Book Title: Indrabhuti Gautam Ek Anushilan
Author(s): Ganeshmuni, Shreechand Surana
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्र भूति गौतम एक अनुशीलन लेखक श्री गणेशमुनि शास्त्री सम्पादक श्रीचन्द सुराना 'सरस' सन्मति ज्ञान पीठ, आगरा-२ Jain Education international Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण भगवान महावीर की पच्चीस सौ वीं निर्वाण तिथि समारोह के उपलक्ष्य में इन्द्रभूति गौतम एक अनुशीलन [ 'गणधर इन्द्रभूति गौतम' पर सर्वथा मौलिक, तथा शोधपूर्ण प्राकलन ] लेखक : आशीर्वचन श्री गणेश मुनि शास्त्री उपाध्याय श्री अमर मुनि संपादक : भूमिका श्रीचन्द सुराना 'सरस' डा० जगदीश चन्द्र जैन एम० ए० पी-एच० डी० सन्मति ज्ञान पीठ, आगरा - २ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मति साहित्य रत्नमाला का ११४ वां रत्न पुस्तक : | लेखक : इन्द्रभूति गौतम | श्री गणेश मुनि शास्त्री एक अनुशीलन 'साहित्यरत्न' सम्पादक: श्रीचन्द सुराना 'सरस' | डॉ० जगदीशचन्द्र जैन एम० ए० पी-एच० डी० प्रेरक : | प्रकाशक : श्री जिनेन्द्र मुनि | सन्मति ज्ञान पीठ 'काव्यतीर्थ' | लोहामण्डी, आगरा मुद्रक : | मूल्य: प्रेम इलैक्ट्रिक प्रेस चार रुपये आगरा प्रथम प्रकाश अक्टूबर १९७० Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण ज्ञान के देवता विज्ञान के अध्येता तर्कशास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित मरुधरा के भूषण क्रियानिष्ठ तपोधन महामनीषी स्वर्गीय प्राचार्य सम्राट श्री अमरसिंह जी महाराज की पावन-पुण्य स्मृति में सादर सविनय समर्पण............ ! .-गणेश मुनि Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशीर्वचन गणधर इन्द्रभूति का महाप्राण व्यक्तित्व श्रमण परम्परा के समग्र गौरव का एक पिंडीभूत रूप है । श्रुत महासागर की असीम - अतल गहराई में पैठकर भी सत्य की उत्कट जिज्ञासा, विचारों का अनाग्रह तथा हृदय की विरलविनम्रता, मधुरता, सरलता का विलक्षण संगम, इन्द्रभूति के जीवन अद्वितीय रूप है, न सिर्फ श्रमण संस्कृति में, अपितु सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति में भी ! पच्चीस सौ वर्ष पूर्व का यह महान् व्यक्तित्व श्रमण-ब्राह्मण परम्परा के बीच सेतु बनकर आया, और सांस्कृतिक - मिलन, धार्मिकसमन्वय एवं वैचारिक अनाग्रह का मार्ग प्रशस्त करने में सफल हुआ । यद्यपि ऐसे असाधारण व कालातीत व्यक्तित्व का आकलन शब्दातीत होता है, फिर भी उसे शब्दानुगम्य बनाने का प्रयत्न युगयुग से होता रहा है । प्रस्तुत में विद्वान लेखक एवं सम्पादक ने इन्द्रभूति के उस महामहिम शब्दातीत रूप को शब्द- गम्य बनाने का स्तुत्य प्रयत्न किया है । पुस्तक का सरसरी तौर पर अवलोकन कर जाने पर मुझे लगा है - गौतम के व्यक्तित्व की गहराई को श्रद्धा एवं चितन के साथ उभारने का यह प्रयत्न वास्तव में ही प्रशंसनीय है तथा एक बहुत बड़े अभाव की संपूर्ति भी ! ऐसे अनुशीलनात्मक विशिष्ट - ग्रन्थों से पाठकों की ज्ञानवृद्धि के साथ तत्वजिज्ञासा भी परितृप्त होगी - ऐसा विश्वास है । - उपाध्याय अमर मुनि Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'इन्द्रभूति गौतमः' एक अभिमत जिस प्रकार ब्रह्म की महिमा को ईश्वर प्रकट करता है, पुरुष की महत्ता प्रकृति दर्शाती है, भगवन्त के ऐश्वर्य को सन्त उजागर करते हैं, उसी प्रकार भगवान महावीर की अनन्त श्री को इन्द्रभूति गौतम ने जाज्वल्यमान किया। और भवज्वाला शान्त करने वाले, दुनिया की आग बुझाने वाले उन गौतम गणधर के दिव्यरूप को यहाँ श्री गणेश मुनि जी ने प्रकाशमान किया है । इस दिव्य ग्रन्थ से जैन धर्म की अपूर्व प्रभावना हुई है, पाठक इसमें देखेंगे कि वीतरागता और तज्जन्य समता, शांति और आनन्द जैन धर्म की मूल पृष्ठ भूमि है। विद्वान लेखक को इस 'थीसिस' पर 'डॉक्टरेट' मिलनी चाहिये और उन्हें विशेष पद से विभूषित किया जाना चाहिये । इस अनुपम कृति के उपलक्ष में मैं ज्ञानयोगी श्रीगणेशमुनि जी का तथा सम्पादक बंधु का और उनके भाग्यशाली पाठकों का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। -नारायणप्रसाद जैन बम्बई Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ এভ9ায় 'साहित्य समाज का दर्पण है'-यह उक्ति पुरानी होते हुए भी सर्वथा सार्थक है । जिस राष्ट्र, समाज एवं परम्परा के पास अपना साहित्य नहीं है, वह अन्य दृष्टियों से भले ही समृद्ध हो, किंतु विचार एवं इतिहास की दृष्टि से तो दरिद्र प्रायः कहे जा सकते हैं। विचार एवं चिन्तन का अक्षय कोष ही सच्ची समृद्धि है और वही साहित्य के रूप में समाज व परम्परा की प्राणप्रतिष्ठा करता है। सौभाग्य से श्रमण परम्परा को आज साहित्य के रूप में विचार-चिन्तन का अक्षय कोष से प्राप्त है। इतिहास व साहित्य की दृष्टि से उसको समृद्धि एक गौरवास्पद विषय है । श्रमणसंस्कृति के चिन्तन का सबसे प्राचीन एवं मौलिक संग्रह 'आगम' के नाम से विश्रुत है । 'आगम साहित्य' ही श्रमण विचारधारा का प्राण कहा जा सकता है, और उस संस्कृति के संपूर्ण वाङमय का आदिस्रोत भी। 'आगम' के अर्थोपदेष्टा तीर्थंकर होते हैं, किंतु उसकी शब्द संयोजना में गणवरों की प्रखर प्रतिभा और अक्षय-श्रु त संपदा का चमत्कार भरा रहता है । इसलिए आगम का मूलाधार तीर्थकर होते हुए भी 'गणधर' के बिना उसकी आपूर्ति संभव नहीं है। इस दृष्टि से हमारे समस्त वाङमय के प्राण-प्रतिष्ठापक गणधर ही कहे जा सकते हैं। गणधरों की इस सूची में इन्द्रभूति गौतम का नाम शीर्षस्थ है । आगम साहित्य का अधिकांश भाग आज इन्द्रभूति गौतम की जिज्ञासा और भगवान महावीर के समाधान के रूप में ही है। यदि आगम वाङमय में से महावीर-गौतम के संवाद निकाल दिए जाय, तो पता नहीं फिर आगम में क्या बच पायेगा ? गौतम महावीर के संवाद जैन वाङमय का प्राण कहा जा सकता है। आगमों में गौतम एक व्यक्ति रूप में नहीं, किंतु एक प्रखर जिज्ञासा के रूप में खड़े हैं, और महावीर एक समाधान बनकर उपस्थित होते हैं। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रभूति गौतम की देन-केवल श्रुत-संपदा के रूप में ही नहीं, किंतु चारित्रिक सद्गुणों की एक सजीवमूर्ति के रूप में भी है । इन्द्रभूति का व्यक्तित्व इतना विराट और बहुमुखी है कि वह ज्ञान एवं चारित्र की सुन्दर तथा सर्वांगीण व्याख्या कहा जा सकता है । ज्ञान एवं विनम्रता, उदग्र तपःसाधना एवं उदार क्षमा, उच्चतम सन्मान तथा स्नेहिल मधुर हृदय, ऐसा दुर्लभ संयोग है जो गौतम के व्यक्तित्व में मणिकांचन की तरह सुशोभित हो रहा है। ऐसे सार्वभौम व्यक्तित्व का शब्दांकन आज तक नहीं किया गया-यह सखेद आश्चर्य की बात है। किन्तु साथ ही गौरवपूर्ण हर्ष भी है कि अब इस विरल व्यक्तित्व पर एक सुन्दर, सरस साथ ही मौलिक शोधपर्ण कृति हमारे समक्ष आई है---‘इन्द्रभूति गौतम: एक अनुशीलन' के रूप में। 'इन्द्रभूति गौतम' के लेखक हैं श्री गणेशमुनि जी शास्त्री, जो श्रद्धय श्री पुष्कर मुनि जी म० के सुयोग्य शिष्य हैं। श्री गणेश मुनि जी अब तक कई महत्वपूर्ण पुस्तकें लिख चुके हैं, किंतु उन सबमें प्रस्तुत पुस्तक अपना अलग ही स्थान रखती है । इसकी सामग्रो, विषय-वस्तु एवं प्रतिपादन शैली सर्वथा मौलिक, शोधपूर्ण एवं प्रभावोत्पादक है। अपने विषय की यह नवीन एवं पहली पुस्तक है। इसकी भाषा बड़ी रोचक, आकर्षक और प्रवाहमयी है। दार्शनिक विषयों को भी बड़ी स्पष्ट एवं सही तुलनात्मक भाषा में सरलता के साथ प्रस्तुत किया गया है । पुस्तक-लेखक के साथ संपादक श्री श्रीचन्द सुराना 'सरस' भी धन्यवाद के पात्र हैं, जिन्होंने अपनी अनुभव पूर्ण संपादन कला का पूरी तन्मयता के साथ चमत्कार दिखाया है । पुस्तक को प्रत्येक दृष्टि से सुन्दर एवं परिपूर्ण बनाने में उनका योगदान लेखक एवं प्रकाशक दोनों को प्राप्त हुआ है अतः वे हमारे अपने होते हुए भी कृतज्ञता की पुकार के रूप में हम उन्हें पुनः धन्यवाद देते हैं। ___ सन्मति ज्ञान पीठ का यह सौभाग्य है कि महामनीपो श्रद्धय उपाध्याय श्री अमचन्द्र जी म० का वरदहस्त प्राप्त हुआ है । उनके निर्देशन में सन्मति ज्ञान पीठ आज पचीस वर्ष से निरंतर सत्साहित्य प्रकाशन की दिशा में प्रगति कर रही है । उन्हीं की कृपा से प्रस्तत पुस्तक हमें प्रकाशन के लिए प्राप्त हुई है। हमें आशा और विश्वास है कि अन्य प्रकाशनों की भांति प्रस्तुत प्रकाशन भी हमारे पाठकों को रुचिकर एवं ज्ञानवर्धक लगेगा और वे अधिकाधिक संख्या में अपनायेगे । जैन भवन आगरा ३०-९-७० मंत्री सन्मति ज्ञान पीठ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक की कलम से विश्व के उदयाचल पर कभी-कभार ऐसे विरल व्यक्तित्व उदित होते हैं, जिनमें एक ही साथ धर्म, दर्शन, संस्कृति और सभ्यता का उर्जस्वल रूप व्यक्त होता है। उनकी वाणी में धर्म और दर्शन आकार लेते हैं, उनके व्यवहार में संस्कृति और सभ्यता का रूप निखरता है। उनका जीवन ज्ञान, भक्ति एवं कर्म का सजीव शास्त्र होता है। ऐसे महान् व्यक्तित्व प्रधान महापुरुषों का अवतरण आर्य भूमि भारत में सदा से होता रहा है । जिन के विचार-व्यवहार का प्रकाश आज भी धर्म और समाज के अंचलों को आलोकित कर रहा है । ___ आज से लगभग पच्चीस सौ वर्ष पूर्व , भारत के पूर्वांचल में एक ऐसे ही महाप्राण व्यक्तित्व का उदय हुआ था जिसके जीवन में समर्पण, साधना, ज्ञान एवं चारित्र की चतुमुखी धाराएं एक से एक अग्र-स्रोता बनकर बही । वह महाप्राण व्यक्तित्व दो संस्कृतियों का महासंगम था. और संपर्ण भारतीय संस्कृति का एक जीता जागता दर्शन था । तीर्थकर वर्धमान के चरणों में सर्वात्मना समर्पित उस महिमाशाली व्यक्तित्व का नाम था-इन्द्रभूति गौतम ! प्रस्तत पुस्तक से संदर्भ में भगवान महावीर के उन्हीं प्रधान अंतेवासी इन्द्रभूति गौतम की चर्चा की गई है । जैन पम्परा के अंतिम तीर्थकर भगवान महावीर के जीवन के साथ गणधर गौतम का सम्बन्ध कितना घनिष्ट रहा है यह आनमो के पृष्ठों का पर्यवेक्षण करने से स्पष्ट परिज्ञात हो जाता है। भगवान महावीर के दीर्घ चिन्तन को, लोक कल्याणी गिरा को जो आगम का रूप दिया गया है, उसका श्रेय इन्द्रभूति गौतम को है। गौतम का सम्पूर्ण जीवनदर्शन आगम व इतिहास के पृष्ठ-पृष्ठ पर झांक-झलक रहा है, उन्हें एक साथ एक स्थान पर एकत्र करले आना संभव नहीं लगता, फिर भी अंतस्थ की भावना को साकार रूप प्रदान करने की दृष्टि से गणधर गौतम के विराट् बहुमुखी एवं सार्वभौमिक व्यक्तित्व का यह छोटा-सा रेखांकन प्रस्तुत किया गया है, एक श्रद्धाञ्जलि के रूप में। गौतम के व्यक्तित्व का सार्वदेशिक सूक्ष्म चित्रण करने के लिए जैन वांङमय के प्रत्येक आगम एवं प्रत्येक ग्रन्थ का आलोडन-अवगाहन करना आवश्यक है। इस Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महान कार्य की सम्पन्नता किसी एक लेखक के द्वारा संभव नहीं है, तथापि हमने प्रयत्न पूर्वक विविध ग्रन्थों का अवलोकन एवं अनुशीलन करके आज तक के बहुत बड़े अभाव की पूर्ति करने का प्रयत्न किया है। आशा है यह प्रयत्न पाठकों को रुचिकर व ज्ञानप्रद प्रतीत होगा। परम श्रद्धय कविरत्न उपाध्याय श्री अमरचन्द्र जी महाराज का निश्छल मधुर स्नेह बरबस मन-मस्तिष्क में चलचित्र की भांति उद्बुद्ध हो ही जाता है । सन्मति ज्ञान पीठ जैसे सुविच त साहित्यिक प्रतिष्ठान से 'अहिंसा की बोलती मीनारे' के पश्चात् 'इन्द्रभूति गौतम एक अनुशीलन' मेरे दूसरे ग्रन्थ का प्रकाशन हो रहा है, यह उनकी उदारता का फल है । उपाध्याय श्री जी हम जैसे नौ सीखिया साधुओं के लिए साहित्यिक क्षेत्र में सदा पथ प्रदर्शक बने रहे हैं । ____ महामहिम परमादरणीय श्रद्धय गुरुवर्य श्री पुष्कर मुनि जी महाराज के प्रति कृतज्ञता अभिव्यक्त करना मैं अपना परम कर्तव्य समझता हूँ। कारण गुरुदेव श्री का प्रत्यक्ष या परोक्ष में मुझे अनवरत साहित्यिक सहयोग मिलता रहा है । प्रस्तुत दृष्टि से वे मेरे आद्य प्रेरणा-स्रोत कहे जा सकते हैं। सम्पादनकला मर्मज्ञ श्रीचन्द जी सुराना 'सरस' ने प्रस्तुत ग्रन्थ का विद्वत्तापूर्ण सम्पादन किया है । साथ ही ग्रन्थ को मुद्रण कला व आधुनिक साज-सज्जा से सुसज्जित बना दिया है । अतः वे मेरे स्मृति पथ से कदापि विलग नहीं हो सकते । विद्ववर्य डा० जगदीशचन्द्र जैन ने मेरे आग्रह को मान्यकर सुन्दर भूमिका लिखने का जो कष्ट किया है, उसके लिए मैं कृतज्ञ हूँ। अन्त में मैं उन सभी लेखक व विद्वानों का हृदय से आभार मानता हूँ जिनके लेखन से प्रस्तुत शोध प्रबन्ध लिखने में मुझे केवल सहयोग ही नहीं मिला, वल्कि दृष्टि व मार्गदर्शन भी मिला है । -गणेश मुनि शास्त्री साहित्यरत्न जैन धर्म स्थानक दादर, बम्बई-२८ संवत्सरी महापर्व ५-९-७० Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक भारतीय प्राचीन साहित्य के इतिहास की ओर दृष्टिपात करने से लगता है कि सचमुच भारत के प्राचीन विद्वान लेखक बहुत ही निस्पृह वृत्ति के थे। यशः कीर्ति की उन्हें जरा भी एषणा न थी। इसीलिये वे अपने निज के अथवा अपनीकृति के सम्बन्ध में परिचय देने की आवश्यकता नहीं समझते । परिणाम यह हुआ कि हम अपने साहित्य के क्रमिक इतिहास का अध्ययन कर उसके मूल्यांकन से वंचित रह गये। ___ भगवान महावीर और भगवान बुद्ध जैसे लोक-विश्रु त तपस्वी लोक नेताओं की जन्म एवं निर्वाण-तिथि के सम्बन्ध में आज भी हमें कितना ऊहापोह करना पड़ता है ? और महावीर की निर्वाण भूमि के सम्बन्ध में निश्चय से नहीं कहा जा सकता कि यह वही मध्यमपावा है जो महावीर-निर्वाण के पूर्व अपापा कही जाती थी, जहाँ काशी-कौशल के गण राजाओं ने एकत्र होकर महावीर-निर्वाणोत्सव उजागर किया था। ऐसी हालत में यदि गौतम इन्द्रभूति के सम्बन्ध में विशेष जानकारी उपलब्ध न हो तो आश्चर्य की बात नहीं। प्राचीन जैन ग्रन्थों से उनके सम्बन्ध में हम इतना ही जानते हैं कि वे गौतम गोत्रीय, विहार के अन्तर्गत गोब्बर ग्राम निवासी. भगवान महावीर के प्रमुख गणधरों में थे। मगध के वे सुप्रसिद्ध विद्वान् ब्राह्मण थे, तथा अग्निभूति और वायुभूति नामक अपने भाइयों के साथ भगवान् महावीर के समवशरण में उपस्थित हो श्रमणों की निग्रन्थ दीक्षा उन्होंने ग्रहण की थी। इन्द्रभूति अत्यन्त जिज्ञासु थे जिसके परिणाम स्वरूप जैन आगमों की वाचना को द्वादशांग का रूप प्राप्त हुआ। भगवान महावीर के समक्ष उन्होंने अपनी कितनी ही जिज्ञासायें प्रस्तुत की, जिनका समाधान महावीर ने बोधगम्य सरल भाषा में किया । वस्तुतः जैन आगमों का अधिकांश भाग गौतम इन्द्रभूति की जिज्ञासा का ही परिणाम समझना चाहिये । इन्द्रभूति के अनेक संवाद जैन आगमग्रन्थों में उल्लिखित हैं । इनमें उत्तराध्ययन-सूत्र के अन्तर्गत केशी-गौतम नामक संवाद विशेष रूप से ध्यान आकर्षित करता है। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) पार्श्वनाथ के अनुयायी चतुर्दशपूर्वधारी कुमारश्रमणकेशी ने महावीर के अनुयायी गौतम गणधर से प्रश्न किया कि क्या कारण है कि पार्श्वनाथ ने सचेल और महावीर ने अचेल धर्म का उपदेश दिया है, जबकि दोनों ही निग्रन्थ परम्परा के अनुयायी हैं। उत्तर में गौतम इन्द्रभूति ने प्रतिपादित किया, कि “यह उपदेश भिन्न-भिन्न रुचि वाले शिष्यों को ध्यान में रखकर किया गया है, वस्तुतः दोनों महातपस्वियों का उद्देश्य ज्ञान, दर्शन और चारित्र द्वारा मोक्ष की प्राप्ति ही है । पार्श्वनाथ के चातुर्याम संवर और महावीर के पंचमहाव्रतों के अन्तर का यही रहस्य है।" इस संवाद का महत्त्व इसलिये और भी बढ़ जाता है, कि इससे जैन धर्म के सुप्रसिद्ध जर्मन विद्वान् प्रोफेसर हर्मन याकोवी की इस मान्यता को समर्थन प्राप्त होता है, कि बौद्ध धर्म के पूर्व भी जैन धर्म विद्यमान था। कहने की आवश्यकता नहीं कि जब आरम्भ में योरोप के विद्वानों ने जैन धर्म और बौद्ध धर्म का अध्ययन किया, तो श्रमण परम्परा को स्वीकार करने वाले दोनों धर्मों में समानताओं को देखकर योरोप के अनेक विद्वान् जैन और बौद्ध धर्म को एक समझ बैठे, और कुछ तो जैन धर्म को बौद्ध धर्म की शाखा मानने लगे ! जसे बुद्ध, गौतम बुद्ध कहे जाते थे, वैसे ही इन्द्रभूति भी गौतम इन्द्रभूति के नाम से प्रख्यात थे। इससे भी भ्रांन्ति पंदा हो गई थी। इस भ्रान्त धारणा के निरसन का श्रेय प्रोफेसर याकोबी को प्राप्त है, जिन्होंने जैन सूत्रों की अपनी विद्वत्तापूर्ण प्रस्तावना में जैन धर्म का पृथक् अस्तित्व सिद्ध कर जैन पुरातत्व सम्बन्धी खोज को आगे बढ़ाया। . इस दृष्टि से 'इन्द्रभूति गौतम : एक अनुशीलन' महत्वपूर्ण लघु कृति है । यहाँ श्री गणेश मुनि शास्त्री ने इन्द्रभूति के सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा करते हुए, भारतीय चिन्तन की पृष्ठ भूमि के साथ उनके असाधारण व्यक्तित्व पर विद्वत्ता पूर्ण प्रकाश डाला है । जैन, बौद्ध एवं ब्राह्मण ग्रन्थों के आलोडन पूर्वक सरल भाषा में रची हुई उनकी यह पुस्तक स्वागत के योग्य है । यह अति प्रसन्नता का विषय है, कि इधर जैन साधु समाज में, विशेषकर स्थानकवासी साधु समाज में, चिन्तन-मनन तथा सामाजिक आन्दोलनों के प्रति विशेष अभिरुचि देखने में आ रही है। जिसका ज्वलंत प्रमाण गणेश मुनि शास्त्री जी का अन्यतम साहित्य के साथ 'इन्द्रभूति गौतमः एक अनुशीलन है । हम आशा करते हैं कि लेखक की इस लघु कृति का विद्वत्समाज में सून्दर समादर होगा। १२ अक्तूबर, १९७० जगदीश चन्द्र जैन Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका खण्ड : पृ० १-२२ सांस्कृतिक अवलोकन खण्ड : २ पृ० २३-३२ भारतीय चिन्तन की पृष्ठ भूमि. खण्ड ३ : पृ० ३३-५२ आत्म विचारणा. खण्ड ४ : पृ० ५३-१०४ व्यक्तित्व-दर्शन. खण्ड ५ : पृ० १०५-१४० परिसंवाद परिशिष्ट १४१-१६० Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रभूति गौतम एक अनुशीलन Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : १ सांस्कृतिक अवलोकन जीवन-दर्शन • आर्य इन्द्रभूति • भगवान महावीर को कैवल्य एवं तीर्थ प्रवर्तन मगध की सांस्कृतिक विरासत ब्राह्मण क्षत्रिय संघर्ष आत्मविद्या के पुरस्कर्ता क्षत्रिय • पावा में यज्ञ का आयोजन • गौतम : एक परिचय पावा में भगवान महावीर • निराशा और जिज्ञासा • समवसरण की ओर • Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांस्कृतिक अवलोकन जीवन-दर्शन हिन्दी-साहित्य के जगमगाते ज्योतिर्मय नक्षत्र महाकवि सुमित्रानन्दन पंत ने महा-मानव के जीवन को व्याख्या करते हुए कहा है-~-महान् व्यक्तित्व सम्पन्न व्यक्ति का जीवन एक स्वच्छ एवं निर्मल दर्पण-सा होता है । जिसमें राष्ट्र, जाति, समाज एवं धर्म के आदर्श, सांस्कृतिक विरासत, दर्शन एवं चिन्तन की आकृति-प्रतिबिम्बित होती रहती है। उसका जीवन अन्तर के आत्म-प्रकाश, आत्म-ज्योति से ज्योतित होता है । उसके आत्म-आलोक से धर्म, समाज एवं राष्ट्र के अंधकाराच्छन्न कोण आलोकित एवं प्रकाशित हो उठते हैं। उसके हृदय के स्पन्दन में संपूर्ण मानवता की, संपूर्ण विश्व की धड़कन होती है । इसी अभिधा में कवि का स्वर अभिगुञ्जित हो रहा है जिसमें हो अन्तर का प्रकाश, जिसमें समवेत हृदय स्पन्दन । मैं उस जीवन को वारणी द्, जो नव आदर्शों का दर्पण ।। विश्व, समाज एवं संघ के उदयाचल पर कभी-कभार ऐसे विरल व्यक्तित्व उदित होते हैं, और अपनी आन्तरिक चमक-दमक की जगमगाहट से विश्व को Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रभूति गौतम आलोकित करते हैं, जिसमें एक ही साथ धर्म, दर्शन, संस्कृति और सभ्यता का चतुमुख रूप अभिव्यक्त होता है, उनकी वाणी में धर्म और दर्शन अवतरित होते हैं और उनके व्यवहार में, आचरण में संस्कृति और सभ्यता का रूप निखरता है तथा विचार और आचार-पल्लवित, पुष्पित एवं फलित होता है । उनका जीवन केवल जीवन ही नहीं, ज्ञान, भक्ति एवं कर्म का सजीव शास्त्र होता है । ___ भारत में ऐसे व्यक्तित्व-सम्पन्न एवं तेजस्वी व्यक्ति समय समय पर अवतरित होते रहे हैं, जिनके विचार और आचार, ज्ञान और क्रिया का दिव्य-प्रकाश आज भी धर्म एवं समाज तथा भारतीय संस्कृति के सभी अंचलों को आलोकित कर रहा है, जन-जन के जीवन को ज्योति से ज्योतित कर रहा है। मर्यादापुरुषोत्तम राम, कर्म योगी श्रीकृष्ण, करुणामूर्ति बुद्ध, और श्रमण भगवान महावीर-ये चार आर्य संस्कृति के दिव्य रत्न हैं, उनके जीवन की रजत-रश्मियों से भारतीय संस्कृति को अपूर्व आलोक मिला है, और उनके जीवन को ऊर्जस्विता ने संस्कृति को प्राणवान बनाए रखा है। जब कभी इन महान् व्यक्तित्व सम्पन्न व्यक्तियों के जीवन का मैं गम्भीरता से अध्ययन करता हूँ तो मुझे यह स्पष्ट परिलक्षित होता है, कि इनके जीवन के साथ और भी चार तेजस्वी व्यक्तियों का घनिष्ट सम्बन्ध रहा है । जिन्होंने अपने आपको पूर्णतः समर्पण कर दिया था। जिनकी तेजस्वी श्रद्धा, भक्ति एवं निष्ठा तथा कृतित्वता इनके व्यापक एवं विराट व्यक्तित्व में इस प्रकार समाहित हो गई-- 'जाह्ववीया इवार्णवे-जैसे महासागर में गङ्गा की निर्मल धाराएँ । मर्यादा पुरुषोत्तम राम के जीवन में स्नेह, सेवा और शौर्य की साकार मूर्ति लक्ष्मण, कर्म योगी कृष्ण के जीवन में 'कर्मण्येवाधिकारस्ते' का एकनिष्ठ उपासक अर्जुन, करुणाशील तथागत बुद्ध के अनुपदों पर गतिमान सेवा-परायण आनन्द और समतायोगी भगवान महावीर की साधना में ज्ञान के साथ अनन्य गुरु-निष्ठा के मूर्तिरूप इन्द्रभूति गौतम ने अपने आप को विलीन कर दिया था। साधना के क्षेत्र में व्यक्ति स्वयं अपना विकास कर सकता है। परन्तु साधना को सिद्ध करके उसके प्रकाश को जन-जन के जीवन में प्रसारित करने के लिए जब महान् व्यक्तित्वसम्पन्न व्यक्ति भी समाज में प्रविष्ट होता है, अथवा संघ एवं समाज की स्थापना करता है, तो वह इसके लिए सहयोगी के रूप में तेजस्वी व्यक्ति त्व की अपेक्षा रखता है, और यह आवश्यक भी है । क्योंकि सहयोग के बिना कार्य · को साकार रूप नहीं दिया जा सकता । ज्ञान की अभिव्यक्ति करने के लिए क्रिया का Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांस्कृतिक अवलोकन सहयोग आवश्यक है। व्यक्ति का आचार ही व्यक्ति के विचार को अभिव्यक्ति दे सकता है । आचार के बिना विचार साकार रूप नहीं ले सकता । इसीप्रकार श्रद्धालु एवं कर्म-निष्ठ व्यक्ति ही महान् तेजस्वी व्यक्तित्व की तेजस्विता को जन-जन के सामने प्रकट कर सकता है । इस बात को हम यों भी कह सकते हैं कि राम, कृष्ण,बुद्ध और महावीर ज्ञान हैं, लक्ष्मण, अर्जुन, आनन्द एवं गौतम कर्म हैं। वे विचार हैं तो ये आचार हैं। इसलिए दोनों में घनिष्ठता एवं एकात्मकता है । इतिहास इस बात का साक्षी है, कि राम लक्ष्मण के सहयोग से ही वनवास में अपने व्यक्तित्व को अभिव्यक्ति दे सके, और लंका में राक्षसी-वृत्ति पर विजय पा सके। हम उस जीवन में लक्ष्मण को प्रत्येक कार्य में राम के साथ ही देखते हैं। कर्मयोगी कृष्ण की गीता को, उनके विचारों को आत्मसात् करके उन्हें आचरण में साकार रूप देने वाले अर्जुन को कृष्ण से अलग नहीं किया जा सकता । कृष्ण के विचारों की अभिव्यक्ति रूप अर्जुन परिलक्षित होता है । तथागत बुद्ध के साथ आनन्द का इतना घनिष्ठ सम्बन्ध रहता है, कि तथागत अपने विचार एवं चिन्तन को आनन्द के माध्यम से ही जन-जन के समक्ष रखते हैं । और गौतम ने अपने व्यक्तित्व को और अपने आप को महावीर के व्यक्तित्व में इतना मिला दिया था, कि वे स्वयं महावीर से भिन्न समझते ही नहीं थे । जब भी गणधर गौतम के मन में किसी भी तरह की जिज्ञासा जागृत होती, मानस-सागर में कोई विचार उर्मी तरंगित होती, तो वे उसका समाधान अपने चिन्तन की अतल गहराई में उतर कर प्राप्त करने का प्रयत्न नहीं करते, बल्कि श्रमण भगवान महावीर के चरण-कमलों में पहुँच कर प्राप्त करते । यह तो मैं पूर्व स्पष्ट कर ही चुका हूँ, कि तेजस्वी व्यक्तित्व के तेज को सामान्य व्यक्ति नहीं, तेजस्वी व्यक्ति ही अपने जीवन में आत्मसात् कर सकता है। राम अपने आप में महान् थे, विराट् थे, पर उनकी महानता एवं विराटता को साकार रूप देने का माध्यम लक्ष्मण ही था । लक्ष्मण ने राम की प्रभुता को जन-जन के समक्ष प्रस्तुत किया । अर्जुन का माध्यम पाकर ही कृष्ण की वाणी मुखरित हुई, और गीता का अवतरण हुआ, जो आज भी अलसाये हुए जन मानस को पुरुषार्थ के पथ पर बढ़ने की महान् प्रेरणा प्रदान करता है । तथागत बुद्ध का बोधित्त्व भी आनन्द का सहयोग पाकर वाणी एवं भाषा के रूप में अभिव्यक्त हुआ। और हमारा आलोच्य विषय इन्द्रभूति गौतम श्री भगवान महावीर की ज्ञान साधना को अभिव्यक्ति देने का माध्यम रहा है । आगम साहित्य का अध्ययन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है, कि भगवान महावीर की दिव्य ज्ञान धारा को ग्रहण करने वाला प्रथम Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रभूति गौतम व्यक्ति गौतम ही था । गौतम के दीक्षित होने के पश्चात ही संघ को स्थापना हुई, और द्वादशांगी को साकार रूप दिया गया। आगम क्या है ? गौतम के माध्यम से एवं गौतम की जिज्ञासा का निमित्त पाकर भगवान की प्रवहमान उपदेश धारा ! प्रारंभ से अंत तक यह हम देखते हैं, कि आगम का अधिकांश भाग गौतम के जिज्ञासा भरे प्रश्नों के समाधान एवं उनको माध्यम बना कर दिए गए उपदेश से संबद्ध है। भगवान महावीर के जीवन के साथ गौतम कां घनिष्ट सम्बन्ध इस बात से स्पष्ट होता है, कि भगवान महावीर के बाद आचार्यों द्वारा लिखे गये ग्रन्थों में समय-समय पर उठने वाले प्रश्नों एवं उनके समाधानों को महावीर और गौतम के नाम से आगमों के पृष्ठों पर तथा ग्रन्थों में अंकित किए गए हैं। इस प्रकार गौतम जिज्ञासा थे और महावीर समाधान । और जब तक भगवान महावीर ने सिद्धत्व को प्राप्त नहीं कर लिया, तब तक गौतम जिज्ञासु ही बना रहा । इसलिए भगवान महावीर का निर्वाण गौतम के लिए चिन्ता का कारण बन गया । वह सोचने लगा, कि अब मुझे मेरी जिज्ञासा का समाधान कहाँ मिलेगा ? क्योंकि तब तक उसने अपनी जिज्ञासा के समाधान को अपने अन्दर पाने के लिए प्रयास ही नहीं किया था। परन्तु भगवान के निर्वाण के बाद जब अपने आप को परखने का एवं अपनी शक्ति को अनावृत्त करने की ओर ध्यान दिया, तो तुरन्त उसका सुषुप्त जिनत्व जागृत हो गया, उसने अपने आप में महावीरत्व को पा लिया। और अब वह स्वयं जिज्ञासा न रह कर समाधान बन गया । पारस के संपर्क को प्राप्त कर लोहा सोना तो बन जाता है, पर वह पारस नहीं बन पाता। किन्तु महावीर के संपर्क से गौतम ने महावीरत्व को अथवा जिनत्व को प्राप्त कर लिया। प्रस्तुत संदर्भ से स्पष्ट होता है, कि गौतम का व्यक्तित्व महान्, विराट् एवं तेजस्वी था। उनके व्यक्तित्व में भगवान महावीर के उच्च ज्ञान, जैन दर्शन एवं संस्कृति का हृदय छिपा है । और भगवान महावीर के लोक मंगल व्यक्तित्व का ताना बाना भी जुड़ा हुआ है। आर्य इन्द्रभूति आर्य इन्द्रभूति गौतम भगवान महावीर के प्रथम शिष्य एवं प्रथम गणधर थे। आगम ग्रन्थों में अनेक स्थानों पर उनकी चर्चा आई है। अनेक प्रसंग Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांस्कृतिक अवलोकन प्रश्नोत्तर एवं परिसंवाद इन्द्रभूति से सम्बन्धित हैं । भगवतो, उववाई, रायपसेणी, पन्नवणा, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति आदि अनेक आगम व आगमों का मुख्य-भाग गणधर इन्द्रभूति के प्रश्नों पर ही निर्मित हुआ है, ऐसा निर्विवाद कहा जा सकता है । ___ उपनिषद् कालीन उद्दालक के समक्ष जो स्थान श्वेतकेतु का है, गीतोपदेष्टा श्री कृष्ण के समक्ष अर्जुन का एवं बुद्ध के समक्ष आनन्द का जो स्थान है, वही स्थान जैनागमों में भगवान महावीर के समक्ष इन्द्रभूति गौतम का है । आगम-पृष्ठों पर इन्द्रभूति गौतम का जीवन परिचय देने वाली शब्दावली हमें कई रूपों में उपलब्ध होती है। उनके अन्तरंग एवं बाह्य व्यक्तित्व को समग्र रूप से स्पर्श करके संतुलित एवं प्रभावशाली शब्दों में व्यक्त करनेवाला एक प्रसंग भगवती सूत्र के प्रारम्भ में इस प्रकार आया है। "उस समय श्रमण भगवान महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी-शिष्य इन्द्रभूति नाम के अनगार थे। वे गौतम गोत्री थे। उनका शरीर सात हाथ ऊँचा, समचौरस संस्थान एवं वज्रऋषभनाराचसंघयन से युक्त था। उनका गौरवर्ण कसौटी पर खिची हुई स्वर्ण-रेखा के समान दीप्तिमान एवं पद्मकेसर के समान समुज्ज्वल था। वे उग्रतपस्वी, दीप्ततपस्वी, तप्ततपस्वी, महातपस्वी, उदार, घोर, घोरगुण युक्त, घोरब्रह्मचारी, शरीर की ममता से युक्त, संक्षिप्त (शरीर में गुप्त), विपुल तेजोलेश्या को धारण करने वाले, चतुर्दश पूर्व के ज्ञाता, चार ज्ञान से सम्पन्नसर्व अक्षर संयोग के विज्ञाता थे। - आगम एवं आगमेतर साहित्य में गणधर गौतम का जो भी जीवन परिचय उपलब्ध है, उसमें यह सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वांग परिचय माना जा सकता है। उनका बाह्य दर्शन जितना आकर्षक, सुन्दर, एवं ओजस्वी है, अन्तरंग जीवन परिचय १. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्टेअंतेवासी इंदभूईणामं अणगारे गोयमसगुत्तेणं सत्तुस्सेहे समचउरंससंठाणसंठिए, वज्जरिसह- नारायसंघयणे, कणय-पुलयनिसहपम्हगोरे, उग्गतवे, दित्ततवे, तत्ततवे, महातवे, ओराले, घोरे, घोरगुणे घोरतवस्सी, घोरबंभचेरवासी, उच्छूढसरीरे, संखित्तविउल तेउलेसे, चोद्दसपुव्वी, चउनाणोवगए, सव्वक्खर सन्निवाई "..........। -भगवती सूत्र, शतक-१ पृ० ३३ पं० बेचरदास जी द्वारा सम्पादित । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रभूति गौतम उससे अधिक तपोपूत, ज्ञानगरिमा-मंडित एवं साधना की चरम कोटि में पहुंचा हुआ है । इस महान व्यक्तित्व में ऐसी विलक्षणताएँ सन्निहित हुई हैं जिन्हें पढ़ सुन कर हृदय श्रद्धा से गद्गद् हो उठता है और बुद्धि कह उठती है-पच्चीस सौ वर्ष पूर्व का यह महान् व्यक्तित्व इन ढाई सहस्राब्दियों का अद्भुत एवं एकमेव व्यक्तित्व है। भगवान महावीर के बाद यदि कोई दूसरा सार्वभौम व्यक्तित्व जैन परम्परा में है तो वह गणधर गौतम का है। भगवती सूत्र के शब्दों की गहराई में जाए तो एक-एक शब्द के पीछे गौतम के जीवन की एक नहीं, अनेक विशेषताएं', साधना की विरल उपलब्धियाँ जुड़ी हुई प्रतीत होती हैं। हम इसी परिचय रेखा के आधार पर इन्द्रभूति गौतम का जीवन परिचय बाह्य एवं अंतरंग व्यक्तित्व का एक विस्तृत जीवन दर्शन पाठकों के समक्ष उपस्थित करना चाहते हैं। जैन परम्परा में गणधर जैन इतिहास एवं परम्परा में 'तीर्थकर' शब्द जितना प्राचीन एवं अर्थ पूर्ण है, उतना ही प्राचीन एवं अर्थ पूर्ण है 'गणधर' शब्द । 'तीर्थंकर' तीर्थ अर्थात् संघ-साधु, साध्वी श्रावक-श्राविकारूप संघ के निर्माता' होते हैं तथा 'श्रुत रूप' ज्ञान परम्परा के पुरस्कर्ता होते हैं, और गणधर साधु, साध्वीरूप संघ की मर्यादा, व्यवस्था, एवं समाचारी के नियोजक, व्यवस्थापक, तथा तीर्थंकरों की अर्थ रूप वाणी को सूत्र रूप में संकलन करने वाले होते हैं। विशेषावश्यक भाष्य के टीकाकार आचार्य मल्लधारी हेमचन्द्र के शब्दों में 'उत्तम ज्ञान दर्शन आदि गुणों को धारण करने वाले गणधर होते हैं ।'3 समवायांग सूत्र तथा कल्पसूत्र स्थविरावली' प्रवचन सारोद्धार में चौबीस २. अत्थं भासई अरहा सुत्तं गुफइ गणहरा निउणा । -आचार्य भद्रबाहु ३. अनुत्तरज्ञानदर्शनादि गुणानां गणं धारयन्तीति गणधरा : -विशे० भा० टीका० गा० १०६२ । ४. समवायांग सूत्र ११-७४ ५. कल्पसूत्र (कल्पलता) पृ० २१५ ६. प्रवचन सारोद्धार द्वार १५ गा ४७-५८. Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांस्कृतिक अवलोकन तीर्थंकरों के विभिन्न गणों एवं गणधरों की नामावली प्राप्त होती है । जिससे यह जाना जा सकता है कि प्रत्येक तीर्थंकर के तीर्थ में गणधर एक अत्यावश्यक उत्तरदायित्व पूर्ण महान प्रभावशाली व्यक्तित्व होता है। समवायांग सूत्र में बताया है-श्रमण भगवान महावीर के ग्यारह गण एवं ग्यारह गणधर थे। __ कल्पसूत्र में नौ गण एवं ग्यारह गणधर बताये हैं,८ तथा प्रत्येक गणधर के नाम, गोत्र, शिष्य, परिवार आदि का विस्तृत लेखा जोखा भी दिया गया है । उनकी योग्यता, ज्ञान-क्षमता एवं साधना तथा निर्वाण भूमि का परिचय भी उससे प्राप्त हो जाता है । आवश्यक नियुक्ति में आचार्य भद्रबाहु ने गणधरों का संक्षिप्त परिचय देते हुए निम्न विवरण दिया है।' इन्द्रभूति, वायुभूति एवं अग्निभूति—ये तीन गणधर मगध जनपद के गोबर ग्राम में जन्में, तीनों गौतमगोत्री थे । व्यक्त एवं सुधर्मा गणधर का जन्म स्थल कोल्लाग सन्निवेश तथा क्रमशः भारद्वाज एवं अग्निवेश्यायन गोत्र के थे। मंडित तथा मोर्यपुत्र मोर्यसन्निवेश में, एवं अचल गणधर कौशला तथा अकंपित का जन्म मिथिला में हुआ । इनके गोत्र क्रमशः वशिष्ठ, काश्यप, गौतम एवं हारीत थे। मेतार्य गणधर का जन्म वत्स भूमि (कोशांबी) का तुगिक सन्निवेश में और प्रभास गणधर का जन्म ७. समणस्सणं भगवओ महावीरस्स एक्कारसगणा एक्कारस गणहरा होत्था तं जहा-इन्दभूई, अग्गिभूई..... ''सम० स० ११ समणस्स भगवओ महावीरस्स नवगणा एक्कारस गणहरा होत्था -कल्पसूत्र (स्थविरावली) सूत्र २०१ मगहा गोब्वर गामे जाया तिण्णव गोयमस गोत्ता। कोल्लागसन्निवेसे जाओ विअत्तो सुहम्मो य । ६४३ । मोरिय सन्निवेसे दो भायरो मंडमोरिया जाया । अचलोय कोसलाए मिहिलाए अकंपियो जाओ। ६४४ । तुगिय सन्निवेसे मेयज्जो वच्छभूमिए जाओ। भगवं पियप्पभासो रायगिहे गणहरो जाओ । ६४५ । तिण्णिय गोयम गोत्ता भारद्दा अग्गिवेस वासिट्ठा। कासवगोयम-हारिय-कोडिण्ण दुगं च गोत्ताई। ६४९ । -आवश्यक नियुक्ति Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ इन्द्रभूति गौतम राजगृह में हुआ। ये दोनों ही कौडिन्य गोत्रिय थे । लगभग इसी विवरण को आचार्य हेमचन्द्र, गुणचन्द्र एवं नेमिचन्द्र आदि उत्तरवर्ती जीवन-चरित्र लेखकों ने दुहराया है। गणधरों के सम्बन्ध में सार रूप जानकारी परिशिष्टगत कोष्टक से भी ज्ञात हो जाती है । विशेष विवरण उपलब्ध नहीं होता है। भगवान महावीर : कैवल्य और तीर्थ प्रवर्तन भगवान महावीर इस अवसर्पिणी के चौबीसवें तथा अन्तिम तीर्थंकर थे। तीस वर्ष की युवावस्था में राज्यवैभव एवं अपार भोगसामग्री को ठुकराकर निम्रन्थ भिक्षु बन गये और कठोर एकांत आत्म साधना में लगभग बारह वर्ष छह मास तक संलग्न रहे । इस कठोर साधना काल में उन्होंने अपने को तपाया, दुःसह कष्टों को सहन किया, और आधिभौतिक एवं आधिदैविक घोर उपसर्गों के झंझावात में भी अचल हिमाचल की भांति साधना का निष्कंप दीप जलाते रहे ।१२ एक समय भगवान महावीर साधना काल के अन्तिम वर्ष में ग्रीष्म ऋतु के वैशाख महीने में विहार करते हुये जम्भिया ग्राम के बाहर ऋजु बालिका नदी के उत्तर किनारे पर श्यामाक नामक गाथापति के कृषि भूमि (खेत) में पधारे । वहाँ शाल नामक वृक्ष के नीचे गोदोहिका आसन में बैठ कर परम समाधि पूर्वक ध्यान की उच्च भूमिका में पहुंच रहे थे। उनके राग-द्वेष क्षीण हो चुके थे। वे मोह पर विजय प्राप्त कर चुके थे । शुक्ल ध्यान की विशुद्धतर भूमिका पर पहुंचते ही श्रमण महावीर ने केवल ज्ञान केवल दर्शन का अनन्त आलोक प्राप्त किया। यह वैशाखशुक्ल दशमी का दिन इस अवसर्पिणी के अन्तिम तीर्थंकर श्रमण महावीर के त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित, पर्व १० सर्ग ५ ११. महावीर चरियं, प्रस्ताव, ८. १२. विशेष विवरण देखिए—(क) तीर्थकर महावीर (विजयेन्द्रसूरि) भा० १ (ख) आगम और त्रिपिटिक : एक अनुशीलन (मुनि नगराजजी) १३. (क) आचारांग २।२४।१०२४ (ख) आवश्यक नियुक्ति : (ग) विशेषावश्यक भाष्य गा० ५२६ प्र० मा० पृ० ६०८ (घ) महापुराणे उत्तर पुराण ७४।३४८-३५५ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांस्कृतिक अवलोकन कैवल्य महोत्सव का पवित्र दिन था। भगवान महावीर को कैवल्य प्राप्त होते ही एक बार अपूर्व प्रकाश से सारा संसार जगमगा उठा । दिशाएँ शांत एवं विशुद्ध हो गई थीं, मन्द-मन्द सुखकर पवन चलने लगी, देवताओं के आसन चलित हुए और वे दिव्य देव दुन्दुभि का गम्भीर घोष करते हुए भगवान का कैवल्य महोत्सव करने पृथ्वी पर आये । भगवान महावीर जंगल में थे, अतः केवल ज्ञान प्राप्त होते ही उनकी प्रथम प्रवचन सभा में कोई मनुष्य नहीं पहुंच सका । देवों का अगणित समूह उनकी वैराग्यपीयूष-वर्षी वाणी से गद्गद् अवश्य हो उठा; पर व्रत और संयम स्वीकार करके महावीर की प्रथम देशना की सफलता सिद्ध करना देवों के लिये असंभव था। इस दृष्टि से भगवान महावीर का प्रथम प्रवचन निष्फल गया ऐसा भी कहा जाता है ।५ जम्भिया ग्राम से विहार कर श्रमण भगवान महावीर पावापुरी (मध्यम पावा) पधारे । पावा मगध की प्रमुख सांस्कृतिक नगरी थी। मगध की सांस्कृतिक विरासत भारत के आध्यत्मिक इतिहास में मगध का स्थान सर्वोपरि रहा है। मगध की संस्कृति में श्रमण संस्कृति के बीज प्रारम्भ से ही पलते रहे हैं। श्रमण संस्कृति के विकास एवं प्रसार में मगध का अपूर्व योग रहा है । म० महावीर तथागत बुद्ध एवं इन्द्रभूति गौतम जैसे आध्यात्मिक व्यक्तित्व मगध भूमि के गौरव की शाश्वत स्मृतियाँ हैं। जिसप्रकार भारतीय शासन में गणतंत्र का विकास एवं प्रयोग सर्वप्रथम मगध के अंचल में हुआ, उसीप्रकार भारतीय धर्म दर्शन तथा अध्यात्म क्षेत्र में, वैराग्य, सन्यास अहिंसा, मोक्ष विचार आदि की विकास भूमि भी मगध जनपद् (मगध से सम्पूर्ण पूर्व भारत की भावना लेनी चाहिए) एवं उसके पारिपाश्विक अंचल रहे हैं । मगध की यह सांस्कृतिक विरासत आज भी भारतीय जन जीवन के उदात्त १४. त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्रम्---पर्व १०, सर्ग ५, नोट-भगवान महावीर के कैवल्य वर्णन की तुलना में बौद्धों ने बुद्ध के बोधि लाभ का आलंकारिक वर्णन किया है। जातकअट्ठकथा (निदान) मे कहा हैबुद्ध ने जब बोधि लाभ प्राप्त किया तब चौरासी हजार योजन गहराई तक समुद्र का पानी मीठा हो गया । जन्मांध देखने लगे, जन्म के बहरे सुनने लगे।" १५. स्थानांग १०॥३१७७७ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ इन्द्रभूति गौतम चिंतन एवं ऊर्ध्वमुखी विकास की कहानी प्रस्तुत कर रही है ।" मगध जनपद की दो नगरियां पावा पुरो एवं राजगृही ( मगध ) उन दिनों सांस्कृतिक एवं धार्मिक जागरण का केन्द्र बनी हुई थी । उत्तर भारत से आये हुये आर्य पूर्व भारत में बस कर नई धार्मिक चेतना के अग्रणी बन रहे थे । क्षत्रिय, जो कि मुख्यत: श्रमण परम्परा के अनुयायी थे, इनमें प्रमुख थे, और वे यज्ञवाद, बहुदेववाद एवं जातिवाद के विरोध में खुलकर अहिंसा, जातिप्रतिरोध एवं धार्मिक समानता का प्रचार कर रहे थे । १७ ब्राह्मण क्षत्रिय संघर्ष उस युग में मुख्यतः वैदिक एवं अवैदिक इस प्रकार के दो वर्ग स्पष्ट रूप से सामने आ रहे थे | यज्ञ का प्रतिरोध करने वाले चाहें वे श्रमण रहे हों या ब्राह्मण, अवैदिक माने जाते थे । यही कारण है कि सांख्य दर्शन जो ब्राह्मण परम्परा की देन था उसे यज्ञ का प्रतिरोध करने के कारण कुछ लोग अवैदिक एवं श्रमण परम्परा की श्रेणी में मानने लगे थे । यज्ञ प्रतिरोध के साथ ही जातिवाद का विरोध एवं उसकी अतात्विकता की भावना अवैदिक परम्परा में प्रबल रूप से फैल चुकी थी । ऋग्वेद के अनुसारब्राह्मण, प्रजापति के मुख से उत्पन्न हुआ, क्षत्रिय बाहु से, वैश्य उदर से एवं शूद्र उसके पैरों से उत्पन्न हुआ ।" श्रमण परम्परा इस सिद्धान्त का कट्टर विरोध करके उसकी तात्विकता सिद्ध कर रही थी । तथागत गौतम बुद्ध मनुष्य जाति की एकता का प्रतिपादन बहुत ही प्रभावशाली पद्धति से करते थे । वे जन्मना जाति के स्थान पर कर्मणा जाति के समर्थक थे ।९ धीरे-धीरे इस विचार का प्रभाव उन क्षत्रियों पर भी पड़ा जो वैदिक परम्परा से सम्बद्ध थे । इसका है ।" वे भी आचरण से ही ब्राह्मण की श्र ेष्ठता का विचार धारा के साथ संघर्ष का तीसरा प्रधान कारण था समत्व भावना व धार्मिक प्रमाण महाभारत में मिलता उद्घोष करने लगे । वैदिक १६. विशेष वर्णन के लिए देखें 'संस्कृति के चार अध्याय २ ( रामधारीसिंह दिनकर ) १७. देखिए — भारत वर्ष का सामाजिक इतिहास । (डा० वि० सी० पाण्डे) पृ० २३-२४ १८. ऋगवेद मं० १० अ० ७ सू० ९१, मं० १२ १९. सुत्तनिपात ( वासेट्ठ सुत्त) २०. महाभारत शांति पर्व २४५।११-१४ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांस्कृतिक अवलोकन १५ समानता । वैदिक परम्परा ने ब्राह्मण की श्रेष्ठता को चरमकोटि पर पहुंचा कर अन्य वर्गों को उससे निम्न एवं धार्मिक अधिकारों से वंचित रखा । आरण्यक कों एवं ब्राह्मणों ने ब्राह्मण की श्रेष्ठता के डिडिमनाद में यहां तक कह डाला-समस्त देवता ब्राह्मण में निवास करते हैं ।" वह विश्व का दिव्य वर्ण है । २२ ब्राह्मण का जातीय अहंकार आकाश को चूमने लगा तो धीरे-धीरे अन्य वर्गों में उसके प्रति विद्वष एवं विरोध की आग सुलगने लगी। क्षत्रिय वर्ग ने उसकी श्रेष्ठता को चुनौती दी ।२२ उन्होंने कहा-श्रमण अपने गोत्र कुल आदि का अभिमान नहीं करता ।" वह सदा समता से युक्त रह कर सब में समत्व दर्शन करता है ।२५ ब्राह्मण की श्रेष्ठता के दो आधार स्तंभ थे । एक याज्ञिक कर्मों में उसकी अनिवार्यता तथा दो-ज्ञान में श्रेष्ठता। सत्ता के इन दोनों उद्गमों पर क्षत्रियों ने कड़ा प्रहार किया, याज्ञिक कर्मों का प्रतिरोध करके, एवं आत्मविद्या में अग्रगामी बन कर ।२६ आत्मविद्या के पुरस्कर्ता इतिहास में इस बात के स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं कि भगवान महावीर से पूर्व भी मगध में अनेक क्षत्रिय राजा एवं राजकुमार तत्व ज्ञान, आत्मविद्या आदि गम्भीर विषयों के उपदेष्टा एवं प्रचारक रहे हैं । अनेक ब्राह्मण कुमार तथा ऋषिजन इन राजाओं के पास आकर आत्म विद्या का ज्ञान प्राप्त करते आये हैं । कुछ विचारकों का मत है, भारतवर्ष में आत्मविद्या के पुरस्कर्ता क्षत्रिय ही रहे हैं । विदेहराज जनक स्वयं वेदों तथा उपनिषद् के गम्भीर विद्वान थे।२८ कैकेय नरेश अश्वपति के पास २१. एते वै देवाः प्रत्यक्ष यद् ब्राह्मणाः -तैत्तिरीय संहिता १-७-३१ २२. दैव्यो वै वर्णो ब्राह्मणः । -तैत्तिरीय ब्राह्मण १, २, ६ २३. शतपथ ब्राह्मण १४, १, २३ २४. सूत्रकृतांग १ । २।१।१ २५. सुत्तनिपात २३ । ११ २६. भारतवर्ष का सामाजिक इतिहास पृ० २५ २७. आत्म विद्या के पुरस्कर्ता क्षत्रिय ही थे—इसके प्रमाण में देखें 'उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन,' (मुनि नथमल) पृ० १४ । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ इन्द्रभूति गौतम अनेक ब्राह्मण कुमारों के विद्याध्ययन का उल्लेख भी छांदोग्य उपनिषद में मिलता है । १९ श्वेतकेतु आरुणेय. जैसे लब्धप्रतिष्ठित विद्वान ऋषि ने भी प्रवाहणजैवलि, जो कि क्षत्रिय कुमार थे, उनके पास वेदों व आत्मविद्या का ज्ञानप्राप्त किया । १० ये उल्लेख सूचित करते हैं कि- - उत्तर भारत में जहाँ धार्मिक क्रियाकाण्डों, विधि-विधानों, एवं तत्वज्ञान आदि का केन्द्र एवं नियोजक ब्राह्मण वर्ग रहा, वहाँ पूर्व भारत में धीरे-धीरे राजसत्ता के साथ धार्मिकसत्ता भी क्षत्रियों के हाथ में आती गई । क्षत्रियों ने आत्मविद्या पर बल दिया और यज्ञों के विरोध में स्पष्ट कहा जाने लगा "प्लवाः ह्य ेते अदृष्टाः यज्ञ रूपा: " ये यज्ञ आदि कर्म कमजोर नाव के समान हैइन से संसार सागर नहीं तिरा जा सकता । श्र ेय और प्रेय का भेद बता कर "अन्यच्छ यो अन्यदुतैव प्र ेयस् " श्र ेय आत्महित, आत्मविद्या की साधना करने वाले को धीर, बुद्धिमान एवं प्रेय - भौतिक सुख समृद्धि, यज्ञ यागादि क्रिया काण्ड में पड़े रहने वाले को मंद (मूर्ख) कहा जाने लगा ।" उपनिषद् में मुखरित होने वाले ये स्वर निश्चित ही दो विचार धाराओं के संघर्षों की सूचना देते हैं । और ये विचार धारायें वैदिक एवं वेद विरोधी श्रमण धारायें ही रही होंगी। ऐसा पूर्व उल्लेखों से स्पष्ट हो जाता है । पच्चीस सौ वर्ष पूर्व पूर्वी भारत का धार्मिक इतिहास पढ़ने पर यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि इन दोनों विचार धाराओं में उस समय काफी उथल-पुथल मची हुई थी । ब्राह्मण सत्ता को चुनौती दी जाने पर स्थान-स्थान पर उस वर्ग की ओर से इस प्रकार के विद्वाद् सम्मेलन एवं महायज्ञों की रचना होना भी आवश्यक हो गया था जिसमें उत्पन्न परिस्थितियों पर विचार किया जाय एवं बिखरते हुए २८. बृहदारण्यक उपनिषद ४ । २ । १ । २९. छांदोग्य उपनिषद् ५ । ११ ३०. छांदोग्य उपनिषद् ५।३ ३१. कठोपनिषद् २।१ पावा में यज्ञ का आयोजन ३२. श्रयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतद् तो संपरीत्य विविनक्ति धीरः । श्र ेयोहि धीरोऽभिप्रेयसो वृणीते, प्रेयान्मन्दो योगक्षेमाद् वृणीते । - कठोपनिषद् २२ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांस्कृतिक अवलोकन प्रभुत्व को पुनः स्थिर करने के लिए कोई स्थाई उपाय सोचा जाय । परिस्थितियों के अध्ययन से एवं ग्रन्थों में प्राप्त वर्णन से यह प्रतीत होता है कि आर्य सोमिल जो मगध का एक धनाढ्य एवं विद्वान ब्राह्मण था, ब्राह्मण वर्ग का नेतृत्व भी उसके हाथ में था और पूरे मगध एवं पूर्व भारत में उसकी प्रतिष्ठा भी थी । पावापुरी में उसने एक विराट महायज्ञ का आयोजन किया। जिसमें पूर्व भारत के बड़े-बड़े दिग्गज विद्वानों को उनके हजारों शिष्य परिवार के साथ निमन्त्रित किया गया । सम्भवतः इस महायज्ञ के अवसर पर वेद विरोधी विचारधारा के कड़े प्रतिवाद के उपायों पर एवं साधारण जनता को पुनः वैदिक विचारों की ओर आकृष्ट करने के साधनों पर भी विचार करने की योजना बनी होगी। इस सम्पूर्ण महायज्ञ का नेतृत्व मगध के प्रसिद्ध विद्वान प्रकाण्ड तर्कशास्त्री 'इन्द्रभूति गौतम' कर रहे थे । अन्य अनेक विद्वानों के साथ अग्निभूति, वायुभूति आदि ग्यारह महापण्डित भी वहाँ उपस्थित थे। गौतम : एक परिचय इन्द्रभूति गौतम का जन्म स्थल था मगध का एक छोटा-सा गोबर ग्राम । उनकी माता का नाम पृथ्वी, एवं पिता का नाम वसुभूति था। उनका गोत्र गौतम था। गौतम का व्युत्पत्तिजन्य अर्थ करते हुए जैनाचार्यों ने लिखा है— “गोभिस्तमो ध्वस्तं यस्य"३४ बुद्धि के द्वारा जिसका अन्धकार नष्ट हो गया है वह—गौतम । वैसे 'गौतम' शब्द कुल एवं वंश का वाचक रहा है । स्थानांग में सात प्रकार के गौतम बताए गए हैं । गर्ग, भारद्वाज, आंगिरस आदि । वैदिक साहित्य में गौतम नाम कुल से भी सम्बद्ध रहा है और ऋषियों से भी। ऋग्वेद में गौतम के नाम से अनेक सूक्त मिलते हैं, जो गौतम राहूगण नामक ऋषि से सम्बद्ध हैं ।२६ वैसे गौतम नाम से अनेक ऋषि, धर्म सूत्रकार, न्याय शास्त्रकार, धर्म शास्त्रकार आदि व्यक्ति हो चुके हैं ३३. मगहा गोव्वरगामे.........."आवश्यक नियुक्ति गा. ६४३. ६५६ ३४. अभिधान राजेन्द्र कोश भा. ३ गौतम शब्द ३५. स्थानांग ७ ३६. ऋग्वेद १. ६२. १३. (वदिक कोश पृ० १३४) Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रभूति गौतम अरुणउद्दालक, आरुणि आदि ऋषियों का भी पैतृक नाम गौतम था। यह कहना कठिन है कि इन्द्रभूति गौतम का गोत्र क्या था, वे किस ऋषि गंश से सम्बद्ध थे ? पर इतना तो स्पष्ट है कि गौतम गोत्र के महान गौरव के अनुरूप ही उनका व्यक्तित्व बहुत विराट् एवं प्रभावशाली था । दूर-दूर तक उनकी विद्वत्ता की धाक थी। पांच सौ छात्र उनके पास अध्ययन करने के लिए रहते थे। उनके व्यापक प्रभाव के कारण ही सोमिलार्य ने इस महायज्ञ का धार्मिक नेतृत्व इन्द्रभूति के हाथ में सौंप दिया था। विभिन्न जनपदों से हजारों विद्वान, ब्रह्म कुमार उस महायज्ञ में भाग लेने आए थे। मगध जनपद के हजारों नागरिक दूर-दूर से इस यज्ञ की ख्याति सुनकर देखने को उपस्थित हुए थे। पावापुरी में भगवान महावीर भगवान महावीर केवल ज्ञान प्राप्त कर जब पावापुरी में पधारे तो हजारों नरनारी उनकी धर्म देशना सुनने को उमड़ पड़े । देवताओं ने समवशरण की रचना की । आकाश में भगवान महावीर को जयजयकार करते हुए असंख्य देव, विमानों से पुष्प वर्षाते हुए समवशरण की ओर आने लगे। निराशा और जिज्ञासा यज्ञवाटिका में बैठे हुए विद्वानों ने आकाशमार्ग से आते हुए देवगण को देखा तो रोमांचित होकर कहने लगे "देखिए, यज्ञ माहात्म्य से आकृष्ट होकर आहुति लेने के लिए देवगण भी आ रहे हैं।" हजारों लाखों आँखें आकाश की ओर टकटको लगाए देखती रहीं। पर जब देव विमान यज्ञ मण्डप के ऊपर से सीधे ही आगे निकल गये तो एक भारी निराशा से सबकी आँखें नीचे झुक गयीं, मुख मलिन हो गये; और आश्चर्य के साथ सोचने लगे-"यह क्या है ? क्या देवगण भी किसी की माया में फँसगए हैं ? या भ्रम में पड़ गए हैं ? यज्ञमण्डप को छोड़कर कहाँ जा रहे हैं ?" इन्द्रभूति ने देखा-यह तो उनके साथ मजाक हो रहा है। देवविमानों को देखकर उन्होंने ही तो यज्ञ की महिमा से मण्डप को गुंजाया था और अब उन्हीं के अहंकार ३७. भारतवर्षीय प्राचीन चरित्र कोश पृ० १९३-१९५ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांस्कृतिक अवलोकन पर चोट करते हुए ये विमान सीधे आगे निकल गये। आर्य सौमिल से पूछा-'आर्य, आज पावापुरी में कौन आया है ? आर्य सोमिल-"आपने नहीं सुना ?" इन्द्रभूति-'नहीं।' सोमिल-क्षत्रिय कुमार वर्धमान । लगभग तेरह वर्ष पूर्व इन्होंने गृह त्यागकर प्रवज्या ग्रहण की थी। राजकुमार अवस्था में ही ये वर्णाश्रम, एवं यज्ञविरोधी विचारों को प्रोत्साहित करने में अग्रणी रहे हैं । अनेक राजन्यों एवं शासकों को इन्होंने अपने प्रभाव में लिया है । और अब तपस्या के द्वारा सिद्धि प्राप्त कर पावापुरी में आकर अपने सिद्धान्तों के प्रचार-प्रसार में यह विशाल आडम्बर कर रहे हैं । असंख्य देवताओं को भी उन्होंने अपने वश में कर लिया है। इन्द्रभूति—अच्छा ! वेद विरोध ! वर्णाश्रम विरोध ! यज्ञ निषेध ! और इसके लिए इतना संगठित व बलशाली-आन्दोलन । अच्छा, देखता हूँ मैं क्या शक्ति है वर्धमान में ! जो हमारे विरोध के समक्ष डट सके । आर्य सोमिल ! लगता है वर्धमान ने कुछ तपस्या करके ऐन्द्रजालिक सिद्धियाँ प्राप्त की हैं । जनता को भ्रम एवं मायाजाल में डाल रहा है । पर यह अन्धकार कब तक ? जब तक इन्द्रभूति के आजस्व-वर्चस्व का प्रभाव पूर्ण सहस्रांशु वहाँ पहुँच न जाय । सोमिल-हाँ, सत्य है आर्य ! श्रमण वर्धमान की उठती हुई शक्ति का प्रतिरोध करना ही होगा। नदी के बहाव को प्रारम्भ में ही मोड़ देना चाहिए अन्यथा वह बल पकड़ लेता है । श्रमण वर्धमान के पीछे अनेक क्षत्रिय शासकों का पृष्ठ बल है। वैशाली गणराज्य के अध्यक्ष चेटक जो प्रारम्भ से ही हमारी वैदिक परम्परा के विरोधी रहे हैं, वर्धमान के मातुल है । मगध, वैशाली, कपिलवस्तु आदि अनेक जन पदों में वेद विरोधी विचारों का तूफान उठ रहा है ।३८ और इधर श्रमण वर्धमान भी केवल्य प्राप्त करके पावा में आ चुके हैं। सहस्रों देवगण भी इनके उपदेश सुनने ३८. भगवान महावीर के लगभग १० वर्ष पश्चात् बुद्ध ने बोधिलाभ प्राप्त किया। जब भगवान महावीर को कैवल्य हुआ तब बुद्ध को तपस्या करते हुए ३ वर्ष हो चुके थे। बुद्ध के गृह त्याग की मगध में काफी हलचल थी :--देखिए आगम और त्रिपिटक: एक अनुशीलन-पृ० ११७ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रभूति गौतम सभा की ओर दौड़े जा रहे हैं । विद्ववर्य ! जिस स्थिति पर विचार करने के लिए हमने इस महायज्ञ का आयोजन किया था उस स्थिति की उग्रता आज हमारे समक्ष स्पष्ट हो रही है । और हमारे इस आयोजन को प्रभावहीन करने के लिए ही श्रमण वर्धमान पावापुरी में आकर विराट् धर्म सभा कर रहे हैं। इन्द्रभूति :-आर्य सोमिल ! हम इस बढ़ती हुई धर्म विरोधी भावना का प्रतिरोध करेंगे । जब तक इन्द्रभूति जैसा विद्वान् आपके समक्ष विद्यमान है इस आयोजन को कोई प्रभावहीन नहीं कर सकता। मैं स्वयं वर्धमान से शास्त्रार्थ करूंगा, उन्हें पराजित करके अपना शिष्य बनाऊँगा और देखते ही देखते वैदिक धर्म की वैजयन्ती आकाश मण्डप को चूमने लगेगी। इन्द्रभूति के कथन पर आर्य सोमिल के साथ हजारों विद्वानों, छात्रों एवं जनता ने—“अखण्ड भूमण्डल वादि-चक्रवर्ती आर्य इन्द्रभूति की जय" नाद से यज्ञमण्डप को गुजा दिया। इन्द्रभूति का मन अहंकार व धर्मोन्माद से मचल उठा था। वे श्रमण वर्धमान को पराजित करने के लिए जनता के समक्ष कृतसंकल्प हुए। समवशरण की ओर इन्द्रभूति का पांडित्य अद्वितीय था, वेद एवं उपनिषद् का ज्ञान उनकी चेतना के कणकण में छाया हुआ था। समस्त दर्शन, न्याय, तर्क, ज्योतिष, आयुर्वेद आदि की सूक्ष्मतम गुत्थियाँ सुलझाना उनके बाएं हाथ का खेल था। ज्ञान के साथ जिज्ञासा वृत्ति उनकी अपूर्व विशिष्टता थी । आर्यसोमिल की प्ररणा, विद्वानों की प्रशंसा एवं धर्मोन्माद के कारण वे श्रमण वर्धमान से वादविवाद करने चल पड़े । किन्तु इन सब बातों के साथ ही साथ एक गूढ़ प्रश्न, अनबूझ जिज्ञासा उनके मन को उद्वेलित कर रही थी और वही उनको खींच रही थी। श्रमण वर्धमान का प्रभाव और उनकी सर्वज्ञता की बात उन्होंने अपने कानों से सुनी, असंख्य-असंख्य देव विमानों को उनकी धर्मसभा में जाते आँखों से देखा, तो उनकी विद्वत्ता का अहंकार भीतर ही भीतर सिहर उठा । उनका मन श्रमण वर्धमान के प्रति खिचने लगा। एक-विचित्र आकर्षण उनके मन में जगा । अनुभव हुआ—जैसे उनका अंतरंग श्रमण वर्धमान की ओर खिंचा जा रहा है । जो समाधान आज तक नहीं मिला, वह वहाँ मिल सकता है। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांस्कृतिक अवलोकन २१. जो प्रश्न आज तक अनछूए रहे, उनका निराकरण वहाँ हो सकता है । इन्द्रभूति का मन भीतर-ही-भीतर आन्दोलित होने लगा और वे अपने पाँच सौ शिष्यों के साथ यज्ञ विधि को सम्पन्न करने से पूर्व ही भगवान महावीर के समवरशण महसेन वन की ओर बढ़ गये ।३९ ३९. दिगम्बर आचार्य गुणचन्द्र के मंतव्यानुसार इन्द्रभूति गौतम भगवान महावीर के समवशरण में स्वतः प्ररित होकर नहीं, किन्तु सौधर्मेन्द्र के द्वारा कि "तुम वहाँ जाकर अपने संशय का निराकरण करो" इस प्रकार प्ररणा करके लाये जाते हैं"दृष्ट्वाकेनाप्युपायेन समानीयान्तिकं विभोः," -महा० उत्तर ४७१३५९ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : २ । भारतीय चिन्तन की पृष्ठभूमि इन्द्रभूति का संशय. जटिल प्रश्न. विविध मत. देहात्मवाद. इन्द्रियात्म वाद. मनोमय प्रात्मा. प्रज्ञानात्मा. चिदात्मा. इन्द्रभूति की बेचैनी. Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय चिन्तन की पृष्ठभूमि इन्द्रभूति का संशय इन्द्रभूति गौतम अपने युग के, अपनी परंपरा के एक समर्थ एवं प्रभावशाली विद्वान थे। श्रमण भगवान महावीर की ख्याति, देवकृत अतिशय एवं सर्वज्ञता की बात उनके हृदय को अज्ञात रूप से उनके प्रति आकृष्ट करने लगी थी। उनकी अन्तश्चेतना में प्रबल जिज्ञासा थी, किसी भी विषय को, नवीन तथ्य को समझने-परखने के लिए वे सदा उत्सुक रहते यह उनका सहज स्वभाव था, जो आगमों में स्थान-स्थान पर आए उनके प्रश्नों से ध्वनित होता है। प्रत्यक्ष रूप में भले ही वे अपनी परम्परा के प्रतिरोधी श्रमण भगवान महावीर की ओर वाद विवाद की भावना लेकर बढ़े हों, उन्हें पराजित कर अपनी विद्वत्ता एवं प्रभाव का डंका चारों ओर बजाने की भावना उनमें रही हों, किन्तु आगे की घटना स्पष्ट कर देती है कि उनके भीतर जीवित ज्ञान चेतना थी, सत्य की प्रबल जिज्ञासा थी, जो जीर्ण-शीर्ण परम्परा के मोह को, क्षण भर में नष्ट करके ज्ञान का विमल आलोक प्राप्त कर धन्य हो गई। प्राचीन आगम ग्रन्थों एवं कल्पसूत्र तक में इस बात का कोई वर्णन नहीं है कि इन्द्रभूति जैसे विद्वान भगवान महावीर के पास किस कारण से आए, कैसे प्रबुद्ध होकर प्रवजित हो गए ? सर्वप्रथम आवश्यकनियुक्ति में आचार्य भद्रबाहु ने एक Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रभूति गौतम गाथा में गणधरों के मन की शंकाओं का उल्लेख किया है। जिनका समाधान भगवान महावीर ने किया, और वे अपने-अपने शिष्य परिवार के साथ प्रवजित हुए। संभवतः यह उल्लेख ही वह पहली कड़ी है जो गणधरों एवं महावीर के संवाद को दार्शनिक भूमिका से जोड़ती है । जटिल प्रश्न तत्कालीन विचार सूत्रों का परिशीलन करने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि उस युग में आध्यात्मिक एवं दार्शनिक विचार क्षेत्र में बहुत बड़ी उथल-पुथल छाई हुई थी । सैकड़ों विचारक, सैकड़ों विचारधारायें और सब अपनी अपनी विचारधारा को ही सत्य सिद्ध करने का प्रयत्न कर रहे थे। जिधर जाओ, उधर विचारों का एक कोलाहल छाया हुआ था, सामान्य श्रद्धालु ही नहीं, किन्तु बड़े से बड़ा विद्वान भी उस स्थिति में यह निर्णय नहीं कर पाता कि क्या सत्य है, क्या असत्य है ? आत्मा एवं ब्रह्म का एक ऐसा जटिल विषय था जिसको एक ओर एकान्त जड़ एवं अस्तित्वहीन सिद्ध किया जाता था तो दूसरी ओर एकांत चैतन्य एवं अद्वत सत्ता के रूप में स्वीकार किया जा रहा था। वेद एवं उपनिषद साहित्य में इस प्रकार के सैकड़ों विरोधी विचार सामने आने के कारण ही संभव है इन्द्रभूति जैसे दिग्गज विद्वान भी आत्मा के सम्बन्ध में भीतर ही भीतर संशयाकुल रहे हों, और जब भगवान महावीर द्वारा उनके संशय का समाधान हुआ तो उनका लगा हो, मन का कांटा निकल गया, हृदय सरल एवं सही स्थिति का अनुभव करने लगा है और इस कृतज्ञता में वे भगवान के पास प्रवजित हो गये हो। इन्द्रभूति गौतम के मन में संशय था, जीव है या नही ! इस प्रश्न का भगवान महावीर ने तर्क शुद्ध समाधान किया और इन्द्रभूति भगवान के शिष्य बन गये। इन्द्रभूति के इस संशय की पृष्ठभूमि क्या थी इसे समझने के लिए हमें भारतीय दर्शन में आत्मविचारणा की पृष्ठभूमि को समझना आवश्यक है, उसी पृष्ठ भूमि पर हम भगवान महावीर के ताकिक समाधान का सही महत्व समझ पायेंगे। १. जीवे 'कम्मे तज्जीव 'भूय 'तारिसय ६बंध मोक्खे य, "देवा “ोरइय या पुण्णे १०परलोय "व्वाणे । -आवश्यक नि० ५९६ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय चिन्तन की पृष्ठभूमि २७ . विविध मत सूत्र कृतांग में आत्मा के सम्बन्ध में विविध विचारधाराओं का दिग्दर्शन कराया गया है । कुछ दार्शनिक इस जगत के मूल में पाँच महाभूतों की सत्ता मानते थे। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश के संमिलन से ही आत्मा नामक तत्व की निष्पत्ति होती है ।' पालि ग्रन्थों में भी इसी प्रकार के दार्शनिकों का उल्लेख है जो चार तत्वों से आत्मा की चेतना की उत्पत्ति मानते थे। आचारांग सूत्र में आत्मा के लिए भूत, प्राण, सत्व' आदि शब्दों का प्रयोग भी आत्म सम्बन्धी इस विचारणा की एक अस्पष्ट उत्क्रांति की सूचना देते हैं। ऋग्वेद में एक ऋषि की पुकार है—जो आत्मा के सम्बन्ध में विचार करते-करते विचारों की भूलभूलैया में खो जाता है और फिर पुकार उठता है-"मैं कौन हूँ, यह भी मुझे मालूम नहीं।'६ कहीं सत् को, कहीं असत् को इस जगत का मूल माना गया, और फिर संशय हुआ तो चिंतक कह उठा---'वह न असत् था न सत्' वह क्या है यह कहना कठिन है । दार्शनिक चिन्तन की इस उलझन में कभी पुरुष को, कभी प्रकृति को, कभी आत्मा को, कभी प्राण को, कभी मन को आत्मा के रूप में देखा गया फिर भी चिंतन को समाधान नहीं मिला और वह निरंतर आत्म-विचारणा में आगे से आगे बढ़ता रहा। देह-आत्मवाद अपने भीतर जो विज्ञान एवं चेतनामय स्फूति का अनुभव होता है, वह क्या है ? यह अनुभूति यह संवेदन जो समस्त देह में व्याप्त है और अन्य जड़ पदार्थों २. सूत्रकृतांग १-१-१-७ से ८ ३. संति पंच महन्भूया इहमगेसिमाहिया । पुढवी आउ तेऊ वा वाउ आगास पंचमा । -सूत्र १-१-१-७ ४. ब्रह्म जालसुत्त ५. (क) आचारांग १।१।२।१५ (ख) भगवती १।१० ६. न वा जानामि यदिव इदमस्मि ।-ऋग्वेद १. १६४.३७ ७. ऋग्वेद १०।१२९ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ इन्द्रभूति गौतम से अपने को भिन्न अनुभव कराती है वह आखिर क्या है ? यह प्रश्न अनादि काल से बुद्धि को झकझोरता रहा है । ___छांदोग्य उपनिषद में एक कहानी आती है कि "एक बार असुरों का स्वामी वैरोचन और सुरों (देवों) का स्वामी इन्द्र, प्रजापति के पास आत्मज्ञान लेने को गये । प्रजापति ने उन्हें पानी के एक कुड में अपना प्रतिबिम्ब दिखला कर कहा'इस जल में क्या दीख रहा है ?' उत्तर में उन्होंने कहा--'इस जल कुड में हमारा नख-शिख प्रतिबिम्ब दिखाई दे रहा है ।' प्रजापति ने कहा-“जिसे तुम देख रहे हो वही आत्मा है ।" इस उत्तर से वैरोचन ने यह जाना 'देह' यही आत्मा है और असुरों में इस 'देहात्मवाद' का उसने प्रचार किया। इन्द्र को इस उत्तर से सन्तोष नहीं हुआ। तैत्तिरीय उपनिषद में भी इसी प्रकार का एक विचार मिलता है, अन्न से पुरुष उत्पन्न होता है, अन्न से ही उसकी वृद्धि होती है और अन्न में ही वह लय हो जाता है, अतः पुरुष अन्नरस मय ही है-पुरुषोऽन्न रसमयः । उपरोक्त विचार को ही जैन एवं बौद्ध ग्रन्थों में-'तज्जीव तच्छरीरवाद' कहा गया है ।१० द्वितीय गणधर अग्निभूति को इसी विषय में संदेह था । बौद्ध ग्रन्थ पायासी सुत्त एवं जैनआगम रायपसेणीसूत्र में जिस नास्तिक राजा पायासी, पएसी का उल्लेख आता है वह इसी 'तज्जीव तच्छरीरवाद' देहात्मवाद का प्रबल समर्थक था । उसने अनेक तर्क एवं परीक्षाओं के आधार पर देह एवं आत्मा का ऐक्य सिद्ध करने का प्रयत्न किया था। प्रदेशी का दोदा भी इस विचार धारा का कट्टर समर्थक था, ऐसा रायपसेणी सुत्त से विदित होता है । और इसी विचार का मूल तैत्तिरीय उपनिषद् एवं ऐतरेय आरण्यक में भी प्राप्त होता है । इन्द्रियात्मवाद देह को, भूत को ही आत्मा मानने से जिन चिंतकों को संतोष नहीं हुआ, उनका चिंतन आगे बढ़ा, और जब शारीरिक क्रियाओं का निरीक्षण करने लगे तो प्राण ८. छांदोग्य उपनिषद् ८।८ ९. तैत्तिरी० २।१।२० १०. सूत्रकृतांग १।१।१।११, ब्रह्मजाल सुत्त । ११. रायपसेणी सुत्त ६१–'मम अज्जए होत्था अधम्मिए' Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय चिन्तन की पृष्ठभूमि शक्ति पर उनका चिंतन टिका होगा, और प्राण को वे आत्मा मानने लगे होंगे, इसलिए उन्होंने जीवन की समस्त क्रियाओं का आधार प्राण को ही बताया ।१२ छांदोग्य उपनिषद् में कहा है- "विश्व में जो कुछ भूत समुदाय है, वह प्राण पर ही टिका हुआ है । बृहदारण्यक के एक वचन से यह भी स्पष्ट होता है कि-'मृत्यु इन्द्रिय शक्ति को नष्ट कर देता है, इसलिए सब इन्द्रियाँ मिलकर 'प्राण' रूप में प्रतिष्ठित हो गई ।' प्राणरूपमेव आत्मत्वेन प्रतिपन्ना :-१ अतः प्राण इन्द्रिय का सामष्टिक रूप माना गया और प्राण या इन्द्रिय को ही जीवन एवं जगत का आधार मानकर एक प्रकार का समाधान प्राप्त करने का प्रयत्न किया गया । जैन आगमों में भी इस बात का संकेत मिलता है कि इन्द्रियों को प्राण मानने की प्राचीन मान्यता चल रही थी और संभवतः उसी आधार पर दश प्राणों में इन्द्रियों को 'प्राण' संज्ञा से अभिहित किया गया। मनोमय-प्रात्मा आत्मा को भौतिक रूप में देखने वाले विचारक इस प्रकार विभिन्न दृष्टियों से एक चिंतन धुरी पर घूम रहे थे । कुछ आत्मा को देह रूप में मानते थे, कुछ इन्द्रिय एवं प्राण रूप में । किन्तु यह प्रश्न फिर भी अटका हुआ था कि यदि आत्मा इन्द्रिय रूप ही है, तो वह मन के सम्पर्क के विना ज्ञान क्यों नहीं कर सकती ? और इन्द्रियव्यापार के अभाव में भी चितन की प्रक्रिया को चालू रखने वाली कौनसी शक्ति है ? इसो प्रश्न ने दृष्टि को आगे बढ़ाया, देह एवं इन्द्रियों से परे-मन का अस्तित्व उभरा और दार्शनिकों ने उसे 'आत्मा' की संज्ञा दी। तैत्तिरीय उपनिषद् में कहा गया है--प्राणरूप आत्मा अन्नमय आत्मा का अन्तरात्मा है, और मनोमय आत्मा प्राणमय आत्मा का अन्तरात्मा है ।१६ यह बात दूसरी है कि बाद में मन के भौतिक १२. प्राणो हि भूतानामायु:-तैत्तिरीय उपनिषद् २।२।३ १३. प्राणो वा इदं सर्व भूतं यदिदं-छांदोग्य० ३।१५।४ १४. बृहदा० (शांकर भाष्य) १।५।२१ पृ० ३७० १५. (क) भगवती सूत्र ५११ (ख) ज्ञाताधर्म कथा २ १६. प्राणमयादन्योऽन्तरआत्मा मनोमयः । तैत्तिरीय २।३।१ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० इन्द्रभूति गौतम एवं अभौतिक स्वरूप के सम्बन्ध में न्याय-वैशेषिक आदि दार्शनिकों में काफी गहरा मतभेद खड़ा हो गया, " किन्तु उसके सूक्ष्म एवं सूक्ष्मतर रूप के कारण अधिकांश चितक उसे ही आत्मा मानते रहे हैं और इस संबंध में काफी पैने तर्क उपस्थित किये जाते रहे हैं । न्यायसूत्रकार ने एक तर्क दिया है कि 'जिन हेतुओं के द्वारा आत्मा को देह से भिन्न सिद्ध किया जाता है, वे समस्त हेतु आत्मा को मनोमय सिद्ध करते हैं । भिन्नभिन्न इन्द्रियों द्वारा अनुभूत ज्ञान का एकत्र संधान मन ही करता है, मन सर्व विषयक है, अत: वही आत्मा है । उससे भिन्न अन्य 'आत्मा' नामक तत्व मानने की आवश्यकता ही नहीं हैं । " संभवतः इस विचारधारा का प्रभाव उपनिषद् काल के प्रारम्भ में अधिक रहा हो और उस प्रभाव के कारण अनेक ऋषियों ने मन की महिमा गाकर उसे ही ब्रह्म एवं आत्मा का रूप दे दिया हो । " मन को आत्मा रूप में स्वीकार कर लेने पर भी दार्शनिकों को इस प्रश्न से मुक्ति नहीं मिली कि इन्द्रिय एवं मन दोनों ही भौतिक हैं, अतः इनका संचालन करने वाला कोई अभौतिक तत्व अवश्य होना चाहिए । उस अभौतिक तत्व की खोज में कुछ दार्शनिकों ने आगे छलांग लगाई और वे मन से प्रज्ञा तक पहुँचे और 'प्रज्ञान' को 'आत्मा' के नाम से जानने लगे । 'प्रज्ञान आत्मा' के स्वरूप को जानने का उपदेश दिया जाने लगा । 'प्रज्ञा' को आत्मा स्वीकार करनेवाले दार्शनिक भौतिक से अभौतिक स्वरूप की ओर अवश्य आगे बढ़े, पर फिर भी उनके चिंतनशील मस्तिष्क शांत नहीं रह सके । एक प्रश्न बार-बार उन्हें उद्वेलित कर रहा था । ज्ञान का एक रूप वस्तुविज्ञप्ति रूप है, तो दूसरा अनुभव संवेदन रूप है । प्रज्ञा तो आत्मा का एक पहलू है, वेदन है, संवेदन के विना वह अधूरा है । ज्ञान के पश्चात् भोग होता है, भोग अनुकूल १७. १८. १९. (क) न्यायसूत्र ३/२/६१ (ख) वैशषिक सूत्र ७।१।२३ न्यायसूत्र ३।१।१६ (क) मनो वै ब्रह्मति - वृहदा० ४|१|६ (ख) मनोह्यात्मा, मनो हि लोको, मनो हि ब्रह्म - छांदोग्य ० ७।३।१ २०. कौषीतकी उपनिषद् ३1८ प्रज्ञानात्मा Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय चिन्तन की पृष्ठभूमि भी होता है प्रतिकूल भी । अनुकूल भोग आत्मा को सुख रूप होता है और उसकी चरम स्थिति है आनंद ! 'प्रज्ञान' के साथ जब तक 'आनंद' की स्थिति नहीं है तब तक आत्म विचारणा अपूर्ण है, यह भी एक विचार उठा और कुछ दार्शनिक आत्मा को ‘आनंद रूप' मानने लगे । आनन्द आत्मा आनंद ही ब्रह्म है, वही आत्मा है, वही परमात्मा है । इस विचार ने धीरे-धीरे दर्शन को जो सिर्फ बौद्धिक व्यायाम तक ही सीमित था, धर्म, अर्थात् आत्मिक परितृप्ति की ओर उन्मुख किया, यह भी माना जा सकता है । २३ चिदात्मा आनन्द को आत्मा मानने वाले दार्शनिकों के समक्ष भी यह प्रश्न खड़ा ही रहा कि आनन्द की अनुभूति करने वाला तत्व 'आनन्द' से भिन्न होना चाहिए । 'आनन्द का अन्तरात्मा क्या है' इस प्रश्न पर जब चिंतन धारा बढ़ी तो सम्भव है कुछ दार्शनिकों ने कहा-दह, इन्द्रिय, प्राण, मन, प्रज्ञान तथा आनन्द से भी जो परे है, वह आत्मा है। इस विचार ने आत्मा को 'चिद्' रूप में उपस्थित किया। जो चैतन्य है, जो ब्रह्म है, वही आत्मा है-सर्वं हि एतद् ब्रह्म, अयमात्मा ब्रह्म५-- इस ब्रह्म को ही चेतन पुरुष मानागया। वह स्वयं ज्योति स्वरूप, द्रष्टा विज्ञाता है। उसे किसी अन्य की अपेक्षा नहीं ।२६ इस प्रकार आत्मा सम्बन्धी विचारणा में भारतीय चितन में एक विचित्रता, बहविधमान्यता एवं पूर्वापरविरोधी विचारों का ऐसा वातावरण छाया हुआ था कि किसी भी निश्चय पर पहुंच पाना बहुत कठिन था । एक ओर आत्मा को भूतात्मक मान कर नितांत भौतिक एवं देह से अभिन्न सिद्ध करने वाले दार्शनिक अपनी विचार धारा के प्रचार-प्रसार एवं खण्डन-मण्डन में संलग्न थे, तो दूसरी ओर कुछ प्राणात्मक इन्द्रियात्मक, मनोमय, ज्ञानात्मक, आनन्दात्मक आदि रूपों पर ही विशेष बल देते २१. आनन्द आत्मा-तैत्तिरीय २०५१ २२. Nature of Consiousness in Hindu Philosohpy-P२० २४. तैत्तिरीय उपनिषद् २।६ २५. मांडुक्य उपनिषद् २ | २६. वृहदारण्यक० ३।४।१२ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रभूति गौतम थे। इस चितन का अंतिम स्वर था आत्मा की ब्रह्म रूप चिदात्मक स्थिति । एक ओर अद्व तजडात्मा और दूसरी ओर अद्वतचेतनात्मा-इन दो ध्रवों के बीच में निग्रन्थ विचारधारा एक सामंजस्य उपस्थित कर रही थी। उसने जड़ एवं चेतन दोनों को मौलिक तत्व माना । आत्मा को चेतन माना, पुद्गल को अचेतन ! पुद्गलकर्म आदि से संपृक्त अवस्था में चेतन मूर्त है, तथा कर्म मुक्त अवस्था में ज्ञानादि गुणों से युक्त अमूर्त ! ___इन्द्रभूति की बेचैनी __ आत्म विचारणा की इस विषम स्थिति में इन्द्रभूति जैसे विद्वान की प्रज्ञा भी किसी निर्णय पर नहीं पहुंच पा रही थी और इसी कारण कभी-कभी मन में यह प्रश्न मूल से ही अटक जाता कि-जिस आत्मा के संबंध में इतनी अटकलें लगाई जा रही हैं, वह वस्तुतः क्या है ? और कुछ है भी या नहीं ? यदि कुछ है, तो आज तक उस संबंध में किसी ने तर्कसंगत समाधान क्यों नहीं प्राप्त किया । जिस प्रकार सामान्य व्यापारी को अपने हिसाब-किताब की एक छोटी-सी भूल भी चैन नहीं लेने देती, उसी प्रकार विद्वान् के मन को जब तक उसका संशय निमूल न हो जाये शान्ति प्राप्त नहीं हो सकती, अपनी संपूर्ण विद्वत्ता पर एक चोट सी प्रतीत होती है, और वह विद्वान के लिए किसी भी प्रकार सह्य नहीं होती। इन्द्रभूति ने संभवतः अपने युग के बड़े-बड़े मनीषियों, विद्वानों और तर्कशास्त्रियों से वाद विवाद भी किया होगा। उनसे अपने संशय का समाधान भी चाहा होगा, पर कहीं से भी वह उत्तर नहीं मिला, जिसे प्राप्त करने को उनकी आत्मा तड़प रही थीं। वे किसी भी मूल्य पर अपनी शंका का समाधान पाना चाहते थे और आज जब श्रमण महावीर की अलौकिक महिमा, उनकी सर्वज्ञता का संवाद, देव गण द्वारा पूजा अर्चा का यह समारोह देखा तो विजिगीषा के साथ एक प्रबल जिज्ञासा भी अवश्य उठी होगी। वे या तो वाद विवाद करके महावीर को वेदानुयायी बना लेना चाहते होंगे या फिर अपनी शंका का समाधान पाकर उनका शिष्यत्व स्वीकार करने का संकल्प ले चुके हों। इस प्रकार को कुछ भावनाओं ने इन्द्रभूति को भगवान महावीर के समवशरण की ओर आगे बढ़ाया। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : ३ प्रात्म-विचारणा पूर्वाग्रह टूट गए. संशय का उद्घाटन आत्मा प्रत्यक्षादि प्रमाणों से प्रसिद्ध आगम प्रमाण से भी सिद्ध नहीं. आत्मा का प्रत्यक्ष अनुभव. अहंप्रत्यय. गुरण-गुरगीभाव. जीव की अनेकता. वेद पदों की संगति. जीव का नित्यानित्यत्व. प्रव्रज्या. तीर्थ प्रवर्तन. Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म-विचारणा पूर्वाग्रह टूट गए इन्द्रभूति गौतम जब तीर्थकर महावीर की धर्मसभा में पहुंचे तो उनकी मनःस्थिति क्या रही होगी यह कहना कठिन है । महावीर के प्रति उनकी धारणाएं बहुत भिन्न थी। महावीर एक राजकुमार थे । बयालीस वर्ष के तेजस्वी युवक थे । इस तूफानी यौवन में जिसप्रकार विजय एवं राज्यविस्तार का उल्लास क्षत्रियों का सहज मनोवेग माना जाता था उसीप्रकार इस युग में अध्यात्म एवं तत्वज्ञान की चर्चा तथा गृहत्याग एवं सन्यास भी क्षत्रियकुमारों का एक रुचिकर विषय बन रहा था। अनेक क्षत्रियकुमार युवावस्था में ही गृहत्याग कर सन्यास की ओर बढ़ रहे थे और अध्यात्मविद्या में ब्रह्मा ऋषियों से भी दो कदम आगे जा रहे थे। वैदिक परम्परा में गृहस्थ-ऋषि की परम्परा का प्राधान्य था, किन्तु क्षत्रियकुमारों ने इस परम्परा में नई क्रांति पैदा की। उन्होंने गहत्याग कर सन्यास-प्रव्रज्या ग्रहण की और वह भी जीवन के चतुर्थ आश्रम में नहीं, किन्तु द्वितीय आश्रम में ही। इस आध्यात्मिक उत्क्रांति से ब्राह्मणों से क्षत्रियों की आध्यात्मिक श्रेष्ठता एवं तेजस्विता का प्रभाव चारों ओर फेल चुका था और इन्द्रभूति गौतम पर भी वह प्रभाव किसी १. इस संबंध में देखिए दीघनिकाय में तथागत का कथन--"तथागत बुद्ध ने कहा "वाशिष्ठ ब्रह्मा सनत्कुमार ने भी गाथा कही है-गोत्र लेकर चलने वाले जनों Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ इन्द्रभूति गौतम रूप में पड़ चुका था । इन्द्रभूति आयु में महावीर से ज्येष्ठ थे । महावीर लगभग बयालीस वर्ष के थे' जब कि इन्द्रभूति पचास को पार कर रहे थे । अध्यात्मज्ञान में भी वे महावीर से अपने को श्रेष्ठ समझ रहे होंगे । ब्रह्मत्व का गौरव जो कि अहंकार का ही एक पर्याय था, उन्हें अपने को भारत का एक महानतम विद्वान, गुरु एवं प्रभावशाली याज्ञिक तथा धर्मयोद्धा के रूप में देख रहा था, और महावीर को एक नवोदित तत्वज्ञानी, अधिक से अधिक नौसिखिया धार्मिक मल्ल से अधिक नहीं मान रहा होगा । इसलिए वाद विवाद में महावीर को चुटकियों में पराजित करने का मनोवेग उनके भीतर मचल रहा होगा । किन्तु जब वे महसेन वन के निकट पहुंचे, महावीर के समवसरण की अलौकिक छटा देखी, असंख्य असंख्य देवताओं को उनके चरणों में भक्तिपूर्वक वंदन करते देखा, उनकी दिव्य ध्वनि का मनोहारि घोष सुना । तो उनकी पूर्व धारणाएं निरस्त हो गईं। अभिमान, अहंकार तथा मात्सर्य की भावनाओं का मालिन्य धुल गया । महावीर के प्रति उनके मन में एक आकर्षण का भाव जगा, श्रद्धा की हिलोरें उठने लगी, और मन करने लगा जैसे अभी इनके चरणों में सिर झुका कर समर्पित हो जायें । इन्द्रभूति समझ नहीं पा रहे थे २. ३. ४. में क्षत्रिय श्रेष्ठ है । जो विद्या एवं आचरण से युक्त है, वह देव मनुष्यों में श्र ेष्ठ है ।" मैं इसका अनुमोदन करता हूँ ।" दीर्घनिकाय ३|४| पृ० २४५ | बृहदारण्यक उपनिषद् में भी इस विचार की प्रतिध्वनि मिलती है - "क्षत्रिय से उत्कृष्ट कोई नहीं है । उसी से राजसूय यज्ञ में ब्राह्मण नीचे बैठ कर क्षत्रिय की उपासना करता है । वह क्षत्रिय में ही अपने यश को स्थापित करता है ।" - बृहदारण्यक १|४|११, पृ० २८६ (क) कल्पसूत्र सूत्र ११६, (ख) आचारांग २ आवश्यक नियुक्ति गाथा ६५० भगवान महावीर की प्रथम देशना (वेसे द्वितीय) एवं तीर्थ प्रवर्तन पावापुरी महसेन वन में हुआ इस मान्यता के साथ दिगम्बर परम्परा मत भेद रखती है । कषायपाहुड की टीका ( पृ०७३ ) के अनुसार भगवान महावीर एवं गणधरों का वार्तालाप एवं तीर्थप्रवर्तन राजगृह के विपुलाचल पर्वत पर हुआ । यद्यपि केवलज्ञान वैशाख शुक्ल दशमी को ऋजु वालुका नदी के किनारे हुआ इस बात का समर्थन वहाँ भी मिलता है— वैशाखे मासि सज्योत्स्न दशम्यामपराह्न के - महापुराणे उत्तर पुराण ७४ । ३५० Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म-विचारणा कि उनके मन पर क्या हो रहा है ? क्या महावीर की माया उनके मन को भी व्यामोहित कर रही है ? इन असंख्य देवताओं एवं अगणित मनुष्यों को महावीर ने जडवत् स्तंभित कर रखा है ? यह क्या चमत्कार है ? क्या माया है ? और कैसे इन सब के मनोभाव जानकर उनका समाधान कर रहे हैं ? क्या वस्तुतः ही ये सर्वज्ञ है ? सब के मन की बातें जान सकते हैं ? क्या मेरे मन की हलचल भी ये जान पायेंगे ? और अब तक जो मेरे मन में एक संशय उठता रहा है उसका समाधान भी ये कर सकते हैं ? इन्द्रभूति इन विचारों में खोये-खोये महावीर के निकट पहुँचे । तो एक धीर गंभीर स्वर उनके कानों से टकराया “इन्द्रभूति ! आखिर तुम मेरे निकट आ ही गये।" संशय का उद्घाटन इन्द्रभूति चौंके । महावीर मेरे नाम से भी परिचित हैं ? मुझे पहचानते भी है ? हाँ, आखिर कौन है इस मगध मंडल में जो इन्द्रभूति को न पहचाने ? इन्द्रभूति ने गोर से तीर्थंकर महावीर की अतिशय पूर्ण मुखमुद्रा की ओर देखा, मन हुआ कि विनय नहीं तो, सांस्कृतिक शिष्टाचार वश ही अभिवादन करूं, तभी भगवान महावीर ने कहा- "आयुष्मन् इन्द्रभूति ! इतने बड़े विद्वान होकर भी तुम अपने मन का समाधान नहीं पा सके ? सब शास्त्रों का आलोडन करके भी उनका नवनीत टटोलते ही रह गये ? अब तक तुम्हें अपने आत्मा के अस्तित्व के सम्बन्ध में भी संदेह है ?" तुम सोच रहे हो कि यदि जीव (आत्मा) नामक कोई तत्व हैं तो वह प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से सिद्ध क्यों नहीं हो सकता। जो प्रत्यक्ष सिद्ध नहीं, उसको अस्तित्व आकाशकुसुम की भाँति कभी भी संभव नहीं हो सकता ? क्या यह ठीक है ?" प्रात्मा : प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से प्रसिद्ध इन्द्रभूति महावीर के द्वारा गुप्त मनोभावों का उद्घाटन सुनते ही अचकचा गए । सच, महावीर सर्वज्ञ हैं ? नहीं तो कैसे ये मेरे गुप्ततम मनोभावों को यों ५. जीवे तुह संदेहो ?-विशेष० १५४९ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रभूति गौतम बतला सकते थे ? वे पहले क्षण ही महावीर के गूढ़तम प्रभाव में आ गये । फिर भी अपनी वाद विधि के अनुसार महावीर से प्रश्नोत्तर करने को प्रस्तुत हुए और बोले- "हाँ ! मैं आपकी वाणी की यथार्थता को मानता हूँ। जीव के अस्तित्व विषय में मुझे संदेह है, क्या आप जीव के अस्तित्व में विश्वास रखते हैं, और उसे तर्क, हेतु एवं प्रत्यक्षादि प्रमाण के द्वारा सिद्ध कर सकते हैं ? ६ मैं तो मानता हूँ वह् प्रत्यक्ष-सिद्ध नहीं है, जिस प्रकार घट-पट आदि पदार्थ प्रत्यक्ष में दिखलाई देते हैं, उस प्रकार आत्मा का दर्शन प्रत्यक्ष में नहीं हो सकता। और जो प्रत्यक्ष-सिद्ध नहीं, उस सम्बन्ध में अनुमान प्रमाण भी नहीं चल सकता। चूंकि अनुमान का भी हेतु (चिन्ह) प्रत्यक्ष-गम्य होना चाहिए। धुएँ को देखकर अग्नि का अनुमान किया जाता है, चूंकि धुआ जो कि अग्नि का अविनाभावि हेतु है, उसे हम प्रत्यक्ष में कभी अग्नि के साथ देख चुके होते हैं, इसलिए धुएँ को देखकर परोक्ष अग्नि को अनुमान द्वारा जाना जा सकता है, पर आत्मा का ऐसा कोई हेतु हमारे समक्ष नहीं है, जिसका आत्मा के साथ अविनाभाविसंबन्ध रहा हो और वह प्रत्यक्ष में कभी देखा गया हो । इसलिए आत्मा न प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध है और न परोक्ष-अनुमान से । आगम प्रमाण से भी सिद्ध नहीं __ अब रहा-आगम प्रमाण । आगम प्रमाण से भी आत्मा-जीव का अस्तित्त्व सिद्ध नहीं हो सकता । प्रथम तो आगम प्रमाण अनुमान प्रमाण का ही अंग है । फिर आगम प्रमाण स्वयं एक विवादास्पद विषय है । स्वर्ग नरक आदि अदृष्ट विषयों का प्रतिपादन करने वाले आगम के कर्ता आप्तपुरुष ने भी आत्मा का कभी प्रत्यक्ष दर्शन किया हो, यह सम्भव नहीं है । और फिर उनके प्रतिपादन में भी परस्पर विरोध है। कोई कहता है—यह संसार उतना ही है जितना इन्द्रियों द्वारा दिखलाई पड़ता है। अर्थात् आत्मा इन्द्रियों से दिखलाई नहीं पड़ता इसलिए आत्मा नामक कोई स्वतन्त्र तत्त्व नहीं है । भूत समुदाय से विज्ञानधन उत्पन्न होता है और भूतों के विलय के साथ ही वह नष्ट हो जाता है । परलोक नाम की कोई वस्तु भी नहीं है। इसके ६. अस्ति कि नास्ति वा जीवस्तत्स्वरूपं निरुप्यताम् । ---उत्तर पुराण-७४।३६१ ७. एतावानेव लोकोऽयं यावानिन्द्रिय गोचरः। --चार्वाक दर्शन (षड्दर्शन ८१) ८. विज्ञानघन एवतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानुविनश्यति न च प्रत्य संज्ञाऽस्ति । बृहदा० २।४।१२ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म-विचारणा विरोध में वेद एवं उपनिषद् के अनेक वचन आत्मा को अमुर्त, अकर्ता, निगुण, भोक्ता आदि विभिन्न रूपों में सिद्ध भी करते हैं-अतः आगम परस्पर विरोधी होने के कारण प्रामाण्य नहीं हो सकते । आत्मा का प्रत्यक्ष अनुभव महावीर-"आयुष्मन् इन्द्रभूति ! लगता है विचारों की विविधता एवं शास्त्र वचनों की गहराई के हार्द को न पकड़ पाने के कारण ही तुम अभी तक इस संशय से ग्रस्त रहे हो। तुम अपनी दृष्टि को स्वच्छ एवं पूर्वाग्रहों से मुक्त करो, आत्मा का प्रत्यक्ष अनुभव तुम्हें हो सकता है ।" इन्द्रभूति-(आश्चर्य के साथ) “आर्य ! क्या यह सम्भव है ! अप्रत्यक्ष अमूर्त आत्मा का मैं प्रत्यक्ष अनुभव कर सकता हूँ ?" महावीर-"अवश्य ! तुम ही क्या ? प्रत्येक प्राणी आत्मा का प्रत्यक्ष अनुभव कर सकता है, कर रहा है !" इन्द्रभूति की जिज्ञासा प्रबल हो उठी वे महावीर के और निकट आये एवं अत्यन्त आतुरता से बोले-वह कैसे ? महावीर-'जीव है या नहीं ? यह जो संशय है, वह तुम्हारी विज्ञान चेतना का ही एक रूप है । विज्ञान आत्मा का स्वरूप है ।१९ संशय रूप विज्ञान का तुम प्रत्यक्ष अनुभव कर रहे हो, और यही आत्मा का अनुभव है- अतः कहा जा सकता है कि तुम आत्मा का प्रत्यक्ष अनुभव कर रहे हो । जिस प्रकार शरीर का सुख-दुःख स्व-संविदित है, उसके लिए किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं, उसीप्रकार विज्ञान रूप आत्मा का संशय के रूप में तुम प्रत्यक्ष अनुभव कर रहे हो, तो फिर किसी प्रमाण की तुम्हें कोई अपेक्षा नहीं होनी चाहिए।" ९. (क) छांदोग्य उपनिषद् ८।१२।१ (ख) मैत्रायणी उपनिषद् ३।६।३६ १०. गोतम ! पच्चक्खो च्चियजीवो जं संसयातिविण्णाणं । पच्चक्खं च ण सज्झ जध सुह-दुक्खं सदेहमि। -गणधरवाद गाथा १५५४ ११. जीवो उवओग लक्खणो-उत्तराध्ययन Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० इन्द्रभूति गौतम अहंप्रत्यय इन्द्रभूति-"आर्य ! संशय विज्ञान रूप में आत्मा का प्रत्यक्षीभाव-वास्तव में युक्ति संगत है । मैं आपके वचन को मानता हूँ, किन्तु क्या संशय के अतिरिक्त किसी अन्य रूप में भी आत्मा का प्रत्यक्ष अनुभव हो सकता है ?" महावीर-"आयष्मन् ! मैंने किया है, मैं कर रहा हूँ, मैं करूंगा--इस प्रकार जो अपने कार्यों में आत्म-बोध की ध्वनि आती है, 'अहं' रूप ज्ञान अनुभव होता है क्या वह प्रत्यक्ष आत्मानुभव नहीं है ?१२ यदि जीव नहीं हैं, तो 'अहं'-प्रत्यय- (मैं का बोध) कौन कर सकता है और कैसे कर सकता है ? 'मैं हूँ या नहीं' इस प्रकार की शंका करने वाला कौन है ? तुम ने सोचा इस विषय पर ? युक्ति पूर्वक विचार करने पर 'अहंप्रत्यय' से तुम अपने आत्मा का प्रत्यक्ष अनुभव कर रहे हो ।१3 इन्द्रभूति-"आर्य ! 'अहं' का बोध जिस प्रकार 'आत्मा' का परिचायक माना जाता है, उसी प्रकार 'देह' का परिचायक भी माना जा सकता है।' महावीर—“इन्द्रभूति ! 'अहं' शब्द से यदि देह-बोध माना जाय तो फिर मृत शरीर में 'अहंप्रत्यय' होना चाहिए, पर वैसा तो नहीं होता ! अतः 'अहंप्रत्यय' का विषय देह नहीं, किन्तु आत्मा-चैतन्य ही हो सकता है । अतः जब 'अहंप्रत्यय' से तुम्हें आत्मबोध हो जाता है, फिर मैं हूँ या नहीं, इस संशय को कोई अवकाश नहीं रहता, बल्कि 'मैं हूँ यह आत्म-विश्वास की ध्वनि उठनी चाहिए।" १२ तुलना कीजिए सभी लोकों को आत्मा के अस्तित्व की प्रतीति है, 'मैं नहीं हूँ' ऐसी प्रतीति किसी को भी नहीं है, यदि अपना अस्तित्त्व अज्ञात हो तो 'मैं नहीं हूँ' ऐसी प्रतीति भी होनी चाहिए। –ब्रह्मसूत्र शांकर भाष्य १.१.१ न्यायमंजरी (पृ० ४२६) में अहंप्रत्यय को ही आत्मा का प्रत्यक्ष ज्ञान कहा गया है । न्यायवार्तिक (पृ० ३४१) में भी इसे प्रत्यक्ष ज्ञान की श्रेणी में लिया गया है। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म-विचारणा गुरण-गुरगी भाव इन्द्रभूति-."आर्य ! 