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दिव्यस्रजो जिन ! नमत्-त्रिदशाधिपानामुत्सृज्य रत्नरचितानपि मौलिबन्धान्। पादौ श्रयन्ति भवतो यदि वा परत्र, त्वत्संगमे सुमनसो न रमन्त एव।।२८।।
हे नाथ ! जब इन्द्र आपको नमस्कार करते हैं, तब उनकी दिव्य पुष्पमालाएँ रत्नजड़ित मुकुटों का परित्याग कर झटपट आपके श्रीचरणों का आश्रय ले लेती हैं। ठीक है; आपका समागम होने पर (सुमन) फूलमालाएँ अथवा अच्छे मन वाले सज्जन अन्यत्र नहीं रमते हैं।
હે નાથ ! જ્યારે ઈન્દ્ર આપને નમસ્કાર કરે છે, ત્યારે તેમની દિવ્ય પુષ્પમાળાઓ રત્નજડિત મુગટનો પરિત્યાગ કરીને ઝટપટ આપના શ્રીચરણોનો આશ્રય લઈ લે છે. ઠીક છે, આપનો સમાગમ થવાથી (સુમન) ફૂલમાળાઓ અથવા સારા મનવાળા સજ્જન અન્યત્ર વિહરતાં નથી.
ONaath ! When Indra, the king of gods bows at your lotus-feet to pay his homage, the divine garlands abandon his gem studded crown and get scattered at your beatific feet. It is true, indeed, that when refuge is available at your pious feet the worthy, like flowers, abandon every other place.
चित्र-परिचय
जिनेश्वर देव के चरणों में वन्दना करते इन्द्र आदि देवों के गले की दिव्य पुष्प (सुमन) मालायें निकालकर भगवान के चरणों का आश्रय ले लेती हैं।
उसी प्रकार अच्छे मन (सुमन) वाले व्यक्ति की प्रभु के प्रति प्रीति होने के कारण मन अन्यत्र कहीं नहीं रमता । वह भी आपके चरणों का आश्रय ले लेते हैं। -
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