
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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शुद्धं नितान्त शशिकान्त-स्वरूपमेवं, वक्तुं विभुर्न मम सदृश - शक्तिहीनः । दुस्साहसी शिशुरहो ननु कौशिकस्य, रूपं प्ररूपयति किं किल घर्मरश्मेः ॥३॥
परमशुद्धस्य चन्द्रकला - कान्तस्य अनन्तज्ञान-विज्ञानसूर्यस्य प्रभोः पार्श्वजिनेश्वरस्य नितान्तं निर्मलस्वरूपं वर्णयितुं मत्सदृशः काव्य रचना कौशल हीनोऽप्रवीणः कवित्वशक्तिहीनः कदापि न समर्थः ।
किं दिवाभीतो निशाटनो दिवान्धः उलूकसूनुः भास्वतो भास्करस्य स्वरूपलेशमपि निरूपयितुं समर्थोऽस्ति ? नैव, कदापि नैव ।
परम विशुद्ध चन्द्रमा से भी अधिक आकर्षक, अनन्त ज्ञान-विज्ञान के सूर्य, प्रभु श्री पार्श्वनाथ का नितान्त निर्मल स्वरूप का वर्णन करने में मेरे जैसा काव्यकला कौशल में अप्रवीण, कवित्वशक्तिहीन कभी भी समर्थ नहीं हो सकता है ।
क्या भला दिवान्ध उल्लू का शिशु प्रतापी सूर्यदेव का लेशमात्र भी स्वरूप बताने में कभी सशक्त हो सकता है ? अर्थात् कदापि नहीं ।
પરમ વિશુદ્ધ, ચંદ્ર કરતાં પણ અધિક આકર્ષક, અનંત જ્ઞાન-વિજ્ઞાનના સૂર્ય, પ્રભુ શ્રી પાર્શ્વનાથના નિતાન્ત નિર્મળ સ્વરૂપનું વર્ણન કરવામાં મારા જેવો કાવ્યકળા કૌશલમાં અપ્રવિણ, કવિત્વશક્તિહીન ક્યારેય સમર્થ થઇ શકે નહીં.
શું ભલા દિવાન્ધ ઘુવડનો શિશુ પ્રતાપી સૂર્યદેવનું લેશમાત્ર પણ સ્વરૂપ વર્ણવવામાં શક્તિમાન છે? અર્થાત્ કદાપી નહીં.
It is never possible for me, who is a novice in the art and craft of poetry and is devoid of the ability of poetic expression, to describe the extremely pious form of Prabhu Parshva Naath who is pristine pure, more enchanting than the moon, and the sun of infinite knowledge and special knowledge (vijnana).
Can a day-blind chick of owl ever be able to describe the scintillating sun even a tiny bit ? Never !
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तनाव-मुक्ति मन्त्र एवं यन्त्र)
मन्त्र : ॐ हीँ अर्ह अह अहँ चितां चूरय चूरय वैकल्यं वारय वारय हूं फट्
स्वाहा। प्रयोग-विधि : त्रिविध शुद्ध समेत, श्वेत वस्त्र धारण कर श्वेत आसन पर बैठकर
श्वेत स्फटिक मणि की माला लेकर पूर्वाभिमुख होकर श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र के तृतीय श्लोक से २१ बार ध्यान कर प्रतिदिन पाँच माला का जप करें। उक्त मन्त्र का उच्चारण शुद्ध होना चाहिए। ग्यारह लाख जप से मन्त्र सिद्ध होता है। चिन्ता, भय * तथा तनाव से मुक्ति मिलती है। यन्त्र को जप के समय सम्मुख स्थापित करें।
-यन्त्रम्ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
।
Palpalhe
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बोधोदयादपि जिनेश ! गुणांस्त्वदीयान् सम्यक्तया सुगणने सफलो न मर्त्यः।
रिक्ते जले प्रलयकाल-समुद्रमध्ये, , मीयेत केन जलधेर्ननु रत्न-राशिः॥४॥ मोहकर्मणो ध्वंसाज्जायमाने बोधोदयेऽपि तत्र भवतां भवतां गुणराशि सम्यक् प्रकारेण केवली किमुतं मनुष्यः गणयितुं साफल्यं न प्राप्नोति।।
विकराले प्रलयकाले रिक्तजले समुद्रे रत्नराशयः स्पष्टरूपेण * नयनगोचराः भवन्ति किन्तु तस्यामवस्थायामपि कोऽपि रत्नाकर-रत्नगणना कर्तुं प्रभवति ? नैव, कदापि नेव।
मोहनीय कर्म के समूल नष्ट होने पर समुत्पन्न ज्ञानोदय की स्थिति में परमाराध्य जिनेश्वरदेव के गुणों की गणना करने में कोई केवली या सुविज्ञ मानव क्या समर्थ हो सकता है ?
विकराल प्रलयकाल में समुद्र का जल जब खाली हो जाता है तब उसकी रत्नराशि स्पष्ट रूप में दिखाई पड़ती है किन्तु ऐसी स्थिति में कोई रत्नाकर के रत्नों की गिनती करने में समर्थ हो पाता है ? कदापि नहीं।
મોહનીય કર્મના સમૂચા નષ્ટ થવાથી સમાન જ્ઞાનોદયની સ્થિતિમાં પરમારાબ જ આ જિનેશ્વરદેવના ગુણોની ગણના કરવામાં કોઇ, કેવળી કે સુવિજ્ઞ માનવ શું સમર્થ થઇ શકે છે?
વિકરાળ, પ્રલયકાળમાં સમુદ્રનું જળ જ્યારે ખાલી થઇ જાય છે ત્યારે તેની રનરાશી - સ્પષ્ટ રૂપે દેખાય છે પરંતુ આવી પરિસ્થિતિમાં કોઈ રત્નાકરના રત્નોની ગણત્રી કરવામાં समर्थ ईश? पिनडी.
Is it possible even for an omniscient or a scholarly person, in his state of enlightenment attained on complete uprooting of Mohaniya Karmas, to enumerate Jineshvar Dev, the most ideal object of worship.
The heap of gems the ocean contains become visible at the time of a terrible tempest when it is empty of water. But even in that state can someone count this heap of gems ? No, never!
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८ अकाल मृत्यु निवारक मन्त्र एवं यन्त्र
: ॐ ह्रीँ श्रीँ क्रों हों जूं सः अहँ नमो अहँ अर्ह अह अकाल मृत्यु निवारकाय सर्वापदहराय तीर्थङ्कराय भगवते पार्श्वनाथाय नमो
नमः। * प्रयोग-विधि : मन, वचन, काया से पवित्र होकर निश-दिन पाँच माला, उक्त मन्त्र
का जप करें। इस अचूक मन्त्र के जप का प्रभाव पन्द्रह दिन में अनुभूत होने लगता है वैसे छह महीने तक जप किया जाना चाहिए। मन्त्र-जप से पूर्व भगवान पार्श्वनाथ का ध्यान श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र के चतुर्थ श्लोक से २१ बार करें तथा * सम्मुख निम्न यन्त्र की विधिवत् स्थापना करें।
-यन्त्रम्ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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देवाधिदेव ! सहसा तव संस्तवं भोः, कर्तुं प्रवृत्त इति मे जडबुद्धिरेव। किं नार्भको लघुसुहस्तयुगं प्रसार्य,
विस्तीर्णतां कथयति स्वधियाम्बुराशेः॥५॥ हे परमाराध्य जिनेश्वर ! बुद्धिसामर्थ्यहीनोऽप्यहं समुज्ज्वल गुणरत्नाकरस्य भवतः स्तोत्रं स्वयितुम् सहसा प्रवृत्तोऽस्मि। जानाम्यहं । यदेतन्मम मन्दबुद्धिविलसितमेव तथापि किमपारस्य अगाधस्य महासागरस्य है विस्तारं प्ररूपयितुं बालकोऽपि स्वकीयं लघुबाहुयुगलं प्रसार्य प्रयास न करोति ? तथैवाहमपि यथामति तव संस्तुतिं करिष्ये।
हे परमाराध्य जिनेश्वर ! मैं विवेक-बुद्धि की सामर्थ्य से रहित हूँ फिर भी * आपके उज्ज्वल गुणों के संकीर्तन के लिए नूतन स्तोत्र बनाने की अभिलाषा से अचानक बिना विचारे ही प्रवृत्त हो रहा हूँ। मैं यह तो भलीभाँति जानता हूँ कि यह जड़-बुद्धि का ही परिचायक है तो भी सोचता हूँ कि क्या अल्पज्ञ बालक भी असीम विशाल महासागर के विस्तार को प्रकट के लिए अपने दोनों छोटे-छोटे हाथ फैलाकर नहीं बताता है ?
इसी प्रकार मैं भी अल्प-बुद्धि से आपकी स्तुति करूँगा।
હે પરમારાબ જિનેશ્વર! હું વિવેક-બુદ્ધિના સામર્થ્યથી રહિત છું, છતાં પણ તમારા કરી, ઉજ્વળ ગુણોના સંકિર્તન માટે નૂતન સ્તોત્ર બનાવવાની અભિલાષાથી અચાનક જ વગર વિચાર્યું જ પ્રવૃત્ત થઈ રહ્યો છું. હું એ તો સારી રીતે જાણું છું કે આ તો મારી જડ બુદ્ધિનો જ પરિચય છે, છતાં વિચારું છું કે શું અલ્પજ્ઞ બાળક પણ અસીમ વિશાળ મહાસાગરના વિસ્તારને દર્શાવવા પોતાના બન્ને નાના-નાના હાથ ફેલાવીને નથી વર્ણવતો?
તેવી જ રીતે હું પણ અલ્પબુદ્ધિથી તમારી સ્તુતિ કરીશ.
OJineshvar, the ultimate object of worship! Though devoid of sagacity, I am suddenly inspired with the desire of writing a new panegyric to be sung in praise of your brilliant qualities. I am well aware that this is a symptom of my foolhardiness. However, the train of my thoughts embarks on the fact that does an ignorant child not spread both his tiny arms to express the limitless expanse of a great ocean.
In the same way I will endeavour to sing in your praise.
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८ जलभीति निवारक मन्त्र एवं यन्त्र
मन्त्र : ॐ ही हौं ह्र: रं रं रं वारिभीति निवारकाय ॐ भगवते र
पार्श्वनाथाय नमो नमः। * प्रयोग-विधि : त्रिविध शुद्धि सहित श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र के पञ्चम
श्लोक से भगवान पार्श्वनाथ जिनेश्वर का विधिवत् ध्यान करके २१ बार पाठ करें। उत्तराभिमुख आसन लगाकर, सम्मुख निम्नांकित यन्त्र की विधिवत् स्थापना करके प्रतिदिन पाँच माला का जप करें। सवा लाख जप करने से यह मन्त्र सिद्ध होता है। इस मन्त्र के प्रभाव से जलयात्रा-भय या जल से भय दूर होता है। मन्त्र-सिद्धि प्रयोग योग्य अधिकारी गुरुदेव के सान्निध्य में करें।
-यन्त्रम्ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
अर्ह
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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सद्योगिनोऽपि नहि यान्ति गुणेश ! पारं, शक्तिस्तु मेऽस्ति कियती जगति प्रसिद्धा। मन्ये विचाररहिताऽस्ति मम प्रवृत्तिः,
जल्पन्ति वा निज गिरा ननु पक्षिणोऽपि॥६॥ __ हे गुणेश्वर ! हे जिनेश्वर ! आत्मज्ञान ध्यान विज्ञान-धुरन्धराः सद्योगीश्वरा मुनीश्वरा अपि तत्रभवतां भवतां शमवतामवतां गुणानां पारं कथयितुं नैव समर्थाः सन्ति । मदीया शक्तिः कीदृशी, कियती च वर्तते इति सम्प्रति संसारे सर्वे जानन्त्येव। ॐ ____ अहं मन्ये यदेषा स्तोत्ररचनायां मम प्रवृतिरविचार्यैव सञ्जाता। यतो हि नाहमधिकारी तव गुणान् सम्यक्तया प्ररूपयितुम् किन्तु जानामि यन्मनुष्या इव और पक्षिणो वक्तुमसमर्थास्तथापि तेऽव्यक्तभाषया भाषन्ते तयाऽव्यक्त भाषयाऽपि तेषां कार्यनिर्वाहो भवत्येव। ___ हे जिनेश ! आध्यात्मिक ज्ञान एवं ध्यान विज्ञान में निपुण सद्योगी मुनिजन भी आप जैसे परम सुख गुणेश के गुणों को वस्तुतः वर्णित करने में असमर्थ हैं तो भला मेरी क्या ? सामर्थ्य है ? इसके सन्दर्भ में तो सभी जानते हैं।
___ मैं मानता हूँ कि इस महनीय स्तोत्र रचना में बिना विचारे मेरी प्रवृत्ति हास्यास्पद है X क्योंकि आपके गुणों का व्याख्यान करने का मैं अधिकारी मनीषी नहीं हूँ तथापि मुझे यह
विदित है कि मनुष्यों की तरह वाककौशल पक्षियों में नहीं है फिर भी वे अपनी अव्यक्त वाणी में बोलते हैं तथा उनका कार्य निर्वाह भी सम्यक् प्रकार से होता है।
હે જિનેશ! આધ્યાત્મિક જ્ઞાન અને ધાન વિજ્ઞાનમાં નિપુણ સદ્યોગી મુનિજન પણ તમારા જેવા પરમ સુખ, ગુણેશના ગુણોને વસ્તુતઃ વર્ણિત કરવામાં અસમર્થ છે તો ભલા મારું શું સામર્થ્ય છે?તેના સંદર્ભમાં તો બધાને ખબર જ છે.
હું માનું છું કે આ મહનીય સ્તોત્ર રચનામાં વગર વિચાર્યું મારી પ્રવૃત્તિ હાસ્યાસ્પદ છે કારણકે તમારા ગુણોના વ્યાખ્યાન કરવાનો અધિકારી મનુષ્ય હું નથી છતાં પણ હું જાણું છું કે મનુષ્યોની જેમ પક્ષીઓમાં ર. વાફકૌશલ્ય નથી હોતું, છતાં પણ તેઓ પોતાની અવ્યક્ત વાણીમાં બોલે છે અને તેમનું કાર્ય નિર્વાહ પણ સમ્યફ છે. પ્રકારે થાય છે.
O Jinesh! It is a known fact that what to say of me when even those great yogis and sages who are well versed in spiritual knowledge and science of meditation are unable to explain your virtues realistically.
I accept that my thoughtless indulgence in authoring this important panegyric is an act of mockery. However, I know that though birds do not have the ability to speak like humans, they still express themselves in non-lingual utterances and their purpose is served well.
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वाक्चातुर्य मन्त्र एवं यन्त्र
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मन्त्र : ॐ ऐं ही अहँ अर्ह अहँ जं भं ज्ञं वाक्पाटवं कुरु नमो नमः। * प्रयोग-विधि : मानसिक, वाचिक एवं कायिक शुद्धि के पश्चात् शुद्ध श्वेत वस्त्र *
पहनकर पूर्वाभिमुख होकर सर्वप्रथम श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र के षष्ठ (छठे) श्लोक का २१ बार शुद्ध पाठ करते हुए प्रभु पार्श्वनाथ का ध्यान कर निम्न यन्त्र को विधिवत् स्थापित करें। पूजा करें। शुद्धोच्चारणपूर्वक उक्त मन्त्र का सोमवार के दिन शुभ - वेला में पाँच माला जप करें। यह प्रभावशाली मन्त्र एवं यन्त्र वाक्चातुर्य के लिए सद्यः लाभकारी सिद्ध होता है। सवा लाख जप करने से यह मन्त्र सिद्ध होता है।
-यन्त्रम्ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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जानामि तेऽस्ति महिमा गरिमाम्बुराशिः नाम्नो महत्त्वमपि दुःखदलापहारि। ग्रीष्माकुलान् सुविकलान् पथिकान् निदाघे,
प्रीणाति पद्मसरसःसरसोऽनिलोऽपि॥७॥ हे देवाधिदेव ! भवतां महिम्नो गरिम्णश्च नास्ति पारम्। भवतां नामकीर्तनमपि दुःख-समूहविनाशकम् अस्ति। हे त्रिभुवन-दुःखापहारिन् !
ग्रीष्म-संताप व्याकुलान् जनान् पूर्वं पद्मसरोवरस्य शीतलः सुरभितः पवनोऽपि * सुखयति।
हे देवाधिदेव ! जिनेन्द्र ! आपकी महिमा का कोई पार नहीं है। आपकी गरिमा भी सागर के समान अनन्त, अपार, अगाध एवं असीम है। आपके नाम संकीर्तन में भी * ऐसी उत्कृष्ट शक्ति है कि दुःखों का समूह, क्षणमात्र में विनष्ट हो जाता है।
हे त्रिभुवनदुःखापहारी ! गर्मी के विकट संताप से आकुल-व्याकुल लोगों को पद्मसरोवर तो सुखी बनाता ही है, साथ ही साथ पद्मसरोवर के शीतल जलकण से ठंडी तथा कमलों की पराग से सुरभित हवा भी उन्हें सुख प्रदान करती है।
હે દેવાધિદેવ! જિનેન્દ્ર!તમારી મહિમાનો કોઇ પાર નથી. તમારી ગરિમા પણ સાગર સમાન અનંત, અપાર, અગાધ અને અસીમ છે. તમારા નામ સંકીર્તનમાં પણ એવી ઉત્કૃષ્ટ , શક્તિ છે કે દુઃખોનો સમૂહ, ક્ષણમાત્રમાં નષ્ટ થઈ જાય છે.
હે ત્રિભુવનદુઃખાપહારી!ગરમીના વિકટ સંતાપથી આકુળ-વ્યાકુળ લોકોને પધસરોવર તો સુખ આપે જ છે, સાથેસાથે પધસરોવરના શીતળ જળબિંદુને કારણે ઠંડી તથા કમળોની સુવાસથી સુવાસિત હવા પણ તેમને સુખ પ્રદાન કરે છે.
OJinendra, the god of gods! There is no end to your greatness. Like ocean your glory is also unending, infinite, unfathomable and unlimited. Chanting of your name has so much power that in a moment it destroys the heap of sorrows.
O vanquisher of misery of the three worlds ! A lotus-pond gives happiness to people disturbed and tormented by intolerable heat of summer. Besides, the cool wind saturated with icy droplets and fragrant with the pollen of lotuses also gives joy to them.
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मन्त्र
सर्व संकटमोचन मन्त्र एवं यन्त्र
: ॐ ह्रीँ नमो भगवते ह्रौं ह्रौं ह्रौं कमलनेत्राय अर्हते पार्श्वनाथाय सकलापन्निवारकाय नमो नमः ।
• प्रयोग-विधि : शुद्धिपूर्वक श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र के सातवें श्लोक का २१ बार पाठ करते हुए प्रभु पार्श्वनाथ का पावन ध्यान करें । उत्तराभिमुख होकर ऊन के आसान पर बैठें तथा निम्नांकित यन्त्र को समुख स्थापित कर उक्त पावन मन्त्र का विधिवत् पाँच माला रविपुष्य योग में करें। इस मन्त्र एवं यन्त्र के चमत्कारिक प्रभाव से सारे संकट दूर हो जाते हैं ।
सवा करोड़ जप से यह मन्त्र सिद्ध होता है ।
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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- यन्त्रम्
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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ध्यानस्थ भक्तहृदये त्वयि वर्तमाने, सद्यो भवन्ति शिथिलाः सकला कुबन्धाः। सर्पन्ति सर्पसृदृशा निलयं समन्तात्, अभ्यागते वनशिखण्डिनि चन्दनस्य॥८॥
MAMAN
हे वीतराग प्रभो ! भवान् सदैव ध्यानस्थानां भक्तजनानां हृदयकमलेषु * विराजते। अतएव तेषां समेषां भक्तजनानां कर्मबन्धनानि तत्क्षणमेव सद्यः शिथिलानि भवन्ति।
यदैव चन्दनवृक्षाणां पार्वे वनमयूरा आगच्छन्ति तदैव चन्दनवृक्षवेष्टिताः भयंकराः सहसा संसर्प्य स्वकीये विल-निलये प्रविशन्ति।
हे वीतराग प्रभो ! आप सदैव ध्यानस्थ भक्तजनों के हृदय-कमल में विराजते हैं। * अतएव उन भक्तों के समस्त कर्मबन्धन सहसा शिथिल हो जाते हैं । अर्थात् कर्मबन्ध मिट जाते हैं।
जब चन्दन वृक्षों के पास मयूरों का आगमन होता है तब चन्दन के वृक्षों पर लिपटे * हुए सर्प, तुरन्त अपने बिलरूपी निलय में विलय हो जाते हैं।
इसलिए इसमें कोई सन्देह नहीं है कि जो भक्त अपने हृदय-कमल पर आपको आसीन करते हैं उनके समस्त कर्मबन्धनों की कड़ियाँ सहसा शिथिल हो जाती हैं, टूट जाती हैं।
છે વિતરાગ ! તમે સદૈવ ધ્યાનસ્થ ભક્તજનોના હૃદયકમળમાં બિરાજે છે. તેથી જ તે ભક્તોના બધા જ કર્મબંધન સહજતાથી શિથિલ થઈ જાય છે. અર્થાત્ કર્મબંધ તૂટી જાય છે.
જ્યારે ચંદનના વૃક્ષની નજીક મોરનું આગમન થાય છે, ત્યારે ચંદનના વૃક્ષ પર લપેટાયેલો સર્પ પોતાના દરરૂપી આલયમાં વિલિન થઈ જાય છે.
તેથી જ એમાં કોઈ શંકા નથી કે જે ભક્ત પોતાના હૃદયકમળમાં તમને આધીન કરે છે, તેના આ સમસ્ત કર્મબંધનોની કડીઓ સહજમાં શિથિલ થઈ જાય છે, તૂટી જાય છે.
O detached Lord! You always dwell in the lotus-heart of your meditating devotees. Therefore, all the karmic bondage of those devotees suddenly gets loosened. This means that the karmic bondage vanishes.
When peacocks coo near sandalwood trees, the snakes wrapped around the trees at once disappear into their holes.
Thus there is no doubt that the links of bondage of karmas of the devotees who install you in their lotus-hearts at once get loose and are shattered.
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मन्त्र
भयंकर उपद्रव नाशक मन्त्र एवं यन्त्र
: ॐ अं अः अर्हं अर्ह अर्हं सर्वोपद्रवनाशकर्ते इं ईं शक्तिस्वरूपाय उं ॐ तेजोमयाय पार्श्व जिनेश्वराय नमो नमः ।
प्रयोग-विधि : सर्वशुद्धि सहित निम्नांकित यन्त्र की विधिवत् स्थापना करके पूर्वाभिमुख होकर पीतवस्त्र धारण करके कमल गट्टे की माला से उक्त चमत्कारी मन्त्र का जप करें। प्रतिदिन एक माला तीन महीने तक करने पर आये हुए संकट टल जाते हैं। मंगल-मोद का समय अनुभूति में आता है।
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
मन्त्र जप से पूर्व श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र के आठवें श्लोक से २१ बार पाठ करते हुए प्रभु पार्श्व का ध्यान अवश्य करें ।
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- यन्त्रम्
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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से आराध्यदेव ! तव दर्शनतो जनौघाः,
मुच्यन्त एव सकलाद् भयकारिकष्टात्।
गोस्वामि-दृष्टिपतनात् सहसा दुवन्ति,
1 चौरैरिवाशु पशवः प्रपलायमानैः॥६॥ र हे जिनेन्द्र ! हे आराध्यदेव ! भवतां पावन-दर्शनेन जना नानाभयंकर* कष्टजालात् सहसैव विमुक्ताः भवन्ति।
परम प्रतापिनि गोस्वामिनि नयनगोचरे सजाते सति चौरैरिव * भयकारिकष्टानि प्रपलायन्ते।
हे परमाराध्य जिनेश्वर ! आपके परम पावन दर्शन-लाभ से सांसारिक मनुष्य नाना प्रकार के भयावह कष्टों के जाल से अकस्मात् मुक्त हो जाते हैं। सांसारिक कष्टजाल नितान्त भयंकर हैं। इससे बचना, विमुक्त होना सहज नहीं है किन्तु आपका पावन दर्शन
लाभ अतिशय चमत्कारी एवं परमोपकारी है। जिसके कारण मनुष्य बिना किसी परेशानी * के ही सहजतया भयंकर कष्टजाल से मुक्त हो जाता है।
परम प्रतापी राजा, सूर्य या गोस्वामी (गोपाल) के दृष्टिगोचर होते ही जिस प्रकार चोर धन, पशुजन आदि सब कुछ छोड़कर भाग जाता है, उसी प्रकार आप जैसे परम X प्रतापी के दर्शन-लाभ से सकल भयंकर भवदुःखदल भाग जाते हैं।
પરમારાબ જિનેશ્વર ! મારા પરમ પાવન દર્શનલાભથી સંસારી મનુષ્ય અનેક પ્રકારના ભયાનક કષ્ટોની જાળમાંથી અકસ્માતે મુક્ત થઈ જાય છે. સાંસારિક કષ્ટજાળ ખૂબજ ભયંકર છે. તેનાથી બચવું, વિમુક્ત થવું સહજ નથી, પરંતુ તમારા પાવન દર્શનનો લાભ અતિશય ચમત્કારી અને પરમોપકારી છે. જેના કારણે મનુષ્ય વગર મુશ્કેલીએ, સહજતાથી જ ભયંકર કષ્ટજાળથી મુક્ત થઈ જાય છે. - પરમ પ્રતાપી રાજા, સૂર્ય કે ગોસ્વામી(ગોપાલ)ના દ્રષ્ટિગોચર થતાં જ જે પ્રકારે ચોર ધન,
પશુજન વગેરે છોડીને ભાગી જાય છે, તે જ પ્રકારે તમારા જેવા પરમ પ્રતાપીના દર્શનલાભથી સકળ આ ભયંકર ભવદુઃખદળ ભાગી જાય છે.
Jinesh! The extremely pious beholding of your image at once makes a worldly person free of the network of a variety of terrible torments. The network of worldly torments is extremely terrible. It is not easy to avoid them or get liberated. But beholding you is very auspicious, highly miraculous and extremely beneficial as it liberates a person from the snare of terrible torments easily and without any trouble.
On seeing the majestic king-like sun or the cowherd a thiefelopes abandoning the wealth and cattle he had stolen. In the same way beholding your majestic image the Seconglomerate of all terrible miseries of cycles of rebirth elopes.
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सर्पविष बाधा निवारक मन्त्र एवं यन्त्र मन्त्र : ॐ हीं नमो अर्हते सर्वविषहर-सर्वविषंविनाशकाय ऐं ही श्री खं
खः ॐ शं शं शं नमो नमः। प्रयोग-विधि : सर्वांग शुद्धि के पश्चात् श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र के नवमी
श्लोक का पाठ २१ बार कर प्रभु पार्श्वनाथ का शुद्ध ध्यान करें। तदुपरान्त निम्नांकित यन्त्र की विधिवत् स्थापना, पूजा करें। स्वच्छ श्वेत वस्त्र धारण करके रेशमी आसन पर बैठकर उक्त मन्त्र का जप ११ माला का तीस दिन तक करने से जप-सिद्धि होती है। इस मन्त्र के प्रभाव से साँप, बिच्छू आदि सभी विष का विनाश होता. है। स्वस्थता एवं आनन्द-मंगल छा जाता है।
-यन्त्रम्ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
अर्हते
अर्हते
नमः
नमः
अर्हते
नमः
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ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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संतारकोऽसि जिनराज ! कथं जनानाम्, भक्ता वहन्ति हृदयेन च तारयन्ति। हुं ज्ञातमद्य ननु संसरते दृतिर्यत्,
अन्तर्गतस्य मरुतः स किलानुभावः।।१०॥ हे जिनराज ! भवान् केन प्रकारेण जनतारकोऽस्ति। भक्तजनाः भवन्तं स्वकीये निर्मले हृदये धारयन्ति सततं वहन्ति भवन्तं तारयन्ति चेति ? एवं कृत्वा मम मनसि विकल्पः आसीत् किन्त्वद्य मे स विकल्पः उपरतः।
अहं सम्यक् प्रकारेणाद्य ज्ञातवान् अस्मि यत् जले रिक्ता दृतिः नैव तरति। यदा तत्र पवनप्रपूतिस्तदा दृतिस्तरति। अतः संतरणस्याधारः पवनः । एवमेव भवान् एव संतारको भक्तजनानामिति विषये न खलु मनागपि सन्देहलेशः ।
हे जिनराज ! आप किस कारण से जनतारक कहलाते हैं ? भक्तजन, स्वयं आपको * अपने निर्मल हृदय-कमल पर बैठाते हैं तथा हृदय से आपका वहन करते हुए स्वयं तिरते * हैं तथा आपको भी तारते हैं। इस प्रकार विकल्प मेरे मन में था किन्तु वह भी अब दूर * हो गया है।
आज मैंने विधिवत् जान लिया है कि जल पर खाली मशक नहीं तैरती है किन्तु हवा से भरी मशक तैर जाती है। इससे यह ज्ञात होता है कि भक्तजनों के हृदय-कमल निवासी आप ही संतरण के आधार हैं। वस्तुतः आप जनतारक हैं।
હે જિનરાજ! તમે કયા કારણસર જનતારક કહેવા છો? ભક્તજન સ્વયં તમને પોતાના નિર્મળ હૃદય-કમળમાં બેસાડે છે તથા હૃદયથી તમારું વહન કરીને સ્વયં તરે છે તથા તેમને પણ તારે છે. આ પ્રકારનો વિકલ્પ મારા મનમાં હતો પરંતુ તે પણ હવે દૂર થઈ ગયો છે.
આજે મેં વિધિવત જાણી લીધું છે કે પાણીમાં ખાલી મશક તરી શકતી નથી પરંતુ હવાથી ભરેલ મશક તરી શકે છે. તેનાથી એ સાબિત થાય છે કે ભક્તજનોના હૃદય-કમળમાં નિવાસી તમે જ સંતરણના આધાર છો. તેથી જ તમે જનતારક છો.
Jinaraj! Why are you called Janatarak (one who helps people cross the ocean of worldly existence)? I had the misconception that the devotees installed you in their pure lotus-hearts and carrying you they crossed the ocean themselves taking you along. But that misconception has been removed now.
Today I have completely understood that a leather bag does not float when it is empty but only when it is filled with air. This indicates that installed on the lotus-heart of your devotee you are the source of buoyancy. You are indeed the Janatarak.
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संसारभयनाशक मन्त्र एवं यन्त्र
मन्त्र : ॐ ही ही ही अहँ अर्ह अहं भव भय भंजकाय भवोदधितारकाय यं
रं लं ठः ठः स्वाहा। प्रयोग-विधि : शारीरिक शुद्धि के उपरान्त, शुद्ध भावना से निम्न यन्त्र को सम्मुख
स्थापित करके पूर्वाभिमुख होकर श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र का दसवाँ श्लोक २१ बार पढ़कर प्रभु पार्श्वनाथ जी का सविधिध्यान करें। तदुपरान्त उक्त मन्त्र का जप करें । मन्त्र-जप का प्रारम्भ जप-सिद्धि के लिए गुरुपुष्य नक्षत्र के शुभ मुहूर्त से करें । यह जप प्रतिदिन ब्रह्म मुहूर्त में एक माला से किया जा सकता है। एक माला जप करें। शुद्ध भावना से सवा लाख जप होने पर सिद्धि होती है।
-यन्त्रम्। ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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देवा यदीयविषये विगत प्रभावाः, कामस्त्वया तु विजितः सहसा क्षणेन। निर्वापितो जगति तज्ज्वलनं च येन,
पीतं न किं तदपि दुर्धर वाडवेन॥११॥ यस्य कामदेवस्य विषये महान्तः प्रभावशालिनः देवाः प्रभावहीनाः सजाताः। सर्वेऽपि देवाः कामवशीभूताः अभवन् । नैकोऽपि देवः तं पञ्चशरं कामदेवं जितवान्।
हे जिनेश्वर ! भवता तु क्षणमात्रेणैव स कामदेवः पराजितः। यज्जलं प्रज्वलितामग्निमपि शमयति तदेव जलं बडवानलेन सहसैव पीयते।
जिस कामदेव को महाप्रभावशाली देवता भी पराजित नहीं कर पाए, सभी देवता X जिस कामदेव के समक्ष निष्प्रभावी सिद्ध हुए, अतएव सभी कामदेव के वशीभूत हो * गए, कोई भी देवता कामदेव को नहीं जीत सका।
हे जिनेश्वर ! आश्चर्य है कि आपने तो बिना किसी विशेष पराक्रम को प्रदर्शित है करते हुए उस कामदेव को क्षणमात्र में पराजित कर दिया है। जो जल, अग्निकाण्ड
को शान्त करने में सफल होता है क्या उसे वडवानल, अपना ग्रास नहीं बना लेता
એ જે કામદેવને મહાપ્રભાવીદેવતા પણ પરાજિત ન કરી શક્યા, બધા દેવતાઓ જે કામદેવની શ્રી સમક્ષ નિબ્રભાવી સિદ્ધ થયા, એટલે કે બધા કામદેવને વશીભૂત થઈ ગયા, કોઈ પણ દેવતા કામદેવને ન જીતી શક્યા.
હે જિનેશ્વર! આશ્ચર્ય થાય છે કે તમે તો કોઈ વિશેષ પરાક્રમ બતાવ્યા વગર જ તે - કામદેવને ક્ષણમાત્રમાં પરાજિત કરી દીધા છે. જે જળ અગ્નિકાંડને શાંત કરવામાં સફળ થાય
છે, શું તેને દાવાનળ પોતાનો કોળિયો નથી બનાવી દેતો?
Even the most powerful gods have failed to defeat Kaam Dev (the god of love; Cupid). All gods have proved to be ineffective before Kaam Dev and have been overwhelmed by him. None of the gods have been able to surmount him.
Jineshvar! It is surprising that you have defeated that same Kaam Dev without any special effort. Does the marine fire not turn water into its fuel, the water that extinguishes all fire and conflagration.