'संशय रूप विज्ञान' देह में क्यों नहीं हो सकता ? जिस प्रकार आत्मा के साथ 'अहं बुद्धि' मानी गई है, वैसे ही शरीर के साथ भी तो 'अहं बुद्धि' है । शरीर जब तक प्राण को धारण करता है तब तक 'अहं बुद्धि' का आधार उसे ही माना जाय तो क्या आपत्ति है ?" महावीर-“इन्द्रभूति ! कोई भी गुण बिना गुणी के नहीं रह सकता। संशय स्वयं ज्ञान रूप है, ज्ञान आत्मा का गुण है । गुण विना गुणी के कैसे रहेगा ?" इन्द्रभूति-"क्या ज्ञान देह का गुण नहीं हो सकता ?" महावीर- “नहीं ! देह-जड़ है, मूर्त है, जबकि ज्ञान अमूर्त एवं बोध रूप है । गुण अनुरूप गुणी में ही रह सकता है। जैसा गुणी होगा, वैसा ही गुण होगा। यह नहीं कि गुणी अन्य हो, गुण अन्य । जड़ गुणी में चेतन गुण नहीं रह सकता । यद्यपि शरीर आत्मा का सहचारी होने से उपचार से उसे भी आत्मा कहा जा सकता है, किन्तु वस्तुतः शरीर एवं आत्मा के लक्षण परस्पर भिन्न हैं, शरीर घट की भाँति चाक्षुष (आँखों से दिखाई दिया जाने वाला) है, इसलिए जड़ है, आत्मा इन्द्रियों से ग्राह्य नहीं है, क्यों कि वह अमूर्त है।५ ज्ञान भी अमूर्त है, अतः वह भी इन्द्रियग्राह्य नहीं, किन्तु आत्मसंवेद्य है । अतः ज्ञान रूप गुण का आधार कोई होना चाहिए और वह ज्ञानमय आत्मा के अतिरिक्त अन्य कोई हो नहीं सकता । इन्द्रभूति ! यह सिद्धान्त तुम्हें प्रत्यक्ष अनुभव से भी सत्य प्रतीत होना चाहिए, प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से भी एवं मेरे आप्त वचन (सर्वज्ञ वचन) से भी तुम आत्मा के अस्तित्व पर विश्वास कर सकते हो ?" १४ भारतीय दर्शनों में इस विषय पर तीन प्रकार के मत प्राप्त होते हैं । पहला मत है न्याय-वैशेषिक दर्शन का । वे गुण-गुणी में भेद मानते हैं । दूसरा मत है सांख्य दर्शन का, वे गुण-गुणी में अभेद स्वीकार करते हैं। तीसरे मत में जैन एवं मीमांसक है। जैन दर्शन गुण-गुणी में कथंचित् भेद, कथंचित् अभेद (भेदा भेद) मानता है । मीमांसा दर्शन भी भेदाभेद की धारणा रखता है। १५ नो इन्दियग्गेज्झ अमुत्तभावा-उत्तरा० १४।१७ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ इन्द्रभूति गौतम इन्द्रभूति—'आर्य ! जीव के अस्तित्व के सम्बन्ध में आपके तर्क मुझे मान्य हो सकते हैं, फिर भी मैं यह कैसे विश्वास करूं कि आप सर्वज्ञ हैं ? और यदि हैं भी तो क्यों आप का वचन सत्य ही हो, असत्य भी हो सकता है ? महावीर-इन्द्रभूति ! तुम सर्वज्ञता में विश्वास करो; या न करो; पर, तुम जानते हो कि मैं तुम्हारे मन के समस्त संशयों का निवारण कर रहा हूँ, और फिर मुझे किसी प्रकार का भय, मोह एवं राग-द्वष नहीं है, कि जिस कारण मैं असत्य बोलू। मैंने अपने अन्तर दोषों का परिमार्जन किया है और आत्मा के सम्बन्ध में प्रत्यक्ष प्रतीति की है, अत: मैं तुम्हें कहता हूँ कि तुम तर्क एवं प्रमाण के साथ पेरे वचन पर भी विश्वास कर सकते हो, और फिर तुम्हारा आत्म-संवेदन तो सब से मुख्य प्रमाण है ही।" इन्द्रभूति को लगा-जैसे तीर्थंकर महावीर की वाणी से उनके समस्त संशय छिन्न हो रहे हैं, हृदय में ज्ञान का आलोक, जो अब तक एक पर्दे के पीछे छिपा हुआ था अब जैसे उभर रहा है, और उससे उद्भुत आलोक की छवि से मन-मस्तिष्क में शांत प्रकाश छा रहा है। जीव को अनेकता इन्द्रभूति ने भगवान महावीर से कहा-"आर्य ! आपने जिस चेतनालक्षण जीव की संसिद्धि की, उस जीव का रूप क्या है ? क्या वह अखंड व्यापक सत्ता है या भिन्न स्वरूप में हैं ? महावीर-“इन्द्रभूति ! जीव अनंत है और प्रत्येक जीव अपनी स्वतंत्र सत्ता है । सामान्यतः सिद्ध और संसारी जीव के दो भेद हैं । सिद्ध जीव कर्म मुक्त हैं अतः उनके स्वरूप में कोई भेद नहीं, संसारी जीव कर्म युक्त हैं, कर्मों के कारण उनमें भेद भी होता है । संसारी जीव के मूलतः दो भेद होते हैं—त्रस और स्थावर । इन्द्रभूति-वेद एवं उपनिषद् में जीव को ब्रह्म कहा गया है, और उसे एक अखंड रूप में माना है । संसार में जो भिन्न-भिन्न आत्माएं हैं, उनमें उसी ब्रह्म का रूप प्रतिबिम्बित होता है, जैसे कि जल में एक चन्द्रमा के विभिन्न प्रतिबिम्ब Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म-विचारणा १६. महावीर - इन्द्रभूति ! आकाश की भाँति जीव अखंड एवं एक नहीं हो सकता । ओकाश का एक ही लक्षण सर्वत्र दृष्टिगोचार होता है, जबकि जीव प्रतिपिंड में भिन्न है और उनके लक्षण भी परस्पर भिन्न हैं । सुखदुख, बंध मोक्ष प्रत्येक जीव का भिन्न है, यदि जीव एक है तो एक जीव सुखी होने पर सब जीव सुखी होने चाहिए। एक जीव को दु:ख अनुभव होने पर सब जीवों को दुःख का अनुभव होना चाहिए। एक का मोक्ष होने पर सब को मुक्ति हो जानी चाहिए। पर ऐसा कभी होता नहीं, प्रत्येक जीव का सुःख-दुःख भिन्न-भिन्न प्रतीत होता है, इसलिए यह तर्कसिद्ध बात है कि सब जीव परस्पर भिन्न हैं. चूँकि उनका लक्षण भिन्न भिन्न है ।" १७. झलकते हैं । १६ जिस प्रकार आकाश एक अखंड विशुद्ध एवं स्वच्छ हैं, किन्तु फिर भी जिसकी आँख रोगग्रस्त है ( तिमिररोगी) वह उसमें विभिन्न रंगों व दृश्यों की कल्पना करता है, उसी प्रकार एक ही विशुद्ध ब्रह्म अविद्या से कलुषित हृदय वालों को भिन्न-भिन्न रूपों में प्रतिभासित होता रहता है ।' इस प्रकार शास्त्र वचनों से तो जीव अखंड एवं सर्वव्यापक एक रूप सिद्ध होता है और आप उसके भेद एवं भेदान्तर की बात कर रहे हैं यह कैसे युक्तिसंगत है ?" १७ आकाश की भाँति सर्वगत्व तथा एकत्व की कल्पना जीव में करने पर सुख-दुख एवं बंध-मोक्ष की व्यवस्था ही गड़बड़ा जायेगी ।"" चूँकि एक एव हि भूतात्मा भूते-भूते प्रतिष्ठितः । एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत् ।। ४ ३ -- ब्रह्मबिन्दु उपनिषद् ११ यथा विशुद्धमाकाशं तिमिरोपप्लुतो जनः । संकीर्ण मिव मात्र भिभिन्नाभिरभिमन्यते ॥ तथेदममलं ब्रह्म निर्विकल्पमविद्यया । कलुषत्वमिवापन्नं भेदरूपं प्रकाशते ।। - बृहदारण्यक भाष्यवार्तिक ३, ४,४३-४४ १८. यहाँ पर यह स्पष्ट जान लेना चाहिए कि भारत के प्रायः सभी प्रमुख दर्शन - न्याय - वैशेषिक, सांख्य-योग, मीमांसक, बौद्ध तथा जैन आत्मा के अनेकत्व में विश्वास रखते हैं, जबकि शांकर वेदांत आत्मा को एक मानते हैं । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ इन्द्रभूति गौतम आकाश सर्वगत व्यापक है, इसलिये न उसमें कर्तृत्व है, न भोक्तृत्व ! कर्ता, भोक्ता एवं मंता ( मनन करने वाला) जीव एक दूसरे से स्वतंत्र होता है, उसका अपना अस्तित्व अप्रतिबद्ध होता है, वह अकेला पुण्य-पाप करता है और अकेला भोक्ता है, यदि वह व्यापक है, तो न तो अकेला कुछ कर सकता है, और न अकेला भोग सकता है । अतः जीव का अनेकत्व, अनन्त पना तथा असर्वगत्व - स्वतन्त्र रूप ( शरीरव्यापी न कि सर्वव्यापी) तर्क से भी सिद्ध है और वही बंध-मोक्ष, जन्म-मरण, कर्मफल भोक्तृत्व के सिद्धान्त का मूल आधार है ।" इन्द्रभूति - आर्य ! आपके युक्तिपूर्ण वचनों से जीव विषयक मेरा संदेह नष्ट हो रहा है । स्वयं मुझे इस विषय में प्रतीत हो रहा है कि 'जीव है ।' किन्तु फिर भी कभी - कभी वेद वाक्यों की विविधता मुझे पुनः सन्देह की ओर ढकेल देती है, जैसे कि - "विज्ञानघन एव एतेभ्यः " आदि कि यह विज्ञानघन १९. आत्मा को व्यापक मानने के संबंध में इन्द्रभूति के मन में जो ऊहापोह उपस्थित हुआ है उसका कारण औपनिषदिक चिंतन की विविधता है । उपनिषद् में कहीं आत्मा को देह प्रमाण माना है, तो कहीं अंगुष्ठ प्रमाण एवं कहीं सर्वव्यापक | कौषीतकी उपनिषद् ( ४-२० ) में आत्मा को देह प्रमाण बताते हुए कहा है- - ' जिस प्रकार तलवार म्यान में व्याप्त है, उसी प्रकार आत्मा (प्रज्ञात्मा) शरीर में नख एवं रोम तक व्याप्त है ।' बृहदारण्यक में उसे चावल या जो जितना बड़ा कहा है-यथा ब्राहिर्वा यवो वा- - (५।६।१) कठ उपनिषद् में (२।२।१२) एवं श्वेताश्वतरोपनिषद् ( ३।१३ ) - " अगुष्ठमात्रः पुरुषोऽन्तरात्मा सदा जनानां हृदये संनिविष्ट : " में अंगुष्ठ प्रमाण माना है । मुंडक आदि अनेक उपनिषदों में उसे व्यापक भी कहा गया है - ' तदपाणि पादं नित्यं विभुं सर्वगतं ' - ( व्यापकमाकाशवत् ) – मुण्डक० शांकर भाष्य १|१|६ | कोई ऋषि उसे 'अणोरणीयान् महतो महीयान्' (मैत्र्युप० ६ । ३८ | कठोप० १।२।२० । छांदोग्य ३ | १४ | ३ | मानकर उसका ध्यान करने की बात कहते हैं । इस प्रकार के विरोधी विचार-चिंतन के कारण आत्मा के संबंध में इन्द्रभूति भी कुछ निर्णय नहीं कर पाए हों यह इससे ध्वनित होता है । न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग, मीमांसक तथा शंकराचार्य आदि ने आत्मा को व्यापक माना है, तथा जैन दर्शन ने आत्मा को देह प्रमाण माना है । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म-विचारणा भूत समुदाय से ही उत्पन्न होता है और पुन: उसी में विलय हो जाता है। परलोक नाम की कोई वस्तु नहीं है।" वेद पदों की संगति महावीर-“इन्द्रभूति ! तुमने वेद पदों का अध्ययन किया है, पारायण भी किया है, पर मुझे लगता है तुमने अभी तक केवल शब्द पाठ किया है, वेदों के हृदय को नहीं समझा है, शब्दों में सुप्त अर्थ को जागृत नहीं किया है, तभी ऐसी भ्रांति तुम्हारे मन-मस्तिष्क को जकड़े हुए हैं । किंतु यदि तुम दृष्टि को स्पष्ट करके इन पदों का अर्थ समझने का प्रयत्न करोगे तो आत्मा विषयक म्रांति इन्हीं पदों से दूर हो सकती है।" इन्द्रभूति-"आर्य प्रभु ! आपके हृदयस्पर्शी वचनों से मेरा हृदय प्रबुद्ध हो रहा है, मेरो जिज्ञासा जागृत हुई है, कृपया आप ही इन वेद पदों का सही अर्थ बतलाने की कृपा करें ।" महावीर-आयुष्मन् इन्द्रभूति ! "विज्ञानघन एवैतेभ्यो भतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानु विनश्यति न च प्रत्य संज्ञाऽस्ति ।' यह जो वेदवाक्य (उपनिषद्) है, उसके आधार पर तुम मानते हो कि भूत समुदाय से विज्ञानघन समुद्भूत होता है, और फिर उन्हीं में लय हो जाता है, इसलिए परलोक-परभव में जाने वाला कोई नहीं है, यह अर्थ वास्तव में गलत है । विज्ञानघन शब्द से 'जीव' आत्मा का भाव ध्वनित होता है । ज्ञान आत्मा का स्वरूप है। जीव के प्रत्येक प्रदेश के साथ अनन्तानन्त ज्ञान पर्यायों का संघात है, अतः उसे विज्ञानघन कहा जाता है । भूतेभ्यः समुत्थाय'-इत्यादि पदों का तात्पर्य घट-पट आदि पदार्थ भूत हैं, वे ज्ञ य हैं, जैसे 'घट' देखने से घट विज्ञान उत्पन्न हुआ, 'पट' देखने से पट विज्ञान उत्पन्न हुआ। सिद्धान्त यह है कि ज्ञय से ज्ञान की उत्पत्ति होती है । घट आदि भूतों से घट विज्ञान उत्पन्न हुआ, वह जीव की एक विशेष पर्याय है, इसलिये यह कहा जा सकता है कि यह घट विज्ञान रूप जीव घट से उत्पन्न हुआ, इसी प्रकार अन्य अनन्त भूत-पदार्थों के ज्ञान के साथ जीव तदनुरूप पर्याय धारण कर लेता है, अतः वह उस पदार्थ से उत्पन्न हुआ ऐसा कहा जाता है । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ इन्द्रभूति गौतम 'तान्येवानुविनश्यति'-इस पद से यह ध्वनित होता है कि जो ज्ञान जिस ज्ञय रूप पदार्थ के आलम्बन से उत्पन्न हुआ, उसके नष्ट होने पर वह ज्ञान भी नष्ट हो जाता है । घटरूप ज्ञेय के नष्ट हो जाने पर घट रूप विज्ञान भी नष्ट हो गया, और घट विज्ञान आत्म रूप पर्याय भी नष्ट हो गई। वह पर्याय विज्ञानघन रूप जीव से अभिन्न थी, अतः यह कहा जाता है कि अमुक भूत के नाश होने पर विज्ञानघन का भी नाश हो गया। इसके साथ एक बात यह भी समझ लेना है कि जब घट रूप ज्ञान पर्याय का नाश हुआ तो विज्ञानघन में अन्य पट आदि ज्ञान पर्याय का जन्म भी हो गया। एक ज्ञान पर्याय के विलय होने पर अन्य ज्ञान पर्याय उत्पन्न होती है, और उन दोनों ज्ञान पर्याय का आधार भूत विज्ञानघन-आत्मा विद्यमान होने से आत्मा को नित्यानित्यता सिद्ध होती है । यह विज्ञान घन आत्मा-उत्पाद् व्यय ध्रौव्य स्वभाव से युक्त है। पूर्व पर्याय के विलय से उसका व्ययस्वभाव परिलक्षित होता है, अपर पर्याय के उद्गम से उत्पाद स्वभाव का परिचय मिलता है, तथा दोनों स्थितियों में विज्ञानघन आत्मा का अविनाशी ध्र व स्वभाव स्थिर रहने से यह ध्रौव्य स्वभावी है। इन्द्रभूति -आर्य ! जब आत्मा त्रिस्वभावी (उत्पाद-व्यय-ध्रोव्य युक्त) है तो फिर 'न प्रेत्य संज्ञास्ति' यह क्यों कहा गया ? महावीर---इन्द्रभूति ! इस वचन का तात्पर्य है, जब आत्मा पूर्व पर्याय का त्याग करके अपर पर्याय को ग्रहण कर लेता है तब पूर्व पर्याय का अंश उस में नहीं रहता । जब आत्मा घट ज्ञान का त्याग करके पट ज्ञान में प्रवृत्त हुआ तो क्या तब भी उसको 'घटज्ञान' या 'घटोपयोग' संज्ञा दी जा सकती है, नहीं न ! चूंकि घटोपयोग निवृत्त होने पर ही पटोपयोग प्रवृत्त होता है-अतः यह माना जा सकता है उस समय प्रेत्य-अर्थात् पूर्व पर्याय को संज्ञा नहीं रहतो । यहाँ प्रेत्य से अर्थ पूर्व पर्याय समझना चाहिए, न कि परभव ! इन्द्रभूति-आर्य ! यह कैसे कहा जा सकता है कि उक्त वाक्य में परलोक का निषेध नहीं है ? Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म-विचारणा ४७ . जीव का नित्यानित्यत्व महावीर-'आयुष्मन् ! वेद वाक्यों की पूर्वापर संगति देखने से यह विश्वास होता है कि उन्होंने जीव का निषेध नहीं किया है, बल्कि देह से जीव को भिन्न माना है । और 'अग्निहोत्र जुहूयात् स्वर्गकामः ।।१ "ज्योतिर्यज्ञन कल्पतां स्वर्यज्ञन कल्पताम्" २२ आदि वचनों में यज्ञ आदि का फल स्वर्ग प्राप्ति बताया है । यदि भवान्तर में जाने वाला कोई नित्य आत्मा नहीं है, तो फिर यज्ञ आदि कर्म का फल प्राप्त करने के लिए स्वर्ग आदि परलोक में कौन जायेगा ? इसलिए तुम अपनी समस्त शंकाओं का निराकरण करके यह दृढ़ विश्वास करो कि 'जीव है' वह नित्यानित्य है, जैसा कर्म करता है, उसके अनुसार फल भी प्राप्त करता है। प्रव्रज्या तीर्थंकर महावीर के युक्तिसंगत वचनों से इन्द्रभूति गौतम के मन की गाँठ खुल गई, उनका संशय निर्मूल हो गया और ज्ञान पर गिरा हुआ पर्दा हट गया। उन्हें भगवान महावीर की सर्वज्ञता एवं वीतरागता पर अटूट विश्वास हो गया । इन्द्रभूति के मन में गप्तसंशय, जो उन्होंने आज तक किसी से नहीं बताये, भगवान महावीर ने उन्हें खोलकर रख दिए और गौतम के मनोभावों का स्पष्ट उद्घाटन कर दिया। इसलिए गौतम महावीर की सर्वज्ञता पर श्रद्धा करने लगे। दूसरी बात भगवान महावीर को तत्व प्रतिपादन शैली बड़ी अद्भुत, युक्तिसंगत एवं वीतरागता का स्पष्ट दर्शन करानेवाली थी । आत्मा जैसे गंभीर विषय पर इतनी लम्बी चर्चा करने पर भी उन्होंने कहीं भी यह नहीं कहा कि मैं कहता हूँ इसलिए तुम मानो । उनकी शैली श्रद्धा प्रधान नहीं, बल्कि तर्क प्रधान शैली थी, जो जिज्ञासु के मन में छिपी हुई शंका को बाहर निकाल कर ले आती। इस वाद विवाद शैली में जिस सौम्यता, २०. बृहदारण्यक ४।३।६ में कहा है कि 'ज्योतिरेवायं पुरुषः ? आत्म ज्योतिरेवायं सम्राड्,—यह पुरुष आत्म ज्योति है । २१. मैत्रायणीउपनिषद् ३।६।३६ २२. यजुर्वेद १८।२९ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ इन्द्रभूति गौतम समन्वय भावना और बहुश्रुतता का परिचय गौतम को मिला वह अभूतपूर्व था और भगवान महावीर की वीतरागता का स्पष्ट प्रमाण था । गौतम का मन और हृदय पूर्वाग्रहों से बंधा हुआ नहीं था, आम्नाय एवं शिष्यपरंपरा का व्यामोह तिलभर भी उनके मन में नहीं था । वे सत्य के जिज्ञासु थे, सत्य के शोधक थे, और जब भगवान महावीर के वचनों में उन्हें सत्य की प्रतीति हुई, उनकी वाणी में सत्य का साक्षात् दर्शन हुआ तो कुछ ही क्षणों में उन्होंने अपने समस्त पूर्व व्यामोहों को, संप्रदाय एवं संप्रदायगत के चिन्हों का त्याग कर दिया। भगवान महावीर के चरणों में हाथ जोड़कर विनय पूर्वक प्रार्थना करने लगे “भन्ते ! मैंने आपके तर्कयुक्त वचनों का श्रवण किया है, मेरे मन के संशयों का उच्छेद हो गया है, मैं आपकी वीतरागता पर श्रद्धा करता हूँ, आपके ज्ञान को लोक कल्याणकारी मानता हूँ । प्रभो ! मुझे भी अपना शिष्य बनाइये, अपनी आचार विधि की दीक्षा दीजिए और मुक्ति का सच्चा मार्ग दिखलाइए । " इन्द्रभूति गौतम ने जब भगवान महावीर से शिष्य दीक्षा देने को प्रार्थना की तो संभवतः उनके पांच सौ शिष्यों को भी आश्चर्य हुआ होगा । भगवान के वचनों पर उन्हें भी श्रद्धा एवं विश्वास हुआ और वे भी गौतम के साथ ही भगवान महावीर के शिष्य बन गये । गौतम जब महावीर के शिष्य बने तो यह संवाद बिजली की भाँति चारों ओर फैल गया । और तब पावापुरी में एकत्रित विशाल ब्राह्मण समुदाय में अवश्य एक तूफान आया होगा, सब दिग्मूढ़ से सोचते रह गये होंगे, 'अरे ! यह क्या ? इन्द्रभूति जैसा उद्भट विद्वान भी वर्धमान के इन्द्र जाल में फँस गया ? संभवत: उपस्थित सभी विद्वानों के मन में एक खलबली मची होगी और महावीर के प्रति उत्कट जिज्ञासा भी उठी होगी । इसका स्पष्ट प्रमाण यह है कि इन्द्रभूति के पश्चात् यज्ञ मंडप में उपस्थित अग्निभूति, वायुभूति आदि अन्य दस महापंडित एक-एक करके अपने शिष्यों के साथ भगवान महावीर के समवसरण में आये, वाद विवाद किया, और अन्त में तर्कशुद्ध समाधान पाकर हृदय की सम्पूर्ण श्रद्धा को निछावर करके भगवान तीर्थ प्रवर्तन Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म-विचारणा ४९ महावीर के शिष्य बन गए। भगवान महावीर के द्वितीय समवसरण में, एक ही दिन में इस प्रकार ग्यारह महापंडित एवं उनके चवदहसौ चवालीस शिष्यों ने दीक्षा धारण को, और भगवान महावीर ने वैसाख सुदी ११ को धर्मतीर्थ की स्थापना की ।२५ इसी समय राजकुमारी चंदना जो कौशाम्बी में थी, भगवान महावीर का केवल ज्ञान संवाद सुनकर पावापुरी में पहुँची ।२६ प्रभु के चरणों में दीक्षा की प्रार्थना की और अनेक राजकुमारियों व कुटुम्बि नियों के साथ उसने भी दीक्षा ग्रहण को, और वह साध्वी समुदाय में अग्रणी बनी ।२० संभवतः आर्या चन्दना की दीक्षा भी उस युग में एक सामाजिक तथा धार्मिक क्रांति का सूत्रपात था। चूंकि अब तक चली आई वैदिक परम्परा में प्रथम तो नारी को वेदाध्ययन एवं धामिक क्रिया काण्डों से दूर ही रखा गया था। फिर गृहत्याग कर सन्यास ग्रहण करना तो प्राय: समाज २४. महाकुलाः महाप्राज्ञाः संविग्ना विश्ववंदिता। एकादशाऽपि तेऽभूवन्मूलशिष्या जगद्गुरोः ।। -त्रिषष्टि० पर्व १० सर्ग ५ २५. श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार भगवान महावीर ने वैसाख शुक्ल ११ को महसेन वन में तीर्थ स्थापना की । जबकि दिगम्बर मान्यता इस सम्बन्ध में भिन्न विचार प्रस्तुत करती है । उनके अनुसार तीर्थंकर महावीर के साथ गणधरों का समागम कैवल्य के दूसरे दिन पावापुरी में नहीं, किन्तु छियासठ दिन के बाद राजगृह में हुआ, और वहीं तीर्थ प्रवर्तन हुआ। देखिए कषायपाहुड की टीका पृ० ७६ । तीर्थ प्रवर्तन की तिथि भी श्रावण कृष्ण प्रतिपदा मानी गई है । देखिए-षट्खंडागम धवला पृ० ६३ २६. त्रिषष्टिशलाका० पर्व १० सर्ग ५ २७. कल्पसूत्र (सुबोधिका) सूत्र १३५ सूत्र ३५६ २८. देखिए—(क) शतपथ ब्राह्मण १३, २, २०, ४, (ख) अस्वतंत्रा धर्मे स्त्री-गौतम धर्मसूत्र १८, १ (ग) अस्वतंत्रा स्त्री पुरुष प्रधाना-वासिष्ठ ० ५, १ (घ) महाभारत, अनु० २०, १४, (च) मनुस्मृति ९-३ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रभूति गौतम विरोधी कार्य-सा ही था।२९ यही कारण है कि प्रारम्भ में कुछ वैदिक आचार्यों ने कुछ स्थितियों में स्त्री को सन्यास ग्रहण करने की आज्ञा दी थी। किन्तु उत्तरवर्ती आचार्यों ने उसका कड़ा विरोध किया ३१ और उसे एक पाप कर्म तक की संज्ञा दी ।३२ बौद्ध परम्परा भी प्रारम्भ में स्त्री को दीक्षा देने के प्रश्न पर इन्कार करती रही। आनन्द के अत्यधिक आग्रह पर बुद्ध ने सर्व प्रथम प्रजापति गौतमी को दीक्षा दी।३३ २९. उत्तराध्ययन सूत्र में ब्राह्मण वेषधारी इन्द्र ने नमिराजर्षि से कहा है-'राजन् ! गृहवास घोर आश्रम है, तुम इसे छोड़कर दूसरे आश्रम में जाना चाहते हो, यह उचित नहीं।" -उत्त० ९।४२-४४ इस सम्वाद से प्रकट होता है कि न केवल स्त्रियों के लिए, बल्कि पुरुषों के लिए भी गृहस्थाश्रम ही श्रेष्ठ माना जाता था। वाशिष्ट धर्मशास्त्रकार ने तो सब आश्रमों में गृहस्थाश्रम की ही श्रेष्ठता प्रतिपादित की हैचतुर्णामाश्रमाणां तु गृहस्थश्च विशिष्यते -वाशिष्ट धर्मसूत्र ८।१४ ३०. महाभारत १२।२४५ । ३१. स्मतिचन्द्रिका व्यवहार पृ० २५४ में उधृत आचार्ययम का मंतव्य ३२. अविस्मृति १३६-१३७, ३३. एक बार बुद्ध कपिलवस्तु के न्यग्रोधाराम में रह रहे थे। उनकी मौसी प्रजापति गौतमी उनके पास आई और बोली-भंते ! अपने भिक्षु संघ में स्त्रियों को भी स्थान दें।' बुद्ध ने कहा- यह मुझे अच्छा नहीं लगता।" गौतमी ने दूसरी बार और तीसरी बार भी अपनी बात दुहराई पर उसका परिणाम कुछ भी नहीं आया। कुछ दिनों बाद जब बुद्ध वैशाली में विहार कर रहे थे, गौतमी भिक्षुणी का वेष बनाकर अनेक शाक्यस्त्रियों के साथ आराम में पहुंची। आनन्द ने उसका यह स्वरूप देखा। दीक्षा ग्रहण करने की आतुरता उस के प्रत्येक अवयव से टपक रही थी। आनन्द को दया आई । वह बुद्ध के पास पहुँचा और निवेदन किया-भंते ! स्त्रियों को भिक्षु संघ में स्थान दें।" दो तीन बार कहने पर भी कोई परिणाम नहीं निकला। अन्त में आनन्द ने कहा-"यह महाप्रजापति गौतमी है, जिसने मातृ-वियोग में भगवान को दूध पिलाया है, अतः इसे अवश्य प्रव्रज्या मिले।" अन्त में बुद्ध ने आनन्द के अनुरोध को माना, और कुछ नियमों के साथ उसे संघ में स्थान देने की आज्ञा दी। -विनय पिटक, चुल्लवग्ग, भिक्खुणी स्कन्धक-१०, १, ४ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म-विचारणा ५१ होता है । ५ नायाधम्मकहा, किन्तु जैन परम्परा में स्त्री की प्रव्रज्या के द्वार प्रारम्भ से ही उन्मुक्त कर दिये थे । भगवान ऋषभदेव की पुत्रियाँ ब्राह्मी और सुन्दरी इस अवसर्पिणी कालचक्र की आदि श्रमणी थी । ४ भगवान अरिष्टनेमि के युग में तो वासुदेव श्री कृष्ण की पद्मावती आदि अनेक महारानियों के प्रव्रज्या ग्रहण का उल्लेख प्राप्त निरयावलियाओ, ३७ आदि में इस प्रकार की अनेक घटनाओं के उल्लेख हैं । परम्परा ने प्रारंभ से ही धार्मिक एवं सामाजिक स्तर पर पुरुष तथा नारी को स्तर पर रखा । भगवान महावीर ने भी सर्व प्रथम उस क्रांतिकारी कदम से वैचारिक जगत् के साथ सामाजिक जगत में नारी जागृति का एक नया साहसिक उदाहरण प्रस्तुत किया और आध्यात्मिक उत्क्रांति के लिए नारी जातिको आह्वान किया । जैन समान ३६ आर्या चन्दना की प्रव्रज्या के बाद अनेक स्त्री पुरुषों ने जो कि भगवान महावीर के उपदेश से प्रबुद्ध हुए थे, किन्तु प्रव्रज्या ग्रहण करने में स्वयं को असमर्थ समझ रहे थे, उन्होंने श्रावक के व्रत ग्रहण किए ।" ३८ स्थानांग ९ तथा भगवती आदि में बताया गया है कि श्रमण, श्रमणी, श्रावक ( श्रमणोपासक ) एवं श्राविका ( श्रमणोपासका ) यह तीर्थ के चार अंग हैं । इन्ही से चतुविध संघ का रूप बनता है । उस चतुविध संघ की स्थापना भी भगवान महावीर ने इसी महसेन वन में की । ४० ३४. जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति ३ । ३५. अंतगढ सूत्र, वर्ग ६, ७, ८, ३६. नायाधम्मका : २-१-२२२, ३७. (क) निरयावलिया ४ वर्ग, (ख) आवश्यक चूर्णि २८६, २९१, ३८. त्रिषष्टिशलाका० १० । ५, ३९. स्थानांग ४ । ३ ४०. तित्थं पुण चाउवन्नाइन्ने समण संघो - समणा, समणीओ सावया, सावियाओ । - भगवती सूत्र शतक २०, उ० ८ सूत्र ६८२ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रभूति गौतम संघ स्थापना के पश्चात् भगवान महावीर ने इन्द्रभूति आदि प्रमुख शिष्यों को सम्बोधित करके त्रिपदी " का उपदेश किया । जिसे सूत्र रूप में प्राप्त कर गणधरों ने उसकी विशाल व्याख्या के रूप में द्वादशांगी ( १४ पूर्वो से युक्त ) की रचना की । * ४२ ५२ ४१. ४२. उपन्ने, विगए, परिणए - भगवती ५ । ९ (ख) उप्पन्न विगय धुवपय तियम्मि कहिए जिणेण तो तेहिं । सवेहिं विय बुद्धीहिं बारस अंगाई रइयाइ ॥ - महावीर चरियं ( नेमिचन्द्र ) पत्र ६९-२ ( ग ) जाते संघे चतुर्वैवं ध्रौव्योत्पाद व्ययात्मिकाम् । इन्द्रभूति प्रभृतानां त्रिपदी व्याहरत् प्रभुः ॥ (क) त्रिषष्टि ० १० । ५ । १६५ (ख) महावीर चरियं ( गुणचंद्र ) प्रस्ताव ८ पत्र २५७-२ (ग) दर्शन - रत्न - रत्नाकर पत्र ४०३-१ - त्रिषष्टि० १० । ५ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड: ४ व्यक्तित्व दर्शन श्रमण : समता का प्रतीक. बाह्य व्यक्तित्व. सुन्दरता : एक पुण्य प्रकृति. शरीर की ऊँचाई और संहनन. मधुर व्यवहार. तपः साधना. स्वावलम्बी श्रमरण. दिनचर्या. दीप्त तपस्वी. उर्ध्वरेता ब्रह्मचारी. विदेहभाव. तपोलब्धि. गौतम की ज्ञान संपदा. मानसज्ञानी. विनम्रता की मूर्ति. सरलता का अक्षय स्रोत. मधुर आतिथ्य. निर्भीक शिक्षक. कुशल उपदेष्टा. प्रबुद्ध संदेशवाहक. अनन्य प्रभु भक्त. मुक्ति का वरदान. महान जिज्ञासु. सराग उपासना. पावा में अंतिम वर्षावास. कैवल्य एवं निर्वाण. Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तित्व दर्शन श्रमरण : समता का प्रतीक इन्द्रभूति गौतम का तलस्पर्शी ज्ञान गांभीर्य अपने आप में जिस रिक्तता का अनुभव कर रहा था, उसकी पूर्ति भगवान महावीर की हृदयस्पर्शी वाणी ने कर दी। गौतम अब अपने पांडित्य की कृतकृत्यता अनुभव कर रहे थे। वे शुष्क क्रिया काण्ड से मुक्त होकर आत्मसंयम एवं आत्मनिदिध्यासन के आनन्द मार्ग की ओर बढ़ चुके थे । भगवान महावीर ने उनके मन की कुण्ठाओं को तोड़कर जिस विशद ज्ञान की कुजी रूप त्रिपदी का ज्ञान उन्हें दिया, उससे गौतम के अन्तस् का समस्त अन्धकार दूर हुआ और एक दिव्य प्रकाश सर्वत्र बिखर गया। जिस प्रकार सूर्य के अनन्त आलोक को कोई सघन कृष्ण आवरण रोक रहा हो, और वह जैसे ही हट जाये वैसे ही अन्धकार के स्थान पर प्रकाश व्याप्त हो जाये ऐसा ही कुछ गणधर गौतम के समक्ष हुआ । वेद उपनिषद् आदि चतुर्दश विद्याओं का पारगामी अध्ययन कर लेने पर भी वे अपने आप को किसी अन्धकार में भटकते हुए अनुभव कर रहे थे, हृदय में एक रिक्तता, जीवन में एक शून्यता अनुभव कर रहे थे। भगवान महावीर ने प्रथम परिचय में ही गौतम के हृदय को टटोललिया, उनकी आत्मा की धड़कन को पहचाना और श्रु त-शील के माधुर्य पूर्ण मार्ग का उपदेश दिया। गौतम के पास ज्ञान की कमी नहीं थी, किन्तु दृष्टि पर एक आवरण था, ऐकान्तिक आग्रह था। चारित्र के Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रभूति गौतम नाम पर तो उनके पास केवल स्नान, पूजन यज्ञ-याग आदि नीरस क्रियाकाण्ड ही था। भगवान महावीर के चिन्तन पूर्ण वचनों से उनका ऐकान्तिक आग्रह टूटा, स्याद्वाद की अनेकान्त दृष्टि प्राप्त हुई और सामायिक आदि चारित्र का स्वात्मलक्षी मार्ग भी मिला । आचार्य भद्रबाहु के उल्लेखनुसार भगवान महावीर ने अपना पहला उपदेश सामायिक चारित्र का दिया, और उसी उपदेश से गौतम ने सम्पूर्ण चारित्र सम्बन्धी ज्ञान प्राप्त कर लिया। इस उल्लेख का महत्व इस दृष्टि से भी है, कि ब्राह्मण एवं श्रमण संस्कृति में सामायिक-अर्थात् 'समता' एक महत्वपूर्ण विभाजक रेखा थी । ब्राह्मण संस्कृति में जहाँ ज्ञानोन्माद, जातीयगर्व, वाणिक श्रेष्ठता आदि के अहंकार से परिप्लुत वर्ग रात-दिन हिंसा प्रधान क्रिया काण्ड में संलग्न रहता था, वहां श्रमण संस्कृति का मूल स्वर था 'समयाए समणो होई'२ समता के आचरण से ही श्रमण कहलाता है । श्रमण शब्द की व्याख्या भी इसी समत्व भावना को लेकर की गई है—''सम मणई तेण सो समणो"3 जिसका मन सम होता है वह श्रमण है । सामायिक का भी यही अर्थ है कि-"जिसकी आत्मा संयम, नियम एवं तप में समाहित होगई है शान्ति को प्राप्त कर रही है, उसी को वस्तुतः सामायिक होती है। कहना नहीं होगा, भगवान महावीर के इस समता धर्म का आश्चर्यजनक प्रभाव इन्द्रभूति के मन पर हुआ। उन्हें जीवन की एक अपूर्व स्थिति प्राप्त हो गई, एक ऐसा आत्मानन्द का शान्त मार्ग मिला, जिसमें कहीं कोई कटुता, द्वेष एवं वैमनस्य की उष्मा तक नहीं थी । यही कारण है कि गौतम जैसा महान् पण्डित, विश्व विश्रु त तार्किक जब आत्म शान्ति के मार्ग का दर्शन कर पाया तो अपने समस्त पूर्व परिकल्पित आग्रहों, एवं क्रिया काण्डों को यों त्याग आया जैसे साँप कैचुली का त्याग कर देता है—महानागोव्व कंचयं-" और साधना के कठोरतम मार्ग पर सर्वात्मना समर्पित हो गया । १. आवश्यक नियुक्ति गाथा ७३३-३५, ७४२-४५-४८ २. उत्तराध्ययन २५/३२ ३. दशवैकालिक नियुक्ति गा. १५४ यही गाथा अनुयोग द्वार १२९ में आई है। ४. जस्स सामाणिओ अप्पा संजमे णियमे तवे । तस्स सामाइयं होइ इइ केवलिभासियं । ५. उत्तरा० १९८७ -अनुयोग द्वार १२७ नियमसार १२७ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तित्व दर्शन जैसा पूर्व लिखा जा चुका है - इन्द्रभूति गौतम के सम्बन्ध में भगवती सूत्र प्रारम्भ में एक बहुत ही महत्वपूर्ण परिचय दिया गया है । ठीक वही शब्दावली उपासक दशा औपपातिक सूत्र में उट्टं कित की गई है । उस परिचय से ज्ञात होता है कि गौतम जितने बड़े तत्त्वज्ञानी थे, उतने ही बड़े साधक भी । श्रुत एवं शील की पवित्र धारा से उनकी आत्मा सम्पूर्ण रूप के परिप्लावित हो रही थी। एक और वे उग्र तपस्वी घोर तपस्वी जैसे विशेषणों से विभूषित किये जाते हैं, तो दूसरी ओर 'सव्वक्खर सन्निवाई' वर्णमाला के समस्त अक्षर संयोगों के विज्ञाता, समस्त वाङमय अधिकृत ज्ञाता भी बताये गये हैं । उनके तत्वज्ञान एवं साधक जीवन की स्वर्णिम रेखाओं को अंकित करने से पूर्व हम गणधर गौतम के बाह्य व्यक्तित्त्व का सामान्य परिचय भी भगवती सूत्र की शब्दावली से प्राप्त कर लेते हैं । सुन्दरता : एक पुण्योपलब्धि मनोविज्ञान का सिद्धान्त है कि किसी भी व्यक्तित्व का अन्तरंग दर्शन करने से पूर्व ही दर्शक पर उसके बाह्य व्यक्तित्व ( Personality) का प्रभाव पड़ता है । प्रथम दर्शन में ही यदि व्यक्ति प्रभावित हो जाता है तो उसके भावी सम्पर्क भी उस व्यक्तित्व से अवश्य प्रभावित रहते हैं । गुजराती में कहावत है- "जेना जोया नथी मरता तेना माऱ्यां सूं मर" - परिचय एवं प्रभाव की दृष्टि से पहला सम्पर्क ही महत्वपूर्ण माना जाता है । यदि व्यक्ति के चेहरे पर ओज, प्रभाव चमक रहा हो, उसकी आकृति में सौन्दर्य छलक रहा हो, आँखों में तेज, मुख पर मंदस्मित, शारीरिक गठन की भव्यता और सुन्दरता हो तो भले ही उस व्यक्तित्व की गहराई में कुछ हो या न हो, पर उसका पहला दर्शन व्यक्ति को अवश्य ही प्रभावित कर देता है । यदि बाह्य सुन्दरता के साथ आन्तरिक सौन्दर्य भी परिपूर्ण हो तो वहाँ 'सोने मे सुगन्ध' की उक्ति चरितार्थ हो जाती है । यही कारण है कि संसार में जितने भी महापुरुष हुए हैं उनका बाह्य व्यक्तित्व भी प्रायः आकर्षक एवं प्रभावशाली रहा ७. उपासक दशा १।