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धर्मोपदेशसमये सविधानुभावा- दास्तां जनो भवति ते तरुरप्यशोकः । अभ्युद्गते दिनपतौ समहीरुहोऽपि, किं वा विबोधमुपयाति न जीवलोकः ।। १६ ।।
हे प्रभो ! जिस समय आप धर्मोपदेश करते हैं, उस समय आपके सत्संग के प्रभाव से वृक्ष भी अशोक हो जाता है, तब फिर मानव-समाज के शोकरहित होने में तो आश्चर्य ही क्या ? जैसे सूर्य उदय होता है, तब केवल मानव समाज ही नहीं अपितु कमलादि समस्त जीव-लोक भी प्रबुद्ध हो जाता है (प्रतिहार्य १) ।
હે પ્રભુ ! જે વખતે આપ ધર્મોપદેશ કરો છો, તે વખતે આપના સત્સંગના પ્રભાવથી વૃક્ષ પણ અશોક બની જાય છે, તો પછી માનવ-સમાજના શોકરહિત બનવામાં તો આશ્ચર્ય જ ક્યાં છે? જ્યારે સૂર્યનો ઉદય થાય છે, ત્યારે ફક્ત માનવ સમાજ જ નહીં પરંતુ કમલાદિ સમસ્ત જીવ-લોક પણ પ્રબુદ્ધથઈ જાય છે (પ્રતિહાર્ય૧)
O Prabho! When you give your discourse an ordinary tree turns into an Ashoka tree, what is there to be astonished if the human society becomes free of grief (a-shoka) under your influence ? Indeed, when the sun rises it is not only the humans who are enlightened but the whole world of the living, including lotuses, flourishes and blooms. (first divine felicitation)
चित्र-परिचय (प्रतिहार्य १) अशोक वृक्ष
जिस प्रकार सूर्योदय होने पर मानव समूह तो प्रफुल्लित होता ही है, साथ ही समस्त प्राणिजगत् और कमल पुष्प आदि भी खिल उठते हैं ।
वैसे ही प्रभु के सत्संग के दिव्य प्रभाव से केवल मनुष्य समाज ही शोक मुक्त नहीं होता, वृक्ष भी अशोक (शोक मुक्त) बन जाता है ।
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