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अग्निभयनाशक मन्त्र एवं यन्त्र,
मन्त्र : ॐ अहँ नमो यं यं यं पावक भीतिभंजकाय फलवृद्धि पार्श्वनाथाय
नमो नमः। * प्रयोग-विधि : त्रिकरण शुद्धि समेत निम्न यन्त्र की सम्मुख स्थापना करके श्री
सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र के ग्यारहवें श्लोक के २१ बार पाठ से श्री पार्श्वनाथ प्रभु का ध्यान करें। ईशानकोण की ओर मुख करके २१ दिनों तक एक-एक माला जप करने से जप-सिद्धि होती है। जप-काल में मौन एवं एकाग्रता का विशेष ध्यान रखें।
-यन्त्रम्
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
अर्हते
अर्हते
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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नमः
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देवाधिदेव ! गरिमामय ! त्वां दधानाः, सत्प्राणिनः सुहृदये सुतरां प्रकामम्। नित्यं तरन्ति भवसिन्धुमपार-पारम्,
चिन्त्यो न हन्त ! महतां यदि वा प्रभावः॥१२॥ हे देवाधिदेव ! अस्य संसारस्य सर्वे सज्जन पुरुषाः त्वां हृदयकमलेषु सादरं वहन्तो नित्यमेव अपारभवसागरं तरन्ति।
महापुरुषाणां स्वभावः प्रभावः सदैव अनिर्वचनीयोऽचिन्त्यो भवति। तेषां लोकोत्तरचमत्कारिणां स्वनामधन्यानां तत्त्वदर्शिमूर्धन्यानां महापुरुषाणां प्रभावेणासम्भव-कार्याण्यपि सम्भवानि सञ्जायन्ते।
देवाधिदेव ! इस संसार के सभी सज्जन आपकी कल्याणकारिणी मूर्ति को अपने हृदय-कमलों पर विराजित करके आपका ही नाम कीर्तन करते हुए हमेशा
अपार संसार-सागर से पार हो जाते हैं। 1 महापुरुषों के स्वभाव का प्रभाव ही अनुपम, अनिर्वचनीय तथा अचिन्त्य है। * उन लोकोत्तर चमत्कारी तत्त्वदर्शी महापुरुषों के महाप्रभाव से असम्भव कार्य भी * सहसा सम्भव हो जाते हैं।
દેવાધિદેવ!આ સંસારના જે બધા જ સજ્જન તમારી કલ્યાણકારિણી મૂર્તિને, પોતાના છે. હૃદય-કમળ પર બિરાજિત કરે છે, તે તમારું જ નામ કીર્તન કરતાં હંમેશ માટે સંસાર-સાગર
N04छे.
મહાપુરૂષોના સ્વભાવનો પ્રભાવ જ અનુપમ, અનિર્વચનીય તથા અચિંત્ય છે. તે લોકોત્તર ચમત્કારી તત્વદર્શી મહાપુરૂષોના મહાપ્રભાવથી અસંભવ કાર્ય પણ સહજમાં સંભવ થઇ यछे.
O God of gods ! All the noble persons in this world install your beatific image in their lotus-hearts and, chanting your name, they invariably cross the endless ocean of worldly existence.
The influence of the nature of great men is, indeed, unparalleled, inexpressible and inconceivable. Under the great influence of those divinely miraculous sagacious great men even impossible becomes possible.
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मन: शान्तिकारक मन्त्र एवं यन्त्र
मन्त्र
: ॐ ह्रीँ अर्हं अर्हं शं शं शं हाँ हूँ हः मनःशान्तिदायिने नमो नमः ।
" प्रयोग विधि : शुभ भाव से निम्न यन्त्र को सम्मुख स्थापित करके स्फटिक माला से शुभ मुहूर्त्त में एक माला जप करें। एक माला प्रतिदिन करने से १०८ माला सम्पन्न होने पर जप-सिद्धि होती है।
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
जप करने से पूर्व श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र के बारहवें श्लोक का २१ बार लयात्मक पाठ करके पार्श्व प्रभु का ध्यान करें । मानसिक शान्ति के लिए यह उत्तम मन्त्र है ।
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-यन्त्रम्
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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क्रोधो यदा च भवता प्रथमं जितोऽयम् नष्टास्तदैव सकलाः किल कर्मचौराः। शीताऽपि शोषयति चेदिह लोकमध्ये, नीलदुमाणि विपिनानि न किं हिमानी॥१३॥
हे जिनेश ! क्रोधी दुर्जयः शत्रुरपि त्वया सहसैव पूर्वं यदा जितः तदैव मन्ये * यत् समस्त कर्मसमूहाः विगलिताः सञ्जाताः किन्त्वहं चिन्तयामि यद् क्रोधभयाद् रोषभयाद् वा कश्चित् दूरं याति, पलायते वा यदा क्रोधः प्रथमं जितस्तर्हि कर्मचौरा कथं पलायिताः ? इति शंका मम मनसि आसीत् किन्तु यदा परिज्ञातं यत् हिमानी प्रभावेणापि हरितानि सघनवनानि दह्यन्ते तदा निष्कर्षोऽयं स्फुटितः क्रोधात् क्षमा (शान्तिः) बलीयसी। ___हे जिनेश ! “क्रोध, दुर्जेय शत्रु हैं"-यह बात लोक विदित है। आपने सर्वप्रथम उसी
दुर्जेय शत्रु पर विजय प्राप्त की। जब आपने क्रोध को जीत लिया, विनष्ट कर दिया तब और शेष कर्म-चोर कैसे भागे? बिना रोष या क्रोध के तो चोरों का भागना सम्भव-सा नहीं लगता।
मेरे मन की इस आशंका का निवारण तब हुआ जब मुझे ज्ञात हुआ कि हिम की अधिकता भी सघन हरित वनावली को जला देती। __फलतः क्रोध के अभाव में क्षमा/शान्ति की आपके अन्तःकरण में प्रतिष्ठा हुई उसी के प्रभाव से समस्त कर्म-चोर भाग गए। वस्तुतः क्षमा, क्रोध से अधिक शक्तिशाली है।
હે જિનેશ!"કોઈ દુર્જય શત્રુ છે” – આ વાત લોક પ્રચલિત છે. તમે સર્વ પ્રથમ તે જ દુર્જય શત્રુ પર વિજય પ્રાપ્ત કર્યો. જ્યારે તમે કોઈને જીતી લીધો, વિનષ્ટ કરી લીધો ત્યારે શેષ કર્મચોર કેવી રીતે ભાગ્યા? કોધ વગર તો ચોરોનું ભાગવું સંભવ નથી લાગતું. મારા મનની આ આશંકાનું નિવારણ ત્યારે થયું જ્યારે મને જાણ થઈ કે હિમની અધિકતા પણ સઘન હરિયાળીને નષ્ટ કરી કાઢે છે.
ફળસ્વરૂપ ક્રોધના અભાવમાં ક્ષમા/શાંતિની તમારા અંતઃકરણમાં પ્રતિષ્ઠા થઇ, તેના પ્રભાવે જ જ સમસ્ત કર્મ ચાર ભાગી ગયા. વસ્તુતઃ ક્ષમા, ક્રોધથી અધિક શક્તિશાળી છે.
Jinesh! It is universally known that anger is an enemy difficult to conquer. You conquered that unconquerable enemy at the outset. When you conquered anger and destroyed it what would cause the other thieves (in the form of karmas) to scamper ? Making the thieves elope seems impossible without anger. This doubt in my mind was removed when I came to know that excess of snow also destroys lush greenery of jungle.
Thus in absence of anger when forgiveness and tranquillity were installed in your mind, it caused the elopement of the thieves that are karmas. In fact forgiveness is more powerful than anger.
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कर्मरिपुनाशक मन्त्र एवं यन्त्र
मन्त्र : ॐ हीं ही अर्हते कर्मचौरविध्वंसिने सकल पापविनाशिने नमो
नमः। प्रयोग-विधि : शुद्धिपूर्वक सम्मुख यन्त्र की स्थापना करके श्री सुशील कल्याण
मन्दिर स्तोत्र के तेरहवें श्लोक का मंगल पाठ २१ बार करके ध्यान * करें। यह मन्त्र कर्मशत्रुनाशक है। इस मन्त्र का जप शुभ वेला में ३२ दिनों तक एक-एक माला के रूप में करें।
-यन्त्रम्
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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नित्यं गवेषणपरा हृदये स्वकीये, योगीश्वराश्च मुनयः सुनयप्रधानाः। शुद्धस्य पावनरुचेर्यदि वा किमन्यद्, अक्षस्य संभवि पदं ननु कर्णिकायाः॥१४॥
हे जिनेन्द्र ! कर्म विशुद्धं भवन्तमेव योगसाधनानिरताः संसारसागरविरताः सुनयप्रधानाः मुनयः स्वकीये हृदयकमले अन्वेषयन्ति। यथा कमल-कर्णिका कमलेषु प्राप्यते तथा योगीश्वराः सुसाधवस्तत्रभवन्तं स्वकीये हृदयकमलकोशे अन्वेषयन्ति।
हे जिनेन्द्र ! संसाररूपी सागर से विरक्त योगसाधना में निरन्तर संशक्त, सुनयपथ के अनुगामी मुनिजन, सवर्था कर्म-विशुद्ध आपके स्वरूप की अन्वेषणा
अपने हृदय-कमल में करते हैं। जैसे कमल-कर्णिका कमल में ही प्राप्त होती है है वैसे अपने हृदय-कमल (अन्तरात्मा) में आपकी खोज करते हैं।
હે જિનેન્દ્ર ! સંસારરૂપી સાગરથી વિરક્ત યોગ સાધનામાં નિરંતર સંશક્ત, સુનયપથના અનુગામી મુનિજન, સર્વથા કર્મ-વિશુદ્ધ તમારા સ્વરૂપની અન્વેષણા પોતાના હદય-કમળમાં મી, કરે છે. જેવી રીતે કમળ-કળી કમળમાં જ પ્રાપ્ત થાય છે, તેવી જ રીતે પોતાના છે.
६६५-म( २ )मा तमने शो५ छ.
O Jinendra ! The sages who are detached from the ocean of mundane life, the ever indulgent in yoga practices and followers of the path of pious viewpoint
seek to behold your karma-free form in their own lotus-hearts. As a petal of lotus is available only inside lotus, they search for you only within their lotushearts (soul).
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मन्त्र
अन्तःकरणशोधक मन्त्र एवं यन्त्र
: ॐ ह्रीँ नमो अर्हते सोहं हं सो हं अन्तःकरणविशोधकाय नमो नमः ।
• प्रयोग विधि : उत्तर दिशा की ओर मुख करके सम्मुख निम्नलिखित यन्त्र की स्थापना करके श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र के चौदहवें श्लोक के २१ बार पाठ से प्रभु पार्श्वनाथ का ध्यान करें । तदुपरान्त उक्त मन्त्र का माला जप प्रारम्भ करें । साधना के समय श्वेत वस्त्र धारण करें। मानसिक, वाचिक, कायिक शुद्धि का विशेष ध्यान रखें। यह मन्त्र एवं यन्त्र परम हितकारी है। साधक नित्य एक माला जपें ।
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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- यन्त्रम्
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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नमो
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ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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ध्यात्वाप्नुवन्ति सहसा भविनो भवन्तम्, व्यक्त्वा तनुं विमलबोधनिधानशीलाः। पाषाणदोषमपहाय सुपावकेऽस्मिन्, चामीकरत्वमचिरादिव धातुभेदाः।।१५।।
हे देवेश ! विशुद्धहृदयेन परया श्रद्धया भक्त्या च समवेता विशुद्धज्ञान-विज्ञाननिधानशीलाः भव्य प्राणिनः परमपावनस्वरूपं भवन्तं ध्यात्वा निजशरीरमपिसद्यः व्यक्त्वा विशुद्धपरमात्म स्वरूपं सहसा प्राप्नुवन्ति। यथा तीव्रानलसंयोगेन पाषाणभावमपास्य विशुद्धं तप्तभास्वरं सुवर्णस्वरूपं प्रपद्यते।
हे देवेश ! इस संसार के भव्य प्राणी उत्कृष्ट श्रद्धा, भक्ति से सम्पन्न होकर विशुद्ध ज्ञान-विज्ञान के धनी बनकर विशुद्ध हृदय से आपके परम पावन, आपके स्वरूप का ध्यान करके अपने शरीर को भी यथाशीघ्र त्यागकर निर्मल परमात्मस्वरूप को सहज रूप में प्राप्त करते हैं। जिस प्रकार तीव्र अग्नि के संयोग से पाषाण रूप को त्यागकर मैला सुवर्ण भी कुन्दन बन जाता है। *
હે દેવેશ! આ સંસારના ભવ્ય પ્રાણી ઉત્કૃષ્ટ શ્રદ્ધા, ભક્તિભાવપૂર્વક, વિશુદ્ધ છે જ્ઞાન-વિજ્ઞાનના ધની બનીને વિશુદ્ધ હૃદયથી તમારા પરમ પાવન સ્વરૂપનું ધ્યાન ધરીને, પોતાના
શરીરને પણ યથા શીધ્ર ત્યાગીને નિર્મળ પરમાત્માસ્વરૂપને સહજ રૂપમાં પ્રાપ્ત કરે છે. જે આ પ્રકારે તીવ્ર અગ્નિના સંયોગથી પાષાણરૂપને ત્યાગીને મેલું સોનુ પણ કુન્દન બની જાય છે.
O Devesh ! The worthy beings of this world, getting equipped with profound faith and devotion, enriched with pure knowledge and science, meditate on your ultimately pious form and soon abandon their body to naturally attain the pristine form of supreme soul (paramatma). In the same way yo as the rock like ore of gold turns into pure gold when it comes in contact with intense fire.
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जन्म-मरण रोगनाशक मन्त्र एवं यन्त्र
मन्त्र : ॐ ही अहँ अर्ह अहँ दं दं दं जन्म-मरण-भय रोग विनाशकाय
नमो नमः। प्रयोग-विधि : साधक, सर्वांङ्ग शुद्धिपूर्वक यन्त्र की सम्मुख स्थापना करके श्री
सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र के पन्द्रहवें श्लोक से २१ बार पाठ कर प्रभु पार्श्वनाथ जी का ध्यान करें। ध्यान की एकाग्रता को * साधने का पूर्ण प्रयास करें । एकाग्रता होने पर उक्त मन्त्र-जप का प्रारम्भ करें। नित्य एक माला जप साधक के लिए अत्यन्त हितकारक है।
-यन्त्रम्ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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नित्यं सुभक्त हृदयेषु विलोक्यसे त्वं, देहं विनाशनपरास्तदपीह भक्ताः। हुं ज्ञातमद्य ननु मध्यगता वरेण्याः ,
यद्विग्रहं प्रशमयन्ति महानुभावाः।।१६।। हे जिनेश ! अस्मिन् संसारे पवित्रचरित्राणां सुभक्तवर्याणां हृदयकमलेषु * यदि भवतां निवासः तर्हि भक्ताः स्वकीयं देहं कथं विनाशयन्ति। अथवा तेषां * शरीरं कथं नश्यति ?
आम्, अद्य मया सम्यग् रूपेण ज्ञातं यत् महापुरुषा यस्मिन् जगत्कलहे मध्यस्था भवन्ति तं कलहं ते समूलमेव विनाशयन्ति।
हे जिनेश ! इस संसार में जितने भी सम्यक्त्वी सुभक्तजन हैं, उनके हृदय-कमल में सदैव आप विराजते हैं तो उनका शरीर क्यों नष्ट होता है ?
हाँ, आज मैंने विधिवत् जान लिया है कि महापुरुष जिस किसी जागतिक * विवाद या कलह में मध्यस्थ बनते हैं उस कलह का समूल विनाश कर देते हैं।
आप भी भक्तों के हृदय में रहने के कारण उन्हें जन्म-मरण के चक्र से विमुक्त । कर देते हैं।
હે જિનેશ! આ સંસારમાં જેટલા પણ સમ્યકત્વી સુભક્તજન છે, તેમના હૃદયકમળમાં ને સદેવ તમે બિરાજો છો, તો પછી તેમનું શરીર શું કામ નષ્ટ થાય છે?
હા, આજે મેં વિધિવત્ જાણી લીધું છે કે મહાપુરૂષ જે કોઇ દુન્યવી વિવાદ અથવા ક્લેશમાં મધ્યસ્થ બને છે, તે ક્લેશને સમૂળગો નષ્ટ કરી દે છે. તમે પણ ભક્તોના હૃદયમાં છે. રહેવાને કારણે તેમને જન્મ-મરણના ચક્રમાંથી મુક્ત કરી દો છો.
Jinesh! Why does the bodies of the righteous devotees in this world get destroyed when you always dwell in their lotus-hearts?
Of course, I have fully understood today that great men root out any mundane debate or dispute where they become mediators. As you dwell in the hearts of your devotees you too liberate them from the cycles of birth and death.
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कलह शमन मन्त्र एवं यन्त्र )
मन्त्र : ॐ ही नमो अर्हते सर्वविग्रह-कलह-क्लेश निवारकाय भगवते
पार्श्वनाथाय धीमहि। प्रयोग-विधि : मन्त्र-साधना के लिए शुद्धिपूर्वक उत्तर दिशा की ओर मुख करके,
सम्मुख अधोलिखित महायन्त्र की स्थापना करें तथा श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र के सोलहवें श्लोक से २१ बार पाठ कर श्री * पार्श्वनाथ प्रभु का ध्यान करें। तत्पश्चात् मन्त्र का जप प्रारम्भ करें। सवा लाख माला जप से. जटिल कलह एवं विग्रह का शमन होता है। प्रेम सौहार्द बढ़ता है।
-यन्त्रम्
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
विग्रहं
कलह
ही
अर्हते
अर्हते
अर्हते
अर्हते
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
अर्हते
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अर्हम्
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अध्यात्मचिन्तनपरा विबुधा वरेण्याः, ध्यायन्ति शुद्धहृदये परमात्म बुद्ध्या। पीयूषतां सुलभते सलिलं सलीलं, किं नाम नो विषविकारमपाकरोति॥१७॥
हे जिनेश्वर ! अध्यात्मचेतनावन्तो मनीषिणः स्वकीये विशुद्ध हृदये * परमात्मबुद्ध्या सततं भवन्तं ध्यायन्ति, चिन्तयन्ति च। एवं प्रकारेण ते ४
आत्मानं परमात्मानं कुर्वन्ति। एतेनागमवचनं प्रामाणिकं भवति-अप्पा सो * परमप्पा-इति। ___ यथा अभेदबुद्ध्या पीतं जलं विषविकारहीनं सत् अमृतकल्पं प्रपद्यते।
हे जिनेश्वर ! अध्यात्म-चिन्तन में सतत परायण, ज्ञानीजन, अपने विशुद्ध और हृदय में आपका ही ध्यान करते हैं। इस प्रकार की ध्यानयोगाभ्यास की परम्परा
से गुजरते हुए वे अपनी आत्मा को परमात्मा बना लेते हैं। आगमवचन है"अप्पा सो परमप्पा।"
जिस प्रकार अभेद बुद्धि से पान किया गया जल विष-विकार से रहित होकर * अमृत के समान हो जाता है।
- હે જિનેશ્વર! અધ્યાત્મચિંતનમાં સતત પરાયણ જ્ઞાનીજન, પોતાના વિશુદ્ધ હૃદયમાં - તમારું જ ધ્યાન ધરે છે. આ પ્રકારની ધ્યાન યોગાભ્યાસની પરંપરામાંથી પસાર થતાં તેઓ * पोतानात्माने ५२मात्मा मनावीरोछे.आगमयनछ-"अप्पासो ५२मच्या."
જે પ્રકારે અભેદ બુદ્ધિથી પીધેલું જળ વિષ વિકારથી રહિત થઈને અમૃત સમાન થઈ य .
Jineshvar ! The sagacious ever indulgent in spiritual contemplation meditate upon your image installed in their sublime hearts. Undergoing this process of meditational and yogic practices, they turn their souls into supreme souls. In Agamic terminology—“Appa so paramappa" (soul is supreme soul).
In the same way as poisonous water becomes pure like ambrosia when ale accepted with a feeling devoid of discrimination.
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घट सकल विरोधनाशक मन्त्र एवं यन्त्र मन्त्र : ॐ ह्रीं अहँ नमो भगवते पार्श्वनाथाय सर्वविरोध-विषविकार
नाशकाय नमो नमः। * प्रयोग-विधि : मन, वचन एवं काया की शुद्धि करके निम्नलिखित यन्त्र की अपने
सम्मुख भावना सहित स्थापना करें । तदुपरान्त श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र के सतरहवें श्लोक के २१ बार मंगल पाठ से सर्वविरोध विष निवारक प्रभु पार्श्वनाथ जी का ध्यान करें। उक्त मन्त्र-जप के ११,००० जप से सकल विरोध का उपशमन होता है। नित्य एक माला का जप करें ।
-यन्त्रम्ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः।
अहं
अर्ह
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
अर्हम
अर्हम्
be kell balb
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ॐ त्वामचर्यन्ति जिनराज ! शिवादि-मत्वा,
लोके सदैव परवादरता जनौघाः। किं पीतरोगिभिरहो सितकम्बुवर्णः, नो गृह्यते विविध-वर्णविपर्ययेण॥१८॥
हे जिनराज ! तत्र भवान् एव पूज्यो देवः सम्पूर्णे खल्विह संसारे। * तत्रभवन्तमेव शिवादिरूपेण सकलाः परमतावलम्बिनः पूजयन्ति, ध्यायन्ति, आमनन्ति।
यथा कश्चित् पीतरोगग्रस्तः श्वेतवर्णशंखमपि पीतवर्णं प्रतिपादयति। तथैव ते परवादनिरता अन्यमतानुयायिनः त्वामेव नानारूपेण नामभेदेन प्रतिपादयन्ति।
हे जिनराज ! सम्पूर्ण संसार में आप ही परम पूज्य देव हैं। मैं मानता हूँ कि * परमतावलम्बी भी शिव आदि विभिन्न नाम देकर पूजते हैं, मानते हैं तथा ध्यान करते हैं।
जैसे कोई पीलिया नामक रोग से ग्रसित रोगी सफेद शंख को भी पीला बताता है, उसी प्रकार अन्य मतावलम्बी आपको नाना रूप में मानते हैं।
હે જિનરાજ !સંપૂર્ણ સંસારમાં તમે જ પરમ પૂજ્ય દેવ છો. હું માનું છું કે પરમતાવલમ્બી છે. પણ તમને શિવ વગેરે વિભિન્ન નામે પૂજે છે, માને છે તથા ધ્યાન ધરે છે.
જે કોઇ કમળાથી પિડાતો રોગી શંખને પણ પીળા રંગની કહે છે, તે જ પ્રકારે . અન્યમતાવલંબી તમને નાના રૂપના જાણે છે.
O Jinaraj ! In whole universe you are the most venerated deity. I believe that even the followers of other religions worship you, accept you and meditate on you.
As a jaundiced person calls a white conch-shell yellow so do the followers of other faiths have faith in you in various forms to their liking.
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मन्त्र
दृष्टिशोधक मन्त्र एवं यन्त्र
: ॐ ह्रीँ अर्हं अर्हं नमो शंखेश्वर पार्श्वनाथाय दृष्टिशोधकाय जगद्धिताय परमात्मने नमो नमः ।
प्रयोग-विधि : साधक, पूर्ण शुद्धिपूर्वक श्रद्धाभाव से ईशानकोण में बैठकर सम्मुख निम्नलिखित यन्त्र स्थापित करें और श्री सुशील कल्याण मन्दिर, स्तोत्र के अठारहवें श्लोक के २१ बार पाठ प्रभु पार्श्वनाथ जी का ध्यान करके उक्त मन्त्र का जप शुभ वेला में प्रारम्भ करें । २१ लाख जप करने से जप-सिद्धि होती है । नित्य एक माला जप श्रेयस्कर है ।
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ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
दृष्टिं
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- यन्त्रम्
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
नमो
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शोधय
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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सत्योपदेश-समये तव संश्रयेण, निःशोकमुग्धजनता तरवोऽप्यशोकाः। आविर्गते दिनमणौ गगने विशाले, किं वा बिबोधमुपयाति न जीवलोकः।।१६।।
हे जिनेश ! यदा भवान् स्वकीये समवशरणे स्थित्वा सकलेभ्यो जनेभ्यः * हिताय धर्मोपदेशं करोति तदा तत्रस्थाः सामान्या वृक्षा अपि अशोकाः * भवन्ति भव्यजनता च निःशोका भवति अस्मिन् विषये किमाश्चर्यम् ?
यदा भगवान भास्वान् उदितो भवित तदा न केवलं मनुष्याः जागृता * भवन्ति, अपितु पक्षि-मृगादयोऽपि जागृता भवन्ति। कमलान्यपि सरोवरेषु * स्वयं विकसन्ति विलसन्ति च।
हे जिनेश ! जब आप अपने समवशरण में विराजित होकर सत्य का धर्मोपदेश जगत् के कल्याण के लिए प्रस्तुत करते हैं तो वहाँ के वृक्ष भी अशोक हो जाते हैं
तथा भव्य जनता भी निःशोक हो जाती है क्योंकि सूर्योदय के होने पर न केवल र मनुष्य जागृत हो जाते हैं। सर्वत्र नवचेतना का संचार होता है। सरोवरों में कमल N स्वयं खिल जाते हैं।
હે જિનેશ!જ્યારે તમે તમારા સમવસરણમાં બિરાજીત થઈને સત્યનો ધર્મોપદેશ જગતના કલ્યાણ માટે પ્રસ્તુત કરી છે, ત્યારે ત્યાંના વૃક્ષ પણ અશોક થઇ જાય છે તથા ભવ્ય જનતા પણ નિઃશોક થઈ જાય છે, કારણકે સૂર્યોદય થવાથી ફક્ત મનુષ્ય જ નહીં પશુ-પક્ષી પણ જાગૃત ના થાય છે. સર્વત્ર નવ ચેતનાનો સંચાર થાય છે. સરોવરોમાં કમળ સ્વયં ખીલી ઊઠે છે.
O Jinesh ! While sitting in your Samavasaran (divine assembly) you give the discourse of truth for the well-being of the world. Not only the worthy audience but even the trees around become free of grief. Indeed, when the sun rises it is not only the humans who are awake but the birds and animals as well. There is an infusion of new life and lotuses in the ponds bloom spontaneously.
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मन्त्र
:
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
चिन्तानाशक मन्त्र एवं यन्त्र
ॐ ह्रीँ ह्रीँ अर्हं अर्हं अर्ह चिन्ता - संकटमोचकाय नमो अर्हते पार्श्वनाथाय ।
प्रयोग-विधि : अर्धरात्रि के समय इस मन्त्र का नित्य २१ रात्रियों में एक माला जप करने से चिन्तामुक्ति होती है। जप प्रारम्भ करने से पूर्व श्री सुशील. कल्याण मन्दिर स्तोत्र के उन्नीसवें श्लोक के २१ बार लयात्मक पाठ से प्रभु पार्श्वनाथ का ध्यान तथा निम्नलिखित यन्त्र की सविधि स्थापना करें ।
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- यन्त्रम्
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
अर्हते
अर्हते
bltall palh
अर्हम्
अर्हते पार्श्वनाथ
bitall-palh
अर्ह
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अर्हते पार्श्वनाथा
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पार्श्वनाथाय
अर्हते
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पार्श्वनाथाय
अर्हते
अर्हम्
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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आश्चर्यमेतदखिलं सुरपुष्पवृष्टिः, संजायते तव सभासदने सदैव। वृन्तान्यवाङ्मुखतया च तवानुभावात्,
गच्छन्ति नूनमध एव हि बन्धनानि॥२०॥ हे देवाधिदेव ! तत्र भवतां भवतां समवशरणे प्रसन्नमनसो देवाः पारिजातपुष्पवृष्टिं कुर्वन्ति। तत्राश्चर्यकरमेतद् यत् समेषां पारिजात पुष्पाणां
वृन्तानि नीचैरेव भवन्ति नोच्चैः । र अधुना मया परिज्ञातं यद् यानि कुसुमानि तव शरणार्पितानि तेषां * बन्धनानि नीचैः शिथिलानि भवन्ति। तानि बन्धनानि कदाप्यूर्ध्वमुखानि न * भवन्ति। भवतां चरणशरणं गतः सदैव बन्धनान्मुच्यते।
हे देवाधिदेव ! आपके समवशरण (सभामण्डप) में प्रमुदित भाव से देवगण पारिजात सुमनों की वर्षा करते हैं। उस सुरपुष्पवृष्टि को देखकर यह आश्चर्य * होता है कि सारे डंठल नीचे की ओर ही क्यों होते हैं ?
अब, मुझे इसका विधिवत् ज्ञान हुआ है कि सुमन आपकी चरण-शरण में आते हैं, उनके बन्धन नीचे की ओर शिथिल हो जाते हैं। वे कभी ऊपर की ओर र नहीं होते। वस्तुतः आपकी चरण-शरण को प्राप्त करने वाला सदैव बन्धनों से * मुक्त हो जाता है। આ હે દેવાધિદેવ! તમારા સમવસરણમાં ભક્તિભાવથી દેવગણ પારિજાતના ફૂલોની વર્ષા ર કરે છે. તે પુષ્પવૃષ્ટિને જોઈને આશ્ચર્ય થાય છે કે બધી ડાળીઓ નીચે તરફ જ કેમ હોય છે? શુ
હવે મને તેનું વિધિવત્ જ્ઞાન થયું છે કે ફૂલો તમારા ચરણોમાં આવે છે, તેમના બંધન નીચેની તરફ શિથિલ થઈ જાય છે. તે ક્યારેય ઉપરની તરફ નથી હોતા. વસ્તુતઃ તમારા ચરણ-શરણને પ્રાપ્ત કરનારા સદેવ બંધનોથી મુક્ત થઈ જાય છે.
O Lord of lords ! Gods shower Parijat flowers over your Samavasaran delightfully. It is surprising to see why all the stems are downwards. Now I fully know that the flowers are reaching for refuge at your pious feet. Their bonds loosen and slip downwards. Their movement upwards is impossible. In fact, X whoever gets refuge at your pious feet always gets liberated from all bonds.
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मन्त्र
सुख-समृद्धिदायक मन्त्र एवं यन्त्र
: ॐ ह्रीँ सुरपुष्पवृष्टि प्रातिहार्य शोभिताय श्रीपार्श्वजिनेश्वराय सुख-समृद्धिकराय ईं ईं शं शं शं नमो नमः |
प्रयोग विधि : सर्वशुद्धि के पश्चात् साधक, सादर सविधि निम्न यन्त्र की सम्मुख स्थापना करें। स्वयं ईशानकोण में बैठें। भगवा (लाल) वस्त्र धारण करें तथा मूँगें की माला से ५१ दिनों तक उक्त मन्त्र का जप करें । प्रतिदिन १००८ मन्त्र जप करें ।
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
मन्त्र जप से पूर्व श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र के बीसवें श्लोक के २१ बार पाठ से प्रभु पार्श्वनाथ जी का मंगल ध्यान करें । यह मन्त्र-यन्त्र सद्य: चमत्कारी है ।
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- यन्त्रम्
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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पीयूषवर्षि - ललितं वचनं त्वदीयम्, सत्यं सुधा-सम-सुमानसतोऽभिजातम्। आस्वाद्य तत् तव पदाब्जरताः सुधीशाः, भव्या ब्रजन्ति तरसाऽप्यजरामरत्वम्॥२१॥
हे जिनेश ! भवतां धीर-गम्भीर-हृदयसागराद् विनिःसृता सुधोपमा वाणी सर्वत्र अमृतवर्षां करोति। भवतां चरणारविन्दमकरन्द-पानरसिका भव्या * भक्तजना ज्ञानविज्ञानदक्षाः श्रीमद्वचनामृतमास्वाद्य सहसा मोक्षश्रियं लभन्ते।
हे जिनेन्द्र ! आपके धीर-गम्भीर हृदयरूपी सागर से प्रकट होने वाली अमृतवाणी सर्वत्र अमृतवर्षा करती है। आपके चरणोपासक भव्य भक्तजन तथा ज्ञानीजन उस अमृतवाणी का रसास्वादन करके परम मोक्ष-पद को प्राप्त करते हैं।
अर्थात् आपकी अमृतवाणी में वह अनुपम शक्ति है, जिसको सुनकर भव्य * प्राणी विषय विकारों से दूर होकर सहसा मुक्ति-पद प्राप्त कर लेते हैं।
ॐ
હે જિનેન્દ્ર !તમારા ધીર-ગંભીર હૃદયરૂપી સાગરમાંથી પ્રગટ થનાર અમૃતવાણી, સર્વત્ર કે અમૃતવર્ષા કરે છે. તમારા ચરણોપાસક ભવ્ય ભક્તજન તથા જ્ઞાનીજન તે અમૃતવાણીનું રસાસ્વાદન કરીને પરમ મોક્ષ પદને પ્રાપ્ત કરે છે.
' અર્થાત્ તમારી અમૃતવાણીમાં એવી અનુપમ શક્તિ છે, જે સાંભળીને ભવ્ય પ્રાણી છે. વિષય વિકારોથી દૂર થઈને સહસા મુક્તિપદ પ્રાપ્ત કરી લે છે.
___OJinendra ! The ambrosia-like speech emerging out of your ocean-like
calm and tranquil heart always showers ambrosia. The worthy devotees who Yn worship your pious feet and the sages alike taste that ambrosia-like speech and attain the lofty status of moksha (liberation).
In other words, your ambrosia-like speech has that unique power that just by listening to it the perversions of mundane indulgences of worthy beings are removed and they effortlessly attain liberation.