७६ औपपातिक सूत्र ३७ (सुत्तागमे) द्वितीय खण्ड, पृ० २४ ५७ बाह्य व्यक्तित्व Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रभूति गौतम है । जैन परम्परा में तिरसठ शलाका पुरुष ( महापुरुष ) हुए हैं, उन सबका शारीरिक संगठन, संस्थान, आकार अत्युत्तम होता है ।" उनके शरीर की प्रभा निर्मल स्वर्ण रेखा जैसी होती है ।" औपपातिक सूत्र में विस्तार के साथ भगवान महावीर के बाहरी व्यक्तित्व का वर्णन किया गया है, वहाँ बताया है कि उनकी आँखें पद्मकमल के समान विकसित, ललाट अर्ध चन्द्र के समान दीप्तियुक्त थे । वृषभ के समान मांसल स्कन्ध थे । भुजाएँ लम्बी थीं । पूरा शरीर सुगठित एवं सुन्दर आकार वाला था -- प्रज्वलित निघूम अग्नि की शिखा के समान तेजस्वी था । जिसे देखते ही मन मुग्ध हो जाता, आँखें बारबार देखने को लालायित होतीं और दर्शन के साथ ही मन में प्रियता एवं भव्यता का भाव जाग पड़ता । इसी प्रकार उत्तराध्ययन सूत्र के बीसवें अध्ययन में मगध सम्राट कि अनाथी मुनि के प्रथम दर्शन ( समागम ) से प्रभावित हुआ था । अनाथी मुनि नानाकुसुमों से आच्छादित मण्डीकुक्षी उद्यान के घने वृक्षों की शीतल छाया में साधनारत बैठे थे । उनकी आकृति सुकोमल एवं भव्य थी मुख मण्डल से असीम शान्ति टपक रही थी । वन क्रीड़ा के श्र ेणिक ने ज्यों ही उन्हें देखा, तो मुख से यह स्वर लहरी - फूट कैसा रूप ! इस आर्य की कैसी सौम्यता ! कैसी इसकी क्षमा ! कैसा इसका त्याग ! कैसी इनकी भोग निस्पृहता । """ जैन सूत्रों में आचार्य की आठ सम्पदा बतलाई गई हैं। उसमें (शरीर सम्पदा ) रूपसम्पदा भी एक प्रमुख सम्पदा मानी गई है । रूपवान होना आचार्य का एक अतिशय है । महाकवि अश्वघोष ने बुद्ध के शारीरिक गठन, सौन्दर्य एवं प्रभविष्णुता का वर्णन करते हुए लिखा है-उस तेजस्वी मनोहर । तारुण्य के ओज के साथ ५८ ८. (क) प्रज्ञापना सूत्र २३, (ख) त्रिषष्टि शलाका ० ९. हारिभाद्रिीयावश्यक, प्रथम भाग गा. ३६२-६३ १०. अवदालिय पुंडरीयणयणे" "चन्दद्धसमणिडाले-वरमहिस- वराह-सीह सद्दल उसभ नागवरपडिपुण्ण विउल क्खंधे औपपातिक सूत्र १ ११. अहोवण्णो अहो रूवं, अहो अज्जस्स सोमया । अहो खन्ती अहो मुत्ती, अहो भोगे असंगया | १२. दशाश्र तस्कन्ध ४. स्थानांग ८. लिए आये हुए मगधराज पड़ी - " कैसा वर्ण ! -- उत्तराध्ययन सूत्र, अ० २०, गा. ६ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तित्व दर्शन ५९ रूप को जिसने देखा उसकी आँखें उसी में बँध गई ।3 उसे देखकर राजगृह की लक्ष्मी भी संक्षुब्ध हो गई।" जैन कर्म सिद्धान्त में शुभनाम कर्म की बयालीस प्रकृतियाँ बताई गई हैं । वहाँ बताया है-"शारीरिक तेज, सुन्दरता, उपयुक्त गठन, परिपूर्ण अंगोपांग ये सब पुण्य के उदय से ही प्राप्त होती हैं ।१५ जैन दर्शन, दर्शन की दृष्टि से भले ही बाहरी रूपरंग को महत्व न देता हो, किन्तु उसकी प्रभाविकता एवं भव्यता से तो इन्कार नहीं करता, वह सुन्दरता को एक पुण्योपलब्धि मानता है और यहभी मानता है कि हर महापुरुष शारीरिक सुन्दरता से परिपूर्ण होते हैं । उनके बाहरी रूप दर्शन में भी किसी प्रकार की कमी नहीं होती। यही सिद्धान्त हमें गणधर गौतम के बाहरी व्यक्तित्व में दिखलाई पड़ता है। शरीर की ऊँचाई और संहनन शरीर की लम्बाई जितनी भगवान महावीर की थी उतनी ही गणधर गौतम की थी। उनके लिए भगवती में-'सत्त स्सेहे" शब्द आया है जिस पर टीकाकार ने लिखा है---"सप्त हस्तोच्छ यः" सात हाथ ऊँचा उनका कद था और वह 'समचउरंससंठाण संठिए' समचतुरस्र संस्थान से संस्थित था। यह बताया जा चुका है कि जितने भी तीर्थंकर, चक्रवर्ती वासुदेव बलदेव आदि शलाका पुरुष होते हैं उनका संस्थान यही होता है । समचतुरस्र का शाब्दिक अर्थ है पुरुष जब सुखासन (पालथी लगाकर) से बैठता है तो उसके दोनों घुटनों का और दोनों बाहुमूल-स्कन्धों का अन्तर (दायां घुटना, बायां स्कन्ध, बायां घुटना दायां स्कन्ध) इन चारों का बराबर अन्तर रहे वह समचतुरस्र संस्थान कहलाता है । आचार्य अभयदेव ने बताया है- 'जो आकार सामुद्रिक आदि लक्षण शास्त्रों के अनुसार सर्वथा योग्य हो वह समचतुरस्र कहलाता है ।१६ इन्द्रभूति का देहमान, ऊपर नीचे का भाग समान था और वह दीखने में सुन्दर १३. यदेव यस्तस्य ददर्श तत्र तदेव तस्याथ बबन्ध चक्षु:- बुद्ध चरित १०।८ १४. ज्वलच्छरीरं शुभ जालहस्तम् संचुक्षुभे राजगृहस्य लक्ष्मी: बुद्ध० १०९ १५. (क) 'ज्ञापना २३. (ख) कर्मग्रन्थ १६. शरीर लक्षणोक्तप्रमाणाऽविसंवादिन्यश्चतस्रो यस्य तत् समचतुरस्रम् । -भगवती (टीका) ११ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रभूति गौतम प्रतीत होता था। इन्द्रभूति के शरीर का आन्तरिक गठन बहुत ही सुदृढ़ एवं परस्पर सम्बद्ध था । शरीर के भीतरी 'अस्थि संघटन के लिए जैन कर्म सिद्धान्त में 'संहनन' शब्द का प्रयोग हुआ है। छह प्रकार के 'संहनन' बताये गये हैं जिनमें सर्वश्रेष्ठ संहनन है-वज्रऋषभनाराच संहनन । ८ इन्द्रभूति का संहनन भी 'वज्रऋषभ नाराच' था। इसका सामान्य अर्थ यह समझना चाहिए कि इन्द्रभूति का शारीरिक बल, भार उठाने की क्षमता, हड्डियों की संघटना सौष्ठव आदि भी उत्तम थी। शारीरिक गठन की सुन्दरता के साथ ही उनके मुख, नयन, ललाट आदि पर अद्भुत ओज एवं चमक थी। जिस प्रकार कसोटी पत्थर पर सोने की रेखा खींच देने से वह उस पर चमकती रहती है, उसी प्रकार की सुनहली आभा गौतम के मुख पर सतत दमकती रहती थी। उनका वर्ण गौर था, कमल की केसर की भाँति उसमें गुलाबी मोहकता भी थी। पचास वर्ष की अवस्था होने पर भी उनके मुख व आँखों पर किसी प्रकार की विवर्णता नहीं आई थी बल्कि तपःसाधना करने से उनके तेज में और अधिक निखार आने लगा । जब उनके ललाट पर सूर्य की किरणें गिरती तो ऐसा लगता होगा कि कोई सीसा या पारदर्शी पत्थर चमक रहा है । जब गौतम चलते तो उनकी दृष्टि इधर उधर से हटकर सामने के मार्ग पर टिक जाती और स्थिर दृष्टि से भूमि को देखते हुए चलते । उनकी गति बड़ी शान्त, चंचलता रहित, एवं अंसभ्रान्त थीं९ जिसे देखकर सहज ही में दर्शक उनकी स्थितप्रज्ञता का अनुमान लगा सकता था। उनका व्यवहार बड़ा मधुर एवं विनयपूर्ण था। वे जब किसी कार्य वश बाहर जाते तो भगवान महावीर की आज्ञा लेते, आते तो पुनः उनके पास जाकर अपनी कार्य सम्पन्नता की सूचना देकर फिर किसी कार्य में लगते ।२° बड़े-बड़े तपस्वी साधकों के लिए भी साधना, विनय एवं व्यवहार में गौतम स्वामी का उदाहरण १७. संघयणमट्ठिनिचओ-कर्मग्रन्थ भा० १ गा० ३७ १८. (क) प्रज्ञापना सूत्र पद २३. सू० २६३। (ख) स्थानांग ६।३ (ग) कर्मग्रन्थ भा० १ गा० ३८ १९. अतुरियमचवलमसं तं जुगंतरपरिलोयणाए दिट्ठिए पुरओ इरियं सोहेमाणे । --उपासक दशा १। सूत्र ७८ .. २०. उपासकदशा १ । सूत्र ७७ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तित्व दर्शन ६१ दिया जाता था। अंतकृद् दशा सूत्र में राजकुमार अतिमुक्तक के साथ इन्द्रभूति गौतम का जो वार्तालाप एवं व्यवहार प्रदर्शित किया गया है उससे पता चलता है कि इतना बड़ा तत्त्वज्ञानी साधक छोटे अबोध बच्चों के साथ भी कितनी मधुरता एवं आत्मीय भावना के साथ व्यवहार करता है । राजाओं के अन्तःपुर में वे भिक्षा के लिए जाते हैं, तो वहाँ उनकी रानियों एवं दास-दासियों के साथ भी उनका व्यवहार-वर्तन बहुत ही विवेक पूर्ण एवं स्नेहसिक्त होता है ।२3 इन्द्रभूति गौतम के प्रभावशाली आकर्षक व्यक्तित्त्व के ये जो कुछ रूप आगमों के अनुशीलन से प्राप्त होते हैं उनसे ज्ञात होता है कि गौतम का आन्तरिक व्यक्तित्त्व जितना गम्भीर, प्रौढ़ एवं विराट् था बाह्य व्यक्तित्व भी उतना ही मधुर एवं चुम्बकीय था। शारीरिक सौष्ठव, लालित्य एवं व्यवहार कुशलता के कारण गौतम के प्रथम दर्शन में ही सम्पर्क में आने वाला उनके अति निकट का आत्मीय बन जाता और श्रद्धा से पूर्ण हृदय को खोलकर उनके चरणों में रख देता। तपः साधना आकर्षक व्यक्तित्व के धनी इन्द्रभूति गौतम के अंतरंग व्यक्तित्व की गहराई में उतरने से पूर्व उनके तपःपूत जीवन की एक सामान्य झांकी भी प्राप्त कर लेना आवश्यक होगा। भगवती, उपासगदशा तथा औपपातिक सूत्र आदि में गौतम के बाह्य दर्शन के आगे जो उनके आन्तरिक तपस्वी जीवन की स्वणिम रेखायें खींची गई हैं वे बहुत ही अर्थपूर्ण एवं विशिष्ट तपः साधना की द्योतक हैं। उनके लिए प्रयुक्त विशेषणों पर विचार करने से लगता है कि भगवान महावीर के शासन में २१. जहा गोयम सामी-अनुत्तरोपपातिक (धन्य अणगार वर्णन) देखिए---का चित्रण २२. अंतकृद्दशा वर्ग २३. विपाकसूत्र १ । मगादेवी के साथ वार्तालाप का चित्रण २४. उग्गतवे, दित्ततवे, घोरतवे, महातवे, उराले, घोर गुणे, घोर तवस्सी, घोर बंभचेरवासी उच्छूढसरीरे, संखित्तविउल तेउलेस्से, छट्ठ-छट्टणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावे मारणे विहरई । -उपासग दशा १७६ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रभूति गौतम सर्वोत्कृष्ट तप:साधना करने वाले धन्य अणगार२५ से गौतम की साधना किसी प्रकार कम नहीं थी। वे बहुत बड़े साधक एवं तपस्वी थे जिन पर भगवान महावीर के विशाल श्रमणसंघ को गौरव था और उन्हें आदर्श माना जाता था। गौतम ने जीवन के प्रारम्भ में ज्ञान एवं श्रु त की आराधना की और उसके चरम शिखर तक पहुंचे। छद्मस्थ साधक के ज्ञान की अन्तिम रेखा का स्पर्श करने वाले गौतम जो पहले चतुर्दश विद्याओं के पारगामी थे, भगवान महावीर के शिष्य बनकर चतुर्दश पूर्व के पारंगत बने और पश्चात् अपने जीवन को तपः साधना में संलग्न कर निरंतर तपः ज्योति प्रज्वलित करते रहे। वे दो दिन उपवास करते, एक दिन भोजन, भोजन में भी सिर्फ एक समय दिन के तीसरे पहर में स्वयं भिक्षा पात्र लेकर सामान्य कुलों में एक साधारण भिक्षुक की तरह घूमते, और सूखा-रूखा जो भी प्रासुक आहार प्राप्त हो जाता उसे प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण करते, फिर भगवान महावीर के निकट आकर अपनी भिक्षा उन्हें बतलाते, पारणे की आज्ञा लेकर अपने अन्य सामि जो कि सभी गौतम से लघु थे उन्हें भोजन के लिए प्रेम पूर्वक निमंत्रित करते-साहु हुज्जामि तारिओ !२६ अच्छा हो, आप लोग मेरे भोजन को स्वीकार कर मुझे कृतार्थ करें" अपने छोटे साधुओं और शिष्यों के साथ इस प्रकार का विनय एवं प्रेम भरा व्यवहार गौतम का ही नहीं, धीरे धीरे सम्पूर्ण श्रमण संघ का आदर्श बन गया था। गौतम उस यथाप्राप्त भोजन से देह का उसी प्रकार पोषण करते थे जिस प्रकार कोई किराये के घर में रहने वाला अपनत्व से रहित भाव के साथ उसका किराया देता हो। गौतम की इस अनासक्ति के लिए आगमों में बिलमिव पन्नगभूए की उपमा आती है, सांप जैसे बिल में चुपचाप प्रवेश कर जाता है, उसी प्रकार गौतम अनासक्ति पूर्वक भोजन को गले उतार लेते और पुनः अपने स्वाध्याय में लीन हो जाते । २५. राजगृह में श्रोणिक द्वारा सर्वश्रेष्ठ तपस्वी साधक के विषय में पूछने पर भगवान महावीर कहते हैं इमेसि चोदसण्हं समणसाहस्सीणं धण्णे अणगारे महादुक्करकारए चेव महानिज्जर तराए चेव । -अनुत्तरो० ३।३९ इन्हीं धन्य अणगार की तपश्चर्या, एवं साधना विधि का वर्णन करते समय कहा गया है--...... पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, जहा गोयम सामी अनुत्तरो० ३।९ २६. दशवैकालिक ५। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तित्व दर्शन स्वावलंबी श्रमण उपयुक्त विवरण से गौतम की अन्य विशिष्टताओं के साथ उनके स्वावलंबन की एक स्पष्ट तस्वीर हमारे सामने खिच आती है। जो गौतम अपने पूर्व जीवन में भारतखण्ड के मूर्धन्यविद्वान माने जाते थे, पाँच-सौ शिष्य प्रतिक्षण उनके चरणों में करबद्ध खड़े रहते, हजारों जिज्ञासु जिनके पास प्रश्नोत्तर के लिए आते और शंका समाधान कर प्रसन्न होकर लौटते, वे इन्द्रभूति गौतम जब भगवान महावीर के शिष्य बने, समस्त श्रमणसंघ में प्रथम स्थान पर आए, पांच-सौ उनके स्वयं के शिष्य एवं अन्य सभी चवदह हजार श्रमण उन्हें अपना वंदनीय, अर्हणीय एवं आदर्श समझते थे। वे गौतम भी जब आहार की आवश्यकता होती है तो स्वयं अपने हाथ से अपने भाजन (पात्र) एवं वस्त्र आदि की प्रतिलेखना करते हैं-भायण वत्थाइ पडिलेहेइ-और स्वयं ही भगवान महावीर की आज्ञा लेकर घर-घर में भिक्षाटन करते हैं । २८ गौतम का यहस्वावलंबन वस्तुतः उनके लिए कोई महत्वपूर्ण न रहा हो, किन्तु श्रमणसंघ के लिए एक दिशा दर्शक था 'अपना कार्य स्वयं करो' इस भावना का प्रबल समर्थक था। और स्वावलंबन में श्रमण शब्द को कृतार्थता का द्योतक था। दिनचर्या गौतम की चर्याविधि का वर्णन करते हुए आगमों में बताया है-गौतम स्वामी प्रथम प्रहर में स्वाध्याय करते थे, द्वितीय प्रहर में ध्यान करते थे और दिन के तृतीय प्रहर अर्थात् मध्यान्होत्तर में भिक्षा के लिए स्वयं भ्रमण करते थे। भिक्षा भोजन आदि कार्य के लिए एक प्रहर समय से अधिक नहीं लगाते । चौथे प्रहर में फिर स्वाध्याय में लग जाते । रात्रि में पुन: प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, द्वितीय पहर में ध्यान तृतीय में नींद और चौथे प्रहर में पुन: स्वाध्याय ।२९ उस युग में सामान्यत: जैन श्रमण की २७. उवासग दशा १७७ २८. उच्चनीय-मज्झिम कुलाइं घर समुदाणस्स भिक्खायरियाए अडइ उवासग दशा ११७८ २९. उत्तराध्ययन २५।१२।१८ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रभूति गौतम यही समाचारी थी ऐसा उत्तराध्ययन आदि आगमों से प्रतीत होता है । एक प्रहर की नींद सामान्य व्यक्ति के लिये अपर्याप्त है, किन्तु उस समय जिस प्रकार के शरीर संगठन, बल, क्षमता आदि के वर्णन मिलते हैं उसमें उनके स्वास्थ्य की सहन-क्षमता भी सुदृढ़ होनी चाहिए और उसी दृष्टि से हो सकता है यह सभी सामान्य श्रमणों की चर्या विधि रही हो। किन्तु धीरे धीरे और बहुत ही अल्प समय में जब परिस्थितियाँ बदली, शारीरिक क्षमताओं में अन्तर आया तो जैन श्रमण ऐसे भी नहीं थे कि लकीर के फकीर बने रहे। आचार्य शय्यंभव द्वारा संकलित दर्शवकालिक में भिक्षा का समय बदलने के सम्बन्ध में स्पष्ट निर्देश है कि-"भिक्षु ! गहस्थ के घर पर भिक्षा का उपयुक्त समय देखकर ही जाये, यदि अकाल--असमय में उसके घर पर जाएगा तो भिक्षा भी प्राप्त न होगी जिससे स्वयं उसे भी क्लेश होगा और गृहस्थ को भी लज्जा का अनुभव होगा। वृहत्कल्प सूत्र में भी प्रथम एवं चरम प्रहर की भिक्षाचरी का समर्थन किया गया। और नियुक्ति काल में आने तक तो दो एवं तीन बार की भिक्षा विधि भी मान्य हो चुकी थी। इसी प्रकार निद्राविधि भी एक प्रहर के स्थान पर बिचके दो प्रहर की मान ली गई । समयानुसार आचार विधि में परिवर्तन करना जैन श्रमणों एवं आचार्यों की समयज्ञता का सूचक है, इसे दुर्बलता नहीं माना जा सकता । चूंकि जैन धर्म अनेकांतवादी हैं, उत्सर्ग-अपवाद मार्ग में विश्वास करता है । वहाँ कहा गया है-खेत कालं च विन्नाय तहप्पाणं निउजए क्षेत्र, समय एवं क्षमता आदि को देखकर शक्ति का नियोजन करना चाहिए । “जिन शासन में किसी विधि का एकांत निषेध भी नहीं है और न एकांत विधान ही है । परिस्थिति को देखकर ही निषेध या विधान किया जाता है जैसा कि रोग में चिकित्सा के लिए।"३५ अस्तु, गौतम स्वामी ३०. अकाले चरसि भिक्खू, कालं न पडिलेहसि ? अप्पाणं च किलामेसि, सन्निवेसं च गरिहसि । –दशवै ५।२१५ ३१. बृहद्कल्प ५।६ ३२. ओधनियुक्ति भाष्य गा. १४९ ३३. ओधनियुक्ति गा. ६६० ३४. दशवकालिक ५१ ३५. एगतेण निसेहो जोगेसु न देसिओ विहीवाऽवि । दलियं पप्प निसेहो होज्ज विही वा जहा रोगे । -ओपनियुक्ति ५५ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तित्व दर्शन ६५ की कठोर चर्या वर्तमान में यदि जैन श्रमणों के लिये दुष्कर एवं दुष्पाल्य है तो उसके लिए श्रमणों की दुर्बलता का पक्ष नहीं देखकर उनकी समयज्ञता एवं विधि-निषेध मार्ग व्यवस्था को देखना चाहिये । आज भी 'गौतम स्वामी की करणी' एक उच्चतम क्रियापात्रता का सूचक है । साथ में यह भी ध्वनित होता है कि एक महान तत्वज्ञानी मात्र ज्ञान के सागर के और छोर को नापने में ही 'अलं' नहीं रहा, किन्तु आचार क्रिया का भी उच्चतम उदाहरण बन कर हजारों वर्ष के बाद आज भी जगमगा रहा है। उन्होंने जीवन भर बैले-बेले तक पारणा किया और पारणे में भी केवल एक समय भोजन । गौतम की लम्बी तपश्चर्या का वर्णन सूत्रों में नहीं मिलता है, किन्तु बेले-बेले के तप की दीर्घकालीन साधना और उसकी महिमा को देखते हुए लगता है यह किसी कठोर दीर्घ तपस्या से कम उग्न नहीं थी। इसीलिए आगमों में गौतम को 'उग्गतवे घोरतवे' आदि विभूषणों से अलंकृत किया गया है । भगवती सूत्र के टीकाकार अभयदेव सूरि ने उक्त शब्दों पर टीका करते हुए लिखा है-जिस तपश्चरण की आराधना सामान्य जन के लिए अत्यंत कठोर हो, यहाँ तक कि वे उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते ऐसे तपश्चरण को उग्रतप कहा जाता है ।३६ ___ गौतम की तपश्चर्या के साथ शांति एवं सहिष्णुता का मणिकांचन संयोग था। इस शांति के कारण ही तपः ज्योति से उनका मुख मंडल सतत प्रभास्वर रहता था। तपस् की दीप्ति उनके शरीर पर छिटकती रहतो इसीकारण उनके लिए 'दित तवे' विशेषण भी उपयुक्त है । 'दित्त तवे' का अर्थ यह भी किया जाता है-तप के द्वारा उन्होंने अपने कर्म वन को भस्म कर डाला था । और इसी बात को विशेष बलपूर्वक बताने के लिए 'तत्ततवे' महातवे' आदि विशेषण आये हैं । उन्होंने तप से अपने अन्तर मल को तपा डाला था। जिस प्रकार स्वर्ण अग्नि में तप कर निखर जाता है, और समस्त मलिनता दूर हो जाती है, उसी प्रकार गौतम ने तप कर आत्मज्योति को निखारा था । उस तप में किसी प्रकार की कामना, आशंसा, परलोक की वितृष्णा एवं यशःकीर्ति की अभिलाषा नहीं थी। वे केवल आत्म शोधन के लिए तप करते रहे। कर्म निर्जरा ही उनके तपश्चरण का एक एवं अंतिम ध्येय था 'नन्नत्थ निज्जरट्ठयाए ३६. यदन्येन प्राकृतपुसा न शक्यते चिन्तयितुमपि तद् विधेन तपसा युक्तः । -भगवती वृत्ति १।१ पृ० ३५ ३७. 'महातवे'-त्ति आशंसा दोष रहितत्वात् प्रशस्ततपाः । -भगवती वृत्ति १।१ पृ० ३५ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ इन्द्रभूति गौतम तव महिट्ठिज्जा'२८ भगवान महावीर का यह संदेश ही उनकी समस्त तप: साधना का मूल था। दूसरे कोई गौतम के कठोर तपश्चरण की चर्चा करते तो वे रोमांचित हो जाते, इसलिए उनके तप को 'घोरतप' कहा गया है। ऊर्ध्वरेता ब्रह्मचारी घोर तपस्वी के साथ-साथ गौतम के लिए 'घोरवंभचेरवासी' भी एक विशेषण आता है । और यह विशेषण किसी न किसी विशिष्टता का द्योतक भी हो सकता है । साधारणतः 'घोर' शब्द 'रुद्र' अर्थ में प्रयुक्त होता है । ९ किन्तु जब उसके साथ घोर तप, घोर गुण, घोर ब्रह्मचर्य आदि विशेषण लग जाते हैं तो अर्थ में प्रसंगानुसार अन्तर भी आ जाता है । उत्तराध्ययन ९ में शकेन्द्र जब नमिराजर्षि को गृहस्थाश्रम में रहने की बात कहता है तो वहाँ 'घोरासमं घोर-आश्रम' शब्द का प्रयोग गृहस्थाश्रम की श्रेष्ठता का द्योतक भी बन गया है । सामान्यतः ब्रह्मचर्य को अन्य व्रतों से कठोर माना गया है । साधारण मनुष्य उसकी आराधना कर सकने में समर्थ नहीं हो पाते। इस आशय से ब्रह्मचर्य के साथ 'घोर ब्रह्मचर्य, शब्द का प्रयोग भी आगमों में कई स्थानों पर हुआ है।४१ गौतम के प्रकरण में भी 'घोर' शब्द व्रत की कठोरता, दुःष्पाल्यता के साथ विशिष्टता का भी द्योतक हो सकता है और इस दृष्टि से सामान्य ब्रह्मव्रतधारी से गौतम के ब्रह्मचर्य की साधना की दृष्टि से कुछ विशिष्टता हो सकती है और वह यहो कि ब्रह्म साधना का अंतिम स्तर जो ऊर्ध्वरेता ब्रह्मचारी के रूप में होता है, संभवतः उसी स्तर पर गौतम की साधना पहुँची होगी, औः उसी बात की ओर यह विशेषण एक संकेत के रूप में हो। ४०. ३८. दशवकालिक ९ ३९. अभिधानराजेन्द्र भा० २ पृ० १०४५ घोरं च तद् ब्रह्मचर्य चाल्पसत्वदु:खेन यदनुचर्यते । तस्मिन् घोर ब्रह्मचर्य वस्तु शीलमस्येति घोरब्रह्मचर्यवासी। -भगवती वृत्ति १११ ४१. देखिए-ज्ञातासूत्र ११ जंबूद्वीप प्र० रायपसेणी, औपपातिक, निरयावलिया आदि। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तित्व दर्शन विदेहभाव गौतम के लिए एक विशेषण यह भी प्रयुक्त हुआ है-“उच्छूढ सरीरे" शरीर का त्याग करने वाले । वस्तुतः गौतम शरीरधारी थे तब शरीर का त्याग करने की बात सीधेरूप में कैसे संगत बैठ सकती है ? इसका आशय है शरीर होते हुए भी शरीर के संस्कार, ममत्व एवं किसी प्रकार की आसक्ति उनमें नहीं थी। यह विशेषण गौतम की उच्चतम आध्यात्मिक स्थिति का द्योतक है । वे अध्यात्म के उस स्तर पर पहुँच गये थे जहाँ शरीर रहते हुए भी शरीर को भावना या शरीर का संस्कार नहीं रहता है । शरीर के सुख-दुःख, भूख प्यास की कोई स्थिति उन्हें अपनी साधना से विचलित नहीं कर सकती थी। भगवान महावीर का यह संदेश “एगमप्पाणं संपेहाए धुणे कम्म सरीरगं' ४२ आत्मा को शरीर से पृथक समझकर कर्म शरीर को धुन डालो, गौतम के जीवन में रम गया था और वे सतत देह मुक्त भाव में विचरण करते हुए चिन्मय विशुद्ध स्वरूप आत्मा का चिंतन करते रहते थे।" मैं केवल शक्ति-ज्योति स्वरूप हूँ । २ ज्ञान दर्शनमय ज्योति ही मेरी आत्मा का शाश्वत रूप है । वही शुद्ध शाश्वत तत्व मैं हूँ। ये परमाणु-शरीर के सुख-दुःख, वेदना संस्कार और पोड़ा मेरा अहित नहीं कर सकते । ४४ अध्यात्मयोग की यह उच्चतम भावना गौतम के जीवन में साकार हुई यह उक्त विशेषण से स्पष्ट प्रतीत होता है। उनकी दृष्टि आत्म-केन्द्रित हो गई थी, और शारीरिक संस्कार से मुक्त थी । श्रीमद् राजचन्द्र ने इसी स्थिति को देहातीत सि ति बतलाते हुए ऐसे परम योगी को नमस्कार किया है देह छता जेहनी दशा वर्ते देहातीत । ते योगी ना चरण मां वंदन छे अगणीत ।।५ ४२. आचारांग १ । ४ । ३ ४३. केवलसत्ति सहावो सोहं---नियमसार ९६ ४४. (क) एगो मे सासदोअप्पाणाणदंसणलक्खणो-नियम ०१०२-महाप्रत्याख्यान १०१ (ख) अहमिक्को खलु सुद्धो दंसण णाण मइयो सदाऽरुवी, __णवि अस्थि मज्झ किंचि वि अण्णं परमाणुमित्तंपि। ---समयसार ३८ ४५. आत्मसिद्धि-श्रीमद् राजचन्द्र, Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रभूति गौतम तपोपलब्धि अध्यात्म की इस चरमस्थिति पर पहुंचे हुए साधक के लिए यह सहज हो था कि तपोजन्य लब्धियाँ एवं सिद्धियाँ उनके चरणों में लौटने लगे । जैन ग्रन्थों में अनेक प्रकार की तपोजन्य लब्धियों का वर्णन आता है । विशिष्ट प्रकार के तपश्चरण एवं उत्कृष्ट शुभ अध्यवसाय के कारण आत्मा में अमुक प्रकार की शक्ति जागृत हो जाती है, जिसे लब्धि कहा जाता है । ६ उन लब्धियों में एक तेजोलब्धि भी है । इस लब्धि के कारण साधक किसी क्रोध आदि प्रसंग पर अपने अन्तर से एक प्रकार की अग्नि को निकालता है, जो कई योजन तक चली जाती है और उस क्षेत्र में रही हुई समस्त वस्तु, विशाल भवन, वृक्ष, नगर आदि को जला कर भस्मसात् कर डालती है। गोशालक के पास इस प्रकार की तेजोलब्धि थी, जिसका प्रयोग उसने भगवान महावीर पर भी किया था। गौतमस्वामी को विशिष्ट तपश्चरण के कारण जो लब्धियाँ प्राप्त हुई उनमें तेजोलब्धि (तेजोलेश्या) भी थी, और उसकी शक्ति बहुत ही तीक्ष्ण थी । एक साथ सोलह महादेशों को भस्म करने में समर्थ ! किन्तु उनकी दृष्टि तो आत्मकेन्द्रित थी, शांति एवं वैराग्य में लीन थी, संसार के प्रत्येक प्राणी को मित्र भाव से देखते थे। अतः उन्होंने इस प्रकार की विपुल तेजोलब्धि को अपने शरीर के भीतर ही संगुप्त करके रखी थी। आत्मा पर कठोर संमय की वृत्ति इस विशेषण से ध्वनित होती है, और साथ ही उनकी तपोजन्य विशिष्ट उपलब्धि का दिगदर्शन भी ! समता एवं प्रेम की वृष्टि करने वाले साधक के लिए इस प्रकार की लब्धि का प्रयोग कभा क्यों आवश्यक होता ? वह तो संसार को आग बुझाने आया था, आग लगाने नहीं, वह घर-घर में और घट-घट में महावीर का विश्वबंधुत्व, समता एवं करुणा का संदेश पहुँचाने वाला महान् साधक था, इस प्रकार को लब्धियों का संगोपन करके आत्म शक्ति का विश्व-कल्याण में नियोजन करना हो उनका ध्येय था । ४६. परिणाम तव वसेणं एमाइ हुति लद्धीओ । --प्रवचन सारोद्वार, द्वार २७० गा, १४९२-१५०८ ४७. भगवती सूत्र १५ । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तित्व दर्शन गौतम की ज्ञान सम्पदा जैन दर्शन की मूल आत्मा है- 'पढमं नाणं तओ दया४८ पहले ज्ञान फिर क्रिया । जब तक अन्तःकरण में ज्ञानज्योति प्रज्वलित नहीं होती, आत्म बोध की प्राप्ति नहीं होती, तब तक समस्त क्रिया कांड, 'देह दंड' से अधिक महत्वपूर्ण नहीं है। उस 'देहदंड' को जैनाचार्यों ने 'बाल तप' कहा है और वह कितना ही उग्र हो, उससे मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती —"नहु बालतवेण मुक्खुति"४९ इसलिए क्रिया से पूर्व ज्ञान, आत्मबोध प्राप्त करना अत्यन्त आवश्यक है । वैसे एकांत ज्ञान एवं एकांत क्रिया दोनों ही अपने में अधूरे हैं । ५० किन्तु क्रम की दृष्टि से पहले ज्ञान और फिर क्रिया, यही आत्म साधना की सही दृष्टि है । ५१ ज्ञान को प्रकाश माना गया है, ५२ वह प्रकाश प्राप्त करके साधक अपने साधना मार्ग पर अस्खलित एवं अप्रतिहत गति से बढ़ता चला जाता है। जैन दर्शन का यह मूल स्वर गौतम के जीवन में मुखरित हुआ है । उन्होंने पहले ज्ञान को आराधना की, इससे आत्मस्वरूप का बोध प्राप्त किया और फिर उन तपश्चरण में शरीर को झौंक डाला। वे अपने पूर्व जीवन में वैदिक परंपरा के प्रकांड पंडित थे, उसके अंग-अंग को टटोला, अनुशीलन किया और उसके सूक्ष्म से सूक्ष्म रहस्यों का अवबोध प्राप्त किया। आचार्य हेमचन्द्र के कथनानुसार वे चतुर्दश विधाओं में पारंगत थे। ५३ 'चौदह विद्या' में उस युग की समस्त विद्याओं का समावेश कर दिया गया था। चार वेद, छह वेदांग,५४ धर्म शास्त्र, पुराण, ४८. दशवकालिक ४ ४९. आचा०नि० २।४ ५०. णाणं किरिया रहियं किरियामेत्तं च दोवि एगंता। -सन्मति तर्क० ३।६८ ५१. नाणी संजम सहिओ नायव्वो भावओ समणो -~-उत्त० नि० ३८९ ५२. नाणं पयासगं । आव०नि० १०३ ५३. त्रिषष्टिः शलाका १० । ५ ५४. छह वेदांग ये हैं(क) शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष । --वैदिक कोश, पृ० ४९४ (प्रकाशक बनारस हिन्दू युनिर्वसिटी) (ख) सिक्खा-कप्पे-वागरणे-छंदे-निरुत्त -जोइसामयणे। -भगवती, २।१ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ इन्द्रभूति गौतम मीमांसा एवं तर्क (न्याय शास्त्र ) ये चौदह विद्या कहलाती थी ।"" भगवान महावीर के पास प्रव्रजित होने पर उन्होंने गौतम को त्रिपदी का ज्ञान दिया, जिसके आधार पर उन्होंने अपनी विस्तार- बुद्धि के द्वारा विशिष्ट क्षयोपशम के कारण चतुदर्श पूर्वो का ज्ञान प्राप्त कर लिया । चौदह विद्याओं में जिस प्रकार वैदिक परम्परा का समस्त वांङमय समाहित हो जाता है, उसी प्रकार चौदह पूर्व में जैन दर्शन का समस्त ज्ञान विज्ञान अन्तर्हित हो जाता है । ५६ माना तो यह भी जाता है कि इन चौदह पूर्वो में संसार की समस्त विद्याओं का समावेश हो जाता है । चतुदर्शपूर्व घर के लिए संसार का कोई भी भौतिक या आध्यात्मिक ज्ञान अविज्ञात नहीं रहता । ऐसा पूर्वी के विषयानुक्रम से स्पष्ट होता है । गौतम को 'चौद्द सपुवि' कहा गया है । गौतम न केवल चौदह पूर्व के ज्ञाता थे, बल्कि उनकी रचना भी उन्होंने ही की थी, चूँकि चौदह पूर्व बारहवें अंग में समाविष्ट होते हैं, और गणधर द्वादशांगी के रचयिता माने गये हैं । इस प्रकार संपूर्ण श्रुत शास्त्र के ज्ञाता एवं रचयिता के रूप में गौतम की विलक्षण प्रतिभा एवं गहन श्र तविद्या का रूप हमारे समक्ष उजागर हो जाता है। मानस ज्ञानी ५७ ७० गौतम केवल श्रुतज्ञान के ही नहीं, बल्कि मानसविद्या के भी विज्ञाता थे । वे किसी भी संज्ञीप्राणी के मनोभावों का तत्काल ज्ञान प्राप्त कर सकते ५५. षडंग मिश्रिता वेदा धर्म शास्त्र पुराणकम् । मीमांसा तर्कमपि च एता विद्याश्चतुर्दश । - आप ज् संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी भागा, २ पृ० ६९४ कुछ अन्तर के साथ देखिए : याज्ञवल्क्यस्मृति अ० १ श्लो० ३ विष्णुपुराण अंश ३, अ० ६, श्लो०२८ ५६. चौदह पूर्व के नाम क्रमशः यों हैं— (१) उत्पाद पूर्व, (२) अग्रायणीय पूर्व (३) वीर्यं प्रवाद पूर्व (४) अस्ति नास्ति प्रवाद ( ५ ) ज्ञान प्रवाद ( ६ ) सत्य प्रवाद ( ७ ) आत्म प्रवाद ( ८ ) कर्म प्रवाद (९) प्रत्याख्यान प्रवाद (१०) विद्यानु प्रवाद (११) अवन्ध्य पूर्व (१२) प्राणायु प्रवाद (१३) क्रिया विशाल पूर्व (१४) लोक विन्दुसार । - नंदीसूत्र ५७ ५७. देखिए – आगम युग का जैन दर्शन -- ( पं० दलसुख भाई पृ० ८ ) समवायांग - १४ वां एवं १४७, Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तित्व दर्शन ७१ थे । उनकी इस विशिष्टता को आगम में-'चउ नाणोवगएत्ति' विशेषण से स्पष्ट किया है । वे मतिज्ञान एवं श्रु तज्ञान से समस्त वांङमय के ज्ञाता एवं उपदेष्टा सिद्ध होते हैं, अवधिज्ञानी होने के कारण विश्व के भौतिक पदार्थों के भूत भविष्य के परिणामों का ज्ञान भी उन्हें था, और फिर मनःपय व ज्ञान के द्वारा वे संसार के समस्त संज्ञी प्राणियों के मनोभावों, मानसिक उत्थान पतन, परिवर्तन आदि का विशिष्ट ज्ञान भी प्राप्त कर लेते थे। गौतम की ज्ञान संपदा संसार की सर्वोत्तम एवं सर्वोत्कृष्ट संपदा थी। वे संसार के प्रत्येक पदार्थ एवं प्रत्येक विद्या के ज्ञाता थे। और इतने बड़े ज्ञानी जब आत्म साधना के मार्ग पर बढ़ तो समस्त दैहिक भावों से मुक्त होकर अध्यात्म के चरम शिखर तक पहुँच गये थे। कठोर तपश्चरण, एकांत विशुद्ध ध्यान और उसी के साथ भगवान महावीर की अनन्यतम उपासना यह गौतम के जीवन की विशिष्टता थी। इस प्रकार गौतम के जीवन की एक रूप छवि जो आगमों से हमें प्राप्त होती है-उस पर चिन्तन करने से लगता है-गौतम अपने युग के महानतम तत्वज्ञानी, विशिष्ट साधक और तपस्वी थे। एक विरल अध्यात्म योगी, सिद्धिसंपन्न साधक और विश्वकल्याण की उदग्र भावना से युक्त परिव्राजक ! जिनका बाह्य व्यक्तित्व भी गौरवपूर्ण था और आन्तरिक व्यक्तित्व तो अन्यतम अक्षय गरिमा से मण्डित, सिद्धि से संपन्न एवं अपने युग का अद्वितीय भी कहा जा सकता है। ____ गौतम के जीवन में जितनी तपश्चरण की पार्वतीय उत्कटता थी उतनी ही विनय, सरलता, मृदुता की सुकुमार पुष्प सम कोमलता भी । उनका जीवन पुष्प वस्तुत: पुष्प नहीं, किन्तु फूलों का वह गुलदस्ता है, जिसमें विविध रंग, विभिन्न सौरभ एवं विविध आकार के सुरम्य सुकुमार फूल महक रहे हैं और अपने परिपार्श्व को भी सुरभित करते जा रहे हैं । आगम साहित्य में गौतम के अनेक जीवन प्रसंग फूलों की तरह बिखरे हुए हैं जिनमें कहीं भक्ति एवं विनय की सौरभ है, कहीं सरलता, सत्यनिष्ठा की महक है, तो कहीं ज्ञानोपासना एवं तत्त्व जिज्ञासा की सुगंध है, जो जीवन के विविध पक्षों को सुन्दर एवं सुरम्य रूप में प्रस्तुत करती हैं। अगले पृष्ठों पर हम गौतम के विविध जीवन प्रसंगों को एक माला का रूप देकर प्रस्तुत कर रहे हैं। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ इन्द्रभूति गौतम विनम्रता की मूर्ति अपार ज्ञानगरिमा एवं दुर्धष तपः शक्ति के स्वामी होते हुए भी गौतम का हृदय बहुत ही सरल एवं विनम्र था। उन्हें कभी अपने ज्ञान का अहंकार नहीं हुआ, और न कभी अपने पद एवं साधना की प्रगल्भता में बहे । ज्ञान प्राप्ति की उत्कट जिज्ञासा का वर्णन तो अगले पृष्ठों पर पाठक देख सकेंगे। यहाँ हम गौतम के जीवन की आदर्श विनम्रता एवं सत्य शोधकवृत्ति की झांकी प्रस्तुत कर रहे हैं । __ भगवान महावीर का प्रथम एवं प्रमुख श्रावक था आनन्द । जीवन के अन्तिम समय में उसने अपनी समस्त सांसारिक क्रियाओं का परित्याग करके जीवन मरण की आकांक्षा से रहित होकर उच्च आध्यात्मिक जागरण करते हुए आजीवन अनशन ग्रहण किया था। भगवान महावीर उस समय अपने श्रमण संघ के साथ वाणिज्य ग्राम के दूतिपलाश चैत्य में ठहरे हुए थे। गणधर गौतम दो दिन का उपवास पूर्ण करके पारणे के लिए नगर में गये । वहाँ भिक्षाचारो करते हुए जब वे कोल्लाग सन्निवेश के पास से गुजरे तो लोगों में एक चर्चा सुनी । स्थान स्थान पर एकत्र हुए लोग बात कर रहे थे—“भगवान महावीर का अंतेवासी (श्रावक) आनंद पौषधशाला में जीवन की अंतिम आराधना के रूप में अनशन व्रत लेकर जन्म-मरण की आकांक्षा से मुक्त होकर आध्यात्म जागरण कर रहा है।" लोगों की चर्चा सुनकर गौतम के मन में आनंद से मिलने की इच्छा हुई। वे कोल्लाग सन्निवेश में स्थित पौषधशाला में आये । गौतम गणधर को आता देखकर आनंद हर्ष एवं उल्लास से गद्गद् हो उठा। उसने हाथ जोड़कर गौतम को नमस्कार किया और प्रार्थना की--"भन्ते ! मैं इस दीर्घ तप के कारण अशक्त हो चुका हूँ, अतः उठकर आपका स्वागत सत्कार नहीं कर सकता, विधिवत् वन्दन नहीं कर सकता, अतः आप कृपा करके आगे आइए ताकि में सविधि बन्दन नमस्कार कर सकू।" आनन्द के विनयपूर्ण वचन सुनकर गौतम निकट आये । अशक्त होते हुए भी आनन्द ने सिर झुकाकर गौतम के चरणों में विधि युक्त वंदन किया। कुछ औपचारिक वार्तालाप के पश्चात् आनंद ने पूछा- "भगवन् ! गृहस्थाश्रम में रहते हुए गृहस्थ को अवधिज्ञान प्राप्त हो सकता है ?" गौतम ने उत्तर दिया- ''हाँ, हो सकता है ।" Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तित्व दर्शन .७३ आनन्द ने कहा- "भगवन् ! मुझे भी घर में रहते हुए अवधिज्ञान हुआ है। मैं पूर्व पश्चिम और दक्षिण दिशा में लवण समुद्र के पांच सौ योजन तक के क्षेत्र को देखता एवं जानता हूँ। उत्तरदिशा में चुल्ल हिमवंत वर्षधर पर्वत तक देखता एवं जानता हूँ। ऊँची दिशा में सौधर्म देवलोक तक एवं नीची दिशा में रत्न प्रभा पृथ्वी के लौलुच्य नामक नरकवास तक देखता एवं जानता हूँ।" गौतम ने आनन्द के विशाल अवधि ज्ञान का वर्णन सुना तो आश्चर्य हुआ। वे बोले- "आनन्द ! गृहस्थ को अवधि ज्ञान तो हो सकता है, किन्तु इतनी विस्तृत सीमावाला अवधिज्ञान नहीं हो सकता। तुम्हारा कथन भ्रांति युक्त हो सकता है, अतः सत्य प्रतीत नहीं होता, तुम्हें अपनी इस भूल के लिए प्रायश्चित्त करना चाहिए।" विनय एवं विस्मय के साथ आनन्द ने निवेदन किया--"भगवन् ! क्या जिन शासन में ऐसी भी परिपाटी है कि सत्य तथ्य एवं सद्भूत कथन के लिये भी प्रायश्चित्त करना पड़ता है ?" गौतम-'आनन्द ! नहीं !" आनन्द-- "भगवन् ! तो फिर मुझे सत्य कथन के लिये आप प्रायश्चित्त करने को कैसे कह रहे हैं ?" आनन्द के कथन से गौतम असमंजस में पड़ गये। उन्हें अपनी बात पर शंका हुई और वे तत्काल लौटकर भगवान महावीर के पास पहुँचे । भगवान को वंदना करके गौतम ने विनयपूर्वक आनन्द के वार्तालाप की चर्चा करते हुए पूछा- “भन्ते ! क्या गृहस्थ को इतनी बड़ी सीमावाला अवधिज्ञान हो सकता है ? इस प्रसंग को लेकर मेरे और आनन्द के बीच मतभेद हो गया है । वह कहता है मुझे ऐसा अवधिज्ञान प्राप्त हुआ है, और मैने कहा-इतना बड़ा अवधि ज्ञान गृहस्थ को नहीं हो सकता, तुम्हारा कथन असत्य है, प्रायश्चित करना चाहिए ! किन्तु भगवन् ! वह तो उलटा मुझे ही प्रायश्चित्त लेने की बात कहता है ! इसमें कौन सही है ?" भगवान महावीर ने गौतम को संबोधित करके कहा-“गौतम ! इस विषय में आनन्द का कथन सत्य है । तुम्हें अपनी बात का आग्रह नहीं होना चाहिए, Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ इन्द्रभूति गौतम प्रायश्चित्त तुम्हें करना होगा। तुमने सत्य वक्ता आनन्द की अवहेलना की है, अत: तुम लौटकर उसके घर जाओ, और अपनी भूल के लिए क्षमा माँगो ।"५८ गौतम को अपनी भूल का पता चलते ही वे तत्क्षण आनन्दगाथापति के पास पहुंचे, अपने कथन पर पश्चात्ताप करते हुए क्षमा मांगी और आनन्द की बात को भगवान के द्वारा सत्य प्रमाणित करने की स्वीकृति दी ।५९ इस घटना में गौतम के व्यक्तित्व का एक महान रूप उजागर हुआ है-विनम्रता ! बौद्धिक अनाग्रह एवं निरहंकार वृत्ति ! मनुष्य का स्वभाव है, वह सामान्यतः अपनी भूल को भूल रूप में नहीं जान पाता, जान लेने पर भी उसे स्वीकार नहीं करता, यदि मन-ही-मन स्वीकार भी कर ले तो भी किसी के समक्ष जाकर क्षमा माँगना तो उसे मृत्यु से भी अधिक भयानक एवं यंत्रणादायी लगता है । जिसमें यदि वह किसी ऊंचे पद पर है, और अपने से छोटों के समक्ष भूल स्वीकार करने का प्रसंग आता है तो वह उसके लिए असह्य वेदना का रूप ले लेती है । गणधर गौतम को जब आनन्द श्रावक के समक्ष अपनी भूल स्वीकार करने का प्रसंग आया तो उन्होंने बिना किसी प्रकार का ननुनच किए तत्क्षण प्रसन्नतापूर्वक उस ओर चल पड़े। यह उनके मन की कितनी महानता है । इस असीम विनम्रता में ही वस्तुतः उनकी महानता का सूत्र छिपा है । और यह विनम्रता गौतम के आन्तरिक जीवन की सच्ची निग्रन्थता की सूचना देती है । तथागत बुद्ध ने कहा है६० "निन्थ वह है जिसके मन में गाँठ नहीं होती है और गाँठ उसे नहीं होती जिसका मान-अहंकार क्षीण हो गया है ।" इसी घटना से गौतम की सत्य-संधित्सु वृत्ति की एक विराट झलक मिल जाती है, जब उन्हें आनन्द के कथन में सत्य प्रतीत हुआ तो वे उसकी स्पष्ट स्वीकृति देने को चल पड़े, अपने दो दिन के उपवास के पारणे की परवाह किये बिना । सत्य की स्वीकृति और सत्य का सम्मान करना गौतम का सहज स्वभाव था ऐसा प्रतीत होता है । भगवान महावीर का यह संदेश-सच्चमेव समभिजाणाहि६१— उनके अन्तरमन का स्पन्दन बन गया था जो प्रतिश्वास में धड़क रहा था। ५८. आणंदं च समणोवासयं एयम8 खामेहि-उवासगदशा १८६ ५९. उवासगदशा १ सूत्र ७० से ८५ ६०. पहीनमानस्स न सन्तिगन्था-संयुत्तनिकाय १।१।२५ ६१. आचारांग १।३-३-१११ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तित्व दर्शन ७५ सरलता का अक्षय स्रोत गणधर गौतम को जीवन में चरम कोटि का सम्मान एवं प्रतिष्ठा प्राप्त हुई थी। भगवान महावीर के तो वे प्रिय शिष्य थे ही, उनकी अनन्य कृपा उन पर थी, और साथ ही संपूर्ण श्रमण संघ की श्रद्धा, सम्राटों और सेनापतियों का आदर सम्मान भी गौतम को प्राप्त हुआ था। इतनी श्रद्धा सम्मान पाकर भी गौतम कभी अपने को भूले नहीं थे। उनके मन में कभी अहंकार तो जगा ही नहीं। उनका व्यवहार इतना मृदु और आत्मीय होता था कि सामान्य से सामान्य जन, अबोध बालक भी उनकी ओर यों आकृष्ट हो जाता जैसे शिशु माता की ओर । उनके जीवन की सरलता एवं मृदुता का निदर्शन कराने वाली एक घटना अंतकृत् दशा में उल्लिखित है । एक बार भगवान महावीर पोलासपुर नगर में पधारे । वहाँ पर विजय नामक राजा था। जिसकी श्रीदेवो नाम की महारानी थो । श्रीदेवी का एक अत्यंत प्रिय सुकुमार पुत्र था अतिमुक्तक कुमार । गणधर गौतम पोलासपुर नगर में भिक्षा के लिए भ्रमण करते हुए उधर पहुँच गए जहाँ पर राजकुमार अतिमुक्तक अपने बाल साथियों के साथ खेल रहा था। बच्चों के खेलने के लिए एक मैदान था जिसे 'इन्द्रस्थान' कहा जाता था। गौतम जब उस इन्द्रस्थान के निकट से गुजरे तो कुमार अतिमुक्तक ने उन्हें देखा । गौतमस्वामी की विशिष्ट श्वेत वेषभूषा, और दिव्य रूप एवं मंद-मंद गति देखकर कुमार के मन में उनके प्रति कौतुहल जगा । वह कुछ देर उनकी ओर देखता रहा, फिर निकट आया तो उनकी अद्भुत सौम्यता से निर्भय होकर पूछने लगा- “भदन्त ! आप कौन हैं और किस कारण यों घर-घर में घूम रहे हैं ?' गौतम ने मंदस्मित के साथ बालक की ओर देखा, सहज निश्छलता एवं गुलाबी सकुमारता उसके मुख पर बिखर रही थी। मधुर स्वर से गौतम ने कहा"देवानुप्रिय ! हम श्रमण निग्रन्थ हैं, भिक्षा प्राप्त करने के लिए इस प्रकार उच्च-नीचमध्यम कुलों में भ्रमण कर रहे हैं ।" अतिमुक्तक-- "भन्ते ! आप मेरे घर से भी भिक्षा लेंगे ?" ६२. अतकृत् दशा वर्ग ६ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रभूति गौतम गौतम-"हाँ, क्यों नहीं।" अतिमुक्तक--"तो फिर चलिए, आप मुझे बड़े ही प्रिय लग रहे हैं, मैं अपने घर ले जाकर आपको भिक्षा दूंगा।” यों कहकर अतिमुक्तक ने गौतम की अंगुली पकड़ ली। ६३ जैसे कोई मित्र अपने मित्र की अंगुली पकड़ कर उसे अपने घर ले चलने का आग्रह करता हो, और गौतम भो बालक अतिमुक्तक के साथ-साथ राजमहलों की ओर चल दिये । जब श्रीदेवी ने गौतम स्वामी की अंगुली पकड़े राजकुमार को महलों की ओर आते देखा तो वह हर्ष से गद्गद् हो उठो । इतने बड़े महान तपस्वी महाश्रमण ! छोटे से बच्चे के साथ अंगुली पकड़े कितने प्रेम एवं सरल भाव के साथ भिक्षा के लिये आ रहे हैं ? रानी का अंग-अंग प्रसन्नता से नाच उठा। उसने सामने आकर गौतम को वंदना की और अत्यन्त भाव प्रवणता से भिक्षा प्रदान की। भिक्षा लेकर जब गौतम स्वामी चलने लगे तो कुमार अतिमुक्तक ने पूछा"भन्ते ! अब आप कहाँ जायेंगे ? आपका निवास कहाँ हैं ?" श्रीदेवी बालक के भोले-भाले प्रश्नों पर सकुचा रही थी कि यह अबोध बालक गौतम स्वामी से क्या ऊलजलूल पूछ बैठेगा ? पर गौतम बड़े ही स्नेह एवं सरलता के साथ बालक को उत्तर देते हुए बोले--- "कुमार ! हमारे धर्मगुरु भगवान महावीर स्वामी तुम्हारे नगर के बाहर श्रीवन उद्यान में पधारे हैं, हम लोग वहीं ठहरे हैं।" गौतम के स्नेहमय व्यवहार से कुमार का मन आकृष्ट हो गया। वह बोला"भन्ते ! मैं भी आपके साथ आपके धर्माचार्य के दर्शन करने को चलू ?" गौतम ने स्वीकृति दी, कुमार गौतम के साथ-साथ भगवान महावीर के निकट पहुँचा। भगवान ने राजकुमार को धर्म कथा सुनाई और कुमार को वैराग्य जागृत हुआ। उसने माता पिता की आज्ञा लेकर भगवान का शिष्यत्व स्वीकार किया। बालक के साथ बालक का-सा व्यवहार करके उसके हृदय को जीतना सरल नहीं है । विद्वान विद्वान के साथ चर्चा करके उसे प्रभावित कर सकता है, पर अबोध बच्चों के हृदय को समझकर उसे धर्म एवं अध्यात्म जैसे नीरस विषय की ओर आकृष्ट ६३. अहं तुभं भिक्खं दवावेमिति भगवं गोयमं अंगलीए गेण्इ । -अंतकृत् दशा ६ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तित्व दर्शन ওও करना बहुत ही कठिन है । इसमें विद्वत्ता की नहीं, किन्तु हृदय की सरलता, स्नेहसिक्तता एवं मधुरता की आवश्यकता होती है । बालक द्वारा अंगुली पकड़ने पर भी गौतम स्वामी ने उसे झिड़का नहीं, उससे छुड़ाने का प्रयत्न भी नहीं किया। चूंकि ऐसा करने पर संभव था बालक के कोमल हृदय को ठेस पहुँचे, साधुवेष के प्रति उसके मन में जो आकर्षण जगा, वह नफरत व भय में बदल जाये । गौतम की इस प्रकार की सरलता, मधुरता एवं स्नेहशीलता के कारण ही न जाने कितने खिलते हुए सुकुमार शैशव और उभरते हुए अल्हड़ यौवन त्याग, साधना एवं अध्यात्म विद्या के मार्ग पर आकर समर्पित हो गये। लगता है गौतम वास्तव में ही सरलता एवं मधुरता का अक्षय स्रोत था। मधुर अातिथ्य गौतम के हृदय की मधुरता का एक ओर उदाहरण भगवती में आता है । कृतंगला नगरी से कुछ दूर श्रावस्ती में परिव्राजक ५ साधुओं का एक विशाल ६४. भगवतीसूत्र २।१ ६५. (क) परिव्राजक-भिक्षा से आजीविका करने वाला साधु-निरुक्त १।१४ -(वैदिक कोश) (ख) जैन सूत्र एवं उत्तरवर्ती साहित्य में तापस, परिव्राजक, सन्यासी आदि अनेक प्रकार के साधकों का विस्तृत वर्णन आता है। इसके लिए औपपातिक सूत्र सूत्रकृतांग नियुक्ति, पिडनियुक्ति गा. ३१४ वृहत्कल्प भाष्य भा.४ पृ० ११७० निशोथ सूत्र सभाष्य चूणि भाग-२ एवं भगवती सूत्र ११६. आवश्यक चूर्णी पृ० २७८ । धम्मपद अट्ठकथा २ पृ० २०९ दीघ निकाय अट्ठकथा-१ पृ० २७० । ललित विस्तर पृ० २४८ । तथा जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज पृ० ४१२ से ४१६ तक में देखा जा सकता है । परिव्राजक श्रमणों का संक्षिप्त परिचय "गेरुआ वस्त्र धारण करने के कारण इन्हें गेरुअ अथवा गैरिक भी कहा गया है। परिव्राजक-श्रमण ब्राह्मण धर्म के प्रतिष्ठित पण्डित होते थे । वशिष्ट धर्म १. निशीथचूर्णी १३.४४२० । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ इन्द्रभूति गौतम परिवार रहता था। उनमें गर्दभालि नामक परिव्राजक का शिष्य स्कन्दक परिव्राजक मुख्य था-स्कन्दक कात्यायन गोत्र का था, चार वेद एवं अन्य अनेक धर्मशास्त्रों का वह पारंगत था। ब्राह्मण एवं परिव्राजकों के दर्शन का उसने गहन अध्ययन एवं अनुशीलन किया था। सूत्र में उल्लेख है कि परिव्राजक को अपना सिर मुण्डित रखना चाहिए । एक वस्त्र अथवा चर्मखण्ड धारण करना चाहिए, गायों द्वारा उखाड़ी हुई घास से अपने शरीर को आच्छादित करना चाहिये। तथा जमीन पर सोना चाहिए। ये लोग आवसथ (अवसह) में निवास करते तथा आचारशास्त्र और दर्शन आदि विषयों पर वादविवाद करने के लिए दूर-दूर तक पर्यटन करते । परिव्राजक श्रमण चार वेद इतिहास (पुराण), निघंटु पष्ठितन्त्र, गणित, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, छन्द, निरुक्त, ज्योतिष शास्त्र तथा अन्य ब्राह्मण शास्त्रों के विद्वान होते थे। दान धर्म, शौच धर्म और तीर्थ स्नान का वे उपदेश करते थे। उनके मतानुसार जो कुछ भी अपवित्र होता वह जल और मिट्टी के धोने से पवित्र हो जाता है । और इस प्रकार शुद्ध देह (चोक्ष) और निरवध्य व्यवहार से युक्त होकर स्नान करने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है। इन परिव्राजकों को तालाब, नदी, पुष्करिणी, वापी, आदि में स्नान करने; गाड़ी, पालकी अश्व, हाथी आदि पर सवार होने, नट मागध आदि का तमाशा देखने, हरित वस्तु आदि को रोंदने, स्त्री, भक्त, देश, राज और चोर कथा में संलग्न होने, तुम्बी, काष्ठ और मिट्टी के पात्रों के सिवाय बहुमूल्य पात्र धारण करने, गेरुए वस्त्र को छोड़कर विविध प्रकार के रंगीन वस्त्र पहनने, तांबे की अंगूठी (पवित्तिय) को छोड़कर हार, अर्धहार, कुण्डल आदि आभूषणों को धारण करने, कर्णपुर को छोड़कर अन्य मालाएँ पहनने और गंगा की मिट्टी को छोड़कर अगुरु, चन्दन आदि का शरीर पर लेप करने की मनायी है । उन्हें केवल पीने के लिए एक मागध प्रस्थप्रमाण जल ग्रहण करने का विधान है । वह भी बहता हुआ और छन्ने से छना हुआ (परिपूय) । इस जल को वे हाथ, पैर, थाली या चम्मच आदि धोने के उपयोग में नहीं ला सकते ।१३ -जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज पृ० ११२-११६ २. १०-६-११; मलालसेकर, डिक्सनरी आँव पाली प्रोपर नेम्स, जिल्द २, पृ० १५९ आदि; महाभारत १२.१९०.३ । ३. औपपातिकसूत्र ३८, पृ० १७२-७६ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तित्व दर्शन श्रावस्ती में निग्रन्थ प्रवचन के रहस्यों का जानकार एक पिंगल नामक निग्रन्थ रहता था । भगवान महावीर की वाणी उसने सुनी थी और वह उस पर अत्यन्त श्रद्धा रखता था । एक बार पिंगल निर्ग्रन्थ स्कन्दक परिव्राजक के पास आया और उसे आक्षेपात्मक भाषा में पूछा - " मागध ! क्या तुम बता सकते हो, यह लोक सान्त है या अनन्त ? जीव सान्त है या अनन्त ? सिद्धि एवं सिद्ध सान्त है या अनन्त ? किस प्रकार की मृत्यु प्राप्त होने से पुनर्जन्म का अवरोध हो सकता है ? क्या तुम मेरे इन प्रश्नों का समाधान कर सकोगे ? ६६ पिंगल के द्वारा इस प्रकार के गम्भीर प्रश्न सुनकर स्कन्दक विचार मग्न हो गया । उसे इन प्रश्नों का उत्तर नहीं सूझा । पिंगल के द्वारा दो-तीन बार पूछने पर भी वह मौन रहा, और मन-ही-मन अपने शास्त्रों पर शंका होने लगी, जहाँ इस प्रकार के प्रश्नों पर कहीं कोई चिन्तन नहीं किया गया । उसको स्व-आगम श्रद्धा विचलित हो गई, और वह इनका समाधान पाने को आतुर हो उठा। उसी समय स्कंदक ने लोगों में एक चर्चा सुनी कि सर्वज्ञ सर्वदर्शी प्रभु महावीर आज कृतंगला नगरी के छत्र पलाश उद्यान में पधारे हैं । उन महाभाग के दर्शन अभिवादन से तो परम लाभ प्राप्त होता ही है, किन्तु उनके दर्शन तो दूर रहे, तो उनका नाम गोत्र सुनने से भी मनुष्य का कल्याण हो जाता है। उनके उपदेश से सब प्रकार के संशय विनष्ट हो जाते हैं और आत्मा परम समाधि को प्राप्त होता है ।" जनता के मुख से इस प्रकार का संवाद सुनते ही स्कन्दक के विचारों में एक हलचल हुई, उसे एक मार्ग दीखपड़ा, अपनो शंकाओं का समाधान प्राप्त करने की बलवती जिज्ञासा उसमें जगी । वह अपने स्थान पर आया, त्रिदण्ड, कमण्डलु, रुद्राक्ष माला, आसन आदि लेकर वह भी भगवान महावीर के समवसरण की ओर चल पड़ा । ६६. मागहा ! किस अंते लोए, अणंते लोए ? सअंते जीवे, अणते जीवे ? अंतासिद्धि अता सिद्धि ? अंते सिद्ध, अणते सिद्ध े ? केण वा मरणेणं मरमाणे जीवे वड्ढति वा हायति वा ? - भगवती ७९ सूत्र २।१ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रभूति गौतम भगवान महावीर ने गौतम को संबोधित करके पूछा--"गौतम ! क्या तुम अपने चिर परिचित पूर्व जन्म के मित्र को देखना चाहते हो' ? । गौतम ने आश्चर्य पूर्वक भगवान की ओर देखा, उनकी भावना में आश्चर्य था, जिज्ञासा थी ! भगवान ने कहा--- "गौतम तुम आज अपने पूर्व परिचित मित्र को देखोगे ?'६७ गौतम अभी भी भगवान की रहस्य भरी वाणी को नहीं समझ सके ! उन्होंने पूछा-'भगवन् ! वह मित्र कौन है, जिसे मैं आज देखूगा ?" भगवान ने स्कंदक का परिचय देते हुए बताया- ''वह स्कन्दक परिव्राजक तुम्हारे पूर्व जन्म का मित्र है, उसके मन में शंका हो जाने से वह समाधान पाने के लिए अभी आ रहा है । कुछ समय बाद वह तुम्हारे निकट आयेगा और तुम उसे देखोगे।" गौतम के हृदय में मित्र दर्शन की उत्कण्ठा जगी और साथ ही उसके कल्याण की कामना भी। वस्तुतः सच्चा मित्र वही होता है जो कल्याण-सखा होता है । गौतम ने भगवान से पूछा- "भन्ते ! मेरे पूर्व जन्म का मित्र स्कंदक क्या आपके पास धर्म श्रवण कर दीक्षित हो सकेगा ?" भगवान ने इस प्रश्न का उत्तर 'हाँ' में दिया। तभी स्कन्दक आते हुए दिखलाई पड़े । गौतम श्रमण परम्परा के प्रतिनिधि थे, और स्कन्दक एक परिव्राजक परम्परा का विद्वान ! फिर भी गौतम के मन में स्कन्दक के प्रति आदर जगा, सामान्य शिष्टाचार और स्वागत सत्कार की विधि के अनुसार वे भगवान के पास से उठे दस-बीस कदम आगे बढ़े और स्नेह एवं माधुर्य से छलछलाई आँखों से हर्ष व्यक्त करते हुए सभ्य, शिष्ट एवं मधुर वाणी से बोले- “स्कन्दक ! आप आगए ? स्वागत है आपका, स्वागत है । बहुत बहुत स्वागत है । आपका विचार, आपकी धर्म जिज्ञासा प्रशंसनीय है । ६८ पिंगल निग्रन्थ के प्रश्नों द्वारा आपके मन में जो जिज्ञासा जगी है अब उसका समाधान प्रभु से प्राप्त कीजिए !" ६७. दच्छसिणं गोयमा ! पुव्व संगयं । कं णं भंते ? खंदयं नाम ! ६८. हे खंदया ! सागयं, खंदया ! सुसागयं, अण रागयंखंदया ! सागय मणुरागयं खंदया ! ----भगवती २११. --भगवती २११. Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तित्व दर्शन र गौतम के इस प्रकार के निश्छल स्नेह एवं सन्मान भरे वचनों को सुनकर परिव्राजक स्कन्दक पुलकित हो उठा । साथ ही उसके हृदय की गुप्त जिज्ञासा की चर्चा सुनकर उसे सुखद आश्चर्य भी हुआ। भगवान की सर्वज्ञता की बात जो उसने सुनी थी उस पर सहज ही विश्वास होने लगा। और वह इस प्रकार प्रसन्नभाव से गौतम के साथ भगवान के चरणों में आकर वन्दन नमस्कार करके उपस्थित हुआ। स्कन्दक ने प्रभु से अपनी शंकाओं का समाधान पाया, सम्यग दृष्टिप्राप्त हुई और वह सर्वात्मना प्रभु के चरणों में समर्पित हो गया । __ भगवती सूत्र के वर्णनों से ज्ञात होता है कि स्कन्दक ने भगवान से जिन प्रश्नों का समाधान पाया तथा प्रकार के प्रश्न उस युग के दार्शनिक मस्तिष्क में चारों ओर चक्कर काट रहे थे। अनेक परिव्राजक, सन्यासी तथा श्रमण उन प्रश्नों पर चिन्तन करते रहते, और यथार्थ समाधान न मिलने के कारण इधर उधर विद्वानों एवं धर्मप्रवर्तकों के द्वार पर उनका समाधान खोजने घूमते रहते थे। बुद्ध के निकट भी इसी प्रकार के प्रश्न लेकर कई जिज्ञासु आते थे किन्तु बुद्ध उन प्रश्नों को अव्याकृत६९ करार देकर उनसे छुटकारा पाने का प्रयत्न करते । जबकि महावीर इस प्रकार के प्रश्नों का समाधान करके जिज्ञासुओं को आत्मसाधना की ओर मोड़ने का उपक्रम रचते थे। स्कन्दक की घटना से ज्ञात होता है कि वह अपनी शंकाओं का समाधान प्राप्त कर परम सन्तुष्ट हुआ, भगवान का शिष्य बना। बारह अंगों का अध्ययन करके जैन दृष्टि का परम रहस्य वेत्ता बना और फिर सम्यग्ज्ञान पूर्वक अनेक प्रकार को तपः साधना करके समाधि मरण प्राप्त किया।