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कल्याण मन्दिर की कीर्ति कथा
आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने भगवान पार्श्वनाथ की स्तुति के रूप में 'कल्याण मन्दिर' नामक अद्भुत चमत्कारिक काव्यमय स्तोत्र की रचना की। उन्होंने शिव और भगवान पार्श्वनाथ में अभेद स्थापित कर धर्म के सच्चे स्वरूप की व्याख्या की। भगवान पार्श्वनाथ और महाकाल शिव नाम व रूप से भले ही अलग लगते हों पर दोनों ही अपने-अपने क्षेत्र में कल्याण के प्रतीक माने जाते हैं।
राजा विक्रमादित्य के शासनकाल में उज्जयिनी नगरी में कात्यायन गौत्रीय देवर्षि नामक ब्राह्मण रहते थे। उनकी पत्नी देवश्री ने एक बालक को जन्म दिया। जिसका नाम कुमुदचन्द्र रखा। कालांतर में यही बालक महापंडित कुमुदचन्द्र के रूप में प्रसिद्ध हुये। कुमुदचन्द्र सर्व शास्त्र, वेद-वेदांग, ज्योतिष आदि के प्रकाण्ड विद्धान थे। अपनी विद्वत्ता के कारण वे सर्वत्र सम्माननीय थे। उन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि जो कोई उन्हें शास्त्रार्थ में पराजित कर देगा, वे उसके शिष्य बन जायेंगे।
_ उन्हीं दिनों जैनधर्म के प्रभावक आचार्य वृद्धवादी दशपुर नगर से विहार करते हुए उज्जयिनी की ओर आ रहे थे। इनकी प्रसिद्धि सुनकर महापंडित कुमुदचन्द्र इनको शास्त्रार्थ में पराजित करने के विचार से चल दिये। जंगल में जहाँ ग्वाले भेड़-बकरी और गायें चरा रहे थे, वहीं दोनों की भेंट हो गई। महापंडित कुमुदचन्द्र ने आचार्य वृद्धवादी को शास्त्रार्थ की चुनौती दी। लेकिन वहाँ कोई ऐसा विद्धान नहीं था जो दोनों की हार-जीत का निर्णय दे सके। तब कुमुदचन्द्र ने ग्वालों को ही निर्णायक मानने का प्रस्ताव रखा तो आचार्य वृद्धवादी ने भी स्वीकृति दे दी।
वृद्धवादी मुनि ने सहज साधारण बोलचाल की भाषा में ग्वालों को जो बात समझाई वह शुद्ध संस्कृत में बोले गये कुमुदचन्द्र के श्लोकों की अपेक्षा ग्वालों को जल्दी समझ में आ गई और उन्होंने वृद्धवादी को विजेता घोषित कर दिया। अपनी प्रतिज्ञानुसार कुमुदचन्द्र ने वृद्धवादी का शिष्य बनना स्वीकार कर लिया। वृद्धवादी ने उन्हें दीक्षा देकर उनका नाम सिद्धसेन रख दिया। विद्धान मुनि सिद्धसेन शीघ्र ही जैन दर्शन शास्त्रों आदि का अध्ययन करके जैनधर्म के गहन ज्ञाता बन गये। आचार्य वृद्धवादी ने उन्हें आचार्य पद प्रदान किया।
एक बार आचार्य सिद्धसेन विहार करते हुये प्रतिष्ठानपुर पहुंचे। उन्होंने जैनागमों को प्राकृत से संस्कृत में अनुवाद करने का विचार किया और नवकार महामंत्र का अनुवाद संस्कृत में करके अपने गुरू आचार्य वृद्धवादी को बताया। आचार्य वृद्धवादी ने इसकी भर्त्सना करते हुये इसे दुस्साहस और तीर्थंकर प्रभु की अशातना का घोर अपराध बताया और प्रायश्चित स्वरूप बारह वर्षों तक अज्ञातवास में तप करने और किसी बड़े सम्राट् को प्रतिबोध देकर जैनधर्म की प्रभावना करने का आदेश दिया। आचार्य सिद्धसेन ने गुरू आज्ञा मानकर दण्ड को स्वीकार कर लिया और अवधूत वेष में गुप्त रूप से विचरण करने लगे।
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