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PRESERVED AT ANHILWAD PATAN. स्तुति गुरूणां सुगुणैर्गुरूणां दिनोंदये यः पठति प्रमोदात् । तस्यानिशं भक्तितरंगभाजो लक्ष्मीविशाला परिरंभणी स्यात् ॥ १८ ॥ इति श्रीगुरुस्तुतिः समाप्ता ।
No. 77. Antarangasandhi, by RATNAPRABHA [अन्तरङसंधिःरत्नप्रभः].
Leaves 1 to 12; 15 inches long, 2 inches broad. Dated Samvat 1392 = A. D. 1336.
Begins : पणमवि दुहखंडण करियविहंडण जगमंडण जिणसिद्धिठिय । मुशिकण्णरसायणु गुणगणभायणु अंतरंगमुणिसधिजिय ॥ १ ॥
Ends: जिणरजिउ विउ नियपढमपुत्तु अवरोबिहु जुवनिवपइनिउत्तु । अप्पणिजो पत्तउ सिद्धिदामि सो संघह मंगलु दिसउ सामु ॥ १६ ॥ इय अंतरंगंसुवियारसंधि चितंतु न बज्झइ कमबंधि । सुहझाणह चित्तह करई संधि तिाण काराणि भणीय इह सांध ॥ १७ ॥ अहिअंतहकारणु विसउत्तारणु जंगुलिमंत ह पढणु जिम । कयसिवसुहसंधिहि पहसुसंधिहि चिंतणु जाणउ भविय तिम ॥ १८ ॥
इति अंतरंगसंधिः समाप्तः ॥ इति नवमोऽधिकारः ॥ संवत् १३९२ वर्षे आषाढसुदि २ गुरौ ॥ ग्रंथानं श्लोक २०६ श्रीधर्मप्रभसूरिरत्नप्रभ. कृतिरियम् ॥