७० ६९. बुद्ध ने जिन प्रश्नों को अव्याकृत कहा हैं, वे यों हैं १. क्या लोक शाश्वत है ? २. क्या लोक अशाश्वत है ? ३. क्या लोक अन्तमान है ? ४. क्या लोक अनन्त है ? ५. क्या जीव और शरीर एक है ? (अगले पृष्ठ पर देखिए) Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रभूति गौतम स्कन्दक जैसे परिव्राजक परम्परा के सूत्रधार को भगवान महावीर की ओर प्रेरित करने में पिंगल निग्रन्थ भले ही निमित्त रहा हो, पर भगवान के प्रति उसकी श्रद्धा भक्ति को जगाने एवं संयम साधना के प्रति आकृष्ट करने में गौतम का मधुर व्यवहार एवं हार्दिक स्नेह प्रमुख कारण रहा-यह निःसन्देह कहा जा सकता है। भगवान के द्वार पर गौतम द्वारा स्कन्दक का स्वागत और सम्मान जैन शिष्टाचार की एक महत्वपूर्ण घटना है । अन्य परम्परा के भिक्षुओं के साथ इस प्रकार के मधुर एवं शिष्टाचार पूर्ण व्यवहार के उदाहरण आज नई सभ्यता के युग में भी हमें उच्च व्यावहारिक दृष्टि प्रदान करते हैं। निर्भीक शिक्षक गौतम जितने व्यवहार कुशल थे, उतने ही स्पष्ट वक्ता और निर्भीक शिक्षक भी थे। प्रायः व्यवहार कुशलता को चाटुकारिता का रूप दे दिया जाता है, उसे एक प्रकार की खुशामद या 'गंगा गये गंगादास जमुना गये जमुनादास' की नीति मानी जाती है, किन्तु यह हमारे मन की भ्रान्ति तथा आत्मविश्वास की दुर्बलता है । व्यवहार कुशलता के साथ स्पष्टवादिता एवं निर्भीक शिक्षक होने से कोई विरोध नहीं है, अपितु ये गुण तो व्यवहार कुशलता को और चमका देने वाले हैं—यह बात गौतम और उदकपेढाल (पार्श्वनाथ के शिष्य) के बीच हुए वार्तालाप के अनन्तर उनके व्यवहार पर की गई गौतम की टीका से स्पष्ट हो जाता है।७१ उदक पेढाल ने अनेक प्रश्न किये थे और गौतम ने उनका उचित समाधान भी दिया। पर उसके व्यवहार से गौतम को प्रतीत हुआ कि उसमें कुछ अपने ज्ञान का अहंकार आ गया है, और वह इतर श्रमण ब्राह्मणों पर कुछ-कुछ कटु आक्षेप एवं ६. क्या जीव और शरीर भिन्न हैं ? ७. क्या मरने के बाद तथागत नहीं होते ? ८. क्या मरने के बाद तथागत होते भी हैं, और नहीं भी होते ? ९. क्या मरने के बाद तथागत न होते हैं और न नहीं होते हैं ? -मझिम निकाय, चूलमालुक्य सुत्त६३ -दीघनिकाय, पोट्ठ पाद सुत्त, ११९, ७०. भगवती सूत्र २।१ ७१. संवाद का पूरा विवरण देखिए परिसंवाद खण्ड में Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तित्व दर्शन शाब्दिक प्रहार करने में भी नहीं चूकता है तो गौतम ने उसे प्रेम पूर्वक शिक्षा के रूप में कहा—'आयुष्मन् ! जो साधक पाप कर्मों से मुक्त होने के लिये सम्यक् ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र को आराधना कर रहा हो, वह यदि दूसरे श्रमण-ब्राह्मणों की अवहेलना एवं निन्दा करता है, (भले ही वह अपने मन में उन्हें अपना मित्र समझता हो) तो उसे परलोक में कल्याण प्राप्त नहीं होता।"७५ . संभवतः गौतम की शिक्षा उदक पेढाल पुत्र के मन में चुभ गई हो, उसे अपनी वृत्ति पर कुछ झिझक आई हो और इसलिए वह इतनी तत्त्वचर्चा कर चुकने के बाद भी बिना किसी प्रकार के अभिवादन एवं कृतज्ञता ज्ञापन के चल पड़ा तो गौतम को उसका अविनयपूर्ण व्यवहार अखरा । एक श्रमण, जिसके कि धर्म का मूल ही विनय है. विनय, सभ्यता, शिष्टाचार की शिक्षाओं से जिसके धर्मग्रन्थ भरे पड़े हैं। वह यों शंका समाधान कर्ता के प्रति अविनय पूर्ण व्यवहार करे यह नितान्त अनुचित था और गौतम जैसे महान साधक, उपदेशक एवं विनयमूर्ति इस बात को यों ही गवारा नही कर सकते थे। गौतम ने उदक पेढालपुत्र को उठते-उठते पुकारा-"आयुष्मन् ! किसी श्रमण निग्रन्थ के पास यदि धर्म का एक भी श्रेष्ठ पद, एक भी सुवचन-- ''एगमपि स वयणं' सुनने को मिला हो, तथा किसी ने अनुग्रह करके योगक्षेम का उत्तम मार्ग दिखाया हो, तो क्या उसके प्रति कुछ भी सत्कार, सम्मान व आभार प्रदशित किये बिना चले जाना चाहिए ?"७५ ' गौतम के कहने का ढंग इतना स्नेहपूर्ण एवं हृदयस्पर्शी था कि उदक पेढाल पुत्र के पैर वहीं रुक गये, वह आश्चर्यपूर्वक गौतम स्वामी की ओर देखने लगा, उसकी आँखों में कृतज्ञता के भाव आने लगे, और वह संभ्रमित-सा हो गया कि मुझे कैसा व्यवहार करना चाहिए ? ७२. आउसंतो उदगा ! जे खलु समणं वा माहणं वा परिभासेइ मितिमन्नति....... से खलु परलोग पलिमंथत्ताए चिट्ठइ। -सूत्र कृतांग २।७।३६ ७३. "एवं धम्मस्स विणओ मूलं-दशव० ९।२।२ ७४. (क) जस्संतिए धम्मपयाइं सिक्खे तस्संतिए वेणइयं पउंजे-दशवै० ९।१।१२ (ख) देखिए उत्तराध्ययन विनय अध्ययन गाथा १८-२३ ७५. उदगा ! जे खलु तहा भूतस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमपि आरियं सुवयणं सोच्चा निसम्म""आढाई परिजाणंति वंदंति नमसंति.."। सूत्र कृतांग २।७।३७ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रभूति गौतम गौतम ने आगे कहा-"आयुष्मन् ! मेरे विचार से ऐसे श्रेष्ठ व्यक्ति को पूज्य बुद्धि से नमस्कार करना चाहिए, उसका सत्कार एवं सम्मान करना चाहिए। उन्हें कल्याणकारी मंगलमय देवतास्वरूप मानकर उनकी पर्युपासना करनी चाहिए।" गौतम के 'हियं मियं विगयभयं' हित-मित एवं निर्भीक वचनों को सुनकर उदक पेढाल का हृदय गद्गद हो गया। उसने क्षमा मांगते हुए विनयपूर्वक अपनी भल स्वीकार की और कहा-"भगवन् ! मुझे पहले कभी इस प्रकार की शिक्षा सुनने का अवसर ही नहीं मिला, अत: मैं विनय के आचार से भी अनभिज्ञ रहा। आपके शब्दों से अब मुझे अपने कर्तव्य का ज्ञान हुआ है, साथ ही आपके हितकारी वचनों पर विश्वास भी हुआ है, श्रद्धा एवं प्रतीति हुई है, अब मैं अपने कर्तव्य एवं धर्म को पहचान पाया हूं और मैं चाहता हूँ कि आपका शिष्यत्व स्वीकार करूँ।"७६९ उदकपेढालपुत्र की भावना को समझकर गौतम ने उसे चतुर्याम धर्म के स्थान पर पंचयाम धर्म की शिक्षा दी और भगवान महावीर के श्रमणसंघ में सम्मिलित किया। उदक पेढाल पुत्र पार्श्वनाथ की प्राचीन परम्परा से संबंधित था। गौतम ने उसके प्रश्नों का संतोषजनक समाधान देकर ही इति नहीं समझा। किन्तु जब उसे व्यवहार के क्षेत्र में अनभिज्ञ एवं असंस्कृत देखा तो कर्तव्य का उचित बोध देने में भी नहीं चूके। भले ही उनकी 'हित शिक्षा' एक बार उसे कड़वी लगी हो, किन्तु वह मिसरी सी मधुर होने के साथ वजनदार भी थी, माधुर्य के साथ चोट करने की क्षमता उसमें थी, उसी मधुर चोट ने उदक पेढाल पुत्र को अपने कर्तव्य, विनयव्यवहार एवं आत्मधर्म के प्रति जागृत कर दिया और फलतः वह सही मार्ग पर आ सका। इस घटना में गौतम के अन्तर का सच्चा गुरुत्व उजागर हुआ है जो शिष्य के कल्याण के लिए सदा निर्भय होकर हित बुद्धि से मार्गदर्शन करता रहता है। ७६. एतेसिणं भंते ! पदाणं पुव्विं अन्नाणयाए असवणयाए अबोहिए अणभिगमेणं अदिट्ठाणं असुयाणं "एयमट्ठ सद्दहामि पत्तियामि रोएमि एवमेव से जहेय तुब्भे वदह–सूत्र कृतांग २।७।३८ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तित्व दर्शन गौतम के व्यक्तित्व में जिस प्रकार निर्भीक शिक्षक का रूप निखरा है, उसी प्रकार उनमें कुशल उपदेशक के गुण भी प्रकट हुए हैं । संस्कृत की एक सूक्ति है— वक्ता दशसहस्रषु हजार में कोई एक पंडित होता है, और दश हजार में कोई एक १,७८ वक्ता | हर विद्वान् शास्त्रज्ञ वक्ता नहीं हो सकता । आचार्य सिद्धसेन ने कहा है" हर कोई सिद्धान्त का ज्ञाता भी निश्चित रूप से प्ररूपणा करने योग्य प्रवक्ता नहीं हो सकता ।' 'भगवान महावीर ने बताया है - "धर्म का उपदेश करने वाला निर्भय एवं सम-दृष्टि होना चाहिए, साथ ही उसे यह भी ज्ञान होना चाहिए कि जिसे उपदेश दिया जा रहा है उसकी पात्रता क्या है ? उसके विचार, उसकी श्रद्धा एवं योग्यता कैसी है ? इन विषयों की सम्यक् आलोचना करके हो प्रवक्ता धर्म का उपदेश करे ।”७९ गणधर गौतम की उपदेश शैली में इन गुणों का सामंजस्य हुआ है, यह कहा जा सकता है ? भले ही आज गौतम द्वारा उपदिष्ट वचन, ग्रंथ निबद्ध हमारे समक्ष न रहे हों, किन्तु जिस प्रकार की घटनाएँ उल्लिखित हैं, उसमें गौतम के उपदेश की फलश्रुति प्रायः सार्थक रूप में लक्षित हुई हैं । गौतम ने जिन-जिन को उपदेश दिया, वे चाहे सामान्य ग्रामीण व अबोध किसान रहे हों, या कुशल गाथापति, परिब्राजक एवं सम्राट रहे हों, वे प्रायः उपदेश से प्रभावित होकर उनके शिष्य बने हैं, श्रमण धर्म स्वीकार करके साधना पथ पर अग्रसर हुए हैं ऐसे अनेक उल्लेख मिलते हैं । ७७. श्तेषु जायते शूरः सहस्र ेषु च पंडित: । वक्ता दशसहस्रेषु दाता भवति वा न वा ।। वि जाणओ विणियमा पण्णवणा णिच्छिओ णामं । ७८. ७७ ७६. ८०. देखिए – (क) उत्तराध्ययन (टीका) अ० १० (ख) उपदेशपद सटीक गा० ७ (ग) त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित १०/९ ८५ कुशल उपदेष्टा जहा पुण्णस्स कत्थइ तहा तुच्छस्स कत्थइ जहा तुच्छस्स कत्थइ तहा पुण्णस्स कत्थइ अवि य हणे अणाइयमाणे, इत्थंपि जाण सेयंति नत्थि ? केयं पुरिसे कं च नए ? - आचारांग १२६ — सन्मति तर्क ३।६३ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ इन्द्रभूति गौतम 1 एक बार भगवान महावीर जनपद विहार करते हुए किसी वन से गुजर रहे थे । मार्ग में किसी खेत पर एक किसान को हल चलाते हुए देखा । चिलचिलाती धूप में वह किसान दुर्बल बैलों को बड़ी नृशंसता से पीट-पीट कर आगे धकेल रहा था । बैलों की पीठ पर रस्सियों के दाग जम गये थे, बिचारे भूखे प्यासे बैल धूप में हल के जुए को गिरा कर बैठने की चेष्टा कर रहे थे और किसान उन्हें बैंत से पीट कर हांकने का यत्न कर रहा था । करुणावतार भगवान महावीर ने जब यह हृदय द्रावक दृश्य देखा तो गौतम से कहा- -" गौतम ! जाओ इस किसान को उपदेश से प्रतिबुद्ध करो ।" गौतम प्रभु की आज्ञा लेकर किसान के निकट पहुँचे । बैल हाँक रहे थे, फिर भी किसान उन पर बैंत की वर्षा करता हुआ आगे धकेल रहा था । गौतम ने किसान को सरल एवं सीधी भाषा में उपदेश दिया। भले ही किसान के समक्ष गरीबी की समस्या रही हो, पेट भरने की पुकार ने उसे इस क्रूरता का पाठ सिखाया हो, पर उसका एकमेव समाधान 'अर्थ' ही तो नहीं था । हृदय परिवर्तन से भी उसका कोई समाधान निकल सकता था और वही समाधान गौतम ने दिया । कृषक पर उपदेश का ऐसा जादू हुआ कि वह खेती और बैलों को छोड़कर गौतम का शिष्य बन गया । गौतम ने उसे अपने धर्माचार्य के पास चलने को कहा - किसान ने कहा- मेरे गुरु तो आप ही हैं । तब गौतम ने उसके समक्ष भगवान के दिव्य अतिशयों का वर्णन कर उस नव प्रव्रजित शिष्य को भगवान के निकट लेकर आये । नव प्रव्रजित किसान जैसे जैसे भगवान के समीप आया उसके हृदय में भय एवं आवेश की भावना जगने लगी । भगवान महावीर को देखते ही उसका रोम-रोम कांप उठा जैसे बर्फीले तूफान से पौधे कांप उठते हैं । उसने कहा- मैं इनके पास नहीं जाऊँगा । गौतम - ये ही तो अपने धर्माचार्य हैं । किसान - 'ये ही तुम्हारे गुरु हैं तो तुम्हीं रखो, मुझे नहीं चाहिए' यह कह कर वह भयभ्रांत होकर पीछे से खिसक गया । गौतम स्वामी ने जब नव-शिष्य को भगवान के समक्ष उपस्थित करने की भावना से पीछे देखा, तो वह तो जंगल की ओर उलटे पाँवों दौड़ रहा था जैसे कोई हरिण बंधन से छूटकर दौड़ रहा हो । आश्चर्य चकित गौतम ने भगवान से पूछा - "भन्ते ! यह क्या अभूतपूर्व देख रहा हूँ । भयत्रस्त एवं अशरण व्यक्ति आपके चरणों में आकर त्राण एवं शरण पाते हैं, किन्तु यह मेरा नव प्रव्रजित शिष्य तो आपको देखकर भयभीत हुआ भाग रहा है ।" Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तित्व दर्शन ८७ भगवान ने समाधान किया- "गौतम ! यह पूर्व बद्ध प्रीति एवं वैर का खेल है । इस किसान के जीव की तुम्हारे साथ पूर्वप्रीति है, अनुराग है, इसलिए तुम्हें देखकर इसके मन में अनुराग पैदा हुआ और तुम्हारे उपदेश को सुनकर इसे सुलभ बोधित्व की प्राप्ति हुई । मेरे प्रति अभी इसके संस्कारों में वैर एवं भय की स्मृतियाँ शेष हैं, इसीलिए यह मुझे देखकर पूर्व वरस्मरण के कारण भयभीत होकर भाग छूटा।" गौतम के आग्रह पर भगवान ने अपने त्रिपृष्ठ वासुदेव के जीवन की घटना सुनाई । “गौतम ! इस जन्म से नौ जन्म पूर्व में त्रिपृष्ट नाम का राजकुमार हुआ था। तुम मेरे प्रिय सारथी थे। एक बार मैंने एक उपद्रवी केशरी सिंह को पकड़ कर हाथों से चीर डाला था। उस समय सिंह की अंतिम सांस जब छूट रही थी तब तुमने उसे प्रिय वचनों से संतुष्ट किया एवं मनुष्य के हाथों से मारे जाने पर अफसोस न करने को सान्त्वना दी थी । ८१ उन अन्तिम समय के अनुगगमय वचनों को स्मृति के कारण तुम्हारे प्रति इसके मन में अनुगग के संस्कार जन्मे और मेरे हाथ से मृत्यु होने के कारण मेरे प्रति इसके मन में वैर एवं भय की भावना का संचार हुआ।"८२ यह घटना सूत्र काफी लम्बा है, और इसके बीज भगवती सूत्र ८३ एवं उत्तराध्ययन सूत्र में विद्यमान हैं, जिनसे अनेक अन्य घटनाएं भी पल्लवित हुई हैं। जिसकी चर्चा अगले पृष्ठों पर की जा रही हैं। इस घटना में सूक्ष्म रूप से गौतम की उपदेश कुशलता की एक विरल झांकी मिलती है कि अज्ञान किसान को भी उन्होंने उपदेश देकर सुलभ बोधि बना दिया। यह तो स्पष्ट है कि किसान के समक्ष गौतम ने गम्भीर तत्त्व ज्ञान की गुत्थियाँ नहीं सुलझाई होंगी। उसे तो उस सामान्य एवं सरल उपदेश की आवश्यकता थी जो उसके सरल हृदय को छू सके और मोटी बुद्धि की पकड़ में आ सके । और यही उपदेशक की ८१. (क) आवश्यक चूणि पृ० २३४ (ख) त्रिषष्टिशालाका० १०।१ ८२. त्रिषष्टिशलाका० १०१९ ८३. भगवती शतक १४७ ८४. उत्तरा० अ० १०१२८ (टीका) Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ इन्द्रभूति गौतम कुशलता है कि वह गम्भीर एवं सरल से सरलतम भाषा में अपनी बात का प्रभाव दूसरों पर डाल सके, और उन्हें अपना अनुयायी बना सके। प्रबुद्ध संदेशवाहक गौतम की उपदेश कुशलता के साथ ही उनके व्यक्तित्व की एक और विशेषता है कि वे भगवान महावीर के प्रिय शिष्य होने के साथ ही विश्वस्त संदेश वाहक भी थे। भगवान महावीर जब अपने शिष्यों को विशेष धर्म संदेश देते तो प्रायः वह गणधर गौतम के माध्यम से दिया जाता था । वैसे सामान्य रूप में श्रमण वर्ग को जो शिक्षात्मक संदेश दिया जाता था वह भी गौतम के माध्यम से, या गौतम को संबोधित करके दिया जाता था। उत्तराध्ययन का दशवाँ अध्ययन इसका स्पष्ट प्रमाण है जहाँ बार-बार गौतम को संबोधित करके –'समयं गोयम मा पमायए" का घोष ध्वनित हो रहा है । भगवती सूत्र में भी इस प्रकार के अनेक स्थल हैं जिनमें उपदेश का माध्यम गौतम को बनाया गया है । ८५ दूसरे प्रकार के कुछ विशेष संदेश जब भगवान महावीर किसी व्यक्ति विशेष को लक्ष्य करके गौतम को देते तो गौतम उन्हें यथातथ्य रूप में उस पात्र तक पहुँचाते---यह भी एक घटना से स्पष्ट होता है। __राजगृह निवासी गाथापति महाशतक भगवान महावीर का उपासक था। उसके पास विपुल धन था। उसने तेरह स्त्रियों के साथ विवाह किये । रेवती नाम की उसकी पत्नी, जो बड़ी क्रूर एवं विशेष कामासक्त थी। उसने अपनी सभी सौतों को मरवा डाला था । वह मद्य एवं मांस का भी सेवन करती थी। रेवती के स्वभाव से महाशतक को घृणा हो गई। वह उससे विरक्त होकर उपवास पौषध आदि आत्मसाधना में प्रवृत्त हो गया। एकबार रेवती मद्य के नशे में चूर हुई अत्यन्त कामातुर एवं निर्लज्ज होकर महाशतक के पास आई। उसे अपने कामपाश में बांधने के प्रयत्न करने पर भी जब महाशतक उससे सर्वथा विरक्त रहा, तो वह कहने लगी-'प्रिय ! मुझे मालूम है तुम्हारे सिर पर धर्म का नशा चढ़ा है, तुम मुक्ति के इच्छुक होकर यह विरक्ति का ढोंग रच रहे हो, पर तुम नहीं जानते कि यदि मेरी इच्छा को तृप्त कर मेरे साथ काम भोग सेवन करते ८५. भगवती सूत्र ७।२।८।१० आदि Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तित्व दर्शन हो तो वह मुक्ति के सुख से भी अधिक आनन्दप्रद है । आओ, मेरी इच्छा को तृप्त करो ।" रेवती ने दो-तीन बार इस प्रकार महाशतक से निर्लज्जता पूर्ण आग्रह किया, अनेक प्रकार के कामोद्दीपक हावभाव दिखलाये । पर महाशतक उनसे सर्वथा निर्लिप्त रहकर अपने संकल्प को और अधिक सुदृढ़ बनाने लगा । महाशतक के समक्ष अब इस प्रकार के प्रसंग आये दिन आने लगे । वह तपस्या एवं ध्यान से अपने शरीर को क्षीण एवं संकल्पों को वज्रसम अडिग बनाता रहा । जीवन के संध्या काल में महाशतक ने अपने समस्त पापों एवं अतिचारों की आलोचना करके आजीवन अनशन ग्रहण किया । जीवन एवं मरण की आकांक्षा से मुक्त होकर समाधिपूर्वक धर्म जागरण करते हुए आनन्द श्रावक की भाँति उसे अवधि ज्ञान प्राप्त हुआ । एकदिन जबकि महाशतक अनशन में धर्मजागरणा कर रहा था, रेवती पुनः मद्य के नशे में छकी हुई उसके निकट आई और विह्वलता पूर्वक काम प्रार्थना करने लगी । महाशतक मौन रहा । रेवती ने दूसरी बार भी उससे आग्रह किया, महाशतक फिर भी मौन था । अब तीसरी बार रेवती कामान्ध होकर उसे धिक्कारने लगी । उसके व्रतों एवं आचार पर तिरस्कार पूर्वक आक्षेप करने लगी और अन्त में जब अत्यन्त काम विह्वल हो गर्हित आचरण करने पर उतारू हुई तो महाशतक को क्रोध आ गया । उसने रेवती को अभद्र व्यवहार के लिए फटकारा और अवधि ज्ञान से उसका अन्धकार पूर्ण भविष्य बताते हुए कहा- 'तू सात दिन के भीतर रोग से पीडित होकर मरेगी एवं रत्नप्रभा नरक के लौलुच्य नामक नरकवास में चौरासी करके अत्यन्त उग्र कष्ट पायेगी ।" हजार वर्ष की आयु प्राप्त ८९ महाशतक की आक्रोश पूर्ण वाणी सुनकर रेवती अत्यन्त घबरा उठी । उसे लगा पति ने मुझे शाप दे दिया है । वह रोती पीटती घर आई। भयानक रोग से पीड़ित होकर अन्त में सातवें दिन असमाधि पूर्वक जीवन की अन्तिम सांस छोड़ दी । ६ ८६. भीया, तत्था, नसिया, उव्विग्गासण्णाय भया "अलसएणं वाहिणा अभिभूया अट्ट दुहट्ट सट्टा काल मासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए नेरइयत्ताए उववन्ना । उवासगदशा ८ । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रभूति गौतम भगवान महावीर ने महाशतक श्रावक के इस आक्रोश पूर्ण कथन की चर्चा गौतम से की। सारा घटना चक्र बताते हुए भगवान ने कहा- “गौतम ! श्रावक को इस प्रकार की, सत्य होते हुए भी अनिष्ट, अप्रिय, जिसे सुनने पर दुःख होता हो, विचार करने पर मन को चुभती हो, ऐसी वाणी नहीं बोलना चाहिए। महाशतक श्रावक ने रेवती को इस प्रकार के आक्रोश पूर्ण वचन कहकर अपने व्रत को दूषित किया है, अतः तुम जाकर उसे कहो, वह अपने इस अतिचार की आलोचना, आत्मनिन्दा करके आत्मा को विशुद्ध बनाए।" भगवान का धर्म संदेश लेकर गौतम राजगृह में महाशतक श्रावक के पास आये । महाशतक भगवान गौतम को आते देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ, विनय पूर्वक वन्दना की। गौतम ने महाशतक को भगवान महावीर का धर्म संदेश सुनाते हुए कहा--- "देवानुप्रिय ! तुमने जो इस प्रकार के आक्रोश पूर्ण कटुवचन कहकर रेवती की आत्मा को संतप्त किया, भयभीत किया यह उचित नहीं था । तुम्हें शांति एवं मौन ही श्रेयस्कर था । तुम अपनी भून का प्रायश्चित्त करो, आलोचना करके आत्मा को निर्दोष बनाओ।" गौतम के कथनानुसार महाशतक ने आत्म-आलोचना करके अन्त में समाधि मरण प्राप्त किया। अनन्य प्रभुभक्त गौतम के जीवन के इन विविध रूपों को देखने से ज्ञात होता है कि वे जितने आत्म-साधना के प्रति निष्ठाशील थे, उतने ही लोककल्याण की भावना से कर्तव्य के प्रति सतत जागरूक रहते थे । भगवान महावीर के लोक कल्याणकारी संदेश को जन-जन तक पहुँचाने में वे प्रतिक्षण प्रस्तुत थे । गागलि नरेश को प्रतिबोध देने हेतु पृष्ठचंपा जाने की घटना इस बात की साक्षी है कि वे भगवान महावीर के संकेत के अनुसार अपने संपूर्ण जीवन को न्यौछावर करने के लिए भी कृतसंकल्प थे । ८७. नो खलु कप्पइ गोयमा !..........."संतेहिं तच्चेहि तहिएहिं, सब्भूएहि अणिहि अकंतेहि अप्पिएहि अमणुण्णेहि....."वागरणेहिं वागरित्तए । -उवासग दशा ८ । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तित्व दर्शन एक बार साल महासाल नामक राजर्षियों ने भगवान महावीर से पृष्ठचंपा के गांगलि नरेश को प्रतिबोध देने के लिए जाने की आज्ञा मांगी । गागलि राजर्षि के गृहस्थ जीवन के भानजे थे । उपयुक्त अवसर देखकर भगवान ने गौतम स्वामी के साथ उन्हें पृष्ठचंपा की ओर भेजा । गागलि नरेश ने गौतम स्वामी एवं अपने मामा मुनि के आने का संवाद सुना तो वह प्रसन्नता पूर्वक उन्हें वंदना करने गया । गौतम स्वामी की मधुर उपदेश शैली से प्रभावित होकर गागलि अपने पुत्र को राज्य तिलक करके स्वयं प्रव्रजित हो गया । गागलि के साथ ही उसके पिता पिठर एवं माता यशोमति ने भी दीक्षा ग्रहण की । ९१ अपने आगमन का लक्ष्य पूरा करके गौतम स्वामी ने पांचों शिष्यों के साथ चम्पा की ओर विहार किया जहाँ भगवान महावीर धर्मदेशना दे रहे थे । मार्ग में साल-महासाल, पिठर, गागलि मुनि एवं यशोमती साध्वी पांचों ही अपने-अपने शुद्ध विचारों की उत्कृष्टता के कारण क्षपक श्र ेणी को प्राप्त करके केवल ज्ञान की भूमिका पर पहुँच गये । उनके केवलज्ञान की घटना गौतम को विदित नहीं हुई । जब वे चम्पा में पहुँच कर भगवान के समवसरण में प्रविष्ट हुए और प्रभु की वंदना प्रदक्षिणा करके केवली परिषद् की ओर जाने लगे तो गौतम स्वामी को उनके व्यवहार की अनभिज्ञता पर आश्चर्य हुआ । उन्होंने मुनियों को टोकते हुए कहा- "मुनियो ! क्या आपको जिनेन्द्र भगवान की धर्मपरिषद् की विधि का ज्ञान नहीं है ? आप लोग कहाँ जा रहे हैं ? " गौतम स्वामी के कथन पर भगवान ने कहा - " गौतम ! मुनियों का आचरण ठीक है ये केवल ज्ञानी हो गए हैं तुम केवली की अशातना मत करो । ८८. त्रिपष्टिशलाका० १० / ९ श्लोक १६६-१६७ इसी घटना के साथ जुड़ी हुई एक अन्य घटना भी प्रसिद्ध है जिसकी चर्चा आचार्य अभयदेव ( भगवती टोका १४।७) एवं नेमिचन्द्र ने ( उत्तराध्ययन १०1१ ) में की है - वह इस प्रकार है एक बार गौतम स्वामी अष्टापद पर्वत पर गए। वहाँ कौडिन्य, दिन्न एवं सेवाल नामक तीन तापसों के साथ पाँच-पाँच सौ तापसों के समूह अष्टापद की यात्रा को आए हुए थे । वे अष्टापद पर चढ़ने में असमर्थ हो रहे थे । गौतम स्वामी अपने ऋद्धिबल से अष्टापद पर तुरन्त चढ़ गये । ( अगले पृष्ठ पर देखिए ) Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रभूति गौतम हाँ तो भगवान की वाणी सुनकर गौतम को बड़ा आश्चर्य हुआ। साथ ही अपनी छद्मस्थता पर उन्हें खेद भी हुआ कि ये मेरे शिष्य तो सर्वज्ञ हो गए और मैं अभी तक छद्मस्थ ही रहा । गुरु जी गुड़ हो रहे और चेले शक्कर हो गये-कहावत जैसी बात हो गई ? मुक्ति का वरदान प्रस्तुत घटना ने गौतम के मन को बहुत झक-झोरा, शिष्यों की प्रगति एवं अभिवृद्धि से उनके उदार मन को कोई ईर्ष्या नहीं थी, किन्तु स्वयं इतनी तपस्या, साधना, ध्यान, स्वाध्याय आदि करने पर, तथा प्रभु के प्रति अनन्य श्रद्धा रखने पर भी अब तक छद्मस्थ हो रहे इस बात से उनके मन को बड़ी चोट पहुँची। वे अपने मन की गहराई में उतरे होंगे। आत्म-निरीक्षण करने लगे होंगे कि 'आखिर मेरी साधना में क्या कमी है ? मेरे अध्यात्म योग में कौन सी रुकावट आ रही है जिसे तोड़ सकने में मैं अब तक असमर्थ रहा हूँ।' हो सकता है जब इस प्रकार का कोई कारण उनके सामने नहीं आया हो तो वे बहुत खिन्न हुए हों, चितित हुए हों और तब भगवान महावीर ने अपने प्रिय शिष्य की खिन्नता एवं मनोव्यथा दूर करने के लिए सान्त्वना देने के रूप में कहा-'गौतम ! तुम्हारे मन में मेरे प्रति अत्यंत अनुराग है, स्नेह है, उस स्नेहबंधन के कारण ही तुम अपने मोह का क्षय नहीं कर पा रहे हो, और वही मोह तुम्हारी सर्वज्ञता में मुख्य अवरोध बना हुआ है ।” प्रभु तापसों को आश्चर्य हुआ "यह हृष्ट-पुष्ट मांसल शरीर वाला साधु इतनी त्वरित गति से कसे अष्टापद का आरोहण कर सका, जबकि हम बहुत समय से प्रयत्न करते हुए भी समर्थ नहीं हो रहे हैं ।"गौतम स्वामी के वापस आने पर उनसे वार्तालाप किया और पन्द्रह सौ तीन तापसों ने उनका शिष्यत्व स्वीकार कर लिया । गौतम स्वामी ने उनको अपनी (अक्खीणमहानस) लब्धि के बल खीर से पारणा करवाया और भगवान महावीर के समवसरण में उनको लेकर आये। गौतम स्वामी एवं भगवान के गुण चिन्तन से उत्कृष्ट परिणाम आने पर उन्हें भी कैवल्य प्राप्त हो गया, वे भी उसी प्रकार केवली परिषद् में जाने लगे और गौतम स्वामी ने टोका तब भगवान ने स्थिति का स्पष्टीकरण किया। देखिए-कल्पसूत्रार्थ प्रबोधिनी, त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित, गणधरवाद की भूमिका (दलसुख मालवणिया पृ० ६६) । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तित्व दर्शन महावीर की यह वाणी भगवती सूत्र में इस प्रकार अक्षर निबद्ध हुई है.. "गौतम तुम नहुत अतीत काल से मेरे साथ स्नेह बन्धन में बंधे हो, तुम जन्म-जन्म से मेरे प्रशंसक रहे हो, मेरे परिचित रहे हो, अनेक जन्मों में मेरी सेवा करते रहे हो, मेरा अनुसरण करते रहे हो, और प्रेम के कारण मेरे पीछे-पीछे दौड़ते रहे हो । पिछले देव भव, एवं मनुष्य भव में भी तुम मेरे साथी रहे हो । इस प्रकार अपना स्नेह बन्धन सुदीर्घ कालीन है, मैंने उसे तोड़ डाला है, तुम नहीं तोड़ पाए । विश्वास करो, तुम भी (अति शीघ्र बंधन से मुक्त होकर) अब यहाँ से देह मुक्त होकर हम दोनों एक समान, एक लक्ष्य पर पहुँचकर भेद रहित तुल्य रूप प्राप्त कर लेंगे।" भगवान का भक्त के प्रति यह आश्वासन वास्तव में एक बहुत बड़ा आश्वासन है, जिसे सुनकर गौतम की समस्त खिन्नता, मनोव्यथा हवा में उड़ गयी होगी और अपूर्व प्रसन्नता से रोम-रोम पुलक उठा होगा। वैदिक भक्ति परम्परा में जब भगवान भक्त पर प्रसन्न होता है, तो उसे पुनः भक्त बनने का वरदान देता है, और भक्त इस भगवद् कृपा को सर्वश्रेष्ठ कृपा समझकर कृत-कृत्य हो जाता है। किन्तु जैन परम्परा भक्त को भक्त ही नहीं, भगवान बनने का वरदान देती है, और उसके भगवान स्वयं अपने श्री मुख से कह रहें हैं—'तुम भी ८९. पिछली घटना चंपानगरी में हुई है, और भगवान महावीर का यह कथन राजगृह में हुआ है, संभवतः इस बीच जैसा कि अष्टापद की घटना से परिलक्षित होता है वह घटना घटित हुई हों, और बार-बार ऐसी घटना होने से गौतम की खिन्नता बढ़ी हो, और तब भगवान ने निम्न आश्वासन दिया हो–“चिर संसिट्ठोऽसिमे गोयमा ! चिर संथुओऽसि मे गोयमा ! चिर परिचिओऽसि मे गोयमा । चिर जुसिओऽसि मे गोयमा ! चिराणु गओऽसि मे गोयमा ! चिराणुवत्तीसि मे गोयमा ! अणंतरं देवलोए, अणंतरं माणुस्सए भवे, किं परं मरणा कायस्स भेदा । इओ चुआ दोवितुल्ला एगट्ठा अविसेस मणाणत्ता भविस्सामो। -भगवती सूत्र १४७ गौतम से स्नेह बंधन तोड़ने के लिये भगवान महावीर ने अनेक बार उपदेश किया होगा, वीतरागता की ओर मोड़ने का प्रयत्न किया होगा यह आगमों में आये अनेक उपदेशों से ध्वनित होता है । उत्तराध्ययन १०।२८ में भी गौतम को सम्बोधित करके कहा गया है-'वोच्छिद सिणेहमप्पणो कुमुयं सारइयं पाणिना।" -उत्त० १०।२८ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रभूति गौतम मेरे समान सिद्ध बुद्ध मुक्त बनोगे।" इस वरदान को पाकर कौन भक्त प्रसन्नता से नहीं झूम उठेगा। इस घटना से गौतम का भगवान महावीर के प्रति अनन्य स्नेह एवं अद्वितीय भक्ति प्रकट होती है । और उसमें कितनी मधुरता है, कितनी एकनिष्ठता है यह तो आगमों के अनुशीलन से पद-पद पर प्रकट होती दिखाई देती है । एक भगवती सूत्र में ही कई हजार बार-'गोयमा' इस सम्बोधन की आवृत्ति हुई है। अन्य आगमों भी संकड़ों बार स्थान-स्थान पर भगवान अपने प्रिय भक्त-गौतम को..........."गोयमा ।' सम्बोधन से जब पुकारते हैं तो लगता है सम्पूर्ण भारतीय वाङमय में भी शायद् हो ऐसा कोई जिज्ञासु एवं अनन्य भक्त हुआ हो जिसे भगवान अपने श्री मुख से बार-बार पुकार रहे हों। भगवान के श्रीमुख से यह मधुर संबोधन सुनकर भक्त गौतम भी श्रद्धा गद्गद् होकर धन्य-धन्य हो उठते होंगे। गौतम की एकनिष्ठा का उत्तर आगमों में उन्हीं को वाणी से दिया गया है। जब भगवान से किसी प्रश्न का समाधान गौतम को मिला तो वे एक अपूर्व प्रसन्नता एवं श्रद्धा से भगवान के प्रति कृत्तज्ञता प्रकट करते हुए कहते हैं—'सेवं भंते ! सेवं भंते ! तहमेयं भंते ! अवितह मेयंभंते !"