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स्थाने गभीरहृदयोदधि-सम्भवायाः, पीयूषतां तव गिरः समुदीरयन्ति। पीत्वा यतः परमसम्मदसंगभाजो,
भव्या व्रजन्ति तरसाऽप्यजरामरत्वम्।।२१।। हे मुनीश ! आपके गंभीर हृदयरूपी समुद्र से उत्पन्न होने वाली आपकी मधुर वाणी को ज्ञानीजन अमृत मानते हैं। वह उचित ही है। जिस प्रकार मनुष्य अमृत का पान कर अजर-अमर हो जाते हैं। उसी प्रकार भव्य जीव भी आपके वचनामृत का पान करके शीघ्र ही जन्म-जरा-मरण के दुःखों से छुटकारा पाते हैं। (यह दिव्य ध्वनि प्रातिहार्य का वर्णन है, प्रतिहार्य ३)
હે મુનીશ ! આપના ગંભીર હૃદયરૂપી સમુદ્રમાંથી ઉત્પન્ન થનારી આપની મધુર વાણીને જ્ઞાનીજન અમૃત માને છે, તે સાચુજ છે. જે પ્રકારે મનુષ્ય અમૃતનું પાન કરીને અજર-અમર થઈ જાય છે, તે જ પ્રકારે ભવ્ય જીવ પણ આપના વચનામૃતનું પાન કરીને શીધ્ર જ જન્મ-જરા-મરણના દુ:ખોથી છૂટકારો પામે છે. (माहव्य ध्वनि प्रतियनुवान छ. प्रतिकार्य 3)
Jinendra ! The sagacious believe your soothing speech, emanating out of your ocean-like calm and tranquil heart, to be ambrosia. That is, indeed, right. As those who drink ambrosia become free of decay and death, in the same way the worthy ones who taste your ambrosia-like speech are soon emancipated from the miseries of birth, decay, and death. (third divine felicitation)
चित्र-परिचय (प्रतिहार्य ३) दिव्य ध्वनि
जैसे समुद्र से उत्पन्न अमृत-पान करके मनुष्य अमरत्व को प्राप्त करता है।
समवसरण में भक्तजन प्रभु पार्श्वनाथ के हृदय समुद्र से प्रवाहित अमृत रुपी वाणी का स्मरण करके जन्म-मरण के दुःखों से छुटकार पाते हैं।
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