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मन्त्र
८ विजय-प्राप्ति मन्त्र एवं यन्त्र : ॐ ही अर्ह अहँ पीयूषवर्षिणे सिद्ध-बुद्ध-मुक्तस्वरूपिणे सर्वतो
विजयप्रदायिने नमो नमः। प्रयोग-विधि : साधना के समय यन्त्र को सम्मुख स्थापित करके उत्तर दिशा की
ओर मुख करके श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र के इक्कीसवें * श्लोक के २१ बार पाठ से भगवान पार्श्वनाथ का मंगल ध्यान करें। तदुपरान्त शुद्ध भाव से गुरुपुष्य या रविपुष्य नक्षत्र योग की शुभ-वेला में मन्त्र-जप प्रारम्भ करें। ५१ दिनों तक साधना का चमत्कारिक फल होता है। सवा लाख जप प्रारम्भ में करें।
-यन्त्रम्ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
अर्हम्
अहम
अर्हम्
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
अहेम्
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अर्ह
He bicipalh
blitt lite
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देवाः जिनेश ! तव भक्ति विनम्रचित्ताः, शुभ्रं सुचामरमहो व्यजयन्ति नित्यम्। मन्येऽर्हते नतिपरा दृढ़सेवका ये, ते नूनमूर्ध्वगतयः खलु शुद्धभावाः ।।२२।।।
हे जिनेश ! विनम्रभावेन त्वदीयां भक्तिं कुर्वाणाः देवाः नित्यमेव तव सेवायां चामरं व्यजयन्ति। अहं मन्ये यद् ये भक्ताः सदैव भगवतेऽर्हते Y नमस्कुर्वन्ति ते निश्चप्रचत्वेन शुद्धभावाः सन्तः ऊर्ध्वगतिं लभन्ते।
र हे जिनेश ! विनम्रभाव से आपकी भक्ति करते हुए देवगण आपकी सेवा
में सदैव चँवर डुलाते हैं। मैं तो यह मानता हूँ कि जो भक्त अरिहन्तदेव की है र सदैव वन्दना करते हैं वे निश्चित रूप से भावनात्मक रूप में विशुद्ध होकर * ऊर्ध्वगति प्राप्त करते हैं । अर्थात् अर्हद्भक्त कदापि अधोगति का संवरण नहीं
करते हैं।
હે જિનેશ! વિનમ્ર ભાવથી તમારી ભક્તિ કરતાં દેવગણ, તમારી સેવામાં હંમેશા એ ચામર ફેરવે છે. હું તો એમ માનું છું કે જે ભક્ત અરિહંતદેવની સદૈવ વંદના કરે છે, તે આ તો નિશ્ચિત રૂપથી ભાવનાત્મક રૂપે વિશુદ્ધ થઈને ઉર્ધ્વગતિ પ્રાપ્ત કરે છે. અર્થાત્ અહંદ્ભક્તની
કદાપિ અધોગતિ થતી નથી.
Jinesh ! Gods ever in your attendance swing whisks while worshiping you with all modesty. It is my belief that the devotees who always pay homage to Arihant Dev certainly achieve spiritual purity and attain higher status (birth in divine realm). In other words the devotees of Arhat never regress to a lower status (within infernal realms).
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यश प्रतिष्ठा-बहुमानकारक मन्त्र एवं यन्त्र मन्त्र : ॐ ह्रीं अहँ नमो यशः सम्मान दायिने भद्रंकराय स्वामिने नमो
नमः। प्रयोग-विधि : साधक, सर्वांग शुद्ध होकर निम्न यन्त्र की विधिवत् सम्मुख स्थापना
करें, स्वयं उत्तर दिशा की ओर मुख करके श्वेत वस्त्र पहनकर श्वेतासन पर बैठें तथा जप के लिए स्फटिकमणि की माला ग्रहण करें | ध्यान की एकाग्रता के लिए श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र के बाईसवें श्लोक का २१ बार मंगल पाठ कर प्रभु पार्श्वनाथ का ध्यान कर उक्त मन्त्र का विधिवत् शुभ वेला में जप करें। जाप से पूर्व सवा लाख जाप आवश्यक है।
-यन्त्रम्
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
यशः
सम्मानं
अहम
अहम्
अहम्
अर्हम्
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
___ अहम्
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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रत्नप्रभानिकर-पीठगतं भवन्तं, श्यामं विलोक्य सहसा मुदिता मयूराः। आकारयन्ति मधुरैर्वचनैरुदारैः, चामीकराद्रिशिरसीव नवाम्बुवाहम्।।२३।।
हे जिनेश ! रत्नप्रभाभास्वरं सिंहासनमारुह्य यदा भवान् लोककल्याणकारिणी धर्मदेशनां करोति तदा श्यामवर्णं भवन्तं, Y सुमेरौ समाच्छादितं नूतन-श्यामपयोधरमिव वीक्ष्य प्रमुदिता मयूराः
मधुरैः केकारवैः कूजन्ति ।
MC हे जिनेश ! रत्नजड़ित सिंहासन पर बैठकर जब अपने समवशरण में
लोककल्याणकारिणी धर्मदेशना/धर्मोपदेश करते हैं तब आपके सुमनोहर श्यामवर्ण को सुवर्ण पर्वत-सुमेरु पर आच्छादित नव मेघमाला समझकर प्रसन्नता से झूमते हुए मयूर मधुर ध्वनि में कूजते हैं।
હે જિનેશ! રત્નજડિત સિંહાસન પર બેસીને જ્યારે તમે તમારા સમવસરણમાં લોકકલ્યાણકારિણી ધર્મદેશના/ધર્મોપદેશ આપો છો, ત્યારે તમારા સુમનોહર શ્યામવર્ણને,
સુવર્ણપર્વત સુમેરૂ પર આચ્છાદિત નવમેઘમાળા સમજીને પ્રસન્નતાથી નાચતા મયુર - मधु२५निमां 21४२ छ.
O Jinesh! When you sit on the gem studded throne in your Samavasaran and give your beatific sermon, peacocks take your beautiful dark complexioned y body to be a chain of fresh rain clouds hovering over the peaks of the golden
Sumeru mountain and start cooing sweetly.
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८ राजसम्मान प्रदायक मन्त्र एवं यन्त्र
मन्त्र : ॐ ही अर्ह अहं रत्नपीठ-सिहांसन शोभिताय राजसम्मान दायिने
सत्यस्वरूपाय स्वामिने नमो नमः। प्रयोग-विधि : साधक, रेशमी वस्त्र धारण कर निम्न यन्त्र को विधिवत् काष्ठ
फलक पर सम्मुख स्थापित कर स्वयं पूर्व दिशा की ओर मुख करके * बैठे तथा श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र के तेईसवें श्लोक के २१ बार पाठ से प्रभु पार्श्वनाथ का मंगल ध्यान-स्मरण कर उक्त राजसम्मान प्रदायक यन्त्र का मूंगे की माला से जप करें। सवा लाख जप से महाप्रभावी फल प्राप्त होते हैं।
-यन्त्रम्ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
राजसम्मानं
कारय
अर्ह
अर्ह
यंरल
यं रं लं
अर्ह यंरं लं
य र
अर्ह
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ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
यरलं
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सिद्धि
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संभ्राजता खलु सुनीलविभाकरेण, लुप्तप्रभावखचिता इव देववृक्षाः। सम्पर्कतस्तव सदा जिनराजराज ! नीरोगतां ब्रजति को न सचेतनोऽपि॥२४॥
भवतां नीलवर्णशरीर प्रभाभिरशोकवृक्षाणां रक्तपत्रछविरपि सहसा तिरोहति। श्रीमतां वचनामृत पानेन, ध्यानेनैव न, अपितु सान्निध्यमात्रेण सचेतनाः प्राणिनो भवाधिव्याधितो विमुक्ताः सन्तो वीतरागतां प्रपद्यन्ते।
हे जिनेश ! आपके शरीर की मनोरम नीलवर्णकान्ति के प्रभाव से अशोक वृक्ष के रक्ताभ पत्रों की छवि भी सहसा तिरोहित हो जाती है, अशोक वृक्ष भी * चित्रखचित से प्रतीत होते हैं।
आपके वचनामृत पान या ध्यान करने से ही नहीं अपितु सान्निध्य मात्र से ही सचेन प्राणी, सांसारिक कष्टजालों से मुक्त होकर वीतराग स्थिति को * सहज रूप में प्राप्त कर लेते हैं।
હે જિનેશ!તમારા શરીરની મનોરમ નીલવર્ણ કાન્તિના પ્રભાવથી અશોકવૃક્ષના પર્ણોની જ છબી પણ સહસા પ્રકાશિત થઈ જાય છે.
તમારા વચનામૃતપાન અથવા ધ્યાન કરવાથી જ નહીં પરંતુ સાન્નિધ્ય માત્રથી જ સચેત પ્રાણી, સાંસારિક કષ્ટોથી મુક્ત થઈને વિતરાગ સ્થિતિને સહજ રૂપમાં પ્રાપ્ત કરી લે છે.
O Jinesh ! Under the enchanting glow of your blue complexion the red hue of the leaves of Ashoka tree suddenly vanishes. Even the Ashoka trees appear to be mere illustrations.
Even without absorbing the ambrosia of your sermon or meditating on your Y image, your mere proximity is enough for an aspirant to get liberated from the res web of worldly miseries and effortlessly attain the detached state.
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राज्यसुखदायक मन्त्र एवं यन्त्र
मन्त्र : ॐ हीं शं शं शं नमो भगवते अर्हते ही ब्लू स्वाहा। र प्रयोग-विधि : शुद्धिपूर्वक निम्नांकित मन्त्र को काष्ठपीठ पर सविधि स्थापित
करके श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र के चौबीसवें श्लोक का विधिवत् लयात्मक २१ बार पाठ कर प्रभु पार्श्वनाथ जी का ध्यान करें । तदुपरान्त मोती की माला से १०८ बार उक्त मन्त्र का जप करें। मन्त्र-जप-सिद्धि इक्यावन हजार माला जप से प्राप्त होती है।
-यन्त्रम्ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
अर्हम्
अर्हम्
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नमो
नमो
नमो
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः।
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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आलस्यदोषमपहाय भजन्तु सर्वे, ये यात्रिणः शिवपुरं गमनार्थचित्ताः। एवं विबोधयति नाथ ! जगत्त्रायेऽत्र, मन्ये नदन्नभिनभः सुरदुन्दुभिस्ते॥२५॥
हे प्रभो ! पार्श्वनाथ ! अहं मन्ये यद् आकाशे नदन्ती देवदुन्दुभिः लोकत्रयस्य सर्वान् जनान् उद्बोधयति यत् ये ये जनाः मोक्षपदाभिलाषिणः सन्ति ते ते प्रमादं परित्यज्य शिवपुरं गन्तुं सज्जाः ke भवन्तु।
हे प्रभु पार्श्वनाथ ! मैं ऐसा मानता हूँ कि आकाशमण्डल में बजती हुई देव-दुन्दुभि मानो तीनों लोकों के समस्त प्राणियों को उद्बोधित करती हुई कह रही है कि जो भव्यजन शिवपुर-मोक्ष जाने की उत्कष्ट अभिलाषा रखते हैं वे सभी आलस्य का पूर्णतः परित्याग करके तैयार हो जाएँ।
હે પ્રભુ પાર્શ્વનાથ ! હું એવું માનું છું કે આકાશમંડળમાં વાગતી દેવદુંદુભી જાણે ત્રણે લોકના સર્વે પ્રાણીઓને સંબોધીને કહી રહી છે કે જે ભવ્યજન શિવપુર મોક્ષ જવાની ઉત્કૃષ્ટ અભિલાષા રાખે છે તે બધા આળસને સંપૂર્ણ પણે ત્યાગીને તૈયાર થઇ જાય.
O Lord Parshva Naath! It is my belief that the divine drums beating in the posky are edifying all beings in the three worlds with the message that all those
worthy ones who have the pious desire to attain liberation (Shivapura or the abode of bliss) should completely abandon lethargy and be alert.
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मन्त्र
स्फूर्तिप्रदायक मन्त्र एवं यन्त्र
: ॐ ह्रीँ अर्ह अहं नमो वीतरागाय परमप्रबोधकराय पार्श्वनाथाय. नमः स्फूर्तिदायिने ।
प्रयोग-विधि : मानसिक, वाचिक, कायिक शुद्धि सहित साधक शुद्ध वस्त्र पहनकर निम्नलिखित यन्त्र को सविधि सम्मुख स्थापित करके श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र के पच्चीसवें श्लोक के २१ बार मंगल पाठ
प्रभु पार्श्वनाथ का ध्यान करें ।
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
तदुपरान्त उक्त मन्त्र का जप प्रवाल-माला से करें। सवा लाख जप से जप-सिद्धि होती है। इससे स्फूर्ति प्राप्त कर साधक, उत्तम कार्यों में सर्वत्र सफल होता है ।
स्फूर्ति
देहि
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- यन्त्रम्
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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ज्ञानप्रभानिकर ! तेऽत्र महाप्रकाशं, ज्ञात्वा शशिः सुमणितुल्यसुतारकैश्च । मुक्ताभ - कान्ति-कलितोल्लसितातपत्रव्याजात् त्रिधा धृततनुर्ध्रुवमभ्युपेतः ।। २६॥
हे ज्ञानसूर्य ! भवतां शिरसि विराजितेषु त्रिषु क्षत्रेषु त्रिरावृतमुक्तावली तारागणैः सहोपस्थित शशिरिव शोभतेतराम् । भवदिव्य ज्ञानेन जगति सर्वत्र महाकाशः कृतः। भवतां ज्ञानेन प्रकाशिते जगत्त्रये का गणना तत्र शशिनः इति कृत्वा मन्ये शशिरपि भवत् सेवायां समुपस्थितः ।
हे ज्ञान प्रभाकर ! आपके मस्तक पर विराजित क्षत्रत्रय में तीन लड़ों वाली मोतियों की झालर मानों तारों के साथ उपस्थित चन्द्रमा के समान सुशोभित होती है । हे जिनेश्वर ! आपके ज्ञान के दिव्य प्रकाश से लोकत्रय के प्रकाशित होने पर वहाँ चन्द्रमा की क्या गणना ? अतएव चन्द्रमा भी मानो आपकी सेवा में उपस्थित हो गया है ।
હે જ્ઞાનપ્રભાકર ! તમારા મસ્તક પર બિરાજિત ક્ષેત્રત્રય(મુગટ)માં મોતીઓની ઝાલર જાણે તારા સાથે ઉપસ્થિત ચંદ્રમા સમાન સુશોભે છે. હે જિનેશ્વર ! તમારા જ્ઞાનના દિવ્ય પ્રકાશથી લોકત્રયના પ્રકાશ પાસે ચંદ્રમાની શી ગણના? અહીં તો જાણે ચંદ્રમા પણ તમારી સેવામાં ઉપસ્થિત છે.
O Sun of knowledge! The three string pearl frill dangling from the three tier canopy over your head looks like the moon amidst stars.
O Jineshvar ! The three worlds are illuminated by the divine light of your knowledge, the moon is reduced to insignificance. Thus it appears as if the moon has also come in ! your attendance.
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ग्रह-पीड़ा निवारक मन्त्र एवं यन्त्र
मन्त्र : ॐ ह्रीं श्रीं अहँ अर्ह ग्रहबाधा निवारय वारय स्वाहा। र प्रयोग-विधि : साधक पीतवस्त्र धारण कर निम्नलिखित यन्त्र को काष्ठपीठ पर
सम्मुख स्थापित करके पूर्वाभिमुख होकर सर्वप्रथम श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र के छब्बीसवें श्लोक से २१ बार पाठ कर प्रभु पार्श्वनाथ का ध्यान करें। श्लोक का शुद्ध लयात्मक उच्चारण अनिवार्य है। तदुपरान्त उक्त ग्रह-पीडा निवारक मन्त्र का जाप कमलबीज माला से करें । २१ दिन तक पाँच-पाँच माला जप करने से ग्रह-बाधा का निवारण हो जाता है।
-यन्त्रम्ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
ग्रहपीडां
खेचरबाधां
अर्हम्
अर्हम्
अर्हम्
अर्हम्
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
अर्हम्
अर्हम्
निवारय
(निवारय
श्री.
He bllolipaih pelelt CE
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धाम्ना निरस्तकुहरो यशसां चयेन, लोकत्रयेऽपि तव कान्तिरहो विशुद्धा। माणिक्य-राजत-सुवर्ण-सुनिर्मितेन, सालत्रयेण भगवन्नभितो विभासि॥२७।।
भगवन् ! स्वकीय-परम प्रतापेन कीर्ति-कलामण्डलेन च सकलाभानान्धकार निवारकस्त्वमसि। त्वदीया विशुद्धकान्तिस्तु लोकत्रयेऽपि विराजते। यदा त्वं समवशरणे विराजते तदा तु माणिक्यराजत-सुवर्ण* सुनिर्मितं कोटत्रयमभितो भासमानं विभातितराम्।
हे आराध्यदेव ! आप स्वकीय परम प्रताप से एवं कमनीय कीर्ति-मण्डल से सम्पूर्ण अज्ञानरूपी अन्धकार को छिन्न-भिन्न करने वाले हैं। आपकी निर्मल कान्ति तीनों लोकों में सर्वत्र सुशोभित हो रही है।
जब आप समवसरण में विराजते हैं तो सोने, चाँदी तथा माणिक्य रत्नों से है सुनिर्मित तीन कोट दृष्टिगोचर होते हैं।
હે આરાધ્યદેવ! તમે સ્વયં પરમ પ્રતાપથી અને કમનીય કીર્તિમંડળથી સંપૂર્ણ અજ્ઞાનરૂપી અંધકારને છિન્ન-ભિન્ન કરનારા છો. તમારી નિર્મળ કાન્તિ ત્રણે લોકમાં સર્વત્ર સુશોભિત થઈ २४ीछे.
જ્યારે તમે સમવસરણમાં બિરાજો છો, તો સોના-ચાંદી તથા માણેકના રનોથી સુનિર્મિત ત્રણેય કોણ દ્રષ્ટિગોચર થાય છે.
O Adored lord ! Adorned with yourself generated great glory and You enchanting orb of fame, you are the dispeller of all the darkness of ignorance. Your flawless radiance illuminates every corner of the three worlds.
When you sit inside the Samavasaran, three parapet walls exquisitely built of gold, silver and rubies are visible.
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Y८ धन-धान्य वृद्धिकारक मन्त्र एवं यन्त्र)
मन्त्र : ॐ ही अर्ह अहँ श्री श्री धनधान्यवृद्धिं कुरु कुरु स्वाहा। प्रयोग-विधि : सर्व शुद्धिपूर्वक उत्तर दिशा की ओर मुख करके साधक
निम्नलिखित यन्त्र को सविधि काष्ठ-फलक पर स्थापित करें | जप ** प्रारम्भ करने से पूर्व श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र के सत्ताईसवें श्लोक के २१ बार मंगल पाठ से प्रभु पार्श्वनाथ का सादर ध्यान करें । तदुपरान्त एकाग्रता के साथ उक्त मन्त्र की नित्य * पाँच माला का जप करने से धन-धान्य वृद्धि होती है। जप-सिद्धि दीपावली की रात्रि की शुभ वेला में २१ माला जप करने से होती है।
-यन्त्रम्ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
अर्ह
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
अहेम
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स्वर्गाधिपोऽपि चरणाम्बुजसेवकस्ते, नित्यं शिरोमणिगणा निपतन्ति पादौ । शान्तिस्त्वदीयचरणे शरणे सदैव,
त्वत्संगमे सुमनसो न रमन्त एव।।२८।। हे देवेश ! भवतां चरणारविन्दयोः सेवायाम् देवलोकाधिपतिरिन्द्रोऽपि सततमुपस्थितो भवति। यदा स देवराजो भवतां चरणकमलयोः विनतो भवति तदा तन्मुकुटमणिगणाः सहसा भवतां चरणशरणे पतन्ति।
ते मणिगणाः रत्नजटितमुकुटान् परित्यज्य भवतां चरणयोः किमर्थं - पतन्ति ? इति मे मनसि शंका आसीत् किन्तु सम्प्रति समाधानं प्राप्तं यत् है - भवतां चरणशरणेऽखण्डाऽनन्ता शान्ति विराजते। अतएव सुमनसोऽपितत्रैव * रमन्ते। * हे देवेश ! आपकी चरणसेवा में देवराज इन्द्र भी विनीत भाव से सदैव उपस्थित * होते हैं। जब वह वन्दन के लिए आपके चरण-कमलों में झुकते हैं तब उनके * मुकुट की मणियाँ भी आपके चरणारविन्द पर बिखर जाती हैं, मानो वे भी समझती *
हों कि शान्ति, स्वर्ग में नहीं अपितु प्रभु पार्श्वनाथ चरण-कमलों के सान्निध्य में ही है। वस्तुतः अखण्ड, अनन्त शान्ति आपकी चरण-शरण में ही प्राप्त होती है।
હે દેવેશ! તમારા ચરણોમાં દેવરાજ ઇન્દ્ર પણ વિનય ભાવથી સદૈવ ઉપસ્થિત થાય છે. " જ્યારે તે વંદન કરવા તમારા ચરણકમળમાં ઝૂકે છે, ત્યારે તેના મુગટના મોતી પણ તમારા જ ચરણો પર વિખેરાઈ જાય છે, જાણે તે પણ સમજતા હોય કે શાંતિ સ્વર્ગમાં નહીં પરંતુ પ્રભુ ને
પાર્શ્વનાથના ચરણકમળના સાન્નિધ્યમાં જ છે. વસ્તુતઃ અખંડ, અનંત શાંતિ તમારા અને ચરણ-શરણમાં જ પ્રાપ્ત થાય છે.
O God of gods ! Indra, the king of gods, too is in your attendance at your feet with all modesty. When he bows at your lotus-feet to pay his homage, the the gems in his crown get scattered at your feet. It is as if they too understand that
peace is not in heaven but in the proximity of the lotus-feet of Prabhu Parshva Naath. In fact undisturbed and endless peace can be availed only in the refuge of your pious feet.
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सर्व सुखदायक मन्त्र एवं यन्त्र
मन्त्र
: ॐ ह्रीँ णमो जिणाणं सव्वसुखकरं सव्वदुक्खहरं णमो णमो ।
प्रयोग विधि : सर्वाङ्ग शुद्ध होकर साधक निम्नलिखत यन्त्र की अपने सम्मुख काष्ठपीठ पर सविधि स्थापना करें । श्वेत वस्त्र धारण कर, श्वेत आसन पर बैठकर, मोती की माला ग्रहण कर उक्त मन्त्र की पाँच माला प्रतिदिन करें । यह मन्त्र एवं यन्त्र सर्वसुखकारक हैं । मन्त्र जप से पूर्व श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र के अट्ठाईसवें श्लोक का २१ बार पाठ कर प्रभु पार्श्वनाथ जी का ध्यान करें ।
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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-यन्त्रम्
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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णमो
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ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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संसारसागरविमुक्त ! जिनेश ! नाथ ! संतारकः सविधिवन्दनकारकाणाम्। युक्तं त्वदीयचरणं शरणं जनानाम्,
चित्रं विभो ! यदसि कर्मविपाक शून्यः।।२६ ।। ____ भवान् संसारसागराद् विमुक्तोऽस्ति तथापि सविधिवन्दनकारकाणां भक्तजनानां संतारकः । श्रीमतां चरणकमलं भक्तिभावितचेतसां शरणमस्ति। अतएव ते सदैव भवदीयं शरणं युक्तमिति स्वीकुर्वन्ति। निजभक्तानां संतारको भूत्वाऽपि भवान् कर्मविपाकशून्यो मुक्तः इति महदाश्चर्यकरम्।
हे प्रभो ! आप संसार-सागर से विमुक्त हैं तथापि विधिपूर्वक वन्दन करने वाले भक्तजनों के आप तारक हैं।
आपके चरण-कमलों में भक्तिभाव रखने वाले लोग आपकी चरण-सेवा को * * ही उपयुक्त शरण मानते हैं। आप भक्तजनों के संतारक होते हुए भी स्वयं कर्मविपाक * से सर्वथा रहित मुक्तस्वरूप हैं-यह अपने आप में महान् आश्चर्यकारी है।
હે પ્રભુ! તમે સંસાર-સાગરથી વિમુક્ત છો, છતાંય વિધિપૂર્વક વંદન કરવાવાળા ભક્તજનોના તમે તારક છો.
તમારા ચરણ કમળોમાં ભક્તિભાવ રાખવાવાળા લોકો તમારી ચરણ સેવાને જ ઉપયુક્ત શરણ માને છે. તમે ભક્તજનોના તારક હોવા છતાં પણ સ્વયં કર્મવિપાકથી સર્વથા રહિત મુક્ત સ્વરૂપ છો, તે પણ મહાન આશ્ચર્યકારક છે.
O Prabho ! Although you have transcended the ocean of worldly existence, you are the taarak (one who helps cross the ocean of mundane existence) of the devotees who pay homage to you following the prescribed procedure.
Those who have devotion for your lotus-feet consider serving at your feet to be the desired place of refuge. In spite of being the instrument of salvation of devotees, you are the manifestation of the state of liberation absolutely free of the influence of karmas. This is nothing less than a great miracle.
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मन्त्र
सकलदाह निवारक मन्त्र एवं यन्त्र
: ॐ ह्रीँ नमो अर्हं अर्हं सकलदाहविनाशिने स्वामिने पार्श्वनाथाय नमो नमः ।
प्रयोग विधि : मन, वचन, काया से शुद्ध होकर साधक निम्न चमत्कारी यन्त्र को रेशमी वस्त्र से आच्छादित काष्ठपीठ पर सविधि स्थापित करके सुसिद्ध पद्मासन लगाकर श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र के उनतीसवें श्लोक का २१ बार पाठ कर प्रभु पार्श्वनाथ का ध्यान करें ।
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
तदुपरान्त मन्त्र जप प्रारम्भ करने कमलगट्टे की माला अधिक लाभकारी रहती है । २१ हजार जप से मन्त्र- सिद्धि होती है।
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- यन्त्रम्
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
अर्हम् फट्
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अर्हम् हूँ फट्
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ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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त्वं विश्वनाथ ! जनपालक! पार्श्वनाथ ! देवाधिदेव ! करुणाकर ! सन्मुनीश ! कर्मप्रभावरहितो महितः सुधीशैः,
ज्ञानं त्वयि स्फुरति विश्वविकास हेतुः॥३०॥ हे पार्श्वनाथ प्रभो ! भवान् विश्वेषां जनानां पालकत्वात् स्वामी अस्ति। * देवराजादयोऽपि तव सेवकाः सन्ति एतावता देवाधिदेवः, करुणावरुणालयत्वात् A करुणाकरः उत्कृष्ट मुनिजनानां चाराध्यदेवः । Ye भवान् कर्मकलापप्रभावशून्यो विद्वज्जनैः प्रशंसितः पूजितोऽस्ति। भवति विश्वकल्याणकारकं सम्यग्ज्ञानं सततं विलसति।
हे पार्श्वनाथ प्रभो ! आप सकल विश्व का पालन करने के कारण जनपालक विश्वनाथ हैं। देवराज इन्द्र आदि भी आपके चरण-सेवक हैं। अतएव देवाधिदेव ग हैं। आप करुणाकर तथा उत्कृष्ट मुनिजनों के आराध्यदेव भी हैं।
आप कर्मप्रभाव से शून्य हैं । अतः सुधीजन भी आपकी पूजा करते हैं । सकल र संसार का कल्याण करने में समर्थ सम्यग्ज्ञान आपमें स्फुरित होता है। કે હે પાર્શ્વનાથ પ્રભુ! તમે સકળ વિશ્વનું પાલન કરવાને કારણે જનપાલક, વિશ્વનાથ આ છો. દેવરાજ ઇન્દ્ર વગેરે પણ તમારા ચરણ-સેવક છે. તેથી જ તમે દેવાધિદેવ છો. તમે જ છે. કરૂણાકર તથા ઉત્કૃષ્ટ મુનિજનોના આરાધ્યદેવ છો.
તમે કર્મપ્રભાવથી શૂન્ય છે. તેથી સુધીજન પણ તમારી પૂજા કરે છે. સકળ સંસારનું જ કલ્યાણ કરવામાં સમર્થ સમ્યક જ્ઞાન તમારામાં રૃરિત થાય છે.
O Parshva Naath Prabho ! As you are the provider of the whole world you are the Lord of the world (Vishvanaath). As Indra, the king of gods and other gods are in attendance at your feet you are the Lord of gods. You are also the abode of compassion and the object of worship for the best of sages.
As you are beyond the influence of karmas, even the sagacious worship you. The right knowledge that is capable of providing beatitude to the whole world sprouts in you.
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ज्ञान-विज्ञानवर्धक मन्त्र एवं यन्त्र)
मन्त्र : ॐ हीं नमो अरिहंताणं ऐं ऐं ऐं श्रीं नाणस्स नमो नमो ऐं
अर्हम्। * प्रयोग-विधि : शुद्धतापूर्वक पीतवस्त्र धारण करके साधक उत्तर दिशा की ओर
पीत आसन पर बैठकर सविधि निम्नलिखित ज्ञान-विज्ञानवर्धक यन्त्र को काष्ठपीठ पर स्थापित कर श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र के तीसवें श्लोक का २१ बार पाठ कर पार्श्व जिनेश्वर का ध्यान करें । तदुपरान्त उक्त मन्त्र मोती की माला से गुरुपुष्य नक्षत्र में पाँच माला जप करें। यह मन्त्र एक माला प्रति दिन जपने पर ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में आश्चर्यकारी पथ प्रदर्शित करता है।
-यन्त्रम्| ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
अरिहंताणं
नमो
अरिहंताणं
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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दुष्टेन तेन कमठेन रजांसि रोषाद्, क्षिप्तानि तानि गगनाञ्चलविस्तृतानि। छायाऽपि नैव तव देव ! हता निराशो, ग्रस्तस्त्वमीभिरयमेव परं दुरात्मा।।३१।।
हे जिनेन्द्र ! स दुरात्मा कमठः क्रोधितोभूत्वा त्वयि भीषण धूलिक्षेपं कृतवान् किन्तु तेन भवतां शरीरं किं शरीरच्छायाऽपि मलिना न संजाता। धूलिस्तु सम्पूर्णे गगने विस्तृताऽभवत् परन्तु तद्धूलिक्षेपदुष्कर्मणा तस्येव कमठस्यात्मा कर्मकषायैराबद्धः।
हे जिनेन्द्र ! उस दुरात्मा कमठ ने क्रोधित होकर आप पर भीषण धूल फैकी किन्तु वह धूल आपके शरीर तो क्या शरीर की छाया का भी स्पर्श नहीं है कर पाई । वह धूल सारे गगनमण्डल में छा गई। उस धूलिक्षेपरूपी दुष्कर्म के कारण उस कमठ की आत्मा स्वयं कर्मकषायों के बन्धन से आबद्ध हो गई।
હે જિનેન્દ્ર ! કમઠના દુરાત્માએ ક્રોધિત થઈને તમારા પર ભીષણ ધૂળ ફેંકી પરંતુ તે કી ધૂળ તમારા શરીરને તો શું, તમારા પડછાયાને પણ સ્પર્શ ન કરી શકી. તે ધૂળ આખાયે 8. ગગનમંડળમાં છવાઇ ગઇ. તે ધૂળક્ષેપરૂપી દુષ્કર્મને કારણે કમઠનો આત્મા સ્વયં
કર્મકષાયોના બંધનથી આબદ્ધ થઇ ગયો.
O Jinendra ! That evil Kamath (a specific demigod) afflicted you with terrifying sand storm but those particles of sand could not even touch your shadow, what to say of your body. And that sand storm covered every part of the
sky. As a consequence of that evil deed of causing sand storm, Kamath's own y soul was entrapped in karmic bondage.
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९ विपदा निवारक मन्त्र एवं यन्त्र * मन्त्र : ॐ हीँ नमो अर्हते विपदानिवारकाय सर्वसुखकराय नमो नमः। , * प्रयोग-विधि : साधक, पूर्ण शुद्धिपूर्वक श्वेत वस्त्र धारण करके, श्वेत आसान पर
बैठकर कमलगट्टे की माला हाथ में लेकर, ईशानकोण में बैठकर काष्ठ फलक रखकर सविधि निम्नलिखित यन्त्र को स्थापित करके श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र के इकत्तीसवें श्लोक का लयात्मक शुद्ध २१ बार पाठ करके प्रभु पार्श्वनाथ का ध्यान करने * के पश्चात् उक्त मन्त्र का रविपुष्य नक्षत्र योग की शुभ वेला में जप प्रारम्भ करें। सवा लाख जप से जप-सिद्धि होती है। तत्पश्चात् प्रतिदिन एक माला जप करके भी शुभ वेला में जप किया जा सकता है।
-यन्त्रम्ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
विपन्निवारय
विपन्निवारय
अर्हते
अर्हते
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः ॐ नमा में
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
अर्हते
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तनैव दुष्ट कमठेन जलौघवृष्टिः , संस्कारिता घनघटाशनिपातघोरा। संप्लाविता च भुवि दुस्तरवारिधारा,
तेनैव तस्य जिन ! दुस्तरवारिकृत्यम्॥३२॥ __ भगवन् ! तेनैव दुरात्मना कमठेन पुनश्चैकदा घनघोर वृष्टि: कारिता। तस्मिन् समये त्रासदा विद्युद्गर्जना, भयंकर मूसलाधारजलवर्षा र सञ्जाता। तद्भयंकर वारिप्रवाहो दुस्तरोऽभूत किन्तु तेनैवापि भवतां समताधारिणां कापिक्षति न सजाता। तस्यैव दुरात्मनः कमठस्य कर्मभारो वृद्धिं गतः।
हे भगवन् ! उस दुरात्मा कमठ ने फिर दूसरी बार ऐसी घनघोर वर्षा Y करवाई कि जिसमें भयंकर आवाज करती हुई बिजलियाँ कड़की, मूसलाधार र पानी बरसा । सर्वत्र जल ही जल व्याप्त होने लगा। वह भयंकर वारिप्रवाह
नितान्त दुस्तर था किन्तु वह भी आप जैसे समताधारी का कुछ भी बिगाड़ने * * में समर्थ न हो सका। बस, उस दुष्कृत्य से उसी दुरात्मा कमठ का कर्मभार *
और अधिक बढ़ गया।
હે ભગવાન!તે દુરાત્મા કમઠે બીજી વાર એવી ઘનઘોર વર્ષા કરાવડાવી કે જેમાં ભયંકર આ કડકડાટ સાથે વીજળી ચમકી અને મૂશળધાર વરસાદ વરસ્યો. સર્વત્ર જળબંબાકાર થઇ શકે છે. ગયો. એ પાણીનો પ્રવાહ ભયંકર હતો પરંતુ તે પણ તમારા જેવા સમતાધારીનું કશું બગાડવામાં છે . સમર્થ ન થઈ શક્યું. બસ, તે દુષ્કૃત્યથી તે દુરાત્મા કમઠનો કર્મભાર અધિક વધી ગયો.
