________________
茶中
आकर्णितोऽपि महितोऽपि निरीक्षितोऽपि, नूनं न चेतसि मया विधृतोऽसि भक्त्या । जातोऽस्मि तेन जनबान्धव ! दुःखपात्रं, यस्मात् क्रियाः प्रतिफलन्ति न भावशून्याः ।।३८।।
हे दीनबन्धु ! मैंने आपका पवित्र नाम भी सुना, उपासना भी की और दर्शन भी किये। केवल दिखावे के तौर पर, किन्तु भक्तिभावपूर्वक कभी भी आपको अपने हृदय में धारण नहीं किया। यही कारण है कि आज मैं अनेकानेक भयंकर दुःखों का पात्र बन रहा हूँ। क्योंकि भावनारहित क्रियाएँ सफल नहीं होतीं ।
હે દીનબંધુ ! મેં આપનું પવિત્ર નામ પણ સાંભળ્યું, ઊપાસના પણ કરી અને દર્શન પણ કર્યાં, માત્ર દેખાડો કરવા માટે, પરંતુ ભક્તિભાવપૂર્વક કદી પણ આપને પોતાના હ્રદયમાં ધારણ ન કર્યા. આ જ કારણ છે કે આજે હું 1 અનેકાનેક ભયંકર દુ:ખોનું પાત્ર બની રહ્યો છું, કારણકે ભાવનારહિત ક્રિયાઓ સફળ નથી થતી.
O Deenabandhu (friend of the poor) ! I have heard your pious name, beheld your image and worshipped you as well. But all that was mere ritual display. I never installed you in my heart with a feeling of spiritual devotion. That is why today I am caught in the quagmire of numerous terrible miseries. As long as action is not done with sincerity and spiritual purity it does not bring forth desired results.
चित्र - परिचय
परन्तु
भक्त प्रभु पार्श्वनाथ की भक्ति कर रहा है, उसका ध्यान कहीं दूसरी जगह है। इसलिए भाव रहित भक्ति करने के कारण उसकी भक्ति निष्फल हो गई । उसे जन्म-जन्मान्तर तक भयंकर कष्ट उठाने पड़े ।
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org