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TET
ETC
પ્રય જીર્ણોદ્ધાર
-: સંયોજક :શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવના હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૩૮૦૦૦૫. - મો. ૯૪૨૬૫ ૮૫૯૦૪ (ઓ.) ૦૭૯-૨૨૧૩૨૫૪૩ ;
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“અહો શ્રુતજ્ઞાન” ગ્રંથ જીર્ણોધ્ધાર
સંસ્કૃત મેન્યુસ્ક્રીપ્ટ ઇન મુંબઈ-૫
: સંયોજક :
શાહ બાબુલાલ સરેમલ બેડાવાળા શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર
શા. વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-380005 (મો.) 9426585904 (ઓ.) 22132543
ઈ.સ. ૨૦૧૧
સંવત ૨૦૬૭
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"Aho Shrut Gyanam"
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પૃષ્ઠ
238
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અહો શ્રુતજ્ઞાનમ ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર- સંવત ૨૦૬૫ (ઈ. ૨૦૦૯- સેટ નં-૧ ક્રમાંક પુસ્તકનું નામ
કર્તા-ટીકાકાસંપાદક | 001 | श्री नंदीसूत्र अवचूरी
पू. विक्रमसूरिजीम.सा. 002 | श्री उत्तराध्ययन सूत्र चूर्णी
पू. जिनदासगणिचूर्णीकार । | 003 श्री अर्हद्रीता-भगवद्गीता
पू. मेघविजयजी गणिम.सा. 004 श्री अर्हच्चूडामणिसारसटीकः
पू. भद्रबाहुस्वामीम.सा. 005 | श्री यूक्ति प्रकाशसूत्रं
| पू. पद्मसागरजी गणिम.सा. 006 | श्री मानतुङ्गशास्त्रम्
| पू. मानतुंगविजयजीम.सा. अपराजितपृच्छा
| श्री बी. भट्टाचार्य 008 शिल्पस्मृति वास्तु विद्यायाम्
| श्री नंदलाल चुनिलालसोमपुरा 009 शिल्परत्नम्भाग-१
| श्रीकुमार के. सभात्सवशास्त्री 010 | शिल्परत्नम्भाग-२
| श्रीकुमार के. सभात्सवशास्त्री 011 प्रासादतिलक
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 012 | काश्यशिल्पम्
श्री विनायक गणेश आपटे 013 प्रासादमञ्जरी
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 014 | राजवल्लभ याने शिल्पशास्त्र
श्री नारायण भारतीगोसाई 015 शिल्पदीपक
| श्री गंगाधरजी प्रणीत | वास्तुसार
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 017 दीपार्णव उत्तरार्ध
| श्री प्रभाशंकर ओघडभाई જિનપ્રાસાદમાર્તડ
શ્રી નંદલાલ ચુનીલાલ સોમપુરા | जैन ग्रंथावली
| श्री जैन श्वेताम्बरकोन्फ्रन्स 020 હીરકલશ જૈનજ્યોતિષ
શ્રી હિમ્મતરામમહાશંકર જાની न्यायप्रवेशः भाग-१
| श्री आनंदशंकर बी.ध्रुव 022 | दीपार्णवपूर्वार्ध
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 023 अनेकान्तजयपताकाख्यं भाग
पू. मुनिचंद्रसूरिजीम.सा. | अनेकान्तजयपताकाख्यं भाग२
| श्री एच. आर. कापडीआ 025 | प्राकृतव्याकरणभाषांतर सह
श्री बेचरदास जीवराजदोशी तत्पोपप्लवसिंहः
| श्री जयराशी भट्ट बी. भट्टाचार्य | 027 शक्तिवादादर्शः
श्री सुदर्शनाचार्यशास्त्री
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| क्षीरार्णव
| श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 029 वेधवास्तुप्रभाकर
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई | 030 શિલ્પપત્રીવાર
| श्री नर्मदाशंकरशास्त्री 031. प्रासाद मंडन
पं. भगवानदास जैन 032 | શ્રી સિદ્ધહેમ વૃત્તિ વૃતિ અધ્યાય પૂ. ભવિષ્યમૂરિનીમ.સા. 033 श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्यायर पू. लावण्यसूरिजीम.सा. 034 | શ્રીસિમ વૃત્તિ ચૂક્યાસ અધ્યાય છે પૂ. ભાવસૂરિનીમ.સા. 035 | શ્રીસિમ વૃત્તિ ચૂદાન અધ્યાય (ર) (૩) પૂ. ભવિષ્યમૂરિનીમ.સા. 036 श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय५ पू. लावण्यसूरिजीम.सा. વાસ્તુનિઘંટુ
પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા તિલકમન્નરી ભાગ-૧
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 039 | તિલકમન્નરી ભાગ-૨
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 040 તિલકમઝરી ભાગ-૩
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી સપ્તસન્ધાન મહાકાવ્યમ
પૂ. વિજયઅમૃતસૂરિશ્વરજી 042 સપ્તભીમિમાંસા
પૂ. પં. શિવાનન્દવિજયજી ન્યાયાવતાર
સતિષચંદ્ર વિદ્યાભૂષણ વ્યુત્પત્તિવાદ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક
શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) 045 | સામાન્ય નિયુક્તિ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક | શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા). 046 | સપ્તભળીનયપ્રદીપ બાલબોધિનીવિવૃત્તિઃ
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 047 વ્યુત્પત્તિવાદ શાસ્ત્રાર્થકલા ટીકા
શ્રીવેણીમાધવ શાસ્ત્રી 048 | નયોપદેશ ભાગ-૧ તરકિણીતરણી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી નયોપદેશ ભાગ-૨ તરકિણીતરણી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 050 ન્યાયસમુચ્ચય
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 051 સ્યાદ્યાર્થપ્રકાશઃ
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી દિન શુદ્ધિ પ્રકરણ
પૂ. દર્શનવિજયજી 053 | બૃહદ્ ધારણા યંત્ર
પૂ. દર્શનવિજયજી | જ્યોતિર્મહોદય
સં. પૂ. અક્ષયવિજયજી
041.
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પાદક | પૃષ્ઠ !
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અહો શ્રુતજ્ઞાનમ ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર- સંવત ૨૦૬૬ (ઈ. ૨૦૧૦ - સેટ નં-૨ ક્રમ પુસ્તકનું નામ
ભાષા કર્તા-ટીકાકા(સંપાદક 055 | श्री सिद्धहेम बृहद्वत्ति बूदन्यास अध्याय-६
पू. लावण्यसूरिजीम.सा.
296 056 | विविध तीर्थ कल्प
पू. जिनविजयजी म.सा. 057 | भारतीय हैन श्रम। संस्कृत सने मना . पू. पूण्यविजयजी म.सा.
164 058 | सिद्धान्तलक्षणगूढार्थ तत्त्वलोकः
| सं श्री धर्मदत्तसूरि 059 व्याप्ति पञ्चक विवृत्ति टीका
श्री धर्मदत्तसूरि 0608न संगीत रामाका
| . श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी 306 061 चतुर्विंशतीप्रबन्ध (प्रबंध कोश)
| श्री रसिकलाल एच. कापडीआ | 062 व्युत्पत्तिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय सं श्री सुदर्शनाचार्य
668 | 063 चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी
पू. मेघविजयजी गणि
516 064 विवेक विलास
सं/J. | श्री दामोदर गोविंदाचार्य
268 065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध
सं पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा. 456 066 सन्मतितत्त्वसोपानम्
|सं पू. लब्धिसूरिजी म.सा. 0676शमादा ही गुशनुवाई | गु४. पू. हेमसागरसूरिजी म.सा.
638 068 मोहराजापराजयम्
सं पू. चतुरविजयजी म.सा.
192 069 | क्रियाकोश
सं/हिं श्री मोहनलाल बांठिया
428 | कालिकाचार्यकथासंग्रह
सं/J. श्री अंबालाल प्रेमचंद | 071 सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका सं. श्री वामाचरण भट्टाचार्य |
308 072 | जन्मसमुद्रजातक
सं/हिं श्री भगवानदास जैन
128 073 | मेघमहोदय वर्षप्रबोध
सं/हिं श्री भगवानदास जैन
532 0748न सामुदिनi in jथो
J४. श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी 0758न चित्र पदूम साग-१
४४. श्री साराभाई नवाब
374
420
070
406
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076 | ઇ જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૨
વન જ 17 સંગીત નાટ્ય રૂપાવલી 07 | ભારતનાં જૈન તીર્થો અને તેનું શિલ્પસ્થાપત્ય 079 | શિલ્પ ચિતામણિ ભાગ-૧
O80 | બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૧
114
08 | બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૨ 082 બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૩ 083 આયુર્વેદના અનુભૂત પ્રયોગો ભાગ-૧ 084 | કલ્યાણ કારક 085 | વિશ્વનયન વોશ 086 | કથા રત્ન કોશ ભાગ-1 087
કથા રત્ન કોશ ભાગ-2 088 હસ્તસગ્નીવનમ
ગુજ. શ્રી સારામારૂં નવાવ
238 | ગુજ. | શ્રી વિદ્યા સરમા નવાવ
194 ગુજ. | શ્રી સારામારૂં નવાવ
192 ગુજ. | શ્રી મનસુહાનાન્ન મુવમન | 254 ગુજ. | શ્રી ગગન્નાથ મંવારીમ
260 ગુજ. | શ્રી નાગનાથ મંવારમ
238 ગુજ. | શ્રી નવીન્નાથ મંવારમ
260 ગુજ. | પૂ. વરાન્તિસાગરની ગુજ. | શ્રી વર્ધમાન પાર્શ્વનાથ શાસ્ત્રી
910 सं./हिं श्री नंदलाल शर्मा
436 ગુજ. | શ્રી લેવલાસ નવરાન કોશી
336 | ગુજ. | શ્રી લેવલાસ નવરાન તોશી |
230 સં. | પૂ. મે વિનયની
પૂ.સવિનયન, પૂ.
पुण्यविजयजी | आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी 560
322
114
089 એ%ચતુર્વિશતિકા 090 સમ્મતિ તક મહાર્ણવાવતારિકા
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
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संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार-संवत २०६७ (ई. 2011) सेट नं.-३ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची।यह पुस्तके वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। क्रम पुस्तक नाम
कर्ता/टीकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक स्याद्वाद रत्नाकर भाग-१
वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना स्यादवाद रत्नाकर भाग-२
वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना स्यावाद रत्नाकर भाग-३
वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना स्यावाद रत्नाकर भाग-४
वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना स्यावाद रत्नाकर भाग-५
वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना पवित्र कल्पसूत्र
पुण्यविजयजी
सं./अं
साराभाई नवाब 97 समराङ्गण सूत्रधार भाग-१
| भोजदेवसं . टी. गणपति शास्त्री 98 समराङ्गण सूत्रधार भाग-२
भोजदेव
टी. गणपति शास्त्री 99 भवनदीपक
पद्मप्रभसूरिजी
सं. वेंकटेश प्रेस 100 गाथासहस्त्री
समयसुंदरजी
सं. सुखलालजी भारतीय प्राचीन लिपीमाला
गौरीशंकर ओझा हिन्दी मुन्शीराम मनोहरराम 102 शब्दरत्नाकर
साधुसुन्दरजी
हरगोविन्ददास बेचरदास 103 | सुबोधवाणी प्रकाश
न्यायविजयजी
सं./गु हेमचंद्राचार्य जैन सभा 104 लघु प्रबंध संग्रह जयंत पी. ठाकर
ओरीएन्ट इस्टी. बरोडा 105 | जैन स्तोत्र संचय-१-२-३
माणिक्यसागरसूरिजी
आगमोद्धारक सभा 106 | सन्मतितर्क प्रकरण भाग-१,२,३ सिद्धसेन दिवाकर
सुखलाल संघवी सन्मतितर्क प्रकरण भाग-४,५ सिद्धसेन दिवाकर
सुखलाल संघवी 108 | न्यायसार - न्यायतात्पर्यदीपिका सतिषचंद्र विद्याभूषण
एसियाटीक सोसायटी
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134
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जैन लेख संग्रह भाग - १
जैन लेख संग्रह भाग - २
जैन लेख संग्रह भाग - ३ जैन धातु
जैन प्रतिमा लेख संग्रह
प्रतिमा लेख भाग-१
पुरणचंद्र नाहर
पुरणचंद्र नाहर
पुरणचंद्र नाह कांतिसागरजी
दौलतसिंह लोढा
विशालविजयजी
विजयधर्मसूरिजी
राधनपुर प्रतिमा लेख संदोह
प्राचिन लेख संग्रह - १
बीकानेर जैन लेख संग्रह
प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग - १
प्राचिन जैन लेख संग्रह भाग-२
गुजरातना ऐतिहासिक लेखो - १
गुजरातना ऐतिहासिक लेखो -२
गुजरातना ऐतिहासिक लेखो -३
ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. पी. पीटरसन इन मुंबई सर्कल-१
ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. पी. पीटरसन इन मुंबई सर्कल-४
अगरचंद नाहटा
जिनविजयजी
जिनविजयजी
गिरजाशंकर शास्त्री
गिरजाशंकर शास्त्री
गिरजाशंकर शास्त्री
ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. पी. पीटरसन इन मुंबई सर्कल
कलेक्शन ऑफ प्राकृत एन्ड संस्कृत इन्स्क्रीप्शन्स
विजयदेव माहात्म्यम्
पी. पीटरसन
जिनविजयजी
सं./ह
सं./हि
सं./ह
सं./हि
सं./ह
सं./गु
सं. गु
सं./ह
सं./हि
सं./ह
सं. गु
सं./गु
सं./गु
अं.
अं.
अं.
सं.
पुरणचंद्र नाहर
पुरणचंद्र नाहर
पुरणचंद्र नाहर
जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार
अरविन्द धामणिया
यशोविजयजी ग्रंथमाळा
यशोविजयजी ग्रंथमाळा
नाहटा धर्स
जैन आत्मानंद सभा
जैन आत्मानंद सभा
फार्बस गुजराती सभा
फार्बस गुजराती सभा
फार्बस गुजराती सभा
रॉयल एशियाटीक जर्नल
रॉयल एशियाटीक जर्नल
रॉयल एशियाटीक जर्नल भावनगर आर्चीऑलॉजीकल डिपार्टमेन्ट, भावनगर जैन सत्य संशोधक
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404
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414
400
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Serial No..... Subject SAN
Alm.......Sh
1540
अ
R.
07.8
आ. श्रीकैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर
श्रीमहावीर जैन आराधना केन्द्र कोवा (गांधीनगर) पि 307000
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FIFTH REPORT
OPERATIONS. IN SEARCH OF SANSCRIT MSS.
IN THE BOMBAY CIRCLE.
APRIL 1892–MARCH 1895.
P. PETERSON.
BOMBAY: PRINTED AT THE GOVERNMENT CENTRAL PRESS.
1896.
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Serving Jin Shasan
044460 gyanmandir@kobatirth.org
Page #13
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CONTENTS.
Page: ... ILILIYI
Index of Authors
.
...
...
Report
..
..
...
...
LXXXVII—I XXXVIII
Extracts from Patan Palm-leaf MSS...
1-151
Extracts from Patan Paper MSS. ...
..
..153–171
Extracts from MSS. purchased for Government
173— 220
List of MSS. purchased for Governnent
...
... 221-317
B 6694-
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INDEX OF AUTHORS.
Akalanka
The Digambara poet and philosopher. See Bhandarkar, Report 83-84, p. 122. Manikyanandin's book on Nyaya is based on his. 4, App. Ip. 155, 156. Reference is made to the legend according to which Akalanka, when embarrassed in controversy with a Buddhist antagonist, discovered that the latter was being effectively prompted by " Mayadevi” concealed in a jar, and kicking the jar over with his foot, put an end to that inspiration. 4, 157. Referred to, along with Dharmakirti and others, as a writer on logic, 5, 148. For Akalanka see also Pathak's Paper ou Bhartrihari and Kumarila, Jeurnal of the Bombay Branch of the Royal Asiatic Society, XVIJI, p. 221. According to Pathak Akalanka lived after the 7th century. He was a contemporary of the Rashtrakuta king Subhatunga or Krishnaraja I.
Ajitadevasuri
Pupil of Munichandrasuri and Manadevasari. Gora of Vijayasinhasuri, whose pupil Somaprabhacharya wrote the Kumarapalapratibodha in Samvat 1241. 5, 38. Ajitadevasuri and Vijayasinhasuri are Nos. 41 and 42 in the Tapagachchhapattavali. See also Weber p. 1006,
Ajitaprabhasuri
Author of the Santinathacharitra. He gives his genealogy as follows. After mention of Sadharma, Jambu and Prabhava, B 66%-i
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INDEX OF AUTHORS.
Sayyambhava, Yasobhadra, Sambhuta, Bhadrabahu, Sthula. bhadra, Aryamahagiri and others he comes down to Vajrasuri. This sage was succeeded by Vajrasena, four of whose pupils founded four different sakhas. Among these the Chandra Sakha ( branch) was specially rich in fruit in the shape of pupils; and of these was
1. Vijayasinha. This sage, a resident of Chandravati, deserted the Chaityavasin heresy, under the guidance of Chandraprabhusuri, and passed over to the Purnimagachchha. As was succeeded by
2. Abhayadevasuri. 3. Chandrasuri. -4. Devasuri. 5. Tilakaprabha, 6. Viraprabba and Somaprabba . Our anthor, Ajitaprabhasuri, was a pupil of Virapra bha, and was consecrated as successor to that teacher by Tilakaprabha. Before his elevation he had been the author of the Bhavanasarasastra. He was suri when he wrote this Santinatbacharitra. 5,121.
Ajitasinhasuri--
See previous Index of Authors. Raula Samarasinha, converted by him, gave a decree against the slaughter of any living thing in his dominions; and the fame for piety of Sana and other villages was still conspicuous, as shown by such observances as drinking only water that has been strained, and daily prayers, in consequence. He was born in the village Doda, of Jinadeva and Jinamati, in Samvat 1283. Diksha, Samyat 1291. Suri
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________________
ii
INDEX OF AUTHORS.
pada, Samvat 1314. Gachchhesapada, Samvat 1315. Svarga, Samvat 133.9.
Advaitananda -
Mentioned as the guru of Balakrishna the author of the Dattakasiddhantamanjari. 4, 9.
Anantakirtigani,
Mentioned as guru of Ratnanandin the author of the Bhadrabahacharitra. 4, 161.
Anantadeva
Author of the Rudrakalpadruma. Son of Dvivedi 'Uddhava and younger brother of Dvivedi Deva. He himself is Dvivedi Anantadeva. He was also called Traivedyamedha, and was an inhabitant of Benares. 4, 10. In his Catalogus Catalagorum Aufrecht ascribes three other works to this Anantadeva :Bhojanasutra, Yajuhsandhya, and Sarvavratodyapana.
Anantavirya
Author of a panjika on the Parikshamukha of Manikyanandin. He wrote it for Santishena, at the request of Hirapa, son of Vijaya and Nanamba. 4, 155.
Abhayakalasa
A pupil of Sarvadevasuri, who wrote out for his master's use in lecture No. 75 of the Patan books in Samyat 1391. 5, 127.
Abhayakumaragani
Assisted Vijayasinhasuri in the composition of his Dharmopadesamalavritti in Samvat 1191. 5, 90.
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iv
INDEX OF AUTHORS.
Abhayasuri
Praised in a prasasti at the end of Devendracharya's Chandraprabhacharitra. 4, 85.
Abhayadeva
The Commentator on the Nine Angas. 4, 70 and 88; 5, 34 and
149.
Abhayadeva
Of the Harshapuriya gachchha; pupil of Jayasinha and guru of Hemachandra. See Fourth Report p. 8, and previous Index of Authors. The Munisuvratasvamicharitra of Srichandrasuri, referred to as No. 50 of the Patan books in the passage cited, is No. 3 of the list in the present Report. Compare 5, 89, where it is added that Abhayadeva learned the mantravidya from Viradeva.
Abhayadeva
Pupil of Vijayachandrasuri (Vijayendu), and guru of DevabhaAuthor of the drasuri. See previous Index of Authors. Jayantakavya. 4, 87. He styles himself there pupil of Padmachandra, who comes immediately before Vijayachandra in the other lists.
Abhayasinha
Mentioned as having flourished in Samvat 1125. 5, 100.
Amarachandra
Author of a Samyaktvakulaka. 5, 151.
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INDEX OF AUTHORS.
Amarachandragani
Transcribed in Samvat 1518 the Upadesamalavachuri. He was pupil of Vivekasamudragani, who was pupil of Soraasandara the head at the time of the Tapagachchha.
Amaraprabha
Mentioned as having expounded the Kalpasutra to Dharmasari, in or about Samvat 1344. Amaraprabha was a pupil of Anandasari. 5, 110.
Amaramanikya
Pupil of Mativardhana and guru of Sadhukirti. 5, 159. See under Sadhusundara.
Amalakirti
Mentioned as having ordered a copy of the Yogasara to be written in Samvat 1192. He was a pupil of Jayakirti 5.147.
Arjana
Mentioned as one of the commentators on the Bharatiya or Sangitaratnakara, 4, 43.
Asokachandra
Mentioned as the goru of Udayachandragani. This latter caused a copy of the Oghaniryakti to be written in Samyat 1154. 5, 29. For this Asokachandra compare Weber, p. 993, &c. He is probably the same as the Asokamuni who is author of the Danasilatapobhavanaprakarana. See next entry.
Asokamani,
Author of the Danasilatapobhavanaprakarana. 4,123.
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INDEX OF AUTHORS.
Asyamitra
Pupil of Aryamahagiri, of the Kandinya gotra, author of the fourth heresy, in the year 220 from Vira's nirvana. 4, 94. See Weber pp. 1000 and 1032.
Asaga
Author of a Vardhamanacharitra. He was a pupil of Naganandin (whose proficiency in grammar is referred to); and he was induced to write his book by Aryanandin. 4, 163.
Anandavimala
Guru of the Vijayavimalagani who wrote a Gachchhacharaprakirnakavritti. 5, 162, Anandavimala is No. 56 of the Tapagachchhapattavali. “Born Samvat 1547 at Iladurga; vrata 1552 ; suripada 1570 ; died 1596, Chaitra sudi 7, at Ahmedabad.” Compare Weber, pp. 998 and 1014.
Anandasuri
Guru of Amaraprabhasuri ( Samvat 1344). 5, 110. A teacher of that name is also referred to at 5, 87.
Apajibhatta
Haribhaskara, son of Haribhatta, and author of the Paribhashabhaskara, was known by the name of Apajibhattasuta. Apajibhatta, therefore, was another name of Haribhatta. This would appear to be the real meaning of the colophon. But Aufrecht and Eggeling (p. 303), who make Apajibhatta the son of Haribhatta and father of Haribhaskara, may be right. Compare Rajendralal, 2, 127. 4, 20.
Amradeva
Of the Purnatalliyagachchha. 5,165.
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INDEX OF AUTIIORS.
VII
Aryarakshita
The founder of the Anchalagachchha. See previous Index of Authors. 4, 115, 5, 139.
Aryanandiguru
Asaga wrote his Vardbamanacharitra at the instigation of this teacher. 4, 163.
Aryamahagiri
Mentioned as the guru of Asvamitra the author of the fourth schism. 4, 94. 5, 121. and 139.
Asada
5.42 and following. See previous Index of Authors.
Indrasuri
Mentioned as the author of a Mahakuvalayamalakatha. 5, 73.
Uttamarshi
Author of a Dharmakatharatpakaroddhara. 4, 80.
Udayachandragani
Pupil of Asokachandracharya. Mentioned as having caused a manuscript to be written in Samvat 1154. 5, 29.
Udayanandisuri
Mentioned among the pupils of Jayachandrasuri and Munisun. dara. 4, 110.
Udayaprabhasuri
Of the Nagendragachha. Mentioned as the gurn of Mallishena. 4, 127. See previous Index of Authors.
Udayavallabha
Papil of Ratnasinha. Mentioned as one of two recipients of
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VIII
INDEX OF AUTHORS.
& present of books that were transcribed for the purpose in samvat 1515. Compare previous Index of Authors.
Udayasinha
Author of a Commentary on the Dharmavidhi of SriprabhasuriHe composed the work in Chandravati, in Samvat 1286. He gives the following genealogy for himself. In the Chandragachchha there arose
1. Sarvadevasuri. He had two pupils
3. Sriprabhasuri and Srisomaprabhasuri. The former was the author of the text of the Dharmavidhi. He wrate a commentary on his own work, but that commentary was destroyed in the year 1253. Sriprabhasuri had four pupils—
3. Bhuvanaratna, Nemiprabha, Manikyaprabha and Mahichandra. Oar author
4. Udayasinha was a pupil of the third of these. But he had relations with all four. The first was his dikshaguru; the second was his mother's brother; and the fourth gave him bis title of acharya.
The Patan copy of the book was transcribed by the pious Rajimati, daughter of the merchant Somadeva. 5, 113.
Udayakarapandita
Author of a panjika on the Raghuvansa, which he wrote because no commentary on that work existed. 4, 34.
Uddyotana
The pupil of Nemichandra and guru of Vardhamana. (Nos. 37, 38 and 39 in the Kharataragachchhapattavali.) See prcvious Index of Authors. 4,69.
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INDEX OF AUTHORS.
Umasvati
His Prasamarati. 5, 134. Sec previous Index of Authors.
Kakudasuri
His Panchapramanipanchasika. 5, 105. See previous Index of Authors under Kakkasuri.
Kanakakusala
Author, in Samvat 1652, of a commentary on the Bhaktamarastava. 4, 110. Weber p. 938.
IX
Kanakaprabhasuri
Mentioned as one of the three pupils of Devananda. 4, 123. See previous Index of Authors. His three pupils were Balachandra, Jayasinha, and Pradyumnasuri, in that order. See also 5, 49. Kamalachandra
Pupil of Ramachandra. Mentioned as having written a manuscript in Samvat 1317. 5, 23.
Kambala
Mentioned as one of a number of commentators on the Bharatiya or Sangitasastra. 4, 43. One of the poets of the Subhashitavali is a bhadanta Kambalaka.
Karkacharya
Author of the Laghukarika. Son of Vishnusarman. 4, 11.
Kalyanasarasvati
Author of a Laghusarasvata. 4, 20.
Kartikeyasvamin
Author of the Kartikeyanupreksha (for this book see Bhandar
kar, Report 1883-4, pp 113 and 398). 4, 142, B 669-ii
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X
INDEX OF AUTHORS.
Kalaka
His change of the paryushana from the fifth to the fourth day of the month referred to, with the date 993 from the nirvana of Mahavira. 4, 95. The same, with the dates 993 from the nirvana and 523 from Vikrama. 4, 81.
Kalikacharya
The destroyer of Gardabhilla in the year 453 from Vira. 4, 84.
Kalidasa
Referred to by Prajnakaramisra as the author of the Nalodaya. 4, 24.
Kasyapa
Mentioned as one of a number of commentators on the Bharatiya or Sangitasastra. 4, 43.
"
Kikaraja
Author of the Sangitasaroddhara. He was son of Sajjana, of the Kapolavansa. 4, 42.
Kirtivallabhagani
Author of a Commentary on the Uttaradhyayanasutra. He belongs to the Anchalagachchha; and gives his descent from Mahendra of that gachchha, as follows:
1. Mahendra. For this teacher see under Mahendraprabha in previous Index of Authors.
2. Merutunga.
2. Jayakirti.
4. Jayakesarin.
5. Siddhantasagara.
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INDEX OF AUTHORS.
For all these teachers see previous Index of Authors. Our writer Kirtivallabhagani was one of the pupils of Siddhantasagara, and wrote his commentary in Samvat 1552. He refers to the dipika and the other previous commentaries. 4,76.
Kundakundacharya
Reference to his achievement in causing a stone image of Sarasvati on the hill Ujjayanta to speak. 4, 157. Author of the Panchastikayaprabhrita. The commentator of that work seems to call him pupil of Kumaranandin; and states that he wrote the work for Sivakumaramaharja aud some other priuces, who desired to have a compendium of the kind. 4, 153.
Kumaranandisaiddhantika
Mentioned apparently as the guru of Kundakundacharya. 4, 156.
Kumaraseni
Succeeded Bhanukirtideva, who was pupil of Gunabhadrasuri.
deva. Flourished Samvat 1663. 4, 132.
Krishnamuni
Guru of the Jayasinha who was author of a Dharmopadesa mala 5, 80.
Krishnarshi –
Guru of the Nannasuri who wrote a commentary on Hemachandra's Mahaviracharitra in Samvat 1368. 5, 61.
Kedarabhatta
Author of the Vrittaratnakara. 4, 43.
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III
INDEX OF AUTHORS.
Kohala
Mentioned as one of many commentators on the Bharatiya or Sangitasastra. 4,43. Kohalacharya's “ Talalakshana is in the India Office Collection.
Kshemakarna
The second of the five sops of Lala, a noted astromer of Kanyakubja. His elder brother was Devidasa ; and his three younger brothers were Narayana, Chaturbhujamisra and Damodara. This last was the father of Balabhadra, the author of the Horaratna. 4, 63. Compare Weber, p. 264, where an account will be found of the Hayanaratna, a work by Harirama, who is mentioned here as Balabhadra's brother.
Kshemakirti
Author, in Samvat 1332, of a commentary on the Brihatkalpasutra. He gives the following account of himself
After homage paid to Bhadrabahu author of the text and to the authors of the Bhashya and Churni respectively, he tells how Dhanesvara arose in tbe Chandragachchba. In his line there came in course of time
1. Blavanendrasuri. He was succeeded by
2. Devabhadra. He had three pupils and saecessors
3. Jagachchandra, Devendra and Vijayendu (See under Vijayachandra in previous Index of Authors). Of these Vijayendu or Vijayachandra had three pupils
4. Vajrasena, Padmachandra and our author Kshemakirti. 5, 104.
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INDEX OF AUTHORS.
Xili
Kshemendrasuri
Author of a Commentary on the Sarasvati Prakriya. Son of Haribhadra. 4, 20. Aufrecht has the two referencces, B. 3, 30 and NP. IX, 42.
Khinda (or Khindaka)—
Author of the Hillaja, a work on astrology. According to the commentator Ramesvara this science was in the beginning taught by Brahma to Surya. In consequence of a curse Surya had to go and live in the city of Rome. There he taught what he had learned from Brahma, and Romaka wrote it down in fair verse. Khinda's work was based on Romaka's. 4,60. Compare 2,130.
Giridharadasa
The third of the six sons of Mandhatri, otherwise called Gopaladasa, King of Ajmere, by his chief wife Kumari. His two elder brothers were Balirama and Vitthaladasa; and his three younger, Vijayarama, Manoharadasa, and Pradyumna. Giridharadasa himself had a son called Harijana. It was for the edification of these and other princes named that Vedangaraya wrote by Giridhara's request a work which he called after his patron's name Giridharananda. 4,45,
Gunachandra
Author, in Samvat 1630, of the Anantanathapuja. He was a pupil of Yasahkirti, who was a pupil of Ratnakirti of the Balatkara gana, Sarasvata gachchha, and Mula sangha. 4, 132.
"
Gunachandragani
Author, in Samvat 1139, of a Mahaviracharitra in Prakrit. He
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xiv
INDEX OF AUTHORS.
wrote by request of Prasannachandra, who was one of the pupils of Abhayadeva, the commentator on nine of the Angas. His own teacher was Sumati. 5, 34.
Gunachandragani
Mentioned as one of those who listened, in Samvat 1241, to the first reading of Somaprabhacharya's Kumarapalapratibodha. 5, 39.
Gunabhadra
A Digambara writer. Author, in Saka 820, of the Trishashtilakshanamahapurana. He wrote when Sri Kalavarsha was reigning. 4, 47. Subhachandra, author of the Pandavapurana, refers to him as his authority. 4, 57.
Gunabhadra
Flourished in Samvat 1418. 5, 116.
Gunabhadrasuri
Third in ascent from Bhattarakasri Kumaraseni, who flourished in Samvat 1663. 4,132,
Gunaratnasuri
Pupil of Manikyasuri and guru of Saravicharasuri. 4, 72. Gunasena
Pupil of Pradyumnasuri and guru of Devachandra in the genealogy of Hemachandra. Fourth Report, Text, p. 6. 5, 6. Gunakara
Author of the Horamakaranda. He was son of Sripati, who was son of Narayana of Kharjura in Avanti. See under Narayana.4, 61. Compare Bhandarkar's Report for 1882-83, p. 30,
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INDEX OF AUTHORS.
Gopasena
Papil of Santishers and guru of Bhavasena, who was the guru of Jayasena t. author of the Dharmaratnakara, 4, 153.
Govinda
Guru of Ramesvara (Samyat 1464). 4, 60.
Govindagani
Author of a Karmastavatika. Compare previous Index of Authors. 5, 53. The copy of the book noticed there was written in Samyat 1218.
Chakradhara
Author of the Yantrachintamani. Son of the astronomer Vamana. 4, 54.
Chakresvarasuri
Mentioned as pupil of Dharmaghosha and guru of Sivaprabha.
4, 75. See previous Index of Authors. Chakresvara
The recipient, in Samvat 1187, of ten manuscripts written for his use in lecture in Anahila pataka. He was the pupil of the Vardhamana who was pupil of Salibhadra. 5,58.
Chakresvarasuri
Pupil of Dharmaghosha and guru of Sivaprabha in the genealogy of Tilakacharya (Samvat 1296). Compare previous Index of Authors. 5, 65 and 131.
Chandraprabha
Pupil of Pradyumnasuri and guru of Dhanesvara 5, 16, He is praised as the author of a Prabhatikajinapatistuti.
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xvi
INDEX OF AUTHORS.
Chandraprabhasuri
Guru of Dharmaghosha. 5, 65 and 131, See previous Index of Authors.
Charitraratna
Mentioned as one of the teachers of Hemahausagani. 4, 19.
Charitraratnagani
Mentioned as pupil of Somasundara and guru of Somadharmagani the author of an Upadesasaptatika. See under Somadharmagani. 4, 58.
Chyavana
Mentioned as one of a number of commentators on the Bharatiya or Sangitasastra. 4, 43.
Jagachchandrasuri—
First of the three pupils of Devabhadra in the genealogy of Kshemakirti, from whom (Samvat 1332) he is one remove.
Jajjigasuri
Consecrated a temple of Mahavira in Satyapura in the Vira year 600. 4, 93. Compare Weber, p. 1003, where the sage's name is given variously as Jjaga, Jajnaga and Jajanaga, and the date of the transaction as the year 696.
Janardana
Author of the Mantrachandrika. He was the second of the three sons of Jagannnivasa (his elder brothers being Siromani, and his younger Chakrapani), who was the son of Srinivasa, the author of the Sivarchanachandrika. Janardana's book is based on his grandfather's work. 4, 65.
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INDEX OF AUTHORS.
nii
Janardana
Mentioned as having been overthrown in debate by Parvanatha. 4, 41.
Jambu
The pupil of Sudharman, Mentioned honoris causa 5, 4, 33, 121 and 139.
Jambu
Author of the Jinasataka. Of the Chandragachchha. 4, 90, There is a Chandradutakavya bg Jambukavi at 3, 292,
Jayakirti
Guru of Amalakirti (Samyat 1192). 5,147.
Jayakirtisuri
Mentioned as pupil of Merutunga and guru of Jayakesarin. 4, 76. See previous Index of Authors.
Jayakesarisuri
Mentioned as the pupil of Jayakirtisuri and the guru of Sid. dhantasagarasuri. 4, 56. See previous Index of Authors.
Jayachandra
Author, in Samyat 1506, of the Pratikramanakramavidhi. 4, 107. Mentioned as his guru by Jinaharsha, the author, in Samyat 1502, of the Vinsatisthanakavicharamritasangraha, 4, 112, and of the Ratnasekharanarapatikatha, 4, 111. In the former reference he is described as the second pupil of Somasundara, Munisundara being the first. Compare also 4, 118, and 4. 110. And See previous Index of Authors.
Jayatilaka
Flourished in Samyat 1241, 5, 39, B 669-iii
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xviii
INDEX OF AUTHORS.
Jayatilaka
Flourished in Samvat 1456. 5,51. This is probably the same as the Jayatilaka who will be found in previons Index of Authors.
Jayabhadra
Mentioned, along with Sabhadra and Yasobhadra, by Jinasenacharya, author of the Harivansapurana. 4, 171, Compare “For the space of ninety-seven years there were men who knew ten Angas or nine or eight Angas ; viz, Subhadda and
Jasobhadda, &e”. Hoernle, in Indian Antiquary, XX, p. 349.. Jayarama
Son of Vatsala and father of Suka, who was father of Malla, author of a commentary on the Kiratarjuniya. Jayarama's fame as a logician is referred to ; and he may therefore be the well-known writer on that subject of the name. 4, 22.
Jayasagaropadhyaya
Author, in Samyat 1495, of a short commentary called Vidhiratnakarandika on the Sandehadola pali of Jinadatta. He mentions Jinaraja (No. 45 in the pattavali of the Kharataragachchha ; died Samvat 1461) as his guru, and Prabodhachandragani as his vachanacharya. Jinabhadrasuri ( No. 56 in the same list; died Samyat 1514) corrected his book for him; and his own pupil Somakunjara wrote out the first
copy. 4, 119, Jayasinha
Papil of Paramananda, who was one of the three pupils (with Ratnaprabha and Kanakaprabha) of Devananda, who was che pupil of Santisuri, who was the pupil of Dhanesyara, who was the pupil of Chandraprabha. 4, 123. See under Pradyumnaşuri.
Page #32
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INDEX OF AUTHORS
ΣΙΣ
Jayasinhasuri
of the Prasnavahanakula and Harshapuriyagachchha. 5, 8 (“famous in Sakambhari land”). 5. 88. See previous Index of Authors.
Jayasinhasuri
Pupil of Krishnamuni. Author of a Dharmopadesamala. 5, 80.
Jayasinhasuri
Pupil of Aryarakshitasuri and guru of Dharmaghoshasuri in the Anchalagachchha. 4, 116. 5, 66, See previous Index of Authors.
Jayasena
Author of the Dharmaratnakara. He gives the following genealogy. Medarya, the tenth Ganadhara, was the founder of the Jhadavagadasangha. Dharmasena of that sangha was fourth in ascent from our author, the succession being as follows:
1. Dharmasena. 2. Santishena, 3. Gopasena, 4. Bhavasena. 5. Jayasena. 4,134.
Jayasena,
Mentioned as the guru of Amitasena and Dharmasa hodaya. Praised as a grammarian. He is mentioned after Santishena, and may be the same as the last Jayasena. 4, 172.,
Jasaittimuni
Author of the Jagatsundariyayogamala. 4,86.
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XX
INDEX OF AUTHORS.
Jinakirti
Author, in Samvat 1494, of a Parameshthistava and a commentary thereon. Pupil of Somasundara. See previous Index of Authors. 4, 101.
Jinakusala
Mentioned as having induced Tejahpala to build the temple of Santinatha, called Varataravasati, which Jinakusala consecrated. 4, 71. This is Klatt's No. 50 in the Kharataragachchha. See previous Index of Authors.
Jinachandra
The pupil of Jinesvara and gura of Abhayadeva. Author of the Samvegarangasala. 4, 70. 5, 12, 34 and 158. Author of a Kavachaprakarana. 5, 70. No. 41 in the Kharataragachchhapattavali. See previous Index of Authors.
Jinachandra
Pupil of Jinadatta and guru of Jinapati. 4, 114. This is No. 45 in the Kharataragachchhapattavali. See previous Index of Authors.
Jinachandra
Guru of Jinodaya. 4, 71 and 125. This is No. 53 in the Kharataragachchhapattavali. See previous Index of Authors.
Jinachandra
Pupil of Jinabhadra and guru of Samudrasuri (Jinasamudra). 4, 72. This is No. 57 in the Kharataragachchhapattavali. His dates there are "born Samvat 1487 at Jesalmir; diksha Samvat 1492; suripada Samvat 1514; died Samvat 1530 at Jesalmir".
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INDEX OF AUTHORS.
Jinachandra
A Digambara teacher. Pupil of Subhachandradeva and guru of Prabhachandradeva. 4, 139. 4, 149. 4, 160.
Jinachandra
Author of Jivavibhaktiprakarana. 5, 69 and 106.
Jinachandra· Author of the Navapaya. 5, 93. See previous Index of
Authors,
Jinachandragani
The Patan copy of Depachandra's Santinathacharitra was written for the use of Devaprabha, who was the pupil of Yasobhadra, who was the pupil of Vijayachandra, when Jinachan
dragani was teaching. 5, 79. Jinadatta
No. 44 in the Kharataragachchhapattavali. Pupil of Jinavallabha and guru of Jinachandra. 4, 70, 4, 114. Author of the
Sandehadolavali. 4, 118. See previous Index of Authors. Jinadatta
Author of the Vivekavilasa. 4, 115, 5, 34. This is the pupil of Jivadeva. He was contemporary with Ganachandragani (Samyat 1139). See previous Index of Authors.
Jinadatta
Mentioned as having corrected the Jivanusagana of Devasuri. 5, 22.
Jinadattacharya
Mentioned as his guru by Haribhadrasari the author of the Samaradityacharitra, 5, 91.
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xxii
INDEX OF AUTHORS.
Jinadasa
A Digambara writer. Author of the Jambusvamicharitra. He was one of two pupils (the other being Bhuvanakirti) of Sakalakirti, who was the pupil of Parsvanandin in the line of Kundakunda. His pupil Dharmadasa and the Brahmin Mahadeva helped him in the composition of his poem. 4, 144.
Jinadeya -
Mentioned as the pupil of Vidyatilaka. 4,99. Vidyatilaka is another name of Somatilaka, who is No. 43 in the Tapagachchhapattavali. See Weber, pp 1085 and 1088.
Jinapati
No 47 in the Kharataragachchhapattavali. Pupil of Jinachandra and guru of Jinesvara. 4, 114. Mentioned in connection with the erection of a chaitya in Kalyananagara in Samvat
1233. See previous Index of Authors. Jinaprabha
Author of the Tirthakalpa. 4,91. He gives dates for the completion of various parts of the work as follows. He finished the Satrunjayakalpa on the seventh day of the dark half of the month Tapas (Magha) of the Vikrama year 1385. 4, 92, He finished the Vaibharakalpa in Samvat 13–( the two last figures are doubtful: the correction “shadrasa" would give 66 which does not look right). He finished the Timpuristotra in the Saka year 1251 (-Samyat 1375). He finished the Ashtapadakalpa on the tenth tithi of the second half of the month Bhadrapada, being a Tuesday, of the Vikrama year 1389. Hammiramahammada was ruling. Author also of a commentary to the Ajitasantijinastava 4, 67.
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INDEX OF AUTHORS.
Jinaprabha
Author of a Dharmadharmaprakarana. 5, 111,
Jinabhadra
No. 56 in the Kharataragachchhapattavali. The date Samvat 1490 for him. 4, 130.
Jinabhadra
Xxiii
Jinabhadra
Author of the Jitakalpa. 5, 128 and 130. See previous Index
of Authors.
Guru of Padmavachaka. 5, 158.
Jinarajasuri
No. 63 in the Kharataragachchha. 5, 158. See previous Index of Authors.
Jinavallabha
No. 43 in the Kharataragachchha. 5, 68 (his "Pindavisuddhiprakarana"). 5; 105, 108 (his "Agamikavastuvicharasaraprakarana "). 5, 149 (guru of Abhayadevasuri). See previons Index of Authors.
Jinasekhara
The founder of the Rudrapalliyakharatarasakha. Mentioned as one of two pupils of Abhayadeva, the other being the aforesaid Jinavallabha. 4, 89. See previous Index of Authors.
Jinasagara
One of the pupils of the Jinaraja, who is No. 63 in the Kharataragachchha. 5, 158. Jinaraja was succeeded in the main line by Jinaratna; but in his time," Samvat 1686, originated the Laghvachary iyakharatarasakha from Acharya-Jinasagarasuri
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xxir
INDEX OF AUTHORS.
occasioned by Harshanandana pupil of Samayasundara, this is
the Sth gachchhabheda''. Klatt. Jinasinhasuri
No. 62 in the Kharataragachchha. 5, 158. See previous Index of Authors.
Jinasinha
Referred to by Jinaprabha, the author of the Tirthakalpa and Ajitasantijinastava, as his guru. 4, 67 and 95.
Jinasena
A Digambara writer. See Bhandarkar, "Early History of the Deccan, p. 65; and Report 1883–84, p. 118. Author, among other works, of the Harivansa. 4, 167. He wrote this work in the Saka year 705 ;“ when Indrayudha was ruling the North Country, Vallabha, the son of Krishna, ruling the south country, Vatsaraja (Bhandarkar's correction of “Vatasadhiraje" for the “ Vatsadiraje ” of the m3s.• is not required: with “Vatsadi” in this line compare "Jayayute" in the next) King of Ujjayini ruling the East country, and Jayavira surnamed Varaha, ruling the West country, or the land of the Sauryas.” (verse 52 of prasasti). In the prasasti a great many teachers, from Mahavira downwards, are named, but not apparently in exact succession. Jinasena himself was the pupil of Dharmasahodaya, who was the pupil of Amitasena.
Jinahansa -
No. 59 in the Kharataragachchhapattavali. Pupil of Jinasaa mudra and guru of Jinamanikya. 4,72. Author of the Acharangadipika. 4, 73. “ Jinahansa, son of Sahamegharaja of the Chopadagotra and Kamaladevi, born Samyat 1524; diksha
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INDEX OF AUTHORS.
XXV
Samvat 1535; padasthapana Samvat 1555 at Ahmedabad; died Samvat 1582 at Patan”. Klatt.
Jinaharsha
Author, in Samyat 1502, of the Vinsatisthanakavicharamritasangraha. He was a pupil of Jayachandra, one of the pupils of the Somasundara who is No. 50 in the Tapagach hapattavali. 4, 113. Author also of the Ratnasekharanarapatikatha. 4, 111. See previous Index of Authors. The present writer must be the author of the Balavabodha to Subhasilagani's Snatripanchasika. Subhasilagani was a pupil of Munisundara, and his commentator Jinaharsha was a pupil of Munisundara's fellow-pupil, Jayachandra,
Jinendrabhushana
A Digambara writer. Author of the Karakanducharitra. He speaks of himself as in the line of Kundakundacharya. He was the pupil and successor of Visvabhusbana, and the son of Harskasagara. 4, 142.
Jinesvara
No. 40 in the Kharataragachchhapattavali. His victory over the Chaityavasins, or those who maintained the lawfulness of using temples as dwelling-places, in a debate held before King Darlabala, is referred to. 4, 70. 5, 33. Compare 5, 157, Mentioned in his place in the Kharataragachchha. 4, 89. 5, 70 (Garu of Jinachandra).
Jinesvara
No. 47 in the Kharataragachchhapattavali, Mentioned as the guru of Jinasinhisuri, the founder of the 3rd gachchhabheda. 4. 114.
B 669-iv
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ххуі
INDEX OF AUTHORS.
Jinodaya
No.54 in the Kharataragachchhapattarali. Pupil of Jinachandra and guru of Jinaraja. 4, 71, "Jinodaya, son of Sabarundapala, who dwelt at Pahlanpore, and of Dharaladevi, born Samvat 1375; mulanaman Samarau. Samvat 1415 Ashadha Sudi 2; his padasthapana was made by Tarunaprabhacharya at Stambhatirtha. At the same place he founded a chaitya to Ajita, and on the Satrunjaya be made five pratishthas. He died Samvat
1432 Bhadra Vadi 2 at Patan". Klatt. Jinodaya
Mentioned as the pupil of Jinachandra and guru of the Hemasari whose pupil composed the Siddhantaratpavali.
4, 124. Jivadeyasuri -
Guru of Jinadatta (Samvat 1139). 5, 34.
Jnanabhushana
Mentioned as the pupil of Bhuvanakirti and gura of Vijayakirti. See under Sakalabhushana. 4, 134.
Jnanasagarasuri
Recipient in Samvat 1515 of a present of manuscripts. 5, 120.
Tilakaprabhasuri
Pupil of sri Devasuri. Author of a Subhashitavali and a Nitisastra. Guru of Viraprabba and Somaprabha. 5, 122. See under Ajitaprabhasuri.
Tilakacharya
See previous Index of Authors. His Avasyakalaghuvritti. 4, 74. His Pratikramanasutralaghuyritti. 4, 108. His Jitakal.
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INDEX OF AUTHORS.
xxvii
papritti, composed in Samyat 1274.5, 130. His Dasav aikalikasutratika. 5, 65.
Tumburu
Mentioned as having written a commentary on the Bharatiyasastra. 4, 43.
Trivikrama
Author of the Katantrapanjikodyota. He describes himself as the pupil of Vardhamana, who was the preceptor of King Karna. This Vardhamana is therefore the sage of the name who is No. 39 in the Kharataragachchhapattayali. A copy of this book written in Samvat 1221 is referred to by Kielhorn and noticed by Aufrecht under the short title Panjikodyota. 5, 41, Author also of a Vrittaratnakarasatratika, 5, 27. He describes himself there as the son of Raghavasuri; and is therefore probably the same as the Trivikrama, son of Raghusuri, who wrote the Acharachandrika and Pratishthapaddhati. ( Aufrecht in C. C.). Trivikrama traces his lineage to oue Satyamugriyamuni, who left Valabhi of the Gaudas and came to Elapura, (Ellora : see Bhandarkar, History of the Deccan, p. 64) that he might purify himself by bathing in the holy Godavari. There arose an ornament in his race1. Nagaka. His son was— 2. Gadadhara, His son was3. Sripati. His son was— 4. Sarangasuri. His son was5. Raghavasuri. His son was-- 6. Trivikrama. The sequence Raghava, son of Saranga, is given by Hall, p. 26, where it is stated that Raghava wrote the Nyayasaravichara in 1252 (Samyat 1308).
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xxviii
INDEX OF AUTHORS.
Dattila
Mentioned as one of the commentators on the Bharatiyasastra. 4, 43.
Dayakalasa
One of the pupils of Mativardhana in the genealogy of Sadhusundara. See under that name. 5, 159.
Dipasenaka
Pupil of Nandishena and guru of Sridharasena in the genealogy of Jinasera. 4, 172,
Durgadasa
Or Durgakavi. Author of a commentary on the Vidagdbainukhamandana, Son of Vasudeva. 4, 36.
Deva -
No. 36 in the Kharataragachchhapattavali. Mentioned as guru of Nemichandra. 4, 69,
Deyaguptasuri,
Otherwise called Jinachandra. See under that name in previous Index of Authorg. His Navapadaprakarana. 5, 40.
Deyachandra
Hemachandra's teacher of the name. His Santinathacharitra. 5, 73. For that book and its author see Fourth Report p. 10. Mentioned as the pupil of Gunasena and the author of the Sthanakavritti and Santinathacharitra. 5, 6.
Deyachandra
Mentioned as the popil of Padmapandin of the race of Pujyapada. 4, 100.
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INDEX OF AUTHORS.
ΧΧΙΣ
Devachandra
Mentioned as the gara of Bhuvanachandra ( Samvat 1288 ). 5, 94,
Deyachandra
Referred to as his instructor by Durgadasa author of a commentary on the Vidagdhamukhamandana. 4, 36.
Devanaga
Guru of Govindagani. 5, 53. Compare previous Index of Authors.
Devaprabhasuri
Mentioned as the owner of the Patan copy of Devachandra's Santinathacharitra. He was the papil of Yasobhadra, who was the pupil of Vijayachandra. 5, 74.
Devaprabhasuri
Mentioned as a poet of some reputation, 5, 97.
Devabhadra
Guru of Prabhananda, the author of a commentary on the Vitaragastotra. 5, 49. See first entry under the name in previous Index of Authors.
Devabhadra--
One of the four pupils of Dhanesvara in the genealogy of the Abhayadeva who instructed Asada. See under Dhanesvara. 5, 47.
Devabhadra
Of the Chaitragachchha. Pupil of Bhuvanendrasuri and gura of Jagachchandra, Devendra and Vijayachandra, in the genealogy of Kshemakirti. See under that name. 5, 103,
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INDEX OF AUTHORS.
Devabhadra
Praised as a poet. 5, 97.
Devabhadra
Pupil of Vijayasinha and guru of Dharmaghosha in the
genealogy of Dharmaprahha. See under that name. 5, 127. Devasundara,
No. 49 in the Tapagachchha. See previous Index of authors.
The Patan copy of Silangasuri's commentary on the Sukritangasutra was written at the cost of a pious woman who listened to his instruction in Samyat 1454. 5, 72. Mentioned in his place in the gachchha. 4, 17. 4, 113,
Devasuri
Mentioned as the second of the four popils of Dhanesvara in the genealogy of the teacher of Asada. See under Dhanesvara.. 5, 47.
Devasuri
Pupil of Munichandra and Manadeva. See previous Index of Authors. 5, 38.
Devasuri
Author of a Jivanusasana. Pupil of Virachandrasuri. 5, 22.
Devasena
A Digambara writer. Pupil of Vimalasena. Author of the
Bhavasangraha. 4, 162. See previous Index of Authors. Devendrakirti
Mentioned as the pupil of Padmanandin and the guru of Vidyanandin in the genealogy of Nemidatta. See under that name. 4, 166. One of his pupils, Harshakirti by name,
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INDEX OF AUTHORS.
XXXI
was,
in Samvat 1679, owner of a copy of the Vardhamancharitra; and mentions that Devendrakirtisat in the seat of Prabhachandra, Dharmachandra, Lalitakirti, and Chandrakirti. 4, 164. Mentioned as the pupil of Chandrakirti and guru of Narendrakirti, 4, 135.
Devendramunisvara
Referred to by Dharmaghosha, the author of the Kalasattari, as his teacher, 4, 82. This is No. 45 in the Tapagachchhapattavali. See previous Index of Authors under Devendra. His Karma grantha. 4, 80. Mentioned as the author of the five Karmagrantha books, and of commentaries on the Siddhapanchasikasutra, Dharmaratna, and Sudarsanacharitra. Styled the "Sabhapati" of Vastupala. 4, 112.
Devendramunisvara
Author of a commentary on the Prasnottararatnamala. 4, 108. See previous Index of Authors.
Devendracharya—
Devendrasuri
One of the four pupils of Dhanesvara, who was the pupil of Chandraprabha. Devendra was the fourth pupil, the other three being Virabhadra, Devasuri and Devabhadra (or according to another reading, Santisuri) in that order. Devendrasuri's pupil was Bhadresvara, 5, 45. Compare 5, 103.
Author of the Chandraprabhacharitra. 4, 84.
Devendracharya
Stha
Author of a commentary on the Mulasuddhiprakarana. nakani is another name of the text. There is a reference to a
Sthanakavritti at Weber, p. 1001. 5, 165.
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xxxii
INDEX OF AUTHORS.
Devendrasinhasuri
Pupil of Ajitasinhasuri and guru of Dharmaprabhasuri in the Anchalagachchha. 4, 117. See previous Index of Authors.
Dronacharya
Author of a commentary on the Oghaniryukti. 4,79. For Drona, who corrected Abhayadeva's commentaries, Weber refers to Indische Stadien 16, 277, 357. See also previous Index of Authors.
Dhanagiri
Mentioned between Sinhagiri and Vajra, Nos, 15 and 16 in the Kharataragachchhapattavali. 5, 139.
Dhanachandra
The pandit who, in Samvat 1289, transcribed at Prahladanapura the copy of Vardhamana's Rishabhadevacharitra which is No. 51 in the Patan list. 5, 81.
Dhanesvarasuri
Mentioned by Balachandra in the genealogy of Abhayadeva the teacher of Asada. Dhanesvara was the pupil of Chandraprabha, who was the pupil of Pradyumnasuri, in the Chandragachchha. He had himself four pupils—Virabhadra. Devasuri, Devabhadra (2.1. Santisuri), and Devendrasuri. These four are two in ascent (Bhadresvara and Abhayadeva) from Balachandra and from Asada, the author of the text on which Balachandra is commenting. 5, 47. Referred to as the guru of Santisuri. 4, 123. Devendrasuri succeeded him. 4, 85. One of his pupils, by name Padmachandra, corrected Balachandra's work. 5,49. In two places (4, 85 and 5, 129), Dhanesvara and
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INDEX OF AUTHORS.
xxxiii
Devendra seem to be separated by an intermediary Chandrasuri. For this Dhanesvara see also previous Index of Authors.
Dhanesvara
Refuted the Digambaras. Referred to as the founder of the Chaitragachchha, in the city of Chaitrs, in which he officiated at the consecration of an image of Mahavira. 5,162.
Dhanesvarasuri
Chandrasari, the author of the Pratishthakalpa, apparently styles himself the pupil of Dhanes varasuri, who was the pupil of Silabhattasuri. 5, 64,
Dharmakirti--
Flourished in Samvat 1288, in which year a manuscript was written for his use in lecture, 5, 94,
Dharmakirti
A Digambara writer of whom it is stated that he wrote prakaranas only and not sutras. 5, 148.
Dharmakirtideya
Pupil of Prabhachandradeva and guru of Visalakirtideva, 4,160, At 4, 139 Bhuvanakirtideva is inserted between Prabhachandradeva and Dharmakirtideva,
Dharmaghoshasuri
Author of the Prasnottarapaddhati or Satapadika. The questions were composed by a certain suri, and the answers furnished by Dharmaghosha. In other words the book is written in the form of question and answer. It was composed in Samwat 1263; and in Samvat 1294 Mahendrasuri, a pupil, but not B 669
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xxxiy
INDEX OF AUTHORS.
the successor of the author, put out an easier edition of it. 5, 66, Compare previous Index of Authors, and 4, 116.
Dharmaghosha
Pupil of Silabhadra. 5, 107. Flourished in Samvat 1186, in which year the pious Dhavala heard him expound the Parigrahapramana. 5, 107.
Dharmaghosha
Pupil of Chandraprabha and garu of Chakresvara, Honoured by Jayasinha. 4, 75. Compare 5, 65 and 131.
Dharmaghosha
Pupil of Devabhadra and guru of Silabhadra and Paripurnadeva. 5, 126.
Dharmaghosha
Pupil of Vidyananda and guru of Somaprabha in the Tapagachchha. 4, 112. This is No. 46 in the pattavali of that gachchha. Vidyananda and Dharmaghosha were fellow pupils of Devendra. The former was to have succeeded him; but died 13 days after him, when Dharmaghosha was appointed to the vacant place. See previous Index of Authors. His Kalasattari. 4, 82. Compare Weber, p. 951.
Dharmachandra
Pupil of Dharmadeva and guru of Dharmaratna in the genealogy of Dharmaprabhasuri. See under that name. 5, 126.
Dharmachandra
Referred to as the pupil of Dharmachandra and the guru of Lalitakirti, 4, 149 anil 164.
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INDEX OF AUTHORS.
XXXV
Dharmatilaka
Mentioned as the pupil of Dharmaratna and guru of Dharmasinha in the genealogy of Dharmaprabha. See under that name. 5, 126.
Dharmadasa
Pupil of Jinadasa the author of the Jambusvamicharitra. 4,145.
Dharmadasa
The author of the Vidagdhamukhamandana. 4, 36.
Dharmadasagani
Author of the Upadesamala. The legend of the origin of that book. 5, 164.
Dharmadeva
Mentioned as the pupil of Vijayasena and the guru of Dharmachandra in the genealogy of Dharmaprabha. See under that name. 5, 126.
Dharmaprabhasuri
Author of a Gurustuti. He gives the following genealogy. After mention made of Vira, Sudharma, Jambo, the Vajrasakha, the Chandrakula and the Brihadgachcha the genealogy proper begins with
1. Sarvadeva. He was succeeded by 2. Nemichandra. He was succeeded by
3. Santisuri. The author of the Prithvichandracharitra. He had eight pupils as follows
4. Mahendra, Vijayasinha, Devendrachandra, Padmadeva, Purnachandra, Jayadeva, Hemaprabha and Jinesvara. Santisuri consecrated all these as his successors in a temple of
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Xxxvi
INDEX OF AUTHORS.
Neminatha, and founded at the same time the Pippalagachebha. The succession is continued through Vijayasinha, the second of the eight pupils of Santisuri. He was succeeded by—
5. Devabhadra. He was succeeded by 6. Dharmaghosha. He was succeeded by
7. Silabhadra and Paripurnadeva. They were succeeded by
6. Vijayasena. He was sacceeded by
9. Dharmadeva. He was succeeded by10. Dharmachandra. He was succeeded by11. Dharmaratna. He was succeeded by— 12. Dharmatilaka. He was succeeded by13. Dharmasinha. He was succeeded by
14. Dharmaprabha. 5,125. Dharmaprabhasuri
Of the Anchalagachchha. See previous Index of Authors.
4,17. Dharmaratna
Mentioned as pupil of Dharmachandra and guru of Dharmatilaka in the genealogy of Dharmaprabha, See under that name, 5, 126,
Dharmasahodaya
Mentioned as his guru by Jinasena. 4, 173.
Dharmasagaropadhyaya--
Flourished in the "reign" of Hiravijaya. 4, 102.
Dharmasinha
Mentioned as pupil of Dharmatilaka and guru of Dharmaprabhasuri in the genealogy of the latter, See ander Dharmaprabha. 5, 126,
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INDEX OF AUTHORS.
Xxxvii
Dharmasuri
Pupil of Silabhadra in the Rajagachchha. King Vigraharaja was among his pupils. 5, 109.
Dharmasuri
Author of the Mangalashtaka. 5, 138.
Dharmasuri
Transcribed, in Samvat 1384, a copy of the Santinathacharitra. 5, 123.
Dharmasudhi
Author of the Sabityaratnakara. Son of Parvatanathamabopadhyaya and Pallamamba. 4, 37.
Dharadhara
An astronomer. Mentioned as having praised Jinaprabhasuri at court. 4, 95.
Nandaramamisra
Author, in Samvat 1815, of the Prasnaratna. 4, 52.
Nandikeshvara
Anthor of the Ganakamandana. Son of Vedangaraya. 4, 46.
Nannasuri
Pupil of Krishnarshi. Gave a public exposition of the Mahaviracharitra of Hemachandra in Samvat 1368, at the request of his disciple the sadhu Mula of the Karenugachchha in Kola puri 5, 61.
Nayaprabhasuri
Wrote, in Samvat 1332, the first copy of Kshemakirti's commentary on the Brihatkalpasutra. 5, 104.
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xxxviii
INDEX OF AUTHORS.
Narachandra
Author of the Chaturvinsatijinastava. 5, 95. Narachandra was a contemporary of Udayaprabha. See previous Index of Authors. At the end of the Patan copy of the Chaturvinsatijinastava, written in Samvat 1334, there is a "sadgurupaddhati" containing the following genealogy In the city which saw the origin of the Harshapariyagachcha there arose
-
1. Abhayadevasuri. To him king Karna granted the title of Maladharin. See previous Index of Authors, and compare Weber, p. 694. Weber's statement, at p. 1098, that in the passage cited at p. 694 Viradevaganin is referred to as a pupil of Jayasinha does not appear to be correct. Abhayadevasuri is the pupil of Jayasinha, and Viradevaganin is merely referred to as a learned contemporary, to whom Abhayadeva was indebted for instruction. Abhayadeva was succeeded by
2. Hemachandra Maladharin. The favour he enjoyed at the hands of king Siddha is referred to. Hemachandra was apparently succeeded by
3. Vijayasinha, and Vijayasinha by
4. Chandrasuri. But the other names given would appear to be for the most part names of contemporaries. They are Vibudhachandra, Munichandra, Haribhadra, Manadeva, Siddhasuri, Devabhadra, Mahendrasuri, Devanandasuri, Nemichandra, Yasobhadra, Devaprabha (the author of the Pandavapurana. His fame as a poet is referred to. Compare 3, 131), Narachandra (our Author), Narendraprabha, Ratnaprabha, Manikyasuri, Prabhanandasuri and Padmadeva.
Narachandrasuri
Guru of Ratnaprabha (Samvat 1418). 5, 116.
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INDEX OF AUTHORS.
xxxix
Narendrakirti
Mentioned as pupil of Devendrakirti and guru of Surendrakirti.
4, 135.
Naganandin
Guru of Asaga the author of the Vardhamanacharitra. 4, 164.
Nagendra
Referred to as one of his authorities by the author of the Visvalochanakosha. 5, 163.
Narada
Referred to as one of the many commentators on the Bharatiya or Sangitasastra. 4, 43.
Nilakanthakavi
Author of the Chimanicharitra. A protege of Alahaviradi Khan. 4, 23.
Nrisinharanyamuni
Author of the Vishnubhaktichandrodaya. 4, 11.
Nemichandra
Pupil of Sarvadevasuri and guru of Santisuri in the Brihadgachchha of the Chandrakula, 5, 119 and 125. Compare 5, 23.
Nemichandra
A contemporary of Narachandra. See that entry. 5, 97.
Nemichandra
Pupil of Deva and guru of Uddyotana. 4, 69. This is No. 37 in the Kharataragachchhapattavali.
Nemichandra
Pupil of Nayanandin and guru of Vasunandin the author of the Upasakadhyayana. 4, 136.
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xl
INDEX OF AUTHORS.
Nemichandradeva
Pupil of Sahasrakirtideva. Flourished in Samvat 1653, in which year a copy of the Pandavapurana was presented to him. 4, 160.
Nemidatta
(Brahmanemidatta). Pupil of Mallibhushana. Author of the Dhanyakumaracharitra. 4, 151. Author of the Sudarsanacharitra, at the end of which he gives his genealogy as follows:
In the Mula sangha, the Varabharatiya (Sarasvati) gachchha, and the Balatkaragana gachchha, in the line of Kundakunda there arose.
1. Prabhachandra. He was succeeded by2. Padmanandin. He was succeeded by3. Devendrakirti. He was succeeded by4. Vidyanandin. He was succeeded by5. Mallibhushana.
Srutasagara, Sinhanandin and our author are apparently mentioned as fellow pupils of Mallibhushana. 4, 166. For this Brahma-Nemidatta see Bhandarkar, Report 1883-84, p. 117 (previons Index of Authors under Srutasagara), where Samvat 1585 is given as the year in which he wrote his Sripalacharitra. See also Weber, p. 1028, where will be found an account of Nemidatta's Nemijinapurana. The Aradhanakathakosa (No. 471 of my Collection of 1884-86), and the Sravakachara (No. 558 of the same) are other works by this writer, to which Weber refers. From the Decc. C. P. 109, he adds to these another work, the Dharmopadesana. See 4, 141 for the genealogy at the end of the Aradhanakathakosha.
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INDEX OF AUTHORS.
Nemiprabhasuri
The second of the four pupils of Sriprabhasuri, author of the Dharmavidhi. The first pupil was Bhuvanaratna ; and the third and fourth pupils Manikyaprabha and Mahichandra. Nemiprabha was the maternal uncle of Udayasinha, the commentator on the Dharmavidbi. 5, 115.
Padmachandra
Pupil of Jinasekhara and guru of Abhayadeva, the author of the Jayantakavya. See under that name and previous Index of Authors under Padmachandra (3), 4, 89.
Padmachandra
Mentioned by Kshemakirti, the author of a Brihatkalpasutravritti, as the second of the three pupils of Vijayendusuri, The first was Vajrasena, and the third was Kshemakirti himself. 5, 104.
Padmachandra
Pupil of Dhanesvarasuri, Corrected Balachandra's commentary on the Upadesakandali of Asada. 5, 49.
Padmadeva
Guru of Lakshmachandra, the author of certain ashtakas. 5, 63.
Padmanandin
In the line of Kundakundacharya. Guru of Sakalakirti. 4,144. (No. 1420 : Pasanandi, in v. 23 is a mistake for Padmanandi). 4, 133. At 4, 144 there is also a Jambudvipaprajnaptisangraha ascribed to a Padmanandin who may be this sage. 4, 160, and 156. See Bhandarkar's Report 1883-84, pp. 106, 113 and 404. See also 4, 143 and 149. B 669-yi
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xlii
INDEX OF AUTHORS.
Padmanandin
Pupil of Prabhachandra and guru of Devendrakirti in the genealogy of Nemidatta. 4, 166.
Padmanandin
Of the Pujyapada line. Guru of Devachandra. 4, 100.
Padmaprabahasuri
Pupil of Tilakacharya. 4, 75.
Padmavachaka
Mentioned as pupil of Jinabhadra and guru of Mativardhana. 5, 159.
Padmasagara
Pupil of Dharmasagara, who was the pupil of Hiravijaya. Author, in Samvat 1633, of the Nayaprakasashtaka with commentary. 4, 103.
Paramanandasuri
Mentioned in the genealogy of Pradyumnasuri, as pupil, along with Ratnaprabha, of Devananda and Kanakaprabha.
4,
123. A writer of the name was the author of a Pravrajyavidhana. 5, 63.
Paripurnadeva
Mentioned as the younger pupil, the elder being Silabhadra, of Dharmaghosha. They were succeeded by Vijayasena. 5. 126.
Parvatesasuri
Or Parvatanathasuri, One of the three sons (the others being Narayana and Rama) of Dharmas udhi. Author of a Shaddarsanaikatmya. 4, 40.
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INDEX OF AUTHORS.
xlii
Parsvadevagani
Helped Chandrasuri in the composition of the latter's Munisuvratacharitra (Samvat 1121). 5, 18.
Parsvadevagani
Author, in Samvat 1697, of a commentary on the Upasargaharastotra. 4,78
Punjaraja
Author of a Sarasvatatika. 5, 167 (insert “Ends:" after the second line of the extract). He gives the following account of himself. There was a sadhu named
1. Sadepala. His son was2. Kora. His son was3. Pama. His son was the sadhu4. Gova. His son was the sadhu
5. Yampacha. Madi was Yampacha's wife, and they had two sons,
6. Jivana and Megha. These two were the Ministers of Khalachi Sahi Gayasa. Jivana gave over the whole charge of that ofice to his brother, and devoted himself to religious study. Megha obtained from King Gayasa the title of Mapharala Malik. To Jivana were born, of his wife Maku, two sons
7. Punjaraja and Manja. Punjaraja became king, bat abandoning his kingdom .to his younger brother, devoted himself to study and wrote this book. He belonged to the Srimala family of Malabar.
Purushottamaprasada
Author of the Mukundamahimastava. 4, 33,
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xliv
INDEX OF AUTHORS.
Pujyapada
His fame as a grammarian alluded to. 4, 157.
Purnachandra
Guru of Hemahansasuri, who was the guru of the anonymous author of a commentary on the Sanyamamanjari. 4, 121.
Purnabhadra
Pupil of Salibhadra of the Tharapadragachchba. Guru of the anonymous author of a commentary on the Sangrahani. 5, 41.
Pradyumnasuri
Mentioned by Hemachandra as pupil of Yasobhadra and guru of Gunasena in the genealogy of Devachandra, his teacher. His book, the Sthanakani, is referred to. 5,5. The Mulasuddhiprakarana is the eighth and last Sthanaka. See 5, 80, where the whole work is called Siddhantasara. Compare also 5, 106 and 165.
Pradyumnasuri
Pupil of Kanakaprabha. Helped Balachandra with his commentary on the Upadesakandali. 5, 49. Compare previous Index of Authors.
Pradyumnasuri
Guru of Chandraprabha, Converted the king of Talapatapura, 5, 46.
Prabhava
The pupil of Jambu. 5, 4, 121 and 139,
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INDEX OF AUTHORS.
xlv
Prabhakara
Author of the Rasapradipa with its commentary. He mentions his father Madhava and his "vidyaguru” Visvanatha. 4, 35. He composed the Raspradipa in Samvat 1640. He mentions his Alankararahasya. “Prabhakara, son of Madhava Bhatta, grandson of Ramesvara Bhatta, brother and pupil of Visvanatha and Raghunatha, born in 1964: Ekavaliprakasa. Kumarasambhavatika. Churnika Vasavadattatika. Raspradipa, written in 1583. Laghusaptasatikastava, written in 1629. Vi
vahapatala. Sastradipika. Hall p. 181.” Aufrecht in C. C. Prabhakaramisra
Author of a commentary on the Nalodaya. He mentions his father Anandaka and his younger brother Vidyakara. 4, 24.
Prabhachandra
In the line of Kundakunda, Author of the Aradhanasarakatha. 4, 140.
Prabhachandra
Third in ascent from Devendrakirti (Samvat 1678). 4, 166.
Prabhachandradeva –
Pupil of Abhayadeva. It was at his instigation that Gunachan
dragani wrote his Mahaviracharitra. 5, 34, Pritikara
Author of the Samaprakasana, 4, 7. Bappabhattisuri
Consecrated an image in Mathura in Samvat €26. He was held in honour by King Ama. 4, 93. For these two compare Weber, pp. 1004 and 1116 (see also p. 932); and Indische Studien 16, 60 and 161,
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x]vi
INDEX OF AUTHORS.
Balabhadra
Author of the Horaratna, 4, 63,
Baladeva
Mentioned as pupil of Mandaracharya and guru of Mitraka. 4, 174.
Balakrishna
Author of the Dattakasiddhantamanjari. Son of Devabhattadikshitapandita of the Pahlanitakara kula ; pupil of Advaitananda. 4, 8.
Balakrishna
Author of the Tajikakaustubha. Son of Yadavabhatta of the line of Ramajitpandita. He wrote also a Narayanastavana, a Sankarastavana, a Sivastotra, a Yantroddharasahitamahaganapatistotra, a Trivenistotra, a Yogiuyashtadasakrama and a
Suryasankrantinirnaya. 4, 50, Balachandra
The Commentator on Asada. See Third Report, Text, p. 40. In the previous Index of Authors the date Samyat 1322 has been wrongly given as the date of the composition of Balachandra's Vivekamanjaritika. It is the date of the Cambay copy of the book. Asada flourished in Samvat 1248; and as Balachandra wrote at the request of the minister Jaitrasinha, son of Asada, his date must be put at about Samvat 1278. His commentary on Asada's Upadesakandali. 5, 42. Balachandra gives here the genealogy of Abhayadeva's, Asada's teacher; and continues it to himself as follows :
1. Vajra was succeeded by2. Virasena. This is the Vajrasena of the pattavalis.
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INDEX OF AUTHORS.
xlvii
He "begat" four sakhas, called after their respective founders, the Nagendra, the Chandra, the Nirvriti, and the Vidyadhara sakhas.
In the Chandra sakha or gachha there arose many sages. Abhayadeva's lineage begins here with:
1. Pradyumnasuri. His conversion of the King of Talapata City is referred to. He was succeeded by
2. Chandraprabha. Author of a Prabhatikajinastuti. He was succeeded by
3. Dhanesvara. He learned the science of magic from his dead teacher, and won over by its means the goddess of the City Samayu. He had four pupils
4. Virabhadra, Devasuri, Devabhadra, and Devendrasuri. In a gloss it is stated that according to other texts or authorities the third pupil's name was not Devabhadra, but Santisuri. The fourth of these pupils, Devendrasuri, was succeeded by
5. Bhadresvara. It was through being burnt up in the fire of his meditation that Kama got the name Ananga, (Compare 3, 39; and correct the remark in Previous Index of Authors. The epithets referred to belong to Bhadresvara). He was succeeded by
6. Abhayadeva, Asada's guru. He was succeeded by7. Haribhadra. He was succeeded by
8. Balachandra, Pradyumnasuri helped Balachandra with his book; and Ramachandra corrected it for him. See under those names.
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xlviii
INDEX OF AUTHORS.
Buddhisagara
Twin papil with Jinesvara of Vardhamana. Reference is made to a grammar and a work on metrics of his composition. 5,33. For the grammar compare Weber, p. 265, where it is stated that Buddhisagara is one of several authorities on grammar often cited by the author of the commentary on Mahesvara's Sabdaprabheda,
Bhadrabahu
Twin pupil with Sambhutivijaya of Yasobhadra. See previous Index of Authors. Referred to as the author of a Vasudevacharitra in 125,000 slokas. 5, 73. Referred to by Malayagiri as the author of the text of the Pindaniryukti, 5, 31. Referred to as the author of the Brihatkalpasutra. 5, 102. His Upasargaharastotra. 4, 78. His Oghaniryukti. 4, 79.
Bhadresvarasuri
Mentioned as the pupil of Devendrasuri and the guru of Abha
yadevasuri. 5, 47. See under Balachandra. Bhadresvarasuri
Mentioned as a pupil of the Devasuri who established the truth of the doctrine that a woman can be saved. 5, 123. (Compare 3, 167, and previous Index of Authors.)
Bhanukirti
Mentioned as flourishing in Samvat 1663, the pupil of Gunabhadra and the guru of Kumaraseni (Digambaras). 4, 131.
Bhanukirtideva--
Mentioned as pupil of Yasahkirtideva and guru of Sribhushana (Digambaras). 4, 139.
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INDEX OF AUTHORS.
Bhanuchandra
The guru of the Somachandragani who in Samvat 1685 wrote out a copy of the Viveka vilasa of Jinadattasuri, Somachandra praises his teacher for his exertions in freeing the pilgrims to Satrunjaya from a tax; and mentions that Vijayadeva was at
the time the reigning suri. 4, 115. Bhavadevasuri
Author of a Parsvanathacharitra. 4, 106. He claims to be descended from Kalikacharya, and is probably the author of the Kalikacharyakatha to be found at 1, 30.
Bhayasena,
Referred to as the pupil of Gopasena and guru of Jayasena, the author of the Dharmaratnakara (Digambaras). 4, 153.
Bhuvanakirti
Referred to as the pupil of Sakalakirti and the guru of Vijayakirti (Digambaras). See under Subhachandra. 4, 143. Referred to as the pupil of Sakalakirti and the guru of Jnanabhushana, 4, 133,
Bhuvanakirtideya
Referred to as the pupil of Prabhachandradeva and the guru of Dharmakirtideva (Digambaras). See under Nemidatta, 4, 141.
Bhuvanachandra
In Samvat 1288 this writer adorned with a tippana (explanation of difficult words and phrases written in the margin), the copy of the Sabdanusasanavritti of Hemachandra which is No. 55 of the Patan Palm-leaf Manuscripts. 5, 94. B 669-pii
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1
INDEX OF AUTHORS.
Bhuvanaratnasuri
One of the four pupils of Sriprabhasuri the author of the Dharmavidhi. See under Udayasinha.
Bhuvanendrasuri
Of the Chaitragachchha, an offshoot of the Chandragachchha. Mentioned as the guru of Devabhadra in the lineage of Kshemakirti, See under that name.
Mandana
Referred to as his teacher by Nilakantha the author of the Chimanicharitra. 4, 24.
Matangamuni
Referred to as one of many commentators on the Bharatiyasastra. 4, 43.
Mativardhana
Referred to as pupil of Padmavachaka and guru of Merutilaka in the genealogy of Sadhusundara. See under that name. 5, 159.
Madanaraja
Son of Hammira. Patron of Ranahastin, the author of the Rajavijaya. 4, 58.
Malayagiri
See previous Index of Authors. His commentary on the Panchasangraha. 5, 32. His commentary on the Pindaniryukti of Bhadrabahu. 5, 31. His commentary on the Saptatika. 4, 128,
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INDEX OF AUTHORS.
Malla
Author of a commentary on the Kiratarjuniya. He was the son of Suka, who was the son of Jayarama, who was the son of Vatsala. He mentions his mother Sujna. 4, 22,
Mallavadyacharya
Author of a commentary on the Nyayabindutika of Dharmottara. See Fourth Report, Text, p. 3. 5,3,
Mallibhushana
Mentioned as pupil of Vidyanandin and guru of Sinhanandin in the genealogy of Brahmanemidatta (Digambaras). 4, 141. 4, 151.
Mallishena
Author of a Syadvadamanjaritika. See previous Index of Authors. 4, 125. Compare Weber, 306.
Mahadevakavi
Helped Jinadasa in the composition of that writer's Jambusvamicharitra. 4, 146.
Mahasena,
This is perhaps the name given as that of the author of the Anuyogadvarachurni. 5, 51.
Mahichandrasuri
Mentioned as one of the four pupils of Sriprabhasuri. See under that name. 5, 115.
Mahendraprabhasuri
Guru of Merutunga in the Anchalagachchha. See previous Index of Authors. 4, 76 and 177.
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INDEX OF AUTHORS.
Mahendrasuri
The pupil of Hemchandra. See previous Index of Authors. Mentioned as one of the first who heard the Kumarapalapratibodha of Somaprabhacharya. 5, 39.
Mahendarsinhasuri
Pupil of Dharmaghosha in the Anchalagachha. See previous Index of Authors. His Satapadika or Prasnottarapaddhati (the completion of a work by Dharmaghosha), written in Samvat 1294. 5, 66.
Mahesvarasuri
Author of the Sanyamamanjari. 4, 122.
Manikyasuri
Mentioned as the pupil of Jinahansasuri and the guru of Gunaratnasuri in the genealogy of Samayasundara. See under that name. 4, 72. No. 60 in the Kharataragachchhapattavali, where he is followed by Jinachandra, the intermediate Guna
ratna and Saravichara of our passage being passed over, Manikyanandin
Author of the Parikshamukha. His commentator says that this work on Nyaya was based on the work on the same subject of Akalanka. 4, 155. See Pathak, Journal Bombay Branch
R. A. S. XVIII, 219. Manikyaprabhasuri
Mentioned as the guru of Udayasinha. See under that name, 5, 115.
Manibhadra,
The name of a yati who in Samvat 1186 wrote out in Chittore a copy of a Jinadattakhyana. 5, 63.
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INDEX OF AUTHORS.
Madhavadeva
Author of the Nyayasara. See Eggeling No. 2119.
Mukundamuni
4, 13.
Manatungasuri
See previous Index of Authors. His Bhaktamarastotra, 5, 137. With the commentary of Kanakakusala. 4, 109.
Manadeva
Mentioned as one of the two gurus of Ajitadevasuri, (Samvat 1233) the other being Munichandrasuri. 5, 38.
liii
Malajit
A name of Vedangaraya, the father of Nandikesvara. See Bhandarkar's Report, 1882-83, p. 35. 4, 44.
Author of the Paramarthabodha. 4, 21.
Munichandra-.
Mentioned as the scribe who in Samvat 1258 wrote out a copy of the Naganandanataka. 5, 109.
Munichandrasadhu
Mentioned as the scribe who in Samvat 1181 wrote out a copy of the Oghaniryukti. 5, 109.
Munichandrasuri
Apparently referred to as the pupil of Vibuddhachandra and the author of a work with some such title as Kriyoddhara. 5, 97.
Munichandrasuri
Mentioned as one of two gurus, the other being Manadeva, of Ajitadevasuri. (Samvat 1233). 5, 38.
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INDEX OF AUTHORS.
Munichandra
Flourished in Samvat 1650. 4, 166.
Munisundara
Pupil of Somasundara. See previous Index of Authors. Mentioned. 4, 110, 4, 113. He checked an outbreak of cholera by composing a Santistava. 4, 18,
Meghaprabhacharya
Author of a Suktimuktavali or Drishtantadvatrinsat. 5, 21. Author also of the Dharmabhyudayanataka. 5, 19.
Medarya
The Digambara form of the name Metarya. Said to have been the tenth ganadhara and the founder of the Jadhavagada sangha. 4, 152.
Merutilaka
Mentioned as the pupil of Mativardhana and guru of Amaramanikya in the genealogy of Sadhusundara. See under that name. 5,159.
Merutunga
Of the Anchalagachchha. See previous Index of Authors. 4. 76. Author of a Satapadisaroddhara. 4, 117.
Yasahkirti
Mentioned as the pupil of Ratnakirti and the gura of Gunachandra in the genealogy of Gunachandra. See under that name. 4, 132,
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INDEX OF AUTHORS.
Yasahkirtideya--
Mentioned as the pupil of Nemichandradeva and the guru of Bhanukirtideva in the genealogy of Sakalakirti. See under that name. 4, 139,
Yasastilakasuri
See previous Index of Authors. 4, 74.
Yasobahu
Mentioned as the pupil of Jayabhadra and the guru of Loharya
(Digambaras). 4, 171. Yasobhadra
The pupil of Sayyambhava and guru of Sambhutivijaya and Bhadrabahu. No. 6 in the Kharataragachchhapattavali, 5, 4, 121 and 139.