O Bhagavan ! That evil Kamath once again tormented you with a fearsome down-pour accompanied by thunder and lightening. Everything was inundated by the rising waters. That terrible flow of water was intolerable. But even that
could not do any harm to your equanimous self. Indeed, that evil deed added to ve the load of karmas of that evil Kamath.
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वृष्टि निवारक मन्त्र एवं यन्त्र ) * मन्त्र : ॐ ही अर्ह श्री अतिवृष्टिं निवारय निवारय हूँ हूँ हूँ फट् स्वाहा। * प्रयोग-विधि : साधक, त्रिकरण शुद्धिपूर्वक निम्नलिखित यन्त्र को रेशमी वस्त्र से है
आच्छादित काष्ठपीठ पर सविधि श्रद्धापूर्वक स्थापित करें तथा पूर्व दिशा में मुख करके श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र के बत्तीसवें श्लोक का लयात्मक २१ बार पाठ करके प्रभु पार्श्वनाथ का सादर ध्यान करें । तदुपरान्त रुद्राक्ष माला से जप प्रारम्भ करें। ५१ हजार माला जप करने से जप-सिद्धि होती है। जप-सिद्धि के पश्चात् मात्र पाँच माला जपने से अतिवृष्टि निवारण होता है।
-यन्त्रम्ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
अतिवृष्टिं
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अहम्
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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दग्धोर्ध्वकेश-विकृताकृति-मुण्डमालविभ्र भयानक-कृतान्तसमोऽग्निजालम्। यः प्रेषयत् तव कृते किल भूतवर्ग, सोऽस्याऽभवत् प्रतिभवं भवदुःखहेतुः।।३३।।
हे जिनेन्द्र ! पुनश्च तेनैव दुरात्मना कमठेन भवन्तं सत्साधना मार्गात् पातयितुं दग्ध-केश-विकृताकृतिवन्तो नरमुण्डमाल धारिणः भयंकरा र निर्दया पिशाचाः प्रेषिताः किन्तु ते भवतां किमपि नाशयितुं साधना पथात् अपनेतुं वा असमर्था एवाभवन्। एतेन कुकर्मणा तस्यैव कमठस्य भवदुःख-जालं वृद्धिंगतम्।
हे जिनेन्द्र ! फिर उसी दुरात्मा कमठ ने आपकी सत्साधना भंग करने के लिए भयंकर आकृति वाले, नरमुण्डमालधारी निर्दयी पिशाच भेजे किन्तु वे ? प्रलयकाल के समान अग्नि बरसाने वाले भयंकर पिशाच भी आपका कुछ भी
नहीं बिगाड़ पाए। इस कुत्सित कृत्य के सम्पादन से उसी कमठ के भवदुःखजाल * में बढ़ोतरी हुई।
-
હે જિનેન્દ્ર ! ફરી તે દુરાત્મા કમઠે તમારી સાધના ભંગ કરવા માટે ભયંકર છે આકૃતિવાળા, નરમુડમાલધારી નિર્દયી પિશાચ મોકલ્યા પરંતુ તે પ્રલયકાળ સમાન અગ્નિ વરસાવનાર ભયંકર પિશાચ પણ તમારું કશું બગાડી ન શક્યા. આ દુષ્કૃત્યના કરવાથી તે કમઠની ભવદુઃખ જાળ વધી ગઇ.
___OJinendra! After this, the evil Kamath sent cruel pishachas (lower gods) with horrifying appearance and adorned with garlands of skulls in order to disturb your pious meditation. But even those fire emitting and tempest-like pishachas could do no harm to you. This despicable deed too strengthened the web of the misery of rebirths.
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भूत-प्रेतबाधा निवारक मन्त्र एवं यन्त्र : ॐ ही श्री अहँ श्रीमते तीर्थंकराय पार्श्वनाथाय भूत वर्ग बाधा
निवारकाय नमो नमः। प्रयोग-विधि : साधक, उत्तराभिमुख होकर शुद्ध भाव से निम्नलिखित यन्त्र को
विधिवत् काष्ठपीठ पर स्थापित करके श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र के तेतीसवें श्लोक के २१ बार पाठ से प्रभु पार्श्वनाथ जी का ध्यान करें। तत्पश्चात् उक्त मन्त्र का जाप, रुद्राक्ष माला से जप करे। सवा लाख मन्त्र-जप से जप-सिद्धि होती है। जप-सिद्धि के पश्चात् आवश्यकतानुसार प्रयोग में लायें।
-यन्त्रम्
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः।
भूतबाधां
प्रेतबाधां
तीर्थकराय
श्रीमते
नमः
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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मान्यास्त एव जगदीश्वर ! ये त्रिकालं, पूजाविधान-निरता विरता भवाद्वै। श्रद्धान्वितास्तु विमलाः सदुपासकाश्च, पादद्वयं तव विभो ! भुवि जन्मभाजः॥३४॥
हे जगदीश्वर-जिनेन्द्र प्रभो ! ये संसारसागराद् विरक्ताः सन्तः * श्रीमतां वन्दनपूजायां त्रिकालं तत्पराः सन्ति ते माननीयाः सन्ति।
सश्रद्धनिर्मलहृदयास्तव चरणकमलोपासकाः पृथिव्यां जन्मधारिण। एव जना धन्यवादार्हाः सन्ति।
हे जिनेन्द्र प्रभो ! संसार-सागर से विरक्त आपकी चरणोपासना में तीनों * काल में तत्पर भक्तजन माननीय है।
श्रद्धापूर्वक त्रिकरण से आपके चरण-कमलों की निरन्तर उपासना करने १ वाले जीव ही वस्तुतः पृथ्वी पर धन्यवाद के सत्पात्र हैं।
* જે
હેજિનેન્દ્ર પ્રભુ! સંસાર-સાગરથી વિરક્ત, તમારી ચરણોપાસનામાં ત્રણે કાળમાં ५२ म नमाननीय छे.
શ્રદ્ધાપૂર્વક ત્રિકરણથી તમારા ચરણ કમળની નિરંતર ઉપાસના કરવાવાળા જીવ ४ १स्तुत: पृथ्वी ५२ ५न्याने पात्रछ.
Indeed, revered are the devotees who, detached from the mundane existence, are eagerly involved in worshipping your feet at all the three periods of time (past, present and future).
In fact, only those beings in this world are worthy of praise who incessantly worship your lotus-feet three ways by three means.
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धनलक्ष्मी प्रदायक मन्त्र एवं यन्त्र मन्त्र : ॐ हीं अहँ नमो हितकारिणे पार्श्वनाथाय श्रीँ श्रीँ श्री धनलक्ष्मी
कुरु कुरु स्वाहा। प्रयोग-विधि : पौष कृष्ण पक्ष दशमी (गुजराती-मिगसर कृष्ण दशमी) के शुभ वेला
में निम्नलिखित यन्त्र को सविधि सम्मुख स्थापित करके श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र के चौंतीसवें श्लोक के २१ बार मंगल पाठ से प्रभु पार्श्वनाथ का ध्यान करें। तदुपरान्त १००८ बार उक्त मन्त्र का एकाग्रचित्त होकर जप करें। परदेश यात्रा या व्यापार आदि के प्रसंग में ११ बार उक्त मन्त्र का जप-स्मरण करें तथा यन्त्र को साथ रखने से महान् लाभ होता है।
-यन्त्रम्ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
पार्श्वनाथाय]
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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दुःखाकुलेऽतिविकले भ्रमता महेश ! नैवात्र नाम भवतः श्रवणेन पीतम् । नाम्नि श्रुते
परमपावनलोकसिद्धे,
किं वा विपद् विषधरी सविधं समेति । । ३५ ॥
हे देवेश ! अस्मिन् अपारदुःखजाल विकराले संसारेऽनन्तकालतो जन्म-जरा-मरणचक्रे भ्रमता मया पावनमन्त्रस्वरूपं नाम न श्रुतं न च संकीर्तितम् । यद्येवं कृतं स्यात् तर्हि विपत्तिरूपधारिणी विषयविकारविषधरी मत् पार्श्वे नैवागन्तुं शक्नुयात्।
हे देवेश ! इस अपार दुःखजाल से विकराल संसार में अनन्तकाल से जन्म-मरण के चक्कर काटते हुए मैंने आपका पावन नाम न सुना, न जपा । यदि ऐसा मैंने किया होता तो विपत्तिरूपी विषयविकार की नागिन मेरे पास भी नहीं फटकती ।
હે દેવેશ ! આ અપાર દુઃખજાળથી વિકરાળ સંસારમાં અનંતકાળથી જન્મ-મરણના ચક્કર કાપતા મેં તમારા પાવન નામનું સ્મરણ ન કર્યું. જો મેં તમારું નામ જપ્યું હોત તો વિપત્તિરૂપી વિષયવિકારની નાગણ મારી પાસે ફરકત પણ નહીં.
O Devesh ! While drifting around in this world of cycles of rebirths, even more terrifying than an endless web of misery, I neither heard your pious name nor chanted it. Had I done so, the torment in the form of the serpent of perversion of mundane indulgences would not even have approached me.
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८ सर्वसंकटमोचक मन्त्र एवं यन्त्र * मन्त्र : ॐ अहँ अहँ नमो भगवते पार्श्वनाथ संकटमोचनं कुरु ठः ठः ठः
स्वाहा। * प्रयोग-विधि : साधक, शुद्ध होकर निम्नलिखित सर्वसंकटमोचक यन्त्र को सविधि
काष्ठपीठ पर स्थापित करके श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र के पैंतीसवें श्लोक के २१ बार मंगल पाठ से प्रभु पार्श्वनाथ का ध्यान करें। तदुपरान्त उक्त मन्त्र का जप शुभ वेला में प्रारम्भ करें। सवा लाख जप से जप-सिद्धि होती है। जप-सिद्धि के पश्चात् आवश्यकतानुसार २१ बार स्मरण-जप करके यथोचित मन्त्र-यन्त्र प्रयोग करें।
-यन्त्रम्ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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ध्यातं न वा तव पदाब्जयुगं कदापि, जन्मान्तरेऽपि मयकाल्पधिया कथञ्चिद्। तस्मादमुत्र सततं जगतामुपेक्ष्यः
जातो निकेतनमहं मथिताशयानाम् ।।३६ ।। हे जिनेश ! भवतां चरणारविन्दयुगलमभीष्ट-फलप्रदायकमस्तीति सम्प्रति मया विधिवद् ज्ञातम्। हे प्रभो ! मया पूर्वस्मिन अपि जन्मनि * तव चरणकमलध्यानं न कृतमत एव अस्मिन् जन्मनि तिरस्कार भाग।
भवतां सेवकः सर्वदा सर्वत्र समादरं लभते। न कदापि तिरस्कृतो भवति।
हे जिनेश ! आपके चरणारविन्द सदैव अभीष्ट फलप्रदायक हैं-ऐसा मैं, पूर्णतः जान चुका हूँ । हे प्रभो ! पूर्वभव में भी मैंने आपके पावन चरण-कमलों * * का ध्यान नहीं किया था, अतएव इस भव में मैं लोगों के बीच उपेक्षित, तिरस्कृत -
हो रहा हूँ। आपका सेवक कदापि तिस्कृत नहीं होता। उसका सदा, सर्वत्र * आदर-सम्मान होता है।
હે જિનેશ! તમારા ચરણારવિન્દ સદેવ અભિષ્ટ ફળ પ્રદાન કરનાર છે, તેવું હું ફી સંપૂર્ણપણે જાણી ચૂક્યો છું. હે પ્રભુ! પૂર્વભવમાં પણ મેં તમારા પાવન ચરણકમળોનું
ધ્યાન નહોતું ધર્યું, તેથી જ આ ભવમાં હું લોકોની વચ્ચે ઉપેક્ષા અને તિરસ્કાર પામું છું. તમારો સેવક ક્યારેય તિરસ્કૃત થાય જ નહીં. તેનું સદાય સર્વત્ર આદર-સન્માન જ થાય
Jinesh ! I have fully realized that your lotus-feet are the source of the desired fruits. O Prabho ! I did not meditate upon your pious lotus-feet during my last birth. That is the reason that I am being neglected and looked down upon by people. Your subject is never insulted. He is respected and honoured everywhere always.
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अनिष्ट निवारक मन्त्र एवं यन्त्र मन्त्र : ॐ हीं अहँ ब्लू ब्लूँ अनिष्ट निवारकाय स्वामिने नमो नमः। प्रयोग-विधि : मानसिक, वाचिक, कायिक शुद्धि के साथ साधक सविधि
निम्नलिखित यन्त्र का सम्मुख स्थापित करके श्री सुशील कल्याण * मन्दिर स्तोत्र के छत्तीसवें श्लोक का २१ बार पाठ करके प्रभु पार्श्वनाथ जी का ध्यान करें। तत्पश्चात् सफेद सूत की माला से उक्त मन्त्र का शुभ वेला में जाप करें। पाँच लाख जप से मन्त्र-सिद्धि होती है । मन्त्र-सिद्धि के पश्चात् १००८ मन्त्र-स्मरण से यथेष्ट व्यक्ति के अनिष्ट का निवारण किया जा सकता है।
-यन्त्रम्ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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मिथ्यान्धकार भरितेन विलोचनेन, नूनं मया न च सुदर्शनमेव दृष्टम्। दृष्टे जिनेश्वरवरे न भवन्त्यनर्थाः, प्रोद्यत् प्रबन्धगतयः कथमन्यथैते।।३७।।
- हे जिनेश्वर ! मिथ्या मोहान्धकार युक्तेन चक्षुषा, निश्चितरूपेण मया तवाभिरामं स्वरूपं न दृष्टिम्। जिनेश्वरे दृष्टिगोचरे सञ्जाते सति कदाप्यनर्थाः नैव पीडयन्ति। भक्तानामनर्थानाञ्च नास्ति परस्परं योगः।।
हे जिनेश्वर ! मेरी आँखों पर मिथ्या-मोह का गहरा अन्धकार छाया - हुआ होने के कारण मैंने कदापि आपके दर्शन का लाभ प्राप्त नहीं किया। * यदि मैं आपके दर्शन पहले कर लेता तो अनर्थ की इस परम्परा के कुचक्र से * नहीं घिरता।
भक्त और अनर्थ के बीच कभी पारस्परिक संयोग दिखाई नहीं पड़ता है।
જિનેશ્વર ! મારી આંખો પર મિથા-મોહનું ગાઢ અંધકાર છવાયેલો છે, તેથી મને ક્યારેય તમારા દર્શનનો લાભ ન મળ્યો. જો હું તમારા દર્શન પહેલા કરી લેત તો અનર્થની આ પરંપરાના કુચક્રમાં ન ફસાત.
ભક્ત અને અનર્થની વચ્ચે કોઇ પરસ્પરનો સંયોગ દેખાતો નથી.
O Jineshvar ! As the dense mist of deluding fondness was covering my ** eyes, I would not get the benefit of even your glimpse. Had I beheld you earlier, he I would not have been caught in the nasty trap of this vicious circle of evil. A I mutual association between a devotee and evil is never in evidence.
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अज्ञान निवारक मन्त्र एवं यन्त्र
मन्त्र : ॐ ऐं ही अर्ह अहँ अहँ ज्ञान प्रभाकराय अज्ञानतिमिरनाशकाय
नमो भगवते पार्श्वनाथाय एँ नमः। प्रयोग-विधि : सर्वाङ्ग शुद्धि के पश्चात् साधक निम्नलिखित महायन्त्र को सादर
सविधि सम्मुख स्थापित कर उत्तराभिमुख आसन लगाकर श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र के सेंतीसवें श्लोक के २१ बार मंगल - पाठ से प्रभु पार्श्वनाथ का ध्यान करें। अज्ञान निवारण का यह अचूक मन्त्र है। प्रतिदिन एक माला जप करें। प्रारम्भ शुभ वेला में करें।
-यन्त्रम्ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः ।
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__ आलोकितः प्रणयतः परिपूजितोऽपि,
नूनं न सत्यवचसा मनसाऽपि दृष्ट्या । सम्मानितोऽसि जनवल्लभ ! साधु भक्त्या, यस्मात् क्रियाः प्रतिफलन्ति न भावशून्याः।।३८ ।।
___ हे जनवल्लभ ! अहं तव दर्शनं पूजनं बाह्यदृष्ट्या कृतवान् किन्तु त्रिकरणयोगेन सत्यवचोमनःकायाभिरन्तर्दृष्ट्या सम्यग्पेण व पूजोपासनां नैव कृतवान्। सम्यग्भक्ति भावेनाहं कदापि तव सम्मानभादरं च नाकरवम्। तस्मादेव कारणाद् दुःख-दल-पंक-कलंके सीदामि। यतो हि शुभ भावनारहिताः क्रियाः कदापि नैव सफलाः भवन्ति।
हे जगवल्लभ जिनेन्द्र ! मैंने आपका दर्शन, पूजन बाह्य दृष्टि से तो किया है किन्तु हार्दिक विशुद्ध भावना से नहीं । इसीलिए मैं दुःख के दल-दल में फँसा हूँ। जब तक भावनात्मक शुद्धि के साथ क्रिया का सम्पादन नहीं किया जाता तब तक क्रियाएँ प्रतिफलित नहीं होती हैं । अर्थात् विशुद्ध भाव क्रियाएँ ही फलदायिनी होती हैं, भावशून्य क्रियाएँ नहीं। | હે જગવલ્લભ જિનેન્દ્ર ! મેં તમારા દર્શન પૂજન બાવ્ય દ્રષ્ટિથી તો ક્યાં છે પરંતુ છે, છે. હાર્દિક વિશુદ્ધ ભાવનાથી નથી કર્યા. તેથી જ હું દુઃખના દળ-દળમાં ફસાયો છું. જયાં છે
સુધી ભાવનાત્મક શુદ્ધિ સાથે ક્રિયા કરવામાં ન આવે ત્યાં સુધી ક્રિયાઓનું ફળ મળતું નથી. અર્થાત્ વિશુદ્ધ ભાવ ક્રિયાઓ જ ફળદાયક હોય છે, ભાવશૂન્ય ક્રિયાઓ નહીં.
O Jagavallabh Jinendra ! Indeed I have beheld and worshipped you outwardly and not with a feeling of spiritual purity. That is why I am caught in the quagmire of misery. As long as action is not done with spiritual purity it does not bring the forth desired results. In other words, it is only the actions backed by purity of feeling that bring forth desired fruits and not those devoid of such feelings.
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अभीष्ट कार्यसाधक मन्त्र एवं यन्त्र
मन्त्र : ॐ ऐं ही अहँ नमः पार्श्वनाथाय। प्रयोग-विधि : साधक शुद्ध भाव से निम्नलिखित अभीष्ट कार्यसाधक यन्त्र की
स्थापना सम्मुख काष्ठफलक पर करने के पश्चात् श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र के अड़तीसवें श्लोक के २१ बार मंगल पाठ से प्रभु पार्श्वनाथ का मंगल ध्यान-स्मरण करें। तत्पश्चात् । मरकतमणि की माला से उक्त मन्त्र का जप करें । ५२ हजार जप से मन्त्र-सिद्धि जप-सिद्धि होती है। तत्पश्चात् आवश्यतानुसार एक माला जप से अभीष्ट-कार्य सिद्धि होती है।
-यन्त्रमॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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हे नाथ ! लोकहितचिन्तक ! हे वरेण्य ! कारुण्यसागर ! गुणाकर ! हे शरण्य ! शीघ्रं विधाय च कृपां परमां कृपालो, दुःखांकुरोद्दलन-तत्परतां विधेहि।।३६ ।।
हे नाथ ! भवान् सर्वेषां लोकानां हितचिन्तकः, श्रेष्ठतमः, * करुणावरुणालयः, गुणरत्नमहोदधिः, जगतां शरण्यश्चास्ति। हे * * परमदयालो ! यथाशीघ्रं मयि कृपां कृत्वा मम यानि दुःखदल बीजांकुराणि *
सन्ति, येषां कारणेन पौनःपुन्येनाहं संसारदावानले पतामि। तेषां * * समूलोच्छेदनं कर्तुं भवान् तत्परतां करोतु।
- हे स्वामिन् ! आप समस्त लोकों के हितैषी, श्रेष्ठतम, करुणासागर, * गुणरत्नाकर हैं। आप सभी को पावन शरण प्रदान करने वाले हैं। हे दयालु ! * मुझ पर यथाशीघ्र कृपाभाव प्रदर्शित करते हुए मुझे दुःख जालों से विमुक्त * * कीजिए। जिन दुःखों, कर्म-कषायों के कारण बारम्बार मैं जन्म-मरण के चक्कर * * में फँसकर कष्ट पा रहा हूँ उनका जड़मूल से विनाश करने के लिए तत्परता दिखाइए।
सामि ! तमे सलोना हितैषी, श्रेष्ठतम, ३१॥सा२, रत्ना२ छो. પી. તમે બધાને પાવન શરણ પ્રદાન કરનારા છો. હે દયાળુ! મારા પર કૃપાભાવ રાખી મને છેદુઃખના વમળોથી મુક્ત કરો. જે દુઃખો, કર્મકગાયોને કારણે વારંવાર હું જન્મ-મરણના
ચક્કરમાં ફસાઈને કષ્ટ પામુ છું, તેનો જડમૂળથી વિનાશ કરવા માટે તત્પરતા બતાવો.
___ O Lord ! You are the benefactor of all worlds, the supreme, the ocean of e compassion, and the sea of virtues. You are the provider of the pious refuge to
all. O Kind one ! Please at once show mercy on me and liberate me from the webs of miseries. Please display the eagerness to root out the miseries and
malignancy of karmas that entrap me time and again in the cycles of birth and of death and cause me torments.
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मन्त्र
सकल दुःख विनाशक मन्त्र एवं यन्त्र
:
ॐ ह्रीँ अर्ह अर्ह अहं दुःख दारिद्रयनाशकाय जिनेश्वराय नमो
नमः ।
प्रयोग-विधि : साधक, सर्वाङ्ग शुद्धि के पश्चात् सविधि निम्नलिखित यन्त्र की काष्ठफलक पर स्थापना करके श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र के उनतालीसवें श्लोक के २१ बार मंगल पाठ से प्रभु पार्श्वनाथ जी का ध्यान करें । तत्पश्चात् उक्त सकल दुःख विनाशक मन्त्र का जप स्फटिक माला से करें । पाँच लाख मन्त्र जप से जप - सिद्धि होती है । प्रतिदिन एक माला कर सकते हैं । मन्त्र प्रभावी तथा यन्त्र चमत्कारी है ।
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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दुःख
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- यन्त्रम्
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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भक्त्या प्रणम्य तव पादयुगं जिनेश ! सर्वे भवन्ति सुखिनो मनुजा धरायाम् । त्वद् ध्यानतो, विरहितो जगतामुपेक्ष्यो, वध्योऽस्मि चेद् भुवनपावन ! हा हतोऽस्मि ॥ ४० ॥
हे जिनेश ! भवतां चरणयुगलमभिनम्य पृथिव्यां सर्वे मनुष्याः सुखिनो भवन्ति । एतेषां मंगलमयचरणारविदानामवलम्बनं प्राप्य यद्यहं श्रीमद्ध्यानवर्जितो जगतामुपेक्ष्यः तर्हि निश्चप्रचत्वेन हतभाग्योऽस्मि ।
हे जिनेश ! आपके चरण-कमलों में सर्वदा वन्दन करके पृथ्वी के सभी मनुष्य सुखी हो जाते हैं। यदि मैं इन मंगलमय पावन चरण-कमलों का अवलम्बन प्राप्त करने के पश्चात् भी आपकी ध्यान-साधना से वंचित रहा तो निश्चित रूप से इस संसार का सबसे अधिक दीन-हीन एवं अभागा माना जाऊँगा ।
હે જિનેશ !તમારા ચરણકમળોમાં સર્વદા વંદન કરીને પૃથ્વીનાં બધા મનુષ્યો સુખી થઇ જાય છે. જો હું આ મંગલમય પાવન ચરણકમળોનું અવલંબન પ્રાપ્ત કર્યા પછી પણ તમારી ધ્યાન-સાધનાથી વંચિત રહું, તો નિશ્ચિત રૂપે આ સંસારનો સૌથી અભાગીયો અથવા દીન મનુષ્ય કહેવાઇશ.
O Jinesh! Every person on this earth begets happiness by ever paying homage at your lotus-feet. Even after availing the support of your beatific and pious lotus-feet if I fail to indulge in meditational practice devoted to you, I will, indeed, be marked as the most pitiful, deprived and unfortunate person in this world.
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८ सर्वशान्तिकारक मन्त्र एवं यन्त्र
* मन्त्र
: ॐ हीं अहँ अर्ह सर्वशान्तिकराय नमो भगवते पार्श्वनाथाय। प्रयोग-विधि : साधक सर्वाङ्ग शुद्धि समेत निम्नलिखित यन्त्र की सविधि सम्मुख
स्थापना करके श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र के चालीसवें श्लोक से २१ बार पाठ कर प्रभु पार्श्वनाथ का पावन ध्यान करें। तदुपरान्त मोती की माला से सर्वशान्तिकारक उक्त मन्त्र का जप करें। प्रतिदिन पाँच माला जप महान् हितकारी है।
-यन्त्रम्
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
अर्हम्
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ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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हे वीतराग ! जिनराज ! दयानिधान, सत्यस्वरूप ! गुणगौरव ! हे महेश ! भक्त्या नतं जनमिमं परिपाहि विद्वन्, सीदन्तमद्य भयद-व्यसनाम्बुराशेः॥४१।।
हे वीतराग ! हे जिनेश्वर ! भवान् गुणगौरवरूपः सत्यस्वरूपः करुणासागरो महेशोऽस्ति। भक्तिभावपूर्वकं विनतं, भयंकरभवव्यसनसागरे दुःखजालमनुभवन्तमिमं जनं शीघ्रं रक्षतु।
हे वीतराग ! आप गुणसागर करुणावरुणालय सत्य स्वरूप महेश हैं। र * आपकी महिमा अनन्त, अपार है। भयंकर सांसारिक व्यसनों में (आफत में),
विविध प्रकार से दुःख की अनुभूति करने वाला यह व्यक्ति आपके चरणारविन्दों ' में सादर वन्दन करता है।
कृपया आप मुझे इस दुःखसागर से पार उतारिये।
હે વિતરાગ ! તમે ગુણસાગર, કરૂણારૂણાલય સત્ય સ્વરૂપ મહેશ છો. તમારી મહિમા અનંત, અપાર છે. ભયંકર સાંસારિક વ્યસનોમાં (આફતમાં) વિવિધ પ્રકારથી દુઃખની અનુભૂતિ કરવાવાળો આ વ્યક્તિ તમારા ચરણારવિન્દોમાં સાદર વંદન કરે છે.
કૃપા કરીને તમે મને આ દુઃખ સાગરમાંથી પાર ઉતારો.
O Vitaraga ! You are the ocean of virtues, sea of compassion, embodiment of truth and beatitude personified. Suffering terrible worldly torments various ways, this person reverentially pays homage at your lotus-feet.
Kindly help me cross-over this sea of miseries.
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८ सर्वक्लेशनाशक मन्त्र एवं यन्त्र
मन्त्र : ॐ ही अर्ह अहँ अहँ सर्वसांसारिक क्लेशनिवारकाय पार्श्वनाथाय
नमो नमः। प्रयोग-विधि : मन, वचन काया की शुद्धि के साथ साधक सविधि निम्न यन्त्र की
सम्मुख स्थापना कर श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र के इकतालीसवें श्लोक के २१ बार मंगल पाठ से प्रभु पार्श्व का ध्यान करें। तदुपरान्त सर्वक्लेशनाशक मन्त्र का जप प्रारम्भ करें। सवा लाख जप से जप-सिद्धि होती है। तत्पश्चात् प्रतिदिन एक माला भी हितकर है।
-यन्त्रम्ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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किञ्चित् कृता तव विभो मयकार्चना चेत्, याचे तदीयफलरूपमनूपमेवम्। संतारकां चरणपंकजनिष्ठभक्तिं, स्वामी त्वमेव भुवनेऽत्र भवान्तरेऽपि।।४२ ।।
हे प्रभो ! यद्यहं मनसा वचसा कर्मणा वा लेशमात्रमपि भवतां पूजा कृतवान् अस्मि तर्हि तत् फलरूपेणाहं श्रीमच्चरण-कमल निष्ठामखण्ड भक्तिमेव याचे।
मदीयैषाभिलाषा अस्ति यद् भवान् एवात्र भवे परभवे च * ममाराध्यदेवः स्वामी भवतु।
__ हे प्रभो ! यदि मैंने मन, वचन, कर्म से लेशमात्र भी आपकी विशुद्ध । पूजा, अर्चना की हो तो उसके फल के रूप में अनुपम आपके चरण-कमलों की अखण्ड भक्ति चाहता हूँ। मेरी उत्कट अभिलाषा है कि आप ही मेरे जन्म-जन्मान्तर में आराध्यदेव हों।
હે પ્રભુ! મેં મન, વચન, કર્મથી લેશમાત્ર પણ તમારી વિશુદ્ધ પૂજા, અર્ચના કરી હોય તો તેના ફળ સ્વરૂપે તમારા ચરણોની અખંડ ભક્તિ ઇચ્છું છું. મારી ઉત્કટ અભિલાષા છે કે તમે જ મારા જન્મ, જન્માંતરમાં આરાધ્ય દેવ બનો.
O Prabho! If I have done your worship and adoration with mind, speech and action even for a moment, I seek as a reward an unabated devotion for your pious lotus-feet. It is my intense desire that you be my adored deity throughout my future rebirths.
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भवनबाधा निवारक मन्त्र एवं यन्त्र) मन्त्र : ॐ अहँ अर्ह अहँ ही श्री भवनबाधाविनाशकाय शिवंकराय
पार्श्वनाथाय नमो नमः। प्रयोग-विधि : साधक, त्रिकरण शुद्धि सहित सविधि निम्नलिखित यन्त्र की अपने
सम्मुख स्थापना कर श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र के ४२वें श्लोक के २१ बार मंगल पाठ से प्रभु पार्श्वनाथ का ध्यान करें। तदुपरान्त भवनबाधा निवारक मन्त्र का जप करें। शुभ वेला में नित्य एक माला जप से २१ दिनों में भवनबाधा मिट जाती है।
-यन्त्रम्ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
पार्श्वनाथाय
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ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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श्रद्धान्विता जगति सन्ति महानुभावाः, प्रेमोल्लसत् परमभक्तिनिधानचित्ताः। नित्यं त्वदीयमुखपंकजदत्तनेत्राः, ये संस्तवं तव विभो रचयन्ति भव्याः॥४३।।
हे जिनेश्वर ! अस्मिन् संसारे ते महाशयाः प्रीतिभावभरितोत्कृष्टभक्ति दत्तचित्ताः सदैव भवतां वदनारविन्दं निर्निमेषं दर्शनपराः भव्या है धन्याः सन्ति। ये भवद्गुणोपेतां दिव्यां चमत्कारिणी स्तुतिं कुर्वन्ति।
हे जिनेश्वर ! इस संसार में जो उत्कृष्ट श्रद्धा, भक्ति एवं प्रेम से सदैव आपकी उपासना में दत्तचित्त रहते हैं, ध्यान की एकाग्रता साधकर जो अपलक आपके दर्शन करते हैं वे महाशय धन्य हैं | वे महनीय हैं, जो आपके गुणगान से सम्पन्न, दिव्य चमत्कारिणी स्तुति करते हैं |
હે જિનેશ્વર ! આ સંસારમાં જે ઉત્કૃષ્ટ શ્રદ્ધા, ભક્તિ અને પ્રેમથી હંમેશા તમારી ઉપાસનામાં ઓતપ્રોત રહે છે, બાનની એકાગ્રતા સાધીને જે અપલક તમારા દર્શન કરે. # છે તે મહાશય ધન્ય છે. તે મહનીય છે જે તમારા ગુણગાનથી સંપન્ન, દિવ્ય ચમત્કારિણી
સ્તુતિ કરે છે.
O Jineshvar ! Praiseworthy are those in this world who are always sincerely involved in your worship with complete faith, devotion and love; who perfect their concentration in meditation and behold you without batting an eyelid. They are great who sing divinely miraculous panegyrics enriched with your praise.
