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सिद्धसेन के अज्ञातवास के सात वर्ष बीत चुके थे। विचरण करते-करते एक दिन वे उज्जयिनी नगरी पहुँचे। उज्जयिनी के महाकाल मन्दिर के भीतर जाकर आराम करने लगे। उनके पैर शिवलिंग की तरफ थे। पुजारी ने यह दृश्य देखा तो उन्हें उठाने लगा। जब सिद्धसेन नहीं जगे तो ८-१० व्यक्तियों ने उन्हें बलपूर्वक हटाने का प्रयत्न किया, परन्तु वे टस से मस नहीं हुये। लोगों ने राजा विक्रमादित्य को इस घटना की खबर की। विक्रमादित्य ने आदेश दिया-"जाओ उसे मार-मार कर उठाओ और पकड़कर हमारे पास लाओ।" राजा के आदेश से अवधूत पर कोड़े बरसाये गये। जैसे-जैसे अवधूत पर कोड़े बरसते विक्रमादित्य की रानियाँ अन्तःपुर में चीख पुकार करने लगी-"अरे कोई हमें मार रहा है।"
विक्रमादित्य को समाचार मिला, उन्हें तत्काल समझ में आया-" जरूर यह उसी अवधूत की माया है।" राजा तुरन्त महाकाल मन्दिर में पहुंचे और अवधूत रूप में लेटे सिद्धसेन से क्षमा माँगकर महाकाल शिव की उपेक्षा का कारण जानना चाहा। सिद्धसेन ने बताया-"स्वर्ग या मोक्ष सुख कोई देव या महादेव नहीं देते। वह तो मनुष्य के अपने पुरूषार्थ से ही प्राप्त होता है।" जब राजा विक्रमादित्य ने उन्हें कल्याण रूप शिव को नमस्कार करने को कहा तो सिद्धसेन ने शिवलिंग के सामने हाथ जोड़कर उच्च स्वर में स्तोत्र पाठ प्रारम्भ कर दिया धीरे-धीरे शिवलिंग से धुंआ निकलने लगा।
अचानक कुछ देर में शिवलिंग के भीतर से एक दिव्य प्रतिमा प्रगट हुई। सभी लोग आश्चर्य के साथ इस चमत्कार को देखने लगे। सिद्धसेन ने बताया-"राजन! यह वीतराग प्रभु पार्श्वनाथ की प्रतिमा है। शिव और पार्श्वनाथ दोनों ही कल्याण के प्रतीक हैं। जो भी कषायादि शत्रुओं के विजेता वीतराग देव हैं वही वन्दनीय हैं। राजा विक्रमादित्य अवधूत रूपी सिद्धसेन के समक्ष नतमस्तक हो गये। तब सिद्धसेन ने अपना परिचय दिया और उपदेश देते हुये कहा-"राजन ! धर्मों में भेद की जगह अभेद और विरोध की जगह समन्वय करना ही धर्म-प्राप्ति का सम्यक उपाय है।
सिद्धसेन के उपदेशों से प्रभावित होकर राजा विक्रमादित्य जैन-धर्म के अनुरागी बन गये। आचार्य सिद्धसेन को अपनी सभा की विद्द मण्डली में सम्मानपूर्वक स्थान दिया। जब यह समाचार आचार्य वृद्धवादी के पास पहुँचा तो जिन शासन की इतनी प्रभावना करने के कारण आचार्य वृद्धवादी ने सिद्धसेन के प्रायश्चित के शेष पाँच वर्ष कम कर दिये और उन्हें पुनः आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया।
आचार्य सिद्धसेन द्वारा रचित वह भक्तिप्रधान काव्य "कल्याण मन्दिर स्तोत्र" के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसके श्लोकों की संख्या ४४ है। ४३ श्लोक बसन्त तिलका छन्द में है और एक आर्यावृत्त है।
माना जाता है कि इस स्तोत्र के ग्यारहवें काव्य बोलने पर शिवलिंग से पार्श्वनाथ प्रतिमा प्रगट हुई। यह प्रतिमा आज भी उज्जयिनी के जिन मन्दिर में अवन्ति पार्श्वनाथ के रूप में प्रतिष्ठित
है।
यह घटना शिव और पार्श्वनाथ में एकरूपता तथा तदाकारता सूचित करती है। भेद को अभेद समझने का संकेत करती है।
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