Yasobhadrasuri
Guru of Pradyumnasuri. See under that name. See also text of Fourth Report, p. 6. 5, 5 and 166. A Yasobhadra is also referred to at 5, 97.
Yasobhadrasuri
Referred to as the pupil of Vijayachandrasuri and the guru of Devaprabhasuri. This last sage was the owner of the Patan
copy of Devachandra's Santinathacharitra. 5, 74. Yasobhadrasuri
A sage of this name, the ornament of the Bambhanagachchha, consecrated a flag in Cambay in the year 502 from Vikrama, an event which at the time when the Tirthakalpa was written was still annually commemorated. 4, 96.
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lvi
INDEX OF AUTHORS.
Yajnikadeya
Author of the Ishtakapuranabhashya. “Yajnikadeva, also Devayajnika, or Srideva, or simply Deva, son of Mahadeva ( Prajapati), son of Gangadhara, son of Kehladeva, son of Devasura, son of Svardeva. He was the elder brother of Lakshmidhara, and father of Maharshi and Udaya (Weber, p. 53)” Aufrecht in C. C. 4, 3.
Yadayabhatta
Father of Balakrishna, the author of the Tajikakaustubha. Aufrecht in C. C, makes Yadavabhatta, the author also of a Tajikakaustubha, with one reference to B. 4, 142, but this is probably a confusion between the father and the son. A similar remark probably applies to the Tajikakaustubha of Ramakrishnabhatta, ( father of Yadava ) for which the same single reference is given. 4, 50.
Yashtika
Mentioned as one of the many commentators on the Bharatiyasastra. 4, 43.
Yogindradeva
Author of the Paramatmaprakasa ( a Digambara ). 4, 155.
Ranahastin
Author of the Rajavijaya ( No. 186 of my collection of 1883-4). He mentions his patron King Madana, son of Hammira, son of Sinhanadeva. 4, 57.
Ratnakirti
Mentioned as the guru of Yasahkirti in the genealogy of Gunachandra. Of the Balatkara gana and the Sarasvata gachchha, 4, 133.
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INDEX OF AUTHORS.
Ivii
Ratnanandin
Author of the Bhadrabahucharitra (a Digambara writer). He mentions his gura Anantakirti and his sikshaguru' Lalitakirti.
4. 161. Ratnaprabhasuri
Pupil of Devasuri. See previous Index of Authors. Author of the Upadesamalavritti. 5, 123. The date of the book is Samvat 1238; Weber's “ 1278” at p. 922 must be a misprint,
Compare Weber, p. 1022. Ratnaprabha
Mentioned as twin pupil with Paramananda of Devananda in the genealogy of Pradyum pasuri. 4, 123.
Ratnaprabha
Flourished about Samvat 1418. 5,161.
Ratnaprabha
Author of the Antarangasandhi. 5, 127. The date Samvat 1392, from its position in the colophon, seems to be the date of the composition of the work. “ Dharmaprabhasuriratnaprabha,” may mean that Dharmaprabha was his teacher, or may be a . mistake in transcription.
Ratnasekhara
No. 52 of the Tapagachchhapattavali. See previous Index of Authors. Hemahansagani, the author of the Nyayarthamanjusha, speaks of him as his teacher, and says that he was the first of the pupils of Somasundara. 4, 17 and 77.
Ratnasekharasuri
Mentioned as the pupil of Hematilaka and the gore of Hemachandra (Samyat 1428). 4, 118. B 669-viii
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Ivi
INDEX OF AUTHORS.
Ratnasinhasuri
Mentioned as the gura of Udayavallabha and Jnanasagara. To these two latter certain books were presented in Samvat 1515. Compare previous Index of Authors under the names Ratnasinha and Labdhisagara. 5, 120.
Ratnasinha
Author of the Pradyumnacharitamahakavya, which book he wrote in Samvat 1671, when Hemasoma was chief suri of the
Tapagachchha. 5, 163, Ratnakarasuri
Flourished in Samvat 1370. 5, 110. At 5, 66, there is a reference to a Ratnakarasuri gachchha. The place in both references is Cambay.
Ravideva
Author of the Nalodayakavya. Compare previous Index of Authors, 4, 25.
Raviprabha
Referred to as the guru of the Vinayachandra (mahakavi) who corrected the Dharmavidhivritti of Udayasinha. The date
of composition of Udayasinha's work is Samvat 1286. 5, 115. Rajamallasuri-.
Author of the Adhyatmakamalamartanda (a Digambara writer). 4, 131,
Rajasekhara
Author of the Kavyamimansa or Kavirabasya. Aufrecht in C. C. notes that a "Kavyamimansakara" is quoted by Sankara, Oxf, 135 a. 5, 19.
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lix
INDEX OF AUTHORS.
Ramachandra
Author of the 'Raghavilasanataka. The well-known pupil of Hemachandra. See previous Index of Authors and Fourth
Report, Text, p. 16. 5, 144. Ramachandra
Referred to as the guru of one Kamalachandra, who wrote out a certain book in Samvat 1317. 5, 23.
Ramachandra
Author of the Yantraprakasa and the commentary thereto. He traces his descent from Sridhara of Malwa. Sridhara's son was Sankramadarpana, who was the father of Sivadasa. Sivadasa’s son was Suryadasa, who was the father of our author. His mother's name was Visalakshi. He mentions his guru Hirasvamin. 4, 54. Author also of the Sulbasutravritti. He refers there to a Salbasutravartika of his composition, and says that he wrote his Sulbasutravritti for a pupil named Krishna. He gives his spiritual name as Devendrasrama; and is, therefore, probably to be identified with the author of that name of the Purascharanachandrika referred to in C. C. (compare also the entry "Purascharanadipika by Ramachandra”). 4, 6. He is known as Rama Naimishastha. Compare "nimishavastavya” and “nimishiyasomasut" in the extract from the Sulbasutravritti. Aufrecht notes that his Kundakriti was written in A. D. 1489.
Ramachandra
Author of the Dharmaparikshakatha (a Digambark writer). 4, 100.
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INDEX OF AUTHORS.
Ramajitpandita
The genealogy of Balakrishna starts with this name. See under Balakrishna, Ramajitpandita was an inhabitant of the city Prakasha on the banks of the Tapti, 4, 50.
Ramamuni
Or Ramachandranatha. Referred to by Mukunda, the author of the Paramarthabodha, as his guru. 4, 21.
Ramasuri -
Mentioned as pupil of Vardhamanasuri and guru of Chandrasuri in the Nagendragachchha. 4, 84.
Ramilabhikshu
Said to have brought an image of Vira from Satyapura to Gajapur in the year 781 from Vikrama. 4, 94.
Ramesyara
Author of an Hillajavyakhya. He was son of Sripati, called Kshirasagara. ( Aufrecht has, from NP. VII, 37 a Hillajadipika by one Kshirasagara pandita. This is probably a confusion between father and son on the part of the compiler of that catalogue). He mentions his guru Govinda, the author of the Piyushadhara. 4, 60. He gives the exact date of Akbar's birth as the Saka year 1464, the month Kartika, the first half of the month, the sixth day being Saturday, 49 ghatis and 9 palas after sunrise. This is taken from the Vamanajataka.
Ravana
Mentioned as one of the many commentators on the Bharatiyasastra. 4, 43.
Rahula
Mentioned as one of the many commentators on the Bharatiya
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INDEX OF AUTHORS.
lxi
sastra. 4, 43. The poet Rahulaka is quoted both in the Sarngaddharapaddhati and the Subhashitavali,
Lakshmana
Author of a Naishadhatika. He mentions his father Ramakrishna and his brother Dinakara. See those names in C. C. 4, 26.
Lakshmichandra
Author of the Pujashtaka and nine other Ashtakas. Pupil of Padmadevasuri. 5, 63.
Lakshmichandra
Mentioned as the pupil of Visalakirtideva and the guru of Sahasrakirtideva (Digambara writers), 4, 139. 4, 160. In the latter place the gift of a book in Samvat 1653 to Nemichandra, the pupil of Sahasrakirti, is noted.
Lakshmichandra
A contemporary of Subhachandra, whose date is given as Samvat 1600. 4, 144,
Lakshmisagarasuri
No. 53 in the Tapagachchhapattavali. Described as pupil of Munisundara and Jayachandra (i.e. Jayasundara). 4, 110. .
Lalitakirti
Mentioned as the pupil of Dharmachandradeva and the guru of Chandrakirtideva (Digambara writers). 4, 149. It is noted there that a certain book was given in Samvat 1632 to Brahmadasa, who was the pupil of this Chandrakirtideva, At 4, 161, there is a reference to one Lalitakirti as the “sikshaguru" of Ratnanandin the author of the Bhadrabahucharitra. See also 4, 164.
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lxii
INDEX OF AUTHORS.
Lala
"Astronomer in Kanyakubja, father of Devidasa, Kshemakarna, Narayana, Chaturbhujamisra and Damodara, grandfather of Harirama and Balabhadra (Hayanaratna 1665 ). Weber, p. 264”. Aufrecht in C. C. 4, 63.
Lalamani,
Author of the Prasnasudhakara, Son of Rama, who was son
of Gangarama of the city Alarka, 4, 52.
Lollata
Mentioned as one of the many commentators on the Bharatiyashastra. A writer on alankara of this name is quoted in the Kavyaprakasa. Aufrecht in C. C. 4, 43.
Lohacharya
4, 165, 4, 171.
V
rasuri The sage who is No. 16 in the Kharataragachchhapattavali and No. 13 in the pattavali of the Tapagachchha. See previous Index of Authors. 5, 5, 46 and 121.
Vajrasena
The pupil and successor of Vajrasuri. 5, 33, 121 and 13%.
Vajrasena
Mentioned as one of three pupils of Vijayachandra: the other two were Padmachandra and Kshemakirti, Kshemkirti wrote in Samvat 1332, 5, 104.
Vajrasena
Guru of Hematilaka. See previous Index of Authors. 4, 118,
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INDEX OF AUTHORS.
lai
Vardhamanasuri
No. 39 in the Kharataragachchhapattavali. Pupil of Udyotanasuri and guru of Jinesvarasuri. See previous Index of Authors. King Karna of Anahillapattana was one of his disciples. 5, 42. 5, 157. Mentioned. 5, 33. Before that time he had obtained glory in a public disputation held in the presence of King Durlabha. 4,70. Mentioned. 4, 88.
Vardhamana
Pupil of Salibhadra, and guru of the Chakresvara to whom certain books were presented in Samvat 1187. 5, 58, Author, in Samvat 1160, of the Rishabhadevacharitra. 5, 81.
Vardhamana
Mentioned along with Mahendra and Gunachandra as among the first hearers of the Kumarapalapratibodha of Somaprabhacharya (Samvat 1241). 5, 39.
Vardhamana
Of the Nagendragachchha. In the line of the Paramaras, Garu of Ramasuri. 4, 84.
Varanaga
Flourished in Chittore, Samvat 1186. 5, 63. Vasunandin
Author of the Upasakadhyayana (a Digambara writer). He traces his spiritual descent to Nandin of the line of Kundakunda. The pupil of Nandin was Nayanandin, whose pupil
was Nemichandra, whose pupil was our author. 4, 137. Vagbhatta
Author of the Neminirvanakavya, 4, 103,
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lxiv
OF AUTHORS.
Vadiraja
Author of the Yasodharacharitra. He mentions his own Parsvanathakakutsthacharitra. (Compare Weber, p. 1067). 4, 162.
Vamana
See previous Index of Authors. His Linganusasana. 5, 94.
Vamana
An astronomer. Father of Chakradhara, the author of the Yantrachintamani, 4, 54.
Vahariganin
Silangasuri's helper. See previous Index of Authors. 5, 71.
Vikrama
Author of a poem called Nemidutakavaya, which he composed by the device of fitting the last line of each stanza of Kalidasa's Meghaduta with three fresh lines. Son of Sangana. 4, 25.
Vijayakirti
Mentioned as the pupil of Jnanabhushana and the guru of Subhachandrasuri in the genealogy of Sakalabhushana (Digambara writers). 4, 134, 143 and 158 (Chidbhushana).
Vijayachandra
One of the three pupils of Devabhadra, the other two being Jagachchandra (the founder of the Tapagachchha) and Devendrasuri (who succeeded Jagachchandra in the Tapagachchha). See previous Index of Authors. 5, 103. A summary of some tenets of his. 4, 81. Compare Weber,
p. 1008,
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INDEX OF AUTHORS.
in
Vijayachandrasuri—
Mentioned as the guru of Yasobhadra, who was the guru of
Devaprabha. 5, 74.
Vijayadevasuri
Flourished Samvat 1685. 4, 115. This is No. 60 in the Tapagachchhapattavali. "Vijayadeva, born Samvat 1634; diksha 1643; pannyasapada 1655; suripada 1656; received from the emperor Jehanghir the biruda Mahatapa; died Samvat 1713 Ashada sudi 11, at Umnanagara". Klatt.
Vijayavimalagani—
Author of a Commentary on the Gachchhacharaprakirnaka. He was a pupil of Anandavimala. See under that name.
161.
5.
Vijayasinhasuri
Author, in Samvat 1191, of a commentary on the Dharmopadesamala. He traces his descent from-
1. Jayasinhasuri. Of the Prasnavahanakula and the Harshapuriyagachchha. His pupil was
2. Abhayadeva. See under that name.
3. Hemachandra (Maladharin).
His pupil was
See under that name. His
pupil was
4. Our Author. 5, 87 and 97. Compare also 5, 121, where reference is made to his commentary and to a pupil named Abhayadeva.
Vijayasinhasuri
Author of the Sravakapratikramanasutrachurni. He composed this work in Samvat 1183. Compare Weber, pp. 889 and 933. He was the pupil of Santisuri, who was the pupil of NemiB 669-ix
Page #79
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liyi
INDEX OF AUTHORS.
chandra in the Chandragachchha. 5, 22. 5, 126 (where his pupil Devabhadra is referred to). Compare the entry Santisuri,
Vijayasinhasuri
Pupil of Ajitadevasuri and guru of Somaprabhacharya, the author (Samvat 1241) of the Kumarapalapratibodha. 5, 38.
Vijayasinhasuri
Versed in the three sciences of Tarka, Sahitya and Lakshana, 4, 85,
Vijayananda
Author of the Katantrottara, otherwise, called the Siddhananda. This is probably the author of the Kriyakalapa. 4, 16.
Vidyatilakasuri
Mentioned as having, in Samvat 1389, at the request of Sanghatilakasuri, written a continuation of a work called Virakalpa. Mention is made of a pupil called Jinadeva. Vidyatilaka has been identified by Weber, p. 1088, note 2, with Somatilaka, who is No. 48 in the Tapagachchhapattavali. Compare previous Index of Authors under Somatilaka, 4, 99,
Vidyananda
Author of the Aptamimansalankriti. See Weber, p. 903. Pathak, who quotes the Ashtasahasri, says that Vidyananda lived in the first half of the ninth century. B. B. R. A. S. Journal XVIII, p. 234. 5, 55.
Vidyananda
Mentioned as pupil of Devendra and guru of Dharmaghosha. Compare previous Index of Authors under Devendra. 4, 112.
Page #80
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INDEX OF AUTHORS,
Ixvii
Vidyanandin
Mentioned as pupil of Devendrakirti and guru of Mallibhu
shana (Digambara writers). 4, 147, 151 and 167. Vinayachandra
Author of the Mallicharitramahakavya. He used the word Vinaya, by a play on his name, as the distinguishing mark of his poem. 5,30. The "mahakavi,” Vinayachandra corrected, in Samvat 1286 Udayasinha's commentary on the Dharmavidhi. 5, 115.
Vibudhachandra
Pupil of Maladhari Hemachandra, See Fourth Report, Text, p. 9. 5, 17 and 97.
Vimala· Author of the Padmacharitra, otherwise, called the Rama
charitra. See previous Index of Authors. 4, 104. Vimalachandra- Assisted Udayasinha in the composition of his commentary on
the Dharmavidhi (Samvat 1253). 5, 115.
Vimalachandragani
Flourished Samvat 1154. 5, 29.
Vimalakirti,
Wrote the first copy of the Dhaturatnakara of Sadhusundara, in Samvat 1680. 5, 160.
Vimalatilaka
Elder of the two pupils of Şadhukirti. The other pupil was Sadhusundara (Samvat 1680). See under that name. 5, 160
Page #81
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Ixviii
INDEX OF AUTHORS.
Vimalasuri
Author of the Prasnottararatnamala. See previous Index of Authors under Vimalachandrasuri. 4, 108.
Vimalasena
Guru of Devasena, the author of the Bhavasangraha, 4, 162.
Vivekasamudragani
Pupil of Somasundara. Flourished in Samvat 1518. 5, 164.
Visakha
Mentioned as the founder of a famous (Digambara) sakha, 4, 157.
Visakhila
Mentioned as one of the many commentators on the Bharatiyasastra. "An ancient writer on music. Mentioned in Kuttanimata 123, by Vamana, in Kavyalankaravritti Oxf. 207 b, by Rayamukuta”. Aufrecht in C. C. 4, 43.
Visalakirti
Mentioned as the pupil of Dharmakirtideva and the guru of Lakshmichandradeva (Digambara writers). 4, 139 and 160.
Visvanatha
Guru (and brother) of Prabhakara, the author of the Rasapradipa. See under Prabhakara.
Visvabhushana
Guru of Harshasagara. See under Jinendrabhushana.
Virachandrasuri
Guru of Devasuri, the author of the Jivanusasana, ses under Devasuri,
Page #82
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INDEX OF AUTHORS.
Txix
Viraprabha
Pupil of Tilakaprabha and guru of Ajitaprabha the author of the Santinathacharitra. 5, 122.
Virabhadra
First of the four pupils of Dhanesvara. 5, 47.
Virabhadracharya
Author of the Arahanapadaga (compare Weber, p. 836, 1, 6). The work was composed in Samvat 1008. 4, 74.
Virasena
So the name of No. 17 in the Kharataragachchhapattavali, the pupil of Vajra and the founder of four gachchhas, is given at 5, 46.
Vedangaraya
“Formerly Malajit, son of Tigulabhatta, grandson of Ratnabbatta (of Sristhala in Gujarat), father of Nandikesvara (Ganakamandana ), wrote for Shah Jehan (1627-57) in 1643 : Parasiprakasa. Sraddhadipika.” Aufrecht in C. C. His Giridharananda, an astronomical work written by him for the Gauda prince of Ajmere Giridhara, son of Gopaladasa or Mandhatar, who was son of Yogaji, who was son of Yasoji 4, 45.
Vyadi
The grammarian. Referred to as in the opinion of some the author of the Paribhashas. 4, 20,
Vrajanatha
Author of the Padyatarangini. 4, 26.
Page #83
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INDEX OF AUTHORS.
Sankara
Surnamed Daivajoa. Author of the Pravaramanjarisaroddbara. Son of Siva, 4, 9.
Sambasadhu
Author, in Samvat 1025, of a commentary to the Jinasataka of his guru, Jambu. Of the Nagendragachchha. 4, 90. He was urged to write this commentary by one Durga, son of Malhana, son of Parsvanaga, of the Bhattika country
Sayyambhava -
No. 5 in the Kharataragachchhapattavali. 5, 4, 121 and 130.
Santisuri
Author of the Prithvichandracharitra. He wrote the book at the request of his pupil Munichandra, in the year 1631 from Mahavira's nirvana, that is, in Samvat 1161, He was the pupil of Nemichandra, who was the pupil of Sarvadeva. 5, 117. The same order is given at 5, 125, where Dharmaprabhasuri says that this Santisuri consecrated as his successors, in the temple of Neminatba built by a sravaka, called Siddha, the following eight sages; Mahendra, Vijayasinha, Devendrachandra, Padmadeva, Purnachandra, Jayadeva, Hemaprabha and Jinesvara. He was the founder of the Pippalagachchha. 5, 125. One of the eight pupils mentioned in this last place wrote a Sravakapratikramanasutrachurni in Samvat 1183. 5, 23.
Santisuri
Author of a Dharmaratnalaghuvritti. Of the Chandragachchha. May be the same as the last. The manuscript was written in Samyat 1271, 5, 132.
Page #84
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20 YEA
MOM INDEX OF AUTHORS.
Santishena
Santisuri
Mentioned as the pupil of Dhanesvara and guru of Devananda. 4, 123. As one of the four pupils of Dhanesvara. 5, 47.
Ixxi
A Digambara writer. 4, 155 and 172.
Salibhadra
A present of books was given in Samvat 1187 to one Chakresvara, who was the pupil of Vardhamana, who was the pupil of Salibhadra. 5, 58.
Salibhadra
Praised along with Dhanya. Compare Weber, pp. 1026 and 1123. 5, 138.
Salisuri
Author of the Pratyakh yanavicharana. 5, 133.
Sivaprabhasuri
Mentioned as the pupil of Vijayakirti and the guru of Sumatikirti and Sakalabhushan: 1, the author of the Upadesaratnamala. 4, 134. (Weber, p. 10 90 would distinguish between a Subhachandra, who was pupil of Padmanandin and our Subhachandra. But the reference to Pad manandin seems to be a concise reference to a remote spiritual ancestor).
Sivaprabhasuri
Pupil of Chakresvarasuri and guru of Tilakacharya. Compare previous Index of Author s. 4, 75. 4, 108. 5, 65. 5, 131.
Sivasarman
Author of the Sataka. It is ascribed to him on the authority of Hemachandra. See Kjelhorn's Report, p. 43. 4, 127.
Page #85
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Ixxii
Sivahansa
INDEX OF AUTHORS.
Flourished Samvat 1650. 4, 166.
-hot Jos
Silagana
Mentioned as the source of five of the Sakhas in the Chandragachchha. Compare previous Index of Authors. 5, 31.
Silabhadrasuri
One of the two pupils of Dharmaghosha. Compare previous Index of Authors. Guru of Vijayasena. 5, 126. The name of the other pupil is given here as Paripurnadeva. These two are probably to be identified with the Silabhadra and his pupil Purnabhadra to whom the authorship of a Sangrahanivritti, written in Samvat 1139, is ascribed. 5, 132, Compare 5, 41.
Silabhadrasuri
Referred to as being, along with Dhanesvarasuri, the of gurn Srichandrasuri, who composed the Jitakalpachurnivritti in Samvat 1227. 5, 128.
Silabhadrasuri
Of the Rajagachchha. Guru of Dharmaghosha. See previous Index of Authors. Flourished Samvat 1181. 4, 99. 5, 107. This last passage has the date Samvat 1186.
Silanka
See previous Index of Authors. His commentary on the second Anga. 5, 71.
Subhachandra
Author of the Pandavapurana (a Digambara writer). See Bhandarkar's Report, 1883-4, p. 113. He traces his descent as follows. In the Mula sangha arose
Page #86
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INDEX OF AUTHORS.
lxxii
1. Padmanandin. He was succeeded by— 2. Sakalakirti. He was succeeded by 3. Bhuvanakirti. He was succeeded by4. Chidbhushana, i.e., Jnanabhushana. He was succeed
ed by 5. Vijayakirti. He was succeeded by
6. Our Author, He tells us that he was the Author also of the following works: Chandranathacharitra, Padmanathacharitra, Manmathamahima (Pradyumnacharitra), Jivakacharitra, Chandanakatha, Naadisyarikatha, a commentary on the Archa ( Puja ) of Asadhara (for Asadhara, see Second Report, Text, p. 85). Trinsatpujana, Chaturvinsatipajana, Siddharchana, Sarasvatiyarchana, Chintamaniyarchana, Siddhaseva, Gananathasamarchana, a commentary on the Parsvanathakavya, Palyopamavidhi, Charitrasuddhitapas, Apasabdakhandana, Tattvanirnaya, and a commentary to it called Svarupasambodhini, a commentary on the Adhyatmapadya, Sarvatobhadra, a grammar called Chintamani, Angaprajnapti, many Stotras, and the Shadvada.
His pupil Shripalavarnin corrected the Pandavapurana for him, and wrote the first copy. The work was composed in Samvat 1608. It bears the other name Bharata. 4, 156. His commentary on the Karttikeyanupreksha This book was written in Samvat 1613 (read “Sahite"). It has been very fully described by Bhandarkar in the place cited. 4, 143, Mentioned as one of the successors of Padmanandin and the guru of Jinachandra, 4, 149.
Subhavardhana
Author of a commentary on the Rishimandala which he wrote
3 669—3
Page #87
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lxxiv
INDEX OF AUTHORS.
when Hemavimala was the reigning suri of the gachchha (circ. Samvat 1170). For an account of the Rishimandala, see Bhandarkar's Report, 1883-84, p. 130. 4, 78.
Subhasilagani
See previous Index of Authors, where his Snatripanchasika and Panchasatiprabodhasambandha are noted. There should have been a reference there also to his Danadikatha and Bhojaprabandha, Nos. 598 and 621 of my collection of 1884-86. Besides these works he was the author of a Kathakosa, called the Bharatesvarabahubalivritti. 4, 110, To these Weber adds a Vikramadityacharitra, Decc. C. p. 117. He wrote his Kathakosa in Samvat 1509.
Srichandrasuri
Author of the Munisuvratas vamicharitra. See Fourth Report Text, p. 7. The work was completed in Samvat 1121. The Author was the pupil of Maladhari Hemachandra, who was the pupil of Abhayadeva, who was the pupil of Jayasinha. 5, 7. Author also of the Sangrahaniratna. 5, 95.
Srichandrasuri
Author of a commentary on the Jitakalpa, He wrote this in Samvat 1207. He styles himself the pupil of Silabhadra and Dhanesvara. Author also of a Pratishthakalpa. 5, 64.
Srichandrasuri
Mentioned as the pupil of Abhayadevasuri and the guru of Devasuri in the genealogy of Ajitaprabhasuri. 5, 122.
Sridevasuri
Flourished in Samvat 1336, when Sarangadeva was reigning in Patan. 5. 53.
Page #88
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INDEX OF AUTHORS.
ΙΣΧΥ
Sridhara
Son of Munisena of the Senanvaya. The Visvalochanakosha is apparently ascribed to a pupil of his. 5, 162.
Srinivasa bhatta
Author of the Sivarchanachandrika. See under Janardana, the author of the Mantrachandrika. 4, 67.
Sripatisuri
Flourished Samyat 1233, 4, 95.
Sripala
The poet of the name, who was honoured by Jayasinha with the titles of kavindra and bhratar. Somaprabhacharya wrote his Kumarapalapratibodha in the house of Siddbapala, son of this Sripala, 5, 38.
Sripalavarnin
Pupil of Subhachandra (a Digambara writer), Wrote the first copy of Subhachandra's Pandayapurana, 4, 159.
Sriprabhasuri
Author of the Dharmavidhi. See under Udayasinha the author of a commentary upon the work. 5, 113.
Sribhushana - • Pupil of Bhanukirtideva and guru of Brahmaru pachandra
(Digambara writers). Lived in the time of Shah Jehan, 4, 139.
Srivatsavyasa
Author of a commentary on the Meghaduta of Kalidasa. 4, 34.
Srutasagara
Author of a Jnanarnavagadyatika. Pupil of Vidyanandin. He wrote this commentary at the request of Sinhanandin. 4,
Page #89
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xxvi
INDEX OF AUTHORS.
147. Compare 4, 167, where also Vidyanandin and Sinhanaudin are mentioned in connection with him. See also previous Index of Authors under Srutasagara.
Sakalakirti
Pupil of Padmanandin and guru of Bhuvanakirti (Digambara writers), 4, 133, 145, 157, Author of the Rishabhanathacharitra. 4. 138. See for this writer Bhandarkar's Report 1883-84, p. 121. Also Weber (who gives his date as Samyat 1520) pp. 903, 1022, 1091-92, 1215. At my 4, 144 "Pasanandin" the guru of a Sakalakirti whose pupil was Bhayan
kirti, must be my mistake for "Padmanandin". Sakalachandragani
Guru of Samayasundara. See previous Index of Authors. 4, 72. Sakalabhushanasuri
Twin pupil, with Sumatikirti, of Subhachandra (Digambara writers). Author of the Upadesaratnamala, a book which he wrote at the request of Nemichandraditya in Samyat 1627. For an account of this book see Weber, p, 1090, Sakalabhushana traces his descent from-- 1. Padmanandin, in the line of the successors of Kunda
kunda, His successor was2. Sakalakirti. His successor was3, Bhuvanakirti. Then4. Jnanabhushana. Then5. Vijayakirti. Then6, Subhachandra. He was the guru of our author. 4, 133.
Sanghatilaka -
For this writer see previous Index of Authors. He is mentioned as the guru of Devendramuni in the beginning of that
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INDEX OF AUTHORS.
lxxvii
writer's Prasnottararatnamalatika. 4, 108. Sanghatilaka and his pupil Vidyatilaka (i.. Somatilaka. See under Vidyatilaka) are mentioned. 4. 99.
Sanghadasagani
See previous Index of Authors. His Panchakalpabhashya, 4, 103.
Samantabhadra
His Devagamastotra praised. 4, 157. Pathak (J. B. B. R. A. S. XVIII, p. 218), has shown that Samantabhadra is referred to by Kumarila. The Devagamastotra is an introduction to the Gandhahastimahabhashya, Samantabhadra's commentary on the Tattvartha of Umasvati. According to Pathak Samantabhadra was the author also of the Yuktyanusasana, the Ratnakarandaka, the Svayambhustotra and a Jinasataka. Of these the Ratnakarandaka, otherwise called the Upasakadhyayana, is in my Collection of 186-92 (Two copies Nos. 1402 and 1470). 4, 138.
Samayasundara
See previous Index of Authors. His Asbtalakshi. 4, 68.
Samirana,
Mentioned as one of the many commentators on the Bharati. yasastra. 4, 43.
Samudrasuri
No. 26 in the Kharataragachchhapattavali. 4, 81.
Saryadeva,
Guru of Nemichandra, No. 38 in the Tapagachchhapattavali. 5, 23, 125 and 119.
Page #91
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lxxviii
INDEX OF AUTHORS.
Sarvadevasuri -
Flourished Samvat 1394, 5, 125,
Sarvanandasuri
Author of the Dipotsavakalpa. 5, 54.
Sahasrakirti
Pupil of Lakshmichandradeva and guru of Nemichandradeva (Digambara writers), 5, 139.5, 160.
Sadhukirti
Guru of Sadhusundara, the author of the Uktiratnakara, who refers to the honour shown to Sadhukirti at the court of the sovereign of the Yavanas (Akbar). 4, 14. 5, 156. See under Sadhusundara,
Sadhusundara
Pupil of Sadbukirti, Author of the Uktiratnakara. 4, 14. Author also of the Dhaturatnakara, which he composed in Samvat 1680. Compare the entry Sadhusundaragani in Aufrecht's 0. C., where a third work the Sabdaratnakara is ascribed to him. In the prasasti to his commentary on his own Dhaturatnakara Sadhusundara traces his descent from Vardhamana, Jinesvara and Jinachandra (Nos. 39—41 in the Kharataragachchha. The genealogy then leaps to
1. Jinachandrasuri. This is No. 61 in the Kharataragachchhapattavali. His influence on Akbar is referred to. He was succeeded by2. Jinasicha. This is No. 62. He was succeeded by— 3. Jinaraja. No. 63. The line is continued through the pupil of Jinaraja, who founded the Raghvacharyiyakharatarasakha
Page #92
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INDEX OF AUTHORS.
lxxix
4. Jinasagara. Then comes a second break in the genealogy. In the sakha of Jinasagara, there arose
1. Jinabhadra. He was succeeded by2. Padmavachaka. He was succeeded by3. Mativardhana. He stayed a plague of cholera
by the sacrifice of his own life. He was succeed
ed by4. Merutilaka, Dayakalasa and Amaramanikya.
They were succeeded by5. Sadhukirti, who was the guru of our author.
5, 156. An elder pupil of Sadhu kirti was Vimalatilaka.
Saravicharasuri
Pupil of Gunaratnasuri and guru of Jinachandrasuri. See under Samayasundara. 4, 72.
Sarangasuri
See under Trivikrama.
Siddhapala
See under Sripala.
Siddhasuri
Siddharishi, the author of the Upamitibhavaprapancha. See previous Index of Authors and Fourth Report, Text, p. 5. 5, 13, 73 and 97.
Siddhasuri
Mentioned as the teacher to whom a certain manuscript was presented (date not given). 5, 106. He was of the Ukesagachchha ; and may, therefore, be the teacher of that gachchha mentioned in previous Index of Authors.
Page #93
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lxxx
Siddhasenadivakara
See previous Index of Authors. Mentioned as the author of the
Dvatrinsaddvatrinsika, 4, 125,
Siddhasena
A Digambara writer. 4, 172.
Siddhantasagara
See under Kirtivallabhagani.
Sinhagiri
INDEX OF AUTHORS.
See previous Index of Authors, 5, 139.
Sinhatilakasuri
Of the Anchalagachchha. See previous Index of Authors. His dates, 4, 117,
Sinhanandin
Pupil of Mallibhushana and guru of Srutasagara (Digambara writers). It was at the request of Sinhanandin that Srutasagara wrote his Jnanarnavagadyatika. 4, 141. 4, 147.
Sinhaprabhasuri—
Of the Anchalagachchha. See previous Index of Authors.. His dates. 4, 116.
Sinhabala
A Digambara writer. 4, 172.
Sinhasena
A Digambara writer. 4, 172.
Sukosalamuni
5, 138.
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INDEX OF AUTHORS.
lxxxi
Sudharman
5, 33, 121 and 133.
Sudharmasena
A Digambara writer. 4, 172.
Sunandishena
A Digambara writer, 4, 172,
Supratibuddha
Laghubhratar of Aryasusthita, the founder of the Kotika gachchha. 5, 4,
Subhadra
Mentioned in the Digambarapattavali. 4, 171.
Sumatikirti
Pupil of Subhachandra. 4, 134, 4, 143.
Sumativachaka
Guru of Gunachandragani, the author of the Mahaviracharitra. 5, 34, Compare 3, 305. Correct "Guruchandra” there, and “ Chandrasuri ” and “ Chandragani” in previous Index of Authors.
Sumatisadhu
Pupil of Lakshmisagara. 4, 79. The two are Nos. 53 and 54 in the Tapagachchhapattavali.
Surendrakirti
Pupil of Narendrakirti and guru of Jagatkirti (Digambara writers), 4, 135. B 669-xi
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Ixxxii
INDEX OF AUTHORS.
Sulhana
Author of a Vrittaratnakaratika. He was the son of Bhaskara called Veladitya, a Dakshinatya of the Krishnatreya gotra. 4, 44,
Suhastin
No. 11 in the Kharataragachchhapattavali. 5, 4,
Susthita
No. 12 in the Kharataragachchhapattavali. 5, 4.
Somakunjara--
Pupil of Jayasagara. See under that name,
Somachandraganin
Pupil of Bhanuchandraganin (Digambara writers). Flourished Samvat 1685. 4, 115.
Somatilakasuri
No. 48 in the Tapagachchhapattavali. See previous Index of Authors. 4, 113.
Somadevasuri
Mentioned along with Ratnasekhara and Lakshmisagara (Nos. 52 and 53 in the Tapagachchhapattavali) among the pupils of Munisundara (No. 51 in the same). 4, 110.
Somadharmaganin
Author of the Upadesasaptatika. He was a pupil of Charitraratnaganin, who was a pupil of Somasundara and Ratnasekhara (Nos. 50 and 52 of the Tapagachchhapattavali). 4, 78.
Somaprabha
Author of the Kumarapalapratibodha. He traces his descent from
Page #96
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________________
INDEX OF AUTHORS.
lxxxiii
1. Munichandra and Manadeva. They were succeeded
by
2. Ajitadevasuri. He was succeeded by
3. Devasuri. But he had many other pupils, one of whom was Vijayasinhasuri. Our author, Somaprabhacharya, was a pupil of Vijayasinha. He was a contemporary of Hemachandra's, and wrote this account of the conversion of Kumarapala after Hemachandra's death in his honour. His book was composed in Patan in Samvat 1241, 5, 37. Author also of the Hemakumaracharitra. 5, 24.
Somaprabhasuri—
Twin-pupil with Sriprabhasuri of Sarvadevasuri. See under Udayasinha.
Somaprabhasuri
Twin-pupil with Viraprabhasuri of Tilakaprabhasuri, See under Ajitprabhasuri.
Somaprabhasuri
No. 47 in the Tapagachchhapattavali. See previous Index of Authors. 4, 112.
Somasundara
No. 50 in the Tapagachchhapattavali. See previous Index of Authors. 4, 17. 4, 78. (where his pupil Charitraratnagani is referred to). 4, 79. 4, 83 (referred to by his pupil Jinamandana). 4, 101 (referred to by his pupil Jinakirti). 4, 110. 5, 164 (guru of Vivekasamudragani).
Somasuri
Author of the Paryantaradhanaprakarana. 5, 68.
Page #97
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lxxxiv
INDEX OF AUTHORS.
Somesvara
The author of the Kirtikaumudi. His Karyadarsa. 5, 52.
Haribhatta
Otherwise called Apajibhatta. The father of Hari Bhaskara, the author of the Paribhashabhaskara. Aufrecht writes the second name Ayajibhatta, and refers it to the son, not the father. 4, 20.
Haribhadrasuri
The old writer of the name. See previous Index of Authors, His Panchasutra and commentary on it. 4, 104. His Chaityavandanavritti. 4, 85. His Lokatattvanirnaya ( Weber, p. 987, 1. 17), 4, 111, His Yogadrishtisamuchchaya with the commentary. 5, 29. His Samaradityacharitra referred to. 5, 73. Copy of that work. 5, 91. His Panchavastuka
sutra and the commentary. 5, 161. Haribhadrasuri
Guru of Balachandra the commentator on Asada. See under
Balachandra.
Haribhadrasuri -
Father of Kshemendra, the author of a Sarasvatatippana. 4, 20.
Haribhaskara
His Paribhashabhaskara. 4, 19.
Harshakirti
Pupil of Devendrakirti (Digambara writers ). Flourished Samvat 1679. 4, 164,
Harshadeva
A copy of his Naganandanataka, writter in Patan in Samvat 1258. 5, 109.
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INDEX OF AUTHORS.
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Harshavardhana
Author of an Adhyatmabindu and its commentary. 4, 67.
Harshasagara
Pupil of Visvabhushana and guru of Jinendrabhushana. 4, 142.
Harshendugani
Wrote the first copy of Prabhananda's commentary on the Vitaragastotra of Hemachandra. 5, 149.
Hiravijaya
Mentioned as the guru of Kanakakusala, the author, in Samvat 1652, of a Bhaktamarastavatika. Hiravijaya is No. 58 in the Tapagachchhapattavali. "Hiravijaya, who converted the Emperor Akbar, born Samvat 1583, at Prahladanapura; diksha 1596 at Patan; vachakapada 1608, at Naradapuri; suripada 1610, at Shirohi; died 1625, at Umannagara". Klatt. 4, 110. Compare 4, 102.
Hemachandrasuri
Maladharihemachandra. See previous Index of Authors. See also Fourth Report, Text, p. 7. 5, 13. 5, 89. His Upadesamala, Bhavabhavana and Sangrahininsutra. 5, 95. Greatly honoured by Siddharaja. 5, 96. His Upadesamala. 5, 99. Hemachandrasuri
The pupil of Devachandra. See previous Index of Authors. His dates given as, birth Samvat 1145, diksha 1154, suripada 1166, death 1229. 4, 82. His Syadvadamanjari. 4, 127. His Mahaviracharitra (part of the Trishashtisalakapurushacharitra). 5,4. For the account of Hemachandra given there, see Fourth Report Text, p. 6. His Nighantusesha. 5, 23. His con
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lxxxvi
INDEX OF AUTHORS,
version of Kumarapala referred to. 5, 25. 5, 37. His Yogasastra.. 5, 95. His Sabdanusasanalaghuvritti. 5, 110. His Chhandonusasanayritti and his Kavyanusasanavritti. 5, 134. His Sabdanusasanavritti, 5, 136. Referred to by his papil Ramachandra in that writer's Raghuvilasanataka, 5, 144. His Pramanamimansa. 5,147.
Hemavimalasuri
Subhavardhana wrote his Rishimandalavritti while this sage was “reigning". Hemavimala is No. 55 in the Tapagachchhapattavali.
Hemasuri
Guru of the anonymous author of the Siddhantaratnavali. He says that his teacher Hemasari was the pupil of Jinodaya, who was the pupil of Jinachandra. These two are Nos. 53 and 54 of the Kharataragachchhapattavali. Jinodaya died in Samyat 1432.
Hemasomasuri
Referred to as reigning over the Tapagachchha in Samvat 1671. Compare previous Index of Authors.
Hemahansaganin
Author, in Samvat 1515, of the Nyayarthamanjusha. Pupil of Ratnasekhara (No. 52 in the Tapagachchhapattavali), 4, 17.
Hemahansasuri
Guru of the anonymous author of the Sanyamamanjaritika. He was pupil of Purnachandra. 4, 121,
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A Fifth Report of Operations in Search of Sanskrit MSS. in the Bombay Circle. April 1892-March 1895. By PROFESSOR PETERSON.
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This report must, I am conscious, derive all the value it be judged to have from the first of the Appendices which follow, where I have presented a large number of extracts from the palm-leaf manuscripts preserved at Anhilvad Patan. An accouut of my visit to that town was given in my Fourth Report; and in the foregoing Index of Authors I have endeavoured to set out in that convenient form the information with regard to the books and their authors which these extracts supply. The great importance of the Patan palm-leaf manuscripts is a theme on which it is not necessary again to enlarge. But the hope may be expressed that the specimens here presented may stimulate the Jain community, and other parties concerned, to take effectual steps for dragging these books into the light again. The oldest of them goes back as far as to A.D. 1062, and I have shown that there are at least twenty of them that were written between that date and A. D. 1224. I know of no other town in India, and of few in the world, that can boast so great a store of documents of such venerable antiquity. They would be the pride, and the jealously guarded treasure, of any University Library in Europe. In Patan they lie absolutely disregarded and unknown. I trust it may not be altogether idle to express the hope that it may not be long before this reproach is taken away.
The Index of Authors, with which the Report opens, is the second of the kind I have furnished. In the previous
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Index, prefaced to my Fourth Report, I attempted to give in index form all the information about books and authors which could be gleaned from the extracts accompanying my first three Reports. The present Index takes up that work where it was left off, and deals with the extracts accompanying my Fourth Report, as well as with the Patan books already referred to. In the two Indices taken together I hope it may be found that I have been able to make some small additions to our knowledge of a subject that is still obscure. I have at least been at some pains to put more competent crities on the way to correct the errors into which I may have fallen. The Second Appendix, of extracts from Paper manuscripts preserved at Patan, has also been dealt with in this Index. They will serve to show that Patan has in it important books which are not very old, as well as books which are both important and venerable in the antiquity of the copies preserved there. The Third Appendix contains the usual collection of extracts from books purchased during the period under report for Government, and the Fourth Appendix gives the list of manuscripts so purchased. These will be dealt with in a following Report.
P. PETERSON. Elphinstone College, 24th February 1896.
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APPENDIX I.
Extracts from Palm-Leaf Manuscripts
preserved at Anhilwad Patan.
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Patan Palm-Leaf Manuscripts. No. 1. A Commentary on the Nyayabindutika of Dharmottaracharya , by MALLA VADYACHARYA [धर्मोत्तरटिप्पनकम्-मल्लवाद्याचार्य :].
Leaves 5 to 82 ( the first four and some of the others are injured) ; 12 inches long, 14 inches broad. Dated Samvat 1231 - A D. 1175. . Ends : - कुशलं मया आप्तं प्राप्तं किंविशिष्टं कुशलममलं किंवत् अंशुवत् किरणवत् कस्येंदोः कया यदवाप्तं कुशलं कतिपयपदव्याख्यया कस्य न्यायबिदोपॅथस्योत श्लोकार्थः ॥
इति धर्मोत्तरटिप्पनके श्रीमल्लवाद्याचार्यकृते तृतीयः परिच्छेदः समाप्तः॥ मंगलं महाश्रीः ।
संवत् १२३१ वर्षे भाद्रपदशुदि १२ रवौ अद्येह जंत्रावलिग्रामवास्तव्यव्य० दाहडसुत व्य० चाहडेन धर्मार्थं धर्मोत्तरटिप्पणकं लिखापित ॥ जंत्रावलिग्रामवास्तव्य पं० प्रभादित्यसुत पं० जोगेस्वरेण पुस्तकं लिखितमिति ॥ यादृशं पुस्तके दृष्टं तादृशं लिखितं मया। यदि शुद्धमशुद्धं वा मम दोषो न दीयते ।। मंगल महाश्रीः ।।
हितं न वाच्यं आहतं न वाच्यं हिताहितं नैव च भाषणीयम् । कु डको नाम कपालभिक्षुहितोपदेशेन बिलं प्रविष्टः ॥
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EXTRACTS FROM MANUSCRIPTS
No. 2. Mahaviracharita by HEMACHANDRA [त्रिषष्टिशलाकापुरुष
चरित्रान्तर्गतश्रीमहावीरचरितम् - हेमचन्द्रः ] .
Leaves 1 to 201; 28 inches long, 2 inches broad.
Ends:
किंचित्कीत्तितमीदृशं ननु मया स्वान्योपकारेच्छया ॥ २८९ ॥
इत्याचार्यश्रीहेमचंद्र विरचिते त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते महाकाव्ये दशमपर्वणि श्रीमहावीरनिर्वाणगमनवर्णनो नाम त्रयोदशः सर्गः ॥
समाप्तं चेदं दशमं पर्व ॥
परिपूर्णमिदं त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितं महाकाव्यमिति ॥ शिष्यो जंबुमहामुनेः प्रभव इत्यासीदमुष्यापि च श्रीशय्यंभव इत्यमुष्य च यशोभद्राभिधानो मुनिः । संभूतो मुनिभद्रबाहुरिव दौ तस्य शिष्योत्तमौ संभूतस्य च पादपद्ममधुलि श्रीस्थूलभद्रायः ॥ १ ॥
वंशक्रमागतचतुर्दशपूर्वरत्नकोशस्य तस्य दशपूर्वधरो महर्षिः ।
नाम्ना महागिरिरिति स्थिरतागिरींद्रो ज्येष्ठांतिषत्समजनिष्ट विशिष्टलब्धिः ॥२॥ शिष्योऽन्यो दशपूर्व भृन्मुनिवृषो नाम्ना सुहस्तीत्यरूट् यत्पादांबुजसेवनात्समुदिते राज्ये प्रबोधर्द्धिकः । चक्रे संप्रतिपार्थिवः प्रतिपुरप्रामाकरं भारतेऽस्मिन्नर्द्धे जिनचैत्यमंडितमिलापृष्ठं समंतादपि ॥ ३ ॥ अजनि सुस्थितसुप्रतिबुद्ध इत्यभिधयार्यसुहस्तिमहामुनेः । शमधनो दशपूर्वधरांतिषद्भवमहातरुभंजनकुंजरः ॥ ४ ॥ महर्षिसंसेवितपादसन्निधेः प्रचारभांगा लवणोदसागरम् II महाभ्गणः कोटिक इत्यभूत्ततो गंगाप्रवाहो हिमवगिरेरिव ॥ ५ ॥
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PRESERVED AT ANHILWAD PATAN.
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तस्मिन्गणे कतिपयेष्वपि यातवत्सु साधूत्तमेषु चरमो दशपूर्वधारी। उद्दामतुंबवनपत्तनवज्रशाखावज्रं महामुनिरजायत वज्रसूरिः ॥ ६ ॥ दुर्भिक्षे समुपस्थिते प्रलयवदीमत्वभाज्यन्यदा . भीतं न्यस्य महर्षिसंघमभितो विद्यावदातः पटे। योभ्युद्धत्य करांबुजन नभसा पुर्यामनैषीन्महापुर्या मंक्षु सुभिक्षधामनि तपोधाम्नामसीम्नां निधिः ॥ ७ ॥ तस्माद्वज्राभिधा शाखाभूत्कोटिकगणद्रुमे । उच्चनागरिकामुख्यशाखात्रितयगोचरा ॥ ८ ॥ तस्यां च वज्रशाखायां निलीनमुनिषट्पदः। पुष्पगुच्छायतो गच्छश्चंद्र इत्याख्ययाभवत् ॥ ९॥ धर्मध्यानसुधासुधांशुरमलः संघार्थरत्नाकरो भव्यांभोरुहभास्करः स्मरकरिप्रोन्माथकंठीरवः । गच्छे तत्र बभूव संयमधनः कारुण्यराशियशोभद्रः सूरिरपूरि येन भुवनं शुद्धैर्यशोभिनिजैः ।। १० ॥ श्रीमन्नेमिजिनेंद्रपावितशिरस्यद्रौ स संलेखनां कृत्वादौ प्रतिपन्नवाननशनं प्रांते शुभध्यानभाक् । तिष्ठन् शांतमनास्त्रयोदशदिनान्याश्चर्यमुत्पादयबुच्चैः पूर्वमहर्षिसंयमकथाः सत्यापयामासिवान् ॥ ११ ॥ श्रीमान्प्रद्युम्नसूरिः समजनि जनितानेकभव्यप्रबोधसच्छिष्यो विश्वविश्वप्रथितगुणगणः प्रावृडंभोदवद्यः । प्रीणाति स्माखिलक्ष्मां प्रवचनजलधेरुद्धृतैरर्थनारैरातत्य स्थानकानि श्रुतिविषयसुधासारसधयांच विष्वक् ।। १२॥ . सर्वग्रंथरहस्यरत्नमुकुरः कल्याणवल्लीतरुः कारुण्यामृतसागरः प्रवचनव्योमांगणाहस्करः ।
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EXTRACTS FROM MANUSCRIPTS
चारित्रादिकरत्नरोहणगिारेः श्मा पावयन् धर्मराट् सेनानीऍणसेन सूरिरभवच्छिष्यस्तदीयस्ततः ॥ १३ ॥ शिष्यस्तस्य च तीर्थमेकमवनेः पावित्र्यकृजंगमः स्याद्वादत्रिदशापगाहिमगिरिविश्वप्रबोधार्यमा। कृत्वा स्थानकवृत्तिशांतिचरिते प्राप्तः प्रसिद्धि परां सूरि रितपःप्रभाववसतिः श्रीदेवचंद्रोभवत् ॥ १४ ॥ आचार्यो हेमचंद्रोभूत्तत्पादांभोजषट्पदः। तत्प्रसादादधिगतज्ञानसंपन्महोदयः ॥१६॥ जिष्णुश्चेदिदशार्णमालवमहाराष्ट्रापरांतं कुरून्य सिंधूनन्यतमांश्च दुर्गविषयान्दोवीर्यशक्त्या हरिः। चौलुक्यः परमार्हतो विनयवान् श्रीमूलराजान्वयी तं नत्वोत कुमारपालपृथिवीपालोऽब्रवीदेकदा ॥ १६ ॥ पापतिमद्यप्रभृति किमपि यन्नारकायुर्निमित्तं तत्सर्वं निनिमित्तोपकृतिकृतधियां प्राप्य युष्माकमाज्ञाम् । स्वामिन्नुा निषिद्धं धनमसुतमृतस्याथ मुक्तं तथार्हचैत्यैरुत्तंसिता भरभवमिति समः संप्रतेः संप्रतीह ॥ १७ ॥ अस्मत्पूर्वजसिद्धराजनृपतेर्भक्तिस्पृशो याच्या सांगं व्याकरणं सवृत्ति सुगमं चक्रुर्भवतः पुरा । मद्धेतोरथ योगशास्त्रममलं लोकाय च द्वयाश्रयच्छंदालंकृतिनामसंग्रहमुखान्यन्यानि शास्त्राण्यपि ॥१८॥ लोकोपकारकरणे स्वयमेव यूयं सज्जाः स्थ यद्यपि तथाप्यहमर्थयेऽदः। मादृग्जनस्य परिबोधकृते - - - ..... . पुंसां प्रकाशयत वृत्तमपि त्रिषष्टेः ॥ १९॥ ...
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PRESERVED AT ANHILWAD PATAN.
तस्योपरोधादिति हेमचंद्राचार्यः शलाकापुरुषेतिवृत्तम् । धर्मोपदेशैकफलप्रवानं न्यवीविशच्चारु गिरां प्रपंचे ॥ २० ॥ जंबूद्वीपारविंदे कनकगिरिरसावश्नुते कर्णिकात्वं
यावद्यावच्च धत्ते जलनिधिरवनेरंतरीयत्वमुच्चैः ।
यावद्व्योमाध्वपांथौ तरणिशशधरौ भ्राम्यतस्तावदेत
त्काव्यं नाम्ना शलाकापुरुषचरितमित्यस्तु जैत्रं धरित्र्याम् ॥ २१ ॥
मंगलं महाश्रीः ॥
-
शिवमस्तु सर्वजगतः परहितनिरता भवंतु भूतगणाः । दोषाः प्रयांतु नाशं सर्वत्र सुखी भवतु लोकः ॥ शुभं भवतु श्री श्रमण संघस्य ॥
पल्लीवालकुले पुनात्मजो बोहित्यसंज्ञितः ।
साधुस्तस्य सुतो जज्ञे गणदेवः सुधार्मिकः ॥ १ ॥
खंडं तृतीयं संलिख्य त्रिषष्टेः पुस्तके वरे । ददौ पौषवशालायां स्तंभतीर्थ पुरे मुदा ॥ २ ॥ यावन्नंदति जिनमतमिदमसमं सकलसत्वहितकारि । तावत्सुपुस्तकं वाच्यमानमेतद्बुधैर्जयतु ॥ ३ ॥
Begins: नमः सर्वज्ञाय ॥
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No. 3. Munisuvratasvamicharitra, by SRICHANDRASURI [ मुनिसुव्रतस्वामिचरित्रम् मा० चन्द्रसूरिः ].
Leaves 1 to 451; 26 inches long, 2 inches broad. Granthágra, 10994.
परमपुरिस अणाई बिहू अणतो अणंगनिङहणो ।
चउराणणो तमहरो सिरीनिवासो जिणो जयइ ॥ १ ॥ करण
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EXTRACTS FROM MANUSCRIPTS
Ends:
इय सिरिमुणिसुव्वयजिणिदचरिए सिरिसिरिचंदसूरिविरइए नवम भवग्गहणं सम्मत्तं ॥ मुणिसुव्वयमोक्खाउ गएहि छहिं वाससयसहस्सेहिं । नमिनाहो उप्पन्नो पंचहि लक्खेहितो नेमी ॥ ६९॥ नेमिजिणाउ पासो उप्पन्नो इय गएहिं वासाणं । तेसीए सहस्सोहं सए अटुटुमेहिं च ॥ ७० ॥ .. अट्टाइ जस्सएहिं गएहिं वासाण पासनाहाउ। उप्पन्नो वीरजिणो जस्स विवट्टए तित्थं ॥ ७१ ॥ तस्स अपच्छिमतित्थाहिवस्स तित्थे पयट्टमाणम्मि। सिरिपन्हवाहणकुले गच्छे हरिसउ परतवग्मि ॥ ७२ ॥ सिरिजयसिंहो सूरी सयंभरीमंडलाम्म सुपसिद्धो।। पंचविहायारसमायरणउ एउ गुणणिही जाउ ॥ ७३ ॥ . ताण विणेउ गुणरयणसायरो अभयदेवसूरित्ति। उवसमपहाणयाए जेण सुगराण वि मणो हरियं ॥ ७४ ॥ सुरगुरुसरिसमइविहु जस्स समग्गेवि गुणगणे गहिउ । नेय समत्थो किं पुण ते थोतुमहं खमो जिह्मो ॥ ७९ ॥ असरिसगुणाण राएण परवसीहूयमाणसो तहवि ॥ शिलाली तेसिं गुणमाहप्पं मणंपि कित्तेमि सत्तीए ॥ ७६ ॥ गरुयगुणे अणुसरणं कुणमाणो पासिऊण व एवन्नं ॥ तुंगत्तूणं सरीरेण जस्स अञ्चब्भुयं भुवणे ॥ ७७ ॥ रूवेण निजिउ व्व मयरद्धउ महासुहडो ॥ नियडो न कयाइ वि जस्स संढिओ वि टिमविमुक्को ॥ ७८ ॥
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निवाणथगिरिसिरतिरोहिए दिणयरम्मि व जिणिदे ।। पुव्वमुणिमयंकमहे लोगंतरपट्टिए संते ॥ ७९ ।। कलिकालनिसापसरियपमायबलंघयारपडलेण ।। संजममग्गे पच्छाइयम्मि पाएण इह भरहे ।। ८० ॥ जेण तवनियमसंजमसमुग्गएणं महानिरीहेण ॥ विप्फुरियं विमलमणिप्पइवकप्पेण - - त्तो ॥ ७८ ॥ तह कहवि अणुटाणं मुक्कसायं अणुट्टियं जेण परपक्खसपक्खेसु वि मणंपि जह होइ न विरोहो ॥ ७९ ।। एगो य चोलपट्टो तह पच्छायणपडी वि एका य ॥ नियपरिभोगे जस्सासि सव्वया अइनिरीहस्स ॥ ८० ॥ दहे वत्थे सुयसा वि जस्स मलनिवहमुव्वहंतस्स ॥ अभितरकम्ममलो सब्भयभीउ व्व नीहरइ ॥ ८१ ॥ घयविगई मोत्तूणं पञ्चक्खायाउ सेसविगईउ ।। सव्वाउ जेण जावजीवं रसगिद्धिरहिएण ॥ २ ॥ निज्झरणकए कम्माण जेण दिणतइयजामसमयम्मि ॥ गिटे भिक्खा भमिया पढमगुणटाणियगिहेसु ॥ ८३ ॥ भिक्खाविणिग्गयं जं सोऊणं सावया नियनियनिएएस ।। होति गिहेसु च उत्ता भिक्खादाणाहिलासेण ॥ ८४ ॥ जं नियागहम्मिपयडागयमत्ता छउमदिट्रिया वि नरा ॥ आमणसेट्रिपमुहा पडिलाभंति य सहत्थेण ।। ८६ ॥ गामे वा नगरे वा सो कत्थइ जत्थ संठिउ जाव ।। ताव तमवंदिऊण न तत्थ पाए जणो भुत्तो ॥ ८६ ॥ सिरिवीर एव भणउ ठकुरसिरिजज्जउ सिरिजयपसिद्धो । गाउयपंचममज्झे अवंदिउं जं न भुजंतो ॥ ८७ ॥
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अणहिल्लवाडयपुरे जायविभूसवे जिणाययणे ॥
कारिऊण नीए एक्कमि द्विजम्मि तत्थ तउ ॥ ८८ ॥ गरुउ गरुयरो वि कुसेसो सावयजणो सयं चेव ॥ जाइ अणाहूउ वि हु जस्स नमसणकयपइन्नो ॥ ८९ ॥ सुती व जस्स सयला अमयरसेणोवनिम्मिया विहिणा || तदंसणे विनासड़ जम्हा कसायविसं ॥ ९० ॥ परतित्थीण वि दिट्ठो हिययं पल्हाएं सदंसणउ ॥ जो तेहि वि मणिज्जइ नियनियदेवावयारो व्व ॥ ९१ ॥ तं चिय सयावि वयणं मुहकुहराउ विणिसुयं जस्स || जम्मि निसुए जणाणं परमा मणनिव्वुई होइ ॥ ९२ ॥ अन्नो न गोट्रिकलही जेहि कउ सावएहि रोसव्वसा ॥ जिणभवणगमणनियमो उवसंता ते वि जस्स गिरा ॥ ९३ ॥ कहवि कसायवसेणं सहोयरा भाउणो विवता ॥ अन्नोन्नमणालावे विगयकसाया कया जेण ॥ ९४॥ लद्धमरिंदपसाया थद्धा जे देवयाण वि पणामं ॥ किच्चे ण ऊणं वा तह गुरुणो एगस्स नियगच्छे ॥ ९९ ॥ रायामच्चपमुहा निउगिणो ते वि जस्स वयणेण ॥ सामन्नस्स वि मुणिणो मुक्कामया कमनाया जाया ॥ ९६ ॥ गावगिरिसिहरसंठियचरण जिणाय यणदारमवरुद्धं ॥ पुनि दिन्नसासणणमंसा वणिएहिं चिरकालं ॥ ९७ ॥ गंतूण तत्थ भणिऊण भुवणपालाभिहाणभूवालं || बइसयपयत्तेणं सुक्कलयं कारियं जेण ॥ ९८ ॥ वरणगसुयं सत्यसचिवं भणिऊण भरुयत्थे ||
सिरिसंवलियाविहारे हेममया रोविया कलसा ॥ ९९ ॥
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जेण जयसिंहदेवो राया भणिऊण सयलदेसम्मि॥ काराविउ अमारिं पज्जोसवणाइसु तिहीसु ॥ १०० ॥ ९०० ।। पुहईराएण सयंभरीनरिंदेण जस्स लेहेण ॥ रणखंभउरजिणहरे चडाविया कणयकलसा ॥१॥ जेण कुणंतेण तवं चउत्थछटुं च उभयकाले वि। सद्धम्मदेसणा भवियणस्स न कयावि परिचत्ता ॥२॥ सावयलोउ कल्लाणएसु अट्टाहियासु सविसेसं ॥ गामेसु य नयरेसु य बहू पयट्टाविउ जेण ॥ ३ ॥ नियनाणेण केणइ तह वेमाणियसुरोवएसेण ॥ परालयागमणसमयं निययं नाऊण असन्नं ॥ ७ ॥ नीरोगम्मि वि देहे कमेण काऊण कवलपरिहारं ॥ खविऊण सुहं सयलं जेण पवन्नो अभत्तट्टो ॥ ८॥ जस्मुत्तिमहगहणं सोऊणं गरुयखेयभरियमणा। परतित्थिया वि पइदिणमुवोंत पासे सयलनयणा ॥९॥ गुजरनरिंदनयरे सो कोवि न अस्थि रायपभिइजणे ॥ अपेसणवियाण जो तेसिमागउ नेयणसम्मि ॥१०॥ सिरिसालिभद्दसूरिप्पमुहोहँ गभय गभय सूरीहिं। जस्स समीवे गंतु ण सूरियं बहु ससोएहि ॥ ११ ॥ मासम्मि भद्दवपट्टे तेरसम्मि उववासे ॥ सोहियवसा य वरभवणमज्झउ नीहरेऊण ॥ १२॥ पाययलोह लीलाए डंडहत्थेहि अखलियगईहि ॥ कस्सवि अन्नस्स करे अविलगुंतोह सयमेव ॥ १३ ॥ नरनाहमाणणिज्जे निवनयरनिवासिनेगमगणाण ॥ सव्वेसिपि पहाणो सगिहठिउ सीयउसेट्री ॥ १४ ॥
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EXTRACTS FROM MANUSCRIPTS
जस्स पयपउमदंसणकयाहिलासो समाहिमलहंतो ॥ दक्खिन्नमहोहिणा परोवयारेक्कर सिएण ॥ १५ ॥ गंतूण जेण वंदाविऊण विहिउ समाहिसंपन्नो || धम्मवएदं माणं कराविउ वीससहस्साई ॥ १६ ॥ गुज्जरदेसम्म समग्गगामनगरा इवासिसजणो ॥ जम्मुत्तिमटुसवणे पाएण समागउ तत्थ ॥ १७ ॥ अह सग्ग चालीसदिणाई पालिऊणं समाहिणाणसणं ॥ धम्मज्झाणपरायणचित्तो जो परभवं पत्तो ॥ १८ ॥ बहुभूमिगबहुकलसं अणेगसियधयवडेहि रमणियं ॥ वरसिरिखंडविणिम्मियविमाणमारोहिऊण तउ ॥ १९ ॥ निहारियं सरीरं जस्स बहिं सयलमिलियसंघेण ॥ एकं गिरखगमणुयं मोत्तूण सेसजणो ॥ २० ॥ नीसेसो निवनयरस्स निग्गउ जस्स दंसणनिमित्तं ॥ भत्तीए कोउगेण य मग्गेसु अलद्धसंचारो ॥ २१॥ सव्वए मयाउलेहिं सव्वाउ गजिहिं वंविहिं ॥ सव्वेंहि वियंभियसद्दबहिरिए अंबराभोए ॥ २२ ॥ पायारपत्थमडालए ठिउ परियणेण सह राया ॥ जयसिंहो पेक्खतो जस्सिर्द्वि नीहरंतस्स ॥ २३ ॥ तं अच्छरियं दटुं नारदपुरिसा परोप्परं बेंति ॥ मरणमणिपि हु इटुं मन्हए विभूईए ॥ २४ ॥ विउ दयाउ आरम्भ निग्गयंतं विमाणमवरन्हे ॥ पत्तं सक्कारपर समणुपयं लोकयपूयं ॥ २९ ॥ इज्जते मिउपसुयपमुहपवरवत्थाणं ॥ मिलियाई कोडियाणं तया सयाई अगाई ॥ २६ ॥
EP
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सिरिखंडविमाणेणं तेणेव समं सरीरसक्कारे ॥ जस्स कउ लोएणं तह उवरि पुणो वि खित्ताई ॥ २७ ॥ कडाइं अगरसिरिखंडसंतियाइं घणो घणसारो ॥ निव्वाणाए ठियाए जणेण गहियउ तउ रक्खा ॥२८॥ रक्खाए वि अभावे गहिया तठ्ठाणमट्टिया तत्तो॥ ता जाव तत्थ जाया अनुमाणा वियडखड्डा ॥ २९॥ तीसे रक्खाए मट्टियाए अणुभावउ सिरोवाहा ॥ वेलाजरएगंतरजराइ रोगा पणस्संतो॥ ३०॥ भत्तिवसेणं न मए मणंपि इह भासियं मुसा किंपि॥ जं पच्चक्खं दिढ तस्स वि लेसो इमो भणिउ ॥ ३१॥ नियतेयविसेसेणं पुरिसोत्ति महिययरंजणो जाउ ॥ कोत्थुहमणिव्व त्ततो सूरी सिरिहेमचंदोत्ति ॥ ३२॥ जगुवट्टमाणपवयणपारागउ वयणसत्तिसंपन्नो ।। नियनामेव भगवई जीहग्गगया कया जेण ॥ ३३ ॥ मलग्गंथिविसेसावस्सयलक्खणपमाणपमुहाण ॥ सेसाण वि गंथाणं पढियं जेणद्धलक्खं च ॥ ३४ ॥ रायामच्चाईण वि महिडियाणं जणाण आरज्झे । जिणसासणप्पभावणपरायणो परमकारुणिउ ॥ ३५ ॥ नवजलहरगाहिरसरे धम्मुबएसांत च दितए जम्मि ।। जिणभवणाउ बहिम्मि वि हिउ जणो सुणइ फुडसदं ॥ ३६ ।। वक्खाणलद्धिजुत्ते जम्मि कुणंतम्मि सत्थवक्खाणं ॥ पाएण जडमईण वि जणाण बोहो समुप्पन्नो ॥ ३७॥ उवमियभवप्पवंचा वेरग्गकरी कहा कप्पा । आसिवक्खाणय सिद्वेणं जा पुव्वं मा कठोरत्त ॥ ३८॥
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वक्खाणिया सहाए पारण न केणई चिरं कालं ॥ जस्स मुनिग्गयत्था मुद्धाण वि सातइ कहंवि ॥ ३९ ॥ जाया हिययगयत्था असत्थेऊण तेहि जह एसा उवरुवरि । तिन्निवरिसे नियसुया तस्सेव य मुहाउ ॥ ४० ॥ तद्दिणपभिइपयारो जाउ पाएण तीए सव्वत्थ ॥ जे तेण सयं रइया गंधा ते संपइ कहे मि ॥। ४१॥ सुत्तमुवएसमालाभवभावणपगरणाण काऊण ॥ गंथसहस्सा चउदस तेरस वित्ती कया जेणा ॥ ४२ ॥ अणुओगदाराणं जीवसमासस्स तह य सयगस्स ॥ जेण च्छ सत्त चउरो गंथसहस्सा कया वित्ती ॥ ४३ ॥ मूलावस्सयवित्तीए उवरि रइयं व टिप्पणं जेण ॥ पंचसहस्सपमाणं विसमट्ठाणावबोधयरं ॥ ४४ ॥ जेण विसेसावरस्य सुत्तस्सुवरिं सवित्रा वित्ती ॥ रइया परिष्फुडत्था मडवीससहस्सपरिमाणा ॥ ४५ ॥ वक्खाणगुणप सिद्धिं सोऊणं जस्स गुज्जरनरिंदो || जयसिंहदेवनामो कयगुणिजणमणचमक्कारो ॥ ४६ ॥ आगंतूण जिणमंदिरम्मि सयमेव सुणइ धम्मकहं || · जस्सुवउत्तचित्तो सुइरं परिवारसंजुत्तो ॥ ४७ ॥ कइयावि जस्स दंसण उत्कंठियमाणसो सयं चेव ॥ आगच्छइ सहीए चिरकालं कुणइ संलावं ॥ ४८ ॥ अन्नम्भ दिणे अभत्थिऊण नेउं नियम्मि धवलहरे || सम्मुहमुऊिण जयसिंहनिवेण जस्स सयं ॥ ४९ ॥ उद्वद्वियस्स उल्लसियबहलपुलए कंचणमरण || विउलेण भायणेणं दुव्बाफल कुसुमजलमइउ || १० ॥
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अग्घो भमाडिउणं थिरेण आरत्तियं व वारतियं ॥ . पक्खित्तो पयपुरष्ठ कउ पणामो य पंचंगो ॥ ११ ॥ थालपरिवेसायाउ आहाराउ सहत्थेण ॥ दिन्नो नियइच्छाए चउव्विहो तेण आहारो ।। ६२ ।। भणियं व जोडिऊणं करजुयमग्गे व खलु कयत्थोहं ।। जाउ अज्जेव तहा कल्लाणपरंपराठाणं ॥ ५३ ॥ जस्स मह अज्जे भवणं तुब्भोहँ फरसियं सचरणेहिं । ता अज्ज वीरनाहो मञ्झ सयं आगउ व्व गिहे ॥ ५४॥ जेण जयसिंहरायं भणिऊणं तस्स मंडले सयले ।। जिणमंदिरेसु कलसा चडाविया सइरकणयमया ॥५५॥ धंधुक्षयसञ्चउरम्पभिइसु ठाणेसु अन्नतित्थीहि ॥ जिणसासणस्स पीडा कीरंती रक्खिया जेण ॥ ५६ ॥ कारावियं च तह तेसु चेव अण्णे सु रहपारेभमणं ॥ निविग्धं जयसिंह भणाविऊण पुहइनाहं ॥ ५७ ॥ कुनिउइएहिं तह जिणहरेसु भज्जत देवदायाण ॥ काराविया निवारा जयसिंहनरिंदपासाउ ॥ ५८ ॥ भंडारपविटुंपि हु केसु वि ठाणेसु देवदायस्स ।। दव्वं जिणभवणेसु पुणोवि अप्पावियं जेण ॥ ६९ ।। किं बहुणा भणिएणं जिणसासणं परिभवम्मि जायते । सव्वप्पणा वि तुलियं जेण उवायंतरसएहिं ॥ ६० ॥ जिणसासणकज्जाइं विसेसाहियाइं इह जेण ॥
अन्नस्स मणम्मि विफुरांत न ह जाइं कइयावि ॥ ६१ ॥ लिंगाविसेस मित्ते वि जइजणे परिभाविज्जमाणाम्म । नियसत्तीए तत्ती जेण कया सव्वकालपि ।। ६२ ।।
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अणहिलवाडनयराउ तित्थजत्ताए चलियसंघेण । अभत्थिऊण नीउ सहप्पणा जो महामहिमो ॥ ६३॥ सज्जावलयलंगडिपमुहाणं जत्थ सगडरूवाणं ॥ एक्कारसउ सयाई संचलियाई - - - ॥ ६४ ॥ हयकरहवसहवाहणपयचराण त्थ व हुइ न संखा ॥ वामणथलिनयरीए दिन्नावसमम्मि संघेण ॥ ६५ ॥ वाडीविताणएहिं गुरु रखउखंडएहि गुलिणीहिं || वियडें विरायमाणे निवखंधावारसारित्थे ॥ ६६ ॥ कयकुंकुमंगरायं नियत्थपट्टं सुयाइवरवत्थं ।। कंचणरयणादिभूसियं अंगचंगेसु ॥ ६७ ॥ दट्टुण सावयजणं जिणहरपरिहावगं पकुव्वतं ।। खंगारस्स सुरट्ठापहुणो जायं मणं दृष्टुं ॥ ६८ ॥ अन्नेर्हि विसो भणिउ रायमनहिलवाडयस्स नयरस्स ||
चिट्टइ लच्छि सव्वा इहागया तुझ पुन्नेहिं ॥ ६९ ॥ ता गित्थू तुम पयं भंडारे होई तुह जहा ढो । से भाविज्जइ ठाणं एक्काए दव्वकोडीए ॥ ७० ॥ लोभेण सोवि सव्वं तं गहिउ वछए पुणो वि परं ।। सव्वयणमज्जायालोव अज्ज भभीउ नियत्तेइ ॥ ७१ ॥ इय अकयनिच्छउ सो गहणमोक्खे य संसइयचित्तो ॥ चितूणं दिणमाणं संघ धारेइ तत्थेव ॥ ७२ ॥ भाणिज्जंतो वि दिणो वि सो संघो संतियजणस्स । नो देइ दंसणं अन्नया य सयणो मउ तस्स ॥ ७३॥ तो दिक्खणयमिसेणं जेण मुणिदेण तत्थ गंतूण | पडिबोहिऊण एयं संघो मोयावि उ सद्धि ॥ ७४ ॥
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उज्जयंतसत्तुजएस तित्थेसु दोसु वि जिर्णिदो । सिरितसिं उसहनाहे वंदइ संघो विभूईए ॥ ७९ ॥ तत्थुज्जयंततित्थे पारुत्थय अदलक्खमुप्पन्न । सत्तुंजयम्मि तित्थे तीससहस्सा समुप्पन्ना ॥ ७६ ।। जाण पडिबोहिएणं भवियजणो भाविउ तह ।। धम्मो जिणभणिए पत्ते देसे सव्वे य निरईए ।। ७७ ।। पज्जुवास पि हुठाणंतरसंकमाईययो नेय ।। आराहणा गुरूण व सत्तंदिणा अणसणं नवरं ॥ ७८ ॥ गुरुवीहारणेइ महिम्मदेहस्स तहेव जाव ॥ सकुसे किंतु सयसेव राया सम - - - - - यसे ॥ ७९ ॥ - - - - - - - सिंहसिरिचंदविबुहचंदत्ति ॥ जाया तिन्नि गणहरा सिरिसिरिचंदो तउ सूरी ॥ ८ ॥ देसेस विहरमाणो कमेण धवलकय्यम्मि वरनयरे ॥ संपत्तो तत्थ तउ भरुयत्थयनामजिणभवणे ।। ८१ ॥ उत्तंगम्मि विसाले रूवगरमणिजमंडवसणाहे ॥ सोए सुणे सुव्वयजिणवरपडिमसमहिटिए रन्मे ॥ ८२ ॥ सडो अस्थि गुणड्डो धवलो नामेण पोरुवाडकुले ॥ तेण जिणचंदसुरिप्पमुहो संघो समग्गो ॥ ८३ ॥ मेलेडं विन्नत्तो सिरिमुणिसुव्वयजिणिदवरिसस्स ।। करणत्थं संघेण वि सिरिचंदो पभणीउ सूरी ॥ ८४ ॥ सो तं संघाएसं पडिवजउं विणिग्गउ तत्तो॥ आसावल्लिपुरीए आगंतूणं ठिउ गेहे ॥ ८ ॥ सिरिमालकुलसमुभववरसावयसेट्रिनागिलसुयाण ।। अवहरिभंडसालियसरणयप मुहाण सगुणाण ॥ ८६ ।।
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तत्थट्टिएण सिरिचंद सूरिणा विरइयं इमं चरियं ॥ 88 सिरिमुणिमुव्त्रयतित्थंकरस्त समयानुसारण ॥ ८७॥ जं किंपि इह अजुत्तं उत्तं मइमोहउ मए अस्थि । तं सुहरा कयकिच्चा मज्झ विसोहंतु सव्वंपि ॥ ८८ ॥ पड्डियपोथियलिहणे गणिणा कयमत्थ पासदेवेण ॥ बहु साहेज्ज उज्जमपरेण वरमइनिहाणेण ॥ ८९ ॥ अवहरिसरणयाणं कणिदृभाया तहेव जसराउ | साहेज्जकरो उच्छाहम्मय जाउ रिसेसेण ॥ ९० विक्कमकालाउ एगवीस सहस्ते सए सावणउ ॥ तव्वयणंतर दीवसव्वदिणम्मि एयं परिसमत्तं ॥ ९१ ॥ एत्थ य पढमं पुत्थइमभिलिहियं देवरायकरसिस्से || -मयवतणएण लेहरण विणीण ॥ ९२ ॥ गाहानाणं संखाय जस्स दसहाति नवसयाई व ॥ चउणवइस महियाई नेयाई एत्थ गंथनि ॥ ९३ ॥ बासे जाविह भारहग्मि विमले सव्वण्णुणे सासणं कुज्जा भव्वजणोह मोहसमिसव्वरे समित्ता नाणसबसे । - मुणि सुव्वयस्स चरियं साणु नहु साहुगो वक्खाणंतु सुणंतु सव्वनिवहा एकग्गचित्ता सया ॥ ९४ ॥ १०९९४ ॥ श्री श्री चंद्रसूरिविरचितं श्री मुनिसुव्रतस्वामिचरितं समाप्तम् || शुभं भवतु ॥
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No. 4. Kavyamimansa, by RAJASEKHARA [ काव्यमीमांसा-राजशे
खरः].
___A fragment of 50 leaves ; 13 inches long, 2 inches broad. मीमांसायां कविरहस्ये प्रथमाधिकरणे देशविभागः सप्तदशोल्लासः॥ इति राजशेखरकृतौ काव्यमीमांसायां कविरहस्ये प्रथमाधिकरणे चतुर्थोऽध्यायः ॥ ...
का इति० शिक्षाविशेषेषु वाच्यवावाचककल्पः पंचमोऽध्यायः ... राजशेखरकृतौ काव्यमीमांसायां कविरहस्यप्रथमेधिकरणे सप्तमोऽध्यायः ।। वाच्यविशेषः काकुकलनापाठप्रतिष्टार्चास्तुतिश्रुतिस्मृतीतिहासपुराणप्रमाविद्यासमयविद्याराजसिद्धांतत्रयीलोकविरचनाप्रकीर्णकं च काव्यार्थानां द्वादश योनय इत्याचार्याः। उचितसंयोगनयोक्तसंयोगेन उत्पाद्य संयोगेन संयोगविकारेण च ... इति० प्रथमेधिकारे अर्थानुशासने षोडशकायोनयः अष्टमोऽध्यायः... राजशेखरकृतौ० अर्थानुशासनेऽर्थव्याप्तिनवमोऽध्यायः... - राज० प्रथमाधिकरणे एकादशोऽध्यायः
No. 5. Dharmabhyudaya. A Chhayanatyaprabandha, by MEGHAPRABHACHARYA [ धर्माभ्युदयः छायानाट्यप्रवन्धः-मेघप्रभाचार्यः]. Bogins:
कि यः शक्रेण मुदाभिवंदितपदद्वंद्वः क्षमा द्वरः क्रोधाद्युत्कटवैरिवृंददलनः सद्धर्मनीतिप्रियः । प्रोन्मीलत्समितिश्रियं जयमयीं बिभ्रद्वलैरद्रुतः स स्ताद्वीरजिनः शुभाय सततं श्रीमानिनो मानिनाम् ।। १ ।।
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० । सहर्षम् ।
सूत्र ०
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नांद्यं सूत्रधारः 1
यतः
विस्तीर्णेऽत्र जिनेंद्रसद्मनि महान्यात्रोत्सवो वर्तते यत्तत्राभिनयो मयाद्य सुधिया कार्यः प्रबंधस्य च । सौभाग्योपरि मंजरीपरिचयः सोयं प्रवत्तिष्यते
यद्वा स्थास्यति रत्नवृष्टिघटना सैषा सुवर्णोपरि ॥ २ ॥
स्वगतम् ।
कथमद्यापि श्रीमद्देवगुरुगुणप्रस्तावक जनकल्पपादपप्रागल्भ्यश्रीसंघ सभ्याभ्यर्णमभिनेयप्रबंधपरिज्ञानार्थमुपस्थितः सततमस्मासु सत्यापितसमीचीन वैनयिकलीलः सुशीलः शैलूषो विलंबते ।
प्रविश्य नटः ।
पत्रमर्पयन् । भाव
सव्वजणाभिप्पेयनाडयारंभपवत्तयं एयं तं पत्तयं । सूत्र० गृहीत्वा सोत्कर्षे वाचयति ।
यः सत्त्वतत्त्वप्रणयैकपात्रं संग्रामधर्मोऽभयसत्यसंधः ।
यस्मिन्नसौ नायकतामुपौत सैष प्रबंधोऽभिनयेन योज्यः ॥ ३ ॥
दानैकवीरा भुवि संति केचिद्रणैकवीरा व्यपरे पुमांसः । तपः प्रवीरा इतरेऽत्र लोके वीरव्रती त्रिष्वपि यः स नेता ॥ ४ ॥
क्षणं विमृश्य
सहर्षोल्लापं हुं ज्ञातं मार्ष २ निश्चितं श्रीदशार्णभद्रचरित्र शुश्रूषातरंगि तोयं पारिषद्यलोकः ।
अहो अस्मदीयहृदयानंदसंवावदूकोयं श्रीसंघसमादेशः
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Ends :
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राजानो जनपालनोद्यततया स्फूर्ज जंतां यशो लोकोप्येष विशेषधर्मनिरतः प्राप्नोतु पुण्यश्रियम् । संतः संतु जगत्यमोघमनसो वंद्याः पुनस्तत्परे श्रीमेघप्रभतां दधज्जिनपतिः श्रेयस्तरुं सिंचतु ॥ ४० ॥
इति श्रीमेघप्रभाचार्यविरचितः समाप्तोयं धर्माभ्युदयो नाम छायानाट्यप्रबंधः ॥
No. 6. Suktamuktavali, or Drishtantadvatrinshat, by MEGHAPRABEA8UEI [सूक्तमुक्तावली -वा-दृष्टान्तद्वात्रिंशत् - मेघप्रभसूरिः ].
Leaves 1 to 17; 11 inches long, 12 inches broad.
Begins:
श्रीवर्द्धमानमभिनौमि तीर्थतो वर्द्धमानमहिमानम् । यः स्वर्णरुचिर्नमतां मूर्त्तः कल्याणराशिरिव ॥ १ ॥ दृष्टांतद्वात्रिंशत्सेयमुपक्रम्यते सदुपदेशा ।
संप्रति जनसद्विदिता श्रोतृजनश्रवणपीयूषा ॥ २ ॥ ...
इतिमेवप्रभसूरिविरचितार्यां जनप्रसिद्धदृष्टांताभिधाना द्वात्रिंशत् ॥ १८ ॥
इति० मुक्तावल्लयां वस्तुदृष्टांता द्वात्रिंशत्• •
इति० सूक्तमुक्तावल्लयां धर्माभ्युदयाभिधाना द्वात्रिंशत्...
इतिश्री मेघप्रभसूरिविरचितायां सूक्तमुक्तावल्यां विश्वव्यवहाराभिधाना द्वात्रिंशत् ॥ लेखकपाठकयोः शुभं भवतु
No. 7. Jivanusasana, by DEVASURI, pupil of VIRACHANDRASUBI [ जीवानुशासनं सटीकम् मू० देवसूरिः ] .
Loaves 16 to 216; 14 inches long, 1 inch broad.
