________________
त्वं तारको जिन ! कथं भविनां त एव, त्वामुद्वहन्ति हृदयेन यदुत्तरन्तः। यद्वा दृतिस्तरति यज्ज्लमेष नून
मन्तर्गतस्य मरुतः सः किलानुभावः ।।१०।। हे देव ! आप भव्यजनों को संसार-सागर से पार उतारने वाले तारक कैसे बन सकते हैं? क्योंकि भव्य जीव जब संसार-सागर से पार उतरते हैं, तब वही आपको अपने हृदय में धारण करते हैं। हाँ, समझ में आ गया। अन्दर से पवन से भरी हुई मशक जब जल में तैरती है, तब वह अन्दर में स्थित पवन के प्रभाव से ही तो तैरती हैं। उसी प्रकार हृदय में आपको धारण करने के कारण ही जीव संसार-सागर को पार करते हैं।
હે દેવ ! આપ ભવ્યજનોને સંસાર-સાગરથી પાર ઊતારનાર તારક કેવી રીતે બની શકો છો? કારણ ભવ્ય જીવ જ્યારે સંસાર-સાગરથી પાર ઊતરે છે, ત્યારે તેઓ આપને તેમના હૃદયમાં વસાવી લે છે. હા, હવે સમજાયું, અંદરથી પવનથી ભરેલી મશક જ્યારે જળમાં તરે છે, ત્યારે તે અંદર રહેલા પવનને કારણે જ તો તરે છે. તે જ પ્રકારે હૃદયમાં આપને ધારણ કરવાથી જ જીવ સંસાર-સાગરને પાર કરે છે.
O Dev! Why are you called Tarak or one who helps the worthy cross the ocean of worldly existence ? Apparently it is the devotees who install you in their pure hearts and carry you across when they cross the ocean. But now that misconception has been removed. I have understood that a leather bag filled with air floats only due to the buoyancy provided by that air inside. This indicates that beings cross the ocean of worldly existence only because you are installed in their hearts.
| चित्र-परिचय
जैसे मशक या घड़ा भीतर हवा भरी रहने के कारण पानी में डूबे बिना तैरता ही चला जाता है।
उसी प्रकार भगवान को हृदय में धारण करने वाले भव्यजन संसार रूपी सागर से तिर जाते हैं और शेष लोग संसार सागर में डूब रहे हैं।
Moldo
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org