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सम्मानवर्धक मन्त्र एवं यन्त्र
मन्त्र
: ॐ ह्रीँ अर्हं श्री सम्मानवर्धकायं पार्श्वजिनेश्वराय नमो नमः ।
प्रयोग-विधि : साधक, शुद्ध भाव से निम्नलिखित यन्त्र की सविधि स्थापना करके श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र के तेतालीसवें श्लोक के २१ बार मंगल पाठ से प्रभु पार्श्वनाथ का ध्यान करें । तदुपरान्त उक्त सम्मानवर्धक मन्त्र का मरकतमणि माला से शुभ वेला में जप करें । पाँच लाख जप से जप-सिद्धि होती है । यह मन्त्र सघः चमत्कारी है ।
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
सम्मानं
बहुमान
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-यन्त्रम्
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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मुनिजन मानसचन्द्र ! ये तव पादपद्म-सेवा-निरताः। ते विरहित-कलुषाद्याः, अचिरान् मोक्षं प्रपद्यन्ते॥४४॥
___हे पार्श्वनाथ प्रभो ! भवान् सन्मुनीनां मानसेषु शशिरिव शोभते। अत्र संसारे ये भवदीयचरण-कमलसेवायां निरन्तरं तल्लीनाः सन्ति ते शीघ्रमेव रागद्वेष कालुष्यमपनीयमोक्षश्रियं प्राप्नुवन्ति।
हे पार्श्वनाथ प्रभु ! आप उत्कृष्ट मुनिजनों के पावन मानस में चन्द्रमा । की तरह सुशोभित हैं। इस संसार में जो भव्य प्राणी आपकी चरण-सेवा, उपासना में लीन हैं वे राग-द्वेष आदि कलह-कषायों के कालुष्य को दूर करके शीघ्र ही मोक्षलक्ष्मी को प्राप्त कर लेते हैं।
હે પાર્શ્વનાથ પ્રભુ! તમે ઉત્કૃષ્ટ મુનિજનોના પાવન માનસમાં ચન્દ્રમાની જેમ ગી સુશોભિત છો. આ સંસારમાં જે ભવ્ય પ્રાણી તમારી ચરણસેવા, ઉપાસનામાં લીન છે, પણ તે રાગ-દ્વેષ વગેરે કલહ-કષાયોના કાલુષ્યને દૂર કરીને શીધ્ર જ મોક્ષલક્ષ્મીને પ્રાપ્ત કરી છે. से छे.
O Parshva Naath Prabhu ! Like moon you adorn the pious heart of the best of sages. Those in this world who are absorbed in serving your lotus-feet and doing your worship soon remove the stains of intense passions, like attachment le and aversion, to attain the wealth of liberation.
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८ परम शान्तिदायक मन्त्र एवं यन्त्र)
मन्त्र : ॐ ही शिवङ्गराय परमशान्तिदायिने नमो भगवते पार्श्वनाथाय। प्रयोग-विधि : साधक, पूर्ण शुद्धता के साथ निम्नलिखित यन्त्र की सविधि स्थापना
करके श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र के चवालीसवें श्लोक के २१ बार मंगल पाठ से श्री पार्श्वनाथ प्रभु का ध्यान करें। स्वयं उत्तर दिशा की ओर मुख करके आसन ग्रहण करें। तदुपरान्त परम शान्तिदायक उक्त मन्त्र का मोती की माला से शुभ वेला में नित्य एक माला जप करें।
-यन्त्रम्ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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परिशिष्ट श्लोक
को विस्मयोऽत्र जनपालक ! हे महेश ! त्वन्नाम कीर्तनरता यदि संतरन्ति। भक्ता अशेष कलुषादुपयान्ति पारम्, भव्या व्रजन्ति तरसाऽप्यजरामरत्वम्॥१॥
हे जनपालक ! भवतां सन्नामकीर्तनतल्लीनाः जनाः अपारसंसारसागरात् पारं गच्छन्तिचेत् किमाश्चर्यमत्र ?
भवतां भक्ता राग-द्वेषादि-दोषेभ्यो रहिताः सन्तः स्वत एव * श्रीमन्मार्गानुगामिनो भूत्वा सद्योऽजरामरत्वं प्राप्य मोक्ष पदं लभन्ते।।
हे जनपालक ! आपके पावन नाम का जप-संकीर्तन करने में तल्लीन * भक्तजन, इस अपार संसार-सागर के पार चले जाते हैं, मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
वस्तुतः आपके भक्तजन, राग-द्वेष आदि दोषों से रहित होकर स्वतः आपके पावन मार्ग का अनुगमन करते हुए अजर-अमर पद प्राप्त कर मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं।
જનપાલક ! તમારા પાવન નામનાં જાપ-કિર્તન કરવામાં તલ્લીન ભક્તજન, આ અપાર સંસાર-સાગરની પાર ચાલ્યા જાય છે, મોક્ષ પ્રાપ્ત કરી લે છે તો તેમાં કોઈ આશ્ચર્યની વાત નથી.
વસ્તુતઃ તમારા ભક્તજન રાગ-દ્વેષ વગેરે દોષોથી રહિત થઈને પોતે જ તમારા પાવન માર્ગનું અનુકરણ કરતાં અજર-અમર પદ પ્રાપ્ત કરી મોક્ષને પ્રાપ્ત કરી લે છે.
O Janapalak ! The devotees absorbed in chanting and reciting your pious name cross this unending ocean of rebirths and get liberated. This is nothing astonishing.
In fact, your devotees get free of faults like attachment and aversion and automatically follow the pious path shown by you to attain liberation and the status of eternality and immortality.
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८ हिंसक पशु-भयनाशक मन्त्र एवं यन्त्र
: ॐ अहँ नमो ही श्री यं हिंस्रपशुभयनाशिने स्वामिने देवाधिदेवाय *
नमो नमः। प्रयोग-विधि : सर्वांग शुद्धि के पश्चात् शुभ काल वेला में सर्वप्रथम निम्न यन्त्र को
सम्मुख स्थापित करके श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र के इस श्लोक का २१ बार लयात्मक पाठ करके प्रभु पार्श्वनाथ का ५ मंगलात्मक ध्यान करें । तदुपरान्त उक्त मन्त्र को कमलबीज माला * से १०८ बार जपें। इस मन्त्र एवं यन्त्र के महाप्रभाव से हिंसक पशुओं का भय तथा अन्य सामान्य उपद्रव भय भी नष्ट हो जाते हैं। सवा लाख जाप से यह मन्त्र सिद्ध होता है।
-यन्त्रम्ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
भीति
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अर्हम्
अर्हम्
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
अर्हम्
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आराध्यदेव! भुवनाधिप! विश्वनाथ ! योगीश्वर ! प्रथितनाम ! महेश ! लोके। आराधयन्ति सततं तब भक्तिनम्राः, पादद्वयं तव विभो भुवि जन्मभाजः॥२॥
हे जिनेन्द्र ! भवान् आराध्यदेवः, त्रिभुवनस्वामी, विश्वनाथोऽस्ति। भवतो नाम संसारे प्रसिद्धस्ति। अतएव संसारे जन्मधारिणो भव्या जनाः सततं भवतः चरणकमलद्वयोपसनायां तल्लीनाः सन्ति। ते तु सर्वदशायां भक्तिभावितचेतसा भवन्तमाराधयन्ति पूजयन्ति च।
हे जिनेन्द्र ! आप आराध्यदेव, त्रिभुवन स्वामी, विश्वनाथ हैं । आपका नाम * विश्वविदित है। अतएव संसार में जन्म धारण करने वाले भव्यजन, आपके * चरण-कमलों की उपासना में लवलीन रहते हैं। वे हर स्थिति तथा परिस्थिति में में सम्पूर्ण भक्तिभाव से भावित होकर आपकी आराधना, पूजा करते हैं।
હે જિનેન્દ્ર ! આપ આરાધ્યદેવ, ત્રિભુવનસ્વામી, વિશ્વનાથ છે. તમારું નામ છે 8. વિશ્વવિદિત છે. અતઃ આખા સંસારમાં જન્મ લેનાર ભજન તમારા ચરણકમળની છે.
ઉપાસનામાં તલ્લીન રહે છે. તેઓ દરેક સ્થિતિ તથા પરિસ્થિતિમાં સંપૂર્ણ ભક્તિભાવથી ભાવિત થઇને તમારી પૂજા, આરાધના કરે છે.
O Jinendra ! You are the divine object of worship. You are the Lord of three worlds. You are the master of the universe. Your name is known world over. Therefore, the worthy beings born in this world are absorbed in worship of your lotus-feet. Irrespective of the conditions and circumstances they are in, they indulge in your adoration and worship with complete devotion.
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सकल भयनाशक मन्त्र एवं यन्त्र
मन्त्र
: ॐ ह्रीँ नमो अर्हते सर्वभीतिनाशकाय यं रं लं क्षं स्वाहा ।
प्रयोग विधि : साधक, शुद्धिपूर्वक सविधि निम्नलिखित यन्त्र को सम्मुख स्थापित करके श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र के इस श्लोक के २१ बार मंगल पाठ से प्रभु पार्श्वनाथ का ध्यान करें । तदुपरान्त उक्त मन्त्र का शुभ वेला में सवा लाख जप करें। जप - सिद्धि होने पर ११ बार मन्त्र-स्मरण कर आवश्यकतानुसार प्रयोग करें ।
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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- यन्त्रम्
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
नमः
अर्हते
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अर्ह
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ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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सम्यग् मया न रचिता तव देव ! पूजा, मन्त्रोऽपि नैव जपितःखलु शुद्धभावैः। जातोऽस्मि तेन जगदीश्वर ! कष्टपात्रं,
यस्मात् क्रियाः प्रतिफलन्ति न भावशून्याः॥३॥ हे जिनेश्वरदेव ! अहं यथाविधि श्रीमतां पूजनं न कृतवान् । अन्तर्भावनाशुद्धिपूर्वकं भवोदधितारकं तव नाममन्त्रमपि सम्यक् प्रकारेणैकाग्रतया नैवाऽजपम्। तस्मादेव कारणात् मन्येऽस्मिन् संसारे दुःखपात्रम् अभवम्।
यदि भवतां पूजारचनां ध्यानं नाम संकीर्तन वा भावात्मकशुद्धिपूर्वक स्यात् तर्हि दुःखलेशोऽपि न स्यात्। सत्यमेव कथितं यत् भावरहिताः क्रिया में * नैव फलन्ति। * हे जिनेश्वर देव ! मैंने, आपकी विधिपूर्वक पूजा, अर्चना नहीं की है। अन्तःकरण के
की भावनात्मक शुद्धि के साथ कभी परम चमत्कारी आपके नामरूपी मन्त्र का * जप भी नहीं किया है। अतएव मैं, वर्तमान समय में दुःखभागी हूँ। यदि मैंने आपकी
पूजा, ध्यान, नाम, संकीर्तन आदि भावशुद्धिपूर्वक विधिवत् किया होता तो ये दुःख प्राप्त नहीं होते । सत्य कथन है कि भावरहित क्रियाएँ फलवती नहीं होती हैं।
હે જિનેશ્વરદેવ!મે તમારી પૂજા, અર્ચના વિધિપૂર્વક કરી નથી.અંતઃકરણની ભાવનાત્મક શુદ્ધિની સાથે ક્યારેય પરમ ચમત્કારી તમારા નામરૂપી મંત્રનો જાપ પણ કર્યો નથી. તેથી જ વર્તમાન સમયમાં હું દુઃખી છું. મેં તમારી પૂજા, ધ્યાન,જાપ વગેરે ભાવશુદ્ધિપૂર્વક વિધિવત્ અને કર્યા હોત તો આ દુઃખ પ્રાપ્ત થાત નહીં. તેથી જ આ કથન સત્ય છે કે ભાવરહિત કરવામાં આવતી ક્રિયાઓ ફળતી નથી.
O Jineshvar Dev! I have not done your worship and adoration following of the proper procedure. I have also never chanted your highly miraculous name
with inner purity. Therefore, at the present time I am a sufferer of miseries. Re Had I done your worship, meditation, name-chanting, etc. with inner purity Y and following proper procedure I would not have been burdened with these
miseries. It is, indeed, true that activities devoid of feelings fail to bring desired results.
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महा सुख समृद्धिदायक मन्त्र एवं यन्त्र * मन्त्र : ॐ ही अर्ह अहँ श्रीं श्रीं शं शं नमो नमः । * प्रयोग-विधि : साधक पूर्ण शुद्धि के साथ तैयार होकर सविधि निम्नलिखित यन्त्र
को सम्मुख काष्ठपीठ पर स्थापित करें। स्वयं नैऋत्यकोण में आसन लगाकर श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र के इस श्लोक के २१ बार मंगल पाठ से प्रभु पार्श्वनाथ जी का ध्यान करें। ध्यान के पश्चात् मूंगे की माला से जप प्रारम्भ करें। सवा लाख मन्त्र-जप से सिद्धि होती है। तत्पश्चात् प्रतिदिन एक माला से जप करें।
-यन्त्रम्ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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चित्रं न चात्र सुरवन्दितपादपद्म ! यत् प्राप्नुवन्ति परमं सुखमीशभक्ताः। तस्मान्नमामि तव पादयुगं दयस्व, दुःखांकुरोद्दलन-तत्परतां विधेहि॥४॥
हे जिनेश ! भवान् सुरवन्दितोऽस्ति। भवतश्चरणारविन्द सेवया यद् * भक्ताः परमं पदं मोक्षं लभन्ते इति विषये आश्चर्यस्य का नाम वार्ता ? सर्व खल्विदं रहस्यं परिज्ञायाहं श्रीमच्चरणयुगलं सादरं नमामि। हे ईश ! दयां कृत्वात्वं मां दुःखद-कर्म-कर्दमेभ्यः पाहि। देवाधिदेव ! अहं मुहुर्मुहः प्रार्थयामि यदस्मिन् दुःखांकुरदलने साहाय्यं करोतु।
हे जिनेश ! आपके चरणारविन्दों में देवतागण भी विनम्र भाव से वन्दन करते र हैं। आपकी चरण-सेवा से यदि भक्तजन, परम पद मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं तो * इसमें आश्चर्य की क्या बात है ?
इस सम्पूर्ण रहस्य को विधिवत् जानकर मैं आपके चरण-कमलों में सादर प्रणाम करता हूँ। हे जिनेन्द्र ! दया करके मुझे दुःखद कर्मों की कीचड़ से बचा लीजिए। मैं बारम्बार निवेदन करता हूँ कि दुःखद कर्मों के समूल उन्मूलन में
मेरी सहायता कीजिए। છે. હે જિનેશ!તમારા ચરણોમાં દેવતાગણ પણ વિનમ્ર ભાવથી વંદન કરે છે. તમારા ચરણોની , સેવાથી જો ભક્તજન પરમપદ, મોક્ષ પ્રાપ્ત કરી લે તો તેમાં આશ્ચર્યની શું વાત છે?
આ સંપૂર્ણ રહસ્યને વિધિવત્ જાણીને હું તમારા ચરણ-કમળમાં સાદર પ્રણામ કરું છું. હે કે - જિનેન્દ્ર!દયા કરીને મને દુઃખદ કમના કીચડમાંથી બચાવી લો. હું વારંવાર નિવેદન કરું છું કે એ છે. દુઃખદ કર્મોને સંપૂર્ણપણે ખપાવવામાં મારી મદદ કરે.
O Jinesh ! Even gods humbly pay homage at your lotus-feet. Where is the surprise if devotees attain the ultimate status by adoring your feet ?
Knowing this secret fully I bow respectfully at your lotus-feet Jinendra ! Be kind enough to save me from the quagmire of tormenting karmas. I request you again and again to kindly help me root out the misery causing karmas.
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आनन्दवर्धक मन्त्र एवं यन्त्र
मन्त्र
: ॐ ह्रीँ नमो अर्हते आनन्दवर्धकाय भगवते पार्श्वनाथाय नमः |
प्रयोग विधि : साधक, त्रिकरण शुद्धि सहित सविधि निम्नलिखित यन्त्र की सम्मुख स्थापना करके उत्तर दिशा की ओर अपना आसन लगाकर श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र के इस श्लोक के २१ बार मंगल पाठ से प्रभु पार्श्वनाथ जी का मंगल ध्यान - स्मरण करें । तदुपरान्त उक्त आनन्दवर्धक मन्त्र का जप कमलबीज की माला से करें । नित्य एक माला हितकर हैं। सवा लाख जप से जप - सिद्धि होती है ।
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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- यन्त्रम्
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
अहते
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नमः
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नमः
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ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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विश्वेश्वरोऽसि जनवल्लभ ! देवदेव, संसारतारक ! विभो ! करुणावतार ! नित्यं प्रपाहि दयया निखिलारिभीतेः, सीदन्तमद्य भयद-व्यसनाम्बुराशेः।।५।।
___ हे देवाधिदेव ! जिनेश्वर ! भवान् लोकस्वामी जनप्रियः करुणावतारः, संसारसागरतो जनानामुद्धारकस्तारकश्चास्ति।
भयङ्कर दुःखसागरे पीड़यमानमिमं जनं सकलकर्मरिपुभयात् कृपया नित्यं रक्षतु।
हे जिनेश्वर ! आप लोकवल्लभ, लोकनाथ करुणानिधान हैं। आप र संसारसागर में पीड़ित जनों के उद्धारकर्ता एवं तारक हैं।
भयंकर दुःखसागर में सतत पीड़ा का अनुभव करने वाले, बहुत परेशान है इस भक्त पर कृपा कीजिए, जिससे यह समस्त कर्म शत्रुओं के भय से सर्वदा-सर्वथा मुक्त हो सके।
હે જિનેશ્વર !તમે લોકવલ્લભ, લોકનાથ, કરૂણાનિધાન છો. તમે સંસાર સાગરમાં પીડિત જનોના ઉદ્ધારક અને તારક છે.
ભયંકર દુખ સાગરમાં સતત પીડાનો અનુભવ કરવાવાળા, ખૂબ હેરાન એવા આ જ ભક્ત પર કૃપા કરશો, જેથી તે સમસ્ત કર્મ શત્રુઓના ભયથી સર્વદા-સર્વથા મુક્ત થઇ શકે श.
Jineshvar! You are the Adored One, the Lord of the world and the Prophet of Compassion. You are the Saviour who helps the tormented cross-over the ocean of mundane existence.
Kindly favour this devotee who is very disturbed by the incessant sufferings of this terrible ocean of miseries and enable him to get completely SE and eternally liberated from the fear of the enemies in the form of karmas. Delo
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८ सकल शत्रु-भयनाशक मन्त्र एवं यन्त्र
मन्त्र : ॐ हीं श्रीं अर्हं सर्वशत्रुविनाशिने भद्रंकराय पार्श्वनाथाय नमः। प्रयोग-विधि : साधक, सर्वाङ्ग शुद्धिपूर्वक सविधि निम्नलिखित यन्त्र को अपने
सम्मुख काष्ठपीठ पर स्थापित करें तथा श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र के इस श्लोक के २१ बार पाठ से प्रभु पार्श्व का ध्यान 7 करें। तत्पश्चात् जप प्रारम्भ करें। प्रतिदिन शुभ वेला में एक माला जप हितकारी है।
-यन्त्रम्ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
पार्श्वनाथायी
भद्रंकराय
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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भक्त्या श्रुतं बहुविधं गुणगौरवं ते, सद्यश्चमत्कृतिकरी तव पादसेवा। मन्ये त्वदीयचरणं शरणं मदीयम्,
स्वामी त्वमेव भुवनेऽत्र भवान्तरेऽपि॥६॥ ___ हे जिनेश ! अहं विनम्रभक्तिभावपूर्वक श्रोत्रपुटेन नानाप्रकारक चमत्कार संदोहसहितं श्रीमतां गुणगणं श्रुतवान्। ___अहं जानामि यद् भवतां चरणसेवा सद्यः फलप्रदायिनी वर्तते। अहं
तु सदैव भवतां चरणकमल युगलमेव शरणं मन्ये। ममैषा अभिलाषा * * अस्ति यत् भवान् एव जन्म-जन्मान्तरं यावद् आराध्यदेवो भवतु।
__ हे जिनेश ! मैंने विनम्र भक्तिभाव के साथ अपने कानों से आपका चमत्कारी * गुणानुवाद सुना है। मैं जानता हूँ कि आपकी चरण-सेवा कभी व्यर्थ नहीं जाती।
आपकी चरण-सेवा तो तुरन्त चमत्कारिक सुफल प्रदान करने वाली है। ___अतः मेरी अभिलाषा है कि आप ही इस जन्म तथा जन्मान्तरों में मेरे आराध्यदेव हों।
હે જિનેશ!મેં વિનમ્ર ભક્તિભાવથી પોતાના કાનથી તમારો ચમત્કારી ગુણાનુવાદ ઝું સાંભળ્યો છે. હું જાણું છું કે તમારી ચરણસેવા ક્યારેય વ્યર્થ નથી જતી. તમારી ચરણસેવા છે. તો તરત ચમત્કારીક સફળ પ્રદાન કરનારી છે.
તેથી મારી અભિલાષા છે કે તમે જ આ જન્મ તથા જન્મોજન્મમાં અમારા આરાધ્ય १जनो.
O Jinesh ! With humble feelings of devotion, I have listened with my own ears the miraculous songs of your praise. I know that service of your lotusfeet is never in vain. The service of your lotus-feet instantaneously brings miraculous rewards.
Therefore, it is my desire that you be my adored deity during this life as y vilgs well as throughout my future rebirths.
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८ महालाभदायक मन्त्र एवं यन्त्र
मन्त्र : ॐ अहँ अर्ह शं शं शं महालाभप्रदाय पार्श्वस्वामिने नमो नमः। र प्रयोग-विधि : साधक, सर्वाङ्ग शुद्धिपूर्वक निम्नलिखित यन्त्र की सविधि स्थापना
करने के पश्चात् महालाभदायक मन्त्र का जप करें। जप में एकाग्रता लाने के लिए यन्त्र स्थापना के पश्चात् श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र के इस श्लोक का २१ बार पाठ कर प्रभु पार्श्व का ध्यान अवश्य करें। सवा लाख मन्त्र-जप से जप-सिद्धि होती है। तत्पश्चात् नित्य शुभ मुहूर्त में एक माला जप हितकारी
-यन्त्रम्ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
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त्वच्चन्द्रबिम्बसदृशानन - दर्शनाय, नित्यं समाहितधिया भवदीयभक्तिम्। कुर्वन्ति सादरमहो भुवनार्तिहारिन् ! ये संस्तवं तव विभो ! रचयन्ति भव्याः॥७॥
हे लोक सन्तापनाशक ! अस्मिन् संसारे ये शशिरिव मनोहरं भवदाननं विलोकयितुं सततं प्रणिधानपूर्वकं सद्भक्तिं कुर्वन्ति, लोकहितकारकस्य संसार भवोदधितारकस्य पावनं स्तोत्रं रचयन्ति ते एव भव्याः मान्याः सन्ति।
हे जिनेश ! आप समस्त दुःखों को दूर करने वाले हैं। इस असार संसार में जो लोग ध्यान की एकाग्रता से आपके दर्शन में तल्लीन होकर आपकी * सद्भक्ति करते हैं, लोकहितकारक, संसारसागर से पार करने वाले श्री पार्श्वनाथ * * जिनेश्वर की पावन स्तुति करते हैं, वे भव्यजन धन्य हैं, मान्य हैं।
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તે જિનેશ! તમે સમસ્ત દુઃખોને દૂર કરનારા છો. આ અસાર સંસારમાં જે લોકો ને ધ્યાનની એકાગ્રતાથી તમારા દર્શનમાં તલ્લીન થઇને તમારી સદ્ભક્તિ કરે છે, જે લોકહિતકારક, સંસારસાગરને પાર કરનારા શ્રી પાર્શ્વજિનેશ્વરની પાવન સ્તુતિ કરે છે, અને त भव्य ५न्य छ, माननीय छे.
O Jinesh ! You are the remover of all sorrows. Praiseworthy ar respectable are those in this worthless world who are absorbed in your pious devotion beholding you through absolute concentration in meditation; and those too who sing pious songs of praise of Shri Parshva Naath Jineshvar, the benefactor of the whole world and the one who helps crossing the ocean of mundane existence.
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८ बन्धनमुक्तिकारक मन्त्र एवं यन्त्र
मन्त्र : ॐ हीं अर्ह अह अहँ सर्व विघ्नबन्धन मुक्तिकराय स्वामिने नमः। प्रयोग-विधि : मन, वचन, काया से शुद्ध होकर साधक निम्नलिखित यन्त्र की
सविधि स्थापना करें तथा स्वयं ईशानकोण में आसन ग्रहण करके श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र के इस श्लोक के २१ बार मंगल पाठ से श्री पार्श्वनाथ प्रभु का ध्यान करें। तदुपरान्त बन्धनमुक्तिकारक मन्त्र की नित्य एक माला जप करें। जाप से पूर्व सवा लाख जाप आवश्यक हैं।
-यन्त्रम्ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः ।
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अर्हम्
अहम्
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ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
अहम् ।
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय नमः
अर्हम्
अहम
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7 प्रशस्ति:
मिथ्या-मोह तमिस्रकल्मषहरं सज्ज्ञान तेजस्कर, मोक्षैश्वर्य सुभक्तितत्त्वभरितं निर्वाणमार्गे स्थितम् । दग्धानङ्गपतत्त्रिणं न च पुनर्विज्ञातरूपं भृशं, तं देवं प्रणमामि पार्श्वमतुलं काशीशमीशं विभुम् ।।
जिने धर्मे श्रद्धा शिशुसमयतो यस्य च गुरौ, विरक्तिराबालाद् भव-विषयहालाहल निभा । जिघृक्षा दीक्षायाः समजनि मुमुक्षा प्रबलतः,
तं विमलचरितं नेमिविजयम।। यदीयं व्याख्यानं प्रशमरसधाराधरसमं. यदीयं माहात्म्यं सुजनजनमाङ्गल्यकरणम् । यदीया शास्त्रेषु प्रखरगति–वैदुष्यलसिता, स्तुवे सूरीशं तं विमलमति लावण्यविजयम् ।। संसारमाया
नवलिप्तजन्मतः, शीलप्रभाभासित
सन्मुनीश्वरम्। धुरन्धरं
शास्त्रविशारदं तथा,
श्रीदक्षसूरिं प्रणमामि सद्गुरुम् ।। तेषां पट्टधरो मुख्यो ह्यनुजश्च सहोदरः, सुशीलसूरि विख्यातः, शास्त्राभ्यासरतो रतोऽस्म्यहम् । गंगातरंगतरले श्री काशीनगरे शुभे, जिनेशपार्श्वनाथस्य स्तोत्रं कल्याणमन्दिरम् ।।
निधिबाणेन्दुयमल-सहस्रे वैक्रमे वरे, सुशीलनामांकितं पुण्यं कृतवान् श्रद्धया मुदा । यावन्मेरु-रवीन्दुश्री-ग्रह
नक्षत्रतारकाः, तावत् संराजतां स्तोत्रं, सर्वकल्याणकारकम् ।। : शिवं भूयात् :
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क्षमावतार भगवान पार्श्वनाथ
__(सचित्र जीवन कथा)। लेखक- आचार्य श्री विजय जिनोत्तम सूरीश्वर जी म. सा...
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अनुक्रमणिका
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कमठ और मरुभूति
किरणवेग और नाग
14
वज्रनाभ और कुरंग भील 161
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सुवर्णबाहु चक्रवर्ती
20/
__पार्श्व जन्मोत्सव 32
नाग का किया उद्धार 51
महा अभिनिष्क्रमण 54
केवल्य ज्ञान प्राप्ती 60
निर्वाण
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(पूर्वभव कथा)
कमठ और मरुभूति
बहुत प्राचीनकाल की बात है, पोतनपुर में अरविंद नाम का राजा था। राजा का पुरोहित था विश्वभूति ।
क्षमावतार भगवान पार्श्वनाथ
विश्वभूति राजनीति और धर्मनीति का विद्वान् था। संतोषी, दयालु और सरल स्वभाव का था। एक दिन संध्या के समय विश्वभूति अपनी गृहवाटिका में बैठा था। आकाश में बादल छाये थे। बादलों के बीच इन्द्रधनुष बना देखा । विश्वभूति बहुत देर तक इन्द्रधनुष के बनते-मिटते रंगों को देखता रहा । सोचने लगा- 'इन्द्रधनुष की तरह ही मनुष्य का जीवन है। हर क्षण इसके रंग बदलते रहते हैं। कभी सुख, कभी दुःख, कभी खुशी, कभी गम ! जीवन कितना अस्थिर है। अगले क्षण क्या होगा कुछ भी पता नहीं ।'
फिर वह अपने जीवन के सम्बन्ध में सोचता है- 'मैं वृद्ध हो चुका हूँ। कब तक शासन और गृहस्थी की जिम्मेदारियाँ ढोता रहूँगा। क्यों न इनसे मुक्त होकर एकान्त - शान्त जीवन बिताता हुआ साधना करूँ ।'
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विश्वभूति उठा। उसने अपनी पत्नी व दोनों पुत्रों को बुलाकर कहा-“मैं अब तप-जप, ध्यान-साधना करके एकान्त जीवन जीना चाहता हूँ। परिवार की सब जिम्मेदारी तुम सँभालो।"
राजा की आज्ञा लेकर विश्वभूति मुनि बनकर आत्म-साधना करने लगा।
राजा ने विश्वभूति के बड़े पुत्र कमठ से कहा-"अपने पिता का राजपुरोहित पद अब तुम्हें सँभालना है।" ____ कमठ अहंकारी और दुराचारी स्वभाव का था। राजपुरोहित बनकर तो सब जगह अपनी मनमानी करने लगा। छोटा भाई मरुभूति बड़ा संतोषी और तपस्वी स्वभाव का था। हर समय मन्दिर व उपाश्रय में जाकर पूजा, उपासना और स्वाध्याय करता रहता था।
एक दिन नगर के प्रजाजनों ने राजा से शिकायत की-"महाराज ! हमने देखा है, राजपुरोहित कमठ रात के समय अड्डों पर जाकर जुआ खेलता है, शराब पीता है और दुराचार सेवन करता है।"
राजा ने कमठ को चेतावनी दी-"तू राजपुरोहित और ब्राह्मण होकर ऐसे कुकर्म करता है ? आज पहली बार का अपराध तो मैं क्षमा करता हूँ। भविष्य में दुबारा ऐसी शिकायत मिली तो कठोर दण्ड दिया जायेगा।"
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लेकिन कमठ अपनी आदतों से बाज नहीं आया। एक दिन उसने घर पर ही छककर शराब पी ली। शराब के नशे में पागल हुआ वह अपने छोटे भाई की पत्नी वसुंधरा के कक्ष में चला गया-"वसुंधरे ! देख मैं तेरे लिये क्या लाया हूँ ?" उसने एक सोने का हार उसके गले में डालकर उसका हाथ पकड़ लिया।
वसुंधरा घबराई-"जेठ जी! आप यह क्या पाप कर रहे हैं ? मैं आपके छोटे भाई की पत्नी हूँ। आपकी पुत्री के समान।"
नशे में चूर कमठ ने कहा-"सुन्दरी ! तेरा पति तो नपुंसक है। इसलिए वह मन्दिर में पड़ा रहता है। अब तू मेरे साथ जीवन का आनन्द लूट ले।" और उसने एक सोने का कंगन उसके हाथों में पहना दिया।
वसुंधरा प्रलोभनों में फंस गई। अब कमठ बिना किसी डर, भय के पाप-लीला रचाने लगा।
कमठ की पत्नी ने यह सब देखा तो उसने वसुंधरा को फटकारा-"नीच ! पापिनी ! पिता तुल्य जेठ के साथ यह पापाचार करती है ? तेरे शरीर में कीड़े पड़ जायेंगे।"
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वसुंधरा ने कमठ से कहा- “जेठानी को हमारी पाप-लीला का पता चल गया है। वह कभी मुझे मार डालेगी।”
कमठ क्रोध में आग-बबूला होकर जलती लकड़ी लेकर अपनी पत्नी वरुणा पर झपटा - "तेरी यह हिम्मत ! मेरे सुख में अड़ंगा लगाती है ? आज तुझे जलाकर राख कर डालूँगा।”
उधर सामने ही मरुभूति आता मिल गया। उसने भाई का हाथ पकड़ लिया- “तात ! क्षमा करो ! मेरी माता तुल्य भाभी को क्यों मारते हो ?"
कमठ बड़बड़ाता वहीं रुक गया।
उसने पूछा - "भाभी ! क्या बात हो गई ?"
वरुणा ने दोनों की पाप--कहानी सुनाकर कहा - "तुम तो घर में रहते नहीं हो। पीछे से यह पाप-लीला चलती है।”
मरुभूति (कानों पर हाथ रखकर ) - "नहीं ! नहीं ! मेरा बड़ा भाई ऐसा नीच काम नहीं कर सकता।”
वरुणा के बार-बार कहने पर मरुभूति बोला- "मैं कानों सुनी बात पर विश्वास नहीं करता। आँखों से देखकर ही कोई निर्णय लूँगा।"
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वरुणा - " विश्वास न हो तो अपनी आँखों से देख लेना।"
मरुभूति ने एक दिन पत्नी से कहा- "मुझे दूसरे नगर में पूजा करवाने जाना है। चार-पाँच दिन के लिए बाहर जा रहा हूँ।"
गाँव के बाहर जाकर उसने संन्यासी का वेष बनाया। सायंकाल कमठ के घर पर आकर पुकारा- "मैं तीर्थयात्रा करता हुआ यहाँ आया हूँ। रातभर ठहरने का स्थान चाहिए।"
कमठ–‘“बाबा ! घर के बाहर बरामदे में रातभर ठहर जाओ ।"
मरुभूति बरामदे में ठहर गया। पति को बाहर गया जानकर वसुंधरा कमठ के साथ खुल्लम-खुल्ला पापक्रीड़ा करने लगी।
मरुभूति ने छुपकर यह सब देख लिया। उसके मन में बहुत ग्लानि हुई। आँखें बन्द कर लीं । सोचा- 'जब अपने घर में ही यह पाप पल रहा हो तो किससे शिकायत करूँ ?'
