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सामान्यतोऽपि तव वर्णयितुं स्वरूपमस्मादृशाः कथमधीश ! भवन्त्यधीशाः। धृष्टोऽपि कौशिक-शिशुर् यदि वा दिवान्धो, रूपं प्ररूपयति किं किल घर्मरश्मेः?।।३।।
हे स्वामी ! आपके अनन्त स्वरूप को साधारण रूप से भी वर्णन करने के लिये हमारे जैसे पामर प्राणी कैसे समर्थ हो सकते हैं ? दिन में अन्धा रहने वाला उल्लू क बच्चा कितना ही धीठ क्यों न हो, क्या वह प्रचण्ड किरणों वाले सूर्य के उज्ज्वल स्वरूप का वर्णन कर सकता है ? नहीं कर सकता।
હે સ્વામી! આપના અનંત સ્વરૂપનું સાધારણ રૂપે વર્ણન કરવા પણ અમારા જેવા પામર પ્રાણી કેવી રીતે સમર્થ હોઈ શકે છે? દિવસના ન જોઈ શકનાર ઘુવડનું બચ્ચું ગમે તેવું હોશિયાર કેમ ન હોય, શું તે પ્રચંડ કિરણોવાળા સૂર્યના ઉજ્જવળ સ્વરૂપનું વર્ણન કરી શકે છે? નથી કરી શકતો.
O Prabhu (Lord) ! How is it possible for an ignorant like me to describe your infinitely magnificent form ? Can a day-blind chick of owl ever be able to describe the scintillating sun, no matter how headstrongitis? No! Never!
चित्र-परिचय
जिस प्रकार उल्लू का छोटा बच्चा सूर्य के तीव्र प्रकाश के सामने आँखें बन्द कर लेता है और सूर्य के स्वरूप का वर्णन नही कर सकता है उसी प्रकार आचार्य सिद्धसेन सूरि भी प्रभु पार्श्वनाथ की प्रतिमा के सामने खड़े होकर उनके अनन्त गुणों का वर्णन करने में स्वयं को असमर्थ मानते हैं।
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