________________
आत्म-निवेदनम्
शमण संस्कृति के स्तोत्रसाहित्य की महिमा अपार है।भक्तामर स्तोत्र Mएवं कल्याण मन्दिर स्तोत्र तो विशेष रूप में सर्वत्र आदरणीय एवं प्रशंसनीय है। इन दोनों स्तोत्रों का मेरे जीवन पर असीम प्रभाव पड़ा है। इनमें प्रयुक्त वसन्ततिलका छन्द भी मुझे बहुत पसन्द है। बाल्यकाल से ही ये दोनों स्तोत्र मुझे आकर्षित करते रहे हैं । दीक्षोपरान्त संस्कृत, प्राकृत एवं दर्शन का ज्ञानार्जन करने के पश्चात् मैं साहित्य सृजन के क्षेत्र में प्रवृत्त के हुआ। अनेक ग्रन्थों के सृजन में तल्लीन रहते हुए भी मेरे मानस में इन दोनों स्तोत्रों के यथावत् भाव को ग्रहण करके नूतन श्लोक रचना करने *
की भावना बारम्बार उदित होती रहती थी। मैं यह निश्चय नहीं कर पा . * रहा था कि क्या इसके स्वरूप को पूर्णतः नूतन रूप में प्राप्त करूँ या
मिश्रित स्वरूप में। ___ व्याकरणाचार्य, संस्कृत साहित्य रत्न-कविरत्न शम्भुदयाल पाण्डेय से * जो कि मेरी साहित्य यात्रा में परिष्कारक संशोधक एवं सम्पादक के रूप
में अहर्निश कार्यरत हैं, उनसे जब मैंने अपनी भावना बताई तब उन्होंने सुझाव दिया कि चतुर्थ चरण पादपूर्ति के रूप में लेकर नूतन रचना करें किन्तु यथासम्भव प्राचीन स्तोत्र के केन्द्रीय भाव को अपने नूतन शब्दों में इस प्रकार पिरोयें कि जिनका प्रत्येक अक्षर मन्त्र-सा बन जाए। श्री पाण्डेय की बात, मुझे सार्थक लगी किन्तु निरन्तर मन्दिर-प्रतिष्ठाओं की
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org