आखिर उससे रहा नहीं गया। जाकर राजा से कहा- "महाराज ! जिस बड़े भाई को मैं अपने पिता समान समझ रहा था, वह ऐसा नीच कर्म कर रहा है ? इस पापाचार को रोकिए । "
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राजा अरविंद को बहुत क्रोध आया। राजा ने कमठ को बुलाकर फटकारा-"दुष्ट ! नीच ! प्रजा की बातें सुनकर मैंने तुझे दण्ड नहीं दिया। अब तो तूने सभी मर्यादा तोड़ डालीं।"
फिर दण्डाधिकारी को बुलाया-"ब्राह्मण है, इसलिए इसे मृत्यु-दण्ड नहीं दिया जा सकता। इसका काला मुँह करके नगर के बाहर निकाल दो।"
"इस दुष्ट नीच ने अपनी अनुज वधु के साथ दुराचार किया है। इसलिए नगर से बाहर निकाला जा रहा है।"
लोग उस पर थूकने लगे-"धिक्कार है इस पापी को।"
अपनी इस दुर्दशा से कमठ को बहुत आत्म-ग्लानि हुई। साथ ही मरुभूति पर क्रोध आया-"उस दुष्ट ने राजा से शिकयत करके मुझे दण्ड दिलाया है। मैं इसका बदला अवश्य लूँगा।"
दुःखी होकर सोचता है-'अब मैं किसी को मुँह दिखाने लायक नहीं रहा। वन में तप करके ही अपना जीवन पूरा कर दूंगा।' वन में भटकते हुए उसने तापसी दीक्षा ले ली।
अपने बड़े भाई की बदनामी और दुर्दशा देखकर मरुभूति का मन भी दुःखी हुआ।
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TAMINAMAJ
अपने आप पर पश्चात्ताप हुआ-"मैंने अपने भाई की शिकायत राजा से की, यह अच्छा नहीं किया। मेरे कारण ही मेरा भाई जंगल में चला गया।'
एक दिन मरुभूति का मन भाई के लिए बहुत पछताने लगा-'अब मुझे भाई के पास जाकर क्षमा माँगनी चाहिए। मेरे कारण ही भाई की आज यह दुर्दशा हुई है। भाई से भी ज्यादा मैं दोषी हूँ।'
मरुभूति ने राजा से अपने मन की बात कही। राजा ने कहा-"अब उस दुष्ट का मुँह भी मत देखना ! ऐसे नीच कर्म का तो इससे भी कठोर दण्ड मिलना चाहिए था।" किन्तु मरुभूति का मन नहीं माना। चुपचाप वह जंगल में भाई से क्षमा माँगने चला गया। ___एक पहाड़ी के ऊपर कमठ सूर्य के सामने खड़ा तप कर रहा था। मरुभूति ने देखते ही पुकारा-"भ्रात ! मुझे क्षमा कर देना। मेरी भूल हुई। मेरे कारण ही आपको यह कष्ट भोगना पड़ा।" हाथ जोड़कर मरुभूति आकर कमठ के चरणों में गिर गया। उसकी आँखों से पश्चात्ताप के आँसू बह रहे थे। ____ मरुभूति को देखकर कमठ आग-बबूला हो उठा-"दुष्ट ! पहले घाव देकर फिर उस पर पट्टी बाँधने आया है। ढोंगी ! पाखंडी ! तू मेरा भाई नहीं, शत्रु है।" क्रोध में भान भूले
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कमठ ने एक पत्थर की शिला उठाकर मरुभूति के सिर पर पटक दी। मरुभूति का सिर फट गया। खून की धारा बहने लगी। मरुभूति उठने की चेष्टा करने लगा तो फिर दूसरी शिला उठाकर उस पर प्रहार किया। मरुभूति सिसकता, तड़पता मर गया। _मरुभूति की हत्या करके भी कमठ का क्रोध शांत नहीं हुआ। प्रतिशोध की भावना से जलते उसने मरुभूति के मृत शरीर को ठोकर मारकर पर्वत से नीचे गिराया और मन में संकल्प किया-'इसी दुष्ट ने मुझे अपमानित कराया है। अगले जन्म में फिर इसका बदला लूँगा।'
एक दिन पोतनपुर में समंतभद्र नाम के ज्ञानी आचार्य पधारे। अरविंद राजा ने गुरु का उपदेश सुना तो उसे भी वैराग्य हो गया-"गुरुदेव ! मुझे भी आत्म- कल्याण का मार्ग बताइए।"
आचार्य का उपदेश सुनकर राजा ने अपने पुत्र को राज्य सौंपकर दीक्षा ले ली। गुरु के पास ज्ञानार्जन कर तपस्या करने लगा।
_एक दिन अरविंद मुनि के मन में भावना जगी-'मुझे अष्टापद की यात्रा कर अपना जीवन सफल करना चाहिए।'
मुनि ने सागरदत्त नाम के सार्थवाह से कहा-"भद्र ! अष्टापद महातीर्थ की वन्दना करने से मनुष्य का जीवन सफल हो जाता है।"
सेठ ने पूछा-"महाराज ! उस गिरिराज पर कौन-से देव विराजमान हैं और किसने उनका बिम्ब भराया?" __ मुनि ने अष्टापद तीर्थ की महिमा बताई-"वहाँ पर आदिदेव तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव विराजमान हैं। इन्द्रदेव भी उनकी वन्दना करने जाते हैं। उनके पुत्र चक्रवर्ती भरत ने वहाँ पर चौबीस तीर्थंकरों की रत्नमय प्रतिमाएं स्थापित करवाईं। उस तीर्थराज की वन्दना करने वाला कभी दुर्गति में नहीं जाता। तीर्थ वन्दना करने से आत्मा दुःखों से मुक्त होकर मोक्ष की प्राप्ति कर लेता है।"
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ECURI
इसे कहीं देखा है ?
-- तीर्थ महिमा सुनकर सागर सेठ बोला-"महाराज! तीर्थ वन्दना करने की मेरी भावना है। आप भी हमारे साथ चलिए।" __अरविंद मुनि सार्थ के साथ चलते-चलते एक भीषण जंगल में पहुँच गये। सेठ ने कहा-"महाराज ! यहाँ पर सुन्दर विशाल सरोवर है। अनेक सघन वृक्ष हैं। हम कुछ दिन यहाँ विश्राम करना चाहते हैं।" ___एक दिन हाथियों का झुंड सरोवर पर पानी पीने आया। यूथपति हाथी ने दूर बहुत से तम्बू आदि देखे। मनुष्यों को घूमते देखा। उसने सोचा-'अवश्य कोई राजा हाथियों को पकड़ने के लिए यहाँ आकर ठहरा है।'
यूथपति को क्रोध आया-'ये दुष्ट मनुष्य हमें पकड़ने के लिए अपना जाल फैलायें उससे पहले ही इन्हें नष्ट कर देना चाहिए।' __ उसने जोर की चिंघाड़ मारी। सभी हाथी सावधान हो गये और तम्बुओं की तरफ दौड़ने लगे। क्रोध में आये हाथी सँड़ों से वृक्षों को उखाड़ते, पाँवों से पत्थरों को ठोकर मारते तम्बुओं पर टूट पड़े। तम्बुओं में ठहरे यात्री इधर-उधर भागने लगे। चीखने-चिल्लाने लगे।
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DILDumपाग
सुरक्षाकर्मियों ने हाथियों पर तीर छोड़े। परन्तु हाथी-दल रुका नहीं। चारों तरफ भूचाल-सा दृश्य उपस्थित हो गया।
अरविंद मुनि ने सोचा-'यह जन-संहार क्यों हो रहा है?'
यात्रियों की रक्षा करने वे स्वयं उठे और जिधर हाथियों का दल आ रहा था, उधर जाकर काउसग्ग (ध्यान) करके खड़े हो गये।
भयभीत यात्री जान बचाने के लिए मुनिराज के पीछे खड़े हो गये। मुनि के तपोबल का प्रभामंडल रक्षाकवच बनकर हाथियों के सामने खड़ा हो गया। ____ क्रोध में चिंघाड़ते, सैंड़ उछालते हाथी वहीं पर रुक गये। यूथपति हाथी आगे आया, सबको आगे बढ़ने का आदेश देने लगा-"रुक क्यों गये? बढ़ो! इन्हें भगा दो! मार डालो!"
परन्तु कोई भी हाथी आगे नहीं बढ़ा। यूथपति ने जैसे ही सामने खड़े अरविंद मुनि को देखा तो वह भी पत्थर की तरह स्तब्ध हो गया। उसने चिंद्याड़ मारी, सैंड़ उछाली, जमीन पर पाँव पटके परन्तु आगे एक कदम भी नहीं बढ़ा सका। उसने हाथियों को आदेश दिया-'"शांत हो जाओ। उपद्रव बंद करो।" सोचने लगा-'यह तपस्वी कौन है ? क्यों हमें रोक रहा है?'
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तभी ध्यान पूरा होने पर मुनि ने हाथ ऊँचा उठाया-"हे यूथपति ! क्रोध शांत करो। क्षमा करना सीखो। मुझे पहचानो ! खुद को पहचानो ! तुम पिछले जन्म में मरुभूति थे और मैं हूँ राजा अरविंद । अपने पूर्व सम्बन्धों को याद करो।" __मुनि की वाणी सुनकर यूथपति गहरे विचार में डूब गया। उसे जातिस्मरण ज्ञान हुआ। पिछला जन्म चित्रों की तरह उसकी स्मृति में उभरने लगा-'अरे ! मैं मरुभूति हूँ। यह मेरे उपकारी महाराज अरविंद हैं। ये सब यात्री अष्टापद तीर्थ की वन्दना करने जा रहे हैं।'
यूथपति ने सिर झुकाकर दोनों अगले पाँव झुकाकर मुनि को वन्दना की। सूंड़ उठाकर क्षमा माँगी। ____ ज्ञानी मुनि ने यूथपति को क्षमा का उपदेश दिया। कहा-"पूर्वजन्म में तू तत्त्वज्ञ ब्राह्मण था, श्रावक था। सब जीवों पर दया और प्रेमभाव रखता था। किन्तु मरते समय भाई कमठ के प्रति क्रोध आ जाने से मरकर हाथी बना है। अब क्रोध त्याग। क्षमा, सहनशीलता दया और करुणा भाव बढा।" ___ हाथी ने अपना पूर्वभव जाना तो उसने बार-बार मुनिराज से क्षमा माँगी। सार्थवाह के समक्ष सूंड़ उठाकर अपने अपराध की क्षमा माँगी-"मैंने आपको कष्ट दिया ! क्षमा करें ! आप धन्य हैं, जो अष्टापद तीर्थ की वन्दना करने जा रहे हैं।"
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मुनि से प्रतिबोध पाकर यूथपति ने संकल्प लिया- "अब मैं पुनः अपने श्रावकधर्म का पालन करूँगा। किसी पर क्रोध नहीं करूँगा। किसी को कष्ट नहीं दूँगा।"
उपद्रव शांत होने पर मुनिराज के साथ-साथ सार्थ भी आगे यात्रा पर चल पड़ा। सभी यात्री कह रहे थे-“आज तो मुनिराज के तपोबल से हम सबकी प्राण-रक्षा हुई है।"
कुछ कह रहे थे - "आज हमने संतों का दिव्य प्रभाव प्रत्यक्ष देख लिया।"
यूथपति अब जंगल में वापस आकर श्रावकधर्म के अनुसार अहिंसक जीवन जीने लगा। जंगल के सूखे पत्ते खाता और सूर्य ताप से तपा सरोवर का प्रासुक जल पीता । न रात को खाता, न ही
किसी जीव को कष्ट
देता ।
क्रोध और प्रतिशोध
की दुर्भावना में जलता कमठ मरकर कुर्कुट जाति का महासर्प बना । उसके लम्बे-लम्बे पंख और जहरीले दाँत जैसे साक्षात् यमराज का
अवतार था। कुर्कुट सर्प उड़ता-उड़ता उसी जंगल में आ गया ।
एक दिन जंगल में घूमता वह यूथपति हाथी प्यास से व्याकुल हुआ एक सरोवर में पानी पीने उतरा। सरोवर में पानी
कम था। दलदल भरा था। हाथी दलदल में
फँस गया ।
ज्यों-ज्यों
निकलने की चेष्टा करता त्यों-त्यों गहरा दलदल में धँसता चला गया।
कुर्कुट साँप ने हाथी को फँसा देखा। देखते ही पूर्वजन्म के बैर संस्कार जाग गये।
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क्रोध में फुकारते हुए नाग ने हाथी के कुंभस्थल पर डंक मारा। तीव्र जहर समूचे शरीर में फैल गया। जातिस्मरण ज्ञान से हाथी ने उड़ते नाग को पहचान लिया-'यही तो मेरा भाई कमठ है। मैंने पूर्वजन्म में इसका अहित किया था, इसलिए इसने मुझे डस लिया। अज्ञानी जीव है, द्वेष से प्रेरित होकर इसी प्रकार बैर से बैर बढ़ाते रहते हैं।' ___फिर सोचता है-"मुझे क्रोध नहीं करना है। क्रोध को क्षमा के जल से शांत करूँगा। वेदना को शांति से सहन करूँगा तो अगला जन्म सुधर जायेगा।' ___ कई दिन तक भूखा-प्यासा हाथी दलदल में फँसा पड़ा रहा। ऊपर से सूरज की तपती धूप, जहर की तीव्र जलन, फिर भी शांति और समभाव के साथ नमोकार मंत्र जपते-जपते प्राण त्यागकर आठवें देवलोक में देवता बना।
कुर्कुट नाग अपने जहरीले दंतों से सैकड़ों-हजारों प्राणियों के प्राण लेकर अंत में मरकर पाँचवें नरक में गया।
क्षमा से एक तिर्यंच देव बना। क्रोध से एक मानव नाग बना और नरक में गया।
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किरणवेग और नाग
आठवें स्वर्ग का आयुष्य पूर्ण कर मरुभूति का जीव एक राजकुमार बना । पुत्र-जन्म पर राजा ने खूब उत्सव मनाया। रानी ने कहा - " हमारे पुत्र का मुख सूर्य किरणों से भी अधिक तेजस्वी है। इसलिए इसका नाम किरणवेग रखेंगे।”
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किरणवेग ने गुरुकुल में रहकर विद्याध्ययन किया । अनेक प्रकार की विद्याएँ सीखीं । सुन्दर राजकुमारी के साथ उसका विवाह हुआ। फिर वह राजा बन गया ।
एक बार सुरगुरु नाम के आचार्य पधारे। राजा किरणवेग उपदेश सुनने गया । प्रवचन सभा में मुनिराज ने कहा - " पूर्वजन्म के शुभ कर्मों से यहाँ आप मनुष्य बने हैं। सब प्रकार के सुख-साधन प्राप्त हुए हैं। अगर यहाँ पर शुभ कर्म नहीं करोगे तो अगले जन्म में क्या मिलेगा ?"
मुनिराज ने आगे कहा - " लोग समझते हैं धन से, बल से और बुद्धि से सब कुछ पाया जा सकता है। धर्म की क्या जरूरत है ? परन्तु सोचो, धन, बल और बुद्धि किससे मिलती है ?"
मुनिराज ने ही उत्तर दिया- "धर्म से ! तप, जप, दान, तीर्थयात्रा आदि शुभ कर्मों से ह्री यह तीनों चीजें मिलती हैं। और यह सब इसी मनुष्य जन्म में ही हो सकता है। तप, संयम, दान मनुष्य ही कर सकता है, देवता नहीं । "
मुनिराज का उपदेश सुनकर राजा ने दीक्षा ग्रहण कर ली। शास्त्र अध्ययन कर मुनि किरणवेग अनेक प्रकार के कठोर तप करते हुए विचरने लगे।
एक बार मुनि के मन में आया - 'पुष्करवर द्वीप में अरिहंतों की शाश्वत प्रतिमाएँ हैं । उनकी वन्दना करने का महान् फल है।'
विद्याबल से मुनि आकाशमार्ग से चलकर पुष्करवर द्वीप में आये । वहाँ शाश्वत जिनप्रतिमाओं की भाव वन्दना की । अहोभाव के साथ अरिहंत स्तुति की ।
फिर सोचा- 'अब वैताढ्य गिरि पर जाकर काउसग्ग करूँ ।'
मुनि वैताढ्य पर्वत पर आये । एक वृक्ष के नीचे काउसग्ग प्रतिमा (ध्यान) धारण कर खड़े हो गये। अनेक वर्ष बीत गये। सर्दी, गर्मी, वर्षा के बीच मुनि पत्थर की प्रतिमा की तरह ध्यान में स्थिर खड़े रहे ।
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कुर्कुट नाग मरकर नरक में गया था। वहाँ से निकलकर वह इसी पर्वत पर एक भयंकर विषधर सर्प बना। एक दिन उस नाग ने मुनि को ध्यान में खड़ा देखा तो उसके भीतर क्रोध
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और बैर की तीव्र ज्वाला जलने लगी। साँप ने मुनि के पूरे शरीर पर आँटे लगाये। स्थान-स्थान पर डंक मारे। बार-बार डंक मारकर मुनि के शरीर को छलनी बना दिया।
तीव्र जहर की वेदना में भी मुनि शांत खड़े रहे। सोचने लगे-'यह नाग मेरा शत्रु नहीं, मित्र है। इसके कारण ही मुझे आज वेदना सहने का अवसर मिला है। मैं समभाव के साथ इस पीड़ा को सहन करूँगा तो शीघ्र ही मेरे कर्मों का नाश हो जायेगा।' समता भाव के साथ देह त्यागकर मुनि किरणवेग बारहवें स्वर्ग में देव
OTOC
SOD
बने।
SRANI
विषधर नाग एक दिन दावानल में जल
-गया। मरकर छठी नकर में गया। वज्रनाभ और कुरंग भील
मरुभूति का जीव महाविदेह की शुभंकरा । नगरी में एक राजकुमार बना।
आओ वजकुमार ! हमारे
पास आकर बैठो। बालक का शरीर अत्यंत बलिष्ठ और वज जैसा सुदृढ़ होने के कारण उसका नाम वजनाभ रखा गया
छोटी-सी आयु में ही वजभान बहुत ही बलिष्ठ और ताकतवर दिखाई देता था। कुछ बड़ा होने पर राजकुमार को विद्याध्ययन हेतु गुरुकुल में भेजा गया। वह शीघ्र ही चौंसठ कलाओं में निपुण हो गया। बालक वजनाभ विद्याध्ययन पूर्ण करके नगर वापस लौट आया। ____ तरुण होने पर माता-पिता ने कहा-"पुत्र ! अब हम दोनों संसार त्यागकर दीक्षा लेना चाहते हैं। किन्तु इससे पहले दो काम तुझे करने हैं।"
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माता-"वत्स ! तुम विवाह करके हमारा कुल चलाओगे। राज्य-भार सँभालकर प्रजा का पालन करोगे। यह दो काम तुम्हें करने हैं।"
"माता-पिता की आज्ञा स्वीकार है।" वजनाभ बोला।
वज्रनाभ का विवाह हुआ। फिर राजतिलक हुआ। राजा-रानी ने दीक्षा लेकर अपना कल्याण किया। वजनाभ को एक पुत्र हुआ।
पुत्र योग्य होने पर वजनाभ ने कहा-"वत्स! हमारी कुल परम्परा के अनुसार अब यह राज्य-भार तुम ग्रहण करो। हमें दीक्षा लेने की आज्ञा दो।"
उसी समय उद्यानपालक ने आकर सूचना दी-"उद्यान में क्षेमंकर तीर्थंकर पधारे हैं।" वजनाभ बोला-"सचमुच मैं भाग्यशाली हूँ। मेरा संकल्प सफल होने का अवसर आ गया है।"
राजा वजनाभ ने जिनेश्वर भगवान की वन्दना कर प्रार्थना की-"प्रभो ! मैं अपने दायित्व से मुक्त हो गया हूँ। अब मुक्ति के मार्ग पर चलने की आज्ञा दीजिए।"
तीर्थंकर क्षेमंकर ने राजा वजनाभ को दीक्षा दे दी। वजनाभ मुनि निरन्तर श्रुताभ्यास और उग्र तप करने लगे।
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एक दिन वजनाभ मुनि की इच्छा हुई-सुकच्छ विजय में भी तीर्थंकर भगवान विचर रहे हैं। वहाँ जाकर उनके दर्शन करूँ।
आकाशमार्ग से उड़कर मुनि सुकच्छ विजय में पहुँचे। तीर्थंकर भगवान के दर्शन किये। भगवान ने देशना में कहा-''काउसग्ग सव्व दुक्ख विमोक्खणो-कायोत्सर्ग सब दुःखों से मुक्ति दिलाता है।"
मुनि ने सोचा-'प्रभु ने कायोत्सर्ग का महान् फल बताया है। मैं काउसग्ग करूँ।'
मुनि पर्वत की गुफा के पास जाकर कायोत्सर्ग करने लगे। कमठ का जीव सर्प योनि से मरकर नरक में गया था। वहाँ से निकलकर वह इसी जंगल में भील बना था। जंगल के जीवों को मारकर वह अपनी जीविका चलाता था। एक दिन वह भील शिकार करने उधर आया। रास्ते में मुनि मिले। भील को क्रोध आया-"अरे ! मुंडे सिर वाला सामने मिल गया। अपशकुन हो गया। आज शिकार नहीं मिलेगा।"
मुनि की तरफ देखने से मन में पूर्वजन्म के बैर संस्कार जगे-"चलो, पहले इस दुष्ट अपशकुनी का ही शिकार कर लूँ।"
भील ने अपना विष बुझा तीर मुनि की छाती पर फैंका। तीर चुभते ही मुनि के शरीर से खून के फव्वारे छूट गये और धड़ाम से भूमि पर गिर पड़े। गिरते-गिरते मुनि के मुँह से निकला-"नमो जिणाणं.........।"
भील खुशी से नाचने लगा-"अहा ! बड़ा मजा आया। पहला शिकार अच्छा मिला।"
मुनि भूमि पर गिर पड़े। वेदना से शरीर जलने लगा। फिर भी शांत और प्रसन्न थे। अपने ज्ञानबल से देखा-"अरे ! यह तो वही कमठ का जीव है। मैंने इसका अपकार किया था, इसी कारण आज इसने मुझे कष्ट दिया।"
फिर मुनि सोचने लगे-'इसने जो किया, वह मेरे लिए अच्छा ही हुआ। कर्मों की निर्जरा हो रही है। पुराने कर्मों का कर्ज चुक रहा है।'
मुनि उठकर बैठ गये। शरीर से रक्त की धारा बह रही थी। परन्तु मुनि शरीर की ममता से मुक्त होकर आत्म भाव में स्थिर हो गये।
"अरिहंतों को नमस्कार ! सिद्ध भगवंत को नमस्कार। अब मेरा जीवन दीप बुझने वाला है। मैंने आज तक प्रमादवश जो कोई भूल की हो, असद् विचार किया हो, उसका तस्स मिच्छामि दुक्कडं। अरिहंत-सिद्ध प्रभु की साक्षी में अपनी आत्मा की साक्षी में मैं जीवन पर्यंत अनशन व्रत ग्रहण करता हूँ। समस्त जीवों से क्षमापना करता हूँ।"
इस प्रकार शुद्ध निर्मल भाव धारा में बहते हुए मुनि ने अत्यन्त समाधिपूर्वक देह त्याग किया। मध्य ग्रेवेयक देव विमान में देव बने। स्वर्ग का आयुष्य पूर्ण कर महाविदेह की पुराणपुर नगरी में जन्म लिया।
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सुवर्णबाहु चक्रवर्ती
पुराणपुर नगर में वज्रबाहु नाम का राजा था। उसकी रानी का नाम सुदर्शना था। एक रात रानी ने चौदह अद्भुत स्वप्न देखे ।
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प्रातः रानी ने राजा से कहा- "महाराज ! रात को मैंने अद्भुत स्वप्न देखे हैं, इनका क्या फल होगा ?"
स्वप्न सुनकर राजा ने कहा- "महारानी ! ये स्वप्न बहुत शुभ हैं। तुम किसी चक्रवर्ती पुत्र की माता बनोगी।"
समय आने पर रानी ने पुत्र को जन्म दिया। राजा ने विशाल उत्सव मनाया। भिक्षुकों को दान दिया, स्वजन-मित्रों को भोजन कराया । पुत्र का नाम 'सुवर्णबाहु' रखा।
योग्य होने पर सुवर्णबाहु का राज्याभिषेक हुआ। उसके माता-पिता ने आचार्य के पास दीक्षा धारण कर ली और संयम का पालन करने लगे।
राजा सुवर्णबाहु ने अपने प्रताप से छः खण्डों पर विजय प्राप्त की और चक्रवर्ती पद को प्राप्त किया ।
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एक बार सुवर्णबाहु अपनी अश्वशाला (घुड़साल) का निरीक्षण कर रहा था। एक अत्यन्त चपल सुन्दर सफेद घोड़े को देखकर राजा ने पूछा- "यह घोड़ा दीखने में इतना सुन्दर है, क्या सवारी में भी योग्य है ?"
| सैनिक - "महाराज ! यह बहुत ही तीव्र गति वाला पवनवेगी अश्व है।" राजा - "अच्छा! तब तो हम आज इसी पर सवारी करेंगे।”
राजा के आदेश से तुरन्त घोड़े को सजाकर उपस्थित किया गया। राजा घोड़े पर सवार हुआ। उसके पीछे अंगरक्षक घुड़सवार सैनिक भी तैयार हो गये। राजा ज्यों ही घोड़े पर चढ़ा तो घोड़ा हवा में तैरने लगा। सैनिक सब पीछे रह गये। घोड़ा दौड़ता-दौड़ता एक गहन वन में चला गया। राजा ने लगाम खींची तो घोड़ा और तेज दौड़ने लगा। ज्यों-ज्यों लगाम खींचता घोड़ा तेज-तेज दौड़ता चला गया। राजा पसीना-पसीना हो गया । प्यास से गला सूखने लगा। थक-हारकर राजा ने घोड़े की लगाम ढीली छोड़कर कूदने की तैयारी की तभी घोड़ा रुक गया।
राजा - "अरे ! मुझे तो पता ही नहीं था, यह घोड़ा वक्र शिक्षित था। राजा उतरा। सामने ही एक सरोवर दीखा। राजा सरोवर के किनारे आकर एक वट वृक्ष की छाया में
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सुस्ताने लगा। फिर सरोवर में स्नान किया और शीतल जल पीकर विश्राम करने लगा। उसे नींद लग गई। कुछ देर बाद नींद खुली। राजा उठा और आसपास भोजन की तलाश करने लगा। सामने एक सुन्दर तपोवन दिखाई दिया।
तपोवन के हरे-भरे वृक्षों के झुंड और उनमें सुन्दर हिरण शावकों को किलोलें करते देखकर राजा सोचता है- 'यहाँ अवश्य ऋषि रहते होंगे। चलूँ कन्द-फल मिले तो खाकर भूख शांत करूँ ।' राजा वृक्षों के झुंड के पास आया तो एक ऋषि कन्या दिखाई दी। राजा की नजर कन्या पर पड़ती है-'यह कौन है ? कोई देव कन्या है, अप्सरा या उर्वशी है।"
वृक्ष की ओट लेकर राजा खड़ा होकर उसे देखता है- 'ऋषि कन्या ! इतनी तेजस्वी, इतनी सुन्दर । लगता है सृष्टि का समूचा सौन्दर्य इसी में समा गया है।'
तभी एक भँवरा उड़ता - उड़ता कन्या के मुँह पर बैठ गया । कन्या जोर से चीखी-"अरे बचाओ ! बचाओ !"
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नंदा नाम की सहेली दौड़कर आती है- "पद्मा ! पद्मा ! क्या हुआ ?" पद्मा ने उड़ते भँवरे की तरफ इशारा किया - "इससे बचाओ ! यह डंक मार देगा।”
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सखी हँसकर कहती है-"सखी ! सुवर्णबाहु राजा के सिवाय तेरी रक्षा कौन कर सकता है ? उसी को पुकार न ! वही तेरी रक्षा करने आयेगा।"
सुवर्णबाहु ने छिपे हुए ही आवाज दी-"जब तक इस धरा पर वज्रबाहु पुत्र सुवर्णबाहु विद्यमान है, कौन उपद्रव कर सकता है। किसकी हिम्मत है ?"
दोनों चौंक गईं-"किसी पुरुष की आवाज ! यहाँ कौन छिपा है ?" डरी-डरी इधर-उधर देखती हैं। दोनों डरकर सहमकर आपस में लिपट जाती हैं।
तभी सुवर्णबाहु सामने आ जाता है-'भद्रे ! डरो मत ! तुम तपस्वियों के जीवन में यहाँ कौन विघ्न करने वाला है ? मुझे बताओ, मैं अभी उस दुष्ट का संहार करता हूँ।"
डरी हुई-सी पद्मा ने उड़ते हुए भँवरे की तरफ इशारा किया-"यह।"
सुवर्णबाहु हँसा-"बाले ! यह बिचारा तुम्हारी सुगंध का प्यासा भूला-भटका आ गया है। इससे क्यों डरती हो। लो, मुझे आया देखकर वह भी भाग गया।"
दोनों सखियाँ इस तेजस्वी पुरुष को देखकर सहम जाती हैं। नंदा ने साहस करके पूछा-"आप कोई असाधारण पुरुष लगते हैं, कोई देव हैं ? विद्याधर हैं? कौन हैं आप..?"
राजा हँसकर कहता है-"डरो मत ! मैं न तो देव हूँ, न ही विद्याधर। मैं महाराज सुवर्णबाहु का दूत हूँ। राजा की आज्ञा से इस तपोवन में ऋषियों की रक्षा करने आया हूँ।"
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दूसरी सखी ने एक कटासन बिछा दिया-"बैठिये आप!''और दोनों ने मधुर हास्य के साथ नमस्कार किया।
पद्मा टुकर-टुकर निहारती है-'यह दूत तो नहीं हो सकता। जरूर यही सुवर्णबाहु है। इतना तेजस्वी, इतना सुन्दर।'
नीची नजर झुकाए उसने पूछा-"भद्र पुरुष ! आप हमारी रक्षा करने आये हैं, बहुत अच्छा किया। बैठिए हम अभी गुरुवर को सूचित करती हैं।"
सुवर्णबाहु-"भद्रे ! आप कष्ट क्यों करती हैं। मैं ही ऋषिवर से मिल लूँगा।" फिर जरा नजदीक आकर बोलता है-"ओह ! मैंने आपका परिचय तो पूछा ही नहीं।"
पद्मा मुस्कराकर नीचे देखने लगती है। सहेली बोली-'भद्र पुरुष ! यह ऋषि कन्या लगती है न? परन्तु यह ऋषि कन्या नहीं राजकन्या है।"
"ओह ! यह तो इनकी शालीनता और सुन्दरता ही बताती है। क्या मैं जान सकता हूँ आपके भाग्यशाली माता-पिता कौन हैं ? राजमहल छोड़कर वन में क्यों आईं ?"
सहेली ने कहा-"यह रत्नपुर के विद्याधर राजा की पुत्री है। इसका जन्म होते ही पिता की मृत्यु हो गई।"
"ओह ! अशुभ हुआ........।" राजा बोला।
फिर राज्य के लिए राजकुमार आपस में लड़ने लगे। राज्य में विद्रोह हो गया। तब इनकी माता रत्नावली अपनी पुत्री को लेकर यहाँ आश्रम में आ गईं। गालव ऋषि रानी के भाई हैं।"
राजा-"तो महाराज सुवर्णबाहु के विषय में आपने कब सुना..........?" __ सहेली-एक दिन यहाँ कोई ज्ञानी मुनि पधारे थे। तब ऋषिवर ने मुनिवर से पूछा-"मुने! इस कन्या का पति कौन होगा ?"
ज्ञानी ने बताया-"वज्रबाहु राजा के पुत्र चक्रवर्ती सुवर्णबाहु को वक्र शिक्षित अश्व यहाँ लेकर आयेगा और वे इस कन्या का वरण करेंगे। यह चक्रवर्ती सम्राट् की पटरानी होगी।"
राजा हँसा-"ओह ! यह रहस्य है। आप तो सचमुच ही महारानी बनने योग्य हैं।"
तब तक राजा के अंगरक्षक सैनिक भी आ पहुँचे। सभी ने सम्राट् सुवर्णबाहु की जय बोली। सैनिकों को देखकर पद्मा सहेली के साथ वहाँ से चली गई। सहेली ने ऋषि से कहा-"गुरुदेव! महाराज सुवर्णबाहु हमारे आश्रम में पधारे हैं।" ___ ऋषि अत्यन्त प्रसन्न हुए-"अहा ! आज ज्ञानी संत का वचन सत्य हो गया।" फिर
गालव ऋषि, रानी रत्नावती तथा अन्य आश्रमवासी सम्राट् का स्वागत करने आये। राजा ने | ऋषि को प्रणाम किया।
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ऋषि प्रसन्नता के साथ बोले-"आज हम धन्य हुए। चक्रवर्ती सम्राट् सुवर्णबाहु का इस तपोवन में स्वागत है !"