-भगवन् ! आपने जैसा कहा वैसा ही है, आपका कथन सत्य है, पूर्ण सत्य है, मैं उस पर विश्वास करता हूँ, श्रद्धा करता हूँ, प्रतीति करता हूँ।" गुरु के समाधान पर शिष्य का यह श्रद्धा एवं निष्ठा पूर्ण उत्तर वास्तव में एक उदात्त परम्परा का प्रेरक है। गौतम जैसा व्यक्ति जो जीवन के प्रारम्भ में प्रखर तार्किक रहा हो, स्वयं भगवान महावीर से वाद विवाद एवं दर्शन को गम्भीर चर्चाओं से समाधान खोज रहा हो, वही भगवान के प्रति इतना श्रद्धा एवं निष्ठा पूर्ण होकर समर्पित हो जाता है, यह वास्तव में तर्क पर श्रद्धा की विजय का एक अकाट्य प्रमाण है, साथ ही भक्ति की एक निष्ठा का अपूर्व उदाहरण भी । गौतम के जीवन की इन्हीं विरल विशेषताओं के कारण उन्हें अनन्य प्रभु भक्त कहा गया है। महान जिज्ञासु गणधर गौतम के व्यक्तित्व में 'जिज्ञासा' तत्त्व प्रारम्भ से ही प्रबल रहा है यह पिछले घटना चक्र से स्पष्ट हो जाता है । जिज्ञासा ने ही उन्हें यज्ञ मण्डप से भगवान महावीर की ओर मोड़ा, जिज्ञासा ने ही उन्हें याज्ञिक ब्राह्मण से श्रमणत्व का परिवेष दिया और इस जीवित जिज्ञासा ने ही भगवान महावीर के उपदेशों एवं प्रवचनों को Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तित्व दर्शन ९५ गणिपिटक का रूप दिया। आज का उपलब्ध श्रत साहित्य गौतम की जिज्ञासा का जीवित रूप है—यह कहने में कोई अत्युक्ति नहीं होगी। गौतम जब कभी किसी विशेष नई घटना को देखते, कोई नवीन चर्चा सुनते, किसी आश्चर्यकारी प्रसंग का ऊहापोह होता तो वे तुरन्त उस विषय में जानकारी प्राप्त करने का प्रयत्न करते। विपाक सूत्र में एक घटना आती है। मृगाग्राम नगर में विजय नामक क्षत्रिय राजा था जिसकी मृगादेवी नामक लावण्य युक्त सुन्दरी रानी की। उस मृगादेवी को एक पुत्र हुआ जो जन्म से ही अंधा, बहरा, गूगा था। जिसके हाथ, पैर, नाक, कान आदि भी नहीं थे । केवल अंगहीन एक गोलमटोल आकृति थी। मृगादेवी उस बालक को अपने भूमि गृह में रखती और उसका पालन पोषण करती। एक बार श्रमण भगवान महावीर उस मगाग्राम के चन्दन पादप नामक उद्यान में पधारे । प्रभु का आगमन सुनकर नगर के हजारों श्रद्धालु दर्शनार्थ गये । नगर में चारों ओर एक अपूर्व उत्सव जैसी हलचल मच गई थी। विजय क्षत्रिय भी भगवान का उपदेश सुनने गया । उस ग्राम में एक जन्म से अन्ध दरिद्र भिखारी रहता था। उसके सिरके केश अत्यन्त रूक्ष एवं बिखरे हुए, दीखने में बडा कुरुप एवं बीभत्स था । उसके गन्दे कपड़ों पर मक्खियों के झुण्ड के झुण्ड भिनभिनाते रहते। कोई उसके पास से गुजरना नहीं चाहता--ऐसी दरिद्रता की साक्षात् मूर्ति था वह जन्मान्ध भिखारी । एक कोई आँख वाला आदमी उसकी लकुटिया पकड़कर द्वार-द्वार पर उसे घुमाता और भिक्षा मांग कर आजीविका करता। उस भिखारी ने नगर में लोगों के आनेजाने का कोलाहल सुना तो किसी से पूछा-आज नगर में क्या इन्द्रमहोत्सव, स्कन्दमहोत्सव आदि कोई उत्सव है ? क्या बात है आज, इतनी हलचल क्यों ? भिखारी के प्रश्न को बहुतों ने सुना अनसुना कर दिया। किसी ने बताया"तुझे मालुम नहीं ? आज भगवान महावीर नगर के चन्दन पादप उद्यान में पधारे हैं, उनकी वाणी सुनने को जनता उमड़ी जा रही है ।'' अंधा भिखारी भी भगवान का उपदेश सुनने को उत्सुक हुआ और समवसरण की ओर गया। गणधर गौतम ने हजारों मनुष्यों के पीछे खड़े इस दरिद्र नारायण जन्मान्ध को देखा तो उसकी दयनीय . ९०. विपाक सूत्र १११ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ दशा पर उनका हृदय पसीज गया । गौतम ने भगवान से पूछानगर में ऐसा जन्म अन्ध एवं जन्म अन्धरूप अन्य भी कोई है ?" भगवान ने कहा - "हाँ, गौतम इससे भी अन्धरूप एक पुरुष इस नगर में है ?" इन्द्रभूति गौतम _ ' भन्ते ! इस अधिक बीभत्स आकारवाला जन्म गौतम की जिज्ञासा और प्रबल हुई। पूछा - " भन्ते ! वह जन्मान्ध रूप पुरुष कौन है ?" भगवान — "गौतम ! इस नगर के नायकविजय क्षत्रिय की पत्नी मृगादेवी का आत्मज 'मृगापुत्र' नामक एक बालक है, जो जन्म से अन्धा है, उसके न हाथ पाँव है, न कान-नाक आदि अंगोपांग । केवल अंगों का आकार मात्र है । उसे मृगादेवी अपने भूमिगृह में रख कर उचित पालन-पोषण कर रही है । " गौतम की जिज्ञासा प्रबल हो उठी ! भगवान की आज्ञा लेकर वे मृगापुत्र को देखने के लिए मृगादेवी के महल की ओर चले । मृगादेवी ने प्रसन्नता पूर्वक गौतमस्वामी का स्वागत किया और पूछा - "भन्ते ! आप ने यहाँ पधारने का कष्ट किसलिए किया, आज्ञा दीजिए— 'संदिस तु णं देवाणुप्पिया ! किमागमणपयोयणं ?" गौतम ने बताया "देवी ! मैं तुम्हारे पुत्र को देखने के लिए यहाँ आया हूँ ।" मृगादेवी ने मृगापुत्र के पीछे जन्मे हुए अपने चार पुत्रों को अलंकृत विभूषित किया, और गौतम स्वामी के चरणों में गिराकर कहा -- 'भगवन् ! ये मेरे पुत्र हैं, इन्हें देखिए ! " " देवानुप्रिया ! मैं इन पुत्रों को देखने के लिए नहीं, किन्तु तुम्हारे ज्येष्ठ पुत्र को, जो जन्म से नेत्रहीन है, जिसे तुम भूमिगृह में छुपा के रखती हो, उसे देखने के लिए यहाँ आया हूँ ।" मृगादेवी ने आश्चर्य पूर्वक गौतम से पूछा - "भन्ते ! ऐसा ज्ञानी एवं तपस्वी कौन है जिसने मेरे इस अत्यन्त प्रच्छन्न वृतान्त को आपके समक्ष सूचित किया है ? जिस कारण आप यहाँ आये हैं ? " गौतम स्वामी ने अत्यन्त सरल भाव से कहा - " देवानु प्रिये ! मेरे धर्माचार्य श्रमण भगवान महावीर ने मुझे यह सब वृत्तान्त बताया है ।" ९१. अत्थि भन्ते ! केई पुरिसे जाति अन्धे, जाय अंध रूवे ? - विपाकसूत्र १।१ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तित्व दर्शन मृगादेवी गौतम के साथ वार्तालाप कर ही रहा थी कि मृगापुत्र के भोजन का समय हो गया। उसने कहा-"भंते ! आप ठहरिये, अभी आप उसे देख सकेंगे।" पश्चात् मृगादेवी ने अपने वस्त्र बदले, एक लकड़ी की गाडी में भोजन सामग्री रखी और गौतम स्वामी को अपने पीछे-पीछे चले आने का संकेत देकर उस भूमिगृह की ओर आई । भूमिगृह के द्वार पर पहुँच कर उसने वस्त्र से अपना नाक-मुह ढंका, गौतम स्वामी से भी ढंकने को कहा । मृगादेवी ने द्वार की और पीठ करके भूमिगृह का द्वार खोला । उसमें से भयंकर बदबू आ रही थी, फिर भी गौतम ने उस बालक को देखा । अंग के नाम पर सिर्फ एक मुंह था । जिस मुख से खा रहा था उसी से वापस निगल रहा था और फिर उसी वमन को चाट रहा था। उस बीभत्स एवं दयनीय रूप को देखकर गौतम के रोम-रोम उत्कंटित हो गये । गौतम मृगादेवी को सूचित कर पुनः अपने स्थान पर आये और प्रभु से पूछा-'भंते ! आपने जैसा बताया वैसा ही वह जन्मान्ध रूप पुरुष है ! उसने पूर्व जन्म में किस प्रकार के दुष्कर्म, घोर कर्म किये होंगे जिनके फलस्वरूप वह इस प्रकार अत्यन्त कष्टमय, दुर्गन्धपूर्ण बीभत्स जीवन जी रहा है ?" भगवान ने गौतम के प्रश्न पर उसके अतीत जीवन के दुष्कर्मो की लोमहर्षक कहानी सुनाई, जिसका विस्तृत वर्णन विपाक सूत्र में किया गया है । सम्पूर्ण विपाक सूत्र गौतम की इसी प्रकार की जिज्ञासाओं का एक उत्तर है। गौतम अगले अध्यायों में भी वधभूमिका ले जाते हुए अपराधियों को देखते हैं और उसके भूत-भावी जीवन का लेखा जोखा भगवान से आकर पूछते हैं । ___ ऐसा लगता है कि गौतम के मन में जिज्ञासाओं का अम्बार लगा है, जब कभी किसी प्रसंग से वे कुरेदी जाती है तो वे प्रश्न रूप में भगवान के समक्ष अवतरित हो जाती हैं। जब वे कोई भी नई बात देखते हैं तो उसके मूल तक जाने का प्रयत्न करते हैं, उसके कारणों का विश्लेषण सुनना चाहते हैं और चाहते हैं उसके भूतकालीन निमित्त-उपादान का लेखा-जोखा, एवं भावी परिणामों की अवगति । भगवती सूत्र में एक प्रसंग है । भगवान महावीर एकबार ब्राह्मण कुण्ड ग्राम में पधारे । वहाँ ऋषभदत्त नामक एक ब्राह्मण रहता था जो'धनाढ्य होने के साथ-साथ बहुत बड़ा विद्वान् भी था । वह चारों वेद, षडंग, पुराण आदि का पारंगत था, और Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ इन्द्रभूति गौतम निग्रन्थ धर्म के रहस्यों को भली प्रकार जानने वाला श्रमणोपासक भी ।९२ ऋषभदत्त की पत्नी थी देवानन्दा । भगवान महावीर के आगमन की सूचना पाकर ऋषभदत्त एवं देवानन्दा उनके दर्शनों के लिए गये । देवानन्दा ने भगवान महावीर का अतिशय सम्पन्न दिव्य रूप देखा तो उसके मन में वात्सल्य की धारा उमड़ पड़ी। वह रोमांचित हो गई और पुत्र स्नेह का भाव प्रबल हो उठा। उसकी दोनों आँखों से आनन्द के आंसू बरसने लग गये और भावावेग में उसकी कंचुकी के बन्धन शिथिल होकर, स्तनों से दूध की धारा बहने लग गई। __गौतम स्वामी ने जब देवानन्दा को इस प्रकार रोमांचित होकर स्तनों से दूध की धारा बहाते देखा तो बड़ा आश्चर्य हुआ। भगवान महावीर से पूछा--- "भंते ! देवानन्दा इस प्रकार क्यों, किस कारण रोमांचित हो रही है ?" भगवान ने कहा- 'गौतम ! देवानन्दा ब्राह्मणी मेरी माता है, मैं इस देवानन्दा ब्राह्मणी का पुत्र हूँ। इसी पुत्र-स्नेह के कारण आनन्द का वेग उमड़ पड़ा, वह उसे रोक नहीं पाई, और इस प्रकार रोमांचित हो उठी ।"९3 गौतम के मन में एक प्रश्न के समाधान के साथ ही दूसरा प्रश्न उठा-भंते ! आपकी माता तो त्रिशला क्षत्रियाणी है--ऐसा सर्वविदित है । फिर देवानन्दा आपकी माता किस प्रकार हो सकती है ?" गौतम के प्रश्न पर भगवान ने गर्भपरिवर्तन की घटना की चर्चा की, जिसे सुनकर ऋषभदत्त-देवानन्दा सहित सम्पूर्ण परिषद् को आश्चर्य हुआ।९४ ९२. ९३. कल्पसूत्र एवं भगवती आदि सूत्रों के आधार पर ज्ञात होता है कि ऋषभदत्त पहले तो वैदिक धर्म का अनुयायी ही था, पर बाद में 'श्रावक' बन गया। भगवान महावीर पहले देवानन्दा की कुक्षी में आये थे। इस दृष्टि से देवानन्दा को माता एवं ऋषभदत्त को पिता कहा गया है । गोयमा ! देवाणंदा माहणी मम अम्मगा, अहं णं देवाणंदाए माहणीए अत्तएतेणं पुव्व पुत्त सिह रागेणं आगय–पण्या जाव समूसविय रोमक्खा ~भगवती श० ९ । उ०६ विशेष विवरण के लिए देखें (क) त्रिषष्टिशलाका० १०८।१०-१८ (ख) तीर्थंकर महावीर भा० १ पृ० १०३ (ग) महावीर चरियं (गुणचन्द्र) पत्र २५९-२ ९४. Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तित्व दर्शन इस प्रकार आगम साहित्य में गौतम की जिज्ञासाओं की अनेक घटनाएँ विभिन्न प्रसंगों के साथ जुड़ी हुई हैं । गौतम के प्रश्नों की उत्थानिका में भी किसी न किसी सूक्ष्म घटना का उल्लेख आता है । गौतम देखते हैं, सुनते हैं और फिर तत्काल भगवान के पास जाकर उसकी जानकारी प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं ।१५ भारतीय वाङमय में गौतम की जोड़ी का जिज्ञासा प्रधान व्यक्तित्व मिलना कठिन ही नहीं, प्रायः असम्भव है । गौतम के प्रश्नों और जिज्ञासाओं ने तीर्थंकर महावीर के चिन्तन एवं दर्शन को वाङमय का रूप दिया है। गम्भीर से गम्भीर एवं सरल से सरल सभी प्रकार के प्रश्न गौतम ने उपस्थित किए हैं, उनके मूल तक पहुंचे हैं और उन पर भगवान महावीर के समीचीन समाधान प्राप्त कर जैन साहित्य के अध्येता के लिए एक व्यवस्थित मार्ग प्रस्तुत किया है । जैनसाहित्य गौतम का चिरऋणी रहेगा, बल्कि गौतम के नाम से वह सदा प्रकाशमान भी रहेगा । जिस प्रकार कि संस्कृत साहित्य कालिदास के नाम से, हिन्दी साहित्य तुलसी एवं सूर के नाम से, अंग्रेजी साहित्य शेक्सपियर के नाम से और रूसी साहित्य गोर्की के नाम से आज भी अपने को गौरवान्वित समझते हैं, वही नहीं, बल्कि उससे भी अधिक गौरव जैन श्रत साहित्य को गणधर इन्द्र भूति गौतम के नाम से हैं। बौद्ध पिटकों में अनेक स्थानों पर आनन्द द्वारा प्रश्न उपस्थित किए गए हैं और तथागत ने उनका समाधान किया है। पर परिमाण एवं विषय वस्तु की दृष्टि से वे बहुत ही अल्प है, गौतम-महावीर के प्रश्नों की तुलना में बहुत ही नगण्य ! अन्य ग्रन्थों में तो इस प्रकार की शैली का दर्शन भी अत्यल्प मात्रा में होता है। गौतम का जीवन दर्शन गणधर गौतम के छद्मस्थ जीवन की एतद् प्रकार की सैंकड़ों घटनाएँ जैन आगमों में संगुम्फित हुई हैं जिनमें उनके बहुमुखी सार्वभौमिक व्यक्तित्व के अनेक आन्तरिक गुण उजागर हुए हैं। उनके जीवन में ज्ञान और क्रिया के दोनों पक्ष सुदृढ़ एवं सबल रहे हैं, दोनों की समुज्ज्वलता चरम कोटि की है । ज्ञान के साथ विनम्रता, ६५. देखिए पुद्गल परिव्राजक की चर्चा, तुगिया नगरी के लोगों का प्रश्नोत्तर __ आदि-भगवती ११।१२, २१५ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० इन्द्रभूति गौतम सत्योन्मुखी जिज्ञासा, नया ग्रहण करने की उत्कट अभिलाषा है तो क्रिया के साथ उदग्रता, सरलता निरहंकारिता, भक्ति एवं हृदय की उदारता का भी अद्भुत सम्मिश्रण उनके जीवन दर्शन में प्राप्त होता है। गौतम की सराग-उपासना गौतम ने पचास वर्ष की आयु में दीक्षा ग्रहण की।६ जिस दिन भगवान महावीर को कैवल्य हुआ उसके दूसरे दिन ही उनकी प्रव्रज्या हुई और भगवान महावीर की विद्यमानता में उन्हें केवल ज्ञान नहीं हुआ। यद्यपि उनकी साधना परम उज्ज्वल एवं उत्कट थी, उनकी क्रिया श्रमणसंघ के लिए अनुकरणीय एवं आदर्श बताई गई हैं। धन्य अणगार जैसे तपस्वियों के वर्णन में भी गौतम स्वामी का उदाहरण दिया गया है।९७ उनके द्वारा दीक्षित सैकड़ों हजारों शिष्य केवली हो गए। ८ फिर भी गौतम स्वामी को तीस वर्ष तक केवल ज्ञान नहीं हुआ, यह एक आश्चर्य की बात है । इसके कारणों की खोज में सम्पूर्ण आगम वाङमय सिर्फ एक ही उत्तर देता है और वह है गौतम का भगवान महावीर के प्रति स्नेह बन्धन ।९९ इतने बड़े साधक, जो शरीर रहते हुए भी शरीरमुक्त स्थिति का अनुभव करते रहे, जिनके लिए स्थान-स्थान पर 'उच्छूढ शरीरे १०० विशेषणों का प्रयोग हुआ, वे अध्यात्म की उच्चतम भूमिका पर पहुंचे हुए अध्यात्म योगी भगवान महावीर के प्रति स्नेह बन्धन के कारण वीतराग स्थिति नहों प्राप्त कर सके यह आश्चर्यकारी बात होते हुए भी जैन दृष्टि के 'समत्वयोग' की निष्पक्ष उद्घोषणा भी है। जो साधक अपने देह की ममता से मुक्त है, किन्तु अपने भगवान के प्रति यदि अनुराग रखता है, तो भले ही यह उसका भगवद् अनुराग हो, किन्तु आखिर वह भी बन्धन है, भगवदनुराग भी उसकी वी तरागताका बाधक है, क्यों न हो, जिस धर्म का आराध्य भगवान स्वयं बीतराग है, वह अपने भक्तों को भी स राग-उपासना से भक्ति का वरदान कैसे दे सकता है ? जैन १६. आवश्यक नियुक्ति ९७. औपपातिक सूत्र (धन्य अणगार वर्णन) ९८. (क) कल्पसूत्रार्थ प्रबोधिनी पृ० १६९-१७१ (ख) कल्पसूत्र बालावबोध पृ० २६० १६. भगवतीसूत्र १४७ १०० भगवती सूत्र १११. उवासग दशा ११, औपपातिकसूत्र Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तित्व दर्शन १०१ दर्शन को आध्यात्मिक दृष्टि ने 'राग' को स्पष्टतः ही बन्धन स्वीकार किया है ।१०९ फिर भले ही वह प्रशस्त (शुभ) हो या अप्रशस्त । हां, प्रशस्त राग, राग की ऊर्ध्वदशा है, वह भले ही जीवन में काम्य न हो, पर अप्रशस्त की भांति त्याज्य भी नहीं है, अतः उसे पुण्य रूप अवश्य माना गया है । 0 २ किन्तु आत्म साधक के लिए वह पुण्य भो बन्धन है, चाहे सोने की बेड़ी के रूप में ही हो, अतः वह त्याज ही है। १०3 गौतम के अन्तःकरण में प्रभु महावीर के प्रति जन्म-जन्मान्तर-संश्लिष्टअनुराग था । वही उन्हें वीतराग बनने से रोक रहा था। भगवती सूत्र७४ में स्वयं भगवान ने उस अनुराग का वर्णन किया है और गौतम को सम्बोधित करके कहा है-'च्छिदसिणेहमप्पणो-९८५ अपने स्नेह बन्धन को यों तोड़ डाल, जैसे शरद ऋतु के कमल दल को हाथ के झटके से तोड़ दिया जाता है। प्रभु का उपदेश, उद्बोधन प्राप्त करके भी गौतम इस सूक्ष्म राग को नहीं तोड़ सके और इसी कारण वीतराग-दशा प्राप्त नहीं कर सके । पावा में अंतिम वर्षावास भगवान महावीर ने अपना अंतिम वर्षावास पावा०६ (अपापापुरी) में किया। वहाँ हस्तिपाल राजा था। उसकी रज्जुकशाला (लेख शाला) में भगवान स्थिरवास रहे। कार्तिक अमावस्या का दिन निकट आया, अंतिम देशना के लिए समवसरण की विशेष रचना की गई । शक्र ने खड़े होकर भगवान की स्तुति की, फिर हस्तिपाल १०१. (क) दुविहे बन्धे-पेज्जबन्धे चेव दोसबन्धे चेव-स्थानांग-२।४ (ख) रागो य दोसो बि य कम्मबीयं-उत्त० ३२७ (ग) समयसार २६५ १०२. पंचास्तिकाय १३५ १०३. वहीं, गा० १४२, १०४. शतक १४७ १०५. उत्तराध्ययन १०।२८ १०६. 'पावा' के सम्बन्ध में विशेष जानकारी के लिए देखें-आगम और त्रिपिटक: एक अनुशीलन (मुनि नगराज जी डी० लिट् ०) पृ० ५४ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ इन्द्रभूति गौतम राजा ने भगवान की स्तुति की। भगवान ने सोलह प्रहर की देशना दी ।९०° उस दिन भगवान छट्ठ भक्त से उपोसित थे ।१०८ देशना के पश्चात् अनेक प्रकार की प्रश्न चर्चाएँ हुई। राजा पुण्यपाल ने अपने आठ स्वप्नों का फल पूछा, उत्तर सुनकर वह संसार से विरक्त हुआ। १०९ फिर गणधर गौतम ने पाँचवें आरे के सम्बन्ध में प्रश्न किये"भंते ! आपके परिनिर्वाण के पश्चात् पाँचवा आरा कब लगेगा ?" भगवान ने उत्तर दिया--"तीन वर्ष साढ़े आठ मास बीतने पर।” आगामी उत्सर्पिणी में होने वाले तीर्थकर, वासुदेव, बलदेव, कुलकर आदि का भी सामान्य परिचय गौतम के उत्तर में भगवान ने दिया। तदनन्तर गणधर सुधर्मा ने प्रश्न किया और उनका भी उत्तर भगवान ने दिया । देवराज इन्द्र ने भगवान के परिनिर्वाण का अंतिम समय निकट आया देखकर अश्रु पूरित नयनों से प्रभु से प्रार्थना की-“भगवन् ! आपके जन्मनक्षत्र (हस्तोत्तरा) में भस्मग्रह संक्रमण कर रहा है, उसका दुष्प्रभाव दो हजार वर्ष तक आपके धर्मसंघ पर रहेगा, अतः आप कुछ काल के लिए अपने आयुष्य की वृद्धि करें।" देवराज के उत्तर में भगवान ने कहा- "शक । आयुष्य कभी बढ़ाया नहीं जा सकता।"११० गौतम को कैवल्य उसीदिन भगवान ने देखा–आज मेरा निर्वाण होने वाला है, मुझ पर गौतम का अत्यंत अनुराग है, इसी अनुराग के कारण मृत्यु के समय वह अधिक शोक विह्वल न हो, और दूर रहकर अनुराग के बंधन को तोड़ सके अत: देवशर्मा नामक ब्राह्मण को प्रतिबोध देने के लिए अन्यत्र भेज दिया। "अज्ञा गुरूणां ह्यविचारणीया" गुरूजनों की आज्ञा शिष्य को अविचारणीय एवं अतर्कणीय होती है । गौतम ने प्रभु का आदेश शिरोधार्य किया और देवशर्मा को प्रतिबोध देने चल पड़े। १०७. सौभाग्य पंचम्यादि पर्व कथा संग्रहः पत्र १०० १०८. कल्पसूत्र सूत्र १४७, महावीर चरियं (नेमिचन्द्र) पत्र ९९ १०९. विस्तार के लिए देखिए-तीर्थंकर महावीर भा० २ पृ० २९५ (विजयेन्द्र सूरि) ११०. स्वाम्यूचे शक्र ! केनापि नायुः सन्धीयते क्वचित् । --कल्पसूत्र, कल्पार्थ प्रबोधिनी पत्र १२१ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तित्व दर्शन रात्रि में भगवान का परिनिर्वाण हो गया । गौतम स्वामी को जब इसकी खबर लगी तो वे एकदम मोह-विह्वल हो गये । उनके हृदय पर वज्राघात-सा लगा। वे मोहदशा में- "भंते ! भंते !" पुकार उठे । भगवान को उलाहना देते हुए कहने लगे "प्रभु ! आपने यह क्या धोखा किया ? जीवन भर छाया की भाँति मैं आपकी सेवा में रहा, और आज अपने अंतिम समय में आपने मुझे दूर कर दिया ? क्या में बालक की तरह आपका अंचल पकड़ कर मोक्ष जाने से रोकता था ? क्या मेरे स्नेह में कोई कृत्रिमता थी ? यदि मैं भी आपके साथ चलता तो सिद्ध शिला पर कौन सी संकीर्णता हो जाती ? क्या शिष्य भी गुरू के लिए भार स्वरूप बन जाता ? प्रभो ! अब मैं किसके चरणों में प्रणाम करूँगा? कौन मेरे मन के प्रश्नों का समाधान करेगा ? किसे मैं भन्ते ! कहूँगा, और कौन मुझे--'गोयमा' कह कर पुकारेगा ?"१११ कुछ क्षण इस प्रकार की भाव विह्वलता में बहने के पश्चात् इन्द्रभूति ने अपने आपको संभाला। उस तत्वज्ञानी महान् साधक ने अपने मन के घोड़े को घेरा। और विचार करने लगे—“अरे ! यह मेरा मोह कैसा ? वीतराग के साथ स्नेह कैसा ? भगवान तो वीतराग है, मैं व्यर्थ ही उनके राग में फंसा हुआ हूँ। वे तो राग मुक्त होकर मोक्ष पधार गये ! अब मुझे भी राग छोड़ना चाहिए ! मुझे अपनी आत्मा का ध्यान करना चाहिए, वही एक मेरा परम साथी है, बाकी सब बंधन हैं, पर हैं। इस प्रकार आत्म-चिंतन की उच्चतम दशा पर आरोहण करते हुए इन्द्रभूति ने अपने राग को क्षीण किया और उसी रात्रि के उत्तरार्ध में केवल ज्ञान प्राप्त किया । ११२ १११. भगवान महावीर के निर्वाण पर जिस प्रकार की मोहदशा गौतम को प्राप्त हुई, लगभग उसी प्रकार की मोहदशा एवं रुदन आदि की स्थिति तथागत के निर्वाण पर आनन्द की हुई। आनन्द ने जब तथागत का निर्वाण निकट आया सुना तो विहार में जाकर खूटी पकड़ कर रोने लगे- "हाय ! मेरे शास्ता का परिनिर्वाण हो रहा है !" जब बुद्ध को भिक्षुओं से ज्ञात हुआ कि आनन्द रुदन कर रहा है तो उन्होंने बुला कर कहा--"आनन्द ! शोक मत करो ! रुदन मत करो ! सभी प्रियों का वियोग अवश्यंभावी है। आनन्द ! तूने चिरकाल तक तथागत की सेवा की है, तू कृतपुण्य है । निर्वाण साधन में लग ! शीघ्र अनाश्रव हो !" -दीघनिकाय (आगम और त्रिपिटकः एक अनुशीलन, पृ० ३८७) ११२. कल्पसूत्र, कल्पार्थबोधिनी, पत्र ११४ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ इन्द्रभूति गौतम भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् संघ के नेता का प्रश्न आया । गणधर गौतम भगवान महावीर के संघ में सबसे ज्येष्ठ थे । ज्ञान एवं तपः साधना में भी अद्वितीय थे । वरीयता और ज्येष्ठता की दृष्टि से संघ का नेतृत्व गौतम के हाथों आता, किंतु गौतम उसी रात्रि को सर्वज्ञ हो गए थे, अतः प्रश्न यह आया कि सर्वज्ञ की परम्परा चलाने के लिए, उनकी वाणी को उन्हीं के नाम से परम्परित करने के लिए सर्वज्ञ का उत्तराधिकारी छद्मस्थ होना चाहिए न कि सर्वज्ञ ! इस दृष्टि से भगवान महावीर के उत्तराधिकारी गणधर सुधर्मा हुए । गौतम केवल ज्ञान प्राप्त करके बारह वर्ष तक पृथ्वी पर विचरते रहे, उपदेश करते रहे । गौतम के द्वादशवर्षीय सर्वज्ञ जीवन का विशेष विवरण आज उपलब्ध नहीं हैं । केवल इतना ही उल्लेख मिलता है कि वे अन्तिम समय में राजगृह में एक मास का अनशन करके सिद्ध बुद्ध मुक्त हुए । o Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : ५ । परिसंवाद [ प्रश्न एवं संवाद ] दर्शन का मूल जिज्ञासा. गौतम की प्रश्न शैली. प्रश्नों का वर्गीकरण. १-अध्यात्म विषयक प्रश्न सामायिक में भांड अभांड. अात्मा का गुरुत्व लघत्व. लघुता प्रशस्त है ?. कषाय का अाधार क्या है ?. उपासना का फल?. ज्ञान और क्रिया ?. शील और श्र त ?. दीर्घायुष्य का कारण ?. दुःखी-सुखी क्यों?. सिद्ध स्वरूप ?. श्रमरण केशीकुमार और गौतम उदक पेढाल पुत्र और गौतम. विकास और ह्रास का कारण . उत्थान और पतन का रहस्य. २-कर्मफल विषयक प्रश्न प्रदेशी राजा. मृगापुत्र. सुबाहु कुमार. Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३- लोक विषयक प्रश्न लोक एवं जीव • परमाणु : शाश्वत प्रशाश्वत • अस्तित्व- नास्तित्व • देवासुर संग्राम देवासुर विरोध का कारण देवों के भेद क्या देवता अलोक में हाथ फैला सकता है ? गुड में कितने रस ? माता पिता के अंग • • ४ - स्फुट विषयक प्रश्न उन्माद • उपधि • राजगृह क्या है ? • लवण समुद्र का पानी • मेघ स्त्री है या पानी ? • घोड़े का शब्द • जृम्भक देव • तीर्थ और तीर्थंकर • दर्शन कितने ? • Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसंवाद - दर्शन का मूल जिज्ञासा गणधर गौतम की उदग्र जिज्ञासा वृत्ति का एक परिचय पिछले पृष्ठों पर दिया जा चुका है और उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन श्रु त साहित्य के निर्माण में अधिकांश एवौं महत्वपूर्ण योग गौतम के इन्हीं प्रश्नों का है । हो सकता है उत्तरकाल में यह ग्रन्थ-प्रणयन की एक शैली बन गई हो, जिसके प्रारम्भ में गौतम की जिज्ञासा उपस्थित करके उस पर भगवान द्वारा उत्तर दिलाया जाय । पर किसी भी शैली का निर्माण तभी होता है जब उसकी परम्परा में कोई स्थायीप्रभाव एवं असामान्य आकर्षण रहा हो, नई शैली का जन्म अपने आप में किसी परम्परा एवं धारणा के आकर्षक प्रभाव का इतिहास होता है । गौतम के प्रश्न एवं उत्तर की शैली वस्तुतः एक रोचक एवं हृदयग्राही शैली रही है । आगमों के ऐतिहासिक अवलोकन से यह भी तो स्वत: सिद्ध है कि बहुत से संवाद गौतम और महावीर की जीवन घटनाओं के साथ जुड़े हैं, अत: उनकी ऐतिहासिकता में भी संशय नहीं किया जा सकता। फिर आगमों में गौतम की मनःस्थिति को जताने वाली एक शब्दावली बार-बार आती है""जाय सड्ढे, जायसंसए, जायकोउहल्ले ।" गौतम के मन में अमुक तथ्य को १. (क) भगवती ११ (ख) औपपातिक (ग) उवासग दशा १ (घ) विपाक १ आदि Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ इन्द्रभूति गौतम जानने की श्रद्धा-इच्छा पैदा हुई, संशय हुआ, कौतुहल हुआ, और वे उस ओर आगे बढ़े। इससे स्पष्ट परिलक्षित होता है कि गौतम की वृत्ति में मूलघटक वे ही तत्व थे जो संपूर्ण दर्शन शास्त्र की उत्पत्ति की कहानी के मूल घटक रहे हैं। दर्शन शास्त्र के इतिहास में तीन दर्शन मुख्य माने गये हैं । यूनानी दर्शन, पश्चिमी दर्शन एवं भारतीय दर्शन । यूनानी दर्शन का प्रवर्तक ओरिस्टोटल माना जाता है, उसका कथन है—'दर्शन का जन्म आश्चर्य से हुआ। इसी बात को प्लेटो ने उद्धृत किया है। पश्चिम के प्रमुख दार्शनिक डेकार्ट, कांट, हेगल आदि ने दर्शन शास्त्र का उद्भावक तत्व 'संशय' माना है। भारतीय दर्शन का जन्म 'जिज्ञासा' से हुआ यह अनेक दर्शनों के प्रथम दर्शन सूत्रों से ही स्पष्ट हो जाता है। उपनिषदों में तो इस प्रकार की अनेक कथाएँ संग्रहित हैं जिनके मूल में यही जिज्ञासा तत्व मुखरित हो रहा है। नारद सनत्कुमार के पास आकर यही प्रार्थना करते हैं-"अधीहि भगवन् !" मुझे सिखाइये, आत्मा क्या है यह बताइए । कठोपनिषद् का यम एवं नचिकेता का संवाद तो दर्शन शास्त्र का महत्वपूर्ण संवाद माना जाता है । बालक नचिकेता यम के द्वार पर पहुँच कर जब कहता है-"जिसके विषय में सब मनुष्य विचिकित्सा कर रहे हैं वह तत्व क्या है ? मुझे बताइये?" यम उसे ऐश्वर्य सुख, भोग का प्रलोभन देकर इस प्रश्न को टालना चाहता है, पर अटल जिज्ञासु बालक नचिकेता दृढ़ता के साथ कहता है- "मुझे यह धन वैभव कुछ नहीं चाहिए, मुझे तो मेरे प्रश्न का समाधान (वर जो मांगा है) चाहिए, बस मुझे यही यथेष्ट है ।"६ ___ दर्शन शास्त्र के इतिहास के लेखकों ने अर्हत् महावीर एवं तथागत बुद्ध की प्रव्रज्या एवं कठोर साधना का मूल भी इसी आत्मजिज्ञासा में देखा है । के अहमंसि ? २. फिलॉसफी बिगिंस इन वंडर (Philosophy begins in wander) ३. दर्शन का प्रयोजन पृष्ठ २९ (डा० भगवानदास) ४. (क) अथातो धर्मजिज्ञासा-वैशेषिक दर्शन १ (ख) दुःख त्रयाभिघाताज् जिज्ञासा-सांख्यकारिका १ (ईश्वरकृष्ण) (ग) अथातो धर्म जिज्ञासा-मीसांसा सूत्र १ (जैमिनी) (घ) अथातो ब्रह्म जिज्ञासा-ब्रह्मसूत्र १११ ५. . छांदोग्य उपनिषद् अ० ७ ६. वरस्तु मे वरणीय एव-कठोपनिषद् । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसंवाद के वा इओ चुओ इह पेच्चा भविस्सामि ? मैं कौन था, मेरा क्या स्वरूप है, यहाँ से आगे कहाँ जाऊँगा - ये विकट प्रश्न साधक को आत्मशोध की ओर उन्मुख करते हैं और जब तक वह इनका समाधान नहीं पा लेता, तब तक उसे चैन नहीं पड़ता । तथागत बुद्ध तो स्पष्ट प्रतिज्ञा करते हैं कि “जब तक मैं जन्म मरण के किनारे का पता नहीं पा लूँगा तब तक कपिलवस्तु में प्रवेश नहीं करूँगा | ९ इस प्रकार आश्चर्य; जिज्ञासा, संशय, कुतूहल ये सब मनुष्य को दर्शन की ओर उन्मुख करते रहे हैं । ठेठ वैदिक काल से लेकर पश्चिमी दर्शन के उद्भव तक यही 'इंटेलेक्चुअल क्युरियासिटी' (Intellectual curiosity ) 'बौद्धिक कौतुहल' मनुष्य को ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में निरंतर आगे से आगे बढ़ाता आया है । गौतम की प्रश्न शैली गणधर गौतम के मन में 'बौद्धिक कुतूहल' बहुत उत्कट रूप में प्रदर्शित होता है, वह सिर्फ आत्मा एवं परमात्मा के सम्बन्ध में ही नहीं, किन्तु दृश्य जगत् के प्रत्येक पदार्थ के सम्बन्ध में सचेतन है, कोई भी घटना, विषय या प्रसंग जब उनके सामने आता