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EXTRACTS FROM MANUSCRIPTS
Commentary ends : श्रीदेवसूरिभिः श्रीवीरचंद्रसूरीणां निजदेशनावसरलब्धनिर्मलकीतीनां शिष्यमात्रैविनेयगुणषड्गुणैर्विरचितं दृब्धमेतदिदं सिद्धांतयुक्तियुक्तं राद्धांततिसहितं जीवस्यात्मनो भव्यस्य वानुशासनं बोधकं विमलं निर्मलं तथति ॥ २१६-जिनदत्तसूरिरेतन्नामकैस्सप्तगृहनिवासिभिरितियावत् शोधितं निर्दो
षीकृतम् ॥
No. 8. Sravakapratikramanasutrachurni, by VIJATASIN HA [श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रचूर्णिः-विजयसिंहाचार्यः].
Leaves 1 to 285; 17 inches long, 2 inches broad. Dated Samyat 1317 A. D. 1261. Begins : सिद्धं सिद्धत्थसुयं सुयधम्मपयासयं सयालोयं । लोयणतुल्ल लोयाण नमह सिरिमं महावीरं ॥ १ ॥ समणोवासगपडिकमणसुत्तचुणि भणामि लेसेण। मंदमईण विबोहणहेतुं सुत्ताणुसारेणं ॥ २॥ Ends : उत्तरोत्तरधर्मवृद्धयर्थ मंगलमाह। वंदामि जिणे चउव्वीसं सिरिरिसहनाहपढमं । नमामि सिरिवद्धमाणपज्जते चउव्वीसं तित्थयरे दिंतु शिवं॥ मंगलं अंते ॥ एवं समत्ता पडिकमणचुन्नी ॥ नमो सुयदेवयाए भगवईए। जयइ जिणसासणमिणं जमि निलीणा जणा सुहेणेव । लंघति भवं भीमं जणणवजत्तिया जलहीं॥ १॥
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जय इह चंदगच्छ इव भवियकुमुयबोहयरो । उवसमयजुण्हं पुन्नो समणजणाणंदणो सयलो ॥ ऊसियसीलपडाउ तवनियमरहंगसंगयसुघोसो । गुणगुरुउ गच्छरहो धवलेहिं व जेहि उब्बूढो || सिरिसव्यएव सूरिनेमिचंद नामधेया मुणीसरा गुणिणो । होत्था तत्थ पसत्था तोसें सीसा महामइणो ॥ जे पसमस्स निदंसणमुदही दाक्खिन्नवारिवारस्स । कव्वरयणाविरोणखाणी खमिणो अभियवाणी ॥ सिरिम संतिमुणिदा तेसि सीसेण मंदमइणावि । आयरियविजयसीहेण विरइया एस चुन्नित्ति || जं किंपि मए उस्सुत्तमित्थ रइयं मइए दोसत्ता | तं चेव खमंतु सोहंतु सयहमणुग्गहं काउं ॥ एगारसहि सएहिं तेसीइहिएहि विक्कम निवाउ | स स्थिहिं चित्ते मासंमि समत्थिया एसा ॥ सावगपडिक्कमणसत्तचुन्नीं समत्ता | शुभं भवतु ॥ ग्रंथाग्रं श्लोकप्रमाणेन ४९९० संवत् १३१७ वर्षे माहसुदि ४ आदित्यदिने श्रीमदाघाटदुर्गे महाराजाधिराजपरमेश्वरपरमभट्टारकउमापतिवरलब्धप्रौढप्रतापसमलंकृत श्रीतेज सिंहदेव कल्याणविजयराज्ये तत्पादपद्मोपजीविनि महामात्यश्रीसमुद्धरे मुद्राव्यापारान् परिपथयति श्रीमदाघाटवास्तव्य पं० रामचंद्रशिष्येण कमलचंद्रेण पुस्तिका व्यालेखि॥
No. 9. Nighantusesha, by HEMACHANDRA [निघण्टुशेषः- हेमचन्द्रः]Dated Samvat 1280 = A. D. 1224.
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Begins : ॥ ८० ॥ अर्ह ॥ विहितैकार्थनानार्थदेश्यशब्दसमुच्चयः ।।
निघंटुशेषं वक्ष्येहं नत्वाहत्पादपंकजम् ॥ १ ॥
Ends:
धान्यत्वाचे तु तुषो तुसे कडंगरः ॥ इत्याचार्यश्रीहेमचंद्रविरचिते निघंटुशेषे षष्ठोध्यायकांडः ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ संपूर्णश्चायं निघंटुशेषः ॥ ॥ ॥ संवत् १२८० वर्षे कात्तिकवदि गुरौ निघंटुशेषपुस्तिका लिखितेति ॥ ॥ शुभं भवतु ॥ लेखकपाठकयोः ॥ ॥ ॥ संवत् १३४३ वैशाखशुदि ६ सो० चांचलसुतभा० भीमभां० श्रीबाहडसुत भां० जगत्सिंह भां० खेतसिंहश्रावकैः श्रीचित्रकूटवास्तव्यमूल्येनेयं पुस्तिका गृहीता ॥ ॥
No. 10. Hemakumaracharitram by SOMAPRABILACHARYA [हमकुमारचरित्रम् -सोमप्रभाचार्यः] . ___Leaves 1 to 231; 29 inches long, 2 inches broad. Ends : श्रीमद्वयाकरणं सुधारसपयःकूपः - - - महा - कुंभश्रेणिरियं प्रमाणपदवी दिव्या पुनर्मचिका ॥ छंदोलंकृतिनामकोशमिषतः पक्तिर्घटानामियं योगस्योपनिषद्धिरण्यकनकस्तोत्राणि कंठावृतिः ॥ २० ॥ न्यासो मंडपिका विवेकमहिमच्छायाद्रुमालंकृतिः संसारोदरमारवाध्वनिकटे श्रीहेमचंद्रप्रभुः॥ अज्ञानोत्कटघर्मतापहृतये ज्ञानप्रपामीदृशी चक्रे शास्वतकी शुभानि दिशतां संघाय सैषानिशम् ॥ २१ ॥
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एवं कुर्वन्नहोरात्रं कृत्यानि परमार्हतः ॥ कुमारपालदेवोयं राज्यं पालयति क्षितौ ॥ २२ ॥ नृपस्य जीवाभयदानडिंडिमैर्महीतले नृत्यात कीर्तिनर्तिकी ॥ श्रीहेमचंद्रप्रभुपादपद्मं वंदे भवाब्धेस्तरणैकपोतम् ।। ललाटपट्टांतरकांतराड्याक्षरावली येन मम व्यलोपि ।। २३ ।। बोधयित्वा महाराज देवलोकं जगाम यः ।। पश्चात्कुमारपालोयं शोकं गत्वा मुमूर्छ सः ॥ २४ ।। तदनु धैर्यमवलव्य धर्मध्यानं करोति ॥ सावयघरंमि वर हुज्ज चेडओ नाणदंसणसंजुओ ॥ मिच्छत्तनिहियमई मा राया चकवट्टी वि ॥ २५ ॥ इतिभावनया जैनशासनं परिपाल्य स्वर्ग जगाम ॥ तत्पट्टपूर्वाद्रिसहस्ररश्मिः सोमप्रभाचार्य इति प्रसिद्धः ।। श्रीहेमसूरेश्च कुमारपालदेवस्य चेदं न्यगदच्चरित्रम् ॥ २६ ॥ यावन्निहताखिलसंतमसौ नभसि चकास्ते रविचंद्रमसौ ॥ ताबद्धेमकुमारचरित्रं साधुजनो वाचयितु पवित्रम् ।। २७ ।। अज्ञानादथवा प्रमादवशतो ह्यालस्यतो वा सदा यद्याख्यातमसंगतं विरचितश्चित्ते कथायां क्वचित् ।। संबंधो न निवेदितो न कथितः सद्धर्मलाभो मया तत्सर्व ननु निर्विकल्पमनसा संघेन संक्षम्यताम् ।। २८ ।। यः सन्यत्कनिधिर्भवार्णवमहासेतुर्जगन्मंगलं निश्रेणिः शिवमंदिरं जिगमिषोश्चारित्ररत्नापणः ।। ज्ञानश्रीकुलसद्म तीर्थपतयोप्युच्चैनमस्यंति यं स श्रेयांसि निरंतरं दिशतु वः श्रीसंघभट्टारकः ॥ २९ ॥
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प्रस्तावपंचकेप्यत्राष्टी सहस्राण्यनुष्टुभाम् ॥ ऐकैकाक्षरसंख्यातान्यधिकान्यष्टाभिः शतैः ॥ ३० ॥
शुभं भवतु ॥
No. 11. Vagbhattalankara [ वाग्भट्टालंकारः ].
Leaves 5, incomplete, Dated Samvat 1227 = A. D. 1171.
Ends:
श्रीवाग्भट्टालंकारे पंचमपरिच्छेदः || मंगलं महाश्रीः ॥ संवत् १२२७ वर्षे माघद
No. 12. A Commentary on the Vrittaratnakara, by TRIVIKRAMA, son of RAGHUSURI [ वृत्तरत्नाकरटीका — त्रिविक्रमः ].
Leaves 1 to 127; 10 inches long, 2 inches broad. Begins :
ओं नमो विनायकाय ||
के दशरसूरिविहितच्छंदो लक्षणसूत्रगः ॥
प्रणम्य गुरुपादाब्जं संप्रदायो निगद्यते ॥ १ वर्णवत्ते प्रत्ययाः षट् व्याख्याता इह सूरिभिः ॥ तेष्वाद्यावंतिमं वात्र मात्रावृत्तेष्वपि स्फुटम् || २ || प्रायः प्रस्तारनियमे सूत्रं लक्ष्मैतदादिकम् ॥ गुर्वादिसंख्यानयनपर्यंतमभिदध्महे || ३ || युगलम् || सपूर्वपक्षसिद्धांतं प्रायः सूत्रं विवृण्महे || क्रियाकारकसंबंधं विषमेषु विचक्ष्म || ४ || आपाते यः प्रतीयेत न तद्वयाख्यास्यते यतः || साहाय्यं शर्करावृक्षे न कोपि समपेक्षते ॥ ५ ॥
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अपूर्वमिव यत्किंचिद्व्याख्यासिद्धं प्रदृश्यते ।। तद्भमस्तन्न कर्त्तव्यो जयदेववदीक्ष्यताम् ॥ ६ ॥ शास्त्रांतरप्रसिद्धार्थः सत्रैवक्तुं न शक्यते ।। यः सिद्धांताविरोधेन कथमस्माभिरुच्यते ।। ७ ।। सिंहावलोकप्रमुखा न्यायाः शास्त्रांतर स्थिताः ॥ सूत्रेष्वव्याप्त्यतिव्याप्तिहानायेह समाश्रिताः ॥ ८ ॥ सर्वव्यापिनमात्मानं कर्तुं युज्येत यत्पथा ॥ अपि नानाकुलोत्पन्नान्सचिवान् कुरुते नृपः ॥ ९ ॥ सुखसंतानसिद्धयर्थ Ends : वंशेभूदित्यादि सुगमम । जय जय गणनाथ प्रार्थये त्वामजस्रं हर दुरितसमूहं छंदसां ज्ञानदाने ।। यदमलपदपद्मप्रोल्लसत्कांतिवारिव्यतिकरपरिधोतो मोहपंकोप्यपेतः ॥ १ ।। जितेंद्रनीलद्युति तन्ममास्तु मुखं मुरारेः शुभदं सदैव ।। रमामुखांभोरुहबिंबितं यद्वंगभ्रमं संततमातनोति ॥ २ ॥ आसीदिहांगिरसवंशसरोजसूर्यः श्रीसत्यमुग्रियमुनिः प्रथितः पृथिव्याम् ।। गौडेषु वृद्धबलभी ---- ब्रह्मान्वयेऽर्क इव कस्य न सुप्रसिद्धः ॥ ३ ॥ वाक्सत्याध्ययने श्रुतिः श्रुतिसदाध्याने श्रयत्यच्युतचेतश्चारुविचारमध्वरविधौ बुद्धिः शरीरे तपः ॥ यस्मिन् जातवतां स्वतस्तदादिताः संत्यागतो दक्षिणां गोदास्नानविधित्सया दवदथो वासं स्वमेलापुरे ॥ ४ ॥
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तद्वंशभूषणमणिननु नायकोभू-. त्तस्माद्गदाधरसुधी: सुधियामधीशः ।। तस्यांगजा समभवद्विजवयवंद्यः श्रीश्रीपति ---मानसराजहंसः ॥ ५ ॥ तस्य सूनुः सदाचारसंपन्नः सज्जनाग्रणीः ।। सारंगमूरिनामाभन्माध्यंदिनविभूषणम् ॥ ६ ॥ सत्साहित्यमहोदधिनिरवधिदग्ध्यदुग्धांबुधेः श्रीमाध्यंदिनधर्मदुर्धरधुरोद्धाकधुर्यस्ततः ।। सूनुर्विष्णुपदांबुजार्चनरतः श्रीराघवार्योभवसरिभूरियशाः प्रशांतविगलत्पुत्रैषणादित्रयः ॥ ७ ॥ अस्त्येतस्य जगत्प्रशस्यचरितः कारुण्यपुण्यार्णवस्तारुण्यादिमदान्गदानिव सदा यो मन्यते दुःखदान् ।। सौजन्यावसतिस्त्रिविक्रम इति प्रज्ञादिजन्मक्षितिब्राह्मण्यैकमतिः कृतातिथिजनप्रीतिश्चिरायुः सुतः ॥ ८ ॥ यः कातंत्रविचित्रसूत्ररचनापाथोधिमंथाचल: श्रीमदुर्गम दुर्गवत्तितटिनीकल्लोलनको महान् ।। छंदःकंदलपालनप्रविलसद्गीर्वारिदोवारिदोलंकारार्णवकुंभसंभव मुनिः काव्याधिचंद्रोदयः ॥ ९ ॥ सारस्वतव्याकरणस्य सूत्रे रम्या बृहद्वत्तिरकारि येन । श्रीवृत्तरत्नाकरसूत्रटीका विनिर्गता तेन चिराय नंद्यात् ॥ इति श्रीरघुसरिसूनुश्रीविक्रमसूरिविरचितायां वृत्तरत्नाकरच्छंदःसूत्रटीकायां षष्ठोऽध्यायः समाप्तमिति ॥ मंगलं महाश्रीः ।। शुभं भवतु लेखकपाठकयोः ।।
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No. 13. Oghaniryukti [ओघानियुक्तिः]. Leaves 1 to 92. 13 inches long, 14 inches broad. Dated Samvat 1154 = A. D. 1098.
Ends : ११३२ ओहनिज्जुत्ती सम्मत्ता । संवत् ११५४ वैशाख शुक्ल प्रतिपदायां
रविदिने श्री अशोकचंद्राचार्यशिष्येण उदयचंद्रगणिना जिनभद्रलेखकहस्ताद्विमलचंद्रगणिहस्ताच्च ओघनियुक्तिसूत्रं लेखितं । मंगलं महाश्रीरिति।।
No. 14. Yogadrishtisamuchchaya with Commentary, by HARIBHA DRA [ योगदृष्टिसमुच्चयः-सटीकः-हरिभद्रः त्रु०] .
Leaves 1 to 53, incomplete. Dated Samvat 1146 = A. D. 1090 Ends : दोषश्च अन्यथाप्रत्ययाय संभवादित्याचार्याः । मात्सयविरहेण मात्सर्याभावेनोच्चैः - - ॥ समाप्तोयं योगदृष्टिसमुच्चयः । कृतिः श्रीश्वेतभिक्षोराचार्यहरिभद्रस्येति ॥ ॥ संवत् ११४६ कात्तिक शुदि - - - कर्णदेवकल्याण विजयराज्ये महामात्यमुंजालयहकावस्थिते एवं काले प्रवर्तमाने इहैव श्रीमदणाहलपाटकावाछ - - - - - - - - - - - -
No. 15. A Commentary on the Khandanakhandakhadya of Sri Harsha, called Sishyahitaishini, by A PUPIL OF THE AUTHOR. The fourth Khanda [खण्डनखण्डखाद्यटीका ].
Leaves 304 to 452 ; 132 inches long, 2 inches broad. __Begins : ओं नमः सर्वज्ञाय ॥ ओं प्रमाणतदाभासानिरुक्त्याऽद्वैततद्विरोधं परिहृत्याधुना निग्रहस्थानसद्भावनविरोधं निराचिकीर्षुश्चोद्यमुद्भावयति । नन्विति ।
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Ends:
प्रकरणस्य प्रचयगमनमाशास्ते ॥ तांबूलद्वयामिति ।। यो ब्रूते पटपदार्थान्षडाधिकदशधा भावभेदाभिधायी यस्तस्यां विद्यमाना क्षणविकलगतिः कंटकाभ्याभिवासीत् । तावुद्धत्याद्वितीयश्रुतिरधिकसुखा येन चक्रे कवींद्रः श्रीहर्षोन्वर्थनामा स्वयमापे परमानंदभावं प्रपेदे ।। ओंकारो वदनांतरालकुहरे सर्वाधविध्वंसको यस्य ज्ञानमयस्तनोति सततं हेषारवाडंबरम् । वेदैः कल्पितदिव्यमर्तिविभवः सांगैस्तुरंगाननः सोयं मानसपंकजेषु भवतां कुर्याद्वरिः सन्निधिम् ।। येनोच्चैः परमात्मबोधतरणेः पंथानमातन्वता तुंगं मोहगिरि निरुध्य चुलुकीचक्रे भवैकार्णवः । सञ्चेतःपयसां प्रसात्तिकृदसौ चक्रे पदं खंडने व्योम्नीबान्वभवत्स्वरूपभगवानव्याजकुंभोद्भवः ॥ ॥ इति शिष्यहितैषिण्यां खंडनटीकायां चतुर्थः परिच्छेदः ॥ ॥
No. 16. Mallicharitamahakavyam, by VINAYACHANDRACHARYA [मल्लिचरितमहाकाव्यम् -विनयचन्द्राचार्यः]. __Leaves 2 to 300 ; 21 inches long, 2 inches broad. The “ Granthagra” is given as 4,750.
Ends : चरित्रं श्रीमलेः श्रवणयुगपीयूषसरसीरसीभूतात्मानो विनयविनता ये भवभुवः ।। विगाहंते सबै सकलकमलोद्भतिजनक भवेत्तेषां सत्यं निजनिजमनश्चितितविधिः ॥ ९३० ॥
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31 इत्याचार्यश्रीविनयचंद्रविरचिते श्रीमल्लिचरिते महाकाव्ये विनयांके आस्तिकनृपचित्रकुंभनरदेवपालगोपालयज्ञदत्ताचलातीपुत्रचंद्ररुद्राचार्यशिष्ययशश्चंद्रराजर्षिजयदत्ताग्रकथितो मदनरेखाकथानकगर्भितो निर्वाणव्यावर्णनो नामाष्टमः सर्गः समाप्तः ॥ ४७९० ग्रंथाग्रं ।। - - - - -सद्वृत्तो गच्छश्चंद्रोऽभवद्भुवि । चित्रं - - - तस्मिन्नभच्छीलगणाभिधानः सूरिः समापूरितभव्यलांछनः । य पंचशाखः किल कल्पवृक्षः छायां नवीनां तनुते जनानाम् ।। यत्पार्श्व किल - - -
No. 17. Bhadrabahu's Pindaniryukti with Malayagiri's Commentary [पिण्डनियुक्तिः सटीका मू. मा. भद्रबाहुः टी० मलयगिरिः]. Leaves 1 to 157; 7 inches long, 24 inches broad. Commentary begins: जयति जिनवर्द्धमानः परहितनिरतो विधूतकर्मरजः ।
Commentary ends : अभिधानाचाभवत्पूर्णा पिंडनियुक्तिरिति ।। येनैषा पिंडनियुक्तियुक्तिरम्या विनिर्मिता ॥ द्वादशांगविदे तस्मै नमः श्रीभद्रबाहवे ।। व्याख्यातार्थैरेषा विषमपदार्थापि सुललितवचोभिः ।। अनुपकृतपरोपकृतो विवृतिकृतस्तान्नमस्कुर्वे ॥ इमां च पिंडनियुक्तिमतिगभीरां विवृण्वता कुशलम् ।। यदवापि मलयगिरिणा सिद्धिं तेनाश्रुतां लोकः ॥ अर्हतः शरणं सिद्धाः शरणं मम साधवः ।। शरणं जिननिर्दिष्टो धर्मः शरणमुत्तमः ॥
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No. 18. Oghaniryukti with Dronacharya's Commentary [ ओवनियुक्तिः सटीका-टी० द्रोणाचार्यः] ___Leaves 158 to 346; 7 inches long, 2 inches broad. Granthagra 8,285.
_No. 19. Commentary on the Panchasangraha by MALAYA - GIRI. [पञ्चसंग्रहटीका-मलयगिरिः] Leaves 1 to 266; 14 inches long, Jinches broad.
Ends: समासतः संक्षेपतः सक्षिप्तं भविजनानुकंपया भणितम् । जयति सकलकर्मक्लेशसंपर्कमंत्रः स्फुरितविततविज्ञानसंभारलक्ष्मीः ॥ प्रतिनिहतकुवीर्याशेषमार्गप्रवादः शिवपदमधिरूढो वर्द्धमानो जिनेंद्रः ॥ १ ॥ गणधरदृब्धं जिनभाषितार्थमखिलगमभंगनयकलितम् ।। परतीर्थकुमतनाशनमधिगंतुं शासनं जैनम् ॥ २ ॥ बहर्थमल्पशव्दं प्रकरणमेतद्विवृवता मया निखिलम् ॥ यदवापि मलयागरिणा सिद्धिं तेनाश्रुतां लोकः ॥ ३ ॥ अर्हतो मंगलं सिद्धा मंगलं मम साधवः । मंगलं मंगलं धर्मः समंगलमशिश्रियम् ।। ४ ॥ इति मलयगिरिविरचिता पंचसंग्रहटीका समाप्तेति ।।
No. 20. Mahaviracharitra (in Prakrit), by GUNACHANDRAGANI [महावीरचरियं - गुणचंदगणि]. Leaves 1 to 348; 31 inches long, 2 inches broad. Begins : नमो वीतरागाय ॥
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पयडियसमत्थपरमत्थावत्थरं भवचक्ककयसोक्खं । विरइ जस्स रविमंडलं व नाणं निहयदोसं ॥ जस्स य सोहइ पणमंतसक संकेतनयणकमलवणं । कमविमलसरंतललीणमीणमयरं नहंसुजलं ॥
Ends :
बारसवासाई विवाहिऊण भव्वे सिव गए तंमि 1 भयवं सुहम्मसामी निव्वाणपहं पयासेइ ॥ तां वि चिरकालं विहरिऊण सिरिजंबुसामिणो दाउं गच्छगणाणमणुण्णं संपत्ते सिवनिवासंसि || एवं विज्जाहरनरमुरिंदसंदोह बंद णिज्जेसु । सगमइकतेस महापहूसु गुणणाइरित्तेसु ॥ अइसयगुणरयणनिही मिच्छत्ततमंधलोयदिणना हो । दुरुच्छारियवइरो वइरस्सामी समुप्पणो ॥ साहाए तस्स चंदे कुलमि निप्पडिमए समकुलभवणं । आसि सिरिवद्धमाणो मुणिनाहो संजममुणि व्व ॥ बहलकलिकालतम पसर पूरिया सबिसमसमभागे । दीवेणं व मुणीणं पयासिओ जेण मुत्ति हो || मुनिवईणो तस्स हरट्टहाससियजसपसाहियासस्स । आसि दुवे वरसीसा जयपयड़ा सूरससिणो व्व ॥ भवजल हिवी इसंभंतभवियसंताणतारणसमत्थो । बोहित्थो व महत्यो सिरिरिजिणेसरो पढमो ॥ गुरुसाराउ व्व चलाउ निम्मलसाहुसंतई जम्हा । हिमवंताउ गंग व्व निग्गया सयलजणपुजा || अन्नो य पुन्निमाचंदसुंदरो बुद्धिसागरो सूरी । निम्मवियर वरवागरणच्छंदत्यो पत्थर ||
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EXTRACTS FROM MANUSCRIPTS एगंतवायविलसिरपरवाइकुरंगसिंहाण । तेसिं सीसो जिणिचंदरिनामो समुप्पन्न । संवेगरंगसाला न केवलं कव्वविरयणा जेण । भव्वजणविन्हयकरी विहिया संजमपवित्ती वि ॥ . ससमयपरसमयण्णू विसुद्धसिद्धंतदेसणाभिरउ । सयलमहिवलयवित्तो अन्नोभयदेवसूरित्ति ।। जेणालंकारचरा सलक्खणा वरपया पसन्ना य । सिद्धंतवित्तिरयणेण भारई कामिणि व्व कया ॥ तेसि अस्थि विणेउ समत्थसत्थत्थबोहकुशलमइ । सूरी पसन्नचंदो चंदो इव जणमणानंदो ॥ . तव्वयणेणं सिरिसुमइवायगाणं विणेयलेसेण । गणिणा गुणचंदेणं रइयं सिरिवीरचरियमिमं ॥ एयस्स वियरणाम निव्वंधो जेसि गाढमुप्पण्णो। ते पुण - - लाउ व्विय साहिज्जेते निसामेह ॥ सियजसजाण्हाधवलियनायलकुलनहयलो मयंको व्व । पुव्बमहेसु महेसी पणउ सिरिजीवदेवपत् ॥ तस्स सिस्सो सिद्धंतसिद्धसुविसिटुसंजमाभिरउ । गुणरयणरोहणगिरी पयडो जिणदत्तसूरित्ति । गभीरिमाए पसमेण बुद्धिविभवेण दक्खिणत्तेण । सुंदरनएण जेसिं न कोवि तुल्लो जए जाउ ।। तेस्तिो पडिबुद्धो वायडकुलभवणजयपडो निट्रो । कप्पडवाणिजपुरे सेट्री गोवद्धणो आसि ॥ नंदीसरावलोयणमणेण भव्वाण दंसणथं व । कारावियं सुतुंगं वावन्नजिणालयं जेणा ||
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धम्मधरणीए गिहिणीए तस्स सोढत्ति नाम वयाए । अगणियगुणगणनिलया पुत्ता चत्तारि उप्पन्ना ।। पढमो अम्मयनामो वीउ सिद्धोत्ति जज्जनागो य । तइउ चउत्थउ पुण विक्खाउ नन्नउ नाम ॥ नयविणयसव्वधम्मत्थसीलकलिएहि जोहं दिवोह । तूणं जुजिटिलइवि सद्दहिज्जति विरपुरिसा ए ॥ अह संथारए दिक्खपवज्जिउं भावसारं संतमि । गोवद्धणमि सग्गं गमि तह पढमपुत्तगो॥ सो सिद्ध जज्जनागो छत्तावल्लीए वासमकरिंसु । सव्वकनिटो नन्नयसेट्ठी पुण मूलढाणेवि ।। तेर्सि व भइणिपुत्तो नियपुत्ताउ वि गाढपडिबंधो। आसि जसणागनामो सेटी सुविसिटुगुणनिलउ । अह नन्नयस्स पुत्ता पयडा सावित्तिकुच्छिसंभूया । दोन्निवि य उप्पन्ना गोवाइच्चा कवडी य ॥ सत्तुंजयपमुहसमत्थतित्थजत्ता पयट्टिया । जेण पढमं चिय तस्स कवडिसेटुिणो को समो होज्जा ॥ पुरिसत्थकरणनिरयस्स जज्जनागस्स पवरसेटिस्स । अस्थि जिणधम्मनिरया कलत्तमिह सुंदरी नाम ॥ जाउ तीसे सुंदर विचित्तलक्खणविराइयसरीरो। जिट्टो सिद्धो पुत्तो वीउ पुण वीरनामोत्ति ॥ को तेसि नाणविन्नाणबुद्धिसुविसुद्धधम्मगेहाण । निउणो वि गुणलवपि हु होज्ज समत्थो पवित्थरिउ । -
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EXTRACTS FRON MANUSCRIPTS
नागो इव पिडिज्जइ बंभंडकरंडए अमायंतो । जसि जसोहो सायरनिसिछणलंगणच्छाउ । जिणविवाई सुसुए सुत्थतित्थजत्ताइधामकरणेण । धम्मियजणाण मञ्झे जेहिं पता पढमरहा ।। अन्नाणतह्मसमणी सुयनाणपवा पयट्टिया जेहिं ! सयलागमपोत्थयलेहणेण निच्चपि भव्वाण ॥ तोहं वि तित्थाहिवपरमभत्तिसव्वस्समुव्वहंतेहिं । बीजिणचरियमेयं कारावियं सुद्धवोहकरं ।। जमजुत्तमेत्थ भणियं नियमइदुव्वलउ मए किंपि । तं सोहंतु गुणड्डा उच्छाइयमच्छरा बिउसा ।। छत्ताबलिपुरीए मुणि वेसरगिहमि रइयमिमं । लिहियं च लेह एणं माहवनामेण गुणनिहिणा ।। नंदसिहिरुद्दसंखे वोकते विक्कमाउ कालंमि । जेट्स्स सुद्धतइयातिहिमि सोमे समत्तमिमं ।। निहयसयलविग्घोणग्धमाहप्पजुत्तो । जयइ जयपसिद्धो वद्धमाणो जिणिंदो॥ तयणु जयइ तस्सासंखमोक्खेकमूलं । गरुयभवभयाणं नासणं सासणं च ॥ सिवसगमणदक्खो पाणिणं कप्परुक्खो। जयइ जयपयासो पासनाहो जिणेसो ॥ तयणु जयइ वाणी दिव्वपंकेरुहत्था। सुयरयणचरित्तीपंकयालीणहत्था ॥ इय जिणवरवीरस्सटुमो ताव वुत्तो। परमपयपयाणो नाम पत्थावु एसो
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णा
चरियमवि समत्तं एय संकित्तणाउ । हवउ सुहकरं वो नूणमाचंदसूरं ।। एय वीराजिणेसरस्स चरियं जे भावसारं जणो वक्खाणंति पढति निञ्चलमणो निच्चं निसामंति य । तेसिं इटुविउंगणिट्रघडणादोगच्चरोगादयो आ मोक्खं खयमेइ दुक्खमखिलं सोक्खाण वति य ॥ मंगलं महाश्रीः ॥
No. 21. Kumarapalapratibodha, by SOMAPŘABHACHARYA [कुमारपालप्रतिबोधः- मा०–सोमप्रभाचार्यः].
Leaves 1 to 255; 21 inches long, 2 inches broad. Written in the time of Jayatilaka. Begins : ओं नमो वीतरागाय ॥ चउसु दिसामु पसरियं मोहबलं निजिउं पयट्टो व्व । पयडियधम्मचउको चउदेहो जयइ जिणनाहो ॥ १ ॥ Ends: स्तुमस्त्रिसंध्यं प्रभुहेमसूररेनन्यतुल्यामुपदेशशक्तिम् । अतींद्रियज्ञानविवर्जितोपि यः क्षोणिभर्तुळधित प्रबोधम् ।। सत्त्वानुकंपा न महीभुजां स्यादित्येष कृप्तो वितथः प्रवादः । जिनेंद्रधर्म प्रतिपद्य येन श्लाध्यः स केषां न कुमारपालः ।। विचित्रवृत्तांतसमेतमेतयोश्चरित्रमुत्कीर्तयितुं क्षमेत कः । तथापि - - - - - - भार्थिना समुद्भुतो बिंदुरिबांबुवेर्मया ।। इति सोमप्रभकथिते कुमारनृपहेमचंद्रसंवादे । जिनधर्मप्रतिबोधे प्रस्तावः पंचमः प्रोक्तः ॥ सूर्याचंद्र मसौ कुतर्कतमसः कर्णावतंसौ क्षिते.
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धुर्यौ धर्मरथस्य सर्वजगतः सूच्चावलोके दृशौ । निर्वाणावसथस्य तोरणमहास्तंभावभूतामुभावेकः श्रीमुनिचंद्रसूरिरपरः श्रीमानदेवप्रभुः ॥ तयोर्बभूवाजितदेवसूरिः शिष्यो बृहद्गच्छनभः शशांकः । जिनेंद्रधमीबुनिधिः प्रपेदे घनोदकः स्फूर्तिमतीव यस्मात् ॥ श्रीदेवसूरिप्रमुखा बभूवुरन्येपि तत्पाद पयोजहंसाः । येषामबाधारचितस्थितीनां नालीकमैत्री मुदमाततान ||
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विशारद शिरोमणेरजितदेवसूरेर भूक्रमांबुजमधुत्रतो विजयसिंहरिः प्रभुः । मितोपकरणक्रियारुचिरनित्यवासी च यश्चिरंतनमुनित्रतं व्यधित दुःखमा
यामपि ॥ तत्पट्टपूर्णाद्रिसहस्त्ररश्मेः सोमप्रभाचार्य इति प्रसिद्धः । श्रीहेमसूरेश्व कुमारपालदेवस्य चेदं न्यगदच्चारित्रम् || सुकविरिति न कीर्ति नार्थलाभं न पूजामहमभिलषमाणः प्रावृतो वक्तुमेतत् । किमुत कृतमुभाग्यां दुष्करं दुःखमायां जिनमतमतुलं तत्कीर्तनात्पुण्यमिच्छुः ॥ धर्मे निर्मलतामा तुलां श्रीहेमचंद्रप्रभोभक्ति व्यर्जितमद्भुतां भणितिषु द्रष्टुं पराभौचितीम् । श्रोतुं चित्रकवेश्चमत्कृतिकृतः काव्यं च लोकोत्तरं कर्तु कामयसे यदि स्फुटगुणं तद्ग्रंथमेतं शृणु ॥ प्राग्वाटान्वयसागरें दुरसमप्रज्ञः कृतज्ञः क्षमी वाग्मी सूक्तिसुधानिधानमजान श्रीपालनामा पुमान् । यं लोकोत्तरकाव्य रंजितमतिः साहित्यविद्यारतिः
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श्रीसिद्धाधिपतिः कवींद्र इति च भ्रातेति च व्याहरत् ॥ पुत्रस्तस्य कुमारपालनृपति प्राप्तः पदं धीमतामुत्तंसः कविचक्रमस्तकमणिः श्रीसिद्धपालोऽभवत् । कृप्तं तद्वसताविदं किमपि यच्चायुक्तमुक्तं मया तयुष्माभिरिहोच्यतामिति बुधा वः प्राजालः प्रार्थये ।। हेमसूरिपदपंकजहंसैः श्रीमहेंद्र मुनिपैः श्रुतमेतत् । वर्द्धमानगुणचंद्रगाणिभ्यां साकमाकलितशास्त्ररहस्यैः ॥ यावन्निहताखिलसंतमसौ नभास चकासाते रविचंद्र मसौ । तावत् हेमकुमारचरितं - - - विमलमतिसुधाचिर्नेमिनागांगजन्माऽभवदभयकुमारश्रावकः श्रेष्ठिमुख्यः । अथ निजकरपद्मप्रातधर्मार्थपद्मा विजितपदगपद्मा तस्य पद्मीति पत्नी ।। तत्पुत्रा गुणिनो ऽभवन्भुविहरिश्चंद्रादयो विश्रुताः श्रीदेवी - - - बहु सोलेखयत् । शशिजलधिसूर्यवर्षे शुचिमासे रविदिनसिताष्टम्याम् । जिनधर्मप्रतिबोधः कृप्तोयं गूर्जरेंद्रपुरे ॥ १४ ॥ प्रस्तावपचकेप्यत्राष्टौ सहस्राण्यनुष्टुभाम् । एकैकाक्षरसंख्यातान्यधिकान्यष्टभिः शतैः ।।
- - - ने श्रीस्तंभतीर्थे बृहद्पौषधशालायां भट्टा० श्रीजयतिलकसूरीणां उपदेशेन श्रीकुमारपालप्रतिबोधपुस्तकं लिखितमिदं कायस्थज्ञातीयमहं मंडलिकसतखेता लिखितं चिरं नंदतु ।।
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No. 22. Navapadaprakaranam by DEVAGUPTA with a Com• mentary by a pupil [नवपदप्रकरणं सटीकम् मू मा० देवगुप्तसूरिःटी॰ तस्य शिष्यः] Leaves 1 to 237; 30 inches long, 2 inches broad.
Commentary begins:
ओं नमो वीतरागाय ॥
शुद्धध्यानधनप्रात्या कर्मदारिद्र्यविद्रुतौ ।
निवृत्तिः साधिता येन तं नमामि जिनप्रभुम् ||१|| जयति जितकर्मशत्रुर्लव्यातुलमहिम के वलपताकः । त्रिदशासुरकृतपूजः सत्तत्वनिवेदको वीरः ॥ २ ॥ यस्याः प्रसादयानेन लीलया ज्ञेयसागरम् । तरंति विबुधाः सा मे सन्निवत्तां सरस्वती ॥ ३ ॥ मम बुद्धिः कुमुदिनीयं यत्संगमशशधरोदये सद्यः । अलभत विकाशमसमं तान्भक्त्या निजगुरून्नौमि ॥ ४ ॥ श्रीदेव गुप्तसूरिविरचितवान्नवपदप्रकरणं यत् । विवर्ते तस्य विधित्सुर्विज्ञपये सज्जनानेवम् ॥ १ ॥ वृत्तिर्यद्यपि विद्यतेत्र विहिता तैरेवमुच्चैः स्वयं संक्षेपेण तथापि या न सुगमा गंभीरशब्दा यतः । विस्पष्टार्थपदप्रबंधरुचिरा तेनेयमारभ्यते
किंचिद्विस्तरशालिनी तनुधियामिच्छानुवृत्त्या मया ॥ ६ ॥ यच्चासमंजसं किंचिज्जायतेत्र प्रमादतः ।
पुत्रापराधवत्सर्वं तद्बुधैर्मम सह्यताम् ॥७॥
इह चादावेव प्रकरणकारो भीष्टदेवतास्तवमभिधेयादित्रयं च प्रतिपादन
यितुकामः ॥
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नमिऊण बदमाणं मिच्छं सम्मं वयाइ संलेहा । नवभेयाई वोच्छं सट्टाणमणुग्गहटाए ॥ १ ॥ इतिगाथामाह ।।
No. 23. Sangrahanivivriti, by PURNA BHADRA's pupil [संग्रहणी विवतिः--पूर्णभद्रसूरिशिष्यः] .
Leaves 21 to 163; 13 inches long, 2 inches broad, Ends: जं उद्धरियमित्यादि । यदुद्भुतं श्रुतात्प्रज्ञापनादेः कालांतरप्राप्यं पूर्वाचार्य
कृतं वा यदुद्धृतमथवा स्वमत्या क्षतव्यं श्रुतधरैस्तथैव श्रुतदेवतयेति ॥ यदनवबोधानुपयोगतः किमाप विवृतमन्यत्र मया । तच्छोध्यं सूरिवरैः कृतांजलिः प्रार्थयेऽहमिति ॥ १ ॥ संग्रहणीविवृतिमिमां कृत्वा यदवापि पुण्यमत्र मया । तेनागमसंग्रहप्रवणोस्तु स चैव भव्यजनः ।। स्थारापद्रपुरीयगच्छनलिनीखंडैकचंडद्युतिः सूरिः पंडितमूर्द्ध मंडनमणिः श्रीशालिभद्राभिधः । आसीत्तस्य विनेयतामुपगतः श्रीपूर्णभद्राव्हयतेषां शिष्यलवेन मंदमतिना वृत्तिः कृतेयं स्फुटा ।। ४ ।। एकादशवर्षशतैर्नवाधिकत्रिशताविकैर्यातैः - - -
No. 24. Katantrapanjikodyota, by TRIVIKRA MA [कातन्त्रपजिकोद्योतः-त्रिविक्रमः]. Begins :
ओं नमः शिवाय ॥ अथ ॥ अविदितानीति । ना न पठितव्यः सूत्रकारस्य विदतत्वात् ॥...
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इति श्रीवर्द्धमानशिष्यत्रिविक्रमकृते पंज्जिकोद्योते प्रत्ययपादः समाप्तः ॥
उक्तं यदाऴ्नविशीर्णवाक्यैर्निरर्गलं किंचन फल्गु पूर्वैः ।
उपेक्षितं सर्वमिदं मया तत्प्रायो विचारं सहते न येन ॥ आसीदियं पंजरचित्रसालिकेव हि पंजिका ।
उद्योतव्यपदेशेन त्वया पूर्णोवलीकृता ||•••
इति श्रीमत्कर्णोपाध्यायश्रीवर्द्धमान शिष्यश्रीत्रिविक्रमकृते कातंत्र पंजिकोद्यते द्विउक्तिपादः ॥ ...
इति श्रीवर्द्धमानशिष्यत्रिविक्रमकृते पंजिकोद्योते संप्रसारणपादः सपादः समाप्तः ॥
उक्तं यदालन विशीर्णवाक्यैर्निरर्गलं किंचन फल्गु पूर्वैः । उपेक्षितं सर्वमिदं मया तत्प्रायो विचारं सहते न येन ॥ ... इति श्री० पंजिकोद्यतेऽनुषंगपादः
EXTRACTS FROM MANUSCRIPTS
No. 25. Dansanasattaripagaranam [दंसणसत्तरिपगरणं ]. Leaves 1 to 6; 12 inches long, 12 inches broad. In 71 gathas.
26. Upadesakandali, by ASADA. With the Commentary of BALACHANDRA [उपदेशकन्दली सटीका मू० आसडः टी० बालचन्द्रः ].
Leaves 1 to 284; 32 inches long, 22 inches broad. Dated Samvat 1296 = A. D. 1240.
Begins:
यन्नाभीनासिकानूदृगलिकमुखहत्तालु मौलिश्रवस्सु
ध्यानस्थानेषु रुध्वा निरवधि मरुतः पंच पश्यंति किंचित् । तस्माद्दृष्यत्यदंतः किमपि गुरुगिरा लक्ष्यते लक्ष्यरूपं यत्तेजः सर्वतेजोमदकदनमहं प्रत्यहं तन्महेहम् ॥ १ ॥
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वसशैवे मर्ध्नि प्रतिदिशमुदस्ताखिलतमाः क्षपायां तन्वानो रुचिमुपचितां शैत्यनिचिताम् । कलाशाली कामं कुवलयसमुल्लासरसिको मगांकः श्रीशांतिर्भवतु भवतांतिप्रशमनः ॥ २ ॥ धर्मे निर्मलभासि दासितसिताभीषुप्रभासंपदि क्षीरक्षालननिस्तुषत्रिजगतीनेत्रभ्रमं बिनाति । यस्तारातुलनां महोत्पलमहःसंदोहसंदेहकृदेहश्रीरभजद्विभुः स भवतु श्रीपार्श्वनाथः श्रिये ॥३॥ कंदाद्विनिर्गत्य मृणालमूतिर्या ब्रह्मरंध्रांबुरुहे निलीना। सा योगिनां कुंडलिनीति नाम शक्तिः प्रसूते कवितामधूनि ।। ४ ॥ आत्महितहेतवेहं सोदर्यायां विवेकमंजर्याः । वक्ष्ये श्रुतवनमल्लयां विवरणमुपदेशकन्दल्याम् ॥ ६ ॥
इह किल कलिकालगौतमश्रीमदभयदेवसूरिसुगुरूपदेशपरिशीलितसकलसर्वज्ञसिद्धांतसारः । सारस्वतज्योतिरुद्योतमानकविताडंबरः । विवेकमंजरीप्रकरणकरणप्रवणसुकृतसौरभवासितवसुंधरः।बंधुरोपेजातगृहमेधिगुणः । प्रगुगसम्यत्कानःसीमः । श्रीमदासडकविः कविसभाशृंगार इत्यपरनामधेयः स्वश्रेयःसमुदयायोपदेशकंदलीप्रकरणचिकीः श्रीमंतमिहावसर्पिण्यामाद्यमहर्तुमभिष्टुवन विहिताभीष्टसिद्धिप्रथामिमामादौ भावमंगलगाथामाह ।। तिहुयणमंगलतिलयं कयदुज्जयभाववेरिभयविलयं । केवलसिरिकुलनिलयं रिसहं पणमामि मुनिवसहं ॥१॥
व्याख्या-ऋषिगतावित्यनेन ऋषति गच्छति परमपदमिति ऋषभः। यद्वा । सर्वे गत्या ज्ञानार्थाः । ऋषति जानाति त्रैकाल्यमिति ऋषभः । ऋषिवृषिलुसिभ्यः कित् । इत्यनेन अभः । तं प्रणमामि ॥
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Ends:
अथ ग्रंथसमाप्तौ मंगलमाह ॥
रइयं पगरणमेयं जिणपत्रयणसारसंगहेण मए ।
सम्मं समत्तविया सडंवरं दिसउ भवियाण ॥ १२४ ॥
व्याख्या -- एतत्प्रकरणं मया रचितं केन कृत्वा । जिणपवयणसारसंगहेण जिनानां प्रवचनं सिद्धांतस्तत्र सारभूतानां पंचानामपि व्रतानां चतुर्णा च धर्मागानां दानशीलतपोभावनारूपाणामपरेषां च चतुर्णा क्षांतिमार्दवार्जवसंतोषाणां संग्रहः एकत्र मीलनं जिनप्रवचनसारसंग्रहः तेन । अन्यदपि प्रकरणमुत्सवो विवाहादिः सारसंग्रहेण द्रव्योच्चयेन क्रियत इत्युक्तिलेश । किं करोत् । दिसतु ददातु । कथं । सर्म सम्यक् । किं तत् । संमत्तवियासडंबरं सम्पत्कस्य सुदेव सुगुरू सुधर्मप्रतिपत्तिरूपस्य विकाशाडंबरो विस्तरस्तं सम्यक्कविकाशाडंबरं । केभ्यः । भवियाणं भव्येभ्यः भद्रकेभ्यः इति कवेरुक्तिः । वयं तु ब्रूमः - एतत्प्रकरणं भव्येभ्यः आसडं आसडनामानं सुकवि वरं प्रधानं दिशतु कथंयतु । यतः कवयः काव्यकीर्त्तनैरेव परां प्रसिद्धिमायांतीति । किं विशिष्टमिदं प्रकरणं । सग्मत्तवि । वी प्रजनकांत्यशनखादनेषु इत्यनेन सम्पक्कं वेति समुद्दीपयति अवगमयति वा सम्पकवि किपा सिद्धमिति ।
I
अथ प्रशस्तगाथामाह ॥
सिरिभिल्लमालनिम्मलकुलसंभव कडुय रायतणएण । इय आसडेण रइयं गुरूपरसाणुसारेण ॥। १२५ ।।
व्याख्या - इति पूर्वोक्तमुपदेशकंदली नामधेयं प्रकरणं आसडेन रचितं रचनामानीतं । किंविशिष्टेन । सिरिभिल्लमालेति निर्मलं निर्दूषणं च तत्कुलं निर्मलकुलं श्रिया उपलक्षितं च तत् भिल्लमालाख्यं निर्मलकुलं च तत्तथा तस्मात्संभवति श्रीभिल्लुमालनिर्मलकुलसंभवः स चासौ कटुकराजस्तस्य तनयः पुत्रो यः स तथा तेन । तद्यथा ।
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PRESERVED AT ANHILWAD PATAN. 45 श्रीभिल्लमालनामा हिमाद्रिरिव गोत्र शेषरो जयति । यस्य प्रजा महेशप्रिया न कैर्वर्ण्यतेऽपर्णा ॥ १॥ गंगाप्रवाह इव तत्र बभूव पुण्यभावोत्कटः कटुकराज इति प्रसिद्धः । यः सर्वदा जिनपदाश्रयणप्रवीणमाहात्म्यतः पदमदत्त भवस्य मूर्ध्नि ॥२॥ अणीलतेति (आनलदेवी) दयिताऽस्य बभूव सीतारेखास्पदं वसुमतीव सती बभौ या । व्योमावनीव च जिनत्रिपदीविविक्ता पुन्नागनंदनवती त्वमरावतीव ॥ ३ ॥ तयोरजनिषातां द्वौ सुतावासडजासडौ। सत्पथं न व्यलंघेतां धुर्यों धर्मरथस्य यौ ॥ ४ ॥ आसडः कालिदासस्य यशोदीपमदीपयत् । मेघदूतमहाकाव्यटीकास्नेहनिषेचनात् ॥ ५ ॥ श्रुत्वा नवरसोद्गारकिरोऽस्य कवितागिरः । राजसभ्याः कविसभाशृंगार इति यं जगुः ॥ ६ ॥ जिनस्तोत्रस्तुतीः पद्यगद्यबंधैरनेकशः । चक्रे यः कर्मकृष्णाहिजांगलीमंत्रसनिभाः ॥ ७ ॥ विवेकमंजरीनामधेयप्रकरणच्छलात् । कल्याणसिद्धये येन कृता सिद्धरसप्रपा ॥ ८ ॥
तेन सदा जिनगुणप्रगुणांतःकरणकशाऽनुशासितहृषीकावगडेन । श्रीमतासडेन महाकविनेदमुपदेशकंदलीप्रकरणं किं स्वमनीषया विरचितमित्याह । गुरूवएसाणुसारेण । गुरवोऽत्र श्रीमदभयदेवसूरिनामानस्तेषा
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EXTRACTS FROM MANUSCRIPTS मुपदशा गुरूपदेशास्तेषामनुसारोऽनुवादस्तेनेति संक्षेपार्थो व्यासार्थस्तु प्रशस्तेरवसेयः ॥ सा चेयम्श्रीवीरसेन इति वज्रमुनीश्वरस्य पट्टे बभूव दशपूर्वधरस्य पूर्वम् । शाखा य एष जिनशासनकल्पवृक्षस्कंधो दिगंतरगतीः सुषुवे चतस्रः ॥ १ ॥ शाखांकुरा गणभृतोऽत्र बभूवुरेते नागेंद्र इत्यमलकीर्तिनदीनगेंद्रः । चंद्रश्च सांद्रमतिभागथ निर्वृतिश्च विद्याधरश्च भुवि विश्रुतनामधेयः ॥ २॥ . एतेषु चंद्र इति यः प्रबभूव सरिस्तस्य प्रफुल्लगुणगच्छवनस्य गच्छे । भूयांस एव भुवनत्रयवंदनीयाः संजज्ञिरे गणधरा गुणिनो धरायाम् ॥ ३ ॥ प्रद्युम्नसरिरिति तेषु रतिप्रियेषु भेत्ता बभूव निखिलागमशास्त्रवेत्ता। येन प्रबोध्य तलपाटपुरे नरेंद्रमुत्पाटयां तलत एव कलिर्बभूव ॥ ४ ॥ श्रीचंद्रगच्छनवकैरवकलिचंद्रश्चंद्रप्रभः प्रभुरभिज्ञतमस्ततोऽभूत् । यो विश्वलोकविदितं मुदितांतरात्मा प्राभातिकी जिनपतिस्तुतिमाततान ॥ ५ ॥ तस्माद्धनेश्वर इति श्रुतपारदश्वा विश्वाभिरामचरितोऽभ्युदियाय सूरिः ।
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यो मंत्रमाप गुरुतः सुरभूयभाजः प्राबोधयच्च समयपुरदेवतां यः ॥ ६ ॥ तस्याभितः समभवन् भुवनप्रशस्याः शिष्याः श्रुताक्षकमलोद्धरणप्रवीणाः । चत्वार ऊर्जितरुचो विदुषां निषेव्या देख्याः करा इव पुराणकविप्रसूतेः ॥ ७ ॥ श्रीवीरभद्र इति सूरिरमीषु मुख्यः श्रीदेवसूरिरिति भूरिगुणो द्वितीयः । श्रीदेवभद्र इति सूरिवरस्तृतीयोटिप्पने--(श्रीशांतिसूरिरिति रिवरस्तुतीयो) देवेंद्रसूरिरिति च प्रथितश्चतुर्थः ॥ ८ ॥ श्रीमंडलीति नगरी नगरीति कृप्तप्रासादसंहतिरितोऽस्त्यमरावतीव । देवेंद्र टूरिसुगुरुर्विततान तस्यां तद्वासिनां च हृदि मूनि च वासलक्ष्मीम् ॥ ९ ॥ प्रातिष्ठिपन्निजपदे स विनिद्रभद्रे भद्रेश्वरं प्रभुमनश्वरकीर्तिपूरम् । आख्यामनंग इति संगतवान् यदीयध्यानानले मदनवन्मदनो विलीय ॥ १० ॥ तत्पमौलिमणितामभजद्भवातिभीतात्मनामभयदोऽभयदेवसरिः । पापातपापगममन्वहमातपत्रीभूयांगिनां शिरास यस्य करश्चकार ॥ ११॥
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तस्योपदेशपदपेशललेशमाप्य वारांमुचेव कियदेव पयः पयोधेः । श्रीआसडेन कविना जानतोपदेशकंदल्यसावसुमतामुपकारहेतोः ॥ १२ ॥ किंच तत्पट्टपर्वतमलंकुरुते स्म कर्मव्यालावलीहरियुवा हरिभद्रसूरिः । भूम्ना यदीयचरणोपनतैरशोभि मुक्ताफलोज्वलतमैजर्गती यशोभिः ॥ १३ ॥ शिष्यस्तस्य विभोर्नमस्यचरणांभोजस्य जज्ञे महासाहित्योपनिषन्नभोंगणराविः श्रीबालचंद्रः कविः । यं स्वप्नांतमुपेत्य तदृढतरानुध्यानतुष्टा जगी मत्पुत्रस्त्वमसीति शीतलगिरा देवी गिरामीश्वरी ।। १४ ।।
इतश्च
आसडस्य मृडस्येव गौरीगंगे बभूवतुः । पृथिवीदेवीजैतल्लदेव्यौ द्वे तस्य वल्लभे ॥ १६ ॥ जैतल्लदेव्यां तनयावभूतां द्वावेतयोराजडनामधेयः । ज्येष्ठोतिविद्वान् कवयोभिदध्युर्बाल्येपि यं बालसरस्वतीति ॥ १६ ॥ दुर्वत्तानां शंकनीयः कनीयान् मंत्री जैत्रः सिंहवज्जैत्रसिंहः । मुद्रा सव्या त्यागिनोऽस्यापसव्या चापव्यापाराद्भुतस्याप हस्तम् ॥ १७ ॥ अरिसिंह इति च पृथिवीदेव्यां करपुष्करश्रवद्दानः । गुरुगिरिपरिणतकर्मा गज इव कलभोंगजः समभूत् ॥ १८ ॥ मंत्रिणो जैत्रसिंहस्य पत्नी जल्हणदेव्यसौ । त्रीनसूत सुतान् वेदानिव वाणी प्रजापतेः ॥ १९ ॥
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आशापाल इति प्रसिद्ध गरिमा तेषां गरीयानयं मध्यश्चाजय इत्यनुगुणाध्यात्मकधन्याशयः । चक्रे ज्ञानविलासकीर्तनमसौ शास्त्रं पुमर्थात्मकं । पुण्यात्माऽमृतपाल इत्यसमधीपात्रं तृतीयस्त्वयम् ॥ २० ॥ अरिसिंहस्य तथाल्हणदेवीति निवीतकलुषा पत्नी ॥ रत्नत्रयामेव जिनवागजीजनत्तनुज नित्रितयम् ॥ २१ ।। आशाधरस्तेषु सधीरधीती समग्रशास्त्रेषु किलाग्रिमोऽस्ति । विमध्यमश्चाल्हणसिंहनामा प्रज्ञागरिष्ठोऽभयदः कनिष्ठः ॥ २२ ॥ इत्येवं स्त्रकुटुंबवर्गसहितेनाभ्यर्थितो मांत्रेणा
श्रीजैत्रेण विवेकिना निजपितुः श्रेयः श्रियोवृद्धये । एतां वृत्तिमुवाच तत्कुलगुरुः श्रीबालचंद्राख्यया विख्यातोऽधिपतिर्गणस्य गणिनीरत्नश्रियो धर्मजः ॥ २३ ॥ देवानंद मुनीं दुगच्छ गगनालंकारशीतद्युतेः शिष्यः श्रीकनकप्रभाख्यसुगुरोस्त्रैविद्यचूडामणेः । श्री बालेंदु कवींद्र पाणिकमलोन्मीलप्रतिष्ठः सुधीरेतस्यां सहकारिकारणमभूत्प्रद्युम्न सूरिः पुनः ॥ २४ ॥ एतां शोधयति स्म विश्रुत वृहद्गुच्छांवरश्रीशिरोरत्नं किंच धनेश्वरस्य सुगुरोः पोदयाद्री रविः । छंदोलंकृतितर्कलक्षणचणः सिद्धांतशुद्धाशयः । साहित्योपचयप्रपंचनविभुः श्रीपद्मचंद्रः प्रभुः ॥ २५ ॥ उत्सूत्रं यदसूत्रि सूत्रविकलेनालक्षणं लक्षणन्यूनेन श्लथरीति रीतिरिपुणा व्यर्थं हतार्थेन च । किंचित् क्वापि वचो मया प्रलपितं स्वच्छंदमच्छंद सा तच्छोध्यं विबुधैः परैरपि परं कृत्वा प्रसादं मयि ।। २६ ।।
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50 EXTRACTS FROM MANUSCRIPTS पूर्वाशा कुंकुमांभःसुभगमिव मुखं बिभ्रती भानुबिंब संध्यारागांशुकश्रीपरिचयरचनाभासुरा बासरादौ । आत्मानं पश्चिमाशाधृतशशिमुकुरे पश्यतीबात्र यावत्तावद्व्याख्यायमाना कृतिभिरतितरां बर्ततां वृत्तिरेषा ॥ २७ ॥ इत्याचार्यश्रीबालचंद्रविरचितायामुपदेशकंदलीवृत्तौ चतुःकषायविरतविवरणं त्रयोदशो विश्रामः समाप्तः ॥ शिवमस्तु सर्वजगतः परहितनिरता भवंतु भूतगणाः ।। दोषाः प्रयांतु नाशं सर्वत्र सुखी भवतु लोकः ॥
ग्रंथाग्रं ७६०० संवत् १२९६ वर्षे फाल्गुणशुदि ९ शुक्रे समस्तराजावलीपूर्व महाराजाधिराज श्रीभीमदेवकल्याणविजयराज्ये तन्नियुक्तमहामात्यदंडश्रीताते श्रीश्रीकरणं परिपंथयतीत्येवं काले पुस्तकमिदं लिखितमिति ।
No 27. A Manuscript containing,
1. Uttaradhyayanasutra [ उत्तराध्ययनसूत्रम्. ], 2. Uttaradhyayananiryukti [ उत्तराध्ययनानयुक्ति : ], 3. Uttaradhyayanatika, by SANTYACHARYA (5TTTTETTA
टीका-शान्त्याचार्यः]. ___Leaves 1 to 54 (sutra and niryukti), 1 to 368 (commentary); 313 inches long, 2 inches broad. Dated Samvat 1343=A. D. 1287.
संवत् १३४३वर्षे लौकिककार्तिकशुदि २ रवावद्येह श्रीमदणहिलपाटके समस्तराजावलीसमलंकृतमहाराजाधिराज श्रीमत् सारंगदेवकल्याणविजयराज्ये तन्नियुक्तमहामात्यश्रीमधुसूदने श्रीश्रीकरणादिसमस्तमुद्राव्यापारान् परिपंथयति सतीत्येवं काले प्रवर्तमाने तेनैव नियुक्तमहं श्रीसोमप्रतिपत्तौ बीजापुरे पुस्तकमिदं लेखकसीहाकेन लिखितमिति ॥ मंगलं महाश्रीः ॥
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28. The Anuyogadvarasutra; Churni on, by MAHASENA [अनुयोगद्वारचूर्णिः-महासेनगणिः] .
Leaves 1 to 43 ( Sutra ), 44 to 273 (Churni), 274 to 430 (Commentary); 25 inches long, 13 inches broad. Dated Samvat 1456=A. D. 1400. Begins:
ओं नमो वीतरागाय ॥ किंचि पंचविहायारजाणतं तप्पहवाण पउज्जुत्तं थातिं च गुरुं प्रणमिऊण । जातिकुलस्वणिणआदिगुणसंपन्नो य सीसो भणइ । भगवं तुम्भंतिए अणुयोगद्दारक्कम समोतारं तदत्थं च णातुमिच्छामि। ततो गुरु तं सीसं विणयादिगुणसंपण्णं जाणिऊण तद्रहितं वा ततो भणति सुणेहि कहेमि ते अणुउगद्दारत्थं तकमं च । Ends : तेसुं जो जहठिउ सो तसो सव्वणयसंमतो भवताति ॥
इतिश्रीस्वेतांबराचार्य-महलमहसेर्गणिमहत्तरपूज्जपादानामनुयोगद्दाराणां चूणि समत्ता ॥ अनुयोगद्वारचूणिः ॥ अक्षरमात्रपदस्वरहीनं व्यंजनसंधिविवर्जितरेफः । साधुभिरेव मम क्षमियव्वो कोऽत्र न मुह्यति शास्त्रसमुद्रे । मंगलं महाश्री : ।। शिवमस्तु श्रीचतुर्विधसंघस्य ॥ यावद्गिरिनदीद्वीपा यावच्चंद्रादिवाकरौः। यावच्च जैनधर्मोयं तावन्नंदतु पुस्तकम् ।।
संवत् १४५६ वर्षे श्रीस्तंभतीथे बृहत्वोषधशालायां भट्टारकश्रीजयतिलक. सरिणा अनुयोगद्वारचूर्णिउद्धारः कारापितः।
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EXTRACTS FROM MANUSCRIPTS
29. A Manuscript containing, ___ 1. Anuyogadvaratika, by HEMACHANDRA [ अनुयोगद्वारटोका
हेमचन्द्र:], 2. Unodarikaditapas [ ऊनोदरिकांदितप:],
3. Pratishthavidhana [प्रतिष्यविधानम J. Leaves 1 to 15 (Uoodarikaditapas) and 16 80 36 (Pratishtavidhana] ; 14 inches long, 2 inches broad. Pratishthavidhana begins : इह हि श्रावकेण चाहत्प्रतिष्ठा कार्या । उपमिति १ तिलकमंजरीस्थानत्रय २ हरिवंश ३ स्थानक ४ दमयंती ५ कथाकोश ६ भुवनसुंदरी ७ प्रशमराति ८ पंचासक ९ पंचवस्तुक १० कल्याणकप्रकरण ११ स्तवन १२ निशीथ १३ कल्प १४ महानिशीथ १५ आवश्यकेषु १६ श्रूयमाणत्वात् ।। तत्रोपमित्याम् ।
Ends:
ततः अमारिउद्घोषणापूर्व अष्टादिकामहिमानं कारयेत् ॥ इति प्रतिष्ठाविधानं समाप्तम् ।। ग्रंथाग्रं ३६०
No. 30. The Kavyadarsa a commentary on the Kavyaprakasa, by SOMESVARA [ काव्यादर्शः काव्यप्रकाशसंकेतः-भटसोमेश्वरः]
Leaves 101 to 179; 14 inches long, 2 inches broad. Contains the fourth, fifth and Sixth Ullasas. P. 103. एवं शुद्धस्य ध्वनेः स्वप्रभेदं प्रति चत्वारो भेदा दर्शिताः । इति भट्टसोमेश्वरविरचिते काव्यादर्श काव्यप्रकाशसंकेते चतुर्थ उल्लासः ॥
व्यंग्याओं ललनालावण्यप्रख्यो यः प्रतिपादितस्तस्य प्राधान्ये उत्तम काव्यं ध्वनिरित्युक्तं । गुणभावे च वाच्ये चारुत्वप्रकर्षे गणीभतव्यंग्यो नाम मध्यमः काव्यभेदःइति भट्ट० पंचमोल्लास: ।
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शब्दार्थचित्रमिति । शब्दार्थवैचित्र्यमानं व्यंग्यरहितमवरं काव्यं यत्प्रथमोल्लास उदाहरणद्वयेन दर्शितं । तत्र---
No. 31_Karmastavatika, by GovINDAGANI [कर्मस्तवटीकागोविंदगणिः]. __Leaves 1 to 73; 14 inches long, 2 inches broad. Dated Samvat 1218 = A. D. 1162. Ends: इति श्वेतपटाचार्यश्रीगोविंदेन निर्मिता ॥ कर्मस्तवस्य टीकेयं देवनागगुरोगिरा
॥ ॥ समाप्ता चेयं कर्मस्तवटीका ॥ ॥ ग्रंथमानं १०९॥ ॥ संवत् १२१८ माघ शुदि १४ बुधे ।। अनुष्टुप्छंदसा प्रायः सकलय्यानुवर्णितं । सहस्रमेकं श्लोकानां नवत्युत्तरमेव तु ॥ ॥
No. 32 A Manuscript containing,
1. Kalpasutra with the Kalikacharyakatha [कल्पसूत्रं कालिकाचार्यकथा . ],
2. Dipotsavakalpa, by SARVANANDASURI [ दीपोत्सवकल्पः-सर्वानन्दसूरिः] . __Leaves 1 to 152 and 153 to 164; 15 inches long, 2 inches broad. Dated Samvat 1336 = A. D. 1280.
Kalikacharyakatha ends : ॥ इति पतसवणाकप्पो सम्मत्तो ।। ।। तत्समाप्तौ च समाप्तं चेदं श्रीकालि
काचार्याख्यानकं ॥ ॥ संवत् १३३६ वर्षे जेष्ठशुदि ६ रवौ श्रीपत्तने महाराजाधिराजस्य श्रीसारंगदेवस्य विजयिनि राज्ये श्रीमत्पर्यषणाकल्पोऽयं लिखितः ।। शुभं भवतु चतुर्विधश्रीसंघभट्टारकस्य ॥ ॥ ॥ ॥ मंगलं महाश्रीः ॥ ॥ ॥ श्रे० बिल्हणेन मातृमोहिणिश्रेयाथ श्रीपर्युषणाकल्पपुस्तिका लिखापिता ॥ पूज्यश्रीदेवरिभ्यः॥
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EXTRACTS FROM MANUSCRIPTS
Dipotsavakalpa begins : गुरोः श्रीवर्धमानस्य वाचः पुण्यरसोज्वलाः । जयंति जगदानंदकंद कल्याणहेतवः ॥ १ ॥ Dipotsavakalpa ends:
आनंदद्रुमकंदकंदलसमुद्भूतामृते निर्वृते वीरे श्रीमति नंदिवर्धननृपस्तत्प्रेमचितान्वितः । संबोध्यादरसुंदरेण मनसा स्वत्रा स्वयं भोजितः
तत्प्रावर्तत पर्व सर्वजगति भ्रातृद्वितीयाभिवम् ॥ ४३ ॥ इत्याचार्यश्रीसर्वानंदविरचितो दीपोत्सव कल्पः समाप्तः ॥
No. 33. A Manuscript containing,
1. Upadesamala, by DHARMADASA [ उपदेशमाला - धर्मदासः ],
2. Dharmopadesamala [ धर्मोपदेशमाला ],
3. Yogasastra, by HEMACHANDRA [ योगशास्त्रम् - हेमचन्द्रः ],
4. Bhaktamarastotra, by MANArUNGA [भक्तामर स्तोत्रम् — मानतुङ ः ],
5. Pratikramanasutra [ प्रतिक्रमणम् ],
6. Pravrajyavidhana [ प्रव्रज्याविधानम् ],
7. Namaskaraphala [ नमस्कारफलम् ],
8. Jinapatistotra, by BILHANA [ जिनपतिस्तोत्रम् - बिल्हणः ], 9. Anityatakulaka.
Leaves 1 to 196; 10 inches long, 2 inches broad.
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PRESERVED AT ANHILWAD PATAN.
Jinapatistotra begins :
जयति भुजगराजप्राज्यफुल्लत्फणालीमणिकिरणकदंबाडंबरी पार्श्वनाथः । भुवनभवनगर्भादभ्रमोहांधकारस्छिदुरतरुणदीपोद्दीपने कौतुकी वः ॥१॥ दिशतु सुकृतलोकप्रस्तुतश्लाघ्यपूजाविलसितगुरुधूमस्तोमसंगादिवांगम् । दधदभिनवमेघश्यामलं मंगलं वस्त्रिजगदभयदीक्षादीक्षितः पार्श्वनाथः ॥ २ ॥ कमपि कमठदैत्याकालकालांबुवाहव्यतिकरबधिरोपि श्रीविशेषं दधानः । मदनमदविकारांभोरुहम्लानहेतुं जनयति स जिनेंदुर्युष्मदाशाप्रकाशम् ।। ३ ।। नयति भवदवाग्निव्याप्तिनिर्दह्यमानत्रिभुवनवनरेखादेशकः पार्श्वनाथः। घनमयमिव देहं पन्नगश्यामचूडामणिविरचितचंचूनाकिचापं दधानः॥ ४ ॥ कलितगुरुल शोभा भोगभर्तुः शरीरे निजकरकमलाने भंगिमालायमाना। दिशिदिशि मृगनाभीपत्रभंगाभिरामा ददतु शुभगात वः पार्श्वनाथस्य भासः॥ ५ ॥ तरलतरललामानंगहारांगहारामरसमरसरामापांगसारंगसारा । नवननवनवोक्तिीप्रसिद्धं प्रसिद्ध नमति न मातिमांस्तं कोंजनाभंजनाभम् ॥ ६ ॥
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कुवलयवननीलश्वास बिनत्स्वभावं नयघनघनशैलं पौरुषाभ्रष्टभावं । वितरतु मम तानि श्रीजिनेंदुः सुखानि श्रुतचतुरमतानि श्रीजिनेंदुः सुखानि ॥ ७ ॥ फणपतिफणरत्नोद्योतविद्योतितश्रीर्ददतु शुभगतिं वः पार्श्वनाथस्य मूर्तिः । रणरणकविशेषक्षोमवन्मोक्षलक्ष्मीसरभसपरिरंभात्कुंकुमेनारुणेव ॥ ८ ॥ इति जिनपतेः स्तोत्रं चित्रं महाकविबिल्हण - प्रथितमखिलत्रैलोक्यैकप्रकाशनभास्वतः ।
पठति सततं यः श्रद्धावान्न मज्जति सज्जनो भवजलनिधौ स प्रद्युम्नस्थितिं चिरमाश्रितः ॥ ९ ॥
Anityatakulaka begins:
निशाविरामे परिभावयम्मि गेहे पलित्ते किमहं सुयामि ।
Ends:
दाणं सुपत्ते सवणं सुतित्थे सुसाहुसेवा सिवोयमग्गो ॥ २२ ॥ कुलकं समाप्तम् ॥ शुभं भवतात् समस्तसाधुलोकस्य ॥
No. 34. Upadesamalavritti, by SIDDHARSHI with a Kathanaka, by VARDHAMANASURI [ उपदेशमालावृत्ति :- सिद्धर्षिः - कथानक सहिता कथा॰ वर्द्धमानसूरिः].
Leaves 1 to 246; 29 inches long, 22 inches broad. Dated Samvat 1294 A. D. 1238.
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PRESEBVED AT ANPILWAD PATAN.
Begins :
ओं नमः सर्वज्ञाय ॥ हेयोपादेयार्थोपदेशभाभिः प्रबोधितजनाब्जम् ।
Ends : प्रोक्तार्थसाधनविधौ खलु जीवलोकः ।। उपदेशमालाविवरणं समाप्तम् ।। कृतिरिय जिनजैमिनिकणभुक्सौगतादिदर्शनवेदिनः सकलग्रंथार्थनिपुणस्य श्रीसिद्धर्महाचार्यस्यति ॥ सिद्धर्षिकृता विवृतिः कथानकोंजिता स्वबोधाय । प्राक्तनमुनींद्ररचितैश्चारुभिरुपदेशमालायाः। ॥ संवत् १२९४ - - -
No. 35. Upadesamalavritti, by SIDDHARSHI [उपदेशमालावृत्तिःसिर्षः].
Leaves 1 to 284; 32 inches long, 2] inches broad. Dated Samrat 1331 = A.D. 1275.
Ends: नमोस्तु तस्मै जिनधर्मसूरये - - - उपदेशमालाविवरणं समाप्तम् ॥
ग्रंथानं ९५०० मंगलं महाश्रीः ।। शुभं भवतु लेखकपाठकयोः॥ संवत् १३३१ वर्षे प्रथमज्येष्ठवदि १५ शनौ महं० अरिसिंहपुस्तकं लिखितम् ॥
No. 36. The Commentary of Abhayadeva on the Bhagavatisutra. [भगवतीसूत्रवृत्तिः-अभयदेवः]. __Leaves 1 to 501; 27 inches long, 23 inches broad. Dated Samvat 1187=A. D. 1131.
R 669-8
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Ends:
EXTRACTS FROM MANUSCRIPTS
दशसंख्येष्वलीलिखत् ॥ २१ ॥
तत्थ य गंथा सुयग्गडंगवित्ती ससुत्तनिजुत्ती ।
७-८
तह य उवासगदसियाइ अंगसुत्ताणि वित्तीउ ॥ २२ ॥ तह उवायसुत्ता वित्ती रायप्पसेणइ य सुतं । तह कप्पसुत्तभासा चउत्थर पंचमे य पुणो ॥ २३॥ कप्यणी छडे दसवेयालियवित्तिसुत्तनिज्जुत्ती । उवएसमालभवभावणाण दो पुत्थया रम्मी ॥ २४ ॥ तह पंचासगवित्ती सुत्त लिहियं च नवमयं एयं । पिंडविसुद्ध वित्ती पढमपंचासगस्स तहा ॥ २५ ॥ चुन्नि जसदेवसूरीरइया तह लैहुयवीरचरियं च । रयणचूडकहावि य दसमंमि य पोत्थयंमि फुडं ॥ २६ ॥ अन्यच्च सिद्धभार्यापि राजमत्यभिधानिका । कथंचिद्दिवमासौ तया चोचे निजो वरः ॥ २७॥ भगवती पुस्तके रम्ये कार्ये मत्पुण्यहेतवे । तेन तद्वचनात्तूर्णं कारितं पुस्तकद्वयम् ॥ २८ ॥ एकत्र भगवतीसूत्रं द्वितीये वृत्तिरुज्ज्वला । लेखिता चारुवर्णाढ्या मोक्षमार्गेत्तरप्रपा ॥ २९॥ संवत्सरे मुनिवसुस्मरवैरिसंख्ये श्रीमत्पुरेऽहिलपाटकनामधेये पृथ्वी च शासति नृपे जयसिंहदेवे निष्पादितः प्रवरपुस्तकवर्ग एषः ॥ ३० ॥
श्री शालिभद्राभिवसूरिशिष्यश्रीवर्धमानप्रभुपादपद्मे । इदिदिराकारजुषां ततः श्रीचक्रेश्वराचार्यविशिष्टनाम्नाम्॥ ३१ ॥ समर्पितः पुस्तकवर्ग एष निरंतरं शोधनवाचनाय ।
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PRESERVED AT ANHILWAD PATAN. 59 इंदं च तन्मध्यगतं सुवर्णसत्पुकं राजति वाच्यमानम् ॥ ३२॥ यावन्नभोंगणगताः शशिभानुतारा राजंति लोकतिमिरं सततं क्षिपंत्यः । यावर्द्धवः सुरगिरिश्च चकास्ति तावत् श्रीपुस्तको विजयतामिह वाच्यमानः ॥ ३३ ॥
संवत् ११८७ कार्तिकसुदि २ लिखितम् ।। भगवतीविशेषवृत्तिपुस्तकं श्रीचक्रेश्वरसूरीणां श्रे० सिद्धश्रावकस्य ॥
No. 37. Mahaviracharitra, by HENACHANDRA [महावीरचरित्रम् -हेमचन्द्रः]. Dated Samvat 1368 = A. D. 1312. - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - सरस्वतापदमसौ सद्वृत्तमुक्तालयः । प्रौढश्रीकुलमंदिरं विजयते कारे पागच्छांबुधि
-2/ श्चित्रं यन्न जडाशयो न च परं कुग्राहसत्वाकुलः ॥ १॥ / सत्पत्रराजी शुभपर्वरम्यः छायी सुशाखी सरलः सुवर्णः । सद्धर्मकर्मा क्षितिभृत्प्रतिष्ठवंशोस्ति वंशो भुवि धर्कटानाम् ॥ २ ॥ श्रीमदूकेशवंशेस्मिन् स्वच्छमुक्ताफलोपमाः । साधूनां हृदलंकारा बभूवुः पुरुषास्त्रयः ॥ ३ ॥ आद्यो देवधरस्तेषु दाने धाराधरः परः । प्रीणिताशेषलोकोभून्न तु जातु जडान्वितः ॥ ४ ॥ जिनालययशःसिद्धिदानपुण्यादिकर्मणाम् । समुद्धरणधौरेयो द्वितीयोऽभूत्समुद्धरः ॥ ६ ॥
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दानादिगुणगणारामयश:कुसुमसौरभैः । वासिताशोऽपरो जात आशाधरस्तृतीयकः ॥ ६ ।। समुद्धरस्य निर्माया जाया सौभाग्यशोभिनी। शोभिनीत्याख्यया जाता शीलालंकारधारिणी ॥ ७ ।। धर्मद्रुमस्य मूलाभो जज्ञे मूलूः सुतस्तयोः । पुत्री सरस्वती लील जातौ ब्राह्मीश्रियाविव ॥ ८ ॥ गहिनी मूलूकस्यास्ति नाल्ही गंगेव देहिनी । तयो रत्नत्रयाधाराः पुत्राः संजज्ञिरे त्रयः ॥ ९ ॥ आद्यो वइराकनामा द्वितीयच्छोहडः सुधीः । सीहडस्तृतीयः ख्यातः पुमर्था मूर्तका इव ।। १० ।। पुत्रिकाश्च तयोस्तिस्रो जाताः शक्तित्रयोपमाः । चापला कर्मों की सत्यशीलदयान्विताः ॥ ११ ॥ वयराकस्य सद्भार्या नयविनयगुणान्विता । वस्तिणिर्वस्तुतत्वज्ञा स्वजनानंददायिनी ॥ १२ ॥ तस्या जाताविमौ पुत्रौ धर्मशीलपरायणौ। आद्यो मदन एवासौ द्वितीयः कर्मसिंहकः ॥ १३ ॥ अथाशाधरकांताभूखेतः क्षेत्रं सुकर्मणाम् । लक्ष्मीधरस्तयोः पुत्रो लक्ष्मीवर इवापरः ॥ १४ ॥ रूपला रुक्मिणीवास्ति तस्य सद्धर्मचारिणी। तत्सुतो हरपालाख्यछाडू दक्षा च तत्सुता ॥ १५ ॥ एवं स्वकुटुंबयुतः साधुर्मूलूः स्वमातृश्रेयसे । श्रीमन्महावीरचरित्रं गृहीतं निजगुरुभिर्वाचयांचक्रे ॥ १६ ॥
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तस्मिन्विस्मयकारिहारिचरितः कृष्णर्षिशिष्यः पुरा चंचचंद्रकुलध्वजः समजनि श्रीनन्नसूरिः प्रभुः । उद्गीते दिवि किन्नरैर्यदमलश्लोके सुरा धुन्वते मूर्ध्नः कांचनकिंकिणीकवचितश्रोत्रं गजास्यं विना ॥ १७ ॥ संवत् १३६८ वर्षे कोलापुर्या श्रीमन्महावीरचरितं श्रीनन्नसूरिभिः सभाव्याख्याने व्याख्यातं । श्रावकमूलूवइरासक्तम् ।।
__No. 38. A Manuscript containing the Dasavaikalika and the Pakshika sutras [दशवैकालिकसूत्रम्-पाक्षिकसूत्रं च]. Dated Samvat 1352 = A D. 1296. Ends: मंगलं महाश्रीः ॥ श्रीमेदपाटदेशक्षितिराजप्राज्यराज्यधौरेयः । सीमंधर इति मंत्री श्रीकरणिक इह समस्ति पुरा ॥ १ ॥ उन्मीलद्गुरुलीलस्फूर्जितशीलप्रधानशृंगारा । नीभल इति तद्गृहिणी गृहनीतिविशारदा जाता ॥ २ ॥ तस्याः स्वीयभगिन्या अगण्यसत्पुण्यकल्पलतिकायाः । सजलजलवाहपटली दत्ता श्रीपुस्तिका शस्ता ॥ ३ ॥ थांथीसुश्राविकया वाचयितुं गच्छसकलसाधूनाम् । सेयं प्रवाच्यमाना विबुधैर्नेद्याच्चिरं कालम् ॥ ४ ॥ श्रीविक्रमत्रयोदशशतद्विपंचाशकस्य वर्षस्य । भाद्रपदाभिधमासे पक्षे -स्तिका प्रवरे ॥ ५ ॥
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No. 39. Brahmadiprakriya [ब्रह्मादिप्रक्रिया]. Leaves 1 to 31 ; 11 inches long, 12 inches broad. Incomplote. Begins : ऐं नमः॥ नत्वा जगद्गुरुं देवं महावीरं परं शिवम् । ब्रह्मादिप्रक्रियां वक्ष्ये तत्सिद्धांतानुसारतः ॥ १ ॥ ब्रह्माण्युपासनामेषां दीक्षा देशादिसंज्ञिताम् । तद्भावलिंगं स्पष्टार्थं फलं चेति समासतः ॥ २ ॥ बृहत्वाद्वंहकत्वाच्च ब्रह्माण्याहुमहर्षयः । सुखारंभादिसंज्ञानि पंच तान्यत्र शासने ॥ ३ ॥ सुखारंभं तथा मोहपराक्रममथापरम् । मोहन्नं परमज्ञानं सदाशिवमनुत्तरम् ॥ ४ ॥ सम्यग्दृष्टिगतं ह्याद्यं विरतस्थमतः परम् । तृतीयमप्रमत्तस्थं सर्वज्ञस्थं ततो मतम् ॥ ५ ।। अस्तकर्मकलातीतसिद्धस्थं पंचमं तथा ।
40. Jinadattakhyana. [ जिनदत्ताख्यानम् ]. Leaves 1 to 10 69; 10 inches long, 12 inches broad. Dated Samrat 1186 = A. D. 1130. Ends:
तउ - काऊण महातवं आराहिऊण मरणयालं गओ सुरलोयं तउ पारंपरेण निव्वाणं त्ति जिणयत्तो ॥
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जिनदत्ताख्यानं समाप्तम् ॥ संवत् १९८६ अह श्रीचित्रकूटे लिखियं मा - णिभद्रेण यतिना यतिहेतवे साधवे वरनागाय स्वस्य च श्रेयकारणम् ॥ मंगलमस्तु वाचकजनानाम् ॥
No. 41. Bhavanaprakarana [भावनाप्रकरणम् ]. Leaves 1 to 63, 12 inches long, 2 inches broad. Begins:
ओं नमो वीतरागाय ॥ अहं ॥
अर्चितयच्च धिगिदं सदागदपदं वपुः ।
मुधैव मुग्धाः कुर्वेति तन्मूर्च्छा तुच्छबुद्धयः ।। १ ।।
P. 48:
इति निगदितमुग्रं कर्मकैौटिल्यभाजा
मृजुपरिणतिभाजां चानवद्यं चरित्रम् । तदुभयमपि बुद्धया संस्पृशन्मुक्तिकामो निरुपममृजुभावं संश्रयेद्वुद्धबुद्धिः ।। ४९४ ।।
No. 42. A Manuscript containing,
1 Anushtanavidhi [अनुष्टानविधिः],
2 Paristhapanikavidhi [पारिस्थापनिकविधिः],
3 _ Pratishthakalpa, by CHANDRASURI [ प्रतिष्ठाकल्प :- चन्द्रसूरिः ],
4 Pravrajyavidhi, by PARAMANANDASURI [ प्रत्रज्याविधानम् - परमानन्दसूरिः ],
5 Puja-and other Ashtakas, by LAKSHMACHANDRA, pupil of PADMADEVASURI [ पूजाष्टकम् – पद्मदेवसूरिशिष्यो लक्ष्मचन्द्रः ].
Leaves 1 to 172; 12 inches long, 2 inches broad.