- ऋषि ने चम्पक वृक्षों के झुंड में एक ऊँची वेदिका पर सम्राट् को बैठाया। कन्द-मूल का भोजन कराया। फिर बोले-"राजन् ! ज्ञानी मुनि के वचन आज सत्य हो गये। (पद्मा की तरफ संकेत करके) यह आपकी अमानत है। इतने दिन मैंने इसको सँभाला। आज से आप इसे स्वीकार करें।" ___आश्रमवासी तपस्वी-तपस्विनियाँ आ गये। हर्ष उत्साह के साथ मंत्रोच्चारपूर्वक दोनों का विवाह कर दिया।
पुत्री को विदा करते समय रानी ने उसे छाती से लगा लिया। आँखों से आँसू वर्षाती हुई बोली-“बेटी ! आज तुझे देने के लिए मेरे पास न तो हीरे-मोतियों के हार हैं, न ही सुन्दर वस्त्र हैं।"
पद्मा भी रोती हुई माँ के गले से लग गई-"माँ! तेरा आशीर्वाद ही मेरे लिए सब कुछ है।" ऋषि ने कहा-"बहन ! तू ऐसा क्यों कहती है। तेरे पास ज्ञान व अनुभव के कितने दिव्य रत्न हैं।"
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रानी-"हाँ पुत्री ! तुझे पतिगृह में जाते हुए मैं सात रत्न देना चाहती हूँ ! सुन१. सदा मीठी वाणी बोलना। २. पति को भोजन कराके फिर भोजन करना। ३. अपनी सौतों को सौत नहीं, बहन समझना। ४. सास-ससुर का सम्मान करना। ५. चक्रवर्ती की पटरानी होने का कभी अभिमान मत रखना। ६. सौत की संतान को अपनी संतान के समान प्यार करना। ७. धर्म और कुल की मर्यादा का पालन करना।"
माता की शिक्षाओं को धारण करती हुई पद्मा बोली-"माँ ! तेरे ये अनमोल वचन अनमोल रत्न की भाँति सदा अपने साथ रखूगी।" फिर वह माता की छाती से लिपटकर सिसक उठी।
गालव ऋषि ने राजा को आशीर्वाद देते हुए कहा-"राजन् ! मैंने इस पद्मा (लक्ष्मी) को आज आपके हाथों में सौंप दिया है। आप इसकी हर प्रकार से रक्षा करेंगे।"
राजा ने ऋषि और रानी को प्रणाम किया-"आप चिंता न करें। यह हर प्रकार से सुखी रहेगी।"
आश्रम से विदा लेकर सुवर्णबाहु अपनी राजधानी में आ गया।
एक दिन आयुधशाला के रक्षक ने आकर निवेदन किया-"महाराज ! आयुधशाला में चक्ररत्न प्रगट हुआ है।"
सुवर्णबाहु उठकर आयुधशाला में आया। उसने चक्ररत्न की विधिवत् पूजा-अर्चा की। इसके पश्चात् सम्राट् ने अपने सेनापति को आदेश दिया-''हमारी आयुधशाला में चक्ररत्न प्रगट हुआ है। अतः अब हमें षट्खंड विजय के लिए प्रस्थान करना चाहिए।" ___राजा के आदेशानुसार विशाल सेना तैयार हुई। अनेक छोटे-बड़े राजा भी अपनी सेना के साथ आ गये। विजय यात्रा में सबसे आगे आकाश में चक्ररत्न चलता था, उसी के पीछे विशाल सेना चल रही थी।
चक्ररत्न के साथ विशाल सेना के आने की सूचना मिलने पर दूसरे राजा सोचते हैं-'चक्रवर्ती सम्राट् का प्रतिरोध कर नरसंहार करना व्यर्थ है। अच्छा है, हम स्वयं ही उसकी अधीनता स्वीकार कर लें।' ___ इस प्रकार चक्रवर्ती ने षट्खंड की विजय यात्रा कर अपना चक्रवर्तित्व स्थापित कर लिया। फिर अपनी राजधानी में आकर उसने अष्टम तप किया। फिर सेनापति को बुलाकर कहा-"अब राज्याभिषेक की तैयारी करो।"
बहुत ही उल्लास और धूमधाम के साथ सुवर्णबाहु का चक्रवर्ती पद पर राज्याभिषेक हुआ। सुवर्णबाहु षट्खंड अधिपति चक्रवर्ती सम्राट् बनकर प्रजा का पालन करने लगे।
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एक बार चक्रवर्ती महलों के गवाक्ष में बैठे थे। आकाश से देवताओं के झुंड आते दिखाई दिये। सोचने लगे-'आज यहाँ इतने देव क्यों आ रहे हैं ?'
तभी उद्यानपालक ने सूचना दी-"महाराज! नगर में तीर्थंकर भगवान पधारे हैं।"
चक्रवर्ती ने आसन से उठकर भगवान की दिशा में वन्दना की। फिर राजपरिवार के साथ देशना सुनने आया। समवसरण में देवताओं को देखकर विचारने लगा-'मैंने पहले भी ऐसे देवताओं को कहीं देखा है ?" ____ गहरे विचार में डूबने पर जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। अपना पूर्वभव याद आया-'अहो ! मैंने पूर्वभव में तप व कायोत्सर्ग ध्यान साधना की थी। उसी के प्रभाव से मैं स्वर्ग में देव बना और यहाँ पर चक्रवर्ती की समृद्धि मिली है। यहाँ पर जो भी मिला है, वह तो पूर्व जन्म में किये हुए शुभ कर्मों का फल है। अब यदि इस जन्म में मैं शुभ कर्म,
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तप-जप-साधना नहीं करूँगा तो भोगों की आसक्ति के कारण अगले जन्म में दुर्गति में जाना पड़ेगा।
इस प्रकार चिन्तन करते हुए सुवर्णबाहु को वैराग्य प्राप्त हुआ। उसने पुत्र को राज्यभार सौंपकर तीर्थंकर भगवान के पास संयम दीक्षा ग्रहण कर ली।
अनेक प्रकार के तप, कायोत्सर्ग साधना अभिग्रह करते हुए सुवर्णबाहु ने पुनः-पुनः बीस स्थानकों की आराधना कर तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन किया।
एक बार मुनि सुवर्णबाहु किसी पर्वत शिखर पर जाकर सूर्य के सामने दोनों भुजाएँ 2 सिद्ध अरिहंत
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उठाकर आतापना ले रहे थे। उस समय एक खूखार सिंह उधर आया। मुनि को देखते ही उसके भीतर क्रोध-द्वेष की ज्वाला जलने लगी। पूँछ उछालता, दहाड़ता वह सिंह मुनि पर झपट पड़ा। नाखूनों से मुनि के शरीर को चीर डाला। गिरते-गिरते मुनि ने अनशन ले लिया। शुभ भावों के साथ आयुष्य पूर्ण कर दशवें स्वर्ग में उत्पन्न हुए। ___ सुवर्णबाहु देव ने अपने देव परिवार को साथ लेकर नंदीश्वर द्वीप आदि क्षेत्रों में (भरतादि १० क्षेत्रों में) पाँच सौ बार तीर्थंकरों के पंचकल्याणक उत्सव मनाये। जिनेश्वर देवों की पूजा-अर्चा-भक्ति की। जिससे अतिशय पुण्य कर्मों का उपार्जन हुआ। माना जाता है
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कि इन्हीं अतिशय पुण्यों के प्रभाव से 23वें तीर्थंकर प्रभु पार्श्वनाथ की वर्तमान समय में सर्वत्र सर्वाधिक महिमा और पूजा होती है। __एक समय सुवर्णबाहु देव ने जाना कि अब मेरा आयुष्य केवल छह मास शेष रह गया है। यहाँ से मैं वाराणसी नगरी में माता वामादेवी के पुत्र रूप में जन्म लूँगा। मेरे जन्म से माता को कैसा अनुभव होगा, जरा देखू। __ कौतूहलवश देव एक सुन्दर सलौने श्यामवर्णी शिशु का स्वरूप बनाकर माता के सामने आये। माता वामादेवी ने अद्भुत रूपशाली बालक को अपने सामने देखा तो उसके अंग-अंग आनन्द से पुलक उठे। आँखों से हर्ष बरसने लगा। वह एकटक शिशु का मुख निहारने लगी।माता के मुख पर हर्ष और आनन्द देखकर बालक-रूप देव का मन प्रसन्न हो गया। माता को नमन कर वापस अपने स्थान पर आ गये। छह मास बाद बीस सागरोपम का उत्कृष्ट आयुष्य पूर्ण कर चैत्र वदी 12 को प्राणत नामक दशवें स्वर्ग से च्यवन किया।
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पार्श्वजन्मोत्सवः ___ काशी देश की वाराणसी नगरी में अश्वसेन राजा शासन करते थे। उनकी अश्वसेना में अनेक जाति व अनेक रंगों के घोड़े थे। दूर-दूर के लोग चर्चा करते थे-"राजा की अश्वसेना अजेय और अद्भुत है।" ।
राजा अश्वसेन की रानी का नाम था वामादेवी।
ग्रीष्मकाल के प्रथम मास, प्रथम पक्ष अर्थात् चैत्र मास की कृष्ण चतुर्थी के दिन मध्यरात्रि को विशाखा नक्षत्र के समय चन्द्रमा का योग आ जाने पर बीस सागरोपम की स्थिति वाले दशवें प्राणत देवलोक से सुवर्णबाहु देव का जीव च्यवन कर माता वामादेवी के गर्भ में आया।
माता वामादेवी ने सुखशय्या में अर्ध-निद्रावस्था में गज, वृषभादि चौदह महास्वप्न देखे। तत्क्षण सावधान हो एवं स्वप्न की स्मृति कर अपने पतिदेव के पास आई और देखे हुए स्वप्नों का वर्णन किया।
राजा ने कहा कि "महारानी ! ऐसे शुभ और महान् स्वप्न-दर्शन से प्रतीत होता है कि तुम्हारे गर्भ में अतिशय पुण्यशाली आत्मा का आगमन हुआ है।"
सूर्योदय होते ही राजा ने राजसभा में स्वप्न-फल कथन के ज्ञाता विद्वानों को बुलाया।
विद्वान पंडितों ने अपने शास्त्रों के आधार पर विचार विमर्श कर कहा-“हे राजन् ! महारानी ने बहुत ही उत्तम स्वप्न देखे हैं। जिससे आपके कुल में केतु समान महाभाग्यशाली पुत्र जन्म लेगा। बड़ा होने पर वह चारों दिशाओं का स्वामी, चक्रवर्ती, राज्यपति राजा होगा या तीन लोक का नायक धर्मश्रेष्ठ, धर्म चक्रवर्ती जिनेश्वर तीर्थंकर होगा। __ समय आने पर पौष कृष्ण दशमी के दिन रानी ने एक सुन्दर शिशु को जन्म दिया। क्षणभर के लिए समूचे संसार में प्रकाश जगमगा उठा। हर जीव अपने अन्दर दो पल के लिये अपूर्व आनन्द की अनुभूति करने लगा।
उस समय का वायुमंडल स्वभाव से ही स्वच्छ, रम्य और सुगन्धमय बन गया। दसों दिशाएँ अचेतन होने पर भी प्रफुलित हो उठीं। भगवान के जन्म के प्रभाव से भिन्न-भिन्न दिशाओं में रहने वाली छप्पन्न दिग्कुमारिकाओं के आसन कम्पायमान हुए। उन्होंने ज्ञान बल से देखा-"अहो, पृथ्वी पर प्रभु ने जन्म लिया है।" भगवान का जन्म जानकर हर्षित होती हुई वे पृथ्वी पर आईं और प्रभु एवं प्रभु-माता को नमस्कार कर कहा-''हे रत्न कुक्षिणी माता! हमें जगतारक प्रभु का सूतिका कर्म करने की आज्ञा प्रदान कीजिए।"
छप्पन्न दिग्कुमारिकाओं ने प्रभु का सूतिकर्म तथा स्नानादि कराकर जन्मोत्सव मनाया। जन्मोत्सव सम्पूर्ण होने के पश्चात् शक्रेन्द्र का आसन कम्पायमान हुआ।
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| प्रभुजन्म से तीनों लोक प्रकाश से जगमगा उठे।
सूतिका कर्म करती छप्पन दिग्कुमारिकायें।
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उसी समय एक देवेन्द्र वहाँ आया-“हे मातेश्वरी ! मैं सौधर्म देवलोक का स्वामी शक्र आपको प्रणाम करता हूँ।" फिर शक्रेन्द्र ने शिशु रूप तीर्थंकर देव को नमस्कार किया-"हे तीन लोक के तारणहार ! मेरी वन्दना स्वीकारें ! मैं आपका जन्म अभिषेक करना चाहता हूँ।" कहकर शक्रेन्द्र ने माता को अवस्वापिनी निद्रा में सुला दिया। फिर शिशु का एक प्रतिबिम्ब बनाकर माता के पास रख दिया।
इन्द्र ने अपने पाँच स्वरूप बनाये। एक स्वरूप ने शिशु-प्रभु को गोदी में उठाया। दो, दोनों ओर चावर बीजने लगे। एक ने छत्र किया और एक स्वरूप हाथ में वज्र घुमाता हुआ आगे चलने लगा।
मेरु पर्वत की श्वेत स्फटिकमयी शिला पर गोद में लेकर बैठ गये। चारों दिशाओं से अनेक इन्द्र आ-आकर प्रभु को वन्दना करने लगे। ईशानेन्द्र ने सोने के वृषभ सींग में से जलधारा प्रकट कर बाल प्रभु का अभिषेक किया। १० वैमानिक, २० भुवनपति, ३२ व्यन्तर, २ ज्योतिषक, इस तरह ६४ इन्द्रों ने १ क्रोड ६० लाख कलशों से प्रभु का जन्माभिषेक किया।
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फिर चन्दन केसर आदि सुगंधित पदार्थों का लेप किया। सुन्दर वस्त्रों से लपेट लिया। सभी इन्द्र हाथ जोड़कर प्रभु की स्तुति करने लगे-"हे ज्ञान दिवाकर ! हे साक्षात् धर्म के अवतार ! हे मोक्षमार्ग के प्रकाशक ! हम आपको नमस्कार करते हैं।" फिर बाल प्रभु को माता के पास लाकर सुला दिया। प्रतिबिम्ब उठा लिया। ___ प्रातःकाल प्रियवंदा दासी ने आकर राजा को सूचना दी-"महाराज ! महारानी ने सूर्य के समान तेजस्वी शिशु को जन्म दिया है।"
राजा आये। शिशु को देखा। शिशु के पैर की तरफ संकेत कर राजा ने कहा-"देखो, बालक के पैर पर नागदेव का चिन्ह है। अवश्य यह नाग जाति का उद्धार करेगा।"
रानी ने कहा-"महाराज ! आपका कथन सत्य है। गर्भकाल में एक रात घोर अंधेरे में मेरे पास से एक काला नाग आया था। मेरे अँगूठे का स्पर्श कर वह चला गया।"
# समस्त देवों और इन्द्रों ने नंदीश्वर द्वीप जाकर वहाँ के ५२ चैत्यों में अष्टाह्निका महोत्सव कर प्रभु-भक्ति की।
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राजा ने अन्तःपुर से वापस आकर दण्डनायक से कहा - " कारागार में बंदी सभी कैदियों को छोड़ दो। पूरे काशी देश में बारह दिन का उत्सव घोषित करो। बारह दिन तक पूरे नगर में उत्सव मनाया जाये।"
राजकोष का मुँह खोल दिया गया। गरीबों को अन्न-वस्त्र- भोजन दिया गया। वृद्ध दासों को दास कर्म से मुक्त कर दिया गया। इस प्रकार समस्त नगरवासी दरिद्रता- दीनता एवं बन्धनों की पीड़ा से मुक्त होकर खुशियाँ मनाने लगे। लोग धन्य-धन्य होकर कहने लगे-“संसार को ताप-संताप से मुक्ति दिलाने वाला कोई महापुरुष अवतरित हुआ है।"
स्वजनों के प्रीतिभोज में राजा ने घोषित किया - "गर्भकाल में माता के पार्श्व से नागदेव निकला था, इसलिए इस बालक को हम 'पार्श्व कुमार' कहेंगे।"
कुल की वृद्ध महिलाओं ने शिशु का दिव्य नीलवर्णी रूप देखकर कहा-"यह तो नीलकमल जैसा सुरम्य
है ।"
दूसरी बोली - " नीलमणि जैसी इसकी दिव्य देह कांति तो देखो।"
चन्द्रमा की कलाओं की तरह पार्श्वकुमार बढ़ा होने लगा।
पार्श्वकुमार आठ वर्ष का हुआ। पिता ने सोचा- 'पार्श्वकुमार को क्षत्रियोचित विद्याओं का ज्ञान कराना चाहिए।' अगले दिन गुरुकुल के कलाचार्य को बुलाया गया"आचार्यवर ! इस बालक को सभी प्रकार की शिक्षा देकर योग्य बनाएँ।"
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कलाचार्य – “महाराज ! यह तो जन्मजात
सुयोग्य है। इसको मैं क्या कला सिखाऊँगा ?"
स्वयं कलाचार्य ने पार्श्वकुमार से कई तरह का ज्ञान प्राप्त किया, क्योंकि जब प्रभु माता के गर्भ में आये थे तब से मति, श्रुत, अवधि ज्ञान अर्थात् तीन ज्ञान से युक्त थे ।
युवा होने पर पार्श्वकुमार साक्षात् कामदेव का अवतार लगने लगा। नौ हाथ ऊँचे पार्श्वकुमार जब घोड़े पर सवार होकर नगर में निकलते तो स्त्रियाँ कहने लगतीं - "वह स्त्री परम सौभाग्यशाली होगी जिसका पति कामदेव जैसे अपने राजकुमार होंगे।"
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एक दिन महाराज अश्वसेन राजसभा में सिंहासन पर बैठे थे तभी द्वारपाल ने आकर निवेदन किया- "महाराज ! एक सुन्दर आकृति वाला परदेशी दूत आपके दर्शन चाहता है।"
राजा -“उसे सम्मानपूर्वक राजसभा में लाओ ।"
दूत ने आकर राजा को नमस्कार किया - "वीर शिरोमणि महाराज अश्वसेन की जय हो !" राजा ने बैठने का संकेत किया। वह आसन पर बैठ गया ।
राजा ने पूछा - "भद्र पुरुष ! तुम किस देश से आये हो ? कौन हो, क्या प्रयोजन है ?"
'महाराज ! मैं कुशस्थल के महाराज प्रसेनजित का मित्र दूत हूँ। पुरुषोत्तम मेरा नाम है। मैं उनका सन्देश लेकर आया हूँ।"
राजा - "कहिए, क्या सन्देश है ?"
“आपने वीर शिरोमणि महाराज नरवर्म का नाम तो सुना ही होगा। वे महान् पराक्रमी थे । दूर-दूर प्रदेशों के राजाओं को जीतकर राज्य का विस्तार किया था।”
राजा अश्वसेन -“हाँ, सुना है राजा नरवर्म बड़े वीर और पराक्रमी थे।”
‘’राजन् ! अनेक राजाओं को अपने अधीन करने वाले राजा एक दिन एक सद्गुरु आचार्य के दर्शन करने गये। उनका उपदेश सुना तो मन विरक्त हो गया।"
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अश्वसेन-"बड़े भव्य आत्मा थे।" "महाराज ! उन्होंने अपने पुत्र प्रसेनजित को राज्य सौंपकर दीक्षा ग्रहण कर ली।"
राजा अश्वसेन-"धन्य है उन्हें ! जिस राज्य के लिए मनुष्य अपने प्राणों की बाजी लगा देता है। भयंकर युद्ध करके जिस राज्य को प्राप्त करता है, उसे तुच्छ समझकर त्याग देना सचमुच महान् त्याग है। धन्य है उन्हें।" सभी सभासद-"धन्य है उनके वैराग्य को।"
राजा-"हाँ, तो आगे बताओ।"
दूत-"महाराज ! उन महाराज नरवर्म के पुत्र प्रसेनजित राजा अभी राज्य का पालन करते हैं। महाराज प्रसेनजित की एक देव कन्या समान पुत्री है-प्रभावती।"
राजा (मुस्कुराकर)-"हाँ, कन्या सुन्दर है, सुयोग्य भी होगी.........तो........?" राजा ने जिज्ञासा की।
दूत-"महाराज ! जैसे फूलों की सुगंध से आकृष्ट होकर भँवरे आते हैं, वैसे प्रभावती के गुण व रूप की प्रशंसा सुनकर अनेक राजकुमार वहाँ आये, परन्तु उसने किसी को भी पसन्द नहीं किया ?"
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राजा-"क्यों? क्या वह विवाह करना नहीं चाहती?"
दूत-"राजन् ! बात यह है, प्रभावती एक बार कौमुदी महोत्सव के दिन उद्यान में गई। चन्द्रमा की शीतल चाँदनी में वह सरोवर के तट पर बैठी थी। तभी वहाँ कुछ गंधर्व कन्याएँ स्नान करने आईं। वहाँ वे नृत्य करती हुई एक गीत गा रही थीं। जिसका भाव था इस धरती पर पार्श्वकुमार साक्षात् काम के अवतार हैं। दिव्य रूप, दिव्य गुण, अनन्त बली, अद्भुत रूप-लावण्यशाली पार्श्वकुमार को जो प्राप्त करेगी, उस नारी का जीवन धन्य है।
गंधर्व बालाओं का गीत सुनकर प्रभावती तो जैसे पार्श्वकुमार की ही हो गई। उसने संकल्प किया-"पार्श्वकुमार के सिवाय संसार के सब पुरुष मेरे भाई तुल्य हैं। वे ही मेरे प्राणाधार होंगे।"
राजा अश्वसेन (मुस्कराए)-"तो इसलिए आप आये हैं !" दूत-''महाराज ! अभी मेरी बात अधूरी है...........आगे सुनिए।"
राजा-"सुनाइये !'' दूत-"कुशस्थल के निकट कलिंग देश का यवन राजा बड़ा पराक्रमी और दुर्जेय योद्धा है। उसने जब प्रभावती के रूप सौन्दर्य की चर्चा सुनी तो दूत के साथ कहलाया-"तुम्हारी कन्या यवनराज को सौंप दो। अन्यथा तुम्हारे राज्य का विध्वंस कर डालूँगा।"
राजा प्रसेनजित ने उत्तर दिया-"राजहंसी मोती चुगती है। कभी कंकर नहीं चुग सकती।"
क्रुद्ध होकर यवनराज ने कुशस्थल पर आक्रमण कर दिया। उसकी विशाल यवन सेना ने आकर नगर को चारों तरफ से घेर लिया है। पूरा नगर बंदीघर जैसा बना हुआ है।"
राजा अश्वसेन-"यह तो अन्याय है। अनीति है।" - "उस अन्याय-अनीति का प्रतिकार करने के लिए सहायता की जरूरत है। आप जैसे नीतिमान राजा ही धर्म की रक्षा करते हैं। विपत्ति में घिरे मित्रों की सहायता करते हैं।"
तलवार की मूठ पर हाथ रखते हुए महाराज अश्वसेन बोले-"क्षत्रिय का धर्म है अन्याय से लड़ना और न्याय नीति की रक्षा करना।" ।
फिर कहा-"आप निश्चिंत हो जाइए। हम तुरन्त ही सहायता के लिए सेना लेकर पहुँचते हैं।"
राजा ने सेनापति को आदेश दिया-"रणभेरी बजा दो ! तुरन्त सेना को तैयार करो। हम युद्ध के लिए तैयार होकर आते हैं।"
रणभेरी बजी। चारों तरफ सैनिक दौड़ने लगे। अपने-अपने शस्त्र उठाने लगे।
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महल में आत्म-चिंतन में लीन बैठे पार्श्वकुमार ने रणभेरी सुनी। चौंककर खड़े हो गये। सेवक से पूछा-"क्या बात है? अचानक रणभेरी क्यों बजी।"
सेवक-"महाराज! युद्ध की तैयारी का आदेश हुआ है।" । पार्श्वकुमार ने पिता के पास आकर प्रणाम किया-"पिताश्री ! क्या बात है ? किस दैत्य, राक्षस या अधम पुरुष ने आपका अपराध किया है, जिसके लिए आप युद्ध सज्जित हो रहे हैं ?"
प्रसेनजित राजा की बात सुनाकर राजा अश्वसेन बोले-"वत्स ! किसी विपदाग्रस्त की सहायत करना और अन्याय का प्रतिकार करना हमारा राजधर्म है न?"
पार्श्वकुमार-"पिताश्री! यह तो सत्य है। अन्याय का प्रतिकार नहीं करना भी अन्याय है, अधर्म है, कायरता है।"
"वत्स ! इसीलिए हमने युद्धभेरी बजाई है।" पार्श्व-"किन्तु युवा पुत्र के बैठे पिता युद्ध में जाये, क्या यह उपयुक्त है ? पुत्र की शोभा है इसमें ?"
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राजा-“वत्स ! तुमको तो क्रीड़ा करते देखकर ही मुझे प्रसन्नता होती है। युद्ध करना तो मेरा ही कार्य है न !".
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पार्श्व - "पिताश्री ! मैं तो युद्ध को भी क्रीड़ा ही समझता हूँ। मैंने युद्धविद्या किसलिए सीखी है ? क्या मेरे पराक्रम पर आपको भरोसा नहीं है ?"
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पिता - " वत्स ! तुम्हारे बल पराक्रम पर कौन सन्देह कर सकता है। किन्तु मैं अभी तुमको युद्ध में नहीं भेजना चाहता।"
पार्श्व – “पिताश्री ! विश्वास रखिए, मैं ऐसा युद्ध करूँगा कि एक भी सैनिक का खून न बहे और न्याय नीति की रक्षा भी हो जाये।"
राजा (आश्चर्य के साथ) - " वत्स ! तुम जो कहते हो, वही कर सकते हो...... परन्तु....।”
पार्श्व – “पिताश्री ! किन्तु परन्तु कुछ नहीं है। आप निश्चिंत होकर धर्माराधना कीजिए। मुझे आशीर्वाद दीजिए। "
पिता का आशीर्वाद प्राप्त कर विशाल सेना के साथ पार्श्वकुमार ने प्रस्थान किया। मार्ग में सेना ने रात्रि विश्राम किया ।
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प्रातः प्रस्थान के लिए निकले तभी आकाश से एक दिव्य रथ उतरा। (उसमें चार बलिष्ठ सुन्दर श्वेत घोड़े जुते हुये थे। सूर्य के रथ के समान दिव्य तेज किरणें फूट रहीं थीं ।)
एक दिव्य शस्त्रधारी सारथी रथ से उतरकर पार्श्वकुमार को प्रणाम करता है - " मैं सौधर्मेन्द्र का सारथी प्रणाम करता हूँ।"
(पार्श्वकुमार ने हाथ उठाकर आशीर्वाद दिया ।)
सारथी - "देव ! इन्द्र महाराज ने निवेदन किया है, यद्यपि आप अनन्तबली हैं। आपकी अंगुली हिलते ही तीन लोक कंपायमान हो सकता है। आपको किसी की सहायता की अपेक्षा नहीं है। फिर भी भक्ति भावना के वश इन्द्रदेव ने दिव्य शस्त्रों से सज्जित यह दिव्य रथ भेजा है। इस पर विराजने का अनुग्रह करें।"
पार्श्वकुमार रथ पर आसीन होते हैं। दिव्य रथ सूर्य के रथ की तरह धरती से ऊपर उठकर चलने लगा। धरती पर हाथी, घोड़े, रथ, पैदल सैनिकों की विशाल सेना पीछे-पीछे चल रही थी । कुशस्थल के बाहर आकर सीमा पर पड़ाव डाला ।
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देवताओं ने एक रमणीय उद्यान में भव्य महल बनाया। पार्श्वकुमार महल में ठहरे। प्रातः दूत को बुलाकर कहा-"यवनराज के पास जाकर हमारा सन्देश दो।"
दूत यवनराज के पास आया। नमस्कार कर बोला-"महाराज प्रसेनजित के मित्र महाराज अश्वसेन के पुत्र पार्श्वकुमार का मैं दूत हूँ।"
यवनराज ने घूरकर देखा-"किसलिए आये हो ? युद्ध से डरकर समर्पण करने?"
दूत (हँसकर)-"हे यवनराज ! जब तक जंगल में केसरी सिंह आकर नहीं हुँकारता तब तक ही क्षुद्र प्राणी उछल-कूद मचाते हैं। आपको पता होगा, पार्श्वकुमार के समक्ष शक्रेन्द्र स्वयं आकर नमस्कार करता है। उनकी कृपा दृष्टि की इच्छा करता है। पार्श्वकुमार अत्यन्त दयालु हैं। खून की एक बूंद भी बहाना नहीं चाहते। शत्रु-मित्र सबके प्रति उनके मन में करुणा भाव हैं।"
यवनराज-"दूत ! व्यर्थ की बड़ाई मत करो। दया, करुणा की बात तो कायर आदमी करते हैं। तुम्हारा स्वामी वीर है तो कहो युद्धभूमि में आ जाए।" ___ दूत-"युद्धभूमि में तो आ ही गये हैं। उनके हाथ का एक अमोघ बाण ही तुम्हारी सेना में प्रलय मचा सकता है। किन्तु तुम्हें एक अवसर दिया जाता है, यदि अपनी कुशल चाहते
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हो तो उनके समक्ष आकर क्षमा माँग लो। अन्यथा नीति-अनीति का फैसला युद्धभूमि में तो होगा ही।" ____ यवनराज क्रोध में आकर बोला-"मूर्ख ! कायर ! अपने स्वामी को कहो, भुजाओं में बल है तो मैदान में आये।"
दूत-“यवनराज ! हमारे स्वामी की दया को तुम दुर्बलता समझने की मूर्खता मत करो। युद्ध का परिणाम विनाश होता है। इसलिए एक अवसर तुमको दिया जा रहा है।"
दूत की बातें सुनकर सभासद क्रोधित हो उठे। खड़े होकर बोले-"मूर्ख ! तू अपने स्वामी का दुश्मन है क्या ? क्यों यवनराज को क्रोधित कर रहा है। जैसे साँप और सिंह को उत्तेजित करने वाला अपनी मौत पुकारता है, वैसा ही तू दीखता है।"
तब यवनराज के वृद्ध मंत्री ने उठकर कहा-"सभासदो ! अपने स्वामी का द्रोही यह नहीं, किन्तु आप हैं।" ___यवनराज चकित होकर मंत्री की तरफ देखता है। मंत्री बोलता है-"स्वामी ! पार्श्वकुमार कोई सामान्य पुरुष नहीं, वह अनन्तबली तीर्थंकर पदधारी हैं। हजारों देव-देवेन्द्र उनकी सेवा करते हैं। वासुदेव और चक्रवर्ती से भी अधिक बली हैं। ऐसे लोकोत्तर पुरुष से टकराना पर्वत से टकराने जैसा है।"
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मंत्री ने हाथ का इशारा करके कहा-"जरा अपनी छावनी से बाहर निकलकर योजनों में फैली उनकी सेना को तो देखो !" यवनराज बाहर आता है। पर्वत की चोटी पर चढ़कर पार्श्वकुमार की सेना को देखता है। हाथी, घोड़े रथ, पैदल सैनिक दूर-दूर तक घूम रहे हैं।
मन्त्री ने बताया-"वह देखें महाराज ! पार्श्वकुमार के लिये देवताओं ने दिव्य महल की रचना की है। वे अद्भुत और अजेय हैं।"
भयभीत होकर यवनराज ने पूछा-"मंत्रीश्वर ! फिर हम क्या करें?" मंत्री-"राजन् ! आप उनकी शरण में जाइए। क्षमा माँगिए।"
यवनराज उपहार सजाकर मंत्री आदि के साथ पार्श्वकुमार की छावनी में आता है। पार्श्वकुमार को देखकर चकित रह गया-"अहा ! क्या यह कोई देव पुरुष हैं ? आँखों में कैसी करुणा है ? चेहरे पर कितनी प्रसन्नता है!"
फिर हाथ जोड़कर कहता है-“हे देव ! मुझे क्षमा करें। मैं भयभीत होकर आया था, किन्तु अब मेरा मन बहुत शांति और अभय का अनुभव कर रहा है।"
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____पार्श्वकुमार मुस्कराकर कहते हैं-"यवनराज ! मेरे मन में आपके प्रति क्रोध है ही नहीं। तो क्षमा क्या करूँ? मैं तो सिर्फ यह चाहता हूँ कि आप अन्याय, अनीति का मार्ग छोड़ दें। युद्ध की जगह शांति और द्वेष की जगह प्रेम का व्यवहार सीखें।"
यवनराज-"स्वामी ! आप आज्ञा दीजिए मुझे क्या करना है ?" ___पार्श्वकुमार-"आप प्रसेनजित राजा से क्षमा माँगकर उनके साथ मित्रता स्थापित करें। अपने राज्य में जाकर न्यायपूर्वक प्रजा का पालन करें। न तो मुझे आपका राज्य चाहिए और न ही आपको सेवक बनाना है।"
यवनराज-"धन्य है आपकी उदारता और महानता। बिना युद्ध किये ही आपने मुझे अपना सेवक बना लिया।"
सैनिकों ने जाकर राजा प्रसेनजित को समाचार दिया-"महाराज ! चमत्कार हो गया ! पार्श्वकुमार ने बिना युद्ध किये ही यवनराज को अपने अधीन कर लिया है।" ____ प्रसेनजित राजा अनेक प्रकार के उपहार लेकर पार्श्वकुमार के पास आया। हाथ जोड़कर बोला-"स्वामी! आपने तो अभूतपूर्व काम कर दिया। भयंकर नरसंहार से भी जो काम नहीं बनता, वह अपने प्रभाव से सहज ही बना दिया।" ____पार्श्वकुमार-"ये आपके मित्र यवनराज हैं।"
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यवनराज और प्रसेनजित दोनों मित्र की तरह परस्पर गले मिलते हैं। एक-दूसरे से क्षमा माँगते हैं। उपहारों का आदान-प्रदान करते हैं।
राजा-"आप कृपा कर मेरी राजधानी को पवित्र कीजिए।"
पार्श्वकुमार हाथी पर बैठकर नगरी में पधारते हैं। पीछे दोनों राजा और उनकी विशाल सेना आ रही है। __प्रभावती ने महलों के गवाक्ष से पार्श्वकुमार को देखा-"जैसा सुना था उससे हजार गुना सुन्दर ! अद्भुत !"
वह हाथ जोड़कर प्रार्थना करती है-'"हे प्रभु ! आप जैसा स्वामी जिसे मिले उसका जीवन धन्य-धन्य हो जाता है।"
फिर भी उसे चिंता थी-"स्वामी ! पिताश्री की प्रार्थना स्वीकार करेंगे या नहीं?"
फिर सोचती है-'यदि मुझे स्वीकार नहीं किया तो मैं आजीवन कुमारी रहूँगी। इन्हीं का ध्यान-पूजन करके जीवन बिताऊँगी।'
राजसभा में स्वागत समारोह करके प्रसेनजित ने प्रार्थना की-“हे महामहिम ! अब मेरी पुत्री की प्रार्थना स्वीकार कीजिए।"
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पार्श्वकुमार-“राजन् ! अभी तो मैं पिताश्री की आज्ञा से आपकी सहायता के लिए आया हूँ। विवाह की बात यहाँ नहीं हो सकती।"
प्रसेनजित-"स्वामी ! आपका कथन उचित ही है। मैं आपके साथ वाराणसी जाकर महाराज अश्वसेन से प्रार्थना करूँगा।" ____ पार्श्वकुमार के साथ राजा प्रसेनजित भी वाराणसी आया। प्रसेनजित ने राजा अश्वसेन से प्रार्थना की "हे स्वामी ! मेरी पुत्री प्रभावती का मनोरथ आप ही पूर्ण कर सकते हैं।"
राजा अश्वसेन ने पार्श्वकुमार की तरफ देखा-"वत्स ! राजा प्रसेनजित की प्रार्थना स्वीकार करो।" ___पार्श्वकुमार-"पिताश्री ! मुझे जिस परिग्रह का त्याग ही करना है उसे स्वीकार करने से क्या लाभ है ?" माता-पिता-"पुत्र ! तुम निस्पृह और वीतराग हो, हम जानते हैं। परन्तु माता-पिता का मनोरथ पूर्ण करना भी पुत्र का कर्तव्य है।" माता वामादेवी ने कहा-"वत्स! एक बार तुम्हें विवाहित देखकर मेरी मनोभावना पूरी हो जायेगी।"
सबका आग्रह मान्य कर पार्श्वकुमार ने प्रभावती के साथ पाणिग्रहण किया। दोनों की सुन्दर जोड़ी देखकर माता-पिता तथा परिजन हर्ष से नाच उठे।
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कमठ का जीव अनेक योनियों में भटकता हुआ एक दरिद्र ब्राह्मण के घर उत्पन्न हुआ। जन्म लेते ही उसके माता-पिता मर गये। वह गलियों में भटकता, भीख माँगता राजमार्ग पर पड़ा रहता। उसकी दुर्दशा देखकर लोग उसे 'कमठ' (कर्महीन) कहने लग गये ।
एक बार कोई संन्यासी वहाँ आया। कमठ ने उनसे पूछा - "बाबा ! ये धनवान लोग मेवा-मिष्ठान्न खाते हैं, महलों में रहते हैं और मैं दाना-दाना माँगता हूँ फिर भी पेट नहीं भरता। ऐसा क्यों है ?"
संन्यासी - "यह सब पुण्यों का खेल है। इन्होंने पूर्वजन्म में तप जप, दान किया है। उसी के फलस्वरूप यहाँ आनन्द करते हैं।"
कमठ–‘“बाबा ! क्या मैं भी तप कर सकता हूँ ? कैसे करूँ ?”
संन्यासी ने उसे तापस दीक्षा दे दी और कहा - "एकान्त में जाकर तप कर । तप से सब कुछ मिलता है।'
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घूमता- घूमता कमठ तापस वाराणसी गंगा नदी के तट पर आकर तप करने लगा।
एक दिन पार्श्वकुमार महलों में बैठे थे। देखा, सैकड़ों नर-नारी गंगा तट की तरफ जा रहे हैं। किसी के हाथ में फूलों के टोपले हैं, किसी के हाथों में प्रसाद है।
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पार्श्वकुमार ने द्वारपाल से पूछा-"लोगों का झुंड कहाँ जा रहा है? क्या कोई उत्सव है?" द्वारपाल-"स्वामी ! नगर के बाहर कमठ नामक एक तापस पंचाग्नि तप कर रहा है। लोग तापस के दर्शन, पूजन करने जा रहे हैं।" ___पार्श्वकुमार ने ध्यान लगाया। अपने तथा कमठ के पिछले नौ जन्मों के दृश्य चिन्तन में उभर गये।
१. कमठ तापस को मरुभूति झुककर नमस्कार करता है। वह उस पर पत्थर मारता है। २. हाथी भव-हाथी सरोवर के दलदल में फँसा है। उड़ता लम्बा साँप डंक मार-मारकर घायल कर रहा है। ३. सहस्रार देवलोक में देव बने हैं। ४. राजा किरणवेग बने और उग्र तपस्या की एवं विषधर सर्प ने डंक लगाया। ५. बारहवें देवलोक में देव बने। ६. वजनाभ राजा बनकर दीक्षा ली। भील ने छाती में तीर मारकर घायल कर दिया। ७. मध्य ग्रेवेयक देव विमान में देव बने। ८. सुवर्णबाहु चक्रवर्ती बने, एक खूखार सिंह के रूप में कमठ के जीव ने उपद्रव किया। ६. प्रांणत देवलोक में देव बने।
"अच्छा ! अब यहाँ तापस बना है। चलो देखते हैं।"
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- पार्श्वकुमार घोड़े पर सवार होकर गंगा नदी के तट पर पहुंचे। वहाँ पहुँचकर उन्होंने देखा तापस के पूर्व-पश्चिम चारों दिशाओं में बड़ी-बड़ी लकड़ियाँ जल रही हैं। तापस बीच में बैठा है। नगर जनों का झुंड चारों तरफ खड़ा है।
" पार्श्वकुमार ज्ञान बल से देखते हैं कि एक बड़े लक्कड़ में लम्बा-सा नाग है। लक्कड़ आग में जल रहा है-"अरे ! यह अनर्थ ! यह कैसा अज्ञान तप है !" करुणा से द्रवित पार्श्वकुमार ने तापस से कहा-"पंचेन्द्रिय जीवों को आग में होम कर आप यह कैसा तप कर रहे हैं।"
तापस ने उत्तेजित होकर उत्तर दिया-"कुमार ! अभी तुम बालक हो। तप के विषय में तुम नहीं, हम तापस ही समझते हैं। तुम क्या जानो कि मेरी पंचाग्नि में कोई जीव जल रहा है ?" पार्श्वकुमार के बहुत समझाने पर कि उस लक्कड़ में सर्प जल रहा है, तापस नहीं
माना।
तब पार्श्वकुमार ने सेवकों को आदेश दिया-"उस लक्कड़ को बाहर निकालो ! उसमें एक नाग जल रहा है।"
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सेवकों ने लाठियों से लक्कड़ को कुण्ड से बाहर निकाला। कुछ लोगों ने उस पर पानी डालकर आग बुझा दी। एक व्यक्ति ने सावधानी से लक्कड़ फाड़ा।
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तापस "राजकुमार ! हमारे तप में विघ्न मत डालो।”
पार्श्व - "यह कैसा है तप ! जिसमें जीवों की घात होती हो, वह तप क्या तप होता है ? तप के नाम पर तुम कितने जीवों की घात करते जा रहे हो, देखो। "
तब तक सेवक ने लक्कड़ को फाड़ लिया तो उसमें से आधा जला एक काला नाग निकला । नाग का शरीर आधा जल गया था। वह ताप के मारे तड़फ तड़फकर भूमि पर लोट-पोट हो रहा था ।
पार्श्वकुमार ने इशारा किया - "देखो ! तुम्हारी धूनी में इतना बड़ा नाग जल रहा था। क्या यही तुम्हारा धर्म है। यही तुम्हारा तप है ?"
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" वहाँ खड़े सभी लोग चकित होकर देखते हैं। लोग तपस्वी को धिक्कारते हैं-"धिक्कार है तुम्हारे तप को। नागदेव तुम्हारी धूनी में जल रहे थे और तुम्हें पता तक नहीं ! थू! थू!!"
तापस भी चुप होकर नीचे सिर झुका लेता है। आँखें लाल हो जाती हैं। पार्श्वकुमार घोड़े से उतरकर नाग के पास आते हैं।
"नाग ! मैं जानता हूँ तुम भयंकर वेदना भोग रहे हो। मन को शांत रखो ! मंत्र सुनो, मंत्र पर श्रद्धा करो।" फिर उन्होंने सेवक को आज्ञा दी। सेवक ने जलते हुए नाग को मधुर स्वर में तीन बार नवकार मंत्र सुनाया-"नमो अरिहंताणं........नमो सिद्धाणं............।" नाग ने श्रद्धापूर्वक नवकार मंत्र सुना और पीड़ा सहते-सहते समतापूर्वक प्राण त्यागे।
नाग के शरीर से एक हलका नीला-सा प्रकाश निकलकर ऊपर की ओर उठा। नाग का जीव धरणेन्द्र नामक नागराज बना।"
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नागराज ने ज्ञानबल से देखा-'अहो ! मेरे तारणहार उपकारी तो यह पार्श्वकुमार हैं। इन्हीं के प्रभाव से मैं यहाँ नागकुमारों का इन्द्र बना हूँ।"
नागराज ने आकाश से पार्श्वकुमार को प्रणाम किया। पार्श्वकुमार और नाग के प्रसंग को देखकर लोगों ने "पार्श्वकुमार की जय !" बोली।
चारों तरफ गूंजने लगा-"पार्श्वकुमार की जय ! धर्म की जय !"
कमठ क्रोध में फुकारता हुआ उठा-"राजकुमार ! तुमने मेरी तपस्या में विघ्न डाला है। फल भुगतने को तैयार रहना। बदला लूँगा।" और वह पाँव जमीन पर पटकता हुआ जंगल की तरफ चला गया। अनेक प्रकार का अज्ञान तप करके मरकर वह मेघमाली नामक असुर देव बना।
इस घटना के बाद पार्श्वकुमार का चिन्तन नई दिशा में मुड़ गया। वे सोचने लगे-"धर्म पर अज्ञान का आवरण छा रहा है। हिंसक यज्ञ व अज्ञान तप आदि में लोग भटक रहे हैं। उन्हें सत्य धर्म का मार्ग दिखाना चाहिए।" उन्होंने संसार त्यागकर दीक्षा लेने का संकल्प किया।
ब्रह्मलोक नामक पाँचवें स्वर्ग के नव लोकान्तिक देवों ने आकर प्रार्थना की-'हे प्रभु! आपका पवित्र संकल्प संसार का कल्याण करेगा। धर्मतीर्थ का प्रवर्तन कीजिए।"
पार्श्वकुमार ने वार्षिक दान दिया। वे एक करोड़ आठ लाख स्वर्ण-मुद्राएँ प्रतिदिन दान करते थे। धनी, गरीब, स्त्री, पुरुष जो भी द्वार पर आता वह मन इच्छित दान प्राप्त करता। इस तरह एक वर्ष में तीन सौ अट्ठासी करोड़ अस्सी लाख स्वर्ण मुद्राएँ दान में दीं। ___अभिनिष्क्रमण का समय निकट आने पर हजारों देव तथा राजा पार्श्वकुमार का दीक्षा दिवस मनाने एकत्र हुए। उस समय शीत ऋतु का दूसरा महीना और तीसरा पक्ष चल रहा था। पौष कृष्ण एकादशी के दिन पूर्वा में एक विशाल शिविका में बैठे। आगे मनुष्य तथा पीछे देवगण मिलकर शिविका को कंधों पर उठाये चल रहे थे। हजारों नर-नारी तथा असंख्य देव-देवी पुष्प वर्षा कर रहे थे। शिविका आश्रमपद उद्यान में पहुंची।
पार्श्वकुमार ने अपने दिव्य वस्त्र तथा आभूषण उतारे। शक्रेन्द्र ने उन्हें रत्नथाल में ग्रहण किया। फिर केश लुंचन किया। इन्द्र ने प्रभु के शरीर पर देवदूष्य (पीला केसरिया रंग का दुपट्टा) रखा। वृक्ष के नीचे खड़े होकर प्रभु ने 'नमो सिद्धाणं' कहकर नमस्कार किया। करेमि सामाइयं......सव्वं सावज्जं जोग पच्चक्खामि......। ''मैं आज से सभी सावध कर्मों का त्याग करता हूँ।"
प्रभु के साथ तीन सौ मनुष्यों ने चारित्र ग्रहण किया।
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दीक्षा के दिवस स्वीकार किया हुआ अट्ठम तप परिपूर्ण होने पर प्रभु विहार करते हुए कौपकट नगर पधारे। वहाँ धन्य नाम के गृहस्थ के घर पर भिक्षा के लिए पधारे। गृहस्थ ने भावपूर्वक प्रभु को खीर का दान किया। उसी समय देवताओं ने आकाश में "अहोदानं अहोदानं" घोषित किया और पाँच दिव्यों की वर्षा की। ____एक बार प्रभु कोशाम्ब वन में ध्यानलीन थे। धरणेन्द्र देव ने आकर प्रभु की वन्दना की-"अहो ! प्रभु के मस्तक पर इतने तेज सूर्य किरणें।" देव ने प्रभु के मस्तक पर तीन दिन तक सर्प के फन रूप छत्र खड़ा कर दिया। कहा जाता है इसी कारण उस स्थान का नाम अहिछत्रा प्रसिद्ध हो गया।
विहार करते हुए प्रभु एक तापस आश्रम के पास आये। प्रभु कूप के निकट एक वट-वृक्ष के नीचे ध्यान-मुद्रा में खड़े हो गये।
मेघमाली देव आकाशमार्ग से कहीं जा रहा था। नीचे उसने ध्यानस्थ पार्श्व प्रभु को देखा। अवधिज्ञान लगाया। बैर की उग्र भावना जाग्रत हुई। क्रोध का दावानल भभक प्रभु के छद्मस्थ अवस्था में एक सुन्दर प्रसंग का वर्णन भी मिलता है कि प्रभु विहार करते हुए कलि पर्वत के नीचे कादम्बरी वन में कुंड सरोवर के किनारे काउसग्ग मुद्रा में ध्यानस्थ थे, तब एक वन हाथी आकर सरोवर में स्नान कर जिन चरणों में कमल-पुष्पों से पूजन-अर्चन करता है। वह स्थान कलिकुंड तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। हाथी मरकर देव बना एवं उस तीर्थ का उपासक बना।
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उठा-"यही मेरा शत्रु है। पिछले जन्मों में इसने बार-बार मुझे कष्ट दिये। मेरी दुर्दशा कराई। आज उन सबका बदला लूँगा।" उसने अपने माया बल से केसरी सिंहों को उत्पन्न कर दिया। पाँच-छह सिंह दहाड़ते, पूँछ उछालते एक साथ प्रभु पर झपटे। नाखूनों से पार्श्व प्रभु के शरीर को घायल कर दिया। दहाड़े लगाईं। गर्जना से जंगल काँप उठा। किन्तु प्रभु तो मूर्ति की तरह ध्यान में स्थिर खड़े रहे।
राक्षस आकाश में खड़ा सोचता है-'यह तो अभी भी स्थिर खड़ा है। मेरे सब प्रयत्न व्यर्थ हो रहे हैं।' क्रोध में होठ काटता दाँत किटकिटाता राक्षस हुँकारता है-"आज इस शत्रु का संहार करके ही रहूँगा। बहुत जन्मों से तुमने मुझे कष्ट पहुँचाया है। आज सब पुराना हिसाब चुकता करके दम लूँगा।"
क्रोधान्ध हो वह अपनी देव शक्ति द्वारा आकाश में गहरे काले बादल बनाकर कल्पान्तकाल के मेघ समान घनघोर वर्षा करने लगा। मोटी-मोटी जलधारा बरसने लगी। धरती पर चारों तरफ बाढ़ आ गई। काली-काली घटाएँ छाने लगीं। बिजलियों की चकाचौंध
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से जंगल चमक उठा । वृक्ष पानी में डूब गये। पहले जल प्रभु के घुटनों तक आया फिर बढ़ता-बढ़ता कंधों तक आ गया। प्रभु अभी भी अविचल खड़े रहे।
तभी स्वर्ग में धरणेन्द्र देव का आसन डोलने लगा। देव - "यह क्या हो रहा है ? कोई शत्रु आ रहा है या किसी महापुरुष पर संकट आया है ?"
धरणेन्द्र ने ध्यान लगाया और अचानक बोलने लगे- “ अनर्थ ! घोर अनर्थ ! परम उपकारी प्रभु संकट में हैं। दुष्ट असुर मेघमाली उपद्रव मचा रहा है।" पास बैठी देवी पद्मावती बोलीं-‘“स्वामी ! चलें हम प्रभु की सेवा में।" दोनों ही दिव्य गति से नीचे आते हैं। प्रभु को नमस्कार करते हैं- "हे देवाधिदेव ! यह दुष्ट आपको कष्ट पहुँचा रहा है। "
तभी एक विशाल कमल प्रभु के नीचे उठता है। प्रभु जल से ऊपर उठते हैं। नीचे से एक नागदेव प्रकट होता है। प्रभु के समूचे शरीर को लपेटता हुआ मस्तक पर अपने सात फन फैलाकर छत्र बनाता है। ज्यों-ज्यों जल बढ़ता है। कमल पर स्थित प्रभु का आसन ऊँचा उठता जाता है।
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तभी धरणेन्द्र देव ने मेघमाली को ललकारा-"अरे दुष्ट ! क्या अनर्थ कर रहा है ? क्षमासागर करुणावतार प्रभु को कष्ट देकर घोर पापकर्म कर रहा है। दुष्ट ! यह वज अभी तेरा संहार कर डालेगा। किन्तु क्षमामूर्ति प्रभु के समक्ष रहने से मैं तुझ पर प्रहार नहीं कर सकता। अपनी माया समेट ले।"
मेघमाली देखता है, सामने धरणेन्द्र देव खड़े हैं।
धरणेन्द्र देव कहता है-"दुष्ट ! प्रभु ने तो तुझ पर कृपा कर हिंसा पाप से बचाया था। जन्म-जन्म में तुझ पर क्षमा का अमृत वर्षाया। किन्तु तू हर जन्म में इनको कष्ट देता रहा और क्रोध की आग में झुलसता रहा। अब रुक जा ! अन्यथा भस्म कर डालूँगा।"
क्रोधित धरणेन्द्र देव को देखकर मेघमाली भय से काँप उठा। उसने तुरन्त अपनी माया समेट ली और प्रभु के चरणों में आकर माफी माँगने लगा-"क्षमा करो प्रभु ! मेरा अपराध क्षमा करो ! मैंने आपको नव जन्मों तक कष्ट दिये और आपने मुझ पर क्षमा की। आज मेरी रक्षा करो। धरणेन्द्र देव के क्रोध से मेरी रक्षा करो प्रभु !"
प्रभु पार्श्वनाथ तो अभी भी ध्यान में स्थिर थे। उनके मन में न धरणेन्द्र देव पर राग था और न ही कमठ पर द्वेष । उपसर्ग शांत हो गया।
कमठे धरणेन्द्र च, स्तोचितं कर्म कुर्वति। प्रभु स्तुल्य मनोवृत्तिः, पार्श्वनायः श्रियेस्तु तः।।
-आचार्यश्री हेमचन्द्र सूरि प्रणीत सकलार्हत स्तोत्र, श्लोक-२५
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दोनों देव अपने-अपने स्थान पर चले गये। प्रभु पार्श्वनाथ ने वहाँ से विहार किया।
वाराणसी के पास आश्रमपद उद्यान में पधारे। धातकी वृक्ष (आँवले का पेड़) के नीचे प्रभु ध्यान में लीन खड़े थे। प्रभु पार्श्वनाथ को दीक्षा लिये तिरासी दिन बीत चुके थे। चौरासीवाँ दिन चल रहा था। वह गर्मी का पहला महीना और प्रथम पक्ष था। चैत्र कष्ण चतुर्थी के दिन पूर्वा के समय तेला तप का पालन करते हुए ध्यानमग्न थे। भावों की विशुद्ध श्रेणी पर आरोहण करते हुए प्रभु को केवलज्ञान-दर्शन उत्पन्न हुआ। ___ हजारों देवों का समूह आकाश से धरती पर आने लगा। प्रभु को वन्दना कर कैवल्य महोत्सव मनाया। समवसरण की रचना की।
उद्यानपाल ने राजा अश्वसेन को सूचना दी-"महाराज ! उद्यान में विराजित प्रभु पार्श्वनाथ को केवलज्ञान प्राप्त हुआ है। देवगण उत्सव मना रहे हैं।"
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राजा अपने परिवार के साथ दर्शन करने आया। हजारों जन प्रभु की देशना सुनते हैं। भगवान ने धर्म के स्वरूप पर प्रथम प्रवचन दिया। हिंसा-त्याग, असत्य-त्याग, चौर्य-त्याग तथा परिग्रह-त्याग रूप चातुर्याम धर्म द्वारा आत्मसाधना का मार्ग दिखाया।
विशेष रूप से भगवान ने श्रावक के १२ व्रत, ६० अतिचार, १५ कर्मादान आदि के विस्तृत वर्णन के साथ धर्म स्वरूप प्रतिपादन किया।
भगवान की देशना सुनकर राजा अश्वसेन, वामादेवी, प्रभावती आदि सैकड़ों स्त्री-पुरुष दीक्षित हुये। सैकड़ों गृहस्थ श्रावक व्रत धारण करते हैं। उस समय के प्रसिद्ध वेदपाठी शुभदत्त आदि अनेक विद्वानों एवं राजकुमारों आदि ने भी भगवान की देशना से प्रबुद्ध होकर दीक्षा ग्रहण की। भगवान ने श्रावक-श्राविका, साधु-साध्वी रूप चार तीर्थ की स्थापना की। शुभदत्त (दिन्न) प्रथम गणधर बने। भगवान पार्श्वनाथ के धर्मतीर्थ में कुल आठ गणधर हुए।
परन्तु आवश्यक सूत्र में दस गण और दस गणधर कहे हुए हैं। स्थानांग सूत्र में दो अल्पायुषी होने के कारण नहीं बताये गये हैं, ऐसा टिप्पण में बतलाया है। उन आठों के नाम थे-शुभ, आर्यघोष, वशिष्ट, ब्रह्मचारी, सोम, श्रीधर, वीरभद्र और यशस्वी। 2010_03
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Shuremat
अनेक वर्षों तक विहार कर प्रभु ने धर्म का उपदेश दिया। हजारों लोगों ने दीक्षा ग्रहण की। अंत समय में प्रभु तेंतीस मुनियों के साथ सम्मेतशिखर गिरि पर पधारे। अनशन धारण कर प्रभु पद्मासन में विराजमान हो गये। ध्यान-मुद्रा में स्थित प्रभु ने श्रावण शुक्ला अष्टमी के दिन निर्वाण प्राप्त किया। - भगवान पार्श्वनाथ ३० वर्ष तक गृहस्थ जीवन में रहे, तत्पश्चात् ७० वर्ष तक संयममय जीवन जीते हुए श्रावण शुक्ला अष्टमी के दिन १०० वर्ष का पूर्ण आयुष्य भोगकर सम्मेतशिखर पर मोक्ष को प्राप्त हुए।
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२०६ वृद्ध कुमारिकाएँ
भगवान पार्श्वनाथ के शासनकाल की एक विशिष्ट उल्लेखनीय घटना का वर्णन जैन सूत्रों में मिलता है, जिसका उल्लेख बहुत कम लोगों ने किया है। वह है, उनके शासन में २०६ वृद्ध कुमारिकाओं की दीक्षा। भिन्न-भिन्न नगरों की रहने वाली, जीवनभर अविवाहित रहकर वृद्धावस्था प्राप्त होने पर अनेक श्रेष्ठी - कन्याओं ने समय-समय पर भगवान पार्श्वनाथ के शासन में दीक्षा ली और तप-संयम की आराधना की। परन्तु उत्तर गुणों में कुछ दोष लगने के कारण उसकी आलोचना विशुद्धि किये बिना आयुष्य पूर्ण करके उनमें से चमरेन्द्र, बलीन्द्र, व्यन्तरदेव आदि की अग्रमहिषियाँ (मुख्य रानियाँ) बनीं। उन्होंने भगवान महावीर के समवसरण में सूर्याभदेव की तरह अपनी विशिष्ट ऋद्धि-प्रदर्शन के साथ दर्शन किये, जिसे देखकर सामान्य जनता तो क्या, स्वयं गणधर गौतम भी आश्चर्य-मुग्ध हो गये । गौतम ने भगवान महावीर से उन देवियों के विषय में जब पूछा तो भगवान महावीर ने यह रहस्योद्घाटन किया कि वे विभिन्न इन्द्रों की अग्रमहिषियाँ हैं, जिन्होंने 'पुरुषादानी' भगवान पार्श्वनाथ के शासन में वृद्ध कुमारिका के रूप में दीक्षित होकर तप-संयम की आराधना की, जिस कारण इनको विशिष्ट देव ऋद्धि प्राप्त हुई ।
इन वर्णनों से एक बात स्पष्ट होती है कि भगवान महावीर के युग में भी जन-साधारण में भगवान पार्श्वनाथ के प्रति व्यापक असाधारण श्रद्धा और उनके नाम-स्मरण से लोगों के संकट निवारण एवं कार्य सिद्ध होने का दृढ़ विश्वास व्याप्त था । इसी कारण भगवान महावीर के युग में भगवान पार्श्वनाथ के लिए 'पुरुषादानी' का आदरपूर्ण सम्बोधन प्रचलित था ।
अनेक विद्वानों का मत है कि भगवान पार्श्वनाथ का चातुर्याम धर्म उस समय समग्र भारत में प्रमुख धर्ममार्ग के रूप में मान्यता प्राप्त था । तथागत बुद्ध ने भी पहले इसी चातुर्याम धर्ममार्ग को ग्रहण किया, फिर इसी के आधार अष्टांगिक धर्ममार्ग का प्रवर्तन किया।
देखें - निरयावलिका वर्ग ४ के दस देवियों के दस अध्ययन - ज्ञातासूत्र श्रुतस्कंध २, वर्ग १ से १०
नाम
लांछन
वंश
पिता
माता
च्यवन स्थान
च्यवन तिथि
जन्म-भूमि
जन्म-तिथि
दीक्षा तिथि केवलज्ञान-प्राप्ति केवलज्ञान-प्राप्ति तिथि
तीर्थंकर पार्श्वनाथ (संक्षिप्त परिचय)
निर्वाण स्थल निर्वाण-तिथि
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:
:
:
:
:
:
प्राणत
: चैत्र वदि १२
:
:
पार्श्वनाथ
सर्प
इक्ष्वाकु
अश्वसेन
वामादेवी
:
:
वाराणसी
पौष वदि १०
पौष वदि ११ वाराणसी चैत्र वदि ४
छद्मस्थ काल
आयुष्य
प्रधान गणधर
गणधरों की संख्या
साधुओं की संख्या
प्रधान साध्वी साध्वी संख्या शरीर वर्ण
शासनयक्ष
शासन यक्षिणी
:
सम्मेतशिखर
:
श्रावण शुक्ल ८
:
८४ दिन
: १०० वर्ष
:
:
शुभ (दिन्न)
१०
१६,०००
पुष्पचूला
३८,०००
:
:
:
: नील
भगवान पार्श्वनाथ के निर्वाण तथा भगवान महावीर के धर्म प्रवर्तन काल के मध्य लगभग २५० वर्ष का अन्तराल माना जाता है। इस काल अवधि में भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा में चार प्रमुख पट्टधर प्रभावशाली आचार्य होने का उल्लेख मिलता है
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:
पार्श्वयक्ष
: पद्मावती
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દિવ્ય દર્શન ટ્રસ્ટ (१) गणधर शुभदत्त (शुभ), (२) आर्य हरिदत्त, (३) आचार्य समुद्रसूरि, (४) आर्य केशी श्रमण।
आर्य श्री केशी श्रमण का समय भगवान पार्श्वनाथ के निर्वाण के १६६ से २५० वर्ष तक माना जाता है। आप बड़े ही प्रभावशाली आचार्य थे। आर्य श्री केशी श्रमणाचार्य ने अपने श्रमणसंघ की एक विराट सभा की। आचार्य केशी श्रमण ने अपने साधुओं को स्वकर्त्तव्य समझाते हुए कहा कि "श्रमणो ! आपने जिस उद्देश्य को लक्ष्य में रखकर संसार का त्याग किया था, वह समय आपके लिये आ पहुँचा है। जगत् का उद्धार आप जैसे त्यागी महात्माओं ने किया है और करेंगे। अतः धर्म-प्रचार हेतु तैयार हो जाइये।" ___ आर्य श्री केशी श्रमण का वीरतापूर्वक उपदेश सुनकर सभी श्रमणों ने कहा कि "जिस प्रकार आपका आदेश होगा, उस तरह हम धर्म-प्रचार हेतु कटिबद्ध हैं।"
आर्य श्री केशी श्रमण ने श्रमणों की योग्यता पर अलग-अलग नौ समूह बनाकर सुदूर देशों में विचरण की आज्ञा प्रदान की।
५०० मुनिओं के साथ वैकुण्ठाचार्य को तैलंग प्रान्त की ओर। ५०० मुनिओं के साथ कलिकापुत्राचार्य को दक्षिण महाराष्ट्र प्रान्त की ओर। ५०० मुनिओं के साथ गर्गाचार्य को सिन्ध सौवीर प्रान्त की ओर। ५०० मुनिओं के साथ यवाचार्य को काशी कौशल की ओर।। ५०० मुनिओं के साथ अर्हन्नाचार्य को अंग बंग कलिंग की ओर। ५०० मुनिओं के साथ काश्यपाचार्य को सुरसेन (मथुरा) प्रान्त की ओर। ५०० मुनिओं के साथ शिवाचार्य को अवन्ती प्रान्त की ओर। ५०० मुनिओं के साथ पालकाचार्य को कोंकण प्रदेश की ओर।
और स्वयं ने एक हजार मुनिओं के साथ मगध प्रदेश में रहकर सर्वत्र उपदेश द्वारा धर्म-प्रचार किया। आचार्यश्री ने निम्न सम्राटों को भी उपदेश देकर जिनधर्मानुरागी बनाया
(१) वैशाली नगरी का राजा चेटक, (२) राजगृह का राजा प्रसेन्नजीत, (३) चम्पा नगरी का राजा दधिवाहन, (४) क्षत्रियकुण्ड का राजा सिद्धार्थ, (५) कपिलवस्तु का राजा शुद्धोदन, (६) पोलासपुर का राजा विजयसेन, (७) साकेतपुर का राजा चन्द्रपाल, (८) सावत्यी नगरी का राजा अदीन शत्रु, (६) कंचनपुर नगर का राजा धर्मशील, (१०) कंपीलपुर नगर का राजा जयकेतु, (११) कौशाम्बी का राजा संतानीक, (१२) सुग्रीव नगर का राजा बलभद्र, (१३) काशी-कौशल के अठारह गणराना, (१४) श्वेताम्बिका नगरी का राजा प्रदेशी।
श्री पार्श्वनाथ सन्तानीय केशी श्रमण और भगवान महावीर के प्रथम गणधर इन्द्रभूति गौतम का मिलन श्रावस्ती नगरी के तन्दुकवन उद्यान में हुआ था और धर्म-चर्चा के पश्चात् उत्तराध्ययन सूत्र के २३वें अध्ययन के वर्णन के अनुसार केशी श्रमण ने पंचमहाव्रत को स्वीकार कर भगवान महावीर के शासन की आराधना करते हुए परमपद को प्राप्त किया।
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Gছুক্ততা
परम पूज्य आचार्य देव श्रीमद् विजय जित्तम
लिखित-सम्पादित-संजलित
EURNA
शारक्त-मुन्देश
श्रीवीतसवाबन्दना
radurx
तकीमुदी
Lodingजिलantu
-आचार्य वि.जमिनोतम.मुरि
उEEP
झरमर झरमर मोती बरस
प्रवचन
पीयूष
प.मनिशानीजनोत्तम विजयजी म.
भगवान पारवनाश
योग-वाशि
सचित्र
श्री सुशील भक्तामर स्तोत्र SHRI SUSHIL BHAKTAMAR STOTRA
आचार्यश्री प्रवचन देते हा
JETALAIRTHREE
मत्थुम and
SRIGALE
Thaleuda
सम्राटसम्प्रति
आचार्यभद्रवाह
यारिया पाना
Wein Education International 2020_09/
Yi,
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सम्पादक
जिनोत्तम सूरीश्वर जी म. सा. द्वारा -संकलित साहित्य
नवकार दोहावला
IMA
छ ऊती संकाशवाई
रामा आधारमा सभी रवावा.
% 3D
1900000
Kun
|| नमामि सादरं जिनोत्तम सूरीशं ।।
भरतचक्रवती
संक्षिप्त जीवन परिचय
- સાહિત્ય સમ્રાટ
રામાલવિયકતિત્ય
सचित्र
श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र SHRI sushiL KALYAN MANDIR STOTRA
ILLUSTRATED
न देते हुये
माता-श्री दाड़मी बाई (वर्तमान में
साध्वी श्री दिव्यप्रज्ञाश्रीजी) पिता-श्री उत्तमचन्दजी अमीचन्दजी
मरड़ीया (प्राग्वाट) जन्म-जावाल सं. २०१८, चैत्र वद-६,
शनिवार, २७ मार्च, १९६२ सांसारिक नाम-जयन्तीलाल श्रमण नाम-पू. मुनिराज श्री जिनोत्तम
विजयजी म. गुरुदेव-प. पू. आचार्य भगवंत श्रीमद्
विजय सुशीलसूरीश्वरजी म.सा. दीक्षा-जावाल सं. २०२८, ज्येष्ठ वद-५,
रविवार १५ मई, १९७१ बड़ी दीक्षा उदयपुर सं. २०२८ आषाढ़
शुक्ल-१० गणि पद-सोजत सिटी सं. २०४६,
मिगशर शुक्ल-६, सोमवार, ४
दिसम्बर १६८६ पंन्यास पद-जावाल सं. २०४६, ज्येष्ठ
शुक्ल-१०, शनिवार, २ जून १६६० उपाध्याय पद-कोसेलाव वि.सं. २०५३,
मृगशीर्षवद-२, बुधवार, २७
नवम्बर, १९६६ आचार्य पद लाटाडा वि. सं. २०५३
वैशाख शुक्ल-६ १२ मई १९८७
HIGE
जिनोत्तम दोहावली
वसीपीयन औरण
PLETERE BanmA HERE
લાક્ત હોવખત
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For Privale & Personal use only
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________________ P RAANIVITS श्लोक -24 का चित्र श्लोक-31 का चित्र श्री सुशील कल्याण मन्दिर स्तोत्र POS श्लोक-34 का चित्र श्लोक -21 का चित्र सुकृत के सहयोगी श्री संभवनाथ जैन श्वेताम्बर श्री चन्द्रप्रभु जैन नया | मूर्तिपूजक संघ, विजयवाडा मन्दिर ट्रस्ट, चेन्नई Jain Education international 2010_03