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Anushtanavidhi begins नमिऊण तिलोयगुरुं लोयालोयप्पयासयं वीरं । विब्भमविणासहेतुं णुछाणविहिं पवक्खामि ।। १ ।। Anushthanavidhi ends : आणुपुबीए इच्चे सो सुहबोहा ।। सामायारी संमत्ता । Paristhapanikavidhi begins : इंदियाणं अचित्तसंजएरिद्धवणविहीभत्तइ । Paristhapanikavidhi ends : कोउसग्गो अविहिविगिंवणथं करिइ । इति पारिस्थापनिकविधिः ।। Pratishthakalpa begins: अथातः संप्रवक्ष्यामि प्रतिष्ठालक्षणं स्फुटम् । जिनशासनानुसारेण नत्वा वीरं जिनोत्तमम् ॥ १ ॥ Pratishthakalpa ends: सिरिशीलभवसूरिधणेसरशिसिस्सासरिचंदसूरिसमुद्धरिया सूहबोहसमायारी समत्ता ॥ इति बहुविधप्राष्टिाकल्पान्संवीक्ष्य समुद्धृतोयं श्रीचंद्रसूरिणा ॥
The Ashtakas are as followsपूजाष्टकम्
धर्माष्टकद्वयम् बिंबाष्टकम्
पापाष्टकम् गुर्वष्टकम् उपदेशाष्टकम्
शीलाष्टकम् श्रावकाष्टकम्
तपोष्टकम्
दानाष्टकम्
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No. 43. Commentary on the Dasavaikalikasutra, by
TILAKACHARYA [दशवैकालिकटीका - तिलकाचार्यः] .
Leaves 1 to 240; 30 inches long, 21 inches broad.
Ends :
इति श्रीतिलकाचार्यविरचितायां दशवैकालिक टीकायामुत्तर चूलिकयाष्टीका
समाप्ता ॥
तीर्थे वीरविभोः सुधर्मगणभृत्संतानलब्धोन्नतिश्वारित्रोज्ज्वलचंद्र गच्छ जलधिप्रोल्लासशीतद्युतिः । साहित्यागम तर्क लक्षण महाविद्यापगासागरः श्रीचंद्रप्रभसूरिरद्भुतमतिर्वादीभसिंहोऽभवत् ॥ १ ॥ तत्पट्टलक्ष्मीश्रवणावतंसाः श्रीधर्मघोषप्रभवो बभूवुः । तत्पादपद्मे कलहंसलीलां दधौ नृपः श्रीजयसिंहदेवः ॥ २ ॥ तत्पट्टो दयशैलशृंगमभ जत्तेजस्विचूडामणिः श्रीचक्रेश्वरसूरिरित्यभिधया कोप्यत्र भानुर्नवः । संप्राप्ताभ्युदयः सदैवतमसा नो जातुचिच्छायितः नैवोच्चंडरुचिः कदाचिदपि न प्राप्तापरागस्ततः ॥ ३ ॥ विललास स्वैरं तत्पट्टप्रासादशालायाम् । श्रीमान् शिवप्रभगुरुः संयमकमलाकृतासक्तिः ॥ ४ श्रीशिवप्रभसूरीणां तेषां शिष्योऽस्मि मंदधीः । नाम्ना श्रीतिलकाचार्यः श्रुताराधनगृद्धिभाक् || १ || एतां सोऽहं विषमदशवैकालिके वृत्तिटीकां तत्पादाब्जस्मरणमहसा मुग्धवीरप्यकार्षम् । तंद्यत्किचिद्रभसवशतो दृब्वमस्यामशुद्धं
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1
- तत्संशोध्यं मयि कृतरूपैः सूरिभिस्तत्वविद्भिः ॥ ६ ॥
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टीका रचयता चैतां यन्मया सकृतं कृतम ।
स्वस्तिश्रीस्तंभतीर्थे तपपक्षे श्रीरत्नाकरसूरिगन्छे वृद्धपौषधशालायां श्रीदशवैकालिकपुस्तकं गृहीतं श्रीसंघस्य ।।
No. 44. The Satapadika or Prasnottarapaddhati, by DHARMAG HOSHA AND MAHENDRASURI [शतपदी-अथवा-प्रभोत्तरपद्धतिःधर्मवोघो महेन्द्रसूरिश्च] .
Leaves 1 to 244. Dated Samvat 1300 = A. D. 1244. Begins : नमः श्रीमद्देवगुरुपदपंकजेभ्यः ।। त्रिभुवनगृहदीपः कल्याणनिधिर्भवोदधौ द्वीपः । संशीतितिमिरभानुर्जयति श्रीमान् जिनो वीरः ॥ १ ॥ पूर्वपक्षशतं कश्चित् सूरिश्चक्रे सदर्पधीः। विदधे श्रीधर्मघोषसूरिरुत्तरविस्तरम् ॥ २ ॥ सिद्धांतवचनैः प्रायः क्वचित्तादृक्षयुक्तिभिः । अपि प्रकरणैः क्वापि सिद्धांतार्थानुयायिभिः ॥ ३ ॥ ते च पूर्वपक्षा अमी॥श्रीजिनप्रतिमा एकादशप्रतिमान्वितति विचारः ॥१॥ जिनप्रतिमायां वस्त्रांचलविचारः ॥ २ ॥ जिनप्रतिष्ठावि ३ प्रदीपपूजावि ४ रजतमयतंदुलाक्षतवि फलबीजपूजावि ६ पत्रपूजावि॰ ७ बलिवि° ८ वंशदंडकवि०९
Ends:
प्रश्नोत्तरपद्धतिरिति ॥ इयं च विक्रमाद्गुणरसमाससंख्ये १२६३ वर्षे श्रीमदाचार्यरक्षितरिशिष्याणां श्रीमजयसिंहसूरीणां पट्टालंकृतिक
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र्तृभिः श्रीधर्मघोषसूरिभिर्विदृब्धा ॥ ततश्च तामतिगंभीरार्थत्वात् व्युत्पन्न - मतीनामेव सुखावबोधां तदितरेषां तु किंचिदायासगम्यामवगम्य ततस्ते - षामेव श्रीधर्मघोषसूरीणां श्रुतांतेवासिभिरपि न तत्पट्टप्रतिष्ठितैः श्रीमहेंद्रसूरिभिर्विक्रमादुदधिग्रह सूर्य संख्ये १२९४ संवत्सरे सेव ग्रंथपद्धतिः क्वचिदाधानं कचिदुद्धरणं कचित्क्रमविरचनां च विधाय कानिचिदधिकान्यपि प्रश्नोत्तराणि प्रक्षिप्य सुकुमारमतीनामपि सुखावबोधो भवत्वित्येकोनत्रिंशद्धेप्रमाणा सती विदधे ॥ भद्रमस्तु चतुर्विधसंघस्य ॥ यावन्नंदति तीर्थं भरतक्षेत्रे जिनस्य वीरस्य । तावन्नंदत्वेषापि वाच्यमाना सदा विबुधैः ॥ पंच श्लोकसहस्राणि तथोपरि शतद्वयम् । अस्मिन् शतपदीग्रंथे प्रमाणमिदमीरितम् ॥ ग्रंथाग्रं अंकतोपि १२०० ॥
PRESERVED AT ANHILWAD PATAN.
इति शतपदिकाभिवाना प्रश्नोत्तरग्रंथपद्धतिः समाप्ता ॥ संवत् १३०
बर्षे जेष्ठशुदि ७ रवौ लिखिता ॥
No. 45. A Manuscript containing,
1. Dharmopadesamala [धर्मोपदेशमाला],
2. Pindavisuddhi [पिण्डविशुद्धि: ],
3. Chausarana [चउसरण],
4. Kayotsarganiryukti [कायोत्सर्गनिर्युक्ति:], 5. Pratikramanasutra [प्रतिक्रमणसूत्रम् ], 6. Sthiravali [स्थिरावाले:],
7. Ajitasantistava [भमितशान्तिस्तव : ], 8. Chaturangiyabhavana [ चउरंगिय भावना ],
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EXTRACTS FROM MANUSCRIPTS
9. Miyaputtamaharisichariyam [मियापुनमहरिसिरियं]. Chaturangiyabhavana begins : सिरिवीराजिणेसर नमिरसुरेसुरपायजुगल पणमियविजय । चउरंगियभावण सिवसुहकारण अणुदिणु भावसु एरिसिर ॥ १॥ Chaturangiyabhavana ends : आराहणाए एरिसय जुत्त नवकारु सरंतउ पाणचत्तु । उप्पज्जइ सावगु देवजोइ तइय ह व सत्त भवि मुक्ख होइ ॥ ७३ ॥ तइ चउरंगं जीवमहारहिए हु वरु कम्मढविणासणि । भवदुहसासणि जायइ नहु पुणु देहु घरु ॥ ७४ ।। चउरंगभावनासंधिः समाप्ता ।। Miyaputtamaharisichariyam begins सिद्धत्थहनंदणु भवदुहखंडणु वद्धमाणु जिणवरु नमिउं । वुच्छं मुणिभासिउं गुरुआएसिउ मियापुत्तमहरिसिचरिउं ॥ १ ॥ Miyaputtamaharisichariyam ends : इय एवं निपुणिउ महरिसिपमणिउ जो पालेइ । अहद्दहइ सो पावइ सिवसुहु छिदिउ भवदुहु अमलकित्ति तसु वित्थरइ ॥ ६० ॥ मृगापुत्रसंधिः समाप्तः ॥
No. 46. A Manuscript containing,
1. Avasyakaniryukti [आवश्यकनियुक्तिः ], 2. Pindavisuddhiprakarana, by JINAVALLABHA [पिंडविशु
द्विप्रकरणम्-जिनवल्लभः ], 3. Shadjivanikayadhyayana. section of the Dasa
vaikalikasutra [दशवैकालिकस्य-षड्जीवनिकायाध्ययनम् ], 4. Pajjantarahanam, by SOMASURI [पज्जंताराहणं-सोमसूरिः], 5. Navatatta [नवतत्ता,
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शुभं भवतु ।
6. Jivavibhakti, by JINACHANDRA [ जीवविभत्ती - जिणचंदः],
7. Kavaya, by JINACHANDRA [ कवयं - जिणचंदसूरी ].
Leaves 1 to 23, 84 to 101, 102 to 125, 126 to 136, 137 to 140, 141 to 146, and 147 to 163; 12 inches long, 12 inches broad. Dated Samvat 1213-A. D. 1157.
Section of Dasavaikalika Sutra ends:
संवत् १२९३ वर्षे भाद्रवा शुदि १० बुधे पुस्तिकेयं लिखितेति ।
श्राविकाचांपलयांग्या लिखिता एषा पुस्तिका ।
उदकानलचौरेभ्यो मूषकेभ्यस्तथैव च ।
रक्षणीया प्रयत्नेन यस्मात्कष्टेन लिक्षितेति ॥ १ ॥
Pajjantarahana begins:
नमिऊणं भणिइ एवं भयवं समउचियं समायससु । त्तत्तो वागरइ गुरू पज्जताराहणं एयं ॥ १ ॥
Pajjantarahana ends:
सिरि सोमसूरिरइयं पर्ज्जताराहणं पसमजणणं । जे अणुसरंति सम्मं लहंति ते सासयं सोक्खं ॥ ६९॥
आराधनाकुलकं समाप्तम् ॥
Jivavibhakti begins:
नमिऊण चरणजुयलं वीरजिणिंदस्स लोगनाहस्स । जीवविभत्तीइ वोच्छं मंदमइबोहणद्वार ॥ १ ॥
69
Jivavibhakti ends :
एसा जीवविभत्ती रइयं संखेवए मुणिगणाणं । गणना जिणचं देणं कम्म क्खयामिच्छमाणेणं ॥ २५॥
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EXTRACTS FROM MANUSCRIPTS
Kavaya begins: नमिउं जिणवरवीरं धिरिमहेउं खलंतखवगस्स । धम्मोवएसरूवं कवयं उस्सग्गियं वुच्छं ॥ १॥ Kavaya ends:
इय सगुरुजिणेसरसूरिसीसजिणचंदसूरिणा रइयं । कवयं समुव्वहंता न भावरिउणो खलिति मुणि ॥ १२३ ॥ शुभं भवतु लेखक पाठकयोः ॥
No. 47. A Manuscript containing, 1. Kammapayadi [कम्मपयडी],
2. Karmavipaka [ कर्मविपाकः ],
3. Sataka [शतकम् ],
4. Saptatika [सततिका],
5. Satakabhashya [सतकभाष्यम् ],
6. Karmastavabhashya [कर्मस्तवभाष्यम् ],
7. Vastuvicharasaraprakarana [ वस्तुविचारसारमकरणम् ],
8. Dharanoragendrastava [धरणोरगेंद्रस्तवः ]
Leaves 1 to 112; 13 inches long, 2 inches broad.
Satakabhashya begins: संखामेत्तपयट्टा सयगे पगईउ नामगाहेणं ।
गाहाहिं संगहेमो तयत्थजणजाणणट्ठाण ॥ १ ॥ Satakabhashya ends:
अंकेहि सुत्तगाहाणं एक्कवायणकमेण कयमेव ।
मणमा गतणांम कत्थइ सुणेयव्वं ॥ २४ ॥
Karmastavabhashya begins:
अहिणवगहणं बंधों उदउ सर्विवागवेयणं तस्स ।
अविवागेणणुभवणं अणुदयपत्तस्स उईरणाया ॥ १ ॥
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Karmastavabhashya ends : सुहमे दुरुत्तरसयं बायालमिगुत्तरं च पंचासी। पंचासीव अजागे पयडीणं संत वोच्छेउ ॥ २३ ॥
No. 48. Commentary on the Sutrakritangasutra, by SILAN GASURI [सूगडांगटीका-शीलाङसूरिः].
Leaves 1 to 303; 33 inches long, two inches broad. Dated Samvat 1454=A. D. 1393.
समाप्ता चेयं मूत्रकृतद्वितीयांगस्य टीका कृता चेयं शीलाचार्येण वाह- . रिगणिसहायेन ॥ यदवाप्तमत्र पुण्यं टीकाकरणे मया समाधिभृता। तेनापततमस्को भव्यः कल्याणभाग्भवतु ॥
ग्रंथाग्रं १३९९० संवत् १४५४ वर्ष माघशुदि १३ सोमेऽद्येह श्रीस्तंमतीर्थे लिखितमिदं पुस्तकं चिरं नंदतात् ।। शुभं भवतु॥ श्रीकायस्थविशालवंशगगनादित्योऽत्रजानाभिधः संजातः सचिवाग्रणीगुरुयशाः श्रीस्तंभतीर्थे पुरे । तत्सनुलिखनक्रियैककुशलो भीमाभिधो मंत्रिराट् तेनाऽयं लिखितो बुधावलिमनःप्रीतिप्रदः पुस्तकः ॥ १ ॥ यादृशं पुस्तके दृष्टं तादृशं लिखितं मया। यदि शुद्धमशुद्ध वा मम दोषो न दीयते ॥ शुभं भवतु श्रीसंघस्य लेखकपाठकयोश्च ।। ॥ ८० ॥ नमः श्रीसर्वज्ञाय ॥ प्राग्वाटवंशमुकुटः श्रेष्ठी गंगाभिधः समजनिष्ट । अधरयति स्म धरायां धनदं यः स्वीयधननिचयैः ॥ १ ॥
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एतस्य विशदशीला जज्ञे पत्नी च गउरदेनाम्नी । निःसीमरूपसंपलक्ष्मीरिव बासुदेवस्य ॥ २ ॥ प्रीमलदेवीसंज्ञा सकर्णजनवर्णनीयगुणकलिता। अभवन्तयोस्तनूजा जिनपूजाध्यानतच्चित्ता ॥३॥ विमलतमशीलसुभगा नूनं या स्वीयशुद्धचरितेन । चिरवीतामपि सीतां निरंतरं स्मारयत्येव ॥ ४ ॥ तामुपयेमे सुकृती भूभुव इति विश्रुतो विशदबुद्धिः । ठकुरकालाभार्यारंभलदेवीप्रसूततनुजन्मा ॥ ९ ॥ श्रीजैनशासननभोभानुश्रीदेवसुंदरगुरूणाम् । प्रीमलदेवी साऽथ श्रुवा पीयूषदेश्यमुपदेशम् ॥ ६ ॥ मत्वाऽसारतरं धनं घनफलं लिप्सुनिजश्रद्धया वेदेषदधिशीतदीधितिमिते १४९४ संवत्सरे वैक्रमे । लक्ष्मीवैश्रवणातिशायिजनते श्रीस्तंभतीर्थाभिधे द्रगेऽलीलिखदेतदद्भुततमं श्रीसूत्रकृपुस्तकम् ॥ ७ ॥ आचंद्रादित्यमेतद्विरचितचतुरानंदसंपद्विशेष संख्यावद्भिर्मुनींद्रैरहमहमिकया वाच्यमानं वितंद्रैः । उद्यदुःखातिरेकाकुलनिखिलजगजीवजीवातुकल्पं श्रेयः श्रीहेतुभूतं प्रवचनमनघं जैनमेतच्च जीयात् ॥ ८ ॥
49. Santinathacharitra, by DEVACHANDRA (stofaareraft74 -देवचन्द्रः ] . Leaves 1 to 313 ; 30 inches long, 2 inches broad.
Begins : ॥६०॥ नमः श्रीशांतिनाथाय ॥
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सरलंगुलिदल पडलं णहमणिकेसरं णरसुरालिं । तेलोक्कसिरीणिलयं जिणपहुपयपंकयं णमह ॥ दोसासंगविमुक्कं तमरयरहियं सुचित्तमकलंकं । पयडियपरपयत्थं नमामि णाभेयवरसूरं ॥ १ ॥ नमिरसुरासुरनरसिरकिरीडगुरु रयणकिरणकच्छुरियं । बहुदुरियदारूपरसुं वंदे सिरिवरिकमजुयलं ॥ तिलोक्कविहियसंर्ति तावियवर कणयनिघससमकंति । मोहविविदति वदामि जिणेसरं संति ॥ दुव्वारमार करिकरडवियडकुंभयडपाडणपडिंटं । तवखरणहरकरालं णामिमो गुणसूरिखरणहरं ॥ कविरायचक्कवट्टैि वंदे सिरिइंद भूइमुणिनाहं । जस्स जले तेल्लुंपि व वाणी सवत्थ वित्थरइ || वंदामि भद्दबाहुं जेण य अइरसियं बहुकहाकलियं । रइयं सवायलक्खं चरियं वसुदेवरायस्स ॥ वंदे सिरिहरिभदं सूरिं विसयणणिग्गय पयावं । जेण य कहापबंधो समराइच्चो विणिम्मविउ || दक्खिन्नइदसूरिं नमामि वरवण्णभासिया सगुणा । कुवलयमाल व्व महाकुवलयमाला कहा जस्स ॥ पणमामि सिद्धसूरिं महामार्तं जेण सव्वजीवाण । पच्चक्वंपिं व रइयं भवरसरूवं कहाबंधे ॥ अण्णेवि एवमाई जयंतु सव्वोवे जे पहाणकरणो ।
मगहण विजार्णी हाइ
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अह्नारि सो णो वलिज्जर जो पेच्छतो वि मंगुलं कव्वं । निययपहावेणं चिय न जंपए तग्गयं दोसं ॥
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पत्थुयपबंधसमए वणिज्जइ कहणु दुजणो एत्थं । वण्णिज्जतो वि न जो दुजणपयई परिचयइ ॥ एवं कयप्पणामो उग्घाइयघोरविग्घसंवाउ। सिरिसंतिणाहचरियं संतिकरं वण्णइस्सामि ।। पंडिच्चपयडणच्छं ण चेव एयं अहं पवक्खामि । किंतु जिणणाहसंकहभत्तिए परवसत्तणउ ।। धम्मोवएसणथं च किंचि भव्वाण तहय संघस्स । संतिनिमित्तं च इमं पारद्धं मंदमइणावि ।। जह भरहपुच्छिएण काहियं सिरिउसभसामिणा एयं । तत्तो कमेण अन्नेहिं वि जहेव ॥ गोयममाईहिं तहा कहियं भव्वाणणुग्गहटाए । तह किंचि अहंपि इमं वोच्छामि सुयाणुसारेण ॥ १८॥
Ends: चरियं संतिणाहस्स रम्मं ॥ एकेकक्खरगणणाए गंथपमाणं विणिच्छियमिमस्स ॥ बारसउ सहस्साई सएण एकेण अहियाई ॥ अंकतोपि सहस्रं १२१०० ॥ श्रीविजयचंद्रसरिशिष्यश्रीयशोभद्रसूरिशिष्यश्रीदेवप्रभसूरीणां सत्कं पुस्तकम्॥ प्राप्तो गोत्राधियत्वं रसभरविलसन्नंदनारामरम्यः सर्वस्याशाप्रका शो सकलसुमनसा सेवनीयः सदैव । नान कल्पागम नामुपचयजनको राजसम्मानभावं प्राप्तः श्रीधर्कटानां प्रकटितगरिमा वंशमरुः समस्ति ॥ १ ॥
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सच्छायः सरसः सपत्रनिचयः शाखाप्रशाखांचितः पीनस्कंधविराजितः प्रतिपदं संतापहारी सताम् । चिंतागोचरवारिसुद्धविसरं दातुं समर्थोऽर्थिनां तत्राजायत कल्पपादपसमः श्रीजावडः श्रावकः ॥ २ ॥ तस्याभवन्निखिलकल्मषदोषहीनास्तिस्रः प्रियास्त्रिपथगा इव पूरिताशाः । लोकत्रयप्रथितशीलयुतास्तथापि प्राप्ताः कदाचन न दीनपथातिथित्वम् ।। ३ ।। जिनदेवी बभूवासामाद्या मधुरवादिनी । स्त्रैणेचितगुणोपेता जिनेद्रपदपूजिका ॥ ४ ॥ राकासुधारश्मिसमानशीला शुद्धाशयानंदितदीनलोका। रूपश्रिया तर्जितकामकांता कांता द्वितीयाजनि सर्वदेवी ॥५॥ कुंदावदातद्युतिशीलशालिनी मातेव सर्वस्य जनस्य वत्सला ।
णी तथापूर्णमनोरथस्थितिर्जाता तृतीया गृहिणी विवेकिनी ॥ ६ ॥ या सर्वदा सर्वजनोपकारी गंभीरधीरो जिनधर्मकारी। सं दुर्लभं दुर्लभमल्पपुण्यैः प्रासूत तत्र प्रथमा तनूजम् ।। ७ ।। संजातौ भुवि विख्याती सर्वदेव्याः सुतावुभौ। उदयाचलचूलायाः सूर्याचंद्रमसाविव ॥ ८ ॥ आद्यस्तयोः सज्जनचित्तहारी नयी विनीतः सकलोपकारी । जिनेंद्रपूजाविहितानुरागः साधुप्रियोऽजायत देवनागः ॥९॥ द्वितीयश्च गुणावासः सत्यशौचसमन्वितः। . कलावानुज्ज्वलो जातः कुलकैरवचंद्रमाः ॥ १० ॥ सूरेः श्रीजिनवल्लभस्य गणिनः पादप्रसादेन तलुब्धं यन विवेकयानमसमं दुःप्रापमल्पाशयैः ।
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येनाद्यापि सुखं सुखेन कृतिनः संसारवारांनिधेः पारं यांति परं निरस्तसकलक्लेशावकाशोदयाः ॥ ११ ॥ शिरसि नमनं यः साधूनां दृशोरतिशांततां वदनकमले सत्या वाणी श्रुतौ श्रवणं श्रुतेः । मनसि विमलं बोधं पाणी धनस्य विसर्जन जिनगृहगतिः पादांभोजे चकार विभूषणम् ॥ १२ ॥ प्रालयशैलशिखरोज्ज्वलकांतिकांतश्रीनेमिनाथभुवनच्छलतश्च येन । मूर्तिः स्वधर्म इव सर्वजनीयदातुराविष्कृतः सकललोकहितावहेन ॥ १३ ॥ चारित्राचरणैकधीरमनसो गीतार्थचूडामणेः विद्यानां मणिदर्पणस्य शमिनः सेव्यस्य पुण्यार्थिभिः । यश्च श्रीमुनिचंद्र सूरिसुगुरोः पादांबुजं सेवितुं वाञ्छन्मत्सरवर्जितः सुरवधूप्राणेश्वरत्वं गतः ॥ १४ ॥ निःसीमधर्मनिलयं कलितं सदथैः सद्वत्तताविरहितं न कदाचनापि ।। ख्यातं जगत्रयमिवापदनंतसत्वं पूर्णीसुतत्रयमतीव गभीरमध्यम् ॥ १५ ॥ लक्ष्मीविलासकलितो बलिदर्पहंता सत्यानुरागिहृदयो विधिपक्षपाती। लक्ष्मीधरः सुतवरोजनि तत्र मुख्यश्चित्रं तथापि न जनार्दनतामुपेतः ॥ १६ ॥ आराधितश्रीजिननेमिनाथः संपादितानंतखलप्रमाथः । आसीद द्वितीयो धनदेवसंज्ञः सदा सदाचारविचारविज्ञः ॥ १७ ॥ यस्यासमानफलकांतगुणाभिरामं संरुद्धरंध्रमविलाभिजलप्रवेशम् । सद्वीवरैरनुगतं मतियानपात्रं गंभीरकार्यजलधेः परभागमोते ॥ १८ ॥
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विवेकजनवल्लभः स्फटिकशैलशुद्धाशयः कलंकविकलः सदा सकललोकसंतोषदः । बभूव जिनपूजकः सुगुरुवंदकः श्रावकस्तृतीय इह नंदनः सुजननंदनः श्रीधरः ॥ १९ ॥ तत्रोन्जिलस्य समजायत धर्मपत्नी मंदाकिनीसलिलनिर्मलशीलयुक्ता। लक्ष्मीः समस्तजनवाञ्छितदानदक्षा चित्रं न निर्गुणरता न चलस्वभावा ॥ २० ॥ उल्लासकाः सुमनसां विदितानुभावसंपादकाः समयिनां बहुलं फलानाम् । नित्यं निजक्रमयुता भुवनप्रसिद्धाः पुत्रास्तयो ऋतुसमाः षडिहोपजाताः ।। २१ ॥ कारुण्यरत्नांकुरमेरुशैलः सौजन्यपीयूषरसांबुराशिः । आद्यः सुतोजायत वर्द्धमानस्तेषां कलाभिः परिवर्द्धमानः ॥ २२ ॥ अपारगांभीर्यनिवासभूमिर्विद्वत्सु श्राद्धादिजनोपकारी। अनल्पलावण्ययुतो द्वितीयः पुत्रः पवित्रोऽजनि मूलदेवः ॥ २३ ॥ कीर्तेः पात्रं निजगुरुगिरां पालने लब्धलक्षः स्थानं नीतेर्जनकनयनानंददायी सदैव । दूरभूिताखिलख--लो जातवान्पुत्ररत्नं तार्तीयीकः कुशलवसुतावल्लभो रामदेवः ॥ २४ ॥ बभूव कारुण्यपरिग्रहाय कृताग्रहः कुग्रहदर्पहंता। विपत्तिसंपत्तिसमानुरागी यशोधरो धारिमधाम तुर्यः ॥ २५ ॥ जिनेंद्रपूजारचनानुबंधबद्धोद्यमो निर्मलकीतिशेषः । भक्त्या समासेवितसर्व्वदेवस्ततोऽनुजोजायत सर्वदेवः ॥ २६ ॥
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मुक्ताफलारंभरतिर्न दीनो विश्रामभूमिः पुरुषोत्तमानाम् । पयोधिबन्नित्यगभीरभावः षष्ठस्तनूजोऽजनि चापदेवः ॥ २७ ॥ तत्रासीद्रामदेवस्य वल्लभा शीलशालिनी । आसदेवीति विख्याता सुरूपा रूपिकापरा ॥ २८॥
यशोधरस्य जाया च थेहिका हितकारिणी । शोभना सर्वदेवस्य चापदेवस्य शांतिका ॥ २९॥
अस्ति स्म थेहड इति प्रथिताभिधान : कुंदावदातहृदयः सदयः सदैव । वीरो यशोधरसुतः कलितः कलाभिनित्यप्रशस्तचरितः प्रणतो गुरूणाम् ॥ ३० ॥ आनंदकः सुमनसां सततं सुधर्मबद्धादरः कृतविमानमनःप्रवृत्तिः । आस्ते महेंद्र इव वल्लभ चित्र लेखः श्रीरामदेवतनयो विनयी महेंद्रः ॥ ३१ ॥ हरिचंद्राभिधानश्च द्वितीयो भूत्तनूद्भवः । वल्लभः सर्वलोकानां प्रतिपच्चंद्रमा इव ॥ ३२ ॥ विनयी नयसंवासो चापदेवस्य नंदनः । गोसलाख्यः सुशीलो भूगुणरत्नमहानिधिः ॥ ३३ ॥ आसीदाद्या महेंद्रस्य महाश्रीरूपसप्रिया । राज्यश्रीः शीलकारुण्यदानौचित्या दिशालिनी ॥ ३४ ॥ राज्यश्रियस्त्रयः पुत्रा वीसलोथ यशोभटः । वोचिस्थश्चेति संजाता गुणरत्नौघरोहणाः ॥ ३५ ॥ राज्यश्रीरन्यदा तत्र शुद्धश्रद्धा बंधुरा । इत्येवं चिंतयामास निस्समानगुणोज्ज्वला ॥ ३६ ॥
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प्राणा वायुमयाः स्वभावतरला लक्ष्मीः कटाक्षस्थिरा स्वान्यं बालविलंबितातनुशिलावस्थानदुःस्थं सदा। वातांदोलितदीपकुडलदलप्रायः प्रियः संगमस्तन्नास्तीह किमप्युदारमनसामाशामिवेशास्पदम् ।। ३७ ॥ तलुब्ध्वा मनुजेषु जन्म विमलं संप्राप्य देशादिकं श्रुत्वा श्रीजिनचंद्रवाचमुचितां श्रीमद्गुरूणां पुरः। स्वाधीने च धने च संगतवति स्वीये कुटुंबे सतां युक्तो धर्मविधान एव सततं कर्तुं महानुद्यमः ॥ ३८ ॥ सम्यग्ज्ञानपुरःसरश्च महतां धर्मादरः संमतः प्रायस्तच्च जिनागमादविकलं संजायते धीमताम् । सर्व लोकमवेक्ष्य शांतविशदप्रज्ञाप्रकर्षोद्यम काले सोपि कलौ न्यवेशि मुनिभिः संघोत्तमैः पुस्तके ॥ ३९ ॥ चारित्रभारचरणासहमानसेन पंचप्रकारविषयामिषलालसेन । पात्रादिदानमयधर्मवता तदेयं लेख्यं परिग्रहवता गृहिणा तदेव ॥ ४० ॥ एवं विचित्य सुचिरं श्रेयोथै स्वस्य सांबराज्यश्रीः । श्रीशांतिनाथचरितस्य पुस्तक लेखयामास ।। ४ १ ॥ विरचितविचित्ररेखं सुवर्णपत्रावलीकलितशोभम् । यद्भाति करे विदुषां कंकणमिव कीलिकारम्यम् ॥ ४२ ॥ राकाशीतांशुशुभ्रः स्फुरदमलदृशः सर्ववस्तुप्रकाशी सम्यग्ज्ञानप्रदीपस्त्रिभुवनभवनान्यंतरे भासमानः । यावन्मोहांधकारं शमयात सकलं पूरिताशेषदोषं तावन्नंद्यान्मुनींद्र्रयमिह सततं पुस्तकः पठयमानः ॥ ४३ ॥
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EXTRACTS FROM MANUSCRIPTS No. 50. A Manuscript Containing, 1. Upadesamala, by DHARMADASAG.ANT [उपदेशमाला-धर्मदासगाणि:], 2. Dharmopadesamala, by JAYASINH.ASTRI [ धर्मोपदेशमालाजयसिंहसूरिः], 3. Siddhantasara, by PRADYUMNASURI [सिद्धांतसारः – प्रद्युम्नसूरिः]. Leaves 1 to 128 ; 11 inches long, 14 inches broad.
Dharmopadesmala begins : सिज्झउ मज्झ वि सुयदेवि तुझ भरणाउ सुंदरा उझत्ति । धम्मोवएसमाला विमलाणा जयपडाइव्व ॥ १ ॥
Dharmopadesamala ends: इय जय पायडकन्हमुणिसीसजयसिंहमूरिणा रइया । धम्मोबएसमाला कम्मक्खयमिच्छमाणेण ॥ १०२ ॥ धर्मोपदेशमालाप्रकरणं समाप्तम् ।
Siddhantasara begins : वंदामि सव्वन्नुजिर्णिदवाणी पसन्नगंभीर पसत्थसत्था । जुत्ता जया जं अभिनंदयंता नंदंति सत्तापहतं कुणता ॥ १ ॥
जिणबिंबाणंति पढमं ट्राणं जिणचेईहराणं वीयं ट्राणं जिणसासनपोत्थयाणं तइयं टाणं साहूणंति चउत्थं ठाणं संजईणं पंचमं ठाणं सावयाणं छठं ट्राणं
सावियाणं सत्तमं ट्राणं सम्मत्तं Siddhantasara ends : सिद्धंतसाराणमिणं महत्थं सुद्धाण भव्वाणमणुग्गहत्थं । महामईणं च महत्थसत्थं पज्जुन्नसूरी वयणं पसत्थं ॥ २२ ॥ मूलशुध्दि नाम अटुमं टाणं समत्तं ॥ श्लो. २६५ ॥
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No. 51. Rishabhadevacharita, by VARDHA MANASURI [रिसहदेव चरियं-वद्धमाणसूरी].
Dated Samrat 1289 = A. D. 1233.
Begins नमः सर्वज्ञाय ।। नमहु जुगइजिणिदं पुरिसोत्तनाहिसंभवं पयर्ड । वरनाणदंसणरवि सुगयमणंतं महादेवं ॥ १ ॥ एगमणेगसख्वं दुल्लक्खं परमजोगिपञ्चक्खं । अञ्चयमसंखमक्खयमोसप्पिणिपढमतित्थयरं ॥ २ ॥ __Ends : चिक्कमनिवकालाउ सएसु एकारसेसु सट्टेस । सिरिजयसिंहनरिंदे रज्जं परिपालयंतरिम ।।
खंभाइत्थट्रिएहिं सियपक्खे चित्तविजयदसमीए । पुस्सेणं सुरगुरुणो समत्थियं चरियामयांत । लोगुत्तमचरियमिणं काऊण जमज्जियं सुहं किंपि । उत्तमगुणाणुराउ भवे भवे तेण मह होज्ज ।। पुव्वावरेण गणियस्स सव्वसंखा इमस्स गथस्स । एक्कारसउ सहस्सा सलोगसंखाइ नायव्वा ।। श्रीवर्द्धमानाचार्यविरचिते श्रीऋषभदेवचरिते पंचमोऽवसरः समाप्तः ।
संवत् १२८९ वर्षे माघबदि ६ भौमावोह श्रीप्रल्हादनपुरे समस्त राजावलीसमलंकृतमहाराजाधिराजश्रीसोमसिंहदेवकल्याणविजयराज्ये श्रीऋषभदेवचरित्रं पंडि० धनचंद्रेण लिखितमिति ॥ मंगलं महाश्रीरिति भद्रम् ॥
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EXTRACTS FROY MANUSCRIPTS
हृद्यप्रोद्यदखर्वपर्बसुभगः सच्छाययाऽलंकृतः सदत्तोज्ज्वलमय॑मौक्तिकमणिभूभृत्प्रतिष्ठोन्नतः । प्रेखत्पत्रपरिष्कृतः परिलसच्छाखावृतो गुर्जरः श्रीमालाभिध इत्युदारचरितः ख्यातोऽस्ति वंशः क्षितौ ॥ १ ॥ वंशे तत्र बभूव मौक्तिकसमः सद्वृत्तशैत्याश्रितः ख्यातो ललकमांडशालिक इति स्वच्छस्वभावान्वितः । चित्रं छिद्रसमुज्झितोऽपि नितरां भूत्वा गुणानां पदं विश्वप्राणिहाद व्यवत्त वसति यच्छद्मवंध्याशयः ॥ २ ॥ तस्याभूल्ललना नान्ना लल्लिकाभांडशालिनी । शीलमुक्तावली कंठे यया दधे समुज्ज्वला ॥ ३ ॥ संतस्तयोस्त्रयः पुत्राः पवित्राश्चरितैः शुभैः । अजायंतागारभारोद्धारधुर्य वविश्रुताः ॥ ४ ॥ तेषां जविष्ठोऽजान भांडशाली ख्यातो गुणैर्लोलकनामधेयः । श्रीमज्जिनाज्ञाकरणप्रतिज्ञाविभूषणं वक्षसि यस्य यज्ञे ॥ ५ ॥ शद्धात्माजनि भांडशालिकयशश्चंद्राभिधानोऽपरः श्रीमद्देवगुरुप्रयोजनविधौ बद्धादरोऽनारतं । येनौदार्यगुणैरनर्गलतरैरावर्य विश्राणिता पात्रेषु स्थिरताप्रवर्तनकृते लक्ष्मीर्मनःस्वीच्छया ॥ ६ ॥ ततोऽभवदेवकुमारनामा सुतो गुणैर्देव कुमारमूर्तिः । प्रवर्त्तयन्निःकपटं जिनानां वाँ सपर्यामवदाताचेत्तः ॥ ७ ॥ लोलांकस्याभवद्भांडशालिनो भांडशालिनी। लक्ष्मीरित्यभिधानेन जिनपूजापरायणा ॥ ८ ॥
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भांडशालिना द्वौ पुत्रौ लोलाकस्य बभूवतुः । . धंधूकाभिधः प्रथमः श्रीमदाद्याजिनार्चकः ॥ ९ ॥ वाहिनी गेहिनी तस्य बभूव प्रियवादिनी । यशोवीरस्तयोः पुत्रः सुशीला सिंधुका सुता ॥ १० ॥ धर्मोच्छंखलभांडशालिकयशश्चंद्रस्य दानप्रिया नित्यौचित्यविनीतताजेवगुणालंकारशृंगारिता । वौदार्यगुणैविवेकविशदैदूर यया रंजिता आत्मन्यप्रतिमप्रमोदपरतां नीताः समस्ता जनाः ॥ ११ ॥ सा जज्ञे गेहिनी नाम्ना जिंदिकाभांडशालिनी । सुकतोपार्जिका श्रीमद्देवसद्गुरुपूजया ॥ १२ ॥ यशश्चंद्रस्य जज्ञात द्वेऽपत्ये भांडशालिनः । स्वगृहश्रियः सीमंतमौक्तिकतिलकोपमे ॥ १३ ॥ आद्या पुत्री समजनि वरा राजिका नामधेया मंदाकिन्युलसितलहरीशीलसंभूषितांगी । यस्या अंतःकरणमृदुतासंगतं जंतुजातं लक्ष्मीः साक्षादिव निजगृहे जंगमा यावतीर्णा ॥ १४ ॥ . ठकुरशोभनदेवस्तामथो परणीतवान् । संतोषभूषिता जाता संतोषाख्या तयोः सुता ॥ १५ ॥ श्रीसर्वज्ञपदांबुजार्चनरातिः संप्राप्तपुण्योन्नतिः किंचिन्मीलितमालती दलभरस्वच्छेतिशीले मतिः । भक्त्यावेशसमुलसद्गुरुनतिविस्तीर्णदानास्थितिनिच्छमेकतपोविधानवसतिर्यस्या गुणैः संगतिः । दाक्षिण्योदधिभांडशालिकयशश्चंद्रस्य पुत्रोपरो धर्मोद्दामनराग्रणीरिह यशःपालाभिधः शुद्धधीः ।
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पण्यस्यापि न केवलैव महतो भांडस्य शाला कृता श्रीआद्यं वरिवस्यतां जिनपति येनात्र धर्मस्य च ॥ १६ ॥ भांडशालियशःपालस्याभवज्जयदेविका । औदार्यशीलप्रमुखैः प्रेयसी श्रेयसी गुणैः ॥ १७ ।। अभवंस्तयोस्तनूजाः सच्चरित्रा स्त्रयो गणैः । आनंददायिनः पित्रोरन्योन्यं प्रीतिशालिनः ॥ १८ ॥ आद्यः सुतः संश्रितधर्मकम्मा विवेकवेश्मा जानि पार्श्वदेवः । अभ्यर्थन - - - - - भीरुः प्रकल्पितश्रीजिननाथसेवः ॥ १९ ॥ अन्यो बभूवांबडनामधेयः कस्याप्यसंपादितचित्तपीडः । स्वकीयसंतानधराधुरीणः स्ववेश्मलक्ष्मोहृदयैकहारः ॥ २० ॥ सौचित्याचरणनिपुणः प्रीतिपूर्वोभिलापा
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तार्तीयीकस्तदनु तनुजः पल्हणाख्यो बभूव ॥ २१ ॥ पार्श्वदेवस्य संजज्ञे पद्मश्रीनामिका प्रिया। यस्याः पतिव्रतात्वेन स्वकुलं निर्मलीकृतम् ॥ २२ ॥ अथांबडस्योचितकृत्यदक्षा मंदोदरी नाम बभूव पत्नी। स्फुरद्विवेकोज्ज्वलसारहारा स्वमंदिरे मूर्तिमतीव लक्ष्मीः ॥ २३ ॥ हरेरिव भुजादंडाश्चत्वारस्तनयास्तयोः । अजायत सदाचारगृहभारधुरंधराः ॥ २४ ॥ प्रथमोजनिष्ट तेषां पार्थकुमाराभिधो गुणैः प्रथमः । विनयदुमालवालः पित्राज्ञापालनप्रवणः ॥ २९ ॥
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बभव प्रेयसी तस्य पृथ्वीदेवीति नामतः ।। विनीतविनया नित्यमौचित्यप्रियकारिणी ॥ २६ ॥ तदनु तनयो द्वितीयः समजनि धनसिंहनामको विनयी । निर्मलकलाकलापस्त्रैणक्रीडादिरभिरामः ॥ २७ ।। नाम्ना धांधलदवाति संजज्ञे तस्य गेहिनी । पुष्टयार्जवार्जितश्लाघा श्लाध्यकाभिरंजिका ।। २८ ।। ततस्तृतीयोजनि रत्नसिंहः संतापकारिव्यसनेभसिंहः । दूरं परित्यक्तविरुद्धसंगः श्रीमजिनद्रक्रमपद्मभंगः ॥ २० ॥ तस्याजनिष्ट दयिता नाम्ना राजलदेविका। पेथुकाख्या तयोः पुत्री समस्तानंददायिनी ॥ ३० ॥ अनन्यसौजन्यजनानुकीर्णे विवेकलीलोज्ज्वलचित्तवृत्तिः । सार्वत्रिकौचित्यविधिप्रवीणो जज्ञे जगत्सिंहसुतश्चतुर्थः ॥ ३१ ॥ पत्नी जाल्हणदेवीति नान्ना तस्य समजनि । कुत्राप्यनुत्सेकवती प्रदानविनयान्विता ॥ ३२ ।। सोलुकाख्या ततः पुत्री बभूव प्रियवादिनी । यस्याः शीलजलैः शुद्धैः पुण्यवल्ली प्रवर्द्धिता ॥ ३३ ॥ पत्नी ततोजा यत पल्हणस्य माणिक्यमालास्फुरदंशशीला । जिनोपदेशश्रुतिकर्णसारा कृपाप्रपा माणिकिनामधेया ॥ ३४ ।। समजनि तयोस्तनूजो वरणिगनामा समस्तगुणपात्रम् । निरिवलसुकुलैकधुराधुरंधरः स्मितमधुरभाषी ॥ ३५ ॥ बभूव प्रेयसी तस्य धनदेवीति विश्रुता । दाक्षिण्योज्ज्वलशीलेन सर्वेषां मोददायिनी ॥ ३६ ॥
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अजायंत ततस्तिस्रः शोलालंकरणाः सुताः । कपुरदेवीभोपलदेव्यौ वोल्हणदेव्यपि ॥ ३७ ।। अभूदेवकुमारस्य प्रेयसी छडिकाभिधा । पतिव्रता समाचारचातुर्यार्जितसद्यशाः ॥ ३८ ॥ कुमारपालसुतोभूत् पितुराज्ञोद्यतस्तयोः । जिनशासनानुरागी विरागी दोषवस्तुषु ॥ ३९ ॥ विवेकरविरन्येयुः स्फुरात स्मातिनिर्मलः । संतोषाय मानसद्रोविद्राविततमस्ततिः ॥ ४० ॥ घातत्रस्ततुरंगमांगतरलाः संपत्तयोत्यूजिता लुभ्यल्लुब्धकबिभ्यदर्भकमृगीदृगचंचलं यौवनम् । व-प्रेमतडिल्लुताद्युतिचलं चैतत्तथा जीवितं मत्वैवं जिनधर्मकर्मणि मतिः कार्या नरैः शाश्वते ॥ ४ १ ॥ सोनंतसुखनिदानो धम्मोपि ज्ञायते श्रुतात् । श्रुतं च पुस्तकाधीनं तत्कार्यः पुस्तकोद्यमः ॥ ४२ ॥ पुस्तक लेखयामास स्वसुः श्रेयोर्थमांबडः । संतोषनाग्न्याः स्नेहेन पल्हणभ्रातृसंयुतः ॥ ४३ ॥ प्रोद्यन् यावदसौ बित्ति तपनः प्राचीपुरंध्रीमुखे कांतिव्यक्तदिशं सुवर्णतिलकश्रीसंनिभं विभ्रमम् । श्रीनाभेयजिनस्य चारु चरितं तावत्कथाचयकनंद्यादत्र विचार्यमाणमनघप्रज्ञैः सदा सौविदैः ॥ ४४ ।।
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No. 52. Dharmopadesamalavritti, by VIJAYASINHASURI [धर्मोपदेशमालावृत्तिः- विजयसिंहः] .
Leaves 1 to 333; 28 inches long, 23 inches broad. Begins: ओं नमो वीतरागाय ॥ नृपत्वतीर्थाधिपतित्वभाजा नयस्य धर्म्यस्य च येन मार्गः । प्रकाशितोऽपूर्वमिह प्रजानां जिनेंद्रमाद्यं तमहं नमामि ॥ १ ॥ तं वर्द्धमानं जिनमानमामि प्रवर्तितं येन सुतीर्थमेतत् । यत्रावतीर्णाः कृतिनोऽधुनापि प्रयांति पारं भवसागरस्य ॥ २ ॥ मोहांधकारच्छिदुरा दुरात्मलोकैरलभ्याः प्रविलोकितुं ये। शेषाः समुत्तीर्णभवार्णवास्ते द्वाविंशतिस्तीर्थकरा जयंति ॥ ३ ॥ यस्याः प्रसादमासाद्य सद्यः पारं श्रुतोदधेः । सुधियो यांति सा मेस्तु वरदा श्रुतदेवता ।। ४ ।। तेषां गुरूणां पदपंकजानि प्रणौमि भक्तिप्रणतोत्तमांगः । येषां प्रसादेन परोपदेशप्रदानदक्षत्वम----॥ ५ ॥ इत्थमेषु समस्तेषु स्तोतव्येषु कृतस्तुतिः। धर्मोपदेशमालाया विस्तीणी वत्तिमारभे ॥ ६ ॥ Ends : सव्वो सावगलोउ कररहिउ राइणा तार्ह विहिउ । मंतिवयणेण एवं भावणं कुणइ संघस्स ॥ २६१ ॥ जिणसासणस्स एवं पभावणं करि वि भावसंजुत्ता । नियपुत्ताण य भारं रज्जस्स समप्पिउं दोवि ॥ २५२ ॥ आणंदार - - से समणत्तं उत्तमं करेऊण । उत्तमनाणं पायिय संपत्ता उत्तमं ठाणं ॥ २५३ ।।
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EXTRACTS FROM MANUSCRIPTS इति आमलकाद्वजाख्यानकं समाप्तम् ।। धन्मोबएसमालाविवरणमेयं सवित्थरं रइउ । पुण्णं जमज्जियं इह लहंतु भव्वा सिवं तेण ॥ २९४ ।। इक्कारसइगनउए माहे मासंमि किण्हपक्खमि । तेइयाए हत्थरिक्खे समत्तं विवरणं एयं ॥ ३९६ ॥ मंगलं महाश्रीः ॥ पृथ्वीभृता न मथितान्न जडस्वरूपादेत्यामरानपहृतामृतवामरत्नात । श्रीप्रश्नवाहनकुलाजलराशिकल्पात्कल्पदुमोपमगुणः पृथुरस्ति गच्छः ॥ १ ॥ यः श्रीहर्षपुरीय इत्यभिधया ख्यातः क्षमामंडले निःशेषास्वपि दिक्षु विजुतमहाशाखोपशाखागतः । संसेव्यः सुमनोभिरीप्सितफलप्राप्तेः परं कारणं छायासीनसमस्तजंतुजनितांतस्तापिितक्रियः ।। २ ॥ तत्र श्रीजयसिंहमूरिरभवन्निःशेषविश्वंभराभोगालंकरणक्षमैः क्षणशरच्चंद्रांशुगौरैर्गुणैः । उन्मीलन्नवकुंदगुच्छविशदस्वच्छस्वकीयव्रतव्यापारार्पितचित्तवृत्तिरसकद्दत्तप्रमोदः सताम् ।। ३ ।। एतस्मादपि शिष्यरत्नमनघं तकिंचिदुच्चैस्तरामुत्पन्नं परमप्रमोदजनकं निःशेषविद्वत्ततेः । यस्यात्यद्भुत भूरिनिर्मलगुणस्तोमस्तुतौ जिह्मतां ब्रह्मापि व्रजति क्षणेन गुणिनः कान्यस्य वार्ता पुनः ॥ ४ ॥ रूपं विनिर्जितमनोभवमूर्तिशोभं वाणी तु चंदनरसादपि दत्तशैत्या । अर्कोपलादपि मनो विमलस्वरूपं यस्य प्रशस्यपदवी किमु न प्रपेदे॥ ५ ॥ अत्यद्भुतानि जिनपुंगवशासनस्य श्लाघाकराणि चरितानि घनानि यस्य । श्रुत्वा स्वचेतास चिरं परिभावयतः संतो जनाः परमविस्मयमुद्वहति ॥ ६ ॥
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यः कश्चिदप्यादरविप्रमुक्तः सुप्तः क्वचिद्धर्ममयक्रियायाम् । राज्ञापि तेन त्वरितं यदाज्ञा शेषेव शीर्षे निहिता सहर्षम् ।। ७ ।। यस्योपदेशादखिलस्वदेशे सिद्धाधिपः श्रीजयासिंहदेवः । एकादशीमुख्यदिनेष्वमारीमकारयस्छासनदानपूर्वाम् ।। ८ ।। यस्य संदेशकेनापि पृथ्वीराजेन भूभुजा । रणस्तंभपुरे न्यस्तः स्वर्णकुंभो जिनालये ॥ ९ ॥ दाने तपसि पूजायां कल्याणकमहोत्सवे । येन प्रवत्तितो लोकः प्रायेणाष्टाढिकासु च ॥ १० ॥ प्रमादरूपस्फुरदंधकारप्रच्छादिते वर्मनि संयमस्य । उद्यद्विवेकोद्यमदीप्तिजालैरुद्योतमादित्य इवाकरोद्यः ॥ ११ ॥ श्रीवीरदेवविदुषो वरमंत्रविद्यालाभेन यः समभवत्सुमहाप्रभावः । तस्य त्वभूदभयदेव इति प्रसिद्धं नामा- - - - - -विजनश्रुतीनाम् ।। १२ ।। श्रीहेमचंद्र इति सूरिरभूदमुष्य शिष्यः शिरोमणिरशेषमुनीश्वराणाम् । यस्याधुनापि चरितानि शरच्छशांकछायोज्ज्वलानि विलसंति दिशां मुखेषु ॥ १३ ॥ एकैकं जिनशासनोन्नतिकरं कार्य किमप्यद्भुतं तत्मसाधितवानसाध्यमपि यः सद्बुद्धिपाथोनिधिः । यद्वक्तुं वचसास्तु दूरतरतः शक्यं न चेतस्यपि ध्यातुं केनचिदेव देवगुरुणाप्यन्यस्य वार्तव का ॥ १४ ॥ सकलनिजधरित्रीमध्यमध्यासितानां जिनपतिभवनानां तुंगशृंगावलीषु । अनवयदुपदेशात्सिद्धराजेन राज्ञा फुरदविरलभासः स्थापिताः स्वर्णकुंभाः॥ १५॥
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साधुश्राद्धजनस्य दुर्जनजनात्संजायमाना पराभूतिभूपतिवल्लभादपि मदेनांधाद्रणाद्विस्म । शक्त्या येन निवारिता जिनगृहादानेषु - - - - नुद्धारा जिनसद्मनां च जरतां जाता -- ज्ञया ॥ १६ ॥ आरुह्य बुद्धिमघमक्षतयानपात्रमप्युद्यमप्रबलमारुतवद्ववेगम् । यः संगमं सितपटस्य गुरोरवाष्य जैनागमार्णवतटं झटिति प्रयातः ।। १७ ।। येनोपदेशमाला चक्रे भवभावना च वृत्तियुता । अनुयोगद्वाराणां शतकस्य च विराचता वृत्तिः ॥ १८ ॥ मूलावश्यकटिप्यनकं विशेषावश्यकीयवृत्त्याढ्यम् । येन ग्रथितग्रंथस्य लक्षमेकं मनान्तनम् ॥ १९ ॥ तस्मादभूद्विजयसिंह इति प्रसिद्धः सूरिः सुधांशुकरगौरयशःसमूहः । बाल्यात्प्रभृत्यपि विवेककलानिशातं चेतः सदैव समजायत यस्य शांतम् ॥२०॥ धर्मोपदेशमालाविवरणमासीच्चिरंतनं तनुकम् । यत्तत्तेन सविस्तरमारचितं रसिकलोकमुदे ॥ २१ ॥ साहाय्यमत्र चक्रे गणिरभयकुमारसंज्ञितो विज्ञः । तस्यैव शोधनविधौ जाता मुनिपुंगवाः सर्वे ॥ २२ ॥ ग्रं० श्लोक १४४७१ ॥ मंगलं महाश्रीः । यस्याः क्षीरपयोनिधिर्निवसनं हारस्रजस्तारकास्ताडंके शशिभास्करौ सुरधुनी श्रीषंडपुंड्रस्थितिः । सा कीर्तिनरिनत्तिं यावदमला वीरस्य विश्वत्रयीरंगे तावदमंददुंदुभितुलां धत्तामसौ पुस्तकः ॥ १॥
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No. 53. Samaradityacharitra, by HARIBHADRASURI [समरादि
त्यचरित्रम् — हरिभद्रसूरिः ].
Leaves 1 to 354; 322 inches long, 22 inches broad. Begins:
ओं नमो वीतरागाय ॥
पणमह विजियसुदुज्जयनिज्जियसुरमणुयविसमसरं । तिहुयणमंगल निलयं बसहगइगयं जिणं उसहं ॥
Ends:
गुरुवयणपंकयाउ सोऊण कहाणयाणुराएण | अनिउणमयिणा वि दढं बालाइअणुग्गहट्ठाए ॥ अविरहियणाणदंसणचरणगुणरयस्स विरइयं एयं । जिणदत्तायरिस्स उ अवयवभूएण चरियमिणं ॥ जं विरइऊण पुण्णं महाणुभावचरियं मए पत्तं । तेणं गुणाणुराउ होउ इहं भव्वलोयस्स ॥ गंथग्गमिमं एयं छंदेणाणु हुएण गणिऊण । पाएण दहसहस्सा हुंति सिलोगाण संठवियं ॥ इति समरादित्यचरितं समाप्तम् ॥ परस्परपरिस्यूतनयगोचरचारिणी । अनेकांतामृतं दुग्धे यद्द्भवी तं जिनं स्तुमः ॥ १ ॥ अप्राप्तोपि हि खंडनां गुणवते धर्माय हिंस्रो न वा छायाभिः प्रणिहंति तापमभितो मुक्तः सदा पल्लवैः । निश्छिद्रोपि करोति यः श्रुतिसुखं वंशः क्षमाभृद्घनोल्लासी कोपि महीतले स जयति श्रीमालनामा नवः ॥ २ ॥ वंशेऽत्र तेजोऽद्भुतवृत्तशाली मुक्तामणिर्वोसरिसंज्ञको ऽभूत् । तस्थौ न केषां हृदये गुणेन निजेन यरिछद्रविनाकृतोपि ॥ ३ ॥
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शचीव देवराजस्य रोहिणीव सितयुतेः । सद्वासनेव धर्मस्य लक्ष्मीस्तस्य प्रियाऽभवत् ॥ ४ ॥ अचलस्थितिः कुरंगव्याघाती नरवरवृत्तिसंयुक्तः । सिंह इव वैरसिंहः सुतः सुता चानयोर्मादूः ॥ ५ ॥ गेहिनी गेहनीतिज्ञा तस्य श्रीरिव देहिनी। अभूदानलदेवीति धर्मकर्मसु कर्मठा ॥ ६ ॥ असूत सा पंच सुतान् मनुष्यक्षेत्रस्य धात्रीव सुमेरु पर्वतान् । परं सदाप्येकसुखत्वमेषां केषां न रेखाकरमस्ति चित्ते ॥ ७ ॥ आद्योऽस्ति भांडशालिकमदनो लाडिपतिर्जिनप्रतिमाः । कारितवान् मंगलपुरचैत्ये पुण्याय पितृमात्रोः ॥ ८ ॥ प्रवरां वेलाकूले पौषधशालां च मातृपुण्याय । तनया विनयादिगुणोपेताः पंचास्य विद्यते ॥ ९॥ क्षेमसिंहभीमसिंही तेजःसिंहारिसिंहको । पंचमो जयसिंहस्तु दुहिता जासलाभिधा ॥ १० ॥ प्रथमोपि धर्मकार्ये द्वितीयीकस्तु- लघुबंधुः । कलिकालमत्तकरिवरसिंहो विजयसिंहोस्ति ॥ ११ ॥ यथा प्रभा प्रभाभर्तुर्यथा चंद्रस्य चंद्रिका । यथा छाया शरीरस्य तथाशेषगुणाश्रया ॥ १२ ॥ पूनी दयिताऽस्योदयपालोदयमतसुता विरेजे या । निजवंशप्रासादे विमलगुणा वैजयंतीव ॥ १३ ॥ युग्मम् ॥ आद्योस्ति राजसिंहस्तत्तनयो जैत्रसिंह इतरस्तु । नायकिसहजलसोहगपालनाम्न्यस्तु पुत्रय इमाः ॥१४॥
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नयनाभ्यां मुखं पुष्पदंताभ्यां गगनं यथा । आभ्यां विजयसिंहोपि सुताभ्यां शोभते तथा ।। १५ ।। धर्मकर्मसुनिष्णातस्तात्तीयीकस्तु धंधलः । वल्लभो वकुलदेव्यास्तुर्यो वरणिगाभिधः ॥ १६ ॥
- - - - - - जाल्हणस्तु पंचमकः । दधतापि येन लघुतां बंधुषु भेजे परं गुरुता ॥ १७ ॥ स्मरः शरैमानुषभूमिदेशः सुमेरुशैलेस्तनुरिंद्रियैर्यथा । पांडुस्तनजैरिव वैरसिंहो रेजे तथा पंचभिरेभिरंगजैः ॥ १८ ॥ इतश्च ॥ श्रीमन्महावीरजिनेंद्रतीर्थकल्पद्रुगच्छे इह चंद्रगन्छे । शब्दान्वितः सुंदरपक्षयुग्मो द्विरेफलीलामवलंबमानः ॥ १९ ॥
No. 54. A Manuscript containing, 1. Navapayam, by JINACHANDRA [नवपयं-निणचंदः ], 2. Upadesamala, by DHARMADASAGANI [ उपदेशमाला-धर्मदासः], 3. Upadesamala, by HEMACHANDRA [उपदेशमाला-हेमचन्द्रः, 4. Bhavabhavana, by HEMACHANDRA [ भवभावना-हेमचन्द्रः], 5. Sravakadinakritya [ श्रावकदिनकृत्यम्], 6. Vivekamanjari, by ASADA [ विवेकमञ्जरी-आसडः], 7. Dharmopadesamala, by JAYASINHASURI [ धर्मोपदेशमाला
जयसिंहसूरिः ], 8. Siddhantasara, by PRADYUMNASURI [सिद्धान्तसारः-पज्जुन्नसूरिः] 9. Pindavisuddhi, by JINAVALLABHA [पिण्डविशुद्धिः-जिनवभः] 10. Jivavichara [जीवविचारः].
Leaves 114 to 232; 16 inches long, 2 inches broad.
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No. 55. Sabdanusasanavritti, by HENACHANDRA [शब्दानशासनवृत्तिः-हेमचन्द्रः] .
Leaves 1 to 287 ; 15 inches long, 2 inches broad. Dated Sam. vat 1228 = A. D. 1232. Ends:
संवत् १२८८ वर्षे आषाढवाद अमावास्यादिने भौमे राणकश्रीलावण्यप्रसाददेवराज्ये वटकूपके वेलाकुले प्रतीहारशाखाटप्रतिपत्तौ श्रीमद्देवचं. द्रसरिशिष्येण भुवनचंद्रेण क्षुलुकधर्मकीर्तिपाठयोग्या व्याकरणटिप्पनकपुस्तिका लिखितेति ।। पं० सोमकलसेन शोधिताच ॥
यादृशं पुस्तके दृष्टं तादृशं लिखितं मया । यदि शुद्धमशुद्धं वा मम दोषो न दीयते ॥ १ ॥ शिवतातिरस्तु श्रीजिशासनस्येति ।।
No. 56. Linganusasana (with Commentary), by VAMANA
[लिङानुशासनं सटीकम् मू० वामनः]. Commentary begins:
प्रेयांसं शिवमीश्वरं प्रशमिताशेषात्मदोषाशया Text begins:
सिद्धं विबुधजनेष्टं विदिताखिलवाड़यं प्रणम्याप्तम् Commentary ends: विशिष्टं लोकात् ज्ञेयमवगंतव्यमिति ॥ ...
व्याडिप्रणीतमथ वाररुचं सचांद्र जैनेंद्रलक्षणगतं विविधं तथान्यत् । लिंगस्य लक्ष्म हि समस्य विशेषयुक्त-, मुक्तं मया परिमितं त्रिदशा इहार्याः ।
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अद्यापि संशयिगतार्थमनिष्टसंगिलिंगानुशासनमिहाज्ञतया मया यत् । प्रोक्तं हि किंचिदविचार्य तदार्यवर्यैः संस्कार्यमस्ति यदि कार्यमुतावीर्यम् ।। लिंगानुशासनमिदं कृतमुन्नतेन शुभैर्गुणैः कविहितं किल वामनेन । बुद्धवाखिलं विमलशब्दगतं प्रमेयं नातः परं शुभतरं स्फुटमस्ति लोकाः ।।
इति लिंगानुशासनवृत्तिः समाप्ता ।। संवत् १२७३ श्रावणवाद ८ रवौ लिंगवृत्तिपुस्तिका लिखितेति ।।
No. 57. A Manuscript containing,
1. Upadesamala, by DHARMA DASA [उपदेशमाला-धर्मदासः], 2. Upadesamala, by MALADHARI HEMACHANDRA [34631
माला-मलधारिहेमसूरिः], 3. Bhavabhavana, by MA LADHARI HEMACHANDRA [भव
भावना-मलधारिहेमसूरिः], 4. Sangrahanisutra, by MALADHARI HAMACHANDRA
[संग्रहणी-मलधारिहेमचन्द्रः], 5. Yogasastra, by HEMACHANDRA [योगप्रकाशः-हेमचन्द्रः], 6. Chaturvinsatijinastotra, by NARACHANDRA [चतुर्विंश
तिजिनस्तोत्रम्-नरचन्द्र, 7. Sangrahaniratna, by MALADHARI SRICHANDRASURI [संग्रहणिरत्नम्-मलधारिश्रीचन्द्रसूरिः] .
Dated Samvat 1334 = A. D. 1278. Chaturvinsatijinastotra begins:
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जय प्रथमतीर्थेश जय प्रथमनिर्मम । जय प्रथमनीतिज्ञ जय प्रथमपार्थिव ।। १ ।
Chaturvinsatijinastotra ends: यद्वैश्वानरचंद्रार्कज्योतिषामपि जीवितम् ।
तदुदेतुस्तवादस्मान्महानंदमयं महः ।। १२१ ॥
कृतिरियं श्रीनरचंद्राचार्याणाम् ॥
संवत् १३३४ वर्षे भाद्रवाशुदि १ शनौऽद्येह श्रीदेवपत्तने सकलराजावलीपूर्वं परमपाशुपताचार्यमहामहत्तरपंडितगंड [ मंडली ] प्रवरबृहस्पति अग्रापारिमहं श्रीअभयसीहप्रभृतिप्रतिपत्तौ उसवालज्ञातीयसाहु० भावड तत्पुत्रसाहुधनेसरतत्पुत्रगु - धरेण पितृभगिनीभगिनीपुण्यार्थं प्रकरण पुस्तिका लिखापिता ॥ मंगलं महाश्री : ॥
Manuscript ends:
हरिसउरगछनिलउ गुणनिलउ विहियसयलदुहविलउ । सिरिअभयदेवसूरी सुविहियचूडामणी जय ॥ १ ॥ कालवसेणं अवहे अहिणवपहियस्स पुसाहुप हे । जस्स मलहारिनामं दिनं कन्नेण नरवइणा ॥ २॥ रणथंभपुरे आणा लेहेणं जस्स स नरिंदेण । हेमधयदंडमिसउ निच्चं नच्चाविया कित्ती ॥ ३ ॥ सिरिहेमचंदसूरी तस्सीसो सिद्वनिवइनयचलणो । सिद्वंतसिंधुसारुद्धरणे मंदरगिरी जयउ ॥ ४ ॥ नयरट्ठाणे कंचणकलसारोवणखणंमि सा जस्स । वमुत्ति भणिय कंठमि कुसुममाला विणिक्खित्ता ॥ ५ ॥ जीवाण अभयदाणं चेईयसिहरेसु हेमवयकलसा | देसणवयणाउ कयाई जस्स सिरिसिद्धराएण || ६ ॥
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नीसेसपावसंतावपसमिणं सुहसिरीए कुलभवणं । सिरिविजयसिंह गुणे हिययंमि धरेह पयपउमं ।। ७ ।। सिरिसिरिचंदमुणिंदस्त आहिणवो जयइ कोइ कवरसो । बहुरोयसोयकलिमलजम्मणजरमरणनिटूवणो ।। ८ ।। सिरिविबुहचंदगुरुणा सुहत्थिणा मुक्खमहिलसंतेण । सिद्धनारिंदप्पसायग्गलणं गणियं नहु मणंपि ।। ९ ।। भवसंभवभयहरणे कयदुक्करचरणकरणउद्धरणे। सिरिमुणिचंदमुणसिरचरणे सरणं अणुसरामि ॥ १० ॥ करकमलं लच्छिमयं मणममयमयं गुणे मयंकमए। वयणं च चंदणमयं वंदे मुणिचंदसरीणं ।। ११ ।। सिरिहरिभद्दमुणिदं वंदे निग्महियमोहमाहप्पं । तहमाणदेवसरि निज्जियमाणाइरिउवग्गं ।। १२ ।। जयउ सिरिसिद्धसूरी भदं सिरिदेवभद्दसूरीण । नंदउ महिंदमूरिस्स माणसं तह्ननिण्हवण ।।१३।। सिरिदेवाणंदमुर्गासरस्स चरियं हरेउ थो दुरियं । जं किरमी सामन्नगुणे - - - कटाणंपि ।। १४ ।। मच्छरगिरिंदवजं जयउ विवेयकबिंबदिवसमुहं । सिवपुरपहपत्थयणं वयणं सिरिपुवसूरीणं ।। १५ ।। सिरिनेमिचंदपहुणो गुणगणरयणाण ताण किं भणिमो । २२ छायावि कावि जेसिं मंडइ महिमंडलं सयलं ॥ १६ ॥
संवड़ियं भवेणं जडिमहरं भरियसयलदिसिकहरं । वि अपुवसरं सरिमो जसो जसोभद्दसूरीण । १७ ।। सिरिदेवप्यहपहूण कवुसत्री जयंमि सा जयइ । B669--13
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हिययनिमग्गाए जियंति जीए वितुहा महच्छरियं ॥ १८ ॥ दंसणनिज्जियस सहर सिरीण गुणरयणरोहण गिरीण | नमिमो खंतिम हिमहाकरीण नरचंदसूरीण ॥ १९ ॥ लछीमयं च विज्जामयं च नीसेसगुणगणमयं च । चरणारविंदरेणुं वंदे नरचंदसूरीण ॥ २० ॥ पणमह भवभयहरणं पयकमलजयं नरिंदपहगुरुणो । जाण तवचरणरेहा न लंधिया दुसत्तेहिं ।। २१ ।। विबुहजणणियतोसो अमयावासो दुहाण कयनासो । रयणप्यहसूरीणं बयणविलासो चिंर जयउ ।। २२ ।। उवसमगुणमाणिक्कपवयं विहियजणमणाणं दं । माणिक्कसूरिगुरुण चरणकमलं पणमयामि ॥ २३ ॥ विहडियमोहममोहा अखलियपसरा सुगुत्तठाणेसु । जय जण हिययशेले पहा पभाणंदसूरीणं ॥ २४ ॥ निजियवम्महजोहं भविणणणियसुद्धपडिबोहं । सिरिपउमएव सुगुरुगंभरि महाअहं वंदे ॥ २९ ॥ इय गुरुगुणमुत्ताहलमालं काऊण कंटुसंठवियं । भविया लहंतु सिवपुरसिरीसयंवरणसोहग्गं ॥ २६ ॥
इति श्रीसद्गुरुपद्धतिगाथाः समाप्ताः ॥
No. 58. Upadesamala, by HEMACHANDRA with the author'" commentary [उपदेशमाला सटीका - हेमचन्द्रः] •
Leaves 1 to 398; 32 inches long, 3 inches broad. Dated S
1425A. D. 1369,
Begins:
ॐ नमो वीतरागाय ।
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येन प्रबोधपरिनिर्मितवाग्वरत्रां क्षिप्त्वोद्भूतानि भवनानि भवधिकूपात् । निःशेषनाकिविभुवंदितपादपद्मो भूयान्ममाशुभभिदे स युगादिदेवः ॥ १ ॥ ज्ञेयार्णवं सुरवरैरिव यैः समंतात्सद्बोधमंदरमथा प्रतिमथ्य लब्धः । जीवादितत्ववररत्नचयो भवंतु ते वः श्रिये विजयिनो जिनवीरपादाः ॥२॥ दोगुरस्मरतिरस्करणप्रवीणा विश्वत्रयप्रथितनिर्मलकीतिभाजः । शेषा अपि प्रविकिरंतु जिना रजो वः सर्वामरप्रणतपावनपादपद्माः ॥ ३॥ वंदे पादद्वितयं भक्त्या श्रीगौतमादिसूरीणाम् । निःशेषशास्त्रगंगाप्रवाहहिमवद्गिरिनिभानाम् ।। ४ ।। पारं यस्याः प्रसादेन देहिनः श्रुतनीरधेः । गच्छंति तां जगद्वंद्यां प्रणौमि श्रुतदेवताम् ॥ ६॥ अस्मादृशोपि संजातः परेषां किल बोधकः । यत्प्रभावेन तान्वंदे स्वगुरूंस्तु विशेषतः ॥ ६ ॥ इत्थं कृतनमस्कारो नमस्कार्थ सवस्तुषु । प्रवक्ष्याम्यस्तविघ्नोर्थं प्रसुतं श्रुतनिश्रया ॥ ७ ॥ अंतरंगार्थगर्भ च यत्किचिदिह वक्ष्यते । तत्रोपमितिग्रंथोक्ता नृणां सर्वापि भावना ॥ ८ ॥ Ends:
जाव जिणसासणमिणं जाव य धम्मो जयग्मि वित्थरइ । ता उपदेसुउएसा भवोह सया सुहत्याहि ॥ सुगमा ॥ इति श्रीहेमचंद्रसूरिविरचितोपदेशमाला समाप्ता ॥ ग्रंथाग्रं १४००० ।। २.१४२५ वर्षे भाद्रपदवदि १ भौमे पुष्फमालावृत्तिः संपूर्णा लिखिता - ॥ स्वस्ति ॥ ऊकेशवंशे श्राद्धधर्मधुरीणो रीणदानादिपुण्य कृत्यकरणनिपुणः त० पूनाभिधानः श्रावकपुंगवोभूत् । तत्पुत्रः पवित्रः ठ० धणपालस्य तस्य सहचा
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रिणी सदाचारिणी पापप्रवेशवारणी ठ० धुंधलदेवीति जज्ञे । तत्कुक्षिसमुद्भवे - नात्यद्भुतसुकृतप्रोद्भूतश्रीश्रीदेवताप्रसाद साधिताधिकतरसकलशुभकृत्यनिवहेन ठ० मोषाभिवेन श्राद्ववरेण पूज्यभट्टा ० श्री अभयसिंह सरिसद्वयाख्यामृतवृष्टिसमुत्पन्नभावनाकल्पवल्लीप्रभावात् श्रीपुष्पमालावृत्तिपुस्तकं स्वपित्रोः श्रेयोर्थ - मलेखयत् शुभवृद्धये वृद्वः पुत्रः ठ० देपाल १ लघुर्धनपालनामाभूत् । ठ० मोषा । लघुभ्रातृषताके - आसीत् ॥
No. 59. A Manuscript containing the first five uddesakas of the Nisitha Sutra, Bhashya, and Churni [निशीथभाष्यम् ]
Leaves 1 to 304; 33 inches long, 2 inches broad. Dated Samvat 1320 = A. D. 1264.
Bhashya begins:
ॐ नमो वीतरागाय ॥
णवबंभचेर
-- संय चत्तलो बहुबहुतरउ पदग्गेणं ॥ १ ॥
आयारकप्पस्सउ इमाई
Bhashya ends:
उवास असत मूसगतेण गामादीसुजाणमति ।
इति भगवन्निशीथभाष्ये पंचमः उद्देशकः परिसमाप्तः ॥
Churni begins:
नमो अरहंताणं ॥
णमिउं अरहंताणं सिद्धाण य कंमकवयमुक्काणं । सयण सिह विमुक्काण सब्वसाधूण भावेणं ॥
Churni ends:
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तमा णिवण्णो निसण्णो वा दाहिणपासे अवादे संकरेजा वितियपदगाहा।। इति निसीहविसेसचुण्णी पंचमः उद्देशकः समाप्तः ॥ मंगलं महाश्रीः॥ शुभं भवतु लेखकपाठकयोः ।। यादृशं पुस्तके दृष्टं तादृशं लिखितं मया । यदिशुद्धमशुद्धं वा मम दोषो न दीयते ।। संवत् १३२० वर्षे वैशाखशुदि ४ गुरौ निसीथप्रथमखंडचूणिपुस्तकं लिखितमिति ।।
No. 60. A Commentary on the Brihatkalpasutra and its Churni, by KSHEMAKIRTI. The Second and third Khandas only [ बृहत्कल्पटीका-क्षेमकीर्तिः].
Second Khanda, Leaves 1 to 420 ; Third Khanda, Leaves 1 to 335 : 33 inches long, 2 inches broad.
Second Khanda ends :
मुकवा तयोः संस्तारकोन्यान्यत्र संक्रामयितव्य इति भावः । इदमेव व्याचष्टे । वरिसोवहिंतकीरइ । सहं न सहायगा विजुयलंति॥ ॥सर्वानपि साधून तत्रैव मापयंति ॥ ग्रंथाग्रं १४१६० ।। मंगलं महाश्रीः ॥ शुभं भवतु समस्तसंघस्य ॥ __Third Khanda begins :
अहँ । एवं संस्तारकाणां संक्षोभपरंपरकः परंपरया स्थानांतरसंक्रमणरूपस्तावन्मंतव्यो यावद्धि चरमसाधुः॥ Third Khanda ends :
चरणगुणस्थितश्चारित्रज्ञानस्थितः साधुर्यस्मात्सर्वेपि नया भावनिक्षेपमिच्छंतीति गतं नयद्वारम् ॥ इति श्रीकल्पटीकायां षष्ठ उद्देशकः समाप्तः ।। नंदीसंदर्भमूले सुदृढतरमहापीठिकास्कंधबंधे तुंगादेशोशाखे दलकुसुमसमैः सूत्रनियुक्तिवाक्यैः ।
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102 EXTRACTS FROM MANUSCRIPTS सांद्रे भाष्यार्थसार्थामृतफलकलिते कल्पकल्पदुमेस्मिनाक्रष्टु षष्ठशाखाफलनिवहमसावंकुटीवास्तु टीका ॥ ६ ॥ समाप्ता चेयं सुखावबोधा नाम कल्पाध्ययनटीका ॥ सौवर्णा विविधार्थरत्नकलिता एते षडुदेशकाः श्रीकल्पेऽथ निधी मताः सुकलशा दौर्गत्यदुःखापहे । दृष्ट्वा चूर्णिसुबीजकाक्षरतात कुश्याथ गुर्वाज्ञया खानखानममी मया स्वपरयोरर्थे स्फुटार्थीकृताः ॥ १ ॥ श्रीकल्पसूत्रममृतं विबुधोपयोगयोग्यं जरामरणदारुणदुःखहारि। येनोद्धृतं मतिमथा मथितात् श्रुताब्धेः श्रीभद्र बाहुगुरवे प्रणतोऽस्मि तस्मै ॥२॥ येनेदं कल्पसूत्रं कमलमुकुलवत्कोमलं मंजुलाभिर्गोभिर्दोषापहाभिः स्फुट विषयविभागस्य संदर्शिकाभिः । उत्फुल्लोद्देशपत्रं सुरसपरिमलोद्गारसारं वितेने तं निःसंबंधबंधुं नुत मुनिमधुपा भास्करं भाष्यकारम् ॥ ३ ॥ श्रीकल्पाध्ययनेऽस्मिन्नतिगंभीरार्थभाष्यपरिकलिते । विषमपदविवरणकृते श्रीचूणिकृते नमः कृतिने ॥ ४ ॥ श्रुतदेवताप्रसादादिदमध्ययनं विवृण्वता कुशलम् । यदवापि मया तेन प्राप्नुयां बोधिमहममलाम् ॥ ६ ॥ गमनयगभीरनीरश्चित्रोत्सर्गापवादवादोमिः । युक्तिशतरत्नरम्यो जैनागमजलनिधिर्जयति ॥ ६ ॥ श्रीजैनशासननभस्तलतिग्मरश्मिः श्रीसद्मचांद्रकुलपद्मविकाशकारी। स्वज्योतिरावृतदिगंबरडंबरोऽभूत् श्रीमान् धनेश्वरगुरुः प्रथितः पृथिव्याम्॥ ७
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श्रीमच्चत्रपरकमडनमहावीरप्रतिष्ठाकृतस्तस्माच्चित्रपुरप्रबोधतरणेः श्रीचैत्रगच्छो ऽजनि। तत्र श्रीभुवनेंद्रसरिसुगुरुभूभूषणं भासुरज्योतिः सद्गुणरत्नरोहणगिरिः कालक्रमेणाभवत् ॥ ८ ॥ तत्पादांबुजमंडनं समभवत्पक्षद्वयीशुद्धिमानीरक्षीरसदृक्षदूषणगुणत्यागग्रहैकव्रतः । कालुष्यं च जडोद्भवं परिहरन् दूरेण सन्मानसस्थायीराजमरालवद्गाणवरः श्रीदेवभद्रप्रभुः ॥९॥ शस्याः शिष्यास्त्रयस्तत्पदसरसिरुहोत्संगशृंगारभुंगा विधस्तानंगमंगाः सुविहितविहितोत्तुंगरंगा बभूवुः । तत्राद्यः सच्चरित्रानुमतिकृतमतिः श्रीजगच्चंद्र सूरिः श्रीमद्देवेंद्रसूरिः सरलतरलसञ्चित्तवृत्तिद्वितीयः ॥ १० ॥ तृतीयशिष्याः श्रुतवारिवार्द्धयः परीषहाक्षोभ्यमनःसमाधयः । जयंति पूज्या विजयेंदुसूरयः परोपकारादिगुणौघभूरयः ॥ ११ ॥ प्रोढं मन्मथपार्थिवं त्रिजगतीजैत्रं विजित्येयुषां येषां जैनपुरे परेण महसा प्रक्रांतकांतोत्सवे । स्थैर्य मेरुरगाधतां च जलधिः सर्वसहत्वं मही सोमः सौम्यमहर्पतिः किल महत्तेजोऽकृत प्राभृतम् ।। १२ ॥ वापंवापं प्रवचनवचोबीजराजी विनेयक्षेत्रवाते सुपरिमलिते शब्दशास्त्रादिसीरैः । यैः क्षेत्रज्ञैः शुचिगुरुजनाम्नायवाक्सारणाभिः सिक्त्वा तेने सुजनहृदयानंदिसज्ज्ञानसस्यम् ॥ १३ ॥ यैरप्रमत्तैः शुभमंत्रजापैतालमाधाय काल स्ववश्यम् । अतुल्यकल्याणमयोत्तमार्थसत्पुरुषः सत्वधनैरसाधि ॥ १४ ॥
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किंबहुना ।
व्योत्स्ना मंजुलया यया धवलितं विश्वंभरामंडलं
या निःशेषविशेषविज्ञ जनताचेतश्चमत्कारिणी । तस्यां श्रीविजयेंदुसूरिसुगुरोर्निष्कृत्रिमाया गुणश्रेणेः स्याद्यदि वास्तवस्तवकृतौ विज्ञः स वाचांपतिः ॥ १५ ॥ तत्पाणिपंकजरजःपरिपूतशीर्षाः शिष्यास्त्रयो दधति संप्रति गच्छभारम् । श्रीवत्रसेन इति सद्गुरुरादिमोत्र श्रीपद्मचंद्रसुगुरुस्तु ततो द्वितीयः ॥ १६ ॥ तातयीकस्तेषां विनेयपरमाणुरनणुशास्त्रेऽस्मिन् । श्रीक्षेमकीर्त्तिसूरिर्विनिर्ममे विवृतिमल्पमतिः ॥ १७ ॥ श्रीविक्रमतः क्रामति नयनाग्निगुणेंदुपरिमिते बर्षे । ज्येष्टश्वेतदशम्यां समर्थितैषा च हस्तार्के ॥ १८ ॥ प्रथमादर्श लिखिता नयप्रभप्रभृतिभिर्यतिभिरेषा | गुरुतरगुरुभक्ति भरोद्वहनादिव नत्रितशिरोभिः ॥ १९ ॥ इह वा ।
सूत्रादर्शेषु यतो भूयस्यो बाचना विलोक्यते ।
विषमाश्च भाष्यगाथाः प्रायः स्वरूपाश्च चूर्णिगिरः ॥ २० ॥
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EXTRACTS FROM MANUSCRIPTS
ततः ।
सूत्रे वा भाष्ये वा यन्मतिमोहान्मयाऽन्यथा किमपि ।
लिखितं वा विवृतं वा तन्मिथ्या दुःकृतं भयात् ॥ २१ ॥
ग्रंथ ९१११ ॥ साहू० आसधरसुतसाधु० श्रीरतनसीह सुततेजपाल श्रेयोर्थ अयं कल्पवृत्तिपुस्तकं त्रितयखंड कारापितं लिखापितं च ॥ शुभं भवतु ॥
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No. 61. Agamikavastuvicharasaraprakarana (with a Commentary), by JINA VALLABH ASURI [आगमिकवस्तुविचारसारप्रकरणं सविवरणम् । मू० जिनवल्लभसूरिः]. ___Begins : ॥ ६० ॥ नमः सर्वज्ञाय ॥ आगमिकवस्तुगोचरविचारसारप्रकरणपदजातम् । किंचित्किंचिद्विवृणोमि ततहितां भारती स्मृत्वा ॥ १ ॥
Ends:
पठित्वा परावर्तयंति । परावर्तनप्रसादेन प्रशस्य राजानं नीतिश्रवणादीनामेवं क्रमः ॥ इत्यागमिकवस्तुविचारसारप्रकरणविवरणम् ॥
No. 62. A Manuscript containing, 1. Aloyanavihana [आलोयणाविहाणं ], 2. Panchapramanipanchasika, by KAKUDASURI [ पंचप्रमाणीपचाशिका-ककुदसूरि:].
Both incomplete.
Aloyanavihana ends : इय एवंविहमरणं सरणं सन्नाणं इक्खतत्ताणं । पार्विति परमकल्लाणकारणं नेव निप्पुन्ना ॥ ८४ ॥ आलोयणाविहाणं सम्मत्तं ॥
Panchapramanipanchasika ends : पंचपमाणपिगरणमयं सिरिककुयसरिणा रइयं ।
आगमजुत्तीसिद्धं सिद्धंतविऊ वियाणंति ॥ ४३ ।। इति पंचप्रमाणीपंचाशिका श्रीककुदसूरिरचिता समाप्तेति ॥ श्रीऊकेशगच्छे सुचिंतितगोत्रे श्रे० जसणागपुत्रराजदेवेन पितृमातृश्रेयसे B669-14
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EXTRACTS FROM MANUSCRIPTS दसवैकालिकसूत्रं पंचप्रमाणीपंचाशिका लिखापिता। श्रीसिद्धसूरिगुरूणां प्रदत्ता च
No. 63. A Manuscript containing, 1. Upadesamala, by DHARMA DASA [उपदेशमाला-धर्मदासः], 2. Bhavabhavana, by HEMACHANDRA [भवभावना], 3. Mulasuddhiprakarana, by PRADYUMNASURI [ मूलशुद्धिप्रक
रणम्-प्रद्युम्न सूरिः], 4. Aradhanaprakarana [आराधनाप्रकरणम् ], 5. Chaityavandana [चैत्यवंदनम् ], .. 6. Aurapachchakhana [ आउरपञ्चखाण ]. 7. Jivopalambhaprakarana. [ जीवोपालंभप्रकरणम् ], 8. Jivavibhatti, by JINACHANDRA [जविविभत्ती-जिणचंद], 9. Chausarana [चउसरणं], 10. Parigrahapramana (part of a Dharmakalpadruma
परिग्रहप्रमाणम्], 11. Agamikavastuvicharasara, by JINAVALLA.BHA [आगमि
कवस्तुविचारसारप्रकरणम्-जिनवल्लभः], 12. Dharmavisesha [धर्मविशेषः].
Leaves 1 to 174 ; 13 inches long, 1 inch broad. Dated Samvat 1186 = A. D. 1130.
Jivopalambhaprakarana begins : धम्मोवएसजुत्तं उवलंभं जीव तुझ दाहामि । थेवपि तए न रुसियव्वं यं भावर्ड सुणेसु ॥ १॥
Jivopalambhaprakarana ends : इय सोउं जीव तुमं नेमिकुमारस्स भासियं कुणसु जेणुवलंभं न लहास गच्छसि पुण सासयं टाणं ॥ २६ ॥ जीवोपालंभः समाप्तः ॥
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Jivavibhatti begins : नमिऊण चलणजुयलं चीरजिणिंदस्स लोगनाहस्स । वोच्छं जीवविभत्ती मंदमइविबोहणटाण ॥ १ ॥ . Jivavibhatti ends : एसा जीवविभत्ती रइया संखेवर्ड मुणिगणाणं । गणिणा जिणचंदेणं कम्मक्खयमिच्छमाणेणं ॥ २५ ॥ जीवविभत्ती सम्मत्ता ॥
Parigrahapramana begins : पणमिय परमपयत्थं नयसुरसत्थं सुदिटुपरमत्थं । वीरं वीरं संमं गिहीणं धमं पवक्खामि ॥ १ ॥ तस्स यमलं सम्मं संमत्तं देसियं जिणिदेहि । तं देवसुगुरुसिद्धंततत्तं पवत्तिरूवंति ॥२॥ तत्थ य॥ निक्कंदियभवकंदो पडिबोहियसयलभवअरविंदो।
Parigrahapramana ends : सुहु परिणइ थीर्ड भावणावारिपूरो लसदणुवयखंधो सुद्धसंमत्तमूलो। बहुविहगुणसालो धम्मकप्पडुमो मे सिवसुहफलमेसो देउ सिग्धंतु विग्वं ॥ ८२॥ सिरिसीलभद्दमुणिवइविणेयसिरिधम्मघोससूरीण । पयमूलंमि पवन्नो व धवलसट्रेण गिहिधम्मो ॥ ८३ ॥ एक्कारससु सएसुं छासीउं समहिएसु वरिसाणं । मगशिरपंचमिसोमे लिहिया मिणं परिगहपमाणं ॥ ८४ ॥ ॥ परिग्गहपरिमाणं सम्मत्तं ॥
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संवत् ११८६ मार्गसिरवदि सोमे लिखितमिति ॥
Agamikavastuvicharasara ends : जिणवल्लहोवणीयं जिणवयणामयसमुद्दविंदुमिमं । हियकंखिणो बुहजणो निसुणंतु गुणंतु जाणंतु ॥ ८६ ॥ इत्यागमिकवस्तुविचारसारप्रकरणं समाप्तमिति ॥
Dharmavisesha begins : ओं नमः सर्वज्ञाय ॥ नमिऊण जिणं जगजीवबंधवं धम्मकणयकसवढं । वोच्छं धम्मविसेसं धम्ममईणं समासेण ॥ १॥
Dharmavisesha ends : सयंपभे देवदुंदुभिनिनाए सग्गेसु चिरं वसिर्छ । सुचरियचरणो चरह धम्म ॥ ८२ ॥ ---
No. 64. Jinadattachariya [जिगदत्तचरियं ]. Leaves 1 to 28.
Begins : नमिऊण चलणजुयलं असुरासुरखयरवंदियचलणं । सुरइंदरइयपूयं मिच्छत्तविणासणं पवरं ॥ तह गणहर आयरिए वरउवज्झाए साहुणो नमंसित्ता । वाच्छं दाणास्स फलं पुव्वायरि---- न्नो अडवि व दरि गुहं समुदं वा। नंदति तहिन्न हिंसा जिणदत्तो जह य कयपुन्नो। तत्थ को सो जिणदत्तो ॥ अस्थिअवंती नाम जणवउ गर्ड सुरलोयं पारंपरेण निव्वाणंति गउ जिण--------
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No. 65. Naganandanataka, by SRIHARSHA [नागानन्दनाटकम्श्रीहर्षः]. ___Leaves 1 to 12; 12 inches long ,1] inches broad. Dated Samvat 1258=A. D. 1202.
Ends: समाप्तं चेदं नागानंदनाम नाटकम् ।।
संवत् १२९८ वर्षे श्रीमदणहिलपाटके मुनिचंद्रेण लोकानंदयोग्या पुस्तिका लिखिता ॥ शुभं भवतु ॥ मंगलं महाश्रीः ।।
No- 66. Oghaniryukti [ओघनियुक्तिः]. Leaves 1 to 91 ; 12 inches long, 14 inches broad. Dated Samvat 1181 = A. D. 1125.
Begins: अरहंते वंदित्ता चोद्दसपुवी तहेव दसपुवी।
Ends : एकारसहिं सयेहिं अटूहिं आहएहि सग्मत्ता ॥
ग्रंथाग्रं प्रत्येकांकतः ॥ गाथाः ॥ संवत् ११८१ ज्येष्ठवदि १३ शनी मुनिचंद्रसाधुना लिखितेति ।।
No. 67. Kalpasutra and Kalikacharyakatha [कल्पसूत्रं कालिकाचार्यकथा च].
Leaves 1 to 143; 13 inches long, inches broad. Dated Samvat 1344=A. D. 1288.
Ends: अद्य गुरुक्रमः ॥ श्रीराजगच्छमुकुटोपमशीलभद्रसूरोविनेयतिलकः किल धर्मसूरिः । दुर्वादिगर्वभरसिंधुरसिंहनादः श्रीविग्रहक्षितिपतेर्दलितप्रमादः ॥ १८ ॥
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EXTRACTS FROM MANUSCRIPTS आनंदमूरिशिष्यश्रीअमरप्रभसूरितः। श्रुत्वोपदेशं कल्पस्य पुस्तिकां नूतनामिमाम् ॥ १९ ॥ उद्यमात् सोमसिंहस्य स पुण्यः पुण्यहेतवे । अलेखयच्छुभायैषां निजमातुगुणाश्रियः ॥ २० ॥ यावच्चिरं धर्मधराधिराजः सेवाकृतां सुकृतिनां वितनोति लक्ष्मीम् । मुनींद्रदैविहिताभिमाना तावन्मुदं यच्छतु पुस्तिकासौ २१ ॥ . संवत् १३४४ वर्षे मार्ग० शुदि २ रवौ सोमसिंहेन लिखापिता ॥
HEHACHANDRA
No. 68. Sabdanusasanalaghuvritti, by [शब्दानुशासनलघुवृत्तिः-हेमचन्द्रः]. Dated Samvat 1370 = A. D. 1314.
Ends:
इत्याचार्यश्रीहेमचंद्रविरचितायां सिद्धहेमचंद्राभिधानस्वोपज्ञशब्दानुशानलघुवृत्तौ पंचमस्याध्यायस्य चतुर्थः पादः समाप्तः ॥ मंगलं महाश्रीः । क्षुण्णाः क्षोणिभृतामनेन कटका भग्नाथ धारा ततः कुंठः सिद्धपतेः कृपाण इति रे मामसत क्षत्रिय । आरुढप्रबलप्रतापदहनः संप्राप्तधाराश्चरात्पीत्वा मालवयोषिदश्रुसलिलं हंतायमेधिष्यते ॥ १ ॥ यादृशं पुस्तके दृष्टं तादृशं लिखितं मया ॥ सं० १३७० आश्विनवदि ४ स्तंभतीर्थे पूज्यश्रीरत्नाकरसूरीणामादेशेन ले, - सागरेण पुस्तिका लिषिता ग्रंथाग्रं ॥ ४०० ।।
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No. 69. A. Manuscript containing', 1. Atmabodhakulaka [आत्मबोधकुलकम ], 2. Dharmadharmaprakarana [धर्माधर्मप्रकरणम् ] .
Atmabodhakulaka begins : संसारांम असारे नत्थि सुहं वाहिवेयणापउरे । जाणंतो इह जीवो न कुणइ जिणदसियं धम्मं ॥ १ ॥
Ends: इय जाणिऊण एयं धम्माइत्ताई सव्वकज्जाइं। ता तह करिज्ज तुरियं जह सिद्धिं पावसे अयरा ॥ २ ॥
Dharmadharna prakarana begins : अह जण निसुणिज्जउ कन्नु धरिजउ धन्माधम्मविचारफुडु। . जिव जाणिउ जिणपहुमिहिउ कुष्पहुपावउ सिवसुह अमयफुडु ॥ १ ॥
Ends: एवंजाणेविण मग्गुलएविणु कायव्वं भो अप्पाहउ । आगमअणुसारिहिं जिणपहसूरिहिं धमाधम्मविचारकिउ ॥ १८ ॥
No. 70. Jivadayaprakarana [ जीवदयाप्रकरणम् ].
It is the last of a collection of well known prakaranas contained in a manuscript of 187 leaves ; 15 inches long, 2 inches broad.
Begins : मिच्छत्तमोहपासं पसरियविमलोरु केवलपयासं । पणयजणपरियासं पयण पणमित्तु जिणपासं ॥ १ ॥
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112 EXTRACTS FROM MANUSCRIPTS वोछामि जीवमगणगुणटाणुवउगजो गलेसाई । संसयतिमिरपयंगं भवियाण कुमुयपुन्निमाइंदं । काममइदमइंदं जगजीवहियं जिणं नमिउं ॥ १ ॥ पंचमहव्वयं गुरुभारधारण पंचसमिए तिगुत्ते । नमिऊण सयलसमणे जीवदयापगरणं वोच्छं ॥ २ ॥
Ends : जं कल्ले कायव्वं अज्जं चिय तं करेह तुरमाणो । बहुविग्यो य मुहुत्तो मा अवरह्न पडिक्खेह ॥ ११३ ।। जीवदयापगरणं सम्मत्तं ॥
No. 71. Pratikramanasutrachurni [ प्रतिक्रमणसूत्रचूर्णिः ] . Dated Samvat 1178 = A. D. 1122,
Ends : केसु पुण टाणेसु इरिया वहियापाडिक्कमणं भवइ । उच्यते।। उच्चारं पासवणं भूमीए वोसिरित्तुउवउतो। ऊसरि - - - - - पडिक्कमइ । एवं सुवुट्ठियाई सु-वि इरिया पडिक्कमणं - - - - - ग्रं० १५० ॥ संवत् ११६८ कार्तिकशुदि - - - - - -
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113.
No. 72. Dharmavidhi, by SRIPRABHASURJ; with the Commentary of UDAYASINHA [ धर्मविधिः-सटीकः-मू० श्रीप्रभसूरिः टी उदयसिंहः].
___Leaves 1 to 93 ; 13 inches long, 5 inches broad. Dated Samvat 1418 = A. D. 1362. This manuscript is written on clotk. The four manuscripts which follow, and with which my extracts from the larger of the two bhandars in the Pophlianopado end, are written on paper, cut into long slips to resemble palmleaves. With No 77 begins a Series of extracts from palm-leaf manuscripts in the Smaller Pophliano-pado bhandar.
Commentary begins : नमः श्रीसर्वज्ञाय ॥ जयति जगदभयहेतुः स श्रीवीरः पराक्रमाभ्यधिकः । यस्याद्भुतसरलतया विततगणः स्फुरति धर्मविधिः ॥ १ ॥ हतजा इयतमा रविवद्विपुलमहाविश्वबोधकात्मानः । ददतामनुदिनमुदयं नाभेयोऽन्येपि तीर्थेशाः ॥ २ ॥ सा जीयाज्जैनी गौः सद्धर्मोलंकृतिर्नवरसाढ्या । त्रिपदान्वितयापि यया भुवनत्रयगोचरोऽव्यापि ।। ३ ।। श्रीगौतमादिगुरवो हंसा इव चरणरागसुगतिभृतः । कृतसन्मानसवासा विशुद्धपक्षा मुदं दद्युः ॥ ४ ॥ शून्येन मादृशापि हि येषामेकस्वरूपिणां पुरतः । आधिकमलभ्यत गणमा नमोऽस्तु तेभ्यो निजगुरुभ्यः ॥ ५ ॥ स्तुत्वाभीष्टानेवं श्रीश्रीप्रभसूरिभिर्विरचितस्य ।
श्रीधर्मविधेवृतिं गुरूपदेशात्करिष्येऽहम् ॥ ६ ॥ • कृत्यविधाव(न)भिज्ञः शिशुरिव गुरु कार्यवृत्तिकृतचित्तः । क्वचित्पदे स्खलितोपि स्थाप्यः सद्भिर्न हास्योऽहम् ॥ ७ ॥
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EXTRACTS FROM MANUSCRIPTS
यच्चायुक्तार्थमहं मुग्धमतिर्वच्मि किंचिदप्यत्र । पुत्रापराधवत्तद्विबुधैर्मम सह्यतां सर्वम् ॥ ८ ॥ सज्जनमुदेऽत्र सूक्तं यच्चान्यद्दुष्टतुष्टये तदपि । द्वेधापि परोपकृतेर्मम श्रमः सफल एवासौ ॥ ९ ॥ यद्याह परो वायसदशनपरीक्षेव निरभिधेयमिदम् । अपिचाप्रयोजनं खलु कंटकशाखोपमर्द्दनवत् ॥ १० ॥ दश दाडिमानि पूपाः षडिति वचोवत्तथा न संबद्धम् । इत्यादिहेतुनिवहस्यासिद्धत्वप्रकटनाय ॥ ११ ॥ प्रेक्षावतां प्रवृत्यै शास्त्रादावादिमंगलार्थं च । प्रकरणकारः प्रथमं गाथामेकामिमामाह || १२ ॥ Text begins :
नमिऊण वद्धमाणं तियसिंदन रिंदविहियवहुमाणं । बुच्छं सपरहियत्थं धम्मविहिमहं समासेण ॥ १ ॥
व्याख्या ॥
सांप्रतं ग्रंथकारो धर्मविधिविधायिनां शास्वतफलावापल्या ग्रंथसमार्ति
कुर्वन्नाह—
एयं सिरिधम्मवििार्हं ।सरिसिरिपहसूरिणा समाइउं । जं आयरंति सम्मं लहंति ते सासयसुहीइं ॥
श्रीधर्मविधिं श्रीश्रीप्रभसूरिनाम्ना आचार्येण समुपदिष्टं ये भव्या आचरंति सम्यक् ते लभंते शास्वत सुखानीति गाथार्थः ॥
इति विवृतं धर्म्मविधेः श्रीश्रीप्रभसारोभिः कृतं सूत्रम् । अथवास्य वृत्तिकारः स्वगुरुक्रममाह संक्षेपात् ॥ १ ॥ श्रीचंद्रगच्छकमला कंठालंकारतारहारनिभः । श्रीसर्वदेव सूरिभूरिगुणो भूर्द्धवि ख्यातः ॥ २ ॥
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PRESERVED AT ANHILWAD PATAN. तत्पट्टनभास युगपल्लब्धोदयौ परोपकृतिकुशलौ । नव्यौ रविचंद्राविव विदितौ शिष्यावजनिषाताम् ॥ ३ ॥ तत्रैकोभिनवरविः श्रीश्रीप्रभसूरिरहतगुरुतेजाः । कुवलयविबोधहेतु. सदाप्यंनस्तमितमहिमा च ॥ ४ ॥ विमलसदासुवृत्तो द्योतितपक्षद्वयस्त्यक्तदोषः । श्रीसोमप्रभसूरिनवीनः सोमप्रभश्चान्यः ॥ ६॥ तत्र श्रीप्रभसूरिः श्रुतोदवेरमृतमिव समुद्भूत्य । श्रीधर्मविधेः सूत्रं सवृत्तिकं सूत्रयामास ॥ ६ ॥ तदनुस्फुटार्थवत्पपि सुराक्षिताप्यस्य भूधनस्येव । वृत्तिर्जगाम शिखि३शर भास्कर १२मितवर्षजे भंगम् ॥ ७ ॥ अथ तस्य श्रीप्रभसूरेः शिष्याश्चतुर्दिशं विदिताः । समधिगतचतुर्विद्या अमी बभूवुश्चतुःसंख्याः ॥ ८ ॥ श्रीभुवनरत्नसूरिः श्रीनेमिप्रभमुनीश्वरस्तदनु । श्रीमन्माणिक्यप्रभसरिर्महीचंद्रसूरिश्च ॥ ९ ॥ दीक्षागुरुराद्यतमो यस्याभून्मातुलो द्वितीयस्तु । शिक्षागुरुस्तृतीयः पदप्रतिष्ठागुरुस्तुर्यः ॥ १० ॥ स श्रीमाणिक्यप्रभगुरु सेवी स्वगुरुबंधुसंमत्या । आचार्य उदयसिंहश्चक्रे श्रीधर्मविधिवृत्तिम् ॥ ११ ॥ श्रीमत्पूज्यरविप्रभमुनिपतिपदकमलमंडनमरालः । वृत्तिमशोधयदेनां महाकविविनयचंद्राख्यः । सद्वत्तिकुमुदिनीय विचकासे विमलचंद्रसाहाय्यात् ॥ १२ ॥ चंद्रावतीनगर्यां तन्दवा श्रेष्ठिसोमदेवस्य । प्रथमप्रतिमप्रतिमामिह राजीमत्यलीलिखत ॥ १३ ॥
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यत्सिद्धांतविरुद्धं भणितमशुद्धं च मुग्धबुद्धित्वात् । तच्छोधयंतु विबुधा अववार्य व्याधिमित्र वैद्यः ॥ १४ ॥ तस्मै नमः स्वगुरवे यद्योगान्निप्रभः प्रभाढ्योहम् । काचोष्युपौत माणतां यन्माणिक्यप्रभाश्लेषात् ॥ १५ ॥ या शासनपुष्टिपरा जननीवद्रव्यसंतात पाति । सा श्रीशासनदेवी शिवतातिर्भवतु संघस्य ।। १६ । रस६मंगल(सूर्यमिते १२ वर्षे श्रीविक्रमादतिक्रांते । चक्रे चंद्रावत्यां वृत्तिरियं संघसान्निध्यात् ॥ १७ ॥ ग्रंथप्रमाणमत्र प्रत्यक्षरगणनया विनिश्चिये । पंचसहस्त्राण्यस्यां विंशत्यधिका च पंचशती ॥ १८ ॥
श्रीधर्मविधेः सूत्रं विवृण्वतावापि यन्मया पुण्यम् । तेन जिनधर्म करणे सदोद्यतो भवतु भव्यजनः ॥ १९ ॥ इति कुवलयबोधक जनशस्या निर्मला विधुकलेव ।
धर्म्मविधेर्वृत्तिरियं लभतां शाश्वतिकमित उदयम् || ६०३ ।।
इति श्रोउदयसिंहाचार्यविरचिता उदयांकाष्टद्वारा श्रीधर्म्मविधिवत्तिः समाप्ता ॥ ग्रंथाग्रं ५५२० ॥
संवत् १४१८ वर्षे वीबाग्रामे श्रीनरचंद्रसूरीणां शिष्येण श्रीरत्नप्रभसूरीणां बांधवेन पंडितगुणभद्रेण कच्छली श्री पार्श्वनाथगोष्ठिकलींबाभार्यागउरीतत्पुत्रश्रावकजसाडूंगरतद्भगिनीश्राविकावी झीतील्हीप्रभृत्येषां साहाय्येन प्रभुश्रीश्रीप्रभसूरिविरचितं धर्म्मविधिप्रकरणं श्रीउदयसिंहरिविरचितां वृत्ति श्री - धर्मविधिग्रंथस्य कार्त्तिकवदि दशनीदिने गुरुवारे दिवसपाश्चात्यघाटकाद्वयसमये स्वपितृमात्रोः श्रेयसे श्रीधर्म्मविधिग्रंथमलिक्त् ॥
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No. 73. Prithvichandracharitra, by SANTYACHARYA [ पुहइचंदचरियं- शान्त्याचार्यः].
Leaves 1 to 143. Dated Samvat 1515 = A. D. 1455.
PRESERVED AT ANHILWAD PATAN.
Begins:
नमो श्रीजैनवचसे ॥
वंदे कुवलयभूसणमणुन्नसाउदयं विसालत्थं । विब्भमरहियं माणससरं व पढमं जिणं पढमं ॥ १ ॥ विद्यमवणसोणतलं फुरंतकरिमयरमीण संखकं । प्रणमामि सारं सारं व वीरस्स कमकमलं ॥ २ ॥ हयमोहघणतमोहा निम्मलमेहाविराइपडमोहा । सेसावि हुंतु जइणो जिणवयणो दिवसवइणो व्व ॥ ३ ॥ सिवपयसरवरहंसे पहीणनीसेसपुण्णपार्श्वसे ।
केवलकरनियरिद्धे पणमह सिद्धे सुहसमिद्धे ॥ ४ ॥ मुणिमहुयरोंहँ जासें पिज्जइ मुहकमलवणमयरंदे । सुयनाणनीरभरीए ते सूरि महद्दहे बंदे || १ || कटुट्टियपुगे पाढयकप्पदु मेडियाणंगे । जाए म उवज्झाए अभीण्णब्भप्पसजाए ॥ ६ ॥ पंचमहवयवयण तबदाणदलिय कन्ममयजूहे । सब्भायनायपूरियदियंतरे नमह मुणिसाहे ॥ ७ ॥ पणमह सुवण्णरयणालंकारविचित्तरूवयसणाहं । सयलसुहसिद्धिजणयं सिद्धंतमहानिही सययं ॥ ८ ॥ जयइ सरईदुधवला गंगवु सरस्सई सया जत्थ । पिज्जंतंपि न ब्भिज्जइ सुयसलिलं बिउसहंसोहं ॥ ९ ॥
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जन्नाणधणलवेण वि ववहरमाणा(स)यं मइदरिदा । करिमो परोवयारं तेसि नमो गुरुधणेसाणं ।। १० ।। सोऊण जउत्तीउ वोत्तु अन्हेवि किंपि जाणामो । भदं सुहुममईणं पुवकईणं हवउ तेसि ॥ ११ ॥ नमिउं नमंसणिजे अन्नेवि महायसे महासत्ते । बोछामि पत्थभूयं धम्मकहं भवजंतूणं ।। १२ ।। पुरिसत्थपायवाणं सवेसिमवंज्जबीय भूउत्ति । (ध) मो चेव पसय्थो पुरिसत्थो एत्थ विन्नेउ ॥ १३ ॥ भणियं च । धम्मेण धणमनंतं धम्मेण नरामरिंदवरकामा । मोक्खोवि धुवं धम्मा लब्भइ ता उत्तमो धम्मो ॥ १४ ॥ चं(दो)गहाणं मेरू धराण चिंतामणी मणिगणाण । जह तह जिणवरधम्मो सिरोमणी सवृधम्माण ॥ १६ ॥ दुरियं हरेइ वियरेइ सुहसए तुरियमेव भवाणं । सुच्च (इ)- - कीरंतो साहिप्पंतो य धुवमेसा ॥ १६ ॥ ता जुत्ता एय कहा ससत्तिर्ड हंत बुद्धिमंताणं । एय सवणं च निचं कनिच्चमेत्तो वरं जेण ॥ १७ ॥ तवसंवेगाऽमयरसवसविय- - -तविसयविससंगो । मुत्तिसुहंपि व पत्तो परमाणंदं लइइ सो राया ।। १८ ॥ धम्मकहच्चिय एसा पाहन्नेणं पसंगऊ नवरं । कामत्थगोयरं पिहु भणियवं किंपि परवयणा ॥ १९ ॥ अलमेत्थ वित्थरेणं भो भो सुयणा सुणेह धम्मग । चरियं सुचरियरम्मं महरिसिणो पुहइचदस्स ॥ २० ॥
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Ends:
इय पुहइचंदमहरिसिचरियं संवेगदिवुरसभरियं । मंदमइहियं कहियं फुडक्खरं थे[थो]वगंथेण ॥ एत्तो च्चिय कुथिधम्मो अप्पो अप्पो य वन्नई एत्थ । अइबहुयं न कहंगं तेहि वला वित्थरमुवेइ ॥ . विविहो कहारम्मं साहिय गुरुभत्तिसारजइ(सं)मं । सोयवमिणं समं दुलहं लहिऊण नरजन्मं ॥ केई गज्जपिया जयम्मि पुरिसा अन्नवि पज्जत्थिणो केई भंगसिले सयं गुरमणा अन्नेवि तक्कोडिणो । सवेसिपि अणुग्गहाय रइयं संखेववित्थारर्ड एयं चित्तरसं पसत्थचरियं दोण्हं मुणीणं मए ॥ आसी कुंदेंढसुद्धे विउलससिकुले चारुचारित्तपत्तं सूरी सेयंवराणं नरतिलयसमो सवदेवाभिहाणो । नाणासूरिप्पसाहापहियसुमहिमो कप्प - - व गच्छो जाउं जुत्तो पवित्तो गुणमुरसफलो सुम्पसिद्धो जयम्मि ।। तेसिं चासी सुयजलनिही खंतदन्तोपसन्तो(माया) वी सोऽमियगुणगणो नेमिचंदो मुणिंदो । जो विक्खाउँ पुहइवलए उग्गचारी विहारी मन्ने नो से मिहिरससिणो तेयकंतीहि तुल्ला ।। तेसिं व सीसो पयईजडप्पा अदिटुपुविल्लविसिटुसत्थो । परोवयारेकरसाविपज्जो जाऊ निसग्गेण कइत्तकोट्टी ॥ जो सवदेवमुणिपुंगवदिक्खिएहिं साहित्ततर्कसमएस सुसिक्खिएहिं । संपाविर्ड वरपयं सिरनोमचंदो पुज्जेहि पक्खमुवगम्म गुणेसु भूरि ॥
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- - - - - - - - सिरिसंतिसूरिणा तेण । वजरियं वरचरियं मुणिचंदविणेयवयणार्छ । जइ किंचि अजुत्तं वुत्तमेत्थ मइजडरहसवि- - - - - - - - एसो हेयवं छइल्लेहिं । इगतीसाहियसोलससएहि वासाण निव्वुए वीरे । कतियचरमतिहीए कित्तियरिक्खे परिसमत्तं ॥ जयइ पयइसुटुं अंगुलीवंतवंतं सहयसुहयगंधं भवभिंगोहजुटुं । वियसियममिलाणं पावपंकंकमुक्कं कयजयसरसोहं वीरपायारविंदं ॥ पृथ्वीचंद्रचरितस्यैकादशं भवग्रहणं समाप्तम् ॥ ५७७ ॥ गंथसिलोगपमाणं सत्तसस्साई पंचयसयाई । इह पुहइचंदचरिए विणिच्छियं पायसो गणि(यं)॥ सर्वाग्रं ग्रंथतः ॥ ७९०० ।। मंगलं ॥ समाप्तं चेदं पृथ्वीचंद्रमहर्षिचरितम् ॥
कृतिः श्वेतांबारचार्यवर्याणां श्रीशांत्याचार्याणामिति ॥ स्वस्ति संवत् १९१५ वर्षे आसोमासे शुक्लपक्षे पंचमीगुरौ श्रीमंडपढुर्गवास्तव्यश्रीश्रीमालीज्ञातीयसाहराजाभार्या श्राविकाधारू उत साहनाथाभार्या लाखू तया स्व श्रेयसे भर्तुः श्रेयसे च श्रुतज्ञानाराधनाय पूर्वलेखितश्रीदशवैकालिकवृत्तिभक्तामरवृत्तिअजितशांतिस्तोत्रवृत्तिनाममालासिंदूरप्रकरकर्मग्रंथषटूवीतरागस्तोत्रवि - शत्युपदेशरत्नकोशशीलोपदेशमालासंग्रहिणीव्याकरणसूत्रप्रभृतिबहुग्रंथसमया श्रीपृथ्वीचंद्रचरित्रं प्राकृतं टिप्पनकसहितं लेखयित्वा वृद्धतपापक्षगच्छनायकभट्टारकीरत्नसिंहमूरिशिष्य श्रीउदयवल्लभसूरिश्रीज्ञानसागरसूरिभ्यो वाचनाय प्रदत्तम् ॥
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PRESERVED AT ANHILWAD PATAN. सूर्याचंद्रमसौ यावद् द्योतयेते महीतलम् । जयतात्पुस्तकं तावद्वाच्यमानं मुनिवजैः ॥ १ ।।
'_No. 74. Santinathacharitra, by AJITAPRABHAS URI | शान्तना - थनरित्रम्-अजितप्रभसूरिः].
Ends: . इत्याचार्यश्रीअजितप्रभसूरिविरचित्ते द्वादशभववर्णनो नाम षष्ठः प्रस्तावः।। श्रीशांतिनाथचरित्रं समाप्तम् ॥ . श्रीजंबुप्रभवौ सुधर्मगणभृच्छिष्यावभूतां पुरा श्रीशय्यंभवनामको भुन्नि यशोभद्रस्ततो विश्रुतः । संभूतः प्रभुभद्रबाहुरभवच्छीस्थूलभद्रस्ततो जाता आर्यमहागिरिप्रभृतयः श्रीवत्सरिस्तथा ॥ १ ॥ श्रीवज्रसेनाख्यगुरोः प्रवृत्ताः शाखाश्चतस्रः सुतरोरिवोाम् । तासां च मध्ये वरचंद्रशाखा विशेषतः शिष्यफलान्विताऽभूत् ।। २ ।। मिथ्यात्वकुंभिविजये सिंहबच्चारुविक्रमः । श्रीमद्विजयसिंहाख्यस्तत्रमूरिवरोऽभवत् ॥ ३ ॥ चंद्रावत्यो नवगृहे स चैत्ये निवसन्नपि । ' जज्ञे चारित्रपूतात्मा विद्याशक्तिसमन्वितः ॥ ४ ॥ रम्योपदेशमालाया वृत्तेाख्यां प्रकुर्वतः। . विरागाच्चैत्यवासस्य तस्याभूत् शुभचेतसः ॥ ५॥ . श्रीचंद्रप्रभसूरीणां समीपे सोऽवसद्गुरुः । ..... आगमोक्तक्रियां कर्तुं पूर्णिमापक्षमाश्रितः ॥ ६॥ तस्य श्रीविजयसिंहसूरेः शिष्योऽभवद्वरः । भुवि ख्यातोऽभयदेवरिः साधुक्रियापरः ॥ ७ ॥
B669-16
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तादृशि कलिकालेऽपि विदधे तेन सत्क्रिया । यथा देवागमस्तस्य पंचवे समजायत ॥ ८ ॥ ताच्छष्यः सत्कलापात्रं राकापक्षकृतोदयः । श्रीचंद्रसूरिरित्यासीच्छ्रीचंद्र सदृशी भुवि ॥ ९ ॥ तस्य शिष्यो गिरामीशो नित्यं सुखविहारभृत् । श्रीदेवसूरिनामाऽभूत् देवसरिरिवावनौ ॥ १० ॥ देवसरिगुरोः शिष्या विख्याताः पृथिवीतले । जयंति गुरवः श्रीमत्तिलकप्रभसूरयः ॥ ११ ॥ सुभाषितावली रम्या यैश्चक्रे सुकविप्रिया । . विदधे नीतिशास्त्रं च चाणक्यभिव नूतनम् ॥ १२ ॥ ' स्तुतिस्तोत्रादिरचना विचित्रा विहिता यः । दीक्षिता पाठिताश्चापि यैरनेके च साधवः ॥ १३ ॥ तैराचार्यपदे स्वीयौ सुशिष्यौ विनिवेशितौ । गुरुच्छासो भारकर्षणे धुर्याविव ॥ १४ ॥ मोहराजचमुर्येन सबला लीलया जिता । स श्री वीरप्रभः सूरिराद्यो ऽनेकगुणास्पदम् ॥ ११ ॥ स्वकीयप्रभया भव्यचकोरानंददायकः । यथार्थनामा श्रीसोमप्रभसूरिर्द्वितीयकः ॥ १६ ॥ श्रीवीरप्रभसूरीणां तेषां शिष्यलवो ऽस्म्यहम् । सविशेषकलाभ्यासं बृहत्पूज्यैश्च कारितः ॥ १७ ॥ श्रीवीरप्रभसूरीणां पदे ऽहं स्थापितोस्ग्यहम् । कृत्वा प्रसादं पूज्यैः श्रीतिलकप्रभसूरिभिः ॥ १८ ॥ भावनासारसच्छास्त्रं सामान्येन कृतं मया । इह सूरिपदस्थेन श्रीशांतेश्चरितं तथा ॥ १९ ॥
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'छंदोऽलंकारहीनं च यच्च लक्षणदूषितम् । रभसादज्ञानतोवा किंचनात्र विनिम्मितम् ॥ २०॥ तत्सर्वं कोविंदैरहेगुरुभिश्च शुभाशयैः । संशोधनीयं यत्नेन विधायानुग्रहं मयि ॥ २१ ।। युग्मम् ।। ॥ ग्रंथाग्रं ॥ ९०११॥ त्रयोदशाष्टशतेष्वतिक्रांतेषु विक्रमात् । . वर्षे सप्तोत्तरे वैशाखस्य पक्षे च निर्मले ॥ २२ ॥ - - -
संवत् १३८४ वर्षे श्रावणशुदि द्वितीयायां शनौ श्रीशांतिनाथचरितं श्रीनरदेवसरीणां शिष्येण क्षु०धर्मेण लिखितम् ॥
_No. 75. Upadesamalavritti, by RATNAPRABHA [उपदेशमालावृत्तिः-रत्नप्रभः].
Leaves 1 to 247. Dated Samvat 1894 = A. D. 1838. इति रत्नप्रभसरिविरचितायां दशम - - - - चतुर्थो विश्रामः ।। ६ १३ ।। नानारूपनरोत्तमैकवसतिनीरोगतासंततिः पातालं. परितः स्फुरन्निह बृहद्गच्छोऽस्ति - - - - । स श्रीम - - बुधरिष गुरुस्तत्राभवद्भरिभिः . शाखाभिर्भुवि यः प्रयागवटवद्विस्तारमुद्रामगात् ।। साहित्यतर्कागमलक्षणेषु यद्ग्रंथवीथीकविकामधेनुः । । कस्योपकारं न चकार सम्यक् निःशेवदेशेषु च यद्विहारः ॥ शिष्यः श्रीमुनिचंद्रसुरिगुरुभिर्गीतार्थचूडामणिः पट्टे स्वे विनिवेशितस्तदनु स श्रीदेवसूरिः प्रभुः ।। जयसिंघदेवनपते - - - - - - - - - स्त्रीनिर्वाणसमर्थनेन विजयस्तंभः समुत्तंभितः ।।
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तत्पट्टप्रभवोऽभवन्नवगुणग्रामाभिरामोदयाः । श्रीभद्रेश्वरसूरय - - - - स्तन्मानसप्रीतये । श्रीरत्नप्रभसूरिभिः शुभकते श्रीदेवरिप्रभोः शिष्यैः सेयमकारि सन्मदकृते वृत्तिविशेषार्थिनाम् ।। श्रीदेवमरिशिष्यभ्रातृणां विजयसेनसूरीणाम् । आदेशस्यानृणभावमगममेतावताहमिह ॥ यदियमुपदेशमाला श्रावकलोकस्य मूलसिद्धांतः।। प्रायेण - - - - - तदिहास्माभिः कृतो यत्नः ॥ व्याख्यातृचूडामणिसिद्धनाम्ना प्रायेण गाथार्थ इहाऽप्यधायि कचित्क्वचिच्चानु विशेषरेखा साढ़ेः स्वयं सा परिभावनीया ॥ यदिह किंचिदनागमिकं क्वचिद्विरचितं मतिमंदतया मया। तदखिलं सुधियः क्षमयामि वः कृतकृपाः परिशोधयतादरात् ।। प्राप्य परस्य च सूत्रावृत्तिविस्तारिताथवा स्वीया । मणिखंडमंडलैरिव सुवर्णपूजा जिनेंद्राणाम् ॥ प्रकृता समर्थिता च श्रीवीरजिनाग्रतो भृगुपुरे ऽसौ । अश्वावबोधतीर्थे श्रीसुव्रतपर्युपास्तिवशात् ।। संशोधिता तथा श्रीभद्रेश्वरमरिमुख्यविबुधवरैः । . पुनरपि कंटकशुद्धिः कार्या वः प्रार्थये सर्वान् ।। भास्वद्भास्करबिंबकांततिलकं प्रक्षिप्त - - कृतं निर्यन्नीलशिलातलांशुपटलीदारदर्वाङ्करम् । यावन्मेरुमहीभृतं प्रतिकरोत्यारात्रिकोत्तारणं । ताराभिर्युविलासिनी विजयतां तावन्नवैषा कृतिः ॥ विक्रमाद्वसुलोकार्क १२३८वर्षे माधे समर्थिता । एकादश सहस्राणि सार्द्ध पंचशतं तथा ॥ ११६९० ॥
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PRESERVED AT ANHILWAD PATAN... 125 संवत् १३९४ वर्षे कार्तिकसुदि प्रतिपदायां शुक्रे श्रीयुगादिचैत्यमंडिते मडवाडापामे श्रीउपदेशमालावृत्तिः सुगुरुश्रीसर्वदेवसूरिवाचनक्रियायोग्या पं०अभयकलसेन लिषिता ॥ शुभमस्तु ।।
No. 76. Gurustuti, by DHARMA PRABHASURI [गुरुस्तुतिः-धर्मप्रभसूरिः]. जज्ञे वीरजिनात्सुधर्मगणभृत्तस्माच्च जंबूस्ततः संख्यातेषु गतेषु मरिषु भुवि श्रीवज्रशाखाभवत् । तस्यां चंद्र कुलं मुनींद्रविपुलं तस्मिन् बृहद्गछता तत्राभूद्यशसा प्रसादितकुकुभ् श्रीसर्वदेवप्रभुः ॥ १ ॥ श्रीनेमिचंद्राभिधसूरिरस्मात् जज्ञे जगन्नेत्रचकोरचंद्रः। चारित्रलक्ष्मीललितांगहारः पौरोपचारोरुशुभानुकारः ॥ २ ॥ वादींद्रः कविपुंगवैकतिलकः साक्षात्रिलोकीसरःक्रोडक्रीडदशेषसजनमहो चारित्रचूडामणिः । नंद्यादद्भुतभाजनं स भगवान् श्रीशांतिसूरिप्रभुः पृथ्वीचंद्रचरित्रसत्रमकरोद्यो विश्वदत्तोत्सवः ॥ ३ ॥ .. श्रीमन्महेंद्रो विजयाख्यसिंहो देवेंद्रचंद्रः शुचिपद्मदेवः । श्रीपूर्णचंद्रो जयदेवसरिहेमप्रभो नाम जिनेश्वरश्च ॥ ४ ॥ सिद्धश्रावककारिते निरूपमे श्रीनेमिचये पुरा पूज्यैरष्टगणेश्वरा निजपदे संस्थापयांचक्रिरे । श्रीमपिप्पलगच्छनायकतया विज्ञाय होराबलं विख्याता भुवि शांतिपूरिगुरवः कुर्वतु वो मंगलम् ॥ ६ ॥ चक्रेश्वरी यस्य पुपोष पूजां सिद्धोऽभवद् यस्य गिरा नमस्यः । श्रीवृक्षगच्छांबरसप्तसाप्तः श्रीशांतिसूरिः सुगुरुर्बभूव ॥ ६ ॥
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EXTRACTS FROI MANUSCRIPTS
तदनु मदनहंता शासनोद्योतकारी जयति विजयासिंहः सूरिभूरिप्रतिष्ठः । सबलकलिविघातं संयमासिप्रहारैरकृत सुकृतपात्रं भव्यकोकैकभानुः ॥७॥ तत्पट्टपंकेरुहराजहंसः श्रीदेवभद्रो गुण मृत् रराज । उवास यः सज्जनमानसेषु निर्दूषणं खलितशुद्धपक्षः ॥ ८ ॥ तदंतरं निर्जितमोहमल्लः श्रीधर्मघोषः सुगुरुर्गरीयान् । संसारपूरेण तु नीयमानं ररक्ष यो धार्मिकलोकमेकम् ॥ ९॥ सञ्चंद्र सूर्याविव तस्य पट्टे बभूवतुर्दो जयिनौ गणेशौ । ' श्रीसीलभद्रः प्रथमः प्रवीणः सूरिस्ततः श्रीपरिपूर्णदेवः ॥ १० ॥ विजयसेनगुरुस्तदनंतरं विजयते वसुधातलमंडनः । निविडकर्मरिपून्समसायकैरपजहार विकारविरागवान् ॥ ११ ॥ भवत्रयं यो कलयांचकार ज्ञानोदधिगौतमवन्निजस्य । नरेंद्रसामंतसहस्रवंद्यः श्रीधर्मदेवो जयताद्गणेशः ॥ १२ ॥ - - - - - वृतस्य पक्षः चतुर्दशीपक्षविचारदक्षः । . समग्रसिद्धांतविलासवेदी श्रीधर्मचंद्रो जयताद्गणेशः ॥ १३ ॥ तत्पशैलेंद्रमृगेंद्रतुल्यः श्रीधरत्नः सुगुरुश्चकास्ति । महाव्रतैः पंचभिरेव योसौ पंचाननत्वं बिभरांबभूवे ॥ १४ ॥ तत्पट्टपूर्वगिरिराजपदप्रकाशी ज्ञानोदधिर्भविकसद्मशिरोविकाशी ॥ पापांधकारतरणिर्मददर्पहंता श्रीधर्मयुक्तिलकसूरिगुरुर्बभूव ॥ १६ ॥ ... तत्पढे श्रीधर्मसिंहः कविकरटमदारंभसंमेददक्षो मुख्यो मोक्षार्थिनां हृच्छमदमकरुणाराशिरासीत्स नूनम् ।। भूरिज्ञाने निवासी बुधजनमनसि प्राप्तवासः सदा यः सर्वज्ञाहत्प्रणामप्रणतहृदयः सद्गुरूपास्ति संस्थः ॥ १६ ॥ धर्मप्रधानः स च विश्वलोके धर्मप्रभः सूरिरितोदयः स्यात् । चिकित्सया यो क्रिययापि रोगान् बाह्यांतरंगान बहुशो निहति ॥ १७ ॥
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PRESERVED AT ANHILWAD PATAN. स्तुति गुरूणां सुगुणैर्गुरूणां दिनोंदये यः पठति प्रमोदात् । तस्यानिशं भक्तितरंगभाजो लक्ष्मीविशाला परिरंभणी स्यात् ॥ १८ ॥ इति श्रीगुरुस्तुतिः समाप्ता ।
No. 77. Antarangasandhi, by RATNAPRABHA [अन्तरङसंधिःरत्नप्रभः].
Leaves 1 to 12; 15 inches long, 2 inches broad. Dated Samvat 1392 = A. D. 1336.
Begins : पणमवि दुहखंडण करियविहंडण जगमंडण जिणसिद्धिठिय । मुशिकण्णरसायणु गुणगणभायणु अंतरंगमुणिसधिजिय ॥ १ ॥
Ends: जिणरजिउ विउ नियपढमपुत्तु अवरोबिहु जुवनिवपइनिउत्तु । अप्पणिजो पत्तउ सिद्धिदामि सो संघह मंगलु दिसउ सामु ॥ १६ ॥ इय अंतरंगंसुवियारसंधि चितंतु न बज्झइ कमबंधि । सुहझाणह चित्तह करई संधि तिाण काराणि भणीय इह सांध ॥ १७ ॥ अहिअंतहकारणु विसउत्तारणु जंगुलिमंत ह पढणु जिम । कयसिवसुहसंधिहि पहसुसंधिहि चिंतणु जाणउ भविय तिम ॥ १८ ॥
इति अंतरंगसंधिः समाप्तः ॥ इति नवमोऽधिकारः ॥ संवत् १३९२ वर्षे आषाढसुदि २ गुरौ ॥ ग्रंथानं श्लोक २०६ श्रीधर्मप्रभसूरिरत्नप्रभ. कृतिरियम् ॥
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EXTRACTS FROM MANUSCRIPTS ___No. 78. Jitakalpachurni, with the Commentary of SRICHANDRASURI, [जीयकप्पचूण्णी तस्या एव वृत्तिः- श्रीचन्द्रसूरिः].
_Leaves 1 to 110 ; 11 inches long, 23 inches broad. Deted Sam- vat 1284 = A. D. 1228. __ Churni begins: सिद्धत्थसिद्धसासण सिद्धत्थसुयं सुयं च सिद्धत्थस्स । वीरवरं वरवरदं वरचरएहि महियं नमह जीवहिय ॥ १ ॥
. Churni ends : पावणं परमहियं जिणभदरवमासमणं नित्थयसुत्तत्थदायगामलचरणं । तमहं वंदे पय: परमं परमोवगारकारिणमहग्धं ॥ जीयकप्पचुण्णी समत्ता ।। ग्रंथाग्रं १३०० ॥ मंगलं महाश्रीः ॥ ॐ नमो वीतरागाय ॥ नत्वा श्रीमन्महावीरं स्वपरोपकृतिहेतवे। .. . जीतकल्पबृहचूर्णेाख्या काचि प्रकाश्यते ॥ १ ॥
Commentary ends : : अमलचरणश्च । तं इति जीतकल्पणिविषया व्याख्या समाप्ता ॥ जीतकल्पबृहबूणेाख्या शास्त्रानुसारतः । श्रीचंद्र सूरिभिर्दब्धा स्वपरोपकृतिहेतवे ॥ १ ॥ मुनिनयनतरणिवर्षे श्रीवीरजिनस्य जन्मकल्याणे । प्रकृतग्रंथकृतिरियं निष्पत्तिमवाप रविवारे ॥ २ ॥ संघचैत्यगुरूणां च सर्वार्थप्रविधायिनः । वशाभयकुमारस्य वसतौ दृब्धा सुबोधकृत् ॥ ३ ॥ एकादशशतविंशत्यधिकश्लोकप्रमाणग्रंथाग्रम् ११२० । ग्रंथकृतिप्रविवाच्या मुनिपुंगवसूरिभिः सततम् ॥ ४ ॥
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यदिहोत्सूत्रं दृब्धं छद्मस्थबुद्धिना च मया । तन्माय कृपानुकलितैः शोध्यं गीतार्थविद्वद्भिः ।।
ग्रंथाग्रं ११२० ।। समाप्ता चेयं श्रीशीलभद्रप्रभुश्रीधनेश्वरसूरिपादपद्मचंच रोकश्रीश्रीचंद्रसूरिसंरचिता जीतकल्पबृहचूणिर्दुर्गपदविषया निशीयादिशास्त्रानुसारतः । संप्रदायाच सुगमा व्याख्येति ।। यावल्लवणोदन्वान् यावन्नक्षत्रमंडितो मेरुः । खे यावचंद्रार्को तावदियं वाच्यतां भव्यैरिति ।।
संवत् १२८४ वर्षे फाल्गुनवदि ७ सोमे मंगलं महाश्रीः ।। शुभं लेखकपाठकयोः ॥ शुभ्रांशु वि वस्तुपालसचिवस्त्यागोस्य चंद्रातपस्तेनोन्मीलितमर्थिकैरवकुले यत्तु श्रियस्तांडवम् । तस्याः पादतलप्रपातरभसोड्डीनैरिवोड्डामरैस्तेनातस्तरिरे तरंगितयशःकिंजल्कजालदिशः ॥ ३७॥ विश्वेऽस्मिन् कस्य चेतो हरति नहि समुल्लास्य विश्वासमुच्चैः प्रौढश्वेतांशुरोचिःप्रचयसहचरी वस्तुपालस्य कीर्तिः । मन्ये तेनेयमारोहति गिरिषु भिया लीयते गह्वरेषु स्वर्गोत्संगानुपास्ते भजति जलनिधिं याति पातालमूलम् ।। ३८ ॥ एतेभ्यः प्रभुणा सगौरवमहं तावत्प्रदाना [दत्ता] परं देशं देशममी भ्रमंति तदहं गच्छाम्यमीभिः समम् । नो चेक्काप्यपरा मिलिष्यति वधूस्तत्रेति भीत्या ध्रुवं कीर्तिर्यस्य गुणानुपासति सदा श्रीवस्तुपाल: कृती ।। ३९ ॥ सोयं धात्रीवलयगिरिको वस्तुपालोऽचलेंद्रस्तस्मादाविर्भवति समरे कोपि दोःस्फूतिरेणुः ।
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यस्यां मग्नाः प्रतिवसुमतीवल्लभानां समंता
संपद्यंते खलु पुनरनावृत्तये कीर्त्तयस्ताः ॥
EXTRACTS FROM MANUSCRIPTS
No. 79. Jitakalpasutra, with the commentary of TILAKA CHARYA [ जतिकल्पवृत्तिः - तिलकाचार्यः ].
Leaves 1 to 105; 13 inches long, 2 inches broad.
Commentary begins:
अनमः श्रीपंचपरमेष्ठिभ्यः ॥
वंदे वीरं तपोवीरं तपसा दुस्तपेन यः । शुद्धं स्वं विदधे स्वर्ण स्वर्णकार इवाग्निना ॥ १ ॥ जिनप्रवचनं नौमि नवं तेजस्विमंडलम् । यतो ज्योतीपि धावंति हेतुमंतर्गतं तमः ॥ २ ॥ निष्प्रत्यूहं प्रणिदधे भव [वा] नीतनयानहम् । सर्वानपि गणाध्यक्षानक्षमोदरसंगतान् ॥ ३ ॥ जिन (भद्र) गणिं स्तौमि क्षमाश्रमणमुत्तमम् । यः श्रुताञ्जीतमुद शौरिः सिंधोः सुधामिव ॥ ४ ॥ प्रणमाम्यात्मगुरूंस्तान् घनसारशलाकयेव यद्वाचा । अज्ञानतिमिरपूरितमुदुटितमांतरं चक्षुः ॥ ५ ॥
इति मुनिकृतसुकृतः श्रुतरहस्य कल्पस्य जीतकल्पस्य । विवरणलवं करिष्ये स्वस्मृतिबीजप्रबोधाय ॥ ६ ॥
Commentary ends:
शुद्ध्यतः सिध्यतश्चेति ।
इति श्रीश्री तिलकाचार्यविरचितजीतकल्पवृत्तिः ॥
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श्रीमांश्चंद्रप्रभः सरिर्युगप्राधान्यभागभूत् । तदासनमलंचक्रुः श्रीधर्मवोपसूरयः ॥ १ ॥ तत्पदृश्रीभुजोऽभूवन श्रीचक्रेश्वरसूरयः । श्रीशिवप्रभसूरिस्तत्पट्टश्रीहारनायकः ॥२॥ तदीयशिष्यलेशोहं सूरिः श्रीतिलकाभिधः । अनन्यसमस्त [ सौ ]रभ्यश्रुतांभोजमधुव्रतः ॥३।। इमामी [पी ] दृग्विधा चूणिः तस्याश्चो पनिबंधतः । गुरूणां संप्रदायाञ्च विज्ञायार्थ स्वशक्तितः ॥ ४ ॥ अकार्ष जीतकल्पस्य वृत्तिमत्यल्पधीरपि । सा विशोध्या श्रुतधरैः सर्वैर्मयि कृपापरैः ॥ ६ ॥ वृत्तिं रचयता चैतां यन्मया सुकृतं कृतम् । भवे २ हं तेन स्यां श्रुताराधनलालसः ॥६॥ शतद्वादशकेऽब्दानां गते विक्रमभूभुजः । विहिता स्वहितार्थेयं चतुःसप्तत [ति] वत्सरे ॥ ७॥ सहस्रमेकं श्लोकानामधिकं सप्तभिः शतैः । प्रत्यक्षरण संख्याय मानमस्यां विनिश्चितम् ।। ८॥ यावद्विजयते तीर्थं श्रीमद्वीरजिनेशितुः । असौ सन्मानसे तावत्कलहंसीव खेलतु॥९॥ Sutra begins : सिरिवीरजिणं नमिउं पच्छित्तं सावयाण बुच्छामि । वीमंसिऊण बहुसो समायार्ड विविहार्ड ॥ १ ॥ Sutra ends : इति जीतकल्पसूत्रं समाप्तमिति ।। बभूव लक्ष्मणः श्राद्धः सपूना तस्य गेहिनी ॥
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EXTRACTS FROM MANUSCRIPTS
सिंहनामा तयोः पुत्रो शंभूनाम्नी च पुत्रिका ॥ १ ॥ सिंहसनुर्यशोदेवः सतुकाकुक्षिभूः स च ।
पुस्तिकां जीतकल्पस्य श्रेयसेलेखयत्पितुः ॥ २ ॥
No. 80. Dharmaratnalaghuvritti, by SANTISURI [ धर्मरत्नलघुवृत्तिः- शान्तिसूरिः]
Leaves 1 to 171; 162 inches long, 14 inches broad, Dated Sam vat 1271 = A.D. 1250.
Begins:
नमः सर्वज्ञाय |
सिद्धं सर्वज्ञमानन्य वक्ष्ये सङ्केतः स्फुटम् । विवृति धर्मरत्नस्य मन्दबुद्धिप्रबुद्धये ॥ १ ॥
Ends:
नमः श्रीवर्द्धमानाय सर्वशास्त्रार्थभाषिणे ।
वर्तमानस्य तीर्थस्य नायकाय महात्मने ॥ इति सिद्धान्तसंग्रहभूषा भव्यजनहिता धर्मरत्नवृत्तिः समाप्ता ॥ चन्द्र कुलाम्बररविभिः परोपकारैकरसिकचेतोभिः ॥ श्रीशान्तिसूरिभिरियं बुधप्रिया विरचिता वृत्तिः ॥
संवत् १२७१ वैशाखसुदि ९ गुरौ वारे प्रमिते दिवसे ॥
No. 81. Sangrahinivivritti, by PURNABHADRA [ संग्रहिणीविवृतिःशीलभद्र :].
Leaves 1 to 257; 14 inches long, 12 inches broad.
Ends :
संग्रहिणीविवृतिमिमां कृत्वा यदवापि पुण्यमत्र मया । तेनागमसंग्रहिणीप्रवणोऽस्तु सदैव भव्यजनः ||
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थारापद्रपुरीयगच्छनलिनीखण्डैकचण्डद्युतिः सूरिः पंडितमूर्धमंडनमणिः श्रीशीलभद्राभिवः । आसीत्तस्य विनेयतामुपगतः श्रीपूर्णभद्राव्हयस्तेषां शिष्यलवेन मंदमतिना वृत्तिः कृतेयं स्फुटा । एकादशवर्षशतैर्नवाधिकत्रिंशकैर्याते विक्रमतोऽरचयादिमां सूरिः श्रीशीलभद्राख्यः ।। सहस्रद्वितयं साधं ग्रंथोऽयं पिंडितोऽखिलः ।
द्वात्रिंशदक्षरश्लोकप्रमाणेन सुनिश्चितः ।। शुभं भवतु ॥
__No. 82. Pratyakhyanavicharana, by SALISURI [पञ्चक्खाणवियारण-सालिसूरि].
Leaves 1 to 23; 14 inches long, l. inches broad. Begins : ॐनमः सरस्वत्यै ॥
केवलपच्चक्खेणं पञ्चक्खसमत्थवत्थुवित्थारं । पञ्चक्खं जोईणं सिरिवीरजिणेसरं नमिउं ॥ १ ॥ वोच्छं पञ्चक्खाणे वियारणं समयतंतजुत्तीए । सपरोवयारहेउं दाराणुगयं समासेणं ।। २ ॥
Ends:
पच्चक्खाणवियारणामयं सिरिसालिसूरिणा रइयं । जं एत्थ किंपि वितहं तं गीयत्था विसोहिंतु ॥ २३७ ॥
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EXTRACTS FROM MANUSCRIPTS
No. 83. Prasamarati, by UMASVATI [प्रशमरतिः-उमास्वातिः]. Leaves 1 to 49; 14 inches long, 2 inches broad. Begins:
नाभेयाद्याः सिद्धार्थराजसूनुचरमाश्चरमदेहाः।। पंच नव दश च दशविधधर्मविधिविदो जयंति जिनाः ॥ जिनसिद्धाचार्योपाध्यायान् प्रणिपत्य सर्वसाधूंश्च ।
प्रशमरतिस्थैर्यार्थं वक्ष्ये जिनशासनात्किञ्चित् ।। Ends:
आचार्यस्य श्रीउमास्वातिवाचकस्य कृतिरिदं प्रशमरतिनामप्रकरणं समाप्तम् ॥
No. 84. A Manuscript containing, 1. Chhandonusasanavritti, by HEMACHANDRA [छन्दोनुशासनवृत्तिः-हेमचन्द्रः].
2. Kavyanusasanavritti, by HEMACHAN DRA [काव्यानुशासनवृत्तिः-हेमचन्द्रः].
Leaves 1 to 123 and 124 to 252; 17 inches long, 2 inches broad. Dated Samvat 1390 = A.D. 1334. Chbandonusasanavritti begins :
॥ अहं ॥ शब्दानुशासनविरचनानंतरं तत्फलभूतं काव्यमनुशिष्य तदंगभूतं छंदोनुशासनमारिप्समानः शास्त्रकार इष्टाधिकृतदेवतानमस्कारपूर्वकमुपक्रमते ॥
वाचं ध्यात्वाहतीं सिद्धशब्दकाव्यानुशासनम् । काव्योपयोगिनां वक्ष्ये छंदसामनुशासनम् ॥ अर्हद्भिः कृता, कृत इत्यगार्हती, वाक् द्वादशांगगणिपिटकम् ॥
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Ends:
प्रस्तारादिवर्णनो नामाष्टमोध्यायः समाप्तः ॥ संपूर्ण छंदोनुशासनमिति ।। Kavyanusasanavritti begins :
प्रणम्य परमात्मानं निजं काव्यानुशासनम् ।
आचार्यहेमचंद्रेण विद्वत्प्रीत्यै प्रतन्यते ॥ १ ॥ Ends:
महाकाव्यवदाख्यायिकाकथाचंपूष्वपि द्रष्टव्यः । इत्याचार्यश्रीहेमचंद्रविर चितायां अलंकारचूडामणिसंज्ञस्वोपज्ञकाव्यानुशासनवृत्तौ अष्टमोध्यायः समाप्तः ।। श्लोकसंख्या ग्रंथ २८०० सं० १३९० वर्षे चैत्रसुदि २ सोमे श्रीस्तंभतीर्थे लिखितमस्ति ।
No. 85. Pratyekabuddhacharitra [प्रत्येकबुधचरित्रम्]. Leaves 1 to 208 ; 17 inches long, 2 inches broad. Dated Samvat 1398 = A.D. 1342. Begins :
उँ नमो वीतरागाय ॥ करकंडु कलिंगेसु पंचालेसु य दुग्महो ।
नमीराया विदेहेसु गंधारेस य नग्गई ॥ १ ॥ Ends:
१४१ इति दाणविषये धणदेवधणदत्तकथा समत्ता ॥ मंगलं महाश्रीः ॥ संवत् १३९८ वर्षे पौषशुदि ७ सोमे कथाद्वयं लिखितम् ॥
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EXTRACTS FROM MANUSCRIFTS
No. 86. Sabd anusasanavritti by, HEMACHANDRA [शब्दानुशासनवृत्तिः– हेमचन्द्रः].
Leaves 1 to 385; 16 inches long, 4 inches broad. Dated Samvat 1297 A,D. 1241.
Ends :
शास्त्रप्रवृत्तिरिति ॥
इत्याचार्यश्रीहेमचंद्रविरचितायां सिद्धहेमचंद्रा मिधानस्वोपज्ञशब्दानुशासनवृत्तौ सप्तमस्याध्यायस्य चतुर्थः पादः समाप्तः ॥ सप्तमोध्यायः समाप्तः ॥
क्षितिधर भवदीयक्षीरधारावलक्षैः रिपुविजययशोभिः श्वेत एवासिदंड: ।
किमुत कवलितैस्तैः कज्जलैर्मालवीनां परिणतमहिमानं कालिमानं तनोति ॥ १ ॥
संवत् १२९७ वर्षे कार्तिकवदि ११ रवौ तद्धितवृहद्वृत्तिपुस्तिका लिखितेति ॥
भग्नपृष्टिकटिग्रीवा ऊर्ध्वदृष्टिरधोमुखम् । कष्टेन लिखितं शास्त्रं यत्नेन प्रतिपालयेत् ॥
यादृशं पुस्तके दृष्टं तादृशं लिखितं मया । यदि शुद्ध शुद्धं वा मम दोषो न दीयते ||
शुभं भवतु मंगलं महाश्रीः ॥
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No. 87. A Manuscript containing, 1. Atmasambodhakulaka [आत्मसंबोधकुलकम्, 2. Svajivanusasanakulaka [स्वजीवानुशासनकुलकम्], 3. Kshamanakulaka [क्षामणाकुलकम् ], 4. Aradhanakulaka [आराधनाकुलकम् ], 5. Bhaktamarastotra,by MANA TUNGA [भक्तामरस्तोत्रम्-मानतुङः], 6. Mangalashtaka, by DHARM ASTRI [मङलाष्टकम्-धर्मसरिः], 7. Gautamaprichchha [गौतमपृच्छा, 8. Dharmalakshana [धर्मलक्षणम्, 9. Prasnottararatnamala [प्रश्नोत्तररत्नमाला], 10. Samitiprakarana [समितिप्रकरणम्], 11. Mahabhayaharaparsvanathastava [महाभयहरपार्श्वनाथस्तवः], 12. Danasilatapobhavanakulaka [दानशीलतपोभावनाकुलकम, 13. Mithyatvakulaka [मिथ्यात्वकुलकम् ], 14. Dhammovaesamalapagarana [धम्मोवएसमालापगरणं ], 15. Chaurangijja [चउरंगिज्ज ], 16. Jivavichara [जीवविचारः], 17. Danasilatapobhavanakulaka [दानशीलतपोभावनाकुलकम्], 18. Navatattvavicharasaroddhara [नवतत्त्वविचारसारोद्धारः] 19. Mithyaduhkritakulaka [मिथ्यादुःकृतकुलकम् ]. ____Leaves 107 to 158; 14 inches long, 1 inches broad. Atmasambodhakalaka begins : उवसग्गो कहं हुंता न हुतं जइ कम्मयं ॥ १ ॥ Atmasambodhakulaka ends : अणुत्तरसुरासुरसोक्खसोहग्गलालिया । कहं पाविति ते चरणं न हुंतं जइ कम्मयं ॥ २१ ॥ आत्मसंबोधकुलं स० ॥
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EXTRACTS FROM MANUSCRIPTS
Svajivanusasanakulaka begins:
निसाविरामे परिभावयामि गेहे पलित्ते किमहं सुयामि । डज्र्ज्जतमप्पाणमुविक्खयामि जं धम्मरहिउ दियहे गमामि ॥ १ ॥
Svajivanusasanakulaka ends:
खमावणं सव्वजीवाण खमणं आलोयणाई चउसरणगमणं । अणस्सणं पञ्चक्खाणं करणं अंतम्मि मे होज्ज समाहिमरणं ॥ २१ ॥
स्वजीवानुशासनकुलं ॥
Kshamanakulaka begins:
जो कोई मए जीवो चउगइसंसारभवकडिल्लुंमि । दूहविउ मोहेणं तमहं खामेमि तिविहेणं ॥ १ ॥
Kshamanakulaka ends:
इय खामणाउ एसा चउगइमावन्नाण जीवाणं । भावविसुद्धीए महं कम्मक्खयकारणं होउ ॥ ३६ ॥ खामणाकुलं समाप्तं ॥
Aradhanakulaka begins:
सर्व्वं भं ते पाणाइवायं पञ्चवक्खामि जावज्जीवाए ।
Aradhanakulaka ends:
एयं पच्चक्खाणं विउला माराहणाहेउं ॥ १७ ॥
Mangalashtaka begins : नित्यश्रीभवनाधिवासिभवनवाते मणिद्योतिते ।
Mangalashtaka ends:
श्रीमद्गौतममुख्यसाधुपतयः कुर्वंतु वो मंगलम् ॥ ९ ॥ यस्मात्तीर्थमिदं प्रवृत्तिमगमत्स श्रीसुधर्मो गुरुर्धन्यो धन्यमुनिः सुकोशलमुनिः श्रीशालिभद्राभिधः ॥
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मेतायेथि दृढप्रहारसुयतिर्मेघो दशार्णाभिधः । श्रीमंतः करकंडुमुख्ययतयः कुर्वंतु मे मंगलम् ॥ १० ॥ श्रीजंबुप्रभवः प्रभुर्गतभवः शय्यंभवः श्रीयशोभद्राख्यः श्रुतकेवली च चरमः श्रीभद्रबाहुर्गुरुः । शीलस्वर्णकषोपलः सुविमलः श्रीस्थूलभद्रः प्रभुः सर्वेऽप्यार्यमहागिरिप्रभृतयः कुर्वंतु मे मंगलम् ॥ ११ ॥
स्यामार्यार्यसमुद्रमंगुसमिताः श्रीभद्रगुप्तादयः
श्रीमान् सिंहगिरिस्तथा धनागरिः स्वामी च वैराभिधः । श्रीवैरो मुनिरार्यरक्षितगुरुः पुष्पो गुरुः स्कंदिलः श्रीदेवर्द्धिपुरःसराः श्रुतधरा कुर्वंतु मे मंगलम् ॥। १२ ।। तीतानागतवर्त्तमानविषयाः सर्वेऽपि तीर्थेश्वराः । सिद्धाः सूरिवराश्च वाचकवराः सर्वेऽपि सत्साधवः । धर्मः श्रीजिनपुंगवैर्निगदितो ज्ञानादिरत्नत्रयं संघः श्रीजिनसिद्धसाध्यतिशयाः कुर्वंतु मे मंगलम् ॥ १३ ॥
शाश्वताशाश्वतान्येव चैत्यानि पुरुषोत्तमाः ।
भयेभ्यो मंगलं दद्युः स्तुताः श्रीधर्मसूरिभिः ॥ १४ ॥
Dharmalakshana begins :
धर्मार्थं क्लिश्यते लोको न च धर्मं परीक्ष्यते ।
कृष्णं नीलं सितं रक्तं कीदृशं धर्मलक्षणम् ॥ १ ॥
Dharmalakshana ends:
एष दशलक्षणो धर्मः सर्वज्ञैः परिकीर्त्तितः । ज्ञात्वा चैव हि कृत्वा च गच्छति परमां गतिम् ॥ इति श्रीसर्वज्ञोक्तदशविधधर्मलक्षणं समाप्तम् ॥
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EXTRACTS FROM MANUSCRIPTS
Samitiprakarana begins : अट्रप्पवयणमायार्ड समिती गुत्ती तहेव य । - पंचेव य समिइउ तउ गुतीउ आहिया ॥ १ ॥ Samitiprakarana ends : पवयणमाया जे समं आयरे मुणी। संखिप्पं सवसंसारा बिप्पमुच्चइ पंडिए त्ति बेमि ॥ २१ ॥ समितीर्ड समत्तार्ड ॥ २४ ॥ Mahabhayaharaparsvanathastava begins : नमिऊण पणयसुरगणचूडामणिकिरणरांजियं मुणिणो ।। Mababhayabaraparsvanathastava ends : नामपि य मंतसमं इय नाह थुणामि भत्तिए ॥ २५ ॥ Danasilatapobhavanakolaka begins : ओं नमः सर्वज्ञाय ॥ नभविउँ[उ]सभाइचउवीसतित्थंकरे Danasilatapobhavanakulaka ends : कामखवेविण मुत्तिसुखलीलई लहउ ।। २४ ॥ दानशीलतपोभावनाकुलं समाप्तम् ॥ Mithyatvakulaka begins : नमिऊण महावीरं मिच्छत्तमहंधयारदिणणाहं । मिच्छत्तकारणाई कइवइ थूलाणि ए भणामि ॥ १ ॥ Mithyatvakulaka ends : सिद्धिसुरभवणट्राणं लहंति जीवा सुहानहाणं ॥ ३० ॥ मिथ्यात्वकुलकं समाप्तमिति ।।
Dhammovaegamalapagarana begins : सिझउ मञ्झवि सुयदेवि तुज्झ भरणार्ड सुंदरा ज्झत्ति । धम्मोबएसमाला विमलगुणा जयपडाइव ॥ १ ॥
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जिणसिद्धरिउवज्झायसाहुसुयदेविसंघनाणाणि । धम्मोवएसमालं थोऊण भणामि सुयविहिणा ॥ २ ॥ Dhammovaesamalapagarana ends : मइभेदा पुग्गहसंसग्गीए य अभिनिवेसे य । चउहा खलु मिछत्तं एगयरं संगमे जत्थ ।। १०२ ॥ धम्मोवएसमालापगरणं समत्तंति ॥ Chatrangijja begins: चत्तारि परमंगाणि दुल्लहाणि ह जंतुणो। माणुसत्तं सुई सद्धा संजयंमि य वीरियं ॥ १ ॥ Chaurangiija ends : चउरंग दुल्लहं मत्ता संजमं पडिवजिया । तवसा धुय कम्मं से सिद्ध हवइ सासए त्ति बेमि ॥२० चाउरंगिजं समत्तं ॥ Jivavichara begins : सिरिवीरजिणं नमिउं वोच्छं वत्तीसजीवपरिमाणं। भवजणजाणणटुं रक्खटुं अप्पसरणटुं ॥ १ ॥ Jiravichara ends : इय जीवाण वियारं भवा नाऊण जे य रक्खंति । पावति एए सिग्धं भदं सूरीपयं पंति ॥ २८ ॥ जीवविचारप्रकरणं समाप्तम् ॥ Navatattvavicharasaroddhara begins : अरहंता भगवंता सवे उप्पण्णदिववरनाणा । सजीवाण हियटुं जीवाइपए परूविसु ॥ १ ॥
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EXTRACTS FROM MANUSCRIPTS
Navatattvavicharasaroddhara ends:
कालो य ५ अंतरं ६ भाग ८ अप्पाबहुं चेव ॥ ९॥ इति संक्षेपतो नवतत्वविचारसारोद्धारः ॥
Mithyaduhkritakulaka begins:
जो कोइ य पाणिगणो दुक्खे ठवितो मए भमंतेण । सो खमउ मज्झ सवं मिच्छामि ह दुक्कडं तस्य ॥ १ ॥
Mithyaduhkritakulaka ends:
मिच्छादुक्कडकुलयं अहवा सत्ताण खामणा रइया । अहवा भावणकुलयं सम्मदिट्टिस्स जीवस्स || मिथ्यादुः कृतकुलकं समाप्तम् ॥
No. 88. A Manuscript containing, 1. Sahityaslokah [साहित्यश्लोकाः ],
2. Strinirvanaprakarana [स्त्रीनिर्वाणप्रकरणम् ],
3. Yogavidhiprakarana [योगविधिप्रकरणम् ],
4. Chelapratishthaprakarana [चेलप्रतिष्ठाप्रकरणम् ] 5. Kevaliprakarana [केवलिप्रकरणम्].
Sahityaslokah begins:
इह ते जयंति कइणो जयंमि णमो जाण सयलपरिणामं । वायासुवियं दीसइ आमोयघणं व तुच्छं व ॥ १ ॥ Sahityaslokah ends:
महधूमलया एयस्स सुचरिया इय इय साहस्स ।
सुरकरिणो व हलमयं सामला सहइ सरणिव ॥ १७६ ॥
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143 Strinirvanaprakarana begins : इह ये स्त्रीनिर्वाणं प्रति विप्रतिपद्यते त एवं वास्याः ।। Strinirvanaprakarana ends : स्यात्पुंवत्स्त्रीणां सिद्धौ नापाप्तादिवद्वाधेति । कृतं विस्तरेण । Yogavid hiprakarana begins : अथ योगविधिप्रकरणम् । आगमग्रंथार्थयोगहेतुत्वाद्योगा आचाम्लनिर्विकृतिकरूपास्तपोविशेषास्ते च द्विधा । आगाढा अनवगाढाश्च उत्तराध्ययनभगवतीप्रश्नव्याकरणमित्यागाढाः शेषास्त्वनागाढाः ॥ Chelapratishthaprakarana begins : इह च केचिन्मिथ्यात्वाकुलितचेतसः इदमित्थमिति महार्थकर्मप्रवादं पूर्वोद्धतप्रस्तुताध्ययनाधीतमपि सचेलत्वं । Chelapratishtha prakarana ends : चेलप्रतिष्ठाप्रकरणं समाप्तमिति ॥ Kevaliprakarana begins : सिद्धमेवं केवलज्ञानं किंतु कतरं पूरुषमेतदास्पदीकरोतीत्यत्राहुः ।
Kevaliprakarana ends : एवमुत्तरचरादिकमपि न केवलित्वेन विरुध्यत इति स्थितं केवलाहारसर्वज्ञत्वयोरविरोधादिति हेतुः सिद्धिवधूसंबंध इति ।
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No. 89. Raghuvilasanataka, by RAMACHAN DRA [रघुविलासनाटकम्-रामचन्द्रः]. ___Leaves 1 to 184 Incomplete, a few leaves at the end being wanting.
Begins : ॥ अर्ह ॥--सतां यः केवलां दृष्टिं हतामत्युग्रकर्मणा ।
ती| मोहाब्धिमानैषीद्वीरायास्मै नमो नमः ॥ १ ॥ नांद्यते सूत्रधारः ।--सप्रमोदम् ।
सीतां काननतो जहार विहितव्याजः पुरा रावणस्तं व्यापाद्य रणेषु तां पुनरथो रामः समानीतवान् । एतस्मै कविसूक्तिमौक्तिकमणिस्वात्यंभसे भूर्भुवः
स्वामोहनकार्मणाय सुकथारनाय निन्ये नमः ॥२॥ भवत दावदहं सामाजिकादेशमनुतिष्ठामीति परिक्रामति । प्रविश्य--चंद्रकः। ___ भाव । कथं विस्मयांकरितरोमांचकोरकदंतुरो विलोक्यसे । सूत्र०--
मारिष । सामाजलोकस्य प्रबंधरामणीय कविशेषपरिज्ञानचातुरीसंपदा चमत्कृतोस्मि । चंद्र० __ भाव । समिद्धरसानुबंधे कुत्र प्रबंधे समलंकृतसंपदां सभासदां चेतः ।
ज..
सूत्र०
मारिष--श्रीसिद्धहेमचंद्राभिधानशब्दानुशासनविधानवेधसः श्रीमदाचार्यहेमचंद्रस्य शिष्ये रामचंद्रमास जानासि ।
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चंद्र० साक्षेपम्
पंचप्रबंधमिषपंचसुखानकेन विद्वन्मनःसदास नृत्यति यस्य कीर्तिः । विद्यात्रयीचणमचुंबितकाव्यतंद्र
कस्तं न वेद सुकृती किल रामचंद्रम् ॥ ५ ॥ किं तु द्रव्यालंकारनामा प्रबंधोनभिनेयत्वेन तावदास्ताम् । अपरेषां राघवाभ्युदययादवाभ्युदयनलविलासरघुविलासानां चतुर्णा रमणीयतमसध्यंगनिवेशानां विशदप्रकृतीनां पुनर्मध्ये कुत्र प्रजानामनुरागः ॥ नेपथ्ये। प्रजानां प्रथमे कैकेय्याः पुनर्द्वितीये । सूत्र सरोष कोयमावयोरंतराले प्रलपति । चंद्र० कृतममुष्य वातकिनः प्रलापेष संरंभेण । प्रस्तुतमभिधीयताम् । सूत्र० प्रजानां रघुविलासनामान चतुर्थे प्रबंधे अनुरागः ।
चंद्र०
रामचंद्रसूक्तेषु कमसाधारणं गुणं संभावयति भावः । सूत्र०
व्युत्पत्तिर्मुखमेव नाटकगुणन्यासे तु किं वर्ण्यते सौरभ्यप्रसवा नवा भणितिरप्यस्त्येव काचित्वचित् । यं प्राणान् दशरूपकस्य स करोत्क्षेपं समाचक्षते
साहित्योपनिषद्विदः स तु रसो रामस्य वाचां परम् ।। P663-19
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146 अपि च ।
रामात्पूर्व मधुरा व्यक्तं वाचो वपुष्मतां नासन् ।
कथमन्यथा सुधार्थ ममंथुरमृतांधसः सिंधुम् ॥ नेपथ्ये--अत्यल्पमाभिदधासि । नयविनयक्रमविक्रमादयोपि महापुरुषगुणा रामात्पूर्व वपुष्मतां नासन् । सूत्र--सरोषम् । मारिष, कोयं पुनःपुनरस्मानंतरयति । चंद्र० ननु कथितं वातकी कोप्येषः । पुनर्विमृश्य--भाव ।
अमी कृतज्ञविज्ञचूडामणयः सभासदो भवदीयस्य नाट्यकलाकौशल्यपात्रं नापरे । सूत्र--मारिष । हृदयंगममभिदधासि । यतः--
उच्चरणलब्धकीर्तेराज्ञारहितस्य लक्षणयुतस्य ।
रामस्य वनं शरणं जितपरकलभस्य शरभस्य ॥ नपथ्ये। आः क्रूरनटखेट किमिदं राज्याभिषेकपर्वणि रामस्य बनप्रस्थानमावेदयास । सूत्र०
विलोक्य । कथमयं गंधर्वकभूमिकावाही कुशीलवः पुनःपुनरस्मानंतरितवान् । तदेहि मारिष करणीयांतरमनुतिष्ठामः । इति निःक्रांती प्रस्तावना। ततः प्रविशति कंचुकी गंधर्वकः ॥
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No. 90. Yogasara [ योगसार ] .
Leaves 1 to 9. Dated Samvat 1192. = A. D. 1136.
Begins :
उ नमो वीतरागाय ॥
विश्वप्रकाशिमहिमानममानमेकमोमक्षराद्या खेलवाङ्मयहतु भूतम् । यं शंकरं सुगतमीशमनीशमाहुरर्हन्नमूर्जितमहं तमहं नमामि ॥ १ ॥
Ends :
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श्रीजयकीर्त्तिसूरीणां शिष्येणामलकीर्त्तिना ।
लेखितं योगसाराख्यं विद्यार्थिवाम कीर्त्तिना ॥ १ ॥
संवत् १९९२ ज्येष्टसुक्लपक्षे त्रयोदस्यां पंडितसारहणेन लिखितमिदमिति ।
No. 91. A Manuscript containing,
1. Pramanamimansa, by HEMACHANDRA, with author's Commentary [प्रमाणमीमांसा - सटीका - द्वयोः - हेमचन्द्रः ],
2. Vitaragastotra, by HEMACHANDRA, with a Commentary by PRABHANANDA [वीतरागस्तोत्रं - सटीकम् - मू. हेमचन्द्रः - टी. प्रभानन्दः ],
-
3. Ajitasantistava, by NANDISHENA, with a Commentary by JINAPRABHA [अजितशान्तिस्तवः सटीक - मू० नन्दिषेणः – टी० जिनप्रभः ], 4. Bhayaharastotra, with a Commentary by JINAPRABHA [भयहरस्तोत्रं - सटीकम् - मू० टी० जिनप्रभसूरिः ].
Leaves 1 to 108, 109 to 235, 236 to 277.
Begins:
अहं ॥ अनंतदर्शनज्ञानवीर्यानंदमयात्मने । नमोर्हते कृपाकॢप्तधर्मतीर्थाय तायिने ॥ १ ॥
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148 बोधिबीजमुपस्कर्तु तत्त्वाभ्यासेन धीमताम् । जैनसिद्धांतसूत्राणां तेषां वृत्तिर्विधीयते ॥ २ ॥
ननु यदि भवदीयानीमानि जैनसिद्धांतसूत्राणि तार्ह भवतः पूर्वे कानि किमियानि वा तान्यासन्निति । अत्यल्पमिदमन्वयुक्थाः पाणिनिपिंगलकणादाक्षपादादिभ्योपि पूर्व कानि किमियानि वा व्याकरणादिसूत्राणि ते तदपि पर्यनुयुड्क्ष्व । अनादय एवैता विद्याः संक्षेपविस्तरविवक्षया नवनवीनवंति तत्तत्कर्तृकाश्चोच्यन्ते। किं नाश्रोषीन कदाचिदनीदृशं जगदिति । यदि वा प्रेक्ष्यस्व । वाचकमुख्यविरचितानि सकलशास्त्रचूडामणिभूतानि तत्त्वार्थसूत्राणीति यद्येवमकलंकधर्मकीर्त्यादिव प्रकरणमेव किं नारभ्यते किमनया सूत्रकारवाहोपुरुषिकया । मैव वोचः । भिन्नरुचिये जनस्ततो नास्य स्वेच्छाप्रतिबंधो लौकिकराजकीयं वा शासनमस्तीति यत्किचिदेतत्तत्र वर्णसमूहात्मकैः पंचभिरध्यायैः शास्त्रमेतदारचयदाचार्यः । तस्य च प्रेक्षाव प्रवृत्त्यंगमभिधातुमिदमादिमूत्रम् । अथ प्रमाणमीमांसा । अथेत्यस्याधिकारार्थत्वात् ।। ..
इत्याचार्यश्रीहेमचंद्रविरचितायाः प्रमाणमीमांसायास्तद्वृत्तेश्च प्रथमाध्यायस्य प्रथमाहिकम् ।।
Ends:
अयं च प्रागुक्तश्चतुरंगो वादः । कदाचित्पत्रालंबनमप्यापेक्षतेऽतस्तलक्षणमत्रावश्याभिवातव्यम् । यतो नाविज्ञातस्वरूपस्यास्यावलंबनं जयाय प्रभवति । नचाविज्ञातस्वरूपं परतंत्रं भेत्तुं शक्यमित्याह । प्रमाणमीमासातर्कोऽयम् ॥ Commentary begins : उ नमः परमात्मने ॥ अनंतदर्शनज्ञानवीर्यानंदचतुष्टयम् । संस्मृत्य परमात्मानमनाहतमहःश्रियम् ॥ १ ॥
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अनल्पमतिभिः साध्यमल्पधीरपि भक्तितः । ब्रुवे विवरणं किंचिद्वीतरागस्तवानुगम् ॥ २ ॥
Commentary ends : इति वीतरागस्तोत्रे विंशतितमस्याशीःस्तवस्य पदयोजना ।। चांद्रे कुलेस्मिन्नलघुश्चरित्रैः प्रभुर्बभूवाभयदेवसूरिः । नवांगवृत्तिच्छलतो यदीयमद्यापि जागर्ति यशःशरीरम् ।। १ ।। तस्मान्मुनींदुर्जिनवल्लभोथ तथा प्रथामाप निर्गुणोधैः । विपश्चितां संयमिनां च दुर्गे धुरीणता तस्य यथाधुनापि ॥ २ ॥ तेषामन्वयमंडनं समभवत्संजीवनं दुःषमामूर्छालस्य मुनिव्रतस्य भवनं निःसीमपुण्यश्रियः । श्रीमंतोभयदेवसरिगुरवस्ते यद्वियुक्तैर्गुणैद्रष्टुं तादृशमाश्रयांतरमहो दिग्चक्रमाक्रम्यते ॥ ३ ॥ यतिपतिरथ देवभद्रनामा समजनि तस्य पदावतंसदेश्यः । दधुरधरितभावरागयोगाज्जगाति रसायनतां यदीयवाचः ॥ ४ ॥ तदीयपट्टे प्रतिभासमुद्रे श्रीमत्प्रभानंदमुनीश्वरोऽभूत् । स वीतरागस्तवनेष्वमीषु विनिर्ममे दुर्गपदप्रकाशम् ॥ ५ ॥ एवं सपादशतयुतविंशतिशतपरिमितः प्रबंधोयम् । प्रथमादर्श गणिना लिखितो हर्षेटुना शमिना ॥ ६ ॥ सोमसुंदरसरिभ्यो नमः ॥
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No. 92. A Manuscript containing, 1. Narachandrajyotisha [नारचन्द्रज्योतिषम्], 2. Kammapayadisangahini [कम्मपयाडसंगहिणी], 3. Pavayanasandohapagarana [पवयणसंदोहपगरणं], 4. Jivadayapagarana [जीवदयापगरणं], . 5. Gahakosa [गाहाकोस],
6. Sammatakulaka, by AHARACHANDRASURI [सम्मत्तकुलयं -अमरचन्द्रसूरिः].
_Leaves 1 to 152. Pavayanasandohapagarana begins : नमिऊण वद्धमाणं ववगयमाणं सुरोह कयमाणं । चउगइनिवुड्डाणं ताणं सत्ताण भवियाणं ॥ १ ॥ पवयणलवाउ केई उवलहिऊणं गुरुसयासाउं । कहयामि संगहेऊ भवियाण अणुग्गहटाए ॥ २ ॥ Pavayanasandohapagarana ends : पवयणसंदोहपगरणस्स छटुं पयं ॥ Jivadayapagarana begins : संसयतिमिरपयंगं भवियाण कुमुयपुण्णिमायंदं । कामगयंदमयंदं जगजीवाहियं जिणं नमिउं ॥ १ ॥ पंचमहत्यगुरुभारधारए पंचसमिए तिगुत्ते । नमिऊण सयलसमणे जीवदयापगरणं वोच्छं ॥ २ ॥ Jisadayapagarana ends : जं कल्ले कायव्वं अज्ज चिय तं करेह तुरमाणो । बहुविग्यो हु महत्तो मा अवरोहं पडिक्खाहि ॥ ११६ ॥ जीवदयापरणं ॥
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Gahakosa begins:
निज्जरियजरामरणं वंदित्ता जिणवरं महावीरं । छप्पन्न य गाहार्ड वोच्छं सुयणस्स जो गार्ड ॥ १ ॥
Gahakosa ends:
एयं गाहाकोसं जो पढइ वियट्ठविरइयं लोए ।
सो होइ बिउलबुद्धी जणंमि सोहग्गयं लहइ ।। १५३ ॥
गाहाकोसं सग्मत्तं ॥
Sammatakulaka begins:
देवो धम्मो मग्गो साहू तत्ताणि चेव सम्मत्तं । तविवरियं मिच्छत्तदंसणं देसियं समए ॥ ९ ॥
Sammatakula ka ends:
जीवाइनवपयत्थे जो जाणइ तस्स होइ सम्मत्तं । भावेण सद्दहंते अयाणमाणे वि सम्मत्तं ॥ ३९ ॥
श्री अमरचंद्रसूरिविरचितं सम्यक्ककुलकं समाप्तम् ॥
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No. 93. Sarasvataprakriya, by ANUBHUTISVARUPACHARYA [ सारस्वतम् - अनुभूतिस्वरूपाचार्यः]
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APPENDIX II.
Extracts from Paper Manuscripts preserved in the Dhandharavada Bhandar
at Anhilwad Patan.
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Patan Paper Manuscripts. No. 1. Aptaparikshatika, by VIDYANANDA [आप्तपरीक्षाविद्यानन्दः]. __Leaves 1 to 16. Begins : प्रबुद्धाशेषतंत्रार्थबोधदीधितिमालिने। नमः श्रीजिनचंद्राय मोह-प्रभेदिने ॥ १ ॥
कस्मात्पुनः परमेष्ठिनः स्तोत्रं शास्त्रादौ शास्त्रकाराः प्राहुरित्यभिधीयते ॥ श्रेयोमार्गस्य संसिद्धिः प्रसादात्परमेष्ठिनः। इत्याहुस्तगुणस्तोत्रं शास्त्रादौ मुनिपुंगवाः ॥ २ ॥ Ends : श्रीमत्तत्त्वार्थशास्त्राद्भुतसलिलनिधेरिद्धरत्नोद्भवस्य प्रस्थानारंभकाले सकलमलभिदे शास्त्रकारैः कृतं यत् । स्तोत्रं तीर्थोपमानं प्रथितपृथुपथं स्वामिमीमांसितं तद्विद्यानंदैः स्वशक्त्या कथमपि कथितं सत्यवाक्यार्थसिद्धयै ।। इति तत्त्वार्थशास्त्रादौ मुनींद्रस्तोत्रगोचरा। प्रणीताप्तपरीक्षेयं विवादविनिवृत्तये ॥ विद्यानंदहिमाचलमुखपद्मविनिर्गता सुगंभीरा ।
आप्तपरीक्षा टीका गंगावञ्चिरतरं जयतु ।। भास्व -- निर्दोषा कुमतमलध्वांतभेदनप्रतिष्ठा । आप्तपरीक्षालंकृतिराचंद्रार्क चिरं जयतु ॥ स जयतु विद्यानंदो रत्नत्रयभूरिभूषणः सततम् । तत्त्वार्थार्णवतरणे सदुपायः प्रकटितो येन ॥
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EXTRACTS FROM MANUSCRIPTS
No. 2. Dhaturatnakara, by SADHUSUNDARA, with author's Commentary [धातुरत्नाकरः सटीक :- मू० टी० - साधुसुन्दरः ]Commentary begins:
श्रीमान्स श्री सुमतिजिनपो बुद्धिसौभाग्यदाता कल्याणार्ली वितरतु सतां विश्वविश्वोपकारी ।
यस्मिन्गर्भे स्थितवति प्रसूः प्रज्ञया स्त्रीद्वयस्य जाता वादापघनपटुर्हर्षयंती जनीधम् ॥ १ ॥
अगणितमहिमा देवनागेन्द्र पुंभिः प्रकटमभयदेवाचार्यवर्यैः सुनुत्या । प्रकटितवरबिंबः पापत।पापहारी विदलतु दुरितौघं स्तंभनाधीशपार्श्वः ॥ २ ॥ या ध्याता योर्गीद्रैर्नमस्कृतानेकबुधजनैः सततम् । हृन्मुखकमलनिवासं करोतु मम भारती साय ॥ ३ ॥ दुर्वादिमत्ताद्वपकेसरिम्यो विद्यावशावल्लभवल्लभेभ्यः । श्रीसाधुकीर्त्याह्वयपाठकेभ्यो नमामि मदीक्षकशिक्षकेभ्यः ॥ ४ ॥ स्मृत्वैवं स्मरणीयांनीन् क्रियाकल्पलताभिधा ।
स्वोपज्ञवातुपाठस्य वृत्तिर्वर्या विधीयते ॥ ५ ॥
तत्रादौ ग्रंथकदुचितेष्टदेवतां परमज्योतीरूपमविनेन चिकीर्षितप रिसमाप्तये शिष्टाचारपरिपालनाय च भव्याशीर्वादाने स्मरति ।
Text begins :
श्रीदं स्तात्परमं ज्योतिः शब्दब्रह्मैककारणम् । योगिवर्यैः सदा ध्येयं चितितार्थसमर्थकम् ॥ १ ॥
॥ सुगमम् ॥ न वरं शब्दब्रह्मैककारणं शब्दज्ञानस्य मुख्यहेतुः ॥ २ ॥ अथ पूर्वाचार्याजयवादेन प्रीणयति ॥
इंद्रश्चंद्रः काशकृत्स्न्यापिशली शाकटायनः । पाणिन्यमरजैनेंद्रा जयंत्याष्टादिशाब्दिकाः ॥ २ ॥
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PRESERVED AT ANHILWAD PATAN. ____157 सुगमम् ॥ नवरं काशकृत्स्निश्च आपिशलिश्चेति द्वंद्वे काशकृत्स्न्यापिशली। इकारांताविमौ शब्दौ । शाब्दिकाः शब्दज्ञातारः । अथ ग्रंथनाम ग्रंथस्वरूपं च प्ररूपयति ।
वीक्ष्यानेकान्धातुपाठानाद्यंते मातृकाक्रमः ।
धातुरत्नाकरो नाम धातुपाठो विधीयते ॥ ३ ॥ सुगमम् ॥ Commentary ends:
इति श्रीवादींद्रश्रीसाधुकी[पाध्यायशिष्यलेशवाचनाचार्यसाधुसुंदरगणिविरचिते क्रियाकल्पलतानाम्नि स्वोपज्ञधातुरत्नाकरधातुपाठवृत्तिः समाप्ता ॥ अथ प्रशस्तिः॥ पूर्व कौटिकनाम्नि धाम्नि महसां गच्छे जिनाज्ञातरोगुच्छे चांद्रकुले कलाभिरमले सदृत्ततामंजुले। आसीदुद्यतसंयतोचितविधिः श्रीवर्द्धमानोपमः संसेव्यो धरणोरगाधिपतिना श्रीवर्द्धमानः प्रभुः ॥ १॥ तच्छिष्यस्समभूजिनेश्वरगुरुस्संख्यावतामग्रणी
र्यो भूवल्लभदुर्लभस्य परिषन्मध्ये मुनिव्यसकान् । निर्जित्यागमयुक्तिभिः खरतरख्याति नृपख्यापितां लेभे बिंदुकुलाद्रिदिक्पतिमिते वर्षे पुरे पत्तने ॥ २ ॥ आसंस्तत्र युगप्रधानपदवीसीमंतिनीनायकाः श्रीमच्छ्रीजिनचंद्रसारिप्रमुखाः श्रीसूरयो भूरयः । येषां कीर्तिनटी कृतामरतटीस्नाना प्रधाना गुणैरारूढा सुरशैलवंशशिखरेष्वद्यापि या खलति ॥ ३॥ ततश्च ॥
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EXTRACTS FROM MANUSCRIPTS
तीर्थोवाकरमोक्षसिंधुझषगोरक्षा कुशास्त्रप्रतिसर्वावास्यजिनेशशासनयतित्राणावदाताक्षरैः । चंद्रे चिन्हमिषान्निजां सदभिधामारोपयामास यो जज्ञेऽसौ जिनचंद्रसूरिसुगुरुस्साहिप्रबोधप्रदः ॥ ४ ॥ तत्पट्टे जिनसिंहमूरिरुदगाद्भास्वानिवानंदयन् लोकान्साहिसरोरुहं निजगवा प्रोद्बुध्य भास्वत्प्रभः । आषण्मासममारिघोषपटहामोदैः सवासा दिशश्चक्रे वक्रनतिप्रवादिनिकरध्मातावलीध्वंसकः ॥ ५ ॥ गंगोत्तुंगतरंगभंगिविलसम्छोभर्घिसंस्पर्धिनि स्वगंगापुलिने सुनेत्रनलिने चांद्रे मृगे मोहनम् । कुर्वत्योऽप्सरसो विशेषितरसा गायति येषां गुणांस्तत्पट्टे जिनराजसरिगुरवो मुंजंति राज्यश्रियम् ॥ ६ ॥ श्रीअंबिकालब्धवरप्रसादाश्चारित्रलक्ष्मीविपुलप्रसादाः । प्रतिष्ठितानेकजिनप्रसादा जयंतु पूज्या विगतावसादाः ॥ ७ ॥ अश्रेयः- - -प्रसादमधुरीपीयूषपुत्किराः कामोन्मादहराः कृपारसघना आनंदकंदांकुराः । श्रुत्वा सज्जनमानसानि रुचिरा हृष्यति येषां गिरस्तत्पट्टे जिनसागरा अपि दधुराचार्यसंझं पदम् ॥ ८॥ येषामेष गुणान्पुराणपुरुषो वक्रैश्चतुर्भिः स्फुरजिव्हाकैर्वदनैरनिद्यरदनैौरीवरः पंचभिः । पाडुः षण्मुख एष दोषरहितं गायति ते जज्ञिरे शाखायां जिनभद्रसूरिगणपा आद्या नमन्नाकिनः॥९॥ तच्छिष्याः समजायताक्षयजया मध्येसभं वाग्मिनां श्रीपद्मादिम - कवाचकवरा ग्रंथावलीवाचकाः ।
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यद्वाचो यमकादिचित्ररचिता भावैर्नवैः प्लाविताः श्रुत्वाद्यापि जनस्य कस्य हृदयं चित्रीयते नो इह ॥ १० ॥ शिष्यस्ततोभून्मतिवर्धनोस्य विद्याप्रदानान्मतिवर्द्धनो यः । विनेयवर्येषु निसर्गवाग्मी न स्पर्द्धनं येन चकार वाग्मी ॥ ११ ॥ दुष्टव्यंतरसंगसज्जितबला मारिर्मदा व्यंतरी सात्रैवापुरि वारिता निजतनुं दत्त्वार्दयंती जनान् । येन श्रावकलोकरक्षणकृते भूपालवंद्यक्रमो विद्यादानजनिष्ट मेरुतिलकस्तस्यांतिषवाचकः ॥ १२ ॥ निर्विकारसदाचारदयाकलशसन्निभाः। तत्सती• यथार्थाख्या दयाकलशवाचकाः ॥ १३ ॥ मतिमदमरमाणिक्याभिधानाः प्रधानाः प्रगुणगुणसमूहैर्वाचनाचार्यधुर्याः । समजनिषत जाग्रत्साधुमार्गाधिकारा दलितमदनसारास्तद्विनेया उदाराः॥१४॥ तत्पादपंकेरुहचंचरीका रूपश्रिया मोहितसुंदरीकाः । श्लाघाविधानोद्यतकिन्नरीकाः श्रीसाधुकीया॑वयका बभूवुः ॥ १५ ॥ ख्याताकब्बरपादसाहिपरिषन्मध्ये विदां साक्षिकं कृत्वा वादमखर्वगर्वचटितं निर्जित्य दुर्वादिनम् । आविष्कृत्य --- पौषधविधौ नेत्यक्षरं ह्यागमे वादीद्र बिरुदं नृपादकबरालेभे समं कौविदैः ॥ १६ ॥ शास्त्राध्यापनसत्रसद्मनियतं यैर्मडितं भूतले पायंपायमपायदोषविकलं विद्यारसं पूरुषाः । आघ्राता इव नापरत्र विदधुस्त प्रार्थनं वाग्मिनां भंगारोपमसाधुकीतिगणयः श्रीपाठका जज्ञिरे ॥ १७ ॥
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EXTRACTS FROM MANUSCRIPTS
विमलतिलकनामा तद्विनेयेषु मुख्यः स्वगुरुपरमभक्तश्चारुचारित्रयुक्तः।। इह हि विजयतेऽसौ ज्ञातसिद्धांतयुक्तिः सततमधिकमस्मद्भक्तिभावं दधानः ॥ १८ ॥ तच्छिष्योस्ति च साधुसुंदर इति ख्यातो द्वितीयो भुवि तेनेषा विवृतिः कृता मतिमतां प्रीतिप्रदा सादरम् । स्वोपज्ञोत्तमधातुपाठविलसत्सद्धातुरत्नाकरग्रंथस्यास्य विशिष्टशाब्दिकमतान्यालोक्य संक्षेपतः ॥ १९ ।। व्योमसिद्धिरसक्षोणीमितेऽब्दे विवृतिः कृता । क्रियाकल्पलतानाम्नी शुभे दीपालिकादिने ॥ २० ॥ गुरुभाक्तिप्रतिष्ठेन विद्वद्विमलकीर्तिना। ग्रंथोयं प्रथमादर्श सुविविष्य निवेशितः ॥ २१ ॥ अधिकविषममेतद्धातुरूपस्वरूपं किमपि लिखितमत्र श्रेष्ठशास्त्रानुसारात् । भवात हि यदशुद्धं पाणिनीयैः प्रसद्य तदिह विबुधमुख्यैः शोध्यमेषोंजलिवः ॥ २२ ।। यावद्वयोम्नि निशा शशांकधवला ताराकुलैराकुला यावदानुरनूनभानुभिरसौ ध्वांतं निहंति स्फुटम् । यावत्तिष्ठति पुष्पदंतसहितं हेमाचले भूतले तावच्छास्त्रमिदं विदंभहृदये जागर्तु विद्यावताम् ॥ २३ ॥ इति क्रियाकल्पलतानाम्नी वृत्तिः समाप्ता ।
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No. 3. Panchavastutika, by HARIBHADRA [ पञ्चवस्तुटीकाहरिभद्रः]. Begins :
प्रणिपत्य जिनं वीरं नृसुरासुरपूजितम् ।
व्याख्या शिष्याहता पंचवस्तुकस्य विधीयते ॥ १ ॥ इह हि पंचवस्तुकाख्यं प्रकरणमारब्धुकाम आचार्यः शिष्टसमयप्रतिपालनाय विन्नविनायकोपशांतये प्रयोजनादिप्रतिपालनार्थ चादावेवेदं गाथासूत्रमुपन्यस्तवान् ।
Ends:
गाहग्गं पुण इत्थ णवरं गाणऊण ठाविअं एअं। सीसाण हिअटाए सत्तरससयाणि भाणेण ॥ १७१४ ॥ समाप्ता चेयं पंचवस्तुकसूत्रटीका शिष्यहिता नाम कृतिर्द्धमतो याकिनीमहत्तरायाः सूनोराचार्यहरिभद्रस्योति।
कृत्वा टीकामेनां यदवाप्तं कुशलमिह मया तेन ।
मात्सर्यदुःखविरहाद्गुणानुरागी भवतु लोकः ।। ग्रंथाग्रं श्लोकतः ॥ ६७०६॥
No 4. A Commentary on the Gachchhacharaprakirnaka. by VIJAYA VIMALAGANI [ गच्छाचारपईन्नावृत्तिः-विजयविमलगणिः]. __Leaves 1 10 109. Begins : भट्टारकप्रभुश्री६आनंदविमलसारेगुरुभ्यो नमः ।। उद्बोधं विदधेव्जानामिव भव्यशरीरिणाम् । गोविलासैनिजैर्योसौ जीयाद्वाररविश्चिरम् ।। १ ॥
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पदपद्मं स्वगुरूणां सदा सदाचारचरणचंचूनाम् । नवा विदधे विवृर्ति गच्छाचाराख्यसूत्रस्य ॥ २ ॥
Ends:
इति तपागच्छनभोनभोमणि कलिकालगौतमावतारभट्टारकपुरंदरश्री ६ आनंदविमलसूरीश्वर चरणसरसीरुहरजश्चंचरीकायमाणपं० श्रीविजयविमलगणिविरचितायां गच्छाचाराभिधप्रकीर्णकटीकायां श्रीगुरुपर्वत्र मवर्णनाधिकारः समाप्तः ॥ ग्रंथाग्रम् ॥ ९८९०
No. 5. Visvalochanakosha [ विश्वलोननः]Leaves 1 to 99.
Begins :
जयति भगवानास्तां धर्मः प्रसीदतु भारती वहतु जगती प्रेमोदारं तरंत्वशुभं जनाः । अयमपि मम श्रेयान्गुम्फस्तनोतु मनोमुदं
किमधिकमितस्त्यक्तावेगा भवंतु विपश्चितः ॥ १ ॥
सेनान्वये सकलसत्वसमर्थित श्रीः श्रीमानजायत कविर्मुनिसेननामा । आन्वीक्षिकी सकलशास्त्रमयीव विद्या यस्यां सवादपदवीव दवीयसीव ॥ २ ॥ तस्मादभूद खिलवाङ्यपाददृश्वा विश्वासपात्रमवनीतलनायकानाम् । श्रीश्रीधरः सकलतत्कविगुंफ तत्वपीयूषपान कृ तिनिर्ज्जरभारतीकः ॥ ३ ॥ तस्यातिशायिनि कवेः पाथ जागरूको धीलोचनस्य गुरुशासनलोचनस्य । नानाकर्त्रीद्ररचितानभिधानकोशानाकृष्य लोचनमिवायमदीपि कोशः ॥ ४ ॥ साहित्यकर्मकवितागमजागरूकैरालोकितः पदविदां च पुरे निवासी । वर्त्मन्यधव्य मिलितः प्रतिभान्वितानां चेदस्ति दुर्जनवचो रहितं तदानीम् ॥ ५ ॥ यत्नो मयायमनपायमशेषविद्याविद्याधरीपरिवृढस्य मतौ नियोक्तुम् ।
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त्यक्त्वा पुनर्विमलकौस्तुभरत्नमन्यो लक्ष्मीविनोदरसिको रसिकोस्ति धन्यः । ६। नागेंद्र संग्रथितकोशसमुद्रमध्ये नानाकवींद्रमुखसूक्तिसमुद्भवेयम् । विद्वग्रहादमरनिर्मित पट्टसूत्रे मुक्तावली विरचिता हृदि संनिधातुम् ॥ ७ ॥ वीतरागस्य सुरभेर्यशः कुसुमशालिनः ।
श्रितोस्मि चरणस्थानं यः पुंनागत्वमागतः ॥ ८ ॥
स्वरकादिक्रमादादिर्निर्णीतोन्तश्च कादिभिः ।
द्वितीयेप्यत्र वर्णेस्ति नियमः काद्यनुक्रमात् ॥ ९ ॥ अथानेकार्थशब्दसंग्रहः क्रियते ॥
PRESERVED AT ANHILWAD PATAN.
Ends :
इति विश्वलोचनाभिधानकोशेऽव्ययकांडः समाप्तः ॥
समाप्तं चेदं विश्वलोचनाभिवानशास्त्रम् ॥
No. 6. Pradyumnacharitamahakavya, by RATNASINHA [ प्रद्युम्नचरितमहाकाव्यम् - रत्नसिंहः ] .
Begins :
श्रीमान्नाभिभवः स्वामी श्रियो दिशतु देहिनाम् ।
सर्वज्ञः पुंडरीकाक्षः प्रबुद्धः पुरुषोत्तमः ॥ १ ॥
Ends :
•
इति श्रीमत्तपागच्छाधिराजहेमसोमसूरिविजयराज्ये प्रद्युम्नचरिते महाकाव्ये कृष्णावसानबलस्वर्गगमनश्रीनेमिनिर्वाणवर्णनो नाम अष्टादशः सर्गः ॥ १८॥
१७५२
श्रीविक्रमात् शशधराद्रिरसक्षमांक संख्यासु संप्रतिगतासु समासु सम्यक् । मासेश्विने स्मरतिथावसिते सुरेज्ये वारे स्मरस्य चरितं रचितं सुचारु ॥ १८ ॥ इति प्रशस्तिः ॥
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No. 7. Upadesamalavachuri [उपदेशमालावचूरि :].
Leaves 1 to 15.
Ends:
उपदेशमालाप्रकरणावचूरिः समाप्ता - लिखिता श्रीतपागच्छाधिराजसोमसुंदरसरिशिष्यपंडितविवेक समुद्र गणिशिष्याणुनामरचंद्रेणगणिना स्वपरोपकाराय संवत् १९१८ वर्ष फाल्गुन ११ दिने बुधवारे कर्करामहानगरे || श्री श्रमण संघस्य श्रीरस्तु ॥
उपदेशमालाप्रकरणं श्रोधर्मदासगणना स्वपुत्रप्रतिबोधायकृतमित्याज्रायः ॥ स चैवम्
विजयविजयपुरे विजयसेनो राजा तस्य जयाजयौ देव्यौ जयादेव्या रणसिंहपुत्रो दीक्षां जग्राह । स च जातमात्र एव अजयादेव्या छद्मना त्याजितः । कतिचिद्वत्सरांते ज्ञातो अजयावृत्तांतः । पुत्रं राज्ये संस्थाप्य संजातवैराग्यो विजयसेनराजा जयादेवी भ्रातृविजयसहितः श्रीमहावीरपार्श्वे दीक्षां जग्राह । एकादशांगीमधीतवान् । अत्युग्रतपोविशेषाद्विजयसेनराजर्षेरवविज्ञानमुत्पेदे । धर्मदासगणिलोंके नाम प्रसिद्धम् । तेन व स्वपुत्रस्य रणसिंहस्य प्रातस्वराज्यत्य कलिच्छलनामालोक्यदें प्रकरणं चक्रे तस्य पठनाय । ततश्व पुत्रमातुलस्य विजयर्षेः सर्वे संभाल्य प्रोक्तं । यःप्रस्तावे त्वयैतत्प्रकरण पठनोपदेशपूर्व रणसिंहो बोधनीयः । अन्यदा । विजयमहार्षेर्जया साध्वीयुतस्तीर्थयात्रां कुर्वन् विजयपुरे समायातः । तमागतं श्रुत्वा रणसिंहनृपो मुनिं वंदितुं गतः । स च तेन पितृवृत्तांतभवनपूर्वमुपदेशमालां श्रावितः सकृच्छ्रवणेपि तस्य कंठगता जाता । ततश्चार्थं परिभावयतस्तस्य वैराग्यं जातं क्रमेण दीक्षां लावा शिवं जगामेति बृद्धाम्नायः ॥ इति श्रोउपदेशमालोत्पत्तिप्रबंधः ।
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No. 8. The Mulasuddhiprakarana or Sthanakani, by PRADYUMNASURI, with a commentary by DEVENDRACHARYA (7791द्धिप्रकरणं सटीकम्- मू० मा० प्रद्युम्नसूरि :-टी० देवनन्द्राचार्यः].
Leaves 1 to 384. Commentary begins :
ॐ नमः सर्वज्ञाय । बालत्वे शैलराजं चलदखिलधरामंडलं कंपयि वा शुद्धं सम्पत्करत्नं सुरविसुरपतेर्मानसे यश्चकार । तं नत्वा वर्द्धमानं चरमाजिनपति मूलशुद्धेः स्व शक्त्या
स्पष्टां व्याख्यां विधास्ये निजगुरुचरणद्वंद्वसद्भक्तियोगात् ॥ १ ॥ तत्र श्रीसुगृहीतनामधेयो भगवान् श्रीमत्प्रद्युम्नसूरिः श्रमणोपासकप्रतिमासंक्षिप्तस्वरूपावबोधशुद्धिश्रावकप्रार्थनातः संक्षेपत एव तत्स्वरूपमभिधातुकामो मिथ्यात्वांधकारबहलपटलांतरितदर्शनान् भूरिभव्यजीवानाप भगवत्सर्ववेदिप्रभुप्रणोतप्रवरवचनप्रतिपादितप्रकरणोपलंभतदवबोधकं दिनकर इव भास्वरकरनिकरमादित्य एव दर्शनप्रतिमायां किंचिद्विशेषस्वभावाविर्भावकं मूलशुद्धय भिधानं स्थानकानीत्यपरनामकं प्रकरणमारब्धवान् । Commentary ends :
इति श्रीदेवचंद्राचार्यविरचितमूलशुद्धिस्थानकविवरणं समाप्तम् ।। आसीचंद्र कलांवरैकशशिनि श्रीपूर्णतल्लीयके गच्छे दुर्धरशीलधारणवरैः संपूरिते संयतैः । निःसंबंधविहारहारिचरितश्चंचच्चरित्रः शुचिः श्रीसूरिमल वनितोर्जितमतिप्राया॑म्रदेवाभिधः ।। १ ।। तच्छिष्यश्री(धर)गणिरभव - - - - - - - - मन्वितः । नरनायका - - - - - - निर्मुक्तः ॥ २ ॥
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सूरिस्ततोभूद्गुणरन्नसिंधुः श्रीमान्यशोभद्र इति संज्ञः ।
विद्वान् क्षितीशैर्न्नतपादपद्मः स नैष्ठिको निर्मलशीलधारी ॥ ३ ॥ निरागोपि विधानतो निजजनुः संख्यि सर्वादारात् सर्वाहारविवर्जनादनशनं कृत्वोज्जयंते गिरौ । कालेप्यत्र कलौ त्रयोदश दिनान्याश्चयंहेतु -
THE
शंस्यं पूर्वमुनीश्वरस्य चरितं संदर्शयामास यः ॥ ४ ॥ तच्छिष्यो अरिबुद्धिर्मुनिवरनिकरैः सेवितः सर्वकालं सच्छास्त्रार्थप्रबंध प्रवरवितरणा लुब्धविद्वत्सुकीर्त्तिः । तेनेदं स्थानकानां विरचितमनघं सूत्रमत्यंतरम्यं श्रीमत्प्रद्युम्नमूरिर्जितमदनभटोभूः सतामग्रगामी ॥ ५ ॥ राद्धांतस्तर्कसाहित्यशब्दशास्त्रविशारदः ।
निरालंबविहारी च यः शमां महोदधिः ॥ ६ ॥ सिद्धांतदुर्गममहोदधिपारगामी कंदर्पदर्पदलनोनघकीर्त्तियुक्तः ।
ग्रंथाग्रं १३०००
No. 9. Sarasvatatika, by PUNJARAJA [ सारस्वतटीका - पुञ्जराजः ]. Begins:
आनंदेकनिधिं देवमंतराय तमोरविम् ।
दयानिलयनं वंदे वरदं द्विरदाननम् ॥ १ ॥ इति प्रसन्नया वाचा विविच्यार्थमशंसयम् । टीकासारस्वतस्येयं यथानति विनिर्मिता ॥ १ ॥ हिमालयादामलयाचलं यो विशोभयामास नहीं यशोमिः । आसीन्नुपालस्पृहणीयसंपत्साधुः सदेपाल इति प्रसिद्धः ॥ २॥ आर्येषु वर्यः परकार्यधुर्यः स्मर्यः सतां पौरसरोजसूर्यः । तत्सूनुरौदार्यनिधिर्बभूव कोराभिघो दुर्हृदवार्यधैर्यः ॥ ३ ॥
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तत्सेवितो ललितलक्षणकांत मूर्तिराशाप्रसादनकरः सदनं कलानाम् । जैवातृकः कुवलयप्रथितोपकारः पामाभिधान उदियाय ततो नृसोमः ॥ ४ ॥ प्रथितविपुलश्रीश्रीमालान्ववायविशेषकः सकलजगतीजाग्रत्कीर्तिः सुधीरनसूयकः । अमितविभवो गोवासाधुस्ततोऽजनि जानकीरमणचरणप्रेमानंदादुदंचितसात्विकः ॥ ५ ॥
तत्सुतः सुकृतशोभितसंपत्प्रीणितावनिवनीपक आसीत् । वैभवेष्यविकृतो भुवि मूर्तः पुष्पराशिवि यांपचसाधुः || ६ || अभूत् कुटुंबस्थितिभारधारिणी नदी यदीया सहधर्मचारिणी । सदान्नदानावृतक्षिया जनं कुशेशयाकारशया पुपोष या ॥ ७ ॥ तन्नंदनौ सुमतिसाधितपौरुषार्थाचापनिमग्नजनतोद्धरणे समर्थौ । ख्यातौ गणैर्जगति जीवनमेव संज्ञावाज्ञावशीकृतनृपौ सरुपावभूताम् ॥ ८ ॥ श्रीविलासवतिमंडपदुर्गे स्वामिनः खलचिसाहिगयासान् । प्राप्य मंत्रिपदवीं भुवि याभ्यामजितोर्जितपरोपकृतिश्रीः ॥ ९ ॥ जीवनो भुवनपावनकीत्तिः मंत्रिभारमनुजे विनिवेश्य | ब्रह्मवित् स जगदीश्वरपूजा कौतुकेन समयं समनैषीत् ॥ १० ॥ नमदवनसमर्थतत्त्वविज्ञानपार्थः सुजनविहिततोषः श्रीनिधितदोषः ।
अवनिपतिशरण्यात्प्रौढधीर्मेघमंत्री
मफरलमलिकाख्यां श्रीगया सादवाप ॥ ११ ॥
पतिव्रती जीवनधर्मपत्नी धन्या मकूनाम कुटुंबमान्या । श्रीपुंजराजाख्यमसूत पुत्रं मुंजं च तैस्तैश्चरितैः पवित्रम् ॥ १२ ॥
जयति मदनमुद्रः मज्जनप्रेम सांद्रः सगुणमणिसमुद्रः कीत्तिविद्योत चंद्रः ।
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EXTRACTS FROM MANUSCRIPTS
नयविनयविनिद्रः पुण्यलक्ष्मी समुद्रः समरसमयरुद्रः पुंजराजो नरेंद्रः ॥ १३ ॥ यस्याभाति सभातिरस्कृतमदप्रहृप्रभावोद्धुरक्षोणी मंडनमंडलेश्वरमहाराजन्यमान्यान्विता । विद्यावदविनोद मोद विभवद्रोमांच विद्वद्वचो
जाग्रद्रूपसरस्वतीनिवसतिर्लक्ष्मीविलासायिता ॥ १४ ॥ अनुजे गुणवत्युदारचित्ते गुरुदेवद्विजभक्तिभाजि मुंजे । य उपाहितराजकार्यभारः प्रभुतासौख्यमनाकुलं बिभत्त ।। १५ ।। रसोल्लसितया गिरा चतुरचित्तमानंदयन्
कलासु सकलासु यः कलितकेलिकौतूहल: ।
विमत्सरतया दधन्निखिलशास्त्रतत्वज्ञतां
करोति करुणाकरो वनमनीषिसंमाननाम् ॥ १६॥ प्रतिगृहमभिगम्य स्वर्णनिष्कान्वितानामुपचितकतकानां मोदकानां प्रदानः ।
विदलितदुरवस्थान लक्ष्यसंख्यान गृहस्थान्
अतुलितमहिमा यः क्षाम कालेभ्यनंदत् ॥ १७ ॥
अनिवारितवांछितार्थदानैरतिदुर्भिक्षबुभुक्षयार्दितानाम् ।
गणशः समुपेयुषां जनानामकरोज्जीवितरक्षणं यदेकः ॥ १८ ॥ अनेकशो येन विधीयमानैस्तुलादिदानै रूप लब्बसंपत् । विद्वज्जनो दीव्यति विदमानः श्रीभारतीसंनिधिसख्यसौख्यम् ।। १९ ।। विबुधानमिनंदतो विपक्षक्षितिभृज्ज्ञातपराक्रमस्य (तस्य) | उदयद्युधिचापताशु शंसत्यरिनारीनयनेषु भूरिवर्षम् ॥ २० ॥ योयं रुचिरचरित्रो गुणैर्विचित्रैरपि प्रसभम् । दिग्दंतावलदतावलीव लक्षं यशस्तनुते ॥ २१॥
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PRESERVED AT ANUILWAD PATAN. 169 सोयं टीका व्यरचयदिमां चारुसारस्वतस्य व्युत्पित्सूनां समुपकृतये पुंजराजो नरेंद्रः । गभीरार्थे रुचितविवृतैः स्वीयसूत्रः पवित्रामेनामभ्यस्यत इह मुदा शारदा सुप्रसन्ना ॥ २२ ॥ इति श्रीमालकुलश्रीमालभारश्रीपुंजराजविनिर्मिता सारस्वतटीका संपूर्णा ।।
No. 10. Suktidvatrinsikavivarana [ सूक्तिद्वात्रिंशिकाविवरणम्]. Begins :
श्रीपार्श्वजिनमानम्य पूर्व दिग्व्याकृतां स्वयम् । . सूक्तिद्वात्रिंशिकां भावभेदतो विवृणोम्यहम् ॥ १ ॥
Ends:
अथ कदायं ग्रंथः संजात इति शंकानिराकरणाय विवरणांतश्लोकानाहपंचाशन्नपसंख्यांके वर्षे विक्रमवसरात् ।
चैत्र श्रुक्लत्रयोदश्यां ग्रंथोयं रचितो मुदा ॥ १ ॥ द्वात्रिंशता दोधकानां वृत्तैरन्यात्मबोधये । विवृतोपि स्वयं शीघ्रं विशोध्योतिविचक्षणैः ॥ २ ॥ श्रीजाबालपुरे प्राज्यं राज्यं शासति शक्तितः । गजनीयवनाधीशे तरुणं तरुणिप्रभे ॥३॥ यावच्छशिरविदीपे मणी भांतो नभस्तले । तावदोधकवृत्तानीमानि नंदंतु सन्मुखे ॥ ४ ॥ • इति श्रीसूक्ति द्वात्रिंशिकाविवरणं समाप्तमिति ॥ वृत्तिग्रंथसंख्या १९८श्लोक ४ संवत् १६५२ श्रावण शुदि १४ शुक्रे पत्तने गुणजी ---
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EXTRACTS FROM MANUSCRIPTS
No. 11. Vakyapradipa, by HARIVRISHABHA [ वाक्यप्रदीप :हरिवृषभः ]•
Begins:
अनादिनिधनं ब्रह्म शब्दतत्त्वं यदक्षरम् ।
विवर्त्ततेर्थभावेन प्रक्रिया जगतो यतः ॥ १ ॥
अर्थप्रतिपत्तिरभ्यासाद्वा प्रमत्तानामक्षिनिकोचनादिवत्संप्रत्ययशब्दमात्रं
जायते ।
इति श्रीहरिवृषभमहावैयाकरणविरचिते वाक्यप्रदीपे आगमसमुच्चयो नाम ब्रह्मकांडः समाप्तः ॥
ग्रं० १००० श्रीमत्संवत् १६७९ वर्षे प्रथम
Ends :
No. 12. Jainadharmavarastavana, by BHAVAPBABHASURI-with Author's Commentary [ जैनधर्मवरसंस्तवनं - सटीकम् द्वयोः भावप्रभसूरिः ].
Commentary begins:
नव्या पार्श्वजिनेंद्राय गुरवे वाणयेपि च । कल्याणमंदिरांत्यांघ्रिसमस्यारचनाश्रितम् ॥ १ ॥
जैनधर्मवस्स्तोत्रं कृतं यन्मयका मुदा । तस्य च क्रियते वृत्तिः श्रीभावप्रभसूरिणा ॥ २ ॥
Text ends :
इति श्रीकल्याणमंदिरांत्यपादसमस्यामयं श्रीजैनधर्म व रसंस्तवनं श्रीमट्टारकश्रीश्रीभावप्रभसूरिणा विचितं सूत्रतो, वृत्तितश्च संपूर्णम् ॥
शुभं भवतु ॥ कल्याणमस्तु ॥
Commentary ends :
चंद्रनवसप्तैकमिते १७९१ वर्षे मार्गशीर्ष शुक्लपक्षाष्टम्यां तिथी संपूर्णा जाता पंडितजनविंशोधनीया माये कृपां कृत्वा संवत् १७९१ चैत्रवदि चत
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RESERVED AT ANAILWAD PATAN. 171 ा तिथी चंद्रवारे अणहिलपुरपत्तने ढंढेरपाटके श्रीभावप्रभसूरिचरणसरोजरोलंबायमानशिष्यपुण्यरत्नेन प्रथमादर्श लिखितं पुस्तकमिदम् ।। वाच्यमानं चिरं नंद्यात् ॥ श्रीः॥
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APPENDIX III. Extracts from MSS. purchased
for Government.
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༢༠་སྒྲ་
སྐྱེ་
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Extracts from MSS. purchased
for Government. No. 52. Rudrasutra, by ANANTADEVA [ रुद्रसूत्रम्-अनन्तदेवः]. Begins: सिद्धिबुद्धिप्रदातारं विघ्नव्यूहविदारणम् । महागणपति वन्दे भक्तकल्पमहीरहम् ॥ १॥ श्रीनृसिंह रमानाथं सच्चिदानन्दविग्रहम् । विधीन्द्रादिभिराराध्यं भक्तकामदुघं भजे ॥ २ ॥ सच्चिदानन्दरूपाय शिवादेहार्द्धधारिणे । नम ॐकारवाच्याय शिवायाभीष्टदायिने ॥ ३ ॥ याज्ञवल्क्यमुनीन्नत्वा कात्यायनमुनींस्तथा । श्रीगुरून्पितरौ रुद्रग्रन्थकर्तस्तथा परान् ॥ ४ ॥ श्रुति शतपथं वीक्ष्य बृहत्पाराशरी स्मृतिम् । बौधायनमुनेः सूत्रं श्रीमदुद्धवसूनुना ॥ ५॥ तन्यतेऽनन्तदेवेन रुद्रकर्मप्रकाशकम् । उपकाराय सर्वेषां सूत्रं वाजसनेयिनाम् ॥ ६ ॥ अथातः पचाङ्गरूद्राणां न्यासपूर्वकजपविधि व्याख्यास्यामः ।। Ends : श्रीमदु द्ध वपुत्रेण काशीपुरनिवासिना। धीमतानन्तदेवेन श्रुतिस्मृतिसमुद्धृतम् ॥ १ ॥ त्रैवेद्यमोढसंज्ञेन रुद्रस्त्रं समाप्तम् । मदीयनामयोविष्णुवन्द्ययोः शिवपादयोः ॥ २ ॥ मुहुर्मुहुः प्रार्थयेहं सज्जनान् शुद्धमानसान् । मयोक्तमिह संशोध्यं विचार्य सदसच्च यत् ॥ ३ ॥
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EXTRACTS FROM MANUSCRIPTS
यश्च श्रमः समुत्पन्नो ग्रन्थस्यास्य विलेखने । सर्वात्मानेन विश्वेशः प्रीयतां परमः शिवः॥ ४ ॥ श्रीमदुद्भवात्मजानन्तदेवविरचितं रुद्रप्रसादकाख्यं रुद्रसूत्रं संपूर्णम् ॥ ॥
No. 73. Sarvanukramanipaddhati, by YAJNIKASHRIDEVA [ सर्वानुक्रमणीपद्धतिः-याज्ञिकश्रीदेवः]. Begins :
अथ वाजसनेयावान्तरभेदमाध्यंदिनीयाख्ययजुर्वेदसंहितामन्त्राणामषिस्छन्दांस्यभिधीयन्ते । ते च मन्त्रा द्विविधा ऋग्रूपा यजूरूपाश्च । तत्र नियताक्षरपादावसाना ऋगित्युच्यते । अनियताक्षरपादावसानं यजुरिति । Ends: तेजोमयो ब्रह्ममयोऽमृतमयो भूत्वा ब्रह्मैवाभिगच्छति ॥
इति श्रीत्रिर ग्निचित्सम्राट्स्थपतित्रिंशत्क्रतुरुन्महायाज्ञिकश्रीप्रजापतिसुतेनाग्निचित्सन्नाटस्थपतिपञ्चदशक्रतुकृद्याज्ञिकदेवकृतायां सर्वानुक्रमणीपद्धतौ चतुर्थोऽध्यायः॥ ___ समाप्ता चेयं सर्वानुक्रमणीपद्धतिः ॥ संवत् १७८७ वर्षे भाद्रपदे सोमवारे द्वितीयायां लिखितम् ॥ ॥
No. 96. Grahamakhatilaka, by MADHAVA [ग्रहमखतिलकःमाधवः]. Begins : स्वस्ति श्रीगणेशाय नमः ॥ अथ ग्रहमखतिलको लिख्यते ॥ गगनगगणपेनांभोजयोन्यब्धिवासोभृदधिपतिसुतेनान्दन्तिवनं च धीदान् ।
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PURCHASED FOR GOVERNMENT.
गुहमपि विधिपुत्र सिद्धयेऽहस्करादीन्गगनगमनवर्यान्बुद्धिवृद्ध्यै समीडे ॥ १ ॥ कृपा यदीया शरणागतानामुन्मूलिनी जाड्यमहाद्रुमस्य । सुदुस्तरेऽस्मिन्भवसागरे नौर्नमोस्तु तेभ्यः सततं गुरुभ्यः ॥ २ ॥ नानाविधग्रंथगतं हि सारमेकत्र कृत्वा तिलको ग्रहाणाम् । मखस्य लोकोपकृतिं विधातुं विरच्यतेऽयं कविमाधवेन || ३ ||
Ends :
आसीदाचार्यवंशे धरणिसुरवरः श्रीभरद्वाजगोत्रे कृष्णाचार्यः प्रसिद्धः शिवभजनरतो विश्वमित्रः पवित्रः । तत्पुत्रो माधवाख्यः कृतिकृतविविधग्रंथसारं गृहीत्वा चक्रे लोकोपकृत्यै ग्रहमखतिलकं सर्वसारं सुबोधम् ॥ १ ॥
इति श्रीमाधवाचार्यविरचितो ग्रहमखतिलकः संपूर्णः ॥
No. 109. Danapanjika, by SURYAKARASARMA [ दानपञ्जिकासूर्यकरशर्मा ].
Begins:
नीवीबन्धविधूननोद्यतकरो राधारतेरिच्छया कृष्णस्तत्क्षणमागतामभिमुख दृष्ट्वा यशोदां नुदन् । हे मातर्निजुगोप गोपवनिता मत्कन्दुकं वाससीत्येवं व्याजमुदीरयन्हरतु वः पापानि धूर्त्तक्रियः ॥ १ ॥ द्रोणवंशसमुत्पन्नो देवसिंहतनूद्भवः । धर्मकर्मरतः श्रीमान् नरराजो विराजते ॥ २ ॥ श्रीमता नरराजेन सर्वपापप्रणाशिनी ।
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क्रियते दानपञ्जीयं कलौ गङ्गेव निर्मला ॥ ३ ॥
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EXTRACTS FROM MANUSCRIPTS
नानापुराणमालोक्य सारमुद्धृत्य यत्नतः । कृतासौ द्विजमुह्येन श्रीसूर्यकरशर्मणा ॥ ४ ॥
Ends :
बलिर्दानैजितो येन येन कर्णोऽप्यधः कृतः । तेन श्रीनरराजेन येन पञ्जी प्रचारिता ॥ मदानपञ्जी नरराजदेवेनालोकिता वाक्यपरंपराभिः । सा शुद्धवाणी हृदि कामिनीव स किन्नराणां मुदमातनोतु ॥
इति समस्तप्रक्रियाविराजमानमहाराजाधिराजश्रीमत्कीर्तिसिंहदेवानामाज्ञया दानवाक्यस्य पुस्तकं समाप्तमिति ॥ ॥सं. १८७२ ॥
___No. 139. Vaishnavadharmasuradrumamanjari, by SAN - KARSHANA [वैष्णवधर्मसुरद्रुममञ्जरी-संकर्षणः]. Begins : सर्वज्ञो जगतः कर्ता भक्ताभीष्टप्रदो विभुः । यः केशवो नमामस्तं शरण्यं भक्तवत्सलम् ॥ १॥ Ends:
पूर्वाचार्यः सदाचारादिग्रन्थेषु सर्वविधोक्तधर्माणां विस्तरेण निरूपितत्वादिह मन्दमतीनामुपकाराय संक्षेपः कृतः ॥
सद्धर्मसेविनः पुंसो भगवान् भक्तवत्सलः। स्वपदं प्रापयत्येव माधवस्तं सदा श्रये ॥१॥ श्रीनिम्बार्कपदाम्भोजस्मरणोद्बुद्धबुद्धिना। संक्षिप्तोऽयं शास्त्रसारो जिज्ञासूनां हिताय वै ॥२॥ इति श्रीभगवन्निम्बादित्याचार्यमतानुवर्तिकाश्मीरिकेशवभट्टानुयायिना संकर्षणशरणेन विरचिता वैष्णवधर्मसुरदुममञ्जरी समाप्ता॥ ॥
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PURCHASED FOR GOVERNMENT. 179 No. 210. Nyayasiddhantadipa, by SASADHARA, with the Commentary of SESH ANANTA [न्यायसिद्धान्तदीपः-सटीकः मू० शशधरः टी शेषानन्तः]. Begins : दृष्टा कौस्तुभदिव्यदर्पणमुरः सासूयमुक्षिप्तया दृष्टया कामपि पूर्वपक्षरचनामालक्ष्य लक्ष्म्या हरेः । जीयासुः प्रतिबिम्बिमुत्तरयितुं मुक्तां विवाहोत्सवे तस्याः स्वप्रतिबिम्बिचुम्बिनि कुचद्वन्द्वे कटाक्षच्छटाः ॥ १ ॥ स्तनकलशतटीनटी बिपञ्चोमुचितपदे परितोषयन्त्यपाङ्गैः । दलयति दुरितानि तन्निनादप्रमदविकम्पितकुण्डला मृडानी ॥ २ ॥ स्वप्रभूतप्रतापेन शेषक्लेशजिहीर्षया । जमदग्निकुले जज्ञे पद्मनाभः किल प्रभुः ॥ ३ ॥ ॐकारः पितृपूजनोपनिषदामाश्चर्यकर्मोचितः सत्कारः फणिरत्नमचिशिखरप्रान्ते नटन्या भुवः । न्यक्कारो वलिनः कुले द्विजकुलप्राचीनपुण्यारप्रस्तारः स हरेः सहस्रकरजिल्लीलावतारः परः ॥ ४ ॥ अलंकरिष्यन् स महेन्द्रपीठमुत्कण्ठया भक्तजनस्य भूयः । वियोज्यमानक्षितिखेदशांत्यै प्रतापनाम्नावतरं बभार ॥५॥ स्वर्गापवर्गफल - - - - - दज्ञा यज्ञाशनो हिताः स्वहितानुरागात्। तत्पूजनोपनिषदः कलिकालसिन्धौ यः कर्णधार इव ताः पुनरुद्दधार ॥ ६॥ सदा सेव्यः स्वादुः परमचपळालेनलघुः श्रुतीनामध्वानं जलकलकले नाविदलयन् ।
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EXTRACTS FROM MANUSCRIPTS निबन्धो यस्योच्चैविविधविधिरत्नौवसुभगः परीहासः सिन्धोरतिविशदबन्धो विजयते ॥ ७ ॥ साहित्यभक्तिरसरङ्गयदुक्तिभङ्गे झंपानिपातविधिना वसुधां विहाय । पातालसीमनि भुजंगसमर्पिताङ्गी स्वर्ग सुधापि चकमे न पुनर्धरित्रीम् ।। ८ ।। ज्ञानाध्यानं शशधरकृतिव्याकृतिव्यक्तयुक्तिप्रत्यापन्ने द्रढिमवपुषा तर्कतन्त्रेण सन्यक् । व्यक्तीकर्तुं सटुपकृतये सप्रतापावनीन्द्रः शेषानन्तप्रणयकवि - - -- -- - निबंधम् ।। ९॥ सोयं शशधराचार्यकातिव्याकृतिकेतवान् [ कैतवात् । ततः शाङ्गधरादिष्टपुष्टिधीरुपतिष्ठते ॥ १० ॥ उचितमनुचितं वा कर्म निर्मातुमेकः प्रभवात नरवीरस्तत्र धीरः स रामः। इति कृतिषु न युक्ता वक्तुमौचित्यनिष्टा तदपि गुरुकृपायामस्ति नः प्रत्ययोपि ॥ ११ ॥
ॐ विशिष्टशिष्टाचारानुमिते श्रुत्युपदिष्टाभीष्टोपायताकमिष्टदेवतानमस्कारं शिष्यशिक्षायै निबध्नन्प्रेक्षावत्प्रत्यपेक्षितमनुबन्धचतुष्टयं सूचयन्नेव चि कीपितं प्रतिजानीते ॥ ध्वंसितेत्यादिना ॥ Ends :
इति श्रीसकलसामन्तचक्रचूझमणिमरीचिमजरीपरागपिञ्जारतचरणकम लकलिकर्णावतारश्रीमत्प्रतापराजोद्योजितशेषानन्तविरचितायां न्यायसिद्ध। न्तदीपप्रभायामीश्वरप्रकरणम् ॥
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शशधरग्रन्थस्य व्याख्यानमालम्ब्य संप्रत्यचीकॢपत् ।
षट्सहस्रा शतान्यष्टौ शेषा
वादि
संवत् १६२६ वर्षे कार्तिक शुदि १४ दिने ० ॥
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No. 274. Bhagavannamakaumudi, by LAKSHMIDHARA [भगवन्नाम कौमुदी - लक्ष्मीधरः ].
Begins :
अंहः संहरदखिलं सकृदुदयादेव सकललोकस्य ।
तरणिरिव तिमिरजलधिं जयति जगन्मङ्गलं हरेर्नाम ॥ १ ॥
कारुण्यामृतनिर्झरः सुरसरिज्जन्माकरः श्रीवधूलीलाब्जं व्रजकामिनी कुचतटीकस्तूरिकास्थासकः । उत्तंसः सुरयोषितां मुनिमनोवश्यौषधीपल्लवो यस्याङ्गिः सुरबल्लभः स जयति श्रीपुण्डरीकाप्रेयः ॥ १ ॥ कररुह कुलिशैर्द्विषतां चरणाम्बुजनखकान्तिभिर्भजताम् । हृदयग्रन्थीन्भिन्दन्मनास नृसिंहः समुल्लसतु ॥ ३ ॥ यदङ्घ्रिरेणुबीजानि जनैरुप्तानि मूर्द्धसु ।
सद्यः सुरद्रुमायन्ते श्रीधरः स श्रियेऽस्तु नः ॥ ४ ॥ उल्लसति लोचनाग्नौ जगदवदानानि जुह्वतो यस्य । प्रथमाहुतिमनोजः स जयति देवः पुरं भेत्ता ॥ १ ॥ यत्पादपद्मनखकान्तितरंगनीर्यज्जम्बालजाङ्किकधियां न धियामभूमिः । निःसीमसौख्यजलधिर्जयतादनन्तः सोस्मद्गुरुर्जगदनुग्रहजागरूकः ॥ ६ ॥
अपि च ॥
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अधीशं निःस्वानां शमदमतटीषु प्रवसतामशेषाणामाद्यं गुणगरिमनिर्मुक्तमपि यम् । मृपा मानाद्दूरं श्रुतिरूपचरन्ती सविनयं शनैर्यत्नादन्तर्नयति सुभगानां परिवृढम् ॥ ७ ॥
चेतश्वकोरसंतोषपीयूषाम्बुधिवृद्धये ।
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इयं विस्तार्यते श्रीमद्भगवन्नामकौमुदी ॥ ८ ॥
अत्र श्रीभगवन्नाममाहात्म्यप्रतिपादकानि पुराणवचनान्युदाहृत्य विचार्यते ॥
Euds :
इति श्रीमदनन्तानन्दरघुनाथपरमहंसपरिव्राजकाचार्यपादपद्मोपजीविनः श्रीमन्नृसिंहसू नोर्लक्ष्मीधरस्य कृती भगवन्नामक मुद्यां नामकीर्त्तनस्य केव लस्यैव पुरुषार्थत्वप्रतिपादनं नाम तृतीयः परिच्छेदः ॥ समाप्तोऽयं ग्रन्थः ॥
No. 307. Rijuvimala by SHALIKANATHAJMISRA [ ऋजुविमला नाम पत्रिका - शालिकनाथमिश्रः]
Begins :
आम्नायस्य क्रियार्थत्वात् । उक्तं कार्यमर्थे प्रतिपादयतो वेदस्य प्रामाण्यम् ॥ यस्यार्थः । कार्यमर्थं प्रधानतया प्रतिपादयतो वेदस्य प्रामाण्यमुक्तम् । प्रामाण्यव्युत्पत्तेर्व्युत्पत्त्यायत्तत्वाच्च तस्येति सहेतुकं प्रामाण्यमनुभाष्य पूर्वपक्षमिदानीमाह । यस्य पुनः कार्येऽर्थेऽन्वयो नावगम्यते । यकार्यतया तस्य कथं प्रामाण्यम् ।
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पत्रे १५ – महामहोपाध्यायश्रीशालिकनाथ मिश्रकृतायामृजुविमलाख्या
यां पञ्जिकायां प्रथमस्याध्यायस्य द्वितीयः पादः समाप्तः ॥
...
Ends:
सामसु अत्र कालविधानमेव मन्वानो न शक्नोति पूर्वपक्षयितुं विकृताभावार्थविधानात् । दर्शनग्रहाविकरणवद्प्रतिपक्षत्वाच्च भावार्थविधानस्येत्युक्तम् । अनेकगुणश्रवणाचेःयपि द्रष्टव्यम् । अतः स्तुत्यन्तरमेवेदम् | सामावशिष्टं विधीयते दानवदानान्तरकार्ये स्तुतिरपि स्तुत्यन्तरकार्ये वर्त्तत इति पूर्वपक्षयति समानजातीयत्वात् स्तुतिः स्तुत्यन्तरकार्ये वर्त्तत इति श क्यते वक्तुमिति प्राकृतस्तुतिनिवृत्तिः राद्धान्तस्तु स्यादेतदेवं । यदि गुणमात्रबिधिः स्यात्कैौञ्चादिवत् । इह तु विशिष्टविधानं अन्यथा यदि विशिष्टविधानं नाश्रीयते तदा यथाश्रुतान्वयानुपपत्तिः देशविशिष्टस्याप्यन्वयावगमात् । ततः किं यदि विशिष्टविधानं न स्तुत्यन्तरकार्ये वर्त्तत इति शक्यते वक्तुम् । अदृष्टार्थत्वात्स्तुतीनां दानेन दृष्टार्थतया युक्तो दानान्तरेण वैकृतेन प्राकृतदानप्रत्याम्नायः । न तु भाष्यकारेण साम्नां निवृत्तिरित्युक्तं न स्तुत्यन्तरेण स्तुतीनां निवृत्तिरित्युक्तं अतो भाष्यविरोधः उत्तरं फलतस्तद्वत् ।
No. 308. Tripadinitinayanam by MURARI [ त्रिपादीनीतिनंयनम् - मुरारिः ].
Begins :
ॐ नमः सरस्वत्यै॥
॥ आम्नायस्य ॥ १।२ । १ । उक्तं कार्यमर्थं प्रतिपादयतो वेदस्य प्रामाण्यं न चार्थवादानां कार्यार्थता विधिना सहैकवाक्यत्वे प्रमाणाभावात् । तस्मादप्रामाण्यमिति परेषां पूर्वपक्षः । ननु तेषां सिद्धेऽपि व्युत्पत्तेः कथं कार्या
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त्वमेव तत्राध्ययनविधिबलात् सिद्धस्पार्थस्य निष्प्रयोजनत्वादिति केचित्तदयुक्तम् । तथा सति तद्बलादेवैकवाक्यत्वप्रसङ्गात् । तस्माद्धर्मप्रामाण्यासद्धार्थतया न संभवति तच्चिन्तनीयमित्यभिप्रायः । कथमेकवाक्यताविरहः कार्यस्य कार्येण सहान्वयात् अर्थवादार्थस्य च सिद्धत्वात् कथं तर्हि नियोज्यान्वयो नियोज्यस्याकार्यत्वात् तत्र निरुद्वे नियोगेन सिद्धार्थान्वयो नियोज्यान्वयस्तु अनिरूढ एवार्थ इति केचित् । तत्र नियुक्तिकत्वात् । तथाप्यर्थवादानामनिरूढ एवान्वयोस्थिति बोधानिवृत्तेः अनिर्वाहकत्वादनिरूढिदशायां नान्वय इतिवत् । एवं तर्हि न सिद्धत्वे हेतुः स्यात् तथापि निरूढिदशायामनन्वये सिद्धत्वं हेतुरिति चेत् न कालादेरप्यन्वयदर्शनात् । तेषामपि क्रियानिवशेन साध्यतेति चेत् न अन्योन्याश्रयापत्तेः ॥ क्रियान्वये साध्यता साध्यत्वे च क्रियान्वयः इति तस्मादेवं वाच्यम् । कृत्यनुरञ्जनयोग्यं कार्यमत्राभिप्रेतं तच्च द्वयं नियोज्यकोटिर्वियप कोटिश्व । कोटिद्वयबहिर्भूतं सिद्धमभिप्रेतम् । न चातीतस्य चोदनादेर्वर्त्तमानस्यच वायुक्षेपिष्ठत्वादेः कोटिद्वये योग्यता विद्यत इति नैकवाक्यत्वम् । राद्धान्तस्तु । यद्यप्येकवाक्यता न प्रतीयते तथाप्यध्ययनविविना सार्थस्य वेदस्य प्रयोजनवदर्थपरत्वापादनात् ।
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Ends :
इदं तु वाच्यम् मत्वर्थोपल्क्ष्यमाणः केन लक्ष्यते । यदि प्रातिपदिकेन ततः पशुना यजेतेति वाक्ये पशुपदेन पशुमद्यजेर्लक्षितत्वात् करणैकत्वे पशुमद्यागे स्याताम् । गङ्गायामिवेत्यत्र तीरगतमधिकरणत्वं न तु जलगतम् । अथ पशुपदेन यागवान् स्वार्थो लक्ष्यते धवपदेन खादिवान् स्त्रार्थो न तु पशुमान् यागः। ततः पशुगत एव करणत्वे उच्यते । तन्न । तथापि तादृशेन गुणेन यजिनान्विताभिवानं कर्तव्यमिति । तं प्रति साध्यत्वेनार्थोग्रणीय इति कुतो न वैरूप्यम् । न चैवं पशुपदेन मत्वर्थलक्षणा स्यात् । मतुपः प्रातिपदिकार्थमुक्तार्थप्रतिपादकत्वात् । अथ यजिपदे मत्वर्थलक्षणा तदा
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तस्य विधायकत्वं मत्वर्थलक्षकत्वं चेति विरोधः । तत्र केचिद्यजिपदमेव लक्षकमाहुः । नतु ततः परोत्पन्नो मतुप्प्रत्ययः किं नु पशुमान्यजिरिति लक्षणार्थः । तदा च पशुपदमर्थवादः । तस्य तु यादृशमुपनेयं तद्वतो यजिना स्वार्थस्य लक्षणात् । पशुपदमेव पश्चात्रिकरणेति विचारितम् । अत एव पञ्जिकायामुद्भिन्नत्वति मत्वर्थलक्षणा दर्शिता। याजनैव तादृशस्य लक्षणात् । न च लाक्षणिकत्वे विधायकत्वं न भवतीति वाध्यम् । प्रत्यायकस्य विधायकत्वात् । अन्ये तु पशुपदमेव लक्षकं किं तु न प्रातिपदिकमात्रम् । ततश्च विभक्तिमुख्यानुगतमेव स्वार्थमाह । प्रत्ययार्थयुक्तश्च प्रातिपदिकार्थो निष्पन्नः समासपदस्यापि लक्षकत्वात् । तस्मात्यशुनेति पद एव लक्षणा नष्टेति वाच्यम् । समासपदस्यापि लक्षकत्वात् । तस्मात्पशुनोत पद एव लक्षणा मत्वर्थय । न तु प्रातिपदिकमात्र एव अत एवाह।
मत्वर्थो वाक्यवेलायामात्मवाक्यवशाद्भवेत् ।
एकार्थपदवेलायां गृह्यमाणो हि दुर्वचः ।। तस्मात्सिद्धमुद्भिदादीनां तद्भयान्नामधेयत्वमिति । इति महामहोपाध्यायमिश्रमुरारिकृतो त्रिवादीनीतिनयनं समाप्तमिति ॥
No. 309. Vidhirasayanam by APPYADIKSHITA [विधिरसायनम्अप्यदीक्षितः]. Begins : उद्घाट्य योगकलया हृदयाब्जकोश धन्यैश्विरादपि यथारुचि गृह्यमाणः । यः प्रस्फुरत्यविरतं परिपूर्णरूपः श्रेयः स मे दिशतु शाश्वतिकं मुकुन्दः ॥ १ ॥
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जन्मस्थेमयं समस्तजगतां यस्यैव लीलायितं यस्मिन्नायतते भवस्थिर महारोगक्षयः प्राणिनाम् । तद्ब्रह्मादिभिरप्यगभ्यविभवं विश्वाधिकं शाश्वतं साम्बब्रह्मरसालमुल रसिकं साक्षात्क्रियासं सदा ॥ २ ॥ यत्कुमारिलमतानुसारिणा निर्मितं विधिरसायनं मया । पद्यरूपमनतिस्फुटाशयं तत्सुखावगतये विविच्यते ॥ ३ ॥
प्रारिप्सितप्रकरणस्याविघ्नपरिसमाप्तये सूत्रकारस्य महर्षश्वचरणस्मरणरूपं
मङ्गलमाचरन्नेव प्रकरणारम्भं तावदाक्षिप्य परिसमाधत्ते ॥ विख्याता मुनिवर्यमुक्तिषु विधास्तिस्रो विधिस्रोतसामाचार्यैर्विशदं विविक्तविषयास्ताश्च व्यवस्थापिताः । किं तत्रास्ति विचार्यमार्थमार्थते मार्गे निसर्गोज्ज्वले नानोदाहरणैस्तु ताः प्रविशदीकर्ते प्रवर्तीमहे ॥ १ ॥
मुनिवर्यस्य भगवतो जैमिनेः सूत्रेषु विधिर्वा स्यादर्शपूर्वत्वात् । नियमार्था वा श्रुतिरुच्यते । परिसंख्या इत्येवमादिषु त्रयो विधिप्रकाराः प्रसिद्धाः अपूर्वविधिः । नियमविधिः । परिसंख्याविविचेति । ते च भट्टपादैः परस्परासंकीर्णविषयतया स्पष्टमेवोपपादिताः ॥
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Ends :
॥ ४१ ॥ यदि प्राकृतहविषामविशेषेणाभ्युदयेष्टिदेवताभ्यो विभजनमिति मतं तदा दधिातयोरपि सर्वदेवतान्वयः स्यात् । उत्तरत्र तयोर्विशिष्य संकीर्त्तनं स्थविष्टैरनिष्ठैश्च तंडुलैः सहस्रपणनियमार्थं स्यात् । अथ वक्ष्यमाणप्रकारेण विभजनविधिस्त्रेधा तण्डुलान् विभजेदिति वाक्येऽगीक्रियते । तथा च दधिशृतयोवक्ष्यमाणदेवता विशेषव्यवस्था न भज्यत इति मतं तदोपांशुयाज्ये वक्ष्यमाणे देवतान्वयप्रकारो नास्तीति विभजनवाक्यं तद्विषयवेनार्थवन्न भवेत् । तण्डुलदधिनृतेषु तु तत्तद्वाक्यैरेव तथा तथा
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विभजनं सिद्धमिति । सर्वथा व्यर्थमेव त्रेधा तण्डुलानिति वाच्यम् । अतस्तण्डुलशब्दलक्षणाक्लेशेपितद्वैय्यर्थ्यानपायात्तस्य यथाशृतानुवादकत्वमेव युक्तमिति तत्र विध्यभावात्तद्विध्यव्याप्तिवर्णनमप्यसमञ्जसमिति भावः ॥ आक्षेपः समाप्तः॥ ॥
एवमाक्षिप्तेष्वपूर्वविध्यादीनां लक्षणेषूदाहरणेषु च लक्षणानि व्यवस्थापयितुं नियमपरिसंख्यालक्षणसंग्राह्यसंदेहपदानि निर्धारयन्नेव लक्षणव्यवस्थापनं प्रतिजानीते ॥
___No. 341. Gitagovindatika by SAN KARAMISRA [ गीतगोविन्दटीका-शंकरमिश्रः].
(आदिर्नास्ति ) Ends : एतत्काव्यविलोचनप्रणायनां यत्संशयोन्मूलनात् पुण्यं यच्च हरिस्मृतेः प्रतिपदव्याख्यासु मे संचितम् । तेन प्रीतमनास्तनोतु सततं श्रेयो मम श्रीपतिः शश्वद्विद्वदशोच्यताप्रतिभुवः श्रीशालिनाथस्य च ॥
इति श्रीगीतगोविन्दे स्वाधीनभर्तृकावर्णने सुप्रीतपीताम्बरो नाम द्वादशः सर्गः ॥
इति श्रीमहामहोपाध्यायश्रीशंकरमिश्रविरचितायां श्रीशालिनाथकारितायां गीतगोविन्दटीकायां रसमञ्जरीनामधेयायां द्वादशः सर्गः ॥ व्याख्यानं समाप्तम् ॥
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___No. 352. Natyadarpana. by RAMACHANDR.1 . [ नाट्यदर्पणः-- रामचन्द्रः]. Begins: चतुर्वर्गफलं नित्यं जैनी वाचमुपास्महे । रूपैदशभिर्विश्वं यया न्याय्ये धृतं पथि ॥ १ ॥ अभिनेयस्य काव्यस्य भूरिभेदभृतः कियत् । कियतोऽपि प्रसिद्धस्य दृष्टं लक्ष्म प्रचक्ष्महे ॥ २ ॥ नाटकं प्रकरणं च नाटिका प्रकरण्यथ। व्यायोगः समवस्कारो भाणः प्रसहनं डिमः । ३ Ends : सूत्री भावोनुगेनासौ तेन मार्षसमः सखा । शिष्यात्मजानुजाः पुत्रो वात्सो तातो जरन्नपि । सौम्यो भद्र मुखश्चेति नीची हंडे तु पामरैः । येन कर्मादिना यस्तु ख्यातः स तदुपाधिकः ।। शूरे विक्रमसंसूचि कल्थं नामाथ वाणिजे । दत्तान्तं प्रायशो विप्रे गोप्यकर्मानुरूप्यतः ॥ नृपस्त्रियां शुभंदत्ता सेनान्तं पणयोषिति । पुष्पादिवाचकं चेट्यां चेटे मङ्गलकीर्तनम् ।। रूपस्वरूपं विज्ञातुं यदीच्छत यथास्थितम् । सन्तस्तदानी गृह्णीत निर्मलं नाट्यदर्पणम् ।।
इति श्रीरामचन्द्र गुणचन्द्रविरचिते नाट्यदर्पणसूत्रे सर्वरूपकसाधारणलक्षणनिर्णयो नाम चतुर्थो विवेकः समाप्तः ॥ ॥
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No. 398, Sinhasanadvatrinsaka by KSHEMANKARAMUNI सिंहासनद्वात्रिंशका - क्षेमंकरमुनिः]
Begins:
अनन्तशब्दार्थगतोपयोगिनः पश्यन्ति पारं नहिं यस्य योगिनः । जगत्रयाशेषतमोविनाशकं ज्योतिः परं तज्जयति प्रकाशकम् ॥ १ ॥ अनेकवैचित्र्यमयं जगत्रयं प्रयाति साक्षात्प्रतिबिम्बरूपताम् । यस्यानिशं ज्ञानमयैकदर्पणे प्रणौमि तं श्रीभगवन्तमादिमम् ॥ २॥ ये पूजनीयाः सुमनःसमूहैस्ते सन्तु मे श्रीगुरवः प्रसन्नाः । सदानवो यत्प्रतिभाप्रकर्षः पुनन्तु ते श्रीकवयश्च वाचम् ॥ ३ ॥
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सकलसुरासुरनरनिकरनायकप्रणतपादारविन्दश्री सर्वज्ञशासनप्रभाव कस्य परमगुरुश्रीसिद्धसेनदिवाकरप्रणीतोपदेशपेशलविवेकस्य जगद्वर्यधैर्यगाम्भीपरमैौदार्यादिगुणगणालंकृतस्य विक्रमाक्रान्तत्रिविक्रमस्य श्रीविक्रमनरेश्वरस्य कश्चित्प्रबन्धः प्रारभ्यते । तस्यायं पूर्वकविसंप्रदायः । यत्पूर्वं देवताधिष्ठितचन्द्रकान्तरत्नमयसिंहासनस्थद्वात्रिंशत्पुत्रिकाभिः प्रवर राज्यलक्ष्मीनिवासाम्भोजस्य श्रीभोजनरेश्वरस्य पुरतो महाश्चर्यमयद्वात्रिंशत्कथानकैः श्रीविक्रमादित्यस्य गुणोत्कीर्त्तनं चक्रे ॥
तत्र केपि जिज्ञासवः कथयन्ति कस्य तत्सिंहासनं, केन कस्य अर्पितं, कथं भोजेन लब्धं, कानि तानि कथानकानीति । तत्सर्वमावेद्यमानं श्रूयताम् ॥
Ends:
श्रीभोजस्तु जलनिधिमेखलाया अखण्डशासनश्चिरं रराज राजलक्ष्म्याः इति सिंहासनद्वात्रिंशका समाप्ता ॥
श्री विक्रमादित्यनरेश्वरस्य चरित्रमेतत्कविभिर्निबद्धम् ।
परा महाराष्ट्रचरिष्टभाषामयं महाश्चर्यकरं नराणाम् |
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क्षेमरेण गणिना वरगद्यपद्यबन्धेन युक्तिकृतसंस्कृतबन्धुरेण । विश्वोपकारविलसद्गुणकीर्तनाय चक्रेऽचिरादमरपण्डितहर्षहेतुः ॥ ॥ ग्रं० १९६७ ॥
No. 404. Halayudhakosha, by HALAYUDHA [हलायुधकोशः कवि-- रहस्यापरनामा-हलायुधः].
Begins : जयन्ति मुरजित्पादनखदीधितिदीपिकाः । मोहान्धकारविध्वंसान्मुक्तिमार्गप्रदार्शकाः ॥ १॥ लोकेषु शास्त्रेषु च ये प्रसिद्धाः काव्येषु ये सत्कविभिः प्रयुक्ताः । तच्चिन्त्यतां चित्तविनोदनाय शब्दानहं धातुभिरुद्धरामि ॥ २ ॥ एकार्था एकशब्दाश्च नानार्थाश्चैकवाचकाः । सदृशार्थाभिधानाश्च नानार्थाः सदृशाक्षराः ॥ ३ ॥ एकार्थास्तुल्यशब्दाश्च निबध्यन्तेऽत्र धातवः । धातुपारायणाम्भोधिपारोत्तीर्णधिया मया ॥ ४ ॥ अस्त्यगस्त्यमुनिज्योत्स्नापवित्रे दक्षिणापथे । कृष्णराज इति ख्यातो राजा साम्राज्यदीक्षितः ॥ ६ ॥ गोपायति क्षितिमिमां चतुरब्धिसीमां पापाज्जुगुप्सित उदारमतिः सदैव । वित्तं जुगापयति यस्तु वनीपकेभ्यो धीरो न गुप्यति महत्यपि कार्यजाते ॥ ६ ॥ __Ends : एजते राजचिरैर्य एजत्येतद्भयाज्जगत् । इन्धे युद्धेषु यत्तेज एधते यः श्रियाधिकम् ॥ २०६९ ॥
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यः सौढति मृषाध्वानं तं रौडति निरीक्ष्य सः । प्रतिषेधति यः शत्रून् कार्यं तस्याशु सिद्धयति ।। २०७० ।। नयन्ते तदृणाः सर्वे यस्तान्नयति दिङ्मुखम् ।
श्रिया मृडति यो नित्यं सरस्वत्या च संपदा ।। २०७१ ॥ इति समस्तमवाप्तगुणोदयं कविरहस्यमिदं रसिकप्रियम् । तदभिधाननिधानहलायुधद्विजवरस्य कृतिः सुकृतात्मनः ॥ इति श्रीहलायुधकोशोऽयं समाप्तः ॥ संवत् ।। १७८६ ।।
No. 421. Vagbhattalankaravyakhya, by SINHADEVA [ वाभालंकारव्याख्या - सिंहदेवः ].
Begins:
श्रियं दिशतु वो देवः श्रीनाभेयाजिनः सदा । मोक्षमार्गं सतां ब्रूते यदागमपदावली ॥ १ ॥ श्रीबर्द्धमानजिनपतिरनन्तविज्ञान संततिर्जयति ।
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यद्गीः प्रदीपकलिका कलिकालतमः शमं नयति ॥ २ ॥ वाग्भट्टकवीन्द्ररचिनालंकृतिसूत्राणि किमपि विवृणोमि । मुग्धजनबोध हेतोः स्वस्य स्मृतिबीजवृद्धयै च ॥ ३ ॥
Ends :
इति सिंहदेवकृतायां वाग्भट्टालंकारव्याख्यायां पञ्चमः परिच्छेदः संपूर्णः ॥ लाटी हास्यरसे प्रयोगनिपुणै रातिः प्रबन्धे कृता पाञ्चाली करुणाभयानकरसे शान्ते रसे मागधी । गौडी वीररसे च रौद्रजरसे वत्सोमदेशोद्रवा बीभत्साहुतयोर्विदर्भविषया शृङ्गारभूते रसे ॥ १ ॥
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द्वित्रिपदा पाञ्चाली लाटीया पञ्चसतावयवत् [ सप्तावयवा चेत् ] शब्दाः समासवन्तो भवति यथाशक्ति गौडीया ॥ २ ॥ प्रथमपदा वत्सोमी त्रिपदसमासा च मागधी भवति । उभयोरपि वैदर्भी मुहुर्मुहुर्भाषणं कुरुते ॥ ३ ॥ इति रीतिस्वरूपम् ॥...
इति श्रीवाग्भट्टालंकारव्याख्या संपूर्णा ॥
No. 448 Chhandahkosha, by RATNASEEKHARA. With the Cow - mentary of CHANDRA KIRTISURE [ छन्दः कोश:- सटीक ः मृ० मा रत्नेशखरसूरिःटी० चंद्रकीर्तिसूरिः ]
Begins :
नमामि परमं ज्योतिस्तमः पारे प्रतिष्ठितम् ।
यत्र विश्वावकाशस्य तमसो नास्ति गोचरम् ॥ १ ॥
छन्दः कोशाभिधानस्य सुरिश्रीरत्नशेखरैः ।
कृतस्य क्रियते टीका बोधनायाल्पमेधसाम् ॥ २ ॥
तत्रादौ शास्त्रकारो निर्विघ्नेन शास्त्रपरिसमात्यर्थं स्वाभिमतदेवता स्तुतिपूर्वकं ग्रन्थमारभते ॥ तत्रेयमार्या ॥ आजोयणडिआणं सुरनरतिरिआण हरिससंजणणी । सरससरवन्नछंदा सुमहत्था जयउ जिणवाणी ॥ १ ॥ इय पाइ (य) छंदाणं कइवइनामाइ सुपसिद्धाई | भणियाइ लक्खलक्खणजुयाई इह छंदकोसम्म ॥ ७६ ॥
Commentary ends:
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इति पूर्वोक्तप्रकारेण छन्दसां कतिपयनामानि कतिचिदभिवानि सुप्रासद्धानि विदितानि इह छन्दः कोशाभिधाने छन्दः शास्त्रे भणितानि । श्रीम
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नागपुरीयतपागच्छगगनमण्डननभोमणि श्रीवज्रसेन सूरिशिष्यश्री हेमतिलकमूरिपट्टप्रतिष्ठित श्रीरत्नशेखरसूरिभिः कथितानीति । कीदृशानि तानि लक्ष्यलक्षणयुतानि । लक्ष्याणि छन्दांसि लक्षणानि गणमात्रादीनि ततो लक्ष्यैलक्षणैश्च युतानि सहितानीति ॥
समाप्ता चेयं श्रीरत्नशेखरसूरि संतानीय भट्टारक श्री राजरत्नसूरिपट्टस्थितश्रीचन्द्रकीत्तिंसूरिविरचिता छन्दः कोशनामग्रन्थस्य टीका ॥ लि. सं. ॥ १६९७ ॥
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by Radhadan
No. 449. Chchandahkaustubha, with a commentary by VIDYABHUSHANA [ छन्दःकौस्तुभः- सभाष्यः ]
Begins:
अर्चितनयनानन्द[दो]राधादामोदरो गुरुजींयात् ।
विवृणोमि यस्य कृपया छन्द: कौस्तुभमहं मितवाक् ॥ १ ॥
श्रीनयनानन्दपदारविन्दसेवासादितनिखिलशास्त्रार्थश्छन्दोविद्वृ-.
अथ
“देवन्द्यः । श्रीराधादामोदराभिधकान्यकुब्ज विप्रवंशावतंसो महत्तमकविछन्दःकौस्तुभं नाम छन्दः शास्त्रं प्रणयन् सर्वच्छन्दः प्रगेयचरितं श्रीकृष्णं प्रणमति । छन्दोभिरिति ॥
छन्दोभिर्वितताङ्गैः कवयो यस्यानुकीर्तयन्ति गुणान् । स जयति गोकुलबनिताजितान्तरः श्यामसुन्दरो भगवान ॥ १ ॥
Ends :
द्विजकुलतिलकः श्रीमान् राधादामोदरो हरेः प्रेष्ठः । स्वर्णैः सूत्रैर्प्रथितं छन्दःकौस्तुभममुं व्यतनोत् ॥ १४ ॥ वेदर्त्तुपक्षसंख्याताश्छन्दसां व्यक्तयोऽत्र याः ।
लिखिताः सन्ति ताः सन्तः कलयन्तु कृपाकुल ।। १५ ।। .
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194 EXTRACTS FROM MANUSCRIPTS, इति छन्दःकौस्तुभे मात्राप्रस्तारो नाम नवमी प्रभा ॥ ९॥ श्रीराधादामोदरशिष्यो विद्याभूषणो नाम्ना । छन्दःकौस्तुभशास्त्रे भाष्य मिदं संप्रति व्यदधात् ॥ ___ इति श्रीविद्याभूषणविरचिते छन्द कौस्तुभभाष्ये मात्रामस्ताराविवरणं नवमी प्रभा ॥ ९ ॥ संवत् १८३५ शाके १७०० मार्गशीर्ष १४।३० शुक्रवासरे लिखितम् ॥ ॥
No. 450. Chhandahpiyusha, by JAGANNATHA [ छन्द पीयप:जगन्नाथः]
Begins : न्यायव्याकरणादिशास्त्रमखिलं संक्षुण्णमेवास्ति हि प्रायः प्राक्तनन्तनैः सुकृतिभिश्छन्दस्तु नैवेत्यतः । श्रीकण्ठस्मरणादवाप्य सुमतिं प्रीत्यै मया धीमतां सत्सूत्रं गुरु तत्कृतं लघु पुनस्तस्याथ सारं ब्रुवे ।। १ ।। सालंकारगणं विदोषमपि यच्छब्दार्थयुग्मं बुधास्तकाव्यं यशआद्यनेकफलकं कार्य मतं धीमताम् । छन्दःशास्त्रनिबन्धना खलु भवेत्तत्रोपयुक्ता यति*छन्दोभङ्गविहीनवाक्यरचनानेकप्रकारप्रथा ॥ २ ॥ सूत्रं संग्रहवाक्यमात्रमिह वै कर्तुं न कः शनुयातस्मिल्लाघवतोऽनुवृत्तिरचना स्पष्टा परं कौशलम् । मात्सर्य परिहाय तत्सुमतिभिनिर्दिष्टमत्रादरात्तच्चाप्यन्तरनुप्रविश्य विपुलस्यार्थस्य यद्वर्णनम् ॥ ३ ॥ शुद्धस्वानुभवप्रसिद्ध विषयेऽप्येतन्मुनि ब्रवीदेतद्वै मनुरब्रवीदिति जडाः श्रद्धानिबद्धवाग्रहाः ।
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स्युः पञ्च द्विगुणा दशोत कथने किं मुन्यमुन्योर्भिदा यः सद्वस्तु वदेत्तमेव सुमति विज्ञा मुनि मन्वते ॥ ४ ॥ ज्ञाता दानदयादमा निजनिजाभिप्रायसाहायकाप्राजापत्यवरैर्नरासुरसुरैः स्रष्टुर्दमात्रोक्तितः । तस्मात्स्वाशयपाशवत्तिनि जने कस्मै किमाख्यायतां बालक्रीडनतो जगज्जनयिता तुष्येन्मनुष्येषु कः ॥ ५ ॥
पूर्वाचार्यकृतच्छन्दःशास्त्रेणापरितुष्यन्मिश्रजगन्नाथस्तत्सूत्राणि प्राणैषीत् । तत्रेदमादिमं शास्त्रारम्भसूत्रं प्रेक्षावतः प्रवर्त्तयितुम् ॥ अथ छन्दोऽनुशासनम् ॥ छन्दोऽनुशिष्यते येन तच्छास्त्रं प्रारभ्यत इत्यर्थः ।। • Ends : सूत्राण्यशीतिः प्रथमे द्वितीये द्वासप्ततिः षण्णवतिस्तृतीये । . तुर्ये शते द्वे नवतिस्तथेत्थं पञ्च शतान्यष्टात्रिंशञ्च (six) शिष्टप्रयुक्तं यदतिप्रसिद्धं छन्दश्च वृत्तं च तदुक्तमत्र । ग्रन्थस्य भीत्या बहुविस्तरस्य कृतो हि सोऽन्यत्र तदिच्छुतुष्टयै ॥ १ ॥ श्रीरामात्तनयं यमिष्टविनयं विद्याधरस्यात्मजालेभे श्रीहरिकृष्णदेवदुहिता साध्वी सुभद्राभिधा । गोपालीदयितेन तेन हि जगन्नाथेन संलोडिता
छन्दःशास्त्रमहाग्बुधेर्मतिमथा पीयूषमेतद्धृतम् ॥ २ ॥ यत्पाण्यम्बुजसङ्ग एव शिरसो बालोपि संप्राप्तवान् वाग्देवीकरुणाकटाक्षपदवीं सत्साधनैर्दुर्लभाम् । वागीशा आपि यग्दुणानवसितेचिंयमत्वं श्रिता वन्दे श्रीहरिकृष्णनाममहितं मातामहं तं सदा ॥ ३ ॥
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ये तस्मिन्नपि नीललोहितपुरे संसत्सु संख्यावतां श्रीमद्धिमदाख्ययांखिलविदो भूतार्थया विश्रुताः । यत्पादाम्बुजदर्शनादमलधीनिस्तीर्णमोहार्णवो निस्वैगुण्यसुनिष्ठितश्च सततं तेभ्यो गुरुभ्यो नमः ॥ ४ ॥ यस्मिन्नस्तगतिः समस्तकरणग्रामो यतश्चेष्टते स्वप्नो जागरणं सुषुप्तिरिति वै यत्साक्ष्यतः सिध्यति । यस्मात्सर्वमनन्यदेतदुदितं यत्सर्वतोऽन्यन्मतं शेषाशेषकथापथातिगमथालम्बे परं तन्महः ॥ ५ ।। जीवाख्या प्रकृतिः परा निगदिता यस्यापरा चाष्टधा खं वायुलनो जलं क्षितिरहंकारो मनो धीरिति । यो वेद्यो निगमैः क्षराक्षरपरो वेदान्तकृद्वेद वित्तस्य श्रीपुरुषोत्तमस्य करुणामालोचयामोऽनिशम् ॥ ६ ॥ इति मिश्रजगन्नाथकृतच्छन्दःपीयूषे वृत्तनिरूपणश्चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥
समाप्तोयं ग्रन्थः ॥ संवत् १८४९ कार्तिकमासे शुक्लपक्षे सप्तम्यां तिथी लिपीकृतम् ॥
No. 461. A commentary on the Vrittaratnakara, by SRIKANTHA [वृत्तरत्नाकरस्य वृत्तिः-श्रीकण्ठः]. ___Begins: देहावलम्बितव्यालं नत्वा मुरगणस्तुतम् । गणेशं क्रियते वत्तिवृत्तरत्नाकराश्रया ॥ १ ॥
Ends:
इदानी वृत्तिकारो वृत्तिस्वरूपयुक्त आत्मनो नाम कथयति ।।
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विस्पष्टपदविन्यासा श्रोतृसंदेहवल्लभा । वृत्तरत्नाकरव्याख्या कृता श्रीकण्ठसूरिणा ॥ कृत्वा वृत्तिमिमां पुण्यं यदिहाबर्जितं मया । तेनोल्लसन्तु लोकानामतीव मतयोऽमलाः ।
इति श्रीकण्ठपण्डितविरचितायां वृत्तरत्नाकरच्छन्दोवृत्ती षष्ठोऽध्यायः
समाप्तः ॥
No. 511. Ramalarkaprakasa, by GovINDA [ रंमलार्कप्रकाशःगोविन्दः].
Begins:
प्रणम्य शिरसा देवं सर्वज्ञं प्रियवादिनम् ।
रमलार्क प्रकाशं तु वक्ष्ये पूर्वः कृतं यथा ॥ १ ॥ रमलं विमलं शास्त्रं निर्यालेन निर्मितम् । ज्योतिर्विदां प्रीतिकरं प्रश्नं सर्वाङ्गसिद्धिदम् ॥ २ ॥
Ends:
श्रीमत्कोत्सस्य वंशे हरिचरणयुगाराधनैकाग्रचित्ता विप्रा श्रीरामनामा इतिपठितजनस्याघसंघान् हरन्ति । तेषां दासो विराटे प्रवरगुणवतां प्राञ्जलिर्नान्यचेता गोविन्दाख्यः प्रशस्तो मृदुवररमलार्कप्रकाशे सुबोधः ॥ १ ॥ विलोक्य चिन्तामणिभिः प्रणीतं विद्रुद्रमण्यादिकृतं च शास्त्रम् । दाऊदखानस्य मतं हि सम्यक् शिष्यप्रबोधाय विरच्यतेऽयम् ॥ २ ॥ सच्छिष्याय विनीताय देयमेतत्सुखावहम् ।
. दुर्विनीताय चेद्देयं दह्यते तत्क्षणाद्ध्रुवम् ॥ ३ ॥
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प्राचीमाब्धतटात्तथा वरुणदिग्वारांनिर्याम्यादिक्शैलाद्वैमगिरेविलम्बितयशा उर्वीशसद्धर्मवित् । छत्री श्रीमहिमन्तसाहि प्रबलो. दिल्लीश्वराधीश्वरः श्रीमद्विक्रमबर्षखाभ्रगजभूपौषेऽसितैकादशी ॥ ४ ॥ इन्दुप्रकाशे रमलं सदृशं नैव दृश्यते । . तस्मादर्कप्रकाशेपि यादगेव प्रपश्यताम् ॥ ६ ॥ इति श्रीरमलार्कप्रकाशनामशास्त्रं संपूर्णम् ।
No. 592. Mundamalatantra. [ मुण्डमालातन्त्रम् ] Begins: ॐ नमः श्रीचंडिकायै ॥ सर्वानंदमयीं नित्यां सर्वाम्नायनमस्कृताम् । सर्वसिद्धिप्रदां देवी नमामि परमेश्वरीम् ॥ १ ॥ देव्युवाच ॥ देव देव महादेव परमानंदनंदन ॥ प्रसीद गुह्यचक्रं ते कथय स्वप्रियं वद । सर्वतंत्रेषु मंत्रेषु गुप्तं यत्पंचवक्रतः । तत्प्रकाशय गुह्याख्यं यद्यहं तव दुर्लभा ।। ।
Ends: गोप्तव्यं तत्प्रयत्नेन यस्मै कस्मै न विन्यसेत् ॥ इति षष्ठः पटलः ॥ समाप्तेयं मुंडमाला ।। इति मुंडमालातंत्रे --- शोधितमत्यंतमात्मनामुना ॥ .
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PURCHASED FOR GOVERNMENT. 199 No. 625. Anandasundara, by SAR VAVIJAYA [आनन्दसुन्दर :-सर्वविजय :]. Begins:
पूर्व पाणिगृहीत्तकङ्कणकसकौसुग्भवासोवधूयुग्मात्पल्लवितोऽभिषेकविधिना वृद्धि परां प्राप यः । संजातः शतशाख एष तनुजैः श्रीनाभिभूभूरुहः सुच्छायः सुमनोमनोहरतनुस्तन्यात्कलं वः फलम् ॥ १॥ . प्राञ्चत्पञ्चफणामणिच्छलधराः पञ्चापि दीपाङ्कराः शोभन्ते शिवपत्तनोत्कमनसां मिथ्यात्वरात्रावपि । पञ्चाचारपथानिव प्रथयितुं यन्मूर्ध्नदेशे स्थिराः श्रीमानेष जिनश्चिनोतु परमं पृथ्वीसुतः प्रार्थितम् ॥ २ ॥ नीलाम्भोधरसोदरद्युतिजुषः स्वश्रीमुखे श्रीपतेः शंखः पूरयितुं कुतूहलरसावेशेन येनाहितः । धत्ते नित्यसलीलनीलकमलक्रीडन्मरालोपमा नेमिर्नेमिनरान्नरायणनतो नेतावतादुःकृतात् ॥ ३॥ पन्नामापि समापिताखिलविपद्व्यापारमाकारणं श्रीणामत्र परत्र मन्त्रमयतां निर्विघ्नमास्तिपते । सार्वः सर्वजनीनसर्वमहितो माहात्म्यकेलीगृह द्विश्चिन्तामणिरेष शेषरबरो विश्वेषु पार्श्वः श्रिये ॥ ४ ॥ जन्मस्नानमहे महेन्द्रनिवहैर्निर्मायमाणे मुहुः कालेयद्रवपिञ्जरैर्जलभरैः किंपातिमानं गतः। मेरुः काञ्चनसानुरित्थमधिकां प्रापत्प्रसिद्धिं पुरः । श्रीवीरः परमेश्वरः प्रणमतां पुष्णातु पुण्यानि सः ॥ ५ ॥
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मण्डपद्रङ्गशृङ्गाराः पञ्चाप्येते जिनेश्वराः । शास्त्रादौ जावडेन्द्रस्य प्रसन्नाः सन्तु संततम् ॥ ६ ॥ ... तपागच्छाधिपाः श्रीमंःसाधुसुन्दरसूरयः । मुनिसुन्दरसूरीन्द्रा जयचन्द्राश्च सूरयः ॥ ७ ॥ श्रीरत्नशेषराचार्याः श्रीलक्ष्मीसागराः परे। . जयप्रतिभवः सन्तु जावजे [जावडे] मी युगोत्तमाः ॥ ८ ॥ ततश्च ॥ सुमतिसाधुगुरुस्तपगच्छपः स्वपद पावितमालवमण्डलः । कलयति स्म स विस्मयकारणैः सकलसरिशिरोमणितां गुणैः ।।९।। पूर्व श्रेणिकभूपतिर्जिनपतेवीरस्य सेवापरः . तस्मात्संप्रतिमेदिनीपतिरभूच्छ्राद्धः सुहस्तिप्रभोः। श्रीहेमस्य कुमारपालनृपतिर्भट्टैर्यथामस्तथा जीयाज्जावड एष शेषरतया सुश्रावकाणां गुरोः ॥ १० ॥ ख्यातश्रीमालभूपालबिरुदः श्रावकाग्रणीः । कालेऽस्मिन् शालिभद्रस्य सादश्यो दृश्यते हि यः ॥११॥ तस्याभ्यर्थनया ग्रन्थः श्रीमानानन्दसुन्दरः । क्रियतेऽसौ मया सर्वविजयेन यथाश्रुतम् ॥ १२ ॥
Ends:
एवं दशश्रावकसच्चरित्रं शृण्वन्ति ये पुण्यकथापवित्रम् । तेषामशेषाः सुखसंपदोपि पदेपदे स्युः प्रमुपार्श्वभक्तेः ॥ १६ ॥ श्रीमालोज्ज्वलवंशमौक्तिकमणेः श्रीजावडस्यार्थनां मत्वा मालवदेशमण्डनकरे श्रीमण्डपक्ष्माधरे ।
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विद्वत्पुंगवतुङ्गसर्वविजयो जज्ञेधिकारे क्रमादानन्दादिमसुन्दरेत्र सुकृतग्रन्थेष्टमो जेजिनात् [जीजनत् ।। १७ ॥
इति श्रीमालकुलश्रीमालभारिमालवेश्वरश्रीखलचीगयासदीनगुरुनरेन्द्रगञ्जाधिकारिव्यवहारिशिरोरत्नानुकारिलघुशालिभद्रेतिबिरुदधारिपुत्रश्रीहीरजी भ्रातृ सं० लीलाप्रमुखपरिवारपरिवृतसंघपतिश्रीजावडसमर्थाभ्यर्थनावशवर्तिसांप्रतीनकविचक्रचक्रवार्तमहापाण्डत प्रष्ठश्रमित्सर्वविजयगणिवरविजयगणिवरविवीयमाने श्रीवर्द्धमानदेशनारसनिधाने श्रीमदानन्दसुन्दराभिधान नवमदशम श्रावककिंचिद्गुणलवव्यावर्णनो नामाष्टमोधिकारः ।।
__No. 645. Upadesachintamani, by JAYASEEHARASTRI [उवएससारचिन्तामाणः- जयशेखरसूरिः]. Begins:
तित्थयरे भयवंते परमगुरू गरुय अइसयसमिद्धे । धम्मपहपत्तवरसिरिमहिंदवंदियगुणे वंदे ॥ १ ॥ पुव्ववहा पुण्णपया तिमग्गगा सायरे ठिया धन्मे । अवणेउ पावपंकं जिणवाणी तियससरिय व ॥ २ ॥ चितियसुहयं सुहयं जणाण सुरसत्थसंगयं वोच्छं ।
गुरुवयणेणं चिंतामणिं च उवएससारमहं ।। ३ ॥ Ends:
एसा उवएसाली साली विव विबुहहिययठाणेसु । सुभभावसलिलसित्ता फलेउ मणवांछयफलेण ।। ५६ ॥ कुंजरनयरविसेसाऽऽहवसरसपसूणवरिसमझाण । सरिसक्खरनामेणं रइयामणं सपरबोहत्थं ।। ५७ ॥ B 669-26
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जाब सिरिवीरतित्थं ताब इमा पंडियाण हिययम्मि । महरयणा रयणा वलिसरिसा सरिसाहणी होउ ॥ ५८ ।। इति श्रीधर्मोपदेशचिन्तामणिप्रकरणम् ।।
No. 730. A Durgapadavyakhya on the Commentary on the Nandisutra, by SRICH ANDRASURI [नन्दिसूत्रटीकायां दुर्गपदव्याख्याश्रीचन्द्रसूरिः]. Begins:
श्रीधनेश्वरसूरीणां पादपद्मोपजीविना ।
नन्दिवृत्तौ कृता व्याख्या श्रीमच्छीचन्द्रमरिणा ॥ Ends: ____समाप्ता चेयं नन्द्यध्ययनटीकायां श्रीशीलभद्रप्रभुश्रीधनेश्वरस्रिशिव्यश्रीचन्द्रमरिविरचिता दुर्गपदव्याख्या । स तं नंदिसमत्तेति वचनादाचार्यपदस्थापनायामनुयोगमनुयोगानुज्ञाविषयेयं नन्दिरेतावप्रमाणा समर्थितोत ।। . इत ऊर्ध्व, से किं तमनुषण इत्यादिग्रन्थपद्धतिर्या किलापरा दृश्यते सा गणानुज्ञाविषया सा लघुनन्दिरिति संभाव्यतेऽस्या अपि गमनिका काचिदुच्यते ।। ......
आद्यगाथायां चतुर्दशानुज्ञाभिधानानि । द्वितीयायां षट् । सर्वाणि २० ॥ तद्यथा अनुज्ञा १ उन्नमनी २ नभनी ३ नामनी ४ स्थापना ५ प्रभवः ६ प्रभावना ७ प्रचारः ८ तदुभयं ९ हितं १० मर्यादा ११ न्याय १२ मार्ग १३ कल्प १४ संग्रह १५ संवर १६ निर्जर १७ स्थितिकरण १८ जीवति [जीवित] वृद्धि पदं १९ पदप्रवरं २० इति विंशतिरेतेषां च पदानामर्थः संप्रदायाभावान्नोच्यते ॥
इति समाप्ता श्रीशीलभद्रप्रभश्रीधनेश्वरसरिशिष्यश्रीचन्द्र साविरचिता नन्दिटीकायां दुर्गपदव्याख्या ।।
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स्वे कष्टेभिनिधाय कष्टमधिकं मा मेऽन्यदा जायतां व्याख्यानेऽस्य तथाविधे कुमनसा मल्पश्रुतानाममुम् । इत्यालोचयता तथापि किमपि प्रोक्तं मया तत्र च दुर्व्याख्यानविशेोधनं विदधतु प्राज्ञा परार्थोद्यताः ॥ १ ॥ ॥ इति श्रीनन्दिटिप्पनिका संपूर्णा ॥
No 752. Parsvanathacharitra, by BHAVADEVASURE [ पार्श्वनाथचरित्रम् — भावदेवसूरिः].
Ends :
इति श्रीकालिकाचार्य संतानीय श्रीभावदेवसूरिविरचिते श्रीपार्श्वनाथचरित्रे महाकाव्ये अष्टमसर्गे भावांके भगवद्विहारनिर्वाणवर्णनो नाम अष्टमः सर्गः ॥
कलिकुण्डे मथुरायां स्तम्भनके चारुवप्रशङ्कपुरे । नागह्रदे लाटहृदे स्वर्णगिरिप्रमुखतीर्थेषु ॥ १ ॥
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कलिकलुषगर्वसर्वकषनखमणिकिरणसजलपदपीठः । एकातपत्रमहिमा जयति श्रीपार्श्वनाथजिनः ॥ २ ॥ युग्मम् ॥ कलास्थानकभावेन कलिंगानकदर्थनः ।
कल्पिता नजते जिनः ॥ ३॥
कलानं कवित्वेन कल्तिानेजते जिनः आसीत्स्वामिसुधर्मसंतातिभवो देवेन्द्रवन्द्यक्रमः श्रीमान् कालिकसूरिरद्भूतगुणग्रामाभिरामः पुरा । जीयादेष तदन्वये जिनपतिप्रासादतुङ्गाचलभ्राजिष्णुर्मुनिरत्र गौरव निधिः खंडिल्लगच्छाम्बुधिः ॥ ४ ॥ तस्मिंश्चांद्रकुलेऽभवत्कुवलयोद्बोधैकबन्धुर्यशो
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ज्योत्स्नापूरितविष्टपो विधुरिव श्रीभावदेवो गुरुः । यस्याख्यानसमानमेष बहुशो व्याचक्ष्यमाणो ऽधुना गच्छोगच्छदतुच्छगुर्जरभुवि प्रष्ठां प्रतिष्ठामिमाम् ॥ ५॥
मनसि धनविवेकस्नेहसंसेकदीप्तो
द्युतिमतनुत यस्य ज्ञानरूपप्रदीपः । अममतमतमांसि ध्वंसयन्नञ्जसाऽसौ
न खलु मलिनिमानं किं तु कुत्रापि चक्रे ॥ ६ ॥ श्रीमांस्ततो विजयसिंहगुरुर्मुनीन्द्र
मुक्तावलीविमलनायकतां ततान । ज्योतिस्तदुज्ज्वलतरं विकिरन धरित्र्यां चित्रं न यस्तरलतां कलयांचकार ॥ ७ ॥ दाक्षिण्यैकनिधिर्व्यधान्न सहजे देहेऽप्यहो वांछितं कारुण्यामृतवारिधिर्विनिदधे गुप्तौ स्वकीयं मनः । शान्तात्मानुचरं चिरस्य विनिजग्राहेन्द्रियाणां गणं यो विज्ञात समस्तवस्तुरभवनुल्यश्च हेमाश्मनोः ॥ ८ ॥ तदीयपट्टे जाने वीरसूरिर्यन्मान से निर्मलदर्पणाभे । निरूपयामास सरस्वती सत्त्रविध्यविद्यामयमात्मरूपम् ॥ ९ ॥
सदाभ्यासावेशप्रथितपृथमन्थानमयिता
दवाप्तं तर्काधिपतिसिद्धशमाहितम् । यदीयं वाग्ब्रह्मा मतमकृत दर्पज्वरभरप्रशान्ति निःशेषक्षितिवलयवादीन्द्रमनसाम् ॥ १०॥ तस्मादभूत्संयमराज्यनेता मुनीश्वरः श्रीजिनदेवसूरिः । यो धर्ममारोप्य गुणे विशुद्धध्यानेषुणा मोहरिपुं विभेद ॥ ११ ॥
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आद्यनामक्रमणैव प्रसर्पति गुरुक्रमे । पुनः श्रीजिनदेवाख्या बभूवुर्वरमूरयः ॥ १२ ॥ येषां पादारविन्दानरुणनखशिखारागभूयोऽतिराजलक्ष्मीलीलानिवासान् विमलगुणभृतो भेजिरे राजहंसाः । आकृष्टानेकलोकभ्रमरकृतनमस्कारझंकाररम्यो येषामद्यापि लोके स्फुरति परिमलोऽसौ यशोनामधेयः ।। १३ ।। तेषां विनेयविनयी बहु भावदेवसरिः प्रसन्नजिनदेवगुरुप्रमोदात् । श्रीपत्तनाख्यनगरे रबिविश्ववर्षे पार्श्वप्रभोश्चरितरत्नमिदं ततान ।। १४ ॥ समीक्ष्य बहुशास्त्राणि श्रुत्वा श्रुतधराननात् । ग्रन्थोऽयं ग्रन्थितः स्वल्पसूत्रेणापि मया रसात् ।। १५ ।। क्वापि दृष्टान्तमात्रस्तु यः कोपि कथितो मया । स्वस्तये सोऽपि जैनाज्ञानुसारेण गुणेच्छुना ॥ १६ ।। चरितं कल्पितं चापि द्वेधोदाहरणं मतम् । परस्मिन्साधनीयार्थस्यौदनस्य यथेन्धनम् ॥ १७ ॥ अनादिनिधने काले जीवानां चित्रकर्मणाम् । संविधानं हि तन्नास्ति संसारे यन्न संभवेत् ।। १८ ॥ अस्मिन् ग्रन्थेऽथ यन्यूनमधिकं वा कृतं मया । तदप्यनेनाधारेण तत् क्षन्तव्यं ममाखिलम् ।। १९ ।। श्रीपार्श्वचरितं तैस्तैर्वणितं यन्महात्मभिः । इत्थं मयापि यत्तत्तोपक्रान्तं धाष्टर्यमेव तत् ॥ २०॥
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किंच || उत्तुङ्गचङ्गचत्यानि महेभ्यैः कारितानि चेत् । तद्देवकुलिकामलधनो न विदधाति किम् ।। २१ ।। पूजिता यदि देवेन्द्रजिना मन्दारदामभिः | पूजयन्ति न किं तत्तान्मर्त्य म - चकादिभिः ॥ २२ ॥ अध्वानमवतीर्णा यं गुरुगत्या महागजाः । न संचरति किं तत्र करिपोतः स्खलद्गतिः ॥ २३॥
तन्मयापि प्रभोर्भक्तिप्रकर्षवश चेतसा । चरित्रं रचितं संघानुमतं च न दुष्यति ॥ २४ ॥ यदत्र किञ्चिन्मूढत्वादलीकं ग्रथितं भवेत् । सर्व माय कृपां कृत्वा संशोध्यं तन्मनीषिभिः ॥ २९ ॥ निशम्य सम्यक् श्रीपार्श्वस्वामिनश्चरितं वरम् । भविकैस्तत्तात्पर्यार्थो धारणीयः सदा हृदि ॥ २६ ॥ गुरुमेघवन बिभ्रत्सरोवत्कमलोज्ज्वलः । दृश्यते स्फुटमुत्तानः स्थलवत्तु रजोमयः ॥ २७ ॥ अङ्गं लवादपि यथा पटुतां सुधायाः कल्याणतां भजति सिद्धरसस्य लोहम् ।
सच्चन्दनस्य हिमतामतितप्त तैलं
जीवस्तथा जिनमतस्य हि सिद्धभावम् ॥ २८ ॥
दशभव वरपत्रं पार्श्वभर्तुश्चरित्रं
कमलमुदयनालं पुण्यलक्ष्मीविशालम् । प्रमुदितमुनिभङ्गं सौरभोद्गारचङ्गं
विलसतु बुधचेतः पल्वले नित्यमेतत् ॥ २९ ॥ इति श्रीपार्श्वनाथचरित्रं समाप्तम् ॥
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PURCHASED FOR GOVERNMENT.
Ends:
No. 779. Bhaktamarastotravritti, by GUNAKARA [भक्तामरस्तो
त्रवृत्तिः– गुणाकरः]
Begins:
पूजा ज्ञानवचोपायापगमातिशयाद्भुतम् ।
श्रीनाभेयं नमस्कुर्वं सर्वकल्याणकारणम् ॥ १ ॥
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इति चतुश्चत्वारिंशद्वृत्तार्थः ॥ संपूर्णेयं भक्तामरस्तववृत्तिः ॥ सप्रभावककथा निकामसंयुक्ता ॥
ागरां गुम्फधात्री कवीन्द्रेषु वाणी चतुर्वर्णसंघश्चतुर्वर्णसंघः । गुरुश्चानुशास्ता सुधीः श्रोतृवर्गों जयेयुर्जगत्याममो आसमुद्रम् ॥ १ ॥
श्रीचन्द्रगछेऽभयसूरिगच्छे श्री रुद्रपल्लीयगणाब्धिचन्द्राः । श्रीचन्द्रसूरिप्रवरा बभुस्ते यद्भ्रातरस्ते विमलेन्दुसंज्ञाः ॥ २ ॥ तत्पट्टे जिनभद्रसूरिगुरवः सल्लब्धिलब्धप्रभाः सिक्तां तां बुद्धि [सिद्धान्ताम्बुधि] कुम्मसंभवनिभाः जातः श्रीगुणशेखराभिधगुरु स्तस्मात्तपोनिर्मल:
. शीलश्रीतिलको जगत्तिलक इत्यासीद् गुरुग्रामणीः ॥ ४ ॥ सद्गद्यपद्यसुकविः सुकवित्वधाता चारित्र चारुकरुणः करणास्तकामः । तत्पट्टभूषणमणिर्गतदूषणोऽभूच्छ्रीमान्मुनीन्द्रगुणचन्द्रगुरुर्गरिष्ठः ॥५॥
संप्रत्यवनौ जयिनां निर्देशादभयदेवसूरीणाम् । गुणचन्द्रसूरिशिष्योऽणुगुणाकरः सूरिरल्पमतिः ॥ ६ ॥
अद्भुतमहतीर्बहुश्रुतमुखश्रुताः प्रभावककथाः।
भक्तामरस्तवस्याभिनवां वृत्तिं व्यधादेनाम् ॥ ७ ॥
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वर्षे षड्डिशाधिकचतुर्दशशतीमिते च वर्षौ । मासि नभस्ये रचिता सरस्वतीपत्तने वृत्तिः ।। ८॥ यद्गदितमर्थकूटं यलक्षणशब्दतश्च दुष्टमिह । तत्साधुभिः सुधीभिः शोध्यं सद्यः प्रसद्य मयि ।। ९॥ भक्तामरस्तवाक्षरविवृति कृत्वा यजितं सुकृतम् । तेनासौ सुकृतिजनो निरामयः स्यात्सदानन्दो ।। १० ।। पञ्चदश शतान्यत्र द्वासप्ततिसमधिकानि गणितानि । निश्शेषवर्णवृन्दान्यनुष्टुपां प्रायशः सन्ति ।। ११ ।। इति भक्तामरस्तववृतिः॥
__No. 856. Shrichandracharitra, by SILASIN HAGANT [श्रीनन्द्र चरित्रम्-प्रशस्तिसहितम् -मू० शीलसिंहगागः-प्र० शीलहंसः ].
Ends:
॥९६७ ॥ इति श्रीआगमगच्छाधिराजश्रीजयानन्दसूरीन्द्रचरणारविन्दच ञ्चरीकायमानेन श्रीगुरुप्रसादितपण्डितेत्युल्लापनेन शीलसिंहगणिना विर चिते पवित्रे श्रीचन्द्र चरित्रे श्रीचन्द्रनुपप्राग्भवत्रिखण्डराजाधिराजत्वतीर्थया त्रादिधर्मकृत्यदीक्षाज्ञाननिर्वाणवर्णनो नाम चतुर्थोऽध्यायः समाप्तः॥ इति श्रीश्रीचन्द्रकेवलिचरित्रं संपूर्णम् ॥
॥अथ प्रशस्तिः ॥ श्रीवीरार्हद्गौतमसुधर्मजम्बू प्रधरु [प्रभृति केवलिन : ] (प्रभवः श्रुत) केवलिनः प्रभवाद्याः स्थूलभद्रान्ताः ॥ १॥ तत एवायं महागिरिसुहस्तिमुख्याश्च वज्रपर्यन्ताः । दशपूर्वधरा अभवंस्तस्माच्छ्रीवज्रसेनगुरुः ॥ २॥
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PURCHASED FOR GOVERNMENT. तच्छिष्याश्चत्वारश्चन्द्रो नागेन्द्रनिर्वृती अपरौ । विद्याधरस्वमीभ्यो गच्छचतुष्कं प्रवृत्तमिह ॥ ३॥ नाइलपरनाम्नः श्रीचन्द्रगुरोविजयसेनसरिरभूत् । सातिशयोऽशिवशामनकृतान्यसामन्तभद्राख्यः ॥ ४ ॥ तत्पट्टे श्रीविजयप्रभसूरिरभूच्च सरिजयचन्द्रः । श्रीदेवचन्द्रसूरिः श्रीधर्मसमुद्रसूरिरितः ॥ ५ ॥ दुःषमसमयातिशयात् प्रायस्तनुमानसौजसोहोन्या । षष्ठाशक्तेः कैश्चिच्चतुर्दशी पाक्षिकमकारि ॥ ६ ॥ पञ्चत्रिंशदधिकशतं सूरियुजा येन नो परं मुमुचे । राकापाक्षिकमर्हत्प्रणीततिथ्या अधिकरागात् ॥ ७ ॥ मूलविधेरत्यागात्प्रीतैर्विबुधैर्धनैर्जनैर्यस्य । सुविहितबिरुदमदायि श्रीधर्मसमुद्रसरिरसौ ॥८॥ कुशलप्रभसूरिरथो श्रीरत्नप्रभगुरुजिनेन्द्राभः । सूरिश्चारित्रप्रभगुरुरुदयप्रभगुरु: श्रीमान् ॥९॥ श्रीशालवाहननृपोपरोधतोऽकारि कालिकाचार्यैः । पर्युषणा च चतुर्थ्यां यदैव समये पुनस्तस्मिन् ॥ १० ॥ अजनि श्रीदेवचन्द्रप्रभसूरिः पर्व वार्षिकं येन । नाचीर्ण च चतु. जयद्रथोत्तरपुरस्थेन ॥ ११ ॥ सरिः कुमारधर्मो जिनदेवगुरुर्यशोदेवः । श्रीविजयचन्द्रसूरिः सूरक्ष्मापप्रबोधकरः ॥ १२ ॥ श्रीविमलप्रभसरिः पुण्यप्रभसरिरथ च (ज) यघोषः । सूरिस्तु विजयघोषः सूरिश्रीविजयधर्मगुरुः ॥ १३ ॥
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श्रीकुमुदचन्द्रसूरिभव्यकुमुदबोधकरणचन्द्रसमः । षड्विकृतिपरित्यागी दत्तिचतुष्काशनग्राही ॥ १४ ॥ आशाम्बरैः साकमथोज्जयन्ते तीर्था(थ)वादेम्बिकया प्रदत्ते । साहाय्यके जैनसुरामरीणां वात्सल्यकृत्वा जिनशासनस्य ॥ १६॥ तुर्यस्तुतेराचरणा च चक्रे श्रीबप्पभट्टिप्रमुखैमुनीन्द्रैः। मेने न येनागमयुक्तिरागात्ततोऽजनि त्रिस्तुतिकप्रसिद्धिः ॥ १६ ॥ चतुर्थवर्षे विधिपक्षकर्तेत्येतस्य दत्तं बिरुदं सुजातात् । गुणानुरागात्पुन (रेव) राज्ञा श्रीज्ञानचन्द्रः स च सरिवर्यः ॥ १७ ॥ तदीयपट्टे गुणचन्द्रसूरियेन प्रबोध्यावनिपं हि भीमम् । पापद्धिमांसाशनरात्रिभोज्यपरराङ्गनानां नियमाः प्रदत्ताः ॥ १८ ॥ तत्पदृगः श्रीगुरुशीलधर्मः क्रमेण शीलप्रभशीलरत्नौ । सूरी ततः श्रीगुरु शीलचन्द्रः श्रीवीरचन्द्रो गुरुशीलसुन्दरः ॥ १९॥ श्रीधर्मरत्नो गुरु रेवसरिः श्रीधर्मसिंहो गुरुसिद्धसिंहः । कुमारसेनो नृपजः सगर्भणहाउथ भीतो हि ततः प्रबुदः ॥ २० ॥ स चाभवच्छीलगणाह्रसूरिः(सूरिः) पदेऽस्याजनि देवभद्रः । यस्योचिबानागमिकाह्वयं श्रीकुमारपाल: स्वगुरोः समक्षम् ॥ २१ ॥ श्रीमान् जिनप्रभ इति द्वितीयोऽस्य सूरिवैरङ्गिको जान यकोउनशनं चिकीर्षुः । भावी प्रभावक इति त्रिविधं न्यषेधि सूर्याऽतिभक्तिपरया जिनशानस्य ॥ २२ ॥ षण्मासतीर्थनतिविघ्नकरी प्रबोध्य व्यात्रीं तपोऽतिशयतः सुगति तु नीत्वा ।
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अष्टादशाब्दसमयावधि यश्चकार नानातपःकरणतो विमली [विमलेन्द्र] सेवाम् ॥ २३ ।। नव्यस्तवेन नवचैत्यनति सदा यश्चक्रे जिनप्रभविभुः स महांस्तृतीयः । जज्ञेऽथ मुक्तमदचैत्यनिवासविद्यानन्दाह्वसरिरतिधर्ममतिः प्रबुद्धः ॥ २४ ॥ तुर्योऽथ शीतलविहारनिवारणर्यः [णैर्यः] . संवेगवारिधिरभूद्गुणसेन सूरिः । चत्वार एव चतुरा अभवन्गणेऽस्मिन् सूरीश्वरा गुणगणप्रथितास्तदैव ।। २५ ॥ अष्टादशोरुशतमानमुनीश्वराणां वैरङ्गिकः परिकरः प्रवरस्तदासीत् । सूरिभ्य एभ्य उरुसंयमिसाधुसारं शाखाचतुष्टयमथ क्रमशो बभूव ॥ २६ ॥
॥ अथार्याः ॥ श्रीदेवप्रभसूरेः पदे भूच्छ्रीजिनप्रभयतीन्द्रः। तत्पट्टे पुनरजनि श्रीमान्गुणसेनसूरीशः ॥ २७ ॥ प्रतिषेधे क्रियमाणे स्वाचरणादृष्टिरागिगीताथैः । सूत्रोदितकतिवार्षिकपर्वादिकालमार्गाणाम् ।। २८ ।। कर्णावत्यां भूपतिसाक्षिकमस्थापि येन सुविधिः । श्रीगुणसेनगुरुपदे श्रीकीर्तिसमुद्रसूरिरिह सोऽभूत् ॥ २९ ।।
॥ गीतिः ॥ युग्मम् ॥
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तत्पट्टाम्बुजतरणिः शिवसुखसरणिरनेकभव्यानाम् । विद्योदाधिः शमनिधिः श्रीहेमसमुद्रगुरुरासीत् ॥ ३० ॥ श्रीहेमचन्द्रसूरिवीजापुरवासिपेथडमहिभ्यः । यदेशनाप्रबुद्धोऽकारयदुरुचैत्यसुचतुष्कम् ॥ ३१ ॥ सप्तसहजसुकृताप्त्यै साकं तैः सप्तविमलगिरियात्राः । स चकार च दुःसमये सत्रागारे घनान्नमदात् ॥ ३२ ॥ स्वसमयसकलश्रबणे वीराईदागौतमाभिधार्चातः । तै रूप्यटककैः स च चक्रे चित्कोशसुत्रितयम् ॥ ३३ ॥ सोऽबुंदशैले गर्भालयं सबिम्बं व्यधापयच्चैत्यम् । सञ्चित्तादननियमीत्यादिबहुसुकृतततिमकरोत् ॥ ३४ ॥
॥ गीतिः ॥ ॥ अथ वृत्तानि । तदनु मनुशताब्दे सरिरत्नं गणेऽभूत् सुगुरुजयसमुद्रः सर्वस्त्रेष्वधीती। मुनि ७ शतलिपिपाठादेकघस्रे सृजंस्तत् समयकविनिबद्धग्रन्थशुद्धिं व्यधाद्यः ॥ ३५ ॥ वर्षे षट्शरवेदशीतगुमिते देवालय- - - - . . . - - साधुसंघपतिना सार्द्ध महार्द्विप्रथः । आसोको व्यवहृच्चकार महती यात्रां यदङ्किद्वयीसंसेवी चतुरस्तथैव चतुरः सूरीन्मुदाऽस्थापयत् ॥ ३६ ॥ रसकरमनुवर्षे लब्धपादोदय श्रीः कमलतिलकसरिस्तत्पदे ऽभून्महाश्रीः । तप ( उप ) शमरूपं ज्योतिराबिभ्रतोद्यत्तपनहिमरुची तो निर्जितो येन सद्यः ॥ ३७ ॥
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यत्पादाम्बुजभक्तिभृद् (भृ) गुपुरावासी विशुद्धाद्धमान् प्राग्वाटो भटसिंह ठकुर इति श्राद्धो जिनोक्तार्थवित् । कारुण्याम्बुनिधिः सुधासमगिरा भूमीभुजो रजयन् देशेषु प्रवरेष्वमारिकरणघाटी [ णात्पुण्यौ ] घमासूत्रयत् ॥ ३८ ॥ ततोऽभवत्पुण्यदशाभिरामः श्रीमान् जयानन्दगुरुः सदाभः । दीपायितं येन बहुप्रमादतमोमये गच्छगृहाङ्गणेऽस्मिन् || ३९ ॥ श्रीश्रीमालकुले सुधांशुविमले योऽजायत प्रोज्ज्वले
वर्षे सप्तमके विवेककलितः श्रीस्तन्भतीर्थे पुरे ।
आदाय व्रतमद्भुतैकधिपणो वर्षे जनेर्द्वादशे व्याख्यां संघपुरश्चकार शरभू १५ वर्षे पदस्थोऽभवत् ॥ ४० ॥ द्वाविंशेऽजनि बत्सरे रसशराब्धीन्दुः १४१६ प्रमे वैक्रमे वर्षे सूरिवरो बभूव नगरे श्रीक्षेत्र संज्ञे च यः । आसासंघपनन्दनेभ्यकरणे श्रीदेनकृतोत्सवः
पश्चात्तत्सकुटुम्बमेव शशिभूवर्षे मुदा दीक्षयत् ॥ ४१ ॥ विद्वान् व्याकरणे बुधः परमते सिद्धान्ततत्वे सुवीश्छन्दालंकृतिकाव्यनाटककथातर्केषु वाढं दृढः । मेधावी गणितानुयोगविषये किंवा बहूक्तरसी । सूरीन्द्रो
कलंदिका कुलगृहं निर्द्वन्द्वमेव क्षितौ ॥ ४२ ॥ आलोक्य स्वगणं क्रियासु शिथिलं मग्नं प्रमादाम्बुधाge किल बोधसद्गुणयुजा चारित्र पोतेन यः । तत्पापश्रुतदुर्धनोपधिसुखं चोझांचकार क्षणात् श्राद्धान् शुद्धनिधिं जिनागमविधिं चाबुबुधत्स्वं सुधीः ॥ ४३ ॥
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प्रवचनरथस्थितो यः श्रुतदिव्यास्त्रः सुशीलसन्नाहः । एकोपि किल रिपुचमू जित्वाभूद्वनविख्यातः ॥ ४४ ॥ येषां पाणितलं सरोजविमलं सत्पुण्यगन्धाकुलं । तेनात्तं किल गन्धचूर्णमभवन्माहात्म्यसौरभ्यभाक् । क्षिप्तं मण्डलिकेन्द्रमौलिमाभि यत् सम्यत्कसंघेशताप्रस्तावे किमु वर्ण्यमत्र भुवनान्यद्यापि तद्वासयेत् ॥ ४६॥ अकृत स नवजीर्णचैत्यकृत्यं चितिकोशं बहुदानधर्मशालाः। मुनिनगमनु १४७७ वत्सरे सुयात्रां व्यवहरमण्डलिकश्च येषु भक्तः ॥४६॥ श्रीमान्मेलिगदेवरभ्य नि] हरिराजश्चेति तद्बान्धवौ येषां वाक्यरसायनोजितगुणौ तद्बाहुदण्डाविव । जातौ तद्वदनेकपुण्यनिपुणावन्येऽपि सुश्रावकाः साभाभीममुखाः सुकृत्य करणैः संपन्नलक्ष्मीफलाः॥४७॥ श्रीदेवरत्नमरिप्रवरास्तत्स्थापिता गुरुगुणाढ्याः। गुरुसेविनो जयन्ति प्रथितानेकोत्तरग्रन्थाः ॥ ४८ ॥ तेषां सतीर्थ्य एषां बिभ्रन् शिष्यत्वमस्ति पण्डितकः । नामार्थशीलसिंहो यो भद्रं वादिनं जितवान् ॥ ४९ ॥ तेनोदधिनिधिवेदेन्दु १४९४ मिते माधबोज्ज्वलचतुर्थ्याम् । रविवारे रचितमिदं श्रीचन्द्रचरित्रमतिरुचिरम् ॥ ६० ।। एतद्रचनापुण्यात् स्तात् सुलभं कर्तृभव्यजीवानाम् । बोधि च सुवाच्यमानं विबुधैरिदमिह रिरञ्जयतु ॥ ११ ॥ श्रीशीलसिंहपण्डितशिष्येण कृता च शीलहंसेन । जितगर्वस्वकगुरुगणभक्त्या विपुला प्रशस्तिश्रीः ॥ १२ ॥
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इति प्रशस्तिः ॥ ॥ ग्रन्थाग्रं ३६७२ अक्षर ५ श्रीरस्तु ॥ संवत १६६२ वर्षे आश्वनमास शुक्लपक्षे एकादशीवारशुक्रे शुभयोगे श्रीमत्पत्तनमहानगरमध्ये श्रीश्रीचन्दचरित्रं लिखितम् ।।
__No. 880. Sanghapattaka by JINA VALLABHASURJ, WITH THE COMMENTARY OF HARSHA RAJA [संघपटकः सटीकः-मृ० - जिनवल्लभसूरिःटी. हर्षराजः]. Commentary begins : वन्दे शान्तिजिनं शान्तिकरं कर्मोत्करोज्झितम् । महोदयेन्दिरोदारं विघ्नसंघातघातकम् ॥ १ ॥ भित्वा दुःकर्मदुर्ग शमदमबलतः साधिकद्वादशाब्दैलेभे तीर्थकरश्रीः सदतिशयवती लीलया येन नृभ्यः । भक्तेभ्यश्च प्रदत्ता ससुरमाणिरहो इष्टदस्त्वं हि सार्वस्तेनालं मां कुरुष्व स्वविमलकमलालंकृतं वर्धमानः ॥ २॥ जिनवल्लभसूरीन्द्रैः कृतः श्रीसंघपट्टकः । तयाख्यामल्पधीः कुर्वे बृहट्टीका नुसारतः ॥ ३ ॥
अथ संघपट्टक इति कः शब्दार्थः , उच्यते ॥ संघस्य ज्ञानादिगुणसमुदायरूपस्य साध्वादेश्चतुर्विधस्य पट्टको व्यवस्थापत्रं । यथा राजादयः स्वानयोगिभ्यो व्यवस्थापत्रं प्रयच्छन्त्यनया व्यवस्थया युष्माभिर्व्यवहर्तव्यमिति एवमिहापि साक्षाद्विपक्षदोषदर्शनद्वारेण स्वपक्षसु संघस्य व्यवस्था वक्ष्यमाणा दर्श्यते इति संघपट्टकः ॥ तत्रादिवृत्तम् ॥ वह्निज्वालावलीढम् ।। २ ॥
Ends:
श्रीमति खरतरगच्छे श्रीजिनभद्राभिधा गणाधीशाः । सिद्धान्तरुचिप्रौढानूचानाः सन्ति तच्छिष्याः ॥ १॥
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श्रीमदभय सोमास्तूपाध्यायास्तद्विनेयविख्याताः । तच्छिष्यहर्षराजोपाध्यायेन हि कृता वृत्तिः ॥ २ ॥ लध्वी वाग्गुरुभद्रोदयसाहाय्याच्च संघपट्टस्य । श्रीमज्जिन पतिसूरीश्वर कृतसदृद्धटीकातः ॥ ३ ॥ यदत्र हर्षराजेन लिखितं मतिमान्द्यतः ।
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विरुद्धं च तदुत्सूत्रं बुधैः शोध्यं सुबुद्धिभिः ॥ ४ ॥
इति श्रीसंघपट्टकलघुवृत्तिः संपूर्णा ॥
No. 909. Sthulabhadramunicharitra, by JAYANANDASURI [स्थूलभद्रमुनिचरित्रम् – जयानन्दसूरिः ] .
Begins:
वीरो वर्यश्रिये वोऽस्तु जिनेन्द्रो जगदर्चितः । रागादिरोधको विश्वबोधको बुद्धविष्टपः ॥ १ ॥ श्रीवारशासनान्भाजभासैनकनभोमणिः। स्थूलभद्रमुनींद्रस्य चरित्रं किमपि ब्रुवे ॥ २ ॥ एवं श्रीस्थूलभद्रप्रवरजिनपतेः पुण्यलावण्य कीर्तेः सर्पत्कंदर्पवीरप्रकटपटुल्यप्राप्तसुप्राज्यकीर्तेः ।
एवं चित्रं चरित्रं कृतसुकृतिजन श्रीजयानन्दसिद्धिं शश्वद्भव्यत्रजानां प्रथयतु परमां शुद्धशीलप्रसिद्धिम् ॥ २ ॥ इति श्रीस्थूलभद्रमुनीन्द्रचन्द्र चरित्रं शुचि शीलगुणपवित्रं समाप्तम् ||
11
No. 920. A commentary on the Ashtasahasri, by LAGHU - SAMANTABEHADRA, [अष्टसहस्रीविषमपदतात्पर्यटीका - लघुसमन्तभद्रः ] .
Begins :
ॐ नमो वीतरागाय नमः ॥ श्रीसरस्वत्यै नमः ॥
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॥ श्रीमद्विशालकीत्तिमुनये नमः ।। इह हि खलु पुरा स्वकीयनिरवद्यविद्यासंयमसंपदा गणधरप्रत्येकबुद्धश्रुतकेवलिदशपूर्वाणां सूत्रकृन्महर्षीणां महिमानमात्मसात्कुद्भिर्भगवद्भिरुमास्वातिपादैराचार्यवरामत्रितस्य तत्त्वार्थाधिगमस्य मोक्षशास्त्रस्य गंधहस्त्याख्यं महाभाष्यमुपनिबध्नंतः स्याद्वादविद्यानगुरवः श्रीस्वामिसमंतभद्राचार्यास्तत्र किल मंगलपुरस्सरस्तवाविषयपरमात्मगुणातिशयपरीक्षामुपाक्षप्तवंतो देवागमाभिधानस्य प्रवचनतीर्थस्य सृष्टिमा पूरयांचक्रिरे । तदनु सकलतार्किकचक्रचूडामणिमरीचिमेचकितचरणनखकिरणो भगवान् भट्टाकलंकदेवस्तदेतस्याष्टशत्याख्येन भाष्येणोन्मेषमकार्षीत् । तदेवं महाभागैस्तार्किकार्केरुपज्ञातां श्रीमता वादीभसिंहेनोपलालितामाप्तमीमांसामलंचिकीर्षवः स्पाद्वादोद्भासिसत्यवाक्यमाणिक्यमकरिकाघटनवेंकटकाराः सूरयो विद्यानंदस्वामिनस्तदादौ भगवदर्हदाचार्यप्रवचनप्रणामोपासनकृतेन सुकृतेन निष्प्रत्यहप्रसरां गिरां चातुरीमाविर्भावयतः प्रतिज्ञाश्लोकमेकमाह ॥ श्रीवर्द्धमानमित्यादि । अस्यार्थः । अलं क्रियते विभूष्यते केन मया विद्यानंदरिणा। अनेनालंकारस्य महत्वमुद्योतितम् । का कृतिः संदर्भः । किंल्पा शास्त्रावताररचितस्तुतिगोचरातमीमांसितं । विशेष्यविशेषणयोराविष्टलिंगत्वादयं निर्देशो यथा रमणीरत्नमुर्वशीति। कस्य । अस्य स्वामिसमंतभद्राचार्यस्य । अनेनालंकार्यस्य माहात्म्यमावेदितम् ॥...
शास्त्रावताररचितस्तुतिगोचराप्तमीमांसितमिदं शास्त्रं देवागमाभिधानमित्युक्ते तद्णातिशयपरीक्षातदाप्तमीमांसितयोरेकत्वे साधिते तदाप्तमामांसितमपि देवागमाभिधानं भविष्य येवेति मनसिकृत्य तयोरेकत्वसमर्थनार्थमाह ॥ मङ्गलपुरस्सरेत्यादि । ननु च मीमांसितं परीक्षाविचार इत्यनर्थान्तरं तत्र च वादिप्रतिवादिभ्यां भवितव्यं तथा च सति समन्त
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भद्राचार्यस्य महावादिनः प्रतिवादी न कश्चिन्मनुष्यमात्रः संभवत्येव ततः कथमाप्तमीमांसन विधानमुपपद्यत इति पृष्टस्सन्नाचष्टे तदेवमित्यादि ॥ इति समन्तभद्रकृतिव्याकृतिः समाप्ता ।।
देवं स्वामिनममलं विद्यानन्दं प्रणम्य निजभक्त्या । विवृणोम्यष्टसहस्रीविषमपदं लघुसमन्तभद्रोऽहम् ॥ १ ॥ ॥ श्रीवर्द्धमानमित्यादि ।। अस्मिन् श्लोके पूर्वार्द्धन भाष्यादिपद्यद्वयार्थः । उत्तरार्द्धन प्रथमभाष्यार्थश्च संगृहीतः ॥ ...
इति समंतभद्रमुनींद्र कृतायामष्ट सहस्रीविषमपदतात्पर्यटीकायां प्रथमः परिच्छेदः ॥ १॥ ...
इति द्वितीयपरिच्छेदः समाप्तः ॥ ३० ॥
अकलंकविषणैः , अकलंका विषणा येषां ते तैः । अथवा । भट्टाकलंकवद्धिषणा येषां ते तैः । पुनविस्तरः अष्टशीत्यादि । विलसदकलंकविषणैः भट्टाकलंकदेवैः कृता अष्टशती प्रथितार्थप्रख्याताभिधेया भवतीति क्रियाध्याहारः । साविलसदकलंकधिषणविद्यानंदैः संक्षेपादष्टसहस्री कृतापि विलसदकलंकधिषणैरन्यर्विद्वद्भिः प्रपंचनिचितावबोद्धव्याः अकलंकाः, भट्टाकलंकदेवाः अत एव धिषणा बृहस्पतयः । अकलंकधिषणाः। बृहस्पतिः सुराचार्यो गीष्पतिर्धिषणो गुरुरित्यमरः । विलसंतश्च ते अकलंकधिषणाश्चोत विलसदकलंकधिषणाः तैः। ... तृतीयः परिग्छेदः समाप्तः।
जीयादित्यादि । गमयंती कं, देवागमसंगतार्थ देवागमाख्यस्तुतेः हृदयंगममर्थ संगतं हृदयंगममिति वचनात् । किं विशिष्टम् । अकलंक कलंकरहितं अथवा कलंकरहितं यथा भवति तथा गमयंतीति संबंधः । अथवा गमयंती कं, अकलंकं अकलंकदेवकृतवृत्तिग्रंथं ग्रंथकर्त्रभिधानेनापि ग्रंथा
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PURCHASED FOR GOVERNMENT.
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भिधानस्य दर्शनात् । समंतभद्र कृतस्तोत्रे समंतभद्राभिधानवत् । किं विशिष्टं देवागमसंगतार्थ देवागमस्य संगतः अर्थो यस्मिन् । ...
चतुर्थपरिच्छेदः समाप्तः। स्फुटामत्यादि । अकलंकपदं देवागमस्तोत्रकलंकरहितपदमिति व्युत्पत्तेः। किं विशिष्टं तत् । दर्शितसमंतभद्रं दर्शितानि समंताद्भद्राणि येन तत् पक्षांतरे अकलंकपदं वृत्तिग्रंथ । किं विशिष्टं तत् । दर्शितसमंतभद्रं दर्शितदेवागमस्तोत्रम् । ... इति पंचमपरिच्छेदः समाप्तः ॥ विद्यानंदकृतेः प्रवादमखिलं निर्मलयंत्या भृशं विद्यानंदकृतेः पदस्य विवृति गूढस्य संक्षेपतः । विद्यानंदकृते व्यरीरचमलं विद्वज्जनालंकृतेः शक्त्याहं हि समंतभद्रमुनिपो देवागमालंकृतेः ।। शिष्टीकृतदुर्वृष्टिसहस्री दृष्टीकृतपरदृष्टिसहस्री । स्पष्टीकुरुतादिष्टसहस्री परमाविष्टपरमष्टसहस्री ॥ १ ॥ .
संवत् १७९५ वर्षे मिती असाढिसुदि ६ लिखितं नैणसागरसवाइ नेपूरमध्ये ॥
No. 936. Tattvarthasutra, by UMASVATI with the COMMENTARY of PRABHACHANDRASURI. [ तत्त्वार्थसूत्र-सीकम् मू० उमास्वातिः टी. प्रभाचन्द्रसूरिः टीकानाम-तत्त्वार्थरत्नप्रभाकरः] Begins: वंदे प्रारब्धसिध्द्यर्थ पञ्चकल्याणनायकम् । मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम् । Ends: इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥
इति तत्त्वार्थरत्नप्रभाकरग्रन्थे (टिप्पणे ) मुनिश्रीधर्मचन्द्रशिष्यप्रभा
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EXTRACTS FROM MANUSCRIPTS
चन्द्रविराचिते ब्रह्मजैतसाधुहाबादेव भावनानिमित्ते मोक्षपदार्थकथने दशमाध्यायसूत्रविचारप्रकरणं समाप्तम् ॥ संवत् १७६२ वर्षे आश्विनशुदि ॥ ५ ॥
No. 938. Tattvarthatika, by SRUTASAGARA [ तत्त्वार्थटीका - श्रुतसागरः ].
Begins:
सिद्धोमास्वामिपूज्यं जिनवरवृषभं वीरमुत्तीरमाप्तं
श्रीमन्तं पूज्यपादं गुणानिधिनिलयं सत्प्रभाचन्द्रमिन्द्रम् । श्रीविद्यानन्दधीशं गतमलमकलङ्कार्यमानम्य रम्यं वक्ष्ये तत्त्वार्थवृत्ति निजविभवतयाहं श्रुतोदन्वदाख्यः ॥ १ ॥
Ends:
श्रीवर्द्धमानमकलंक समन्तभद्र
श्रीपूज्यपाद सदुमापतिपूज्यपादम् । विद्यादिनंन्दिगुणरत्नमुनीन्द्र सेन्यं
भक्त्या नमामि परितः श्रुतसागराख्यः ॥ १ ॥
इत्यनवद्यगद्यपद्यविद्याविनोदितनादितप्रमोदपीयूषरसपानपावनमतिसभा
जनरत्नराजमतिसागरयतिराजराजितार्थनसमर्थेन तर्कव्याकरण छन्दो लंकारसाहित्यादिशास्त्रनिशितमतिना यतिना श्रीमद्देवेन्द्र कीर्तिभट्टारकप्रशिष्येण शिष्येण सकलविद्वज्जनविहितचरण सेवस्य श्रीविद्यानन्दिदेवस्य संछर्दितमिथ्यामतदुर्गरेण श्रुतसागरेण सूरिणा विरचितायां श्लोकवार्त्तिकराजवातिकसर्वार्थसिद्धिन्यायकुमुदचन्द्रोदयप्रमेय कमलमार्तडाष्टसह त्रीप्रमुख ग्रंथ संदर्भ - निर्भरावलोकनबुद्धिविराजितायां तत्त्वार्थटीकायां दशमोध्यायः समाप्तः ॥ इति तत्त्वार्थस्य श्रुतसागरी टीका समाप्ता ॥
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APPENDIX IV.
List of Manuscripts purchased
for Government.
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ree
Muis
l adalief deta
CHANEL
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________________
नंबर.
ग्रंथनाम.
ब्राह्मणपुस्तकानि साङ्गोपनिषदो वेदाः
१ आथर्वणीयोपनिषद्
२
आश्वलायन श्रौतसूत्रम्
अध्यायाः ५.
३ ईशावास्योपनिषद्
४
ऋग्वेदाष्टकम् ४ तैत्तरीयशा
खायाः
५ ऋग्वेदीयैतरीयोपनिषद्
...
अ
ध्यायाः ९, १०, ११, १२
६ कात्यायनीयश्रौतसूत्रम्
७
कात्यायनसूत्रभाष्यम् अध्यायाः २२
कतो.
...
...
...
...
देवयाज्ञिकः
पत्राणि पंक्तयः अक्षराणि संवत्. अपूणादि वान्यम्.
৩ বাম
६३
६१
७
१४६
९३
१०
८
8
१२
९
४०
४०
२३
३२
३२
१८२६ प्रथमपत्रं न.
२६ १८६२
३२
...
अपूर्णम्.
PURCHASED FOR GOVERNMENT.
223
Page #325
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________________
224
नंबर.
ग्रंथनाम.
कर्ता.
पत्राणि. पंक्तयः अक्षराणि. संवत्. | अपूर्णादि वाच्यम्.
८ कात्यायनसूत्रभाष्यम्
द्वादशाध्यायात् २४ पर्यन्तम् कैवल्योपनिषत्सटीका कृष्णोपनिषद् ... गणशान्तिब्राह्मणम् गोपालोत्तरतापिनी सदीपिका गोपालोत्तरतापिनी सटीका ...टी. श्रीकृष्णचैतन्यः | गोपीचन्दनोपनिषद्
चरणव्यूहः सोमोत्पत्तिश्च ... १६ | तवलकारोपनिष सटीका वा- टी. शंकराचार्यः | १२ | १२ ।
केनोपनिषद्. १७ | तैत्तिरीयोपनिषद्... .. १८ । दशकर्मपद्धतौ कुशकण्डिका...
LIST OF MANUSCRIPTS
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________________
...
B669-29
१९ । दर्शपौर्णमासहोत्रम् -
__ आपस्तंबशाखायाम् दर्शपौर्णमासौ ...
२२ । ... |
पत्राणि ३, ६,७,
८,९,५३,५४ न.
१८२५
१७१९
१७३३ १८५५
gior van vvvvvv2.0
७१५
देवीसूक्तम् ... | धातुलक्षणपारीशष्टम्
नवकण्डिकाश्राद्धसूत्रभाष्यम् | निरुक्ते उत्तरार्द्धम् .. | तदेव ... ...
| पदादिविकृतयः ... २७ परिशिष्टानुक्रमणी नक्षत्र कल्पश्च. २८ पितृसंहिता ... २९ । पुरुषबोधिनी अथव० ३०. पूरणश्लोकाः ... ३१ । तद्व्याख्या ... ३२ । प्रतिप्रस्थातृप्रयोगः ३३ । प्रातिशाख्यभाष्यम्
PURCHASED FOR GOVERNMENT.
१०६
अपूर्णः
0
अनन्तः
उवट:
१५३८
225
Page #327
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________________
226
कर्ता.
पत्राणि. पंक्तयः अक्षराणि. संवत्. | अपूर्णादि वाच्यम्.
नंबर.
ग्रंथनाम.
३८
३४ प्रायश्चित्तपद्धतिः... ... ३५ । बृहतीसहस्रम् ... ३६ । बृहत्पर्वमालाभाष्यम् त्रु. ... बालराजसुत-रामः १८
ब्राह्मणपञ्चिका पञ्चमी | ब्राह्मणपञ्चिका षष्ठी ब्राह्मणपञ्चिका सप्तमी | मण्डलकारिका ... मन्युसूक्तम् ... ... मुण्डकाद्युपनिषदः । मूल्याध्यायपरिशिष्टम् यजुर्वेदे वाजसनेयीसंहितायाः
३१५ पदानि. ४५ । तस्या एव जटापाठः पूर्वार्द्धम् ।
AAVM92- ४
LIST OF MANUSCRIPTS
..
।
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________________
... | प्रथमपत्रे न.
४६ । तस्या एव जटापाठोत्तरार्द्धम्.
अध्यायाः २१,२२,२३,२४. ४७ | रामपूर्वतापिनी सटीका ... टी. विश्वेश्वरः
रामोत्तरतापिनी सटीका टीका- टी. आनन्दवन:
नाम आनन्दनिधिः रुद्रजपः
४८
...
रुद्रजपः
vv 239 v 42
अनन्तदेवः टी. उवटः
रुद्रपाठः ऋग्वेदिनाम् रुद्रसूत्रम् रुद्राध्यायः सटीकः लाट्यायनसत्रे ब्रह्मत्वम् वसोर्धारा वैदिकीप्रक्रिया त्रु. वैश्वदेवपर्वहोत्रम् शतपथब्राह्मणेहवियज्ञनाम प्रथमं काण्डम्. ।
PURCHASED FOR GOVERNMENT.
मुरारिः
० ।
९
३५ १८४९
227
Page #329
--------------------------------------------------------------------------
________________
228
नंबर.
ग्रंथनाम.
कर्ता.
पत्राणि. पंक्तयः अक्षराणि. संवत्. अपूर्णादि वाच्यम.
५९ एकवै० द्वितीयं काण्डम् .. ६० अध्बर ० तृतीयं काण्डम् ..
| सवन० पञ्चमं काण्डम् ... ६२ उखासंभरण० षष्ठं काण्डम् .. ६३ चीनामक० अष्टमकाण्डम् ..
साचीनाम० नवमं काण्डम् ... ६५ | अग्निरहस्यं दशमं काण्डम् ..
मध्यमद्वादशं काण्डम्
waar asa ca o wa
१६४० १८३० १८४१ १८५१ १८३६ १८४९ १८४९ १४६४
LIST OF MANUSCRIPTS
शकः
| अश्वमेधं त्रयोदशं काण्डम् ...
आरण्यक चतुर्दशं काण्डम्. ६९ तदेव ...
शान्तिसूक्तम् ... ७१ शिक्षादिचतुष्टयम् ..
अपूर्णम्.
Page #330
--------------------------------------------------------------------------
________________
८
२१
१७८७ १८३६
२८
७२ समावर्तनप्रयोगः ... धरणीधरपुत्रः । १४ । ७३ सर्वानुक्रमणीपद्धतिः ... याज्ञिकश्रीदेवः ७४ सौरमन्त्राः
धर्मशास्त्रम्. अग्निहोत्रिदाहविधिः अनुमरणप्रदीपः ...
गौरीभट्टः अमृता शान्तिः ... आचारतिलक : आह्निकापर- गङ्गाधरः नामकः
१८३९
। १७७२
PURCHASED FOR GOVERNMENT.
नागदेवः
... अपूर्णः
नीलकण्ठः
आचारप्रदीपः ... आचारप्रदीपः आचारमयखः उपाकर्मपद्धतिः ... और्ध्वदेहि कक्रियापद्वातिः त्रु०. |
कर्मकौमुदी ... ८५ कविपाकः ... ...
विश्वनाथः कृष्णदत्तः
१७८६
। ३४
229
Page #331
--------------------------------------------------------------------------
________________
230
नंबर.
ग्रंथनाम.
कर्ता.
पत्राणि. पंक्तयः अक्षराणि. संवत्. | अपूर्णादि वाच्यम्.
| १६३०
२१
•
९
| काकशब्द फलम् ... | कालनिर्णयदीपिका
... रामचन्द्राचार्यः कुण्डपूजा ... ... कण्डप्रदीपः ...
महादेवः कुण्डमण्डपविधिः
रामवाजपेयी कुण्डरत्नाकरः सटीकः द्वयोः विश्वनाथः गङ्गाभक्तिप्रकाशः
हरिनन्दनः गयाश्राद्धपद्धतिः...
रघुनाथः गोभिलगृह्यपद्धतिः सुबोधिनी त्रु. शिवरामः | ग्रहदानप्रयोगः ... ग्रहमखतिलकम् ... ... माधवः ग्रहशान्तिपद्धतिः
गणपतिः ९८ | ग्रहस्थापनपद्धतिः
५९
१८०५ १८२४ १८९८ १८३४
LIST OF MANUSCRIPTS
Page #332
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________________
।
४ । १२
९९ [घृतादितुलापुरुषविधिः ... १०० चातुर्मास्यपद्धतिः... ... १०१ | चातुर्मास्यविधिपद्धतिः
गणपतिः रावलोपनामा.
रत्नाकरः
(४
७७३ १८७९
नारायणः भट्टोजीदीक्षितः गणपतिः रामदत्तः
१०२ | जयसिंहकल्पद्रुमः १०३ | ज्योतिष्टोमादिपद्धतिः १०४ त्रिस्थलीसेतु:
त्रिस्थलीसेतुः ...
दशकर्मपद्धतिः ... १०७
सैव ... ... १०८ दर्शपूर्णमासपद्धतिः
दानपञ्चिका ११० । दानमयखः १११ । दीक्षानिर्णयः ११२ | देवीपूजापद्धतिः ... ११३ । धनुर्वेदः
PURCHASED FOR GOVERNMENT.
१०९ |
नरराजः नीलकण्ठः
१८७२ १७९८
१६
vari
चैतन्यगिरिः
१७५२ | आदिपत्रं न. ३५ J ... | अपूर्णम्.
J१११
231
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________________
नंबर.
ग्रंथनाम.
११४ धर्मप्रवृत्तिः १११ नक्षत्रविधानम्
११६ नान्दिश्राद्धम्
...
११७
नारदपञ्चरात्रीयक्रियाकाण्डः..
११८ निम्बादित्यव्रत सिद्धान्त ज्योत्स्ना.
११९ निर्णयदीपकः त्रु० १२० निर्णयसारः १२१ निर्णयसारः १२२ |निर्णयामृतम् १२३ पाराशरीयम्
...
...
१२४ प्रतिष्ठामयूखः
१२५ प्रयोगपारिजाते श्राद्ध खण्डः १२६ | प्रयोगरत्नः
कतो.
नाराय गः
धनिरामः
अचलद्ववेदी
नन्दर मः
...
अल्लाडनाथः
...
नीलकण्ठः
अनन्तदेषः
पत्राणि पंक्तयः अक्षराणि संवत्. अपूर्णादि वाच्यम्.
११७
६९
४९
५४
११
३३८
५७
५१
१२१ ६६
१४
११
१२
V
१५
११
१५
V
..
४८
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२२
३४
५०
३८
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८ ३२
१६
४२
३६
२८
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३२
४०
२८
१७९८
१७९६
१८६९
१८३६
१८४८
...
आद्यन्तरहित एव.
अपूर्णः
232
LIST OF MANUSCRIPTS
Page #334
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________________
e 669-30
१२७ प्रयोगविवेकसंग्रहः
१२८ प्रायश्चित्तमुक्तावल्यां कृच्छ्रादि
स्वरूपम्.
१२९ प्रायश्चित्तसारसंग्रहः
स्वमाध्यायश्च ब्रह्मवैवत्तीयः
१३०
ब्रह्मकूचेविधिः
१३१
भगवन्नाममाहात्म्यम् महार्णवे कर्मविपाकः
१३२
१३३ महावीरभेदे प्रायश्चित्तम्
...
वास्तुषद्धतिः विधानपारिजात: ...
...
१३४
१३५
१३६ विवाहपद्धतिः यजुर्वेदिनः
१३७
१३८
- १३९
...
...
...
षोडशोपचारिपूजनं च विष्णुयागपद्धतिः... वीरचिन्तामणिनाम धनुर्वेदः . वैष्णवधर्मसुरद्रुममञ्जरी
वररुचिः
दिवाकरः
नागोजीभट्टः
पुरुषोत्तमदेव:
...
अनन्तदेवः
...
अनन्तदेवः
...
संकर्षणः
३४
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७
६९
२
४८
१४९
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१२
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९
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७
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११
७
८
२४
20
३२
२६
२४
२५
४०
२४
२४
१३
२०
२७
१८९४ १९१०
१८०५
१८२० पत्रे ३१, ३२ न.
१९०६
१७३५ १९०६
PURCHASED FOR GOVERNMENT.
233
Page #335
--------------------------------------------------------------------------
________________
नंबर,
ग्रंथनाम.
१४०
व्यवहारनिर्णयः
१४१
व्रतार्कः
१४२ शङ्खस्मृतिः
१४३ शान्तिमयूखः
१४४ शिवपूजापद्धतिः ।
१४५ | शुद्धिविवेकः
१४६
शूद्रकमलाकरः
१४७
श्राद्धकल्पः
१४८
श्राद्ध काशिका
१४९ श्राद्धपद्धतिः
१५० श्राद्धपद्धतिः
१११ श्राद्धानुक्रमणिका
१९२
श्राद्धविधिः
...
...
...
...
...
...
...
...
...
...
...
...
कर्त्ता.
मयाराम मिश्रः
शंकर:
...
नीलकण्ठः
...
रुद्रधरः
कमलाकरः
कृष्णमिश्रः
...
शंकरः
श्रीदत्तोपाध्यायः
पत्राणि पंक्तयः अक्षराणि संवत्. अपूर्णादि वाच्यम्.
१८९९ | पत्रे ८, ९, न.
१८९१
१८२९
१९
४२६
३३
१३१
१५
९१
१३६
१८
१२५
११
१०
१४
४९
११
१०
७
१२
ܐܐ
९
३६
३८
२७
३२
४२
३२
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३२
२४
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३८
१९३१
११ ३० १७९८ |
११
१०
७
४०
१८६९
१८२४
१८३४
३१
४८
:
अपूर्ण:
234
LIST OF MANUSCRIPTS
Page #336
--------------------------------------------------------------------------
________________
तिगलाभट्टः
१९७
१९३ | श्राद्धविधिः ११४ श्रीस्थलप्रकाशः ... १६५ | श्रौतपद्धतिः ... १६६ | संस्कारनिर्णयः
vw
१७१७ १७१५ ... | आद्यन्तरहिता.
चन्द्रचडभट्टः उमणभट्टात्मजः
१५७
*
PURCHASED FOR GOVERNMENT,
दिवाकरः याक्षिकदेव
| सपिण्डीकरणश्राद्धम् १५८ सर्वदेवप्रतिष्ठा ... १५९ सारसंग्रहकर्मविपाकः
सूर्यादिपञ्चायतनप्रतिष्ठा स्मृतिसारः ... ... | स्मृतिसारसंग्रहः ..
स्य मन्तकोपाख्यानम १६४ | हारीतस्मृतिः .. १६५ | हेमाद्रिप्रयोगः ब्रह्माण्डपुरा
णोक्तः
(३४
... | अपूर्णः
- 921
३० | १७३४
230
Page #337
--------------------------------------------------------------------------
________________
नंबर.
ग्रंथनाम.
पुराणानि
१६६ अग्निपुराणम्
१६७ अनुस्मृतिः महाभारतीय मोक्ष -
धर्मान्तर्गता
...
...
१६८ आदित्यपुराणम् ...
१६९
तदेव अध्यायाः २५ इतिहाससमुच्चयः
१७०
चौरचर्याः
विज्ञप्तिः
१७१ कुरुक्षेत्र माहात्म्यम्
१७२ केदारकल्पः शिवपुराणान्तर्गतः
१७३ गणेशोद्देश दीपिका
१७४
...
कर्त्ता.
...
...
...
...
विट्ठलेश्वरः
सएव
पत्राणि पंक्तयः अक्षराणि संवत्. अपूर्णादि वास्यम्.
४०२
१०
१४४
१११
१३६
२५
३४
८
१२
१२ ३८ १८१२
१५
७
१५
४४
११
११
१३
१३
३२
४०
३८
२८
४०
३२
४५
१८२६
१९८८
१९०७
१७६२
१५२०
शकाब्दाः
236
LIST OF MANUSCRIPTS
Page #338
--------------------------------------------------------------------------
________________
रघुनाथः
रघुनाथः वल्लभाचार्यः
नामरत्नस्तोत्रम् ... ... गिरिधार्यष्टकम् ... ...!
दशमस्कन्धानुक्रमणिः ...J १७१ | जगन्नाथमाहात्म्यम् स्कन्दपुरा
णान्तर्गतम् १७६ | जैमिनीयाश्वमेधः-महाभारता
न्तर्गताश्वमेधिकपर्वस्थः.
१७७ तुलसीमाहात्म्यम्-विष्णुधर्मो
त्तरोक्तम् १७८ | देवीपुराणम् ... ... १७९ पुष्करमाहात्म्यम्...
| फाल्गुनमाहात्म्यम् | ब्रह्मवैवर्तपुराणस्य कृष्णजन्म
खण्डः. १८२ | गणपतिखण्डः ...
PURCHASED FOR GOVERNMENT.
237
Page #339
--------------------------------------------------------------------------
________________
238
नंबर.
ग्रंथनाम.
कर्ता.
पत्राणि. पंक्तयः अक्षराणि. संवत्. | अपूर्णादि वाच्यम्.
| प्रकृतिखण्डः
। ३२ | १८७० पत्रे ४२, ४३ न.
- २५
२२६ ब्रह्मखण्डः
१०८ १८५ | भागवतसंदर्भः प्रथमसंदर्भः रूपसनातनः
तत्त्वसंदर्भनामा. भागवतप्रथमस्कन्धक्रमसंदर्भः
नवाध्यायानामेव. | भागवतदशमस्कन्धपूर्वार्द्ध सटी | टी०वल्लभाचार्यः | ६६४
कम् टीका सुबोधिनी. १८८ | मथुरामाहात्म्यम् वाराहपुराणा
न्तर्गतम्. १८९ रत्नपरीक्षा अगस्तिमुनिकथिता. १९० | रत्नपरीक्षा-भाषा .... रामचन्द्रः १९१ । रामचन्द्रचन्द्रिका-भाषाबद्धा... इन्द्रजित
। १०६
LIST OF MANUSCRIPTS
Page #340
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९२ | रासपञ्चाध्यायी सटीका भाग
वतपुराणान्तर्गता ... १९३ | रेवामाहाल्यम्-वायुपुराणोक्तम्. १९४ | लघुभागवतामृतम् ... गौड-पूर्णानन्दः १९६ । लक्ष्मीसहस्रनामस्तोत्रम्-आदि
त्यब्रह्मपुराणोक्तम ... १९६ / वेटगिरिमाहात्म्यम्-भविष्यो
त्तरपुराणोक्तम्.
| शिवपुराणम् ... ... . १९८ तदेव ... .. १९९ शिवसहस्रनाम पद्मपुराणान्त
र्गतम् ... ... २०० | स्कन्दपुराणे ब्रह्मोत्तरखण्डः ...
न्यायशास्त्रम्. २०१ । ईश्वरकर्तृत्वे वादस्थलम्
PURCHASED FOR GOVERNMENT
१९७ ।
४ । ११ । ३२
239
Page #341
--------------------------------------------------------------------------
________________
नंबर.
पत्राणि. पंक्तयः अक्षराणि संवत्. | अपूर्णादि वाच्यम् .
कर्ता.
ग्रंथनाम.
... | अपूर्णा.
२०२ | कारिकावल्याष्टीका
पञ्चाननभट्टः सिद्धान्तमुक्तावली. किरणावली
उदयनः २०४ | चिन्तामणिप्रकाशः
गङ्गेशः ११८ प्रथमपरिच्छेदः. २०५ | तत्त्वचिन्तामणिः त्रु० ... रङ्गेशः ६१ २०६ । तर्कसंग्रहः सटीकः टीकानाम म. अन्नभट्टोपा- ३९ । १२ । सिद्धान्तचन्द्रोदयः. ध्यायः
टी. कृष्णधर्जटिः २०७ । तर्कप्रकाशाभिधा न्यायसिद्धा- श्रीकण्ठशर्मा
न्तमञ्जरी दीपिका. प्रत्यक्षखण्डः उपमानखण्डः शब्दखण्डः
LIST OF MANUSCRIPTS
/
... | प्रथमपत्रं न.
Page #342
--------------------------------------------------------------------------
________________
B 669-31
२०८ | तर्कभाषायाष्टीका शिका.
२०९ तर्कभाषाप्रकाशः २१० न्यायसिद्धान्तदीपः सटीक :
२११ न्यायसिद्धान्तमञ्जरीटिप्पणं २१२ सप्तपदार्थों
२१३ सप्तपदार्थीवृत्तिः
२१४ सप्तपदार्थोवृत्तिः मितभाषिणी माधवसरस्वती
२१५ सर्वज्ञसिद्धिप्रकरणम्
शब्दनिराकरणम् च
व्याकरणानि.
२१६
अष्टाध्यायी
२१७ कातन्त्रविभ्रमसूत्रम्
तर्कप्रका | कौण्डिन्यभट्टः
तदवचरिश्व
.
...
630
म. शशधरः
टी. शेषानन्तः
शिरोमणिभट्टाचार्यः ६३
९
...
११
पाणिनिः
११
२४
२४
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୭
२२
११
१३
१३
४२
१७
५२
१६ ४८
१३
२०
545
२६
६८
१६२८
१७१७
१४०९
१४
१८०९
१६९३
PURCHASED FOR GOVERNMENT.
241
Page #343
--------------------------------------------------------------------------
________________
242
पत्राणि. | पंक्तयः अक्षराणि. संवत् | अपूर्णादि वाच्यम्.
कर्ता.
नंबर.
ग्रंथनाम.
२१८ | कारकविलासः ... X२१९ | धातुपाठः
हेमचन्द्रः २२० धातपाठः २२१ | धातुमञ्जरी
विजयरामः X२२२ | पदव्यवस्थासूत्र कारिका सटीका मू. विमलकीर्तिः
टी. उदयकीर्तिः २२३ परिभाषाप्रकरणम्
पाणिनिः २२४ प्रक्रियाभूषणम् ..
श्रीनिवासदासः
१६९५ १८२८ १७१३
LIST OF MANUSCRIPTS
| १८५२ आदिपत्राणि ३ न.
तथा १०.१५न. १९१८
२२६
प्राकृतव्याकरणम्
२२६ | फिदसूत्राणि .. २२७ | महाभाष्यं सटीकम्
चण्ड: ... शान्तनवाचार्य: .. म. पतञ्जाल.
| टी. कैय्यटः
४८२
Page #344
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२८ लघुकौमुदी
२२९
वाक्यप्रकाशः
२३०
स एव सटीकः
२३१
वैय्याकरणभूषणम् २३२ शब्द कौस्तुभः
२३३ |शब्दरूपावलिः समासपटलं च.
२३४
शब्दानुशासनस्य सूत्राणि
२३५ शब्दानुशासने आख्यातावचूर्णिः
२३६ शब्दानुशासनलघुवृत्तिः २३७ |शब्दानुशासनलघुवृत्तिः २३८ शब्दानुशासन बृहद्वृत्तिः
२३९
२४०
सारस्वतसूत्रपाठः सारस्वतं सटीक
वरदराजः
उदयधर्मः
टी. हर्षकुलपण्डितः
कौण्डभट्टः
भट्टोजीदीक्षितः
हेमचन्द्र
हेमचन्द्रः
स एव
स एव
...मू. अनुभूतिस्वरूपाचार्यः
टी. पुञ्जराजः
१४४
६
१२
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२४
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१४८२ अध्यायाः ९.
१६२५
अध्यायाः ४.
अध्याय ६,७.
प्रथमाध्यायाद्दिती याध्यायस्य द्वितीयपादावधिः.
PURCHASED FOR GOVERNMENT.
243
Page #345
--------------------------------------------------------------------------
________________
का
नंबर.
ग्रंथनाम.
कर्ता.
पत्राणि. पंक्तयः अक्षराणि. संवत्. | अपूर्णादि वाच्यम्.
NA 9
४
२४१ सारस्वतस्य टीका
माधवः - २४२ | सारस्वतस्य टीका
चन्द्रकीर्तिः १८४ २४३ | सारस्वतीयशब्दनिष्पादनम् ....|
१८७४ V२४४ । सिद्धान्तरत्नम् ।
जिनचन्द्रः वेदान्तः २४५ । अन्यथाख्यातिप्रकरणम्
अपूर्णम् . २४६ । अपरोक्षानुभूतिः—सटीका ... म. शंकराचार्यः
टी. विद्यारण्यः अमृतसागरः-अङ्गकोशः ... शालग्रामः | अर्थपञ्चकप्रकरणम्
नारायणयतिः २४९ अष्टादशरहस्यम्
रामानुजः २५० । अष्टावक्रः भाषार्थसहितः ... भाषा.-चतुरदासः | २०६ २६१ । आत्मबोधः सटीकः ... मू. सर्वोत्तमाचार्यः .. ६ । १७ । ४८ | १८८४ |
LIST OF MANUSCRIPTS
०
२४८
-
Page #346
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________________
७
१३ ।।
२९२ | आर्यासार्द्धशतकम् वा स्वात्मनि- दक्षिणामतिः वा रूपणप्रकरणम्.
सच्चिदानन्दसर
स्वती २९३ आलमन्दारस्तोत्रम् २५४ तदेव सटीकम् २५९ | उत्तरगीता सटीका
गौडपादाचार्यः २९६ | सैव ...
स एव २५७
उत्तरमीमांसासूत्रम् २५८ उपदेशसाहस्त्री
शंकराचार्यः २५९ सैव सटीका ...
म. स एव
टी. रामतीर्थः २६० | एकान्नपदम् ... २६१ काशिकास्तवः सटीकः ... म. नन्दिकेशः
टीकानाम स्तवविमर्शिनी ... टी. उपमन्युः २६२ | कृष्णाष्टकम् ... .. मू. शकराचायः ।
PURCHASED FOR GOVERNMENT.
वङ्गालप्याम्.
४ ।
६ ।
'
245
Page #347
--------------------------------------------------------------------------
________________
246
ग्रंथनाम.
कर्ता.
पत्राणि.| पंक्तयः अक्षराणि. संवत्. अपूर्णादि वाच्यम्.
१२ । ४८ | १८१०
। २० । १७४२
१९ ।
२६३ | गोपालपूजापद्धतिः । २६४ | तत्त्वप्रकाशिका विवरणसहिता. मू. आनन्दतीर्थः
टी. जयतीर्थः २६५ | तत्त्वानुसन्धानम्
महादेवसरस्वती २६६ । दक्षिणामूर्तिस्तोत्रम्-मानसोल्ला- म. शंकराचार्यः साख्यवार्तिकसहितंसटीकं च. वा.-विश्वरूपापर
नामा सुरेश्वराचार्यः
टी.-रामतीर्थः
३३. १३
३२ । १८३३
LIST OF MANUSCRIPTS
बालकृष्णः
-
...
२६७ नाममुक्तावली २६८ निर्वाणविचारः
पाखण्डचपोटका २७० ब्रह्मबावनी भाषाबद्धा
विजयरामः
८९९
m
Page #348
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७१ | भगवद्गीता सभाष्या
२७२
२७३
२७४
२७५
२७६
२७७
२७८
२७९
२८०
२८१
भाष्यनाम गीताभूषणम्.
भगवद्गीता सभाष्या
भगवद्गीता सभाष्या
भगवन्नामकौमुदी
भा. शंकराचार्यः
भा. रामानुजः
लक्ष्मीधरभट्टः
महाभारततात्पर्यनिर्णयः सटीकः म. आनन्दतीर्थः
टी. वादिराजतीर्थः|
मुक्तावलिप्रकाशः
योगवासिष्ठसारः सटीक :
स एव
स एव
योगवासिष्ठरामायणे निर्वाणप्र
टीकानाम
भा. विद्याभूषणः | १०८
करणं सटीकम्
संसारतरणी. रामगीता-सटीका
महादेवः
टी. विश्वेश्वरः
स एव.
टी. महीधरः
टी. महीधरः
१६४
११०
४९
६१
३५
३४
३१
४२
१३८
१६
१५
१४
१०
१२
१२
४०
४८
१२
३२
१४ २०
४८
v
し
४४ १८५२
१२
३२
४८
४०
५६
४३
१८१८
१७६३
१८०८
१६६१
आद्यन्तरहितः
PURCHASED FOR GOVERNMENT.
247
Page #349
--------------------------------------------------------------------------
________________
248
नंबर.
ग्रंथनाम.
कर्ता.
पत्राणि. | पंक्तयः अक्षराणि. संवत्. | अपूर्णादि वास्यम्.
२८३
अध्यात्मरामायणान्तर्गता २८२ रामपटलम्
वज्रसूचिप्रकरणम् २८४ वेदान्तरहस्यम् २८५ वेदान्तसारटीका
| शिवगीता पद्मपुराणोक्ता ... २८७ | षोडशमञ्जरिका २८८ | सनत्कुमारसंहिता
शंकराचार्यः वागीशभट्टः नसिंहसरस्वती
१७४७ प्रथमपत्रं न. १८४२ प्रथमपत्रं न
LIST OF MANUSCRIPTS
२८६
शंकराचार्यः
| पटलानि ३१,३२,
३३,३४,३५.
२८९ | सिद्धान्तमुक्तावलिविवृतिः .... २९० स्वामिन्यष्टकविवरणम् २९१ | हरिमीडेस्तोत्रम्-सटीकम् ...| २९२ | हस्तामलकस्तोत्रं-सटीकम् ...
विठ्ठलेश्वरः हरिदासः शंकराचार्यः
१७६४
Page #350
--------------------------------------------------------------------------
________________
६ २०४८
B 669-32
साख्ययोगो. २९३ । अध्यात्ममहायोगशास्त्रम् कुंभारीपावयोगी.
भाषायाम्. १९४ | अनुभवविद्यायोगशास्त्रम् स एव
भाषाबद्धम्. | पातञ्जलयोगशास्त्रवृत्तिः भोजराजः २९६ । | योगसूत्राणि सभाष्याणि ___... म. पतञ्जलिः
भा. वेदव्यासः २९७ वसिष्ठसंहिता... वैराटपुराणे योगशास्त्रम् ... कुमारीपावनामा
योगी. २९९ वैराटपुराणे योगशास्त्रम्
स एव. ३०० सांख्यसप्ततिः
मीमांसाशास्त्रम. ३०१ | अजिताख्यतन्त्रटीकानिबन्धः । परितोषमिश्रः
PURCHASED FOR GOVERNMENT.
२९८
४५
249
Page #351
--------------------------------------------------------------------------
________________
250
नंबर.
पत्राणि. | पंक्तयः अक्षराणि. संवत्. | अपूर्णादि वाच्यम्.
कर्ता.
ग्रंथनाम.
रामाकंकरः । १०० | १० | ६४
अपूर्णा.
प्रथमाध्यायस्य तृतीयपादपर्यन्तः ३०२ | उत्तरमीमांसा वा व्याससूत्राणि
वा-ब्रह्मसूत्राणि वा-वेदान्त
सूत्राणि. ३०३ | तट्टीका-ब्रह्मामृतवर्षिणी ...
अध्यायौ १,२. ३०४
सैव
द्वितीयाध्यायस्य प्रथमपादपर्यन्ता ३०५ तत्सूत्रटीका
द्वितीयाध्यायस्य प्रथमपादपर्यन्ता ३०६ सैव
द्वितीयाध्यायस्य प्रथमपादपर्यन्ता
LIST OF MANUSCRIPTS
प्रथमपत्रं न.
स एवं
रङ्गनाथः
१५ । ४८
स एव.
Page #352
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०७
३०८
३०९
३११
ऋजुविमला नाम पञ्जिका
अध्यायाः १,९,१०.
स्वकृतपद्यमयविधिरसायन
स्य व्याख्यारूपम्
३१० शारीरकमीमांसामाष्यम्
३१२ ३१३
त्रिपादीनीतिनयनम् विधिरसायनम्
द्वितीयाध्यायादारभ्य शारीरकमीमांसान्यायनिर्णयः
प्रथमाध्यायस्य प्रथमपादः भक्तिशास्त्रम्
गङ्गाभक्तिप्रकाशः भगवत्प्रतिष्ठापद्धतिः
पञ्चरात्रपभोक्ता
..
३१४ भक्तिसंदर्भः
शालिकनाथ मिश्रः | १६८
मुरारिः अप्ययदीक्षितः
शंकराचार्यः
हरिनन्दनः
रूपसनातनः
७०
१८
७७ २३
आनन्दज्ञानः १२८
२२
१६१ १८
१६८
७१
१०
१६
१५
२८
२९
ه م
३२
३२
४४
३२
४०
४८
१८९३ |
१८७७
प्रथमपत्रं न.
PURCHASED FOR GOVERNMENT.
251
Page #353
--------------------------------------------------------------------------
________________
252
नंबर.
ग्रंथनाम.
कर्ता.
पत्राणि. पंक्तयः अक्षराणि. संवत्. अपूर्णादि वाच्यम्.
। १७५० | १९१६ १९१५ १७५५
भागवतसंदर्भ पञ्चमोऽयम् ३१५ मथुराष्टकविवरणम् ३१६ यमुनाष्टकविवरणम् ... विठ्ठलेश्वरः ३१७ | रामपूजापद्धातः पूर्वार्द्धम् ... श्रीरामोपाध्यायः । ३१८ | रामपूजापद्धतिः उतरार्द्धम् ... स एव. ३१९ सेवापद्धतिः सटीका वा सेवाश- म. टी. व्रजलालः |
तकम्. ३२० । सेवाफलविवृतिः
पुरुषोत्तमः काव्यानि अनङ्गरङ्गः
कल्याणमल्लः ३२२ | अन्यापदेशशतकम्
मधुसूदनः ३२३ अमरुशतकम्
अमरुः ३२४ । अमरुशतकटीका-रसिकसंजी- अर्जुनवर्मदेवः
। विनी
LIST OF MANUSCRIPTS
Vw
Page #354
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२८
४१
" or or 0 1 22
११६
सर्गाः ३ सर्गाः १३
ന്
്
३२५ | अश्वधाटीकाव्यम्
जगन्नाथः ३२६ | आनन्दलहरी
शंकराचार्यः ३२७ | कविकण्ठाभरणम्
क्षेमेन्द्रः | २० । १५ कविकल्पलता
देवेश्वरः
१८८ ३२९ कामन्दकीयनीतिसारः सटीकः ३३० किरातार्जुनीयस्य टीका - ३३१ | तस्यैव दीपका सर्गः १ ... धर्मविजयगणिः ३३२ | कुमारसंभवकाव्यम्
कालिदासः तस्यैव टीका
वल्लभः ३३४ | कृष्णकर्णामृतस्तोत्रम् ... बिल्वमङ्गलः ३३५ | कृष्णरुक्मिणीवल्ली भाषार्थ- पृथ्वीराजः
सहिता. ३३६ | कृष्णाश्रयस्तोत्रम्
कल्याणरायः ३३७ / खण्डप्रशस्तिकाव्यानि ३३८ । गङ्गालहरी सटीका
...मू. जगन्नाथः टी.
कृष्णभट्टस्य शि
३३३
ന
१४१६ सर्गाः ८
PURCHASED FOR GOVERNMENT.
१७६६
१७२४
23
253
Page #355
--------------------------------------------------------------------------
________________
नंबर.
३३९
३४०
सैव
गीतगोविन्द काव्यम्
गीतगोविन्दस्य टीका
गीतगोविन्दकाव्यं सटीक म्.
टीकानाम साहित्यरत्नमाला.
३४ ३ तदेव टीकानाम रसकदम्बक - टी. नारायणः
ल्लोलिनी.
३४१ ३४२
३४४
३४५
३४६
३४७
३४८
तदेव सैव
ग्रंथनाम.
गीर्वाणपदमञ्जरी
घटखर्परकाव्यम्
चाणाक्यनीतिशास्त्रम्
तदेव
...
कर्ता.
...
स एव.
जयदेवः
शंकरमिश्रः
म. जयदेवः
टी. शेषकमलाकरः |
स एव. दुण्टिकराजकविः
घटखर्परः
भोजराजः
स एव.
पत्राणि पंक्तय: अक्षराणि संवत् अपूर्णादि वाच्यम्.
१५
३४
३८
९५
७४
४७
१५
३
९१
५४
१४
ܐ
o &
२१
१२
१४
११
५२
? 3
३२
४८
३२
४४
३२
३२
३२
२४
वंगलिप्याम्. दश पत्राणि न. १६३६ आदिपत्राणि १०न.
आदिपत्रं न अ
पूर्णा.
254
LIST OF MANUSCRIPTS
Page #356
--------------------------------------------------------------------------
________________
020
सगै.
१२७
३४९ नलोदयकाव्यम् ३५० | तदेव सावचरि
म. रविदेवः तदेव सटीकम्
टी. शिवदत्तः १४ ३५२ | नाट्यदर्पणः
रामचन्द्रः ३५३ । नीतिशृङ्गारवैराग्यशतकानि ... म. भर्तृहरिः ।
| टी. धनसुरपाठकः ३५४ तान्येव भाषाबद्धानि ... भा. प्रतापसिंहः ३५५ । पञ्चतन्त्रम्
विष्णुशर्मा. तदेव
स एव. ३९७ ३५८ | प्रमदलहरी बृहत्कथासारः
क्षेमेन्द्रः
३६४ | भक्तमाला भाषाबद्धा
नाभास्वामी. भामिनीविलासः
जगन्नाथः ३६२ स एव
स एव. ३६३ । स एव सटीकः
टी. महादेवः । ३७
PURCHASED FOR GOVERNMENT,
पद्यावली
^G 2
अपूर्णः
३६९
३६१
૨૨
अपूर्णः
255
Page #357
--------------------------------------------------------------------------
________________
256
नंबर.
ग्रंथनाम.
कर्ता.
पत्राणि. पंक्तयः अक्षराणि. संवत्. | अपूर्णादि वाच्यम्.
नागराजः
๕ ๕g * 9 8 :
अपूर्णा.
३६४ | भावपञ्चाशिका
कविवृन्दः भावशतकम्
भाजप्रबन्धः ३६७ । मणिकर्मणकालहरी
वत्सराजः | ३३ ३६८ | मन्दारमञ्जरी गद्यबद्धा ... लक्ष्मीधरस्य शिष्यः ११५ | मल्लविद्यापुराणम्
१८ ३७० | मेघदूतकाव्यम्-सटीकम् .. मू. कालिदासः ३२
टी. मल्लिनाथः ३७१ | मेघदूतकाव्यस्य टीका ...
४५ १२ ३७२ | तदेव सटीकम्-टीकानाम प- मू. स एव.
जिका. - ३७३ | रघुवंशः सटीकः ... . कालिदासः १८५ १७
टी. सुमतिविजयः।
LIST OF MANUSCRIPTS
Page #358
--------------------------------------------------------------------------
________________
३७५ ।
B669-33
कल्हणः
३८१
३७४ | रघुवंशटीका
... मल्लिनाथः । ११४ । रसिकरञ्जनम्
व्रजराजः ३७६ | राधायिनोदकाव्यं-सटीकम् ... द्वयोः रामचन्द्र : ३७७ राजतरङ्गिणी ३७८ | रामार्या शतकं-सटीकम् ... म. मुद्गलभः
टी. काकभट्टः ३७९ वाक्यमञ्जरी
अनन्तः ३८० । वात्स्यायनवार्तिकनिबन्धः .. | विदग्धमुखमण्डनम्
धर्मदासः ३८२ | तदेव सटीकम्
स एव. ३८३ तस्यैव विवरणम
स एव. ३८४ | तस्यैव विद्वन्मनोहरा टीका .... ३८५ | तस्यैव वृत्तिः
वैतालपञ्चविंशतिका ... शिवदासः ३८७ | वैराग्यशतकस्य भर्तृहरिकृतस्य इन्द्रजित्.
बालावबोधः
PURCHASED FOR GOVERNMENT.
ताराचन्द्रः
८२६ प्रथमपत्राणि १/न.
३८६
257
Page #359
--------------------------------------------------------------------------
________________
258
नंबर.
पत्राणि. पंक्तयः अक्षराणि. संवत्. अपूर्णादि वाच्यम्.
कर्ता.
ग्रंथनाम.
१४८८ प्रथमपत्रं न.
३८८ | शिवाविवाहमण्डपः ३८९ । शिशुपालवधकाव्यम्
शृङ्गारतिलकम् ३९१ शङ्गारवैराग्यशतकयोष्टीका ... ३९२
शृङ्गाररसमण्डनम् ३९३
शृङ्गारशतकम् ३९४
शृङ्गारामृतलहरी ३९५ संकल्पकल्पद्रुमम् ३९६ संस्कृतमञ्जरी...
३९७ | संस्कृतमञ्जरी.... ₹३९८ सिंहासनद्वात्रिंशका
३९९ । सुरथोत्सवकाव्यम् ४०० (सेतुप्रबन्धस्य टीका
सोमनाथः
माघः कालिदासः धनसारः विठ्ठल: अमरुकविः सामराजः
49 20
LIST OF MANUSCRIPTS
क्षेमंकरमुनिः सोमेश्वरः
22" ~
रामदासः
Page #360
--------------------------------------------------------------------------
________________
978
रामसेतुप्रदीपाख्या. ४०१ | सौन्दर्यलहरी सटीका .... शंकराचार्यः ।
| टी. रामचन्द्र मिश्रः ४०२ हंसदूतकाव्यम्
रूपगोस्वामी. तस्यैव टीका... ४०४ | हलायुधकोशः-कविरहस्यापर-| हलायुधः
नामा.
रसालंकारौ. ४०५ | अलंकारकौस्तुभः ४०६ अलंकारचन्द्रिका
वैजनाथः ४०७ अलंकारलक्षणानि
शंभुनाथः ४०८ अलंकारशेखरः
माणिक्यचन्द्रः अलंकारसुधानिधिः भाषाबद्धः | गणपतिः ४१० चन्द्रालोकः
जयदेवः ४११ । सएव
स एव.. ४१२ | पद्माभरणालंकारः भाषाबद्धः पद्माकरः
PURCHASED FOR GOVERNMENT.
१८१५ १७९७
An..
१७६३ १७९७
259
Page #361
--------------------------------------------------------------------------
________________
960
नंबर.
ग्रंथनाम.
कर्ता.
पत्राणि. पंक्तयः अक्षराणि. संवत्. अपूर्णादि वाच्यम्.
१८३६ १८८०
अपूर्णा.
२२
पत्राणि ९,११,१८
न.
४१३ । भाषाभूषणम् भाषाबद्धम् ... जसवंतसिंहः ४१४ । रसकौमुदी ४ १५ । रसतरङ्गिणी सटीका टीकानाम म. भानुमिश्र. २०७ सेतुः
टी. जीवराजशर्मा. ४१६ | रसमञ्जरी सटीका ... म. भानुदत्तः ।
टी. अनन्तपण्डितः ४१७ | रसरत्नाहारः सटीकः ... द्वयोः शिवरामः । १८ ४१८ । रसिकप्रिया भाषाबद्धा ... केशवदासः । १०३
पाण्डवगीता च ४१९ । वाग्भट्टालंकारः सटीकः ... म. वाग्भट्टः
टी. जिनवर्द्धमानः | वाग्भट्टालंकारटीका ४२१ | वाग्भट्टालंकारव्याख्या
सिंहदेवः ४२२ । साहित्यमुक्तावलिः
LIST OF MANUSCRIPTS
| १६१० आरम्भपत्रं न.
प्रथमपत्रं न.
४२०
Page #362
--------------------------------------------------------------------------
________________
नाटकानि. ४२३ । कपरमञ्जरी
राजशेखरः ४२४ | सैव सटिप्पणा .... स एव.
२३ । १० ४२५ प्रबोधचन्द्रोदयं सटीकम् ... म. कृष्णमिश्रः
टी. गणेशः ४२६ । प्रसन्नराघवम्
जयदेवः ४२७ तदेव स एव.
अपूर्णम्. ४२ माधवानलनाटकम आनन्दधरः
प्रथमपत्राणि १३न. ४२९ माधवानलनाटककथा ४३० | मालतीमाधवटिप्पणम् ... धरानन्दः ४३१ । मुद्राराक्षसनाटकं सटीकम् ... मू. विशाखदत्तः
टी. ढुण्डिव्यासः ४३२ | रत्नावलीनाटिका
श्रीहर्षदेवः । ३५ ४३३ । ललितमाधवनाटकम् ... मू. रूपगोस्वामी
टी. तच्छिष्यः ४३४ / वेणीसंवरणम्.
नारायणः
। ९ । ३६ । १४७५/
PURCHASED FOR GOVERNMENT
261
261
Page #363
--------------------------------------------------------------------------
________________
नंबर.
४३५ शृङ्गारमञ्जरीशाटकः श्रीकृष्णभक्तिचन्द्रिकानाम ना -
४३६
ग्रंथनाम.
टकम
४३७
षण्मतनाटकम् ४३८ हनुमन्नाटकं सटीक म्.
४३९ तदेव.
४४०
४४१
४४२
४४३
संगीतशास्त्रम्.
संकीर्ण रागाः
संगीतदर्पणः
कोशाः
अनेकार्थसंग्रहः
धनञ्जयनाममाला
...
कर्ता.
विश्वेश्वरः
जयन्तभट्टः
म. हनुमान.
टी. मोहनदासः
तथैव.
दामोदरः
हेमचन्द्रः
धनञ्जयः
पत्राणि पंक्तय: अक्षराणि संवत्. अपूर्णादि वाच्यम्.
२८
२८
३८
७५
८२
१०
५४
३२
१४
८ ४७
२७
१०
१४
१४
V
w o
१०
४३
४८
५१ १७६८
ka
४०
श. १६३९
१८०४
५५
४०
१५११
१८७१
अपूर्णम्.
262
LIST OF MANUSCRIPTS
Page #364
--------------------------------------------------------------------------
________________
.४४४ । नानार्थध्वनिमञ्जरी ४४५ | मेदिनीकोशः
स एव ... ४४७ । विश्वकोशः ...
मेदिनीकरः स एव महेश्वरः
४४६
- 20
१८६८
२४
-
छन्दः X४४८ | छन्दःकोशः सटीकः ... म. मा. रत्नशेखरः
टी. चन्द्रकीर्तिः ४४९ / छन्दःकौस्तुभः सटीकः ....... म. राधादामोदरः
टी. विद्याभूषणः ४५० । छन्दःपीयूषः
जगन्नाथः Y४९१ छन्दोऽनुशासनवृत्तिः
हेमचन्द्रः ४९२ , छन्दोमञ्जरी ...
गङ्गादासः ४५३ | छन्दोरत्नावलि: भाषा
हरिरामः ४५४ | छन्दोविवेकः भाषाबद्धः ४५५ । छन्दोवृत्तमुक्तावली ४६६ / पिङ्गलविचारः भाषा
सुखदेवः
PURCHASED FOR GOVERNMENT.
प्रस्तारादयः षडेव.
20:
१८४७ १८९९
जयनारायणः
। ११ । १८ । १७९७
263
Page #365
--------------------------------------------------------------------------
________________
264
नंबर.
ग्रंथनाम.
कर्ता.
पत्राणि. | पंक्तयः अक्षराणि. संवत्. अपूर्णादि वाच्यम्.
४५८
२४ । १२ ।
| अपूर्णम्.
१८२२
४५७ प्राकृतपिङ्गलम्
पितलाचार्यः तदेव सटीकम द्वितीयपरिच्छेदः ४५९ तदेव सटीकम् द्वितीयपरिच्छेदः ४६० तदेव सटीकम्
म. स एव.
टी. व्रजराजः ४६१ वृत्तरत्नाकरस्य वृत्तिः
श्रीकण्ठः ४६२ | वृत्तरत्नावलिः ...
चिरंजीवभट्टाचार्यः ४६३ । श्रुतबोधटीका
हर्षकीर्तिः । ज्योतिःशास्त्रम्. ४६४ | अर्घकाण्डः ४६५ । करणकुतूहलम्
भास्करः ४६६ । गणकमण्डनम्
नन्दिकेश्वरः .४६७ । गणकसारोद्धारः
LIST OF MANUSCRIPTS.
७
प्रथमपत्र न.
Page #366
--------------------------------------------------------------------------
________________
४६८ ४६९
४७०
४७१
४७२
४७३
४७४
४७५
४७६
४७७
४७८
४७९
गणिततत्त्वचिन्तामणिः ग्रहसारिणी
जातक पद्धतिः सटीका
जातकसारः
जातकालंकारटीका
जैमिनीसूत्रं सभाष्यम्
जैमिनीसूत्राणि सवृत्तीनि
तान्येव
जैमिनीय सूत्रसारः ज्योतिःसारः टब्बासहितः ताजिकनीलकण्ठी सटीका
ताजिकपद्मकोशः
...
..
...
दिवाकरः
१७
त्र्यम्बकभट्टः ७१
केशवः
२८
नृसिंहः
९७
गणेशः
म. जैमिनिः
भा.: व्यंकटेशः
स एव भवानीरामः
४७
नीलकण्ठः टी. गोविन्दः
१३
3 0 2 2
१२९ मू. जैमिनिः
वृत्ति. बालकृष्णा- | नन्दसरस्वती
kus
१२
१२
३७
१० २४
१२
३८
V
१४४
६
३७
३३२ १६
20920
of a 9
३४
३६ ३२
३२
१७९१ | प्रथमपत्राणि १२न.
१२ ४०
१८४२
१८६८
१८२१
२६ १८९३
२५
३६ १८७४
२५
१८००
१९२६
अपूर्णः
PURCHASED FOR GOVERNMENT.
265
Page #367
--------------------------------------------------------------------------
________________
नंबर.
४८० ताजिकभूषणम् ताजिकसारटीका
४८१
गणेशः
सुमति हर्षगणिः
स एव
४८२
सेव
४८३ नरपातजयचर्या चतुरशीतिच- नरपतिः
काण्येव
४८४
ग्रंथनान.
४८१
४८६
४८७
४८८
४८९
४९०
...
नरपतिजयचर्यायां सर्वतोभद्र
चक्रं - सटीकम
पञ्चाङ्गदीपकः पुष्पोच्चयः ज्योतिष्केदारस्थः प्रश्नचूडामणिः भाषासहितः
प्रश्नप्रदीपकः
स एव प्रश्नभैरवः
कर्ता.
...
मणिराम:
कृपाशंकरः
काशीनाथः
स एव गङ्गाधरः
पत्राणि. पंक्तयः अक्षराणि संवत्. अपूर्णादि वाक्यम्.
२८ १० ३६ १७८०
३९
१३
२८
१५
६ १
१४
१६
४
१३
२४
२१
AN
२३
८
१२
११
१२
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३०
५०
३७
३२
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Wo
३६
as rus 20
३२
१६
२४
२४
१७९९
१८३९ |
१९०१
अपूर्णः
266
LIST OF MANUSCRIPTS
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________________
or 9
of
४९६
.... दिवाकरः
१७६०
१८७९ ६४ । १७३४
४९१ प्रश्नमनोरमा सटीका ___... म. गर्गः ४९२ भडलीविचारः ... ४९३ भावसंग्रहः ४९४ भावसागरः ४९५ भास्वतीसूत्रं सटीकम्
... म. शतानन्दः मकरन्दविवरणम् ४९७ महादेवीसारणी सटीका .. | मू. महादेवः
टी. धनराजः मिताङ प्रकरणम्
विश्वनाथः ४९९ मुहूर्त्तचिन्तामणिः सटीकः द्वयोः रामदैवज्ञः | २०३ ५०० | मुहूर्त्ततत्त्वम् ... .. केशवाचार्यः ५०१ तदेव
स एव ६०२ | मुहूर्त्तमार्तण्डटीका
अनन्तः यन्त्रराजागमः
महेन्द्रसरिः ५०४ ! यन्त्रसार:
मिश्रनन्दरामः ५०५ | योगजातकम्
यमुनाचार्यः
PURCHASED FOR GOVERNMENT.
४९
१२
३०
१८०४ १७२७ १७९७ प्रथमपत्रं न.
१८६६
| १७०७ | २८ | १८८७
३२ । १७१४ |
...
267
Page #369
--------------------------------------------------------------------------
________________
268
नंबर.
ग्रंथनाम.
कर्ता.
पत्राणि. पंक्तयः अक्षराणि. संवत्. अपूर्णादि वाच्यम्.
१०६ । योगार्णवः ... ...
व्यंकटेशः ५०७ रत्नदीपः
... गणपतिः ५०८ रत्नमाला सटीका
म. श्रीपतिः
टी. महादेवः ५०९ । रमलनवरत्नम्
परमसुखोपाध्यायः रमलसारः ...
श्रीपतिः ५११ । रमलार्कप्रकाशः ... ५१२ । रमलेन्दुप्रकाशः ... ... वाल्मीकिः
| राजमृगाङ्कसारणी
रेखागणितम् ... ... - ५१५ लग्नशुद्धिप्रकरणम् –मा० । हरिभद्रसूरिः
९१६ | लघजातकवृत्तिः .. ... उत्पलभट्टः ६१७ | वसन्तराजः भाषाबरः ... त्रिविक्रमदासः ।
LIST OF MANUSCRIPTS
५१३ | राजा ६१४
अपूर्णम्. १९४५
१९०४ । २० । १८९०
Page #370
--------------------------------------------------------------------------
________________
... दिवाकरः
१०५
९२०
५१८ । वर्षगणितपद्धतिः ५१९
| बाराहीसंहिता ...
वृद्धवशिष्ठसंहिता ५२१ सेव त्रु. ५२२
| बृहज्जातकः ... ५२३ षट्पंचाशिका सटीका
१०२
अपूर्णा.
.... वराहमिहरः ... मू. पृथुयशा:
टी. दामोदरः हरिनाथाचार्यः माधवः
१९२२
५२४ | संकेतकौमुदी ... ५२९ समाविवेकटीका ... ५२६ | सामुद्रिकलक्षणानि... ५२७ | सारावली ५२८ | सारावली ५२९ । स्वरोदयशास्त्रम् ...
PURCHASED FOR GOVERNMENT.
Vs gะ
१७७० १८२६ १८४९ प्रथमपत्रं.
कल्याणवर्मा
वैद्यकम्
५३० । अजीर्णमञ्जरी ५३१ । अर्कप्रकाशः
काशीनाथः माधवः
१० । ४८ | १८९७
269
Page #371
--------------------------------------------------------------------------
________________
270
नंबर.
ग्रंथनाम.
कर्ता.
पत्राणि. | पंक्तयः अक्षराणि. संवत्. अपूर्णादि वाच्यम्.
आदिपत्रे न.
वाग्भट:
श.१७२५,
२४
<०४
No a aa www ver
१९४४
५३२ | अष्टाङ्गहृदयसंहिता
३३८ ५३३
लाग्रन्थ. | कंकालीग्रन्थः
... ...
नासीरसाहः ५३४ | चरकसंहिता
४५५ | चिकित्सासारसंग्रहः ..| वङसेनः ९३६ त्रिशती
शाधरः ५३७ | निदानाञ्जनं भाषार्थसहितम्. |
१०६ ५३८ | पथ्यापथ्यविधिः ... ५३९ | पथ्यापथ्याधिकारः । ६४० | पाकावली ... ... उपाध्यायः
सारस्वतकुलोद्भवः ५४१ | मदनविनोदनिघण्टुः मदननृपः | ४९ ५४२ योगमुक्तावलिः ...
बल्लालदेवः
१९ । ५४३ | रसरत्नाकरः ... नित्यनाथः
LIST OF MANUSCRIPTS
MMA
१८०३
अपूर्णः.
...
१४ । ५० ९ १० । १७३४
Page #372
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८०३ प्रथमपत्राणि२८ न.
५४८
अपूर्णः
५४४ | स एव ... ... ... स एव । ५४५ | रामविनोदः भाषा .... रामः ५४६ | स एव. ... ... स एव ५४७ | वैद्यकसारसंग्रहे चूर्णाधिकारः | हर्षकीर्तिः
भाषासाहितः
वैद्यनिघण्टुः प्रथमवर्गः ५४९ वैद्यविनोदः
शंकरः ६६० | व्रजविनोदः भाषाबद्धः
मनभामनः ५५१ | शतश्लोकी सटीका
बोपदेवः ५५२ / शारीरविबेकः
सदानन्दः ५५३ | सिद्धमन्त्रः
केशवः मन्त्रतन्त्रे ६६४ | आश्चर्ययोगमाला सटीका
मू. नागार्जनः
टी. गुणाकरः ५१५ | उच्छिष्टगणेशपञ्चाङ्गम्
| शिवार्चनचन्द्रिकास्थम्.
१८४१ १८७७ १८९१
PURCHASED FOR GOVERNMENT.
१८६६
१८९७
271
Page #373
--------------------------------------------------------------------------
________________
YA
नंबर.
पत्राणि. पंक्तयः अक्षराणि. संवत्. अपूर्णादि वाच्यम्.
कर्ता.
ग्रंथनाम.
४० । १८७१||
५५६ | उड्डीशतन्त्रसारः वीरभद्रमहा
तन्त्रोक्तः ... ५९७ | ककारादि कालिसहस्रनामस्तो
७ । २२ । १७७०/
त्रम्
LIST OF MANUSCRIPTS
...
वीरभद्रः
| कार्तवीर्यदीपविधिः ५५९ कालिकास्तोत्रम् ...
कालिपूजापद्धतिः
केदारकल्पः ५६२ | गणपतिपञ्चाङ्गम् ... ५६३ | गायत्रीपञ्चाङ्गम्.
विश्वामित्रकल्पोक्तम्
१९१३ १६७९ प्रथमपत्रे न.
नवमपत्रं न.
५६४ गायत्रीपञ्चाङ्गम् ...
Page #374
--------------------------------------------------------------------------
________________
|
१४ |
७ |
२४
___B 669-35
१७५९
१७२१
५६५ । गोपालसुन्दरी विद्या
मन्त्रचूडामणितन्त्रोक्ता
| ताराकवचम् . .. ५६७ | तारारहस्यवृत्तिः ... शंकरः
तुलजासहस्रनामस्तोत्रम् ५६९ / त्रैलोक्यविजयकवचम् ९७० | त्वरितरुद्रविधानम् ५७१ | दक्षिणकालिकार्चनपद्धतिः ६७२ | दत्तात्रेयकल्पः ५७३ दुर्गापाठस्य टीका ५७४ | दुर्गापाठस्य टीका नागोजीभट्टः ६७५ / नृसिंहस्तोत्रम् ...
जगन्नाथः ६७६ | पक्षिराजकवचम् ... ... शंकरः ५७७ | पञ्चमुखिहनुमत्कवचम् ५७८ | पञ्चरात्रागमे जितंते स्तोत्रम् ...|
. ' 9 9 2050
PURCHASED FOR GOVERNMENT.
प्रथमपत्रं न.
273
Page #375
--------------------------------------------------------------------------
________________
नंबर.
पत्राणि.| पंक्तयः अक्षराणि. संवत्. अपूर्णादि वाच्यम् .
कर्ता.
ग्रंथनाम.
११ । १०
४८
LIST OF MANUSCRIPTS
"
६७९ पञ्चस्तवी
लघुस्तवः ... चचास्तवः ... घटस्तवः अम्बास्तवः ...
सकलजननीस्तवः पद्मपुष्पाञ्जलिस्तोत्रम् ५८१ | प्रत्यङ्गिरास्तोत्रम्
बीजकोशः बीजकोशः बीजनिघण्टुः ...
बीजसंकेतः ... ५८४ | बीजनिघण्टुः ५८५ | भद्रकाली चिन्तामणिः ५८६ | मन्त्र चन्द्रिका ...
... रामकृष्णकविः
.
.
... जनार्दनः
। ६७
। अपूगा.
Page #376
--------------------------------------------------------------------------
________________
५८७ | मन्त्रदीपिका प्रकाशा: ५ ५८८ मन्त्र महोदधेष्टीका नौकानाम्नी १८९ महालक्ष्मी सहस्रनाम स्तोत्रम् ५९० महिग्नः स्तोत्रम सटीकम ५९१ महिषासुरमर्दिनी स्तोत्रम् कुलचूर्ण्यक्तम्
५९२ | मुण्डमालातन्त्रम् १९३ योगिनी पूजा ५९४ राजराजेश्वरीतन्त्रम
५९५ शिवताण्डवं सटीक म्
टीकानाम अनूपारामा तदेव
१९७ षोडशानित्यतन्त्रम
पटलानि २५
• ५९४ | सनत्कुमारसंहिता
यशोधरः
महीधरः
मू. पुष्पदन्तः
टी. मधुसूदनः
टी. नीलकण्ठः
स एव
४६
११४
१२
m
३४
२१
22
२४
<
६०
७२
१४४
१९
१०
१०
१०
१३
११
११
१४
10
3
३०
२८
४३
२६
२२
२४
२६
३०
२४.
३२
३६
१७९९
१८२५
पत्रे २७,३० न.
अपूर्णम.
पत्राणि एकविंशादारभ्य ३२ न.
PURCHASED FOR GOVERNMENT.
275
Page #377
--------------------------------------------------------------------------
________________
नंबर.
276
पत्राणि.] पंक्तयः अक्षराणि. संवत्. अपूर्णादि वाच्यम् .
कर्ता.
ग्रंथनाम.
५९९ | सरस्वतीस्तोत्रम् ...
आश्वलायनोक्तम्
LIST OF MANUSCRIPTS
६०३ |
६०० | सौभाग्यरत्नाकरे न्यास खण्डः..
हनुमदीपविधानम् ६०२ | हनुमत्पञ्चाध्यायी
हयग्रीवपञ्जरस्तोत्रम् ६०४ | हयग्रीवस्तोत्रम् ... ... व्यंकटनाथः
जैनीयपुस्तकानि.
अगडदत्तरासः ... ६०६ | अघटनृपकुमारकथा
अजापुत्रकथा गद्यवद्धा
६०५
कुशललाभः
Page #378
--------------------------------------------------------------------------
________________
६०८ | अजितशान्तिस्तोत्रं सावरि । म. नन्दिषेणः । ७ । २१
कूटश्लोकचतुष्कं च सटीकम... ६०९ अध्यात्मगीतम् भाषाबद्धम् ... कमलकीतिः
| अनाथमुनिकथा
अनुकम्पारासः ६१२ | अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशका | हेमचन्द्रः ६१३ | अमरद्वासप्ततिः भाषाबद्धा ...| पार्श्वचन्दः
अमरसेनवयरसेनरासः ...| कमलहर्षः ६१६ | अमरसेनवयरसेनरासः जिनहर्षसरिः
..... मुनिरत्नसूरिः ६१७ | अष्टाहिकाव्याख्यानम् X६१८ | अस्मच्छब्दस्तवः ... सोमसुन्दरः ६ १९ | आचरणोपन्यासः ...
आचाराङ्गदीपिका जिनहंससूरिः | २११ ६२१ | आचाराङ्गवृत्तिः ... ... शीलााचार्यः । ३१३ । १३
PURCHASED FOR GOVERNMENT,
अम्बडकथा
१३
१७११
१६१० ४४ । १५७९/
277
Page #379
--------------------------------------------------------------------------
________________
नंबर.
ग्रंथनाम.
कर्ता.
पत्राणि. | पंक्तयः अक्षराणि. संवत्. अपूर्णादि वाच्यम्.
४ ।
६२२ | आतुरप्रत्य ाख्यानं सावरि । अ० वीरभद्रसूरिः ६२३ । आनन्दघनचतुर्विंशतिका ... म. आनन्दघनः
सबालावबोधा ... ... बा. ज्ञानसागरः ६२४ आनन्दश्रावकरासः
... हर्षवाचकशिष्यः (६२५ | आनन्दसुन्दरः ... ... सर्वविजयः ६२६ आरामशोभाकथा गद्यबद्धा ..| ६२७ आलोचनाविधिः ... ...
स एव इर्यापथिका, रोहिणीतपः । ६२९ । आवश्यकानयुक्तिः
| भद्रबाहुः ६३० । आवश्यकलघुवृत्तिः ...
" तिलकाचार्यः ६३१ । आवश्यकसूत्रं सावचूरि ६३२ । इन्द्रियपराजयशतकम्
|
LIST OF MANUSCRIPTS
६२८
९६ ४
अपूर्णम्.
Page #380
--------------------------------------------------------------------------
________________
५०
१४८५ १६८३ १४७९
३६० | ९३
६३३ | उत्तराध्ययनसूत्रं सावरि ... ६३४ | उत्तराध्ययनदीपिका ६३५ | उत्तराध्ययनवृत्तिः मूलसहिता | नेमिचन्द्रः ६३६ | उपदेशप्रासाद: टब्बार्थसहितः | म. लक्ष्मीमारिः
स्तम्भाः १९ ६३७ / उपदेशमाला संस्कृतपर्यायस
हिता ६३८ | उपदेशमालावचूर्णिः (६३९ उपदेशमालावृत्तिः ... सिद्धार्षः ६४० | उपदेशमाला- । धर्मदासगणि:
शीलोपदेशमाला च | जयकीर्तिमरिः ६४१ उपदेशमाला
धर्मदासगणि: अजितशान्तिस्तवः मा. | नन्दिषणः ।
PURCHASED FOR GOVERNMENT.
६४३
भयहरस्तवनम् मा. स्थविरावलिः मा.
279
Page #381
--------------------------------------------------------------------------
________________
280
नंबर. |
पत्राणि.| पंक्तयः अक्षराणि. संवत्. अपूर्णादि वाध्यम्.
कर्ता.
ग्रंथनाम.
।
३ । १७ । ६० । १७४६
६४२ ।
22
LIST OF MANUSCRIPTS
६४४
गुरुगुणपत्रिंशिका मा. मृगापतिकुलकम् मा.
जयतिहुयणस्तोत्रम् मा. अभयदेवः
उपधानविधिः ... ६४३ उपसर्गस्तवः सावचूरिः
उपमितिभवप्रपञ्चा कथा ... सिद्धार्षः ६४५ उवएसचिन्तामणिः ... जयशेखरसूरिः ६४६ ऋषभपञ्चाशिका सावचरि ... मू. धनपाल: ६४७ | ऋषिमण्डलपूजाविधिः भाषा- क्षमाकल्याणः
याम् ... ६४८ ऋषिमण्डलप्रकरणम् मा. ... धर्मघोषः ६४९ ऋषिमण्डलस्तोत्रम् X६६० ऋषिमण्डलवृत्तिः ... शुभवर्द्धनः
३२६
१८
। ४१६ ।
Page #382
--------------------------------------------------------------------------
________________
98-699a
अपूर्णः
१८१५ १६८८
X६५१ | ऋषिमण्डलवृत्तिः ... हर्षनन्दनः ६५२ | ओघनियुक्तिः ६५३
कथारत्नाकरः कयवन्नारासः
जयरङ कर्मग्रन्थान्तर्गतकर्मविपाकः ....
सबालावबोधः ६५६ । कर्मग्रन्थावचूरिः ६५७ | सैव ६५८ कर्मस्तवः सटीकः ... मू. देवेन्द्रसूरिः
द्वितीयकर्मग्रन्थः ६५९ कल्पसूत्रस्य टीका
लक्ष्मीवल्लभः कल्पद्रुकलिकानाम्नी ... ६६० सैव चतुर्थवाचनापर्यन्ता .... स एव ६६१ | कल्पसूत्रस्य टीका
धर्मसागरः ६६२ कल्पान्तवाचनिकाभाषार्थः ... हेमविमलसूरेः
शिष्यः
PURCHASED FOR GOVERNMENT.
अपूर्णा.
را که کارها
.
281
Page #383
--------------------------------------------------------------------------
________________
नंबर.
ग्रंथनाम.
कर्ता.
६६६ कल्याणमन्दिरस्तोत्रं सावचूरि.
६७ कालसत्तारविचार: मा.
भक्तिलाभः
६६३ कल्पान्तर्वाच्यम्
६ ६४
कल्पान्तर्वाच्या
६६५ कल्याणमन्दिरस्तोत्रं सटीकम् म. सिद्धसेनः
टी. पुण्यसागरः
म. स एव
धर्मघोषः
पुण्यकीर्तिः
ज्ञानचन्द्रः
६८ कुमारमुनिरासः
६६९ केशी परदेशीरासः
६७० कृष्णचरित्रम् मा.
* ६७१
क्रियाकलापः
जयानन्द सूरिः
६७२ क्षेत्रसमासः मा० कार्यस्थिति रत्नशेखरसूरिः
स्तवावचूरिश्व
पत्राणि पंक्तयः अक्षराणि संवत्. अपूर्णादि वाच्यम्.
६१ १३ ४५
३८
११ ४०
१३
१९ ६०
V
m
१)
५५
es m
१३
१७
१३
४५
१५ ३२
१५
४८
११
३६
४३
१६ ४४
m
१७५७
१८१३
१८१३|
१६५८
282
LIST OF MANUSCRIPTS
Page #384
--------------------------------------------------------------------------
________________
६७४
2
६७३ । स एव बालावबोधसहित मू.मा. रत्नशेखर: बाला. ६६ । १८ । ४८
कायस्थितिस्तवावचूरिश्च । श्रीदेवः क्षेत्रसमासावचूणिः | गजसिंहकुमाररासः ६७६ गजसुकुमालरासः शुभव नशिष्यः
गुरुगुणपत्रिंशिका मा० । वज्रसेनशिष्यः ६७८ गुरुगुणषट्त्रिंशिका सावचूरिः | मू. मा. वज्रसेन- १८
शिष्यः ६७९ गृहिप्रतिक्रमणसूत्रवृत्तिः रत्नशेखरगणिः | १९४
६७७
PURCHASED FOR GOVERNMENT,
१५८ पत्राणि समीचीनानि अपूर्णा.
प्रथमपत्रं न.
६८१
६८० : गौतमकुलकवृत्तिः ... ... ज्ञानतिलकगणिः |
गौतमपृच्छावृत्तिः मूलसहिता .... वृ. मतिवर्द्धनः ६८२ | चतुर्गतिवल्ली भाषाबद्धा ... ६८३ | चतुर्विंशतिजिनस्तुतिः सटीका | द्वयोः सोमदेवः । २
।
२० ।
३६
283
Page #385
--------------------------------------------------------------------------
________________
नंबर.
ग्रंथनाम.
X ६८४ चतुर्विंशतिजिनस्तोत्रं सटीकम् म्. जिनप्रभसूरिः
टी. कनक कुशल:
६८५ चतुष्पष्टियोगिनीस्तुतिः
६८६
चन्दनबालारासः
६८७ चन्दनमलया गिरिरासः
६८८ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रम्
६८९ | चन्द्ररासः
६९० चैत्यवन्दनम् भाषायुक्तम्
६९१ चैत्यवन्दनभाष्यम्
टब्बासहितम् म० मा०
कर्ता.
गुरुवन्दनभाष्यम् प्रत्याख्यानभाष्यम
विनयसमुद्रः
मोहनविजयः
देवेन्द्रसरिः
पत्राणि पंक्तयः अक्षराणि. संवत्. अपूर्णादि वाग्यम्.
७ २१
१
१२
१२
५८
१.८
७
११
१५
१५
१२
१३
१४
११
१)
०
६४
३८
४०
४०
३५
३९
४०
१६७०
१६९७|
१८५०|
284
LIST OF MANUSCRIPTS
Page #386
--------------------------------------------------------------------------
________________
६९२ / चित्रसेनपद्मावतीकथा भाषा- | बुद्धिविजयः । १२ । १७ । ४८ |
बद्धा | जम्बूअज्झयणम् बालावबोधस- बा. पद्मसुन्दर- | ५० हितम् ...
गणिः - ६९४ | जम्बूद्वीपनामा क्षेत्रसमासस्य )
प्रथमोद्देशकः मा०
जयतिहुयणस्तोत्रम् मा० )| अभयदेवः ६९५ | जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिचूर्णिः मा० ..| ६९६ | जाम्बूवतीरासः ... ...
१८३६ ६९७ जीवविचारः मा० ... शान्तिमरिः
१६३६ ६९८ जीवविचारः सदीपिकः म. मा. शान्तिसूरिः ६९९ | जीवविचारवृत्तिः भाषासहिता.| वृ. ईश्वरसारिः
१९९१ ७०० | जीवाभिगमवृत्तिः ...| मलयगिरिः २८९ ७०१ / जैनकुमारसभवः । ... जयशेखरसूरिः
१९४८ ज्ञाताधर्मकथा बालावबोधयुता
३०८ ७०३ तत्त्वार्थवृत्तिः ... ... सिद्धसेनगणिः । ४९९ ।
PURCHASED FOR GOVERNMENT.
३९.
| २८
285
Page #387
--------------------------------------------------------------------------
________________
986
ग्रंथनाम.
नंबर.
कर्ता.
पत्राणि. पंक्तय. अक्षराणि. संवत्. | अपूर्णादि वाच्यम्.
७०४ | तडुलक्यालियम्--पईन्नम ...
तदेव टब्बासहितम् ताललक्षणम् शुशिरवंशलक्षणं च त्रिषष्ठिशलाकापुरुषान्तर्गत-... हेमचन्द्रः
मष्टमं नेमिचरित्राख्यपर्व.... ७०८ | तदेव ... ... स एव दण्डकछत्रीशी ...
गजसारः (७१० दशकालिकटीका ... सुमतिसूरिः
७११ दशवकालिकावचूरिः ७१२
सैव ... ७१३ सैव मलसहिता -७१४ | दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
LIST OF MANUSCRIPTS
१६६३/ १४९२
१५१५ १६७७
४०
Page #388
--------------------------------------------------------------------------
________________
- ७१९ | दानशीलतपोभावनाकुलकानि | मा० देवेन्द्रसूरिः
७१६
१७
तदेव
***
तान्येव सटीक नि
७१८ दीपमालिकाकल्पः टब्बासहितः
७१९ दीपालिकाकल्पः
७२० दीवालियकप्पो मा०
७२१ दुरियरयसमरिचरितं सटीकम्.
..
स एव
मू० देवेन्द्रसूरि १५२
टी. लाभकुश - |
लगाणी:
मू. जिनप्रभसूरिः
म० मा० जिनव लभः टी० सम
यमुन्दरः
७२२ देवराजवत्सराजकथा. मा०
[ ७२३ | देवराजवत्सराजरासः
लावण्यसमुद्रः
: ७२४ | देवाःप्रभोः स्तवः सावचूरिः अव. जयनन्दसूरिः
७२५ द्रव्यगुणपयोयरासः भाषासहितः । यशोविजयः
४
...
२९
१०
oc
४
१८
१३
१६
११
११
१५
७०
4Y
१२
११
१८
१ २६
४०
32
m20
३०
४२
१९
५६
१० ६४
७२
३२
३२
४०
६०
५६
१७६६ |
१७२२|
१६६९|
१७८९ |
PURCHASED FOR GOVERNMENT.
287
Page #389
--------------------------------------------------------------------------
________________
288
• नंबर.
ग्रंथनाम.
कर्ता.
पत्राणि. | पंक्तयः अक्षराणि. संवत्. | अपूर्णादि वाच्यम्.
७३०
20 ~ Vs
___ ७२६ । द्वात्रिंशिका ... ... हेमसूरिः X ७२७ । द्वयाश्रयकाव्यं-सटीकम् द्वितीय- म. हेमचन्द्रः टी. २६ १ खण्डः
- अभयतिलकगणिः ७२८ | धर्मकल्पद्रुमः पल्लवाः ७ ... X ७२९ | धर्मपरीक्षा ... ... पद्मसागरगणिः
| नन्दिसूत्रदुर्गपदटीका ... श्रीचन्द्रसूरिः । ७३१ नरसंबोधप्रबन्धः भाषा ७३२ नवतत्त्वकुलकम् ... जयशेखरः ७३३ | नवतत्त्वरासः ... ... सौभाग्यसुन्दरः । ३८ ७३४ | नवतत्त्वसूत्रं सावचूरि ... अब. साधुरत्नसूरिः ६
नव्यबृहत्क्षेत्रसमासः मा० ... सोमतिलकसरिः ७३६ | नागमन्त्ररासः ... ...
LIST OF MANUSCRIPTS
Page #390
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६२३
१५ । १५
B669-876
७३७ | नाभाकनृपकथा ... .. ७३८ निरयावलिसूत्रस्य टीका ... चन्द्रमरिः ७३९ | सैव ...
... स एव | निशीथसूत्रम् ... ...
न्यायावतारसूत्रम् ... सिद्धसेनदिवाकरः | पञ्चपरमेष्ठिनमस्कारः ... पञ्चपरमेष्ठिस्तोत्रम् प्रश्नगर्भम जयचन्द्रसरिः वर्द्धमानस्तोत्रं च समस्याम. यम्.
पट्टावली विजयदेवसरिपर्यन्ता, ७४५ | पट्टावली सटीका | धर्मसागरगणिः ७४६ | पद्मरासः
विनयसमुद्रः ७४७ पद्मावतीस्तोत्रम् ... पृथ्वीभूषणमूरिः ७४८ पद्मावत्यष्टकम् ... ७४९ | पर्यन्ताराधनाप्रकरणम् ... सोमसरिः ७५० | पाक्षिकसूत्रम ... .. ७६१ । तदेव पाक्षिकक्षामणकानि च ।
PURCHASED FOR GOVERNMENT,
७४४
प्रथमपत्रं न.
289
Page #391
--------------------------------------------------------------------------
________________
990
नंबर.
ग्रंथनाम.
कर्ता.
पत्राणि. पंक्तयः अक्षराणि | संव. | अपूर्णादि वाच्यम्.
१४६
१६/०
LIST OF MANUSCRIPTS
१४८१.
७९२ | पार्श्वनाथचरित्रम् .... भावदेवः X ७५३ पार्श्वनाथस्तोत्रं-सटीकम् ... मू० बिल्हणकविः ७९४ | पिण्डविशुद्धिः-दीपिकासहिता. मू. जिनबल्लभः २२
मरिः
दी-उदयसिंहमूरिः ७५५ सैव ... ...
स एव. पुण्यपालरासः ...
हरखजी. ७५७ पुरन्दरकथा ... ७५८ | पुष्पमाला
हेमचन्द्रः | १४ ७५९ | पुष्पमालावृत्तिः ...
१३६ ७६० | पूजाष्टककथा मा० | प्रज्ञापनासूत्रम् ...
१६४ ७६२ तदेव सटीकम् ...
टी० मलयागरिः ७६३ प्रज्ञापनातृतीयोपाङ्गसंग्रहणी. | अभयदेवमरिः । ५
:: :: ::
अन्तिमपत्रं न.
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--------------------------------------------------------------------------
________________
१६८४
१६२२
७६७
७६४ । प्रतिक्रमणक्रमावीधः ... जयचन्द्रः ७६५ प्रतिक्रमणसूत्रावचूरिः ७६६ प्रतिष्ठाविधिः ...
... गुणरत्नमरिः प्रतिष्ठाविधिविचारः ७६ / प्रत्याख्यानभाष्यम्
आगमिकवस्तुविचार प्रकरण म- मा. जिनवल्लभः प्रकृतिबन्धः मा० स्थितिबन्धः मा० अनुभागबन्धः मा० शतकम् मा० ... ... भक्तपरिज्ञाप्रकीर्णकम् मा०.. संस्तारकप्रकीर्णकम् मा० .. द्वादशभावना ... ..
प्रत्येकबुद्धरासः ... ... समयसुन्दरः ७७०
प्रबोधचिन्तामणिः .. जयशेखरमारिः ७७१ । प्रभञ्जनचउप्पई भाषा ... देवचन्द्रः
PURCHASED FOR GOVERNMENT.
३२
१५ ।
४०
अपूर्णः
४ । १२ ।
291
Page #393
--------------------------------------------------------------------------
________________
292
नंबर.
पत्रााण. पंक्तयः अक्षराणि. संवत्. अपूर्णादि वाच्यम्.
कर्ता.
ग्रंथनाम.
LIST OF MANUSCRIPTS
७७४
७७२ | प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः वा देवाचार्यः
स्याद्वादरत्नाकरसूत्रम् . ७७३ | प्रशमरतिः सटीका .. म० उमास्वातिवा- ६०
चकः प्रश्नोत्तरसमुच्चयः
...| कीर्तिविजयः ७७५ | प्रश्नोत्तरसार्द्धशतकसमुच्चयः पू- दीपविजयः
वार्द्ध मेव भाषायाम्. ७७६
बप्पट्टिचरित्रम्.. 999 बृहत्कल्पसूत्रं टब्बासहितम्. ७७८ भक्तामरस्तोत्रवात्तः
कल्याणमन्दिरस्तोत्रवृत्तिश्च. | कनककुशलः ७७९ | भक्तामरस्तोत्रवृत्तिः .. |गुणाकरः ७८० | भयहरस्तोत्रं सावचरि ... मू० भद्रबाहुः
१९३६
१६४३
Page #394
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८
७८४
७८१ । भरतविष्णुकुमाररासः ... कविनन्दलाल: । ३४ ७८२ भवभावनाप्रकरणम् ... हेमचन्द्रः । ९ भवभावनाप्रकरणं टब्बासहि- मू. मा. हेमचन्द्रः | - ४२
४२६ तम्.
भवस्थितिस्तवः ... ७८५ भवारिवारणस्तवावचूरिः
| भावना द्वात्रिंशिका - ७८७ | भाष्यत्रिकं सटीकम् ___... मू० देवेन्द्रसूरिः
टी० सोमसुन्दरसूरिः
PURCHASED FOR GOVERNMENT.
अपूर्णः
७८८
७८९
भोजप्रबन्धः ... ... सोमसुन्दराशिष्यः । ४५ १५ |
| मन्त्रस्तववृत्तिः बीजकोशश्च.. ७९० । मयणरेखारासः ... ... विनयचन्द्रः ११ । १३ । ७९१ | मलयसुन्दरी चरित्रम् ___ ... जयतिलकसरिः ७९२ | महानिशीथसूत्रम्...
१९०५ १७६९
293
Page #395
--------------------------------------------------------------------------
________________
294
नंबर,
ग्रंथनाम.
कर्ता.
पत्राणि. पंक्तयः अक्षराणः संवत्. अपूर्णादि वाच्यम् .
७९३ | महाबलमलयसुन्दरीकथा ... माणिक्यसुन्दरसूरिः १७ ७९४ महावीरचरित्रं मा.टब्बासहितम् जिनवल्लभसूरिः । ७९५ महीपालकथा ... ... वीरदेवगणिः । ५५ । १३ । ७९६ सैव ... ... स एव ७९७ मुनिमालिका भाषाबद्धा .. | मनोहर:
मृगावतीचरित्रम् ... .. | देवप्रभाचार्यः मृगावतीरासः ... ... समयसुन्दरः मेस्त्रयोदशीकथा टब्बासहिता. यतिदिनकृत्यम् ... .. हरिभद्रसूरिः
यतिप्रतिक्रमणसूत्रावचरिः ... | यतिशिक्षापञ्चाशिका ... मा० पृथ्वीचन्द्रः
आत्मबोधकुलकम् मा० ... जयशेखरः । संवेगमञ्जरी मा०
देवभद्रसूरिः चारित्रमनोरथमाला मा० ... मुनिपतिमरिः
LIST OF MANUSCRIPTS
७९८
०१
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--------------------------------------------------------------------------
________________
भावनाकुलकम् मा० ... देवेन्द्रसाधुः क्षमाकुलकम् मा० .. | रत्नमरिः । आत्महितोपदेशकुलकम् . मा०| रत्नमरिः । आत्मानुशास्तिकुलकम् मा०. | रत्ससिंहमूरिः जीवोपदेशकुलकम् मा० .. हितोपदेशकुलकम्. मा० ... वैराग्यकुलकम्. मा० हितोपदेशकुलकम्. मा० .... सामान्यगुणोपदेशकुलकम्.मा. धर्मोपदेशकुलकम् मा० । मुनिचन्द्राचार्यः उपदेशकुलकम्. मा० | स एव. धर्मोपदेशकुलकम्. सा० रत्नत्रयकुलकम् मा० स एव. मनोनिग्रहभावनाकुलकम्. मा० | पर्यन्ताराधनाकुलकम् । मा० ।
PURCHASED FOR GOVERNMENT.
स एव.
295
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________________
नंबर.
गुवराधनाकुलकम् मा० यशोधरचरित्रम् ... यशोधरचरित्रम् .. ८०६ युगादिदेवस्तोत्रम्
X ८०४
८०५
ग्रंथनाम.
मन्त्रयन्त्रगर्भितम्-सटीकम्.
८०७ योगदृष्टिसझायः टब्बासहितः
८११
भाषाबद्धः
रत्नकुमाररासः
कर्ता.
८०८ योगप्रवेशविधिः
८०९ योगशास्त्रस्य टीका चतुर्थप्रका हेमचन्द्रः
शात्संपूर्णा.
८१० योगानुष्ठानकल्पाकल्पविधिः
...
रत्नसिंहः
माणिक्यसूरिः देवसूरिः
भाषाबद्धः यशोविजयः
विजयशेखरः
पत्राणि पंक्तयः अक्षराणि संवत्. अपूर्णादि वाच्यम्.
१६ १५ ४२ १५८१
१५
४८
१९ ४८ १७१९
v 20
<
२९
८
७२
१३
१५
m
१४
20 20
१४
१५
१३
३०
१९१५
४०
१८ १८६७
४०
४२ १६८६
296
LIST OF MANUSCRIPTS
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--------------------------------------------------------------------------
________________
88699
१०३
८१२ | रत्नाकरावतारिका-प्रमाणनय- रत्नप्रभाचार्यः । ११८
२६ । तत्वालोकालंकारस्य टीका. रूपकमाला सटीका ... मू० पुण्यनन्दनो- ६ | १९ ।
पाध्यायः टी०
समयसुन्दरः रूपसेनकथा ... ८१५ | लघुक्षेत्रसमासवृत्तिः ... हरिभद्रः X८१६ | लघुत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रम्. मेघविजयः ८१७ लीलावतीरासः त्रु
... लाभवर्द्धनः ८१८ | लोकनालिकासूत्रम्
| वाचूलरासः ... वनस्पतिसप्ततिका सावचरिः । म० मा० मुनिच- २
| न्द्रमरिः ८२१ | वन्दित्तुबालावबोधः वा श्राद्ध | चन्द्रसरिः ।। १८ । १४
प्रतिक्रमणसूत्रान्तर्गतभागस्य बालावबोधः
PURCHASED FOR GOVERNMENT.
ه ب
८१९
م به
१२०
297
297
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--------------------------------------------------------------------------
________________
298
नंबर.
ग्रंथनाम.
कर्ता.
पत्राणि. पंक्तयः |अक्षराणि. संवत्. अपूर्णादि वाच्यम्.
mm
८२२ वर्द्धमानदेशना ... ... राजकीर्तिः वसहीसयणासणादिदाणकहा
१४ ८२४ । वसुदेवहिण्डद्वितीयकाण्डः वा- धर्मसेनगणिः
| २९४ वसुदेवहिंडीएमज्झिमकंडं ...
| वस्तुपालतेजपालरासः ... पाचचन्द्रः ८२६ वहत्तरि ( द्विसप्तात) देवमूर्युपाध्यायः
जिनेन्द्रस्तोत्रम्पञ्चकल्याणस्तुतिः युगादिदेवस्तुतिः- ... सोमकीर्तिगाणः नेमिनाथस्तुतिः पार्श्वनाथस्तुतिः सर्वजिनस्तुतिः- ... जिनपतिमरिः महावीरस्तुतिः ... ... स एव महावीरस्तुतिः .. .. जिनेश्वरमरिः वीसविहरमाणस्तवनम्
. | मेरुनन्दनः
LIST OF MANUSCRIPTS
Page #400
--------------------------------------------------------------------------
________________
.../
| वीसविहरमाणनमस्कारसारः...| विश्वसेनः
- नाभेयजिनस्तुतिः । गणधरसार्द्धशतकम्. ... जिनदत्तसूरिः षष्टिशतकम् ...
... नेमिचन्द्रभाण्डागा
रिकः ज्ञानपञ्चमीस्तुतिः योगशास्त्रस्य प्रकाशाः ४ ... हेमचन्द्रः जीवविचारप्रकरणम्. भक्तामरस्तोत्रम् ...
मानतुङ्गः सुयणभावणा
विजयसिंहः संवेगकुलकम् ... अनित्यताकुलकम् उपदेशमणिमालाकुलकम् ... जिनेश्वरः स्थविरावलिः ... विचारषट्त्रिंशिका सटीका... मू० मा० टी० ग-
जसारः द्वयोः ८२८ | सैव टब्बासहिता
PURCHASED FOR GOVERNMENT.
(२७ विचारपदावार
५
१४ । ३२ । १७३६
299
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________________
300
नंबर.
ग्रंथनाम.
कर्ता.
पत्रााण. पंक्तयः अक्षराणि. संवत् । अपूर्णादि वाच्यम्.
-
८३०
-
6
२९ सैव ...
| विचार सप्ततिका ...
विचारसागरः भाषा तरङ्गः १ ८३२ विद्याविलासनरेन्द्ररासः ... हीरानन्दनः
विमलरासः ... ... लावण्यसमयगणि: विविधविचारपत्राणि.
विवेकमञ्जरी मा० ... आसडकावः ८३६ । सैव ... ... स एव
विवेकविलासः भाषासहितः... मू० जिनदत्तसूरिः ७३ ८३८ वीतरागस्तवः सावचूरिः .. मू० हेमचन्द्रः । ८३९ । वीतरागस्तवस्यावचूरिः ..
LIST OF MANUSCRIPTS
6
6 6
(३७
6
6
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--------------------------------------------------------------------------
________________
(४४
८४० | वैराग्यशतकम् मा० ....
टब्बासहितम्. तदेव सटीकम् ... टी० गुणविनयः
तदैव तथैव ... स एव ८४३ शतकं बालावबोधसहितम् ... म. मा. देवेन्द्रसूरिः ५५
कर्मग्रन्थान्तर्गतम् । शत्रुञ्जयमाहात्म्यम् .. | धनेश्वरसरिः । १८६ शान्तिनाथचरित्रम् टब्बासहि- मू. अजितप्रभसूरिः ३४८
तम् ८४६ | तदेव.
| स एव १०६ ८४७ शान्तिनाथचरित्रम् गद्यबद्धम्.
१४७ शालिभद्र चरित्रम् ... धर्मकुमारपण्डितः | ३१ शालिभद्ररासः ... ... जिनसिंहसूरिशिष्यः २३ शीलोपदेशमाला ... ... म. जयकीर्तिः । ६ | शीलोपदेशमाला सटीका ... मू. जयकीर्तिमरिः | १४४
टी० सोमतिलक| सूरिः
PURCHASED FOR GOVERNMENT.
८४८
(४९
८५०
301
Page #403
--------------------------------------------------------------------------
________________
302
नंबर
ग्रंथनाम.
कर्ता.
पत्राणि. पंक्तयः अक्षराणि. संवत्. | अपूर्णादि वाच्यम.
शुकराजकथा आरामशोभाक
था च. (५३ श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रम्-सावचू
रि.
LIST OF MANUSCRIPTS
तम्.
श्रावकविधिप्रकाशः भाषा०.... क्षमाकल्याणकावः २३ श्रावकवतभङ्गे नष्टोद्दिष्टप्रकर- मा० आनन्दाविमल १ | णम्
शिष्यः ८५६ श्रीचन्द्र चरित्रम् प्रशस्तिसहि- मू० शीलसिंहः । ११४
४० । १६६२ आदिपत्रं न.
प्र. शीलहंसः ८५७ श्रीपालचरित्रम् गद्यबद्धम् ... जयकीर्तिः ३८ ८५८ तदेव
स एव
४२ ८५९ श्रीपालरासः ... ... यशोविजयः ८६० स एव ... ... स एव
| १२ | ३७ | १८२७
Page #404
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७३२ १८६४
१५७२
१६०९/ इति भाषानाम.
.सूदयवत्ससावलिंगारासः ... कीर्तिवर्द्धनः । १० ८६२ श्रीपालरासः ... ... माणिक्यसागरः । १९
| श्रीपालनरेन्द्रकथा ... मा. रत्नशेखरसरिः ५८ ८६४ श्रीपालनपकथा श्लोकबद्धा ...J ८६५ | श्रीपालभूपालकथानकम्- धर्मधीरमुनिः
- श्लोकबद्धम्. ८६६ । श्रुतविचारः-वा हुंडी .. सहजकुशलः ८६७ श्रुतविचारः ... . ८६८ | षड्दर्शनसमुच्चयः टिप्पणस- मू० हरिभद्रसूरिः
हितः | स एव सटीकः टीकानाम तक- टी० गुणरत्नसूरिः
रहस्यदीपिका. षड्दर्शनसमुच्चयः सटीकः .. षडावश्यकसूत्रम्... | षडावश्यकबालावबोधः . ...! हेमहंसगणिः ३ । संवेगद्रुममञ्जरी-भाषा० ... कुशलसंयमकविः
संस्तारकप्रकीर्णकम् -- बालाव- बा० अमरचन्द्रः बोधसहितम्.
00
PURCHASED FOR 'GOVERNMENT.
१८०३
303
Page #405
--------------------------------------------------------------------------
________________
नंबर.
८७५ संग्रहणिः ८७६
८७७ सैव
ग्रंथनाम.
८८०
८८१
सावचरिः
सटीका
८७८ सैव बालावबोधसहिता
८७९
तस्या अवचूरिः संघपट्टकः सटीकः
कर्ता.
...
श्रीचन्द्रसूरिः
मू० स एव
म० स एव
9
टी० देवभद्रः
पत्राणि पंक्तयः अक्षराणि संवत्. अपूर्णादि वाच्यम्.
>
म० स एव
५१
सैव टब्बार्थयन्त्रवार्त्तिकसहिता मू० स एव. बा. २३१ १० शिवनिधानगणिः)
२५
११२
१७
मू० जिनवल्लभसू- ३६ रिः टी० हर्ष
राजः
१५ ५४ १६६८
२०
७१
११
३६
८८२ सप्ततिकासूत्रम् - कर्मग्रन्थान्तर्ग- मू० चन्द्रमहत्तरा - २१
तं सावचूरि
चार्यः
१९
१९
१८
४०
२७
४८
६८
304
LIST OF MANUSCRIPTS
Page #406
--------------------------------------------------------------------------
________________
| ३६ | १८०० ५ | २६
B669-39
लकः
१७९२
१७४९ .
| सप्तनिह्नवकथा ... .. सप्ततिशतस्थानकम्-टब्बासाह- मू० मा० सोमात- ५९ |
तम्. ८५ | सप्तस्मरणं सटीकम् टी० सिद्धचन्द्रः । १३
| सप्तस्वरसूत्रम्-टब्बासहितम् ... ८८७ | समयसारप्रकरणम् टब्बासहितम् मू. मा. देवानन्द- २१
• सूरिः । ८८ | समरादित्यचरित्रम्-संस्कृतटिप्प- म० मा० टि० मु. ७०० णसहितम्
मतिवद्धनगणिः समवसरणप्रकरणं सावचूरि... सम्यक्त्वकौमुदी गद्यबद्धा. .... सम्यक्त्वस्वरूपगर्भितवीरस्तवः | म० मा०
सावचूरिः । ८९२ | सर्वज्ञशतकम मा० X८९३ / सर्वार्थनिराकरणवादस्थलम् ... रविप्रभः
PURCHASED FOR GOVERNMENT.
१६७६ १८५६
سه سه
305
Page #407
--------------------------------------------------------------------------
________________
नंबर.
ग्रंथनाम.
८९४
साधारणस्तवः सावचूरिः ८९५ सिन्दूर प्रकरणावचूरिः सिद्धदण्डिकास्तवनम्
नीवकुलकं च मा०
८९६
८९७ सीतारामऋषिचरित्रम् भाषा ० ८९८ | सीतारासः
८९९
९०० सुमित्रराजऋषिरासः
९०१
सुव्रतकथानकम्
९०२
सुसठरासः
९०३ सूक्तावलिः त्रु० ९०४ सूत्रकृताङ्गदीपिका.
सुगुणकुमारकथानकम्
...
..
...
...
कर्ता.
जयानन्दः
गुणकीर्तिसूरिः
देवेन्द्रसूरिः
नेमिचन्द्रः
बालकविः
ऋषभदासः
पत्राणि, पंक्तयः अक्षराणि संवत्. अपूर्णादि वाच्यम्.
समयवाचकः
३१
२६
११०
५
११
९
६९
२५
साघुरङ्गापाध्यायः २१३
२२
११
१५
१३
१२
१३
१६
१३
१३
१४
१९
७२
३४
४६
४०
४३
१३
४०
२८
४०
४८
५४
१७९०
१८१८
प्रथमपत्र न.
306
LIST OF
MANUSCRIPTS
Page #408
--------------------------------------------------------------------------
________________
९०९
९१०
९०५ । सूत्रकृताङ्गटीका ... ... शीलाङ्गाचार्यः । | २५३
सूडासाहेलीरासः .. सहजसुन्दरः ९०७ सूरसुन्दरीरासः ... धर्मसिंहः ९०८ | स्थानावृत्तिः ... अभयदेवः
स्थूलभद्र मुनिचरित्रम् ... जयानन्दसरिः | स्नात्रविधिः | स्याद्वादमज्जरी- ...) मल्लिषेणसरिः भक्तामरच्छायास्तवनम् ...
कल्याणमन्दिरच्छायास्तवनम् ) ९१२ । स्वरोदयः भाषाबद्धः ... कर्पूरचन्द्रः ९१३ हरिबलरासः ... ... कुशलसंयमः २५ ९१४ । हरिवाहनचउप्पई ... झांझणयतिः ९१५ हीरप्रश्नः ... ... कीर्तिविजयगाणः | ९१६ | हुताशिनीकथा-टब्बासहिता. | मू० जिनसुन्दर
नवमपत्रादारभ्य(०
पत्रपर्यन्ता. १९१७
PURCHASED FOR GOVERNMENT.
१७६५
/३९
९१७ | होलीरजःपर्वकथा टब्बासहिता फत्तेन्द्रसारगणिः | १०
दिगम्बरपुस्तकानि
307
Page #409
--------------------------------------------------------------------------
________________
नंबर.
ग्रंथनाम.
कर्ता.
पत्राणि. | पंक्तयः अक्षराणि. संवत्. | अपूर्णादि वाच्यम्.
३२ । १८९०
१८८४ १७९५ | १८९०
। ४८
९१८ अनन्तनाथपूजा-भाषारूपा ..
अनन्तव्रतोद्यापनम् ... गुणचन्द्रः ९२० । अष्टसहस्रीविषमपदतात्पर्यटीका लघुसमन्तभद्रः ९२१ आत्मानुशासनम्-श्लोकबदम्- गुणभद्राचार्यः भा. ९६ भाषार्थसहितम्
टोडरमलुः आप्तमीमांसालातः- ... विद्यानन्दस्वामी | १०० आप्तपरीक्षेत्यपरनाम्नी ... आराधनासारः सटीकः ... म० मा० देवसेनः ४४
आराधनास्वरूपं सटीकम्. ... मू० मा० ९२५ इष्टोपदेशः ... ...
२९६ द्वात्रिंशीभावना ... ... आमितगतिः पड्धिपूजा भावना
LIST OF MANUSCRIPTS
९२२
९२३
९२४
अपूर्णम्. प्रथमपत्रं न.
Page #410
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वार्थाधिगममोक्षशास्त्रम् ... कलिकुण्डपार्श्वनाथस्तवनम् ... जिनश्रुतगुरुत्रितयाष्टकम् ... जिनसहस्रनामस्तवः
आशाधरः जिनशतम् सर्वज्ञशतम्. यज्ञार्हशतम् तीर्थकच्छतम्. नाथशतम्. योगशतम्. निर्वाणशतम्
PURCHASED FOR GOVERNMENT.
ब्रह्मशतम्
बुद्धशतम
अंतकृच्छतम्. ... पूजाविधानम् ... महर्षिपर्युपासनाविधानम्
309
Page #411
--------------------------------------------------------------------------
________________
नंबर.
ग्रंथनाम.
स्वस्त्ययनविधानम् अर्हद्देवमहाभिषेकविधिः
सम्यग्ज्ञानपूजा
सम्यक्चारित्रपूजा
अष्टविधिपूजनम् ...
षोडशदत्तपूजा ... चतुर्विंशतिदलपूजा गणधर वलय पूजा
शान्तिनाथस्तुतिः महासिद्धपूजा
...
वृद्धचाणक्यम्
ऋषिमण्डलपूजा ... सारस्वतयन्त्रपूजा
...
..
कर्ता.
गौतमः
पत्राणि पंक्तयः अक्षराणि संवत्. अपूर्णादि वाक्यम्.
310
LIST OF MANUSCRIPTS
Page #412
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथमवलयपूजा ... ... षोडशदलपूजा ... गणधरवलयपूजाविस्तारः .... चिन्तामणिपार्श्वनाथस्तवनम्. शान्तिचक्रपूजा ... पार्श्वनाथस्तवनम् चिन्तामणियन्त्रपूजा चिन्तामणिस्तवनम् अतीतानागतवर्तमानस्तवनम्. विषापहारस्तवनम्
धनञ्जयः द्रव्यसंग्रहः मा०... ... नेमिचन्द्रः सज्जनचित्तवल्लभः ... मल्लिषेणः पार्श्वनाथचिन्तामणिस्तवनम्. व्रतसारः ... भद्र बाह्वादिगुरूणां नामावली. निर्वाणकाण्डम् मा० . ...
PURCHASED FOR GOVERNMENT.
311
Page #413
--------------------------------------------------------------------------
________________
312
पत्राणि. | पंक्तयः अक्षराणि. संवत्. | अपूर्णादि वाच्यम् .
कर्ता.
नंबर
ग्रंथनाम.
१२५ १३
१८२८ १९२३ १८३०
४००
१४
९२६ कर्णामृतपुराणम् ... ... केशवसेनः ९२७ । कलशारोपणविधिः ९२८ क्रियाकोशः भाषाबद्धः ... ९२९ गोमटसारस्य–पञ्चसंग्रहापर- मू० नेमिचन्द्र. ४००
नामकस्य वृत्तिः. सैद्धान्तिकः
सैव ... ... स एव १७३ चउवीसठाणा टिप्पणसहिताः मू० मा० नेमिच- ३१
न्द्रसैद्धांतिकः ९३२ | चतुर्विंशतिजिनपूजा ... रामचन्द्रः ९३३ चेतनचरित्रम् भाषामयम् ... भगवतीदासः ९३४ जैनशतकम् भाषाबद्धम ... भूधरः
राजुल ( राजीमती) पञ्चविंश- लालचंद । तिका भाषाबद्धा.
LIST OF MANUSCRIPTS
९३० ९३१ ।
१९४०
१३
Page #414
--------------------------------------------------------------------------
________________
B 669 --- 10
सज्जनचित्तवल्लभः - टब्बास मू० सं० मलिषेणः |
हितः. ज्ञानार्णवः
९३५
९३६ तत्वार्थसूत्रं सटीकम्
९३७ तत्त्वार्थवृत्तिः सर्वार्थसिद्धिनाम्नी ९३८ तत्त्वार्थटीका -,
९३९ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकम् ९४० | तत्त्वार्थसारः
९४९ त्रैकालिकचतुर्विंशतिजिनपूजा.
९४२ त्रैलोक्यदीपकः
९४३ देवपूजा ९४४ देवागमस्तोत्रम्
९४९ धर्मपरीक्षा
...
९४६
९४७
...
...
...
ध्वजारोपणविधिः
निर्वाणमण्डलपूजा - भाषायाम्. - ९४८ | नेमिजिनपुराणम्....
शुभचन्द्रः मू० उमास्वातिः
टी॰ प्रभाचन्द्रः
श्रुतसागरः
अमृतचन्द्रसूरिः
इन्द्रवामदेवः
पद्मनन्दि:
समन्तभद्रः
अमितगति:
नेमिदत्तः
१३५
१३७
१७४
८८
४६
३३
८१
११
७७
१६९
१०
९
२३
१८
११
१०
१५
९
३१
४८
२२
५६
३२
३९
३०
४०
३२
Bo
२४
१७६२
१९४५
१७९५ |
१८९२
४६
२२ १९२३
२७ १९२७
३२
१६३६
अपूर्णा
आद्यन्तरहिता.
PURCHASED FOR GOVERNMENT.
313
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कर्ता.
पत्राणि. पंक्तयः अक्षराणि. संवत्. अपूर्णादि वाध्यम्.
नंबर.
ग्रंथनाम.
३२
.
१९१९ १८७८
अपूर्णम्.
LIST OF MANUSCRIPTS
४८
९४९ न्यायदीपिका ... ... धर्मभषणः ९९० सैव .... . .. स एव ९५१ । पच्चयसत्तावणम्-सटिप्पणम्... . ९५२ | पञ्चकल्याणकपूजा-भाषाबद्धा.
पट्टावत्यः ... ९९४ । पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका सटीका मू० पद्मनन्दिः । १४९
परमात्मप्रकाशः सटीकः ... मू० योगीन्द्रदेवः । १२४ ९५६ पाण्डवपुराणम्-भाषाबद्धम् .. बुलाकीदासः । | २६४ पुण्याश्रवकथाकोशः भाषायाम्. रामचन्द्रः ।
| ३६२ ९५८ प्रद्युम्नचरित्रम् ... ... सोमकीर्तिः ९५९ प्रमाणप्रमयकलिका
५५
१९०६
१८७४
१८३०
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१६४६ १८२६ १८५१
२२९
९६० | प्रवचनसारः-टीकाभाषासहितः | मू० प्ला० कुन्दः २१ । १३ ।।
कुन्दः --- टी० अमृतचन्द्रः
मा० हेमराजः । ९६१ प्रश्नोत्तरः-भाषाबद्धः ९६२ | भद्रबाहुचरित्रम् ... .. | रत्ननन्दिः
भैरवपद्मावतीकल्पम् ... मल्लिषेणाचार्यः । २७ ९६४ | मुनिसुव्रतपुराणम्. ... कुष्णदासः - १६७
| मोक्षमार्गशास्त्रम् भाषाबद्धम्... ९६६ । रत्नकरण्डनामा श्रावकाचारः मू०. समन्तभद्र- .१२९
भाषायुक्तः ९६७ । रत्नकरण्डनामा श्रावकाचारः | फूलचन्दशेठ । २३
- भाषाबद्धः ९६८ लब्धिविधानपूजा ... ९६९ | व्रतकथाकोशः भाषाबद्धः .. खुशालच द्रः
३४ । १८८४ व्रतोद्योतनम् ... .. आम्रदेवः ।
४९ १८३४ ९७१ शान्तिनाथचरित्रम ... सकलकीर्तिः | २१६ ११, २८ । १७९५
PURCHASED FOR GOVERNMENT.
स्वामी
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नंबर.
पत्राणि. पंक्तयः अक्षराणि. संवत्. | अपूर्णादि वाच्यम्.
कर्ता.
ग्रंथनाम.
९७३
९७२ श्रावकाचारः
सकलकीत्तिः | १७६ श्रावकाचारः त्रु० ... नमिदत्तः । १५ ९७४ | श्रावकाचारः भाषाबद्धः ...
| १८१ ९७५ श्रेणिकचरित्रम् भाषाबद्धम् ... विजयकीत्तिः ९७६ । षोडश जयमाला-वात्सल्याङ्ग
जयमाला च ... ..
| ११२
LIST OF MANUSCRIPTS
७७ सप्तव्यसनकथासमुच्चयः ... सोमकीतिः ९७८ स एव ... ... स एवं ९७९. | समयसारव्याख्या- ... अमृतचन्द्रसरिः ९८० समाधितन्त्रः बालबोधसहितः | म० स० कुंद- - ६९
कुन्दाचार्यः बाल० पर्वतनाम | धारी .
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९८१ | समाधिशतकं सटीकम्
... मू० पूज्यपादः
टी० प्रमाचन्द्रः
९८२ | सामायिकपाठः ... ९८३ सिद्वान्तसारदीपकः--भाषायाम् नथमल्लः ९८४ सुगन्धदशम्युद्यापनम् । ... ९८५ सुभाषितावलिः ... ... सकलकत्तिः ९८६ | स्तुतित्रयम् भाषा...
पार्श्वनाथस्तवः-आलोचनापाठश्च
।
१८१७ प्रथम पत्रे २ न.
PURCHASED FOR GOVERNMENT,
९८७ | हरिवंशः
| जिनदासः
२
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आ श्रीकैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर
श्रीमहावीर जैन आराधना केन्द्र कोवा (गाधीनगर 14 (1००९
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________________ શ્રી જિનશાસના ય હો !!! II શ્રી ગૌતમસ્વામીન નમ: II II શ્રી સુધમસ્વિામીને નમ: II જિનશાસનના અણગાર, કલિકાલના શણગાર પૂજ્ય ભગવંતો અને જ્ઞાની પંડિતોએ શ્રુતભક્તિથી પ્રેરાઈને વિવિધ હસ્તલિખિત ગ્રંથો પરથી સંશોધન-સંપાદન કરીને અપૂર્વજહેમતથી ઘણા ગ્રંથોનું વર્ષો પૂર્વેસર્જન કરે છે અને પોતાની શક્તિ, સમય અને દ્રવ્યનો સવ્યય કરીને પુણ્યાનુબંધી પુણ્ય ઉપાર્જન કરેલ છે. કાળના પ્રભાવે જીણી અને લુપ્ત થઈ રહેલા અને અલભ્ય બની જતા મુદ્રિત ગ્રંથો પૈકી પૂજ્ય ગુરુદેવોની પ્રેરણા અને આશીર્વાદથી ઈ7/22 ( સી.૨૦૫માં પ૪ ગ્રથોનો સેટ નં-૧ તથા સી.૨૦૭મો 39 ગ્રંથોનો સેટ ની 2 સ્કેન કરાવીને મર્યાદિત નકલી પ્રીન્ટ કરાવી હતી. જેથી આપણો વ્યુતવારસો બીજા અનેક વર્ષો સુધી ટકી રહે અને અભ્યાસુ મહાત્માઓને ઉપયોગી ગ્રંથો સરળતાથી ઉપલબ્ધ થાય, પૂજ્ય સાધુ-સાધ્વીજી ભગવંતોની પ્રેરણાથી જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી તૈયાર કરવામાં આવેલ પુરાકીનો સેટ ભિન્ન-ભિન્ન શહેરોમાં આવેલા વિશિષ્ટ ઉત્તમ જ્ઞાનભંડારીને ભેટ મોકલવામાં આવ્યા હતા. આ બધાજપુસ્તકો પૂજ્યગુરુભગવંતોને વિશિષ્ટ અભ્યાસ-સંશોધના માટે ખુબજરુરી છે અને પ્રાય? અપ્રાપ્ય છે. અભ્યાસ-શોધનાર્થે જરૂરી પુસ્તકો સહેલાઈથી ઉપલળ બનતીમજ પ્રાચીન મુદ્રિત પુસ્તકોનો વ્યુત વારસો જળવાઈ રહે તે શુભ આશયથી આ થીનો જીર્ણોદ્ધાર કરેલ છે. જુદા જુદા વિષયોના વિશિષ્ટ કક્ષાના પુસ્તકોની જીર્ણોદ્ધાર પૂજ્ય ગુરૂભગવતીની પ્રેરણા અને આશીર્વાદથી અમો કરી રહ્યા છીએ. તો અભ્યાસ તથા સંશોધન માટેવવશુઉપયોગ કરીને શ્રુતભક્તિના કાર્યને પ્રોત્સાહન આપશો. લી.શાહ બાબુલાલ સરેમા જોડાવાળાની વેદના મંદિરો જીર્ણ થતાં આજકાલના સોમપુરા દ્વારા પણ ઊભા કરી શકાશે....! આ પણ એકાદ ગ્રંથ નષ્ટ થતા બીજા કલિકાલસર્વજ્ઞ કે | મહોપાધ્યાય શ્રી યશોવિજયજી ક્યાંથી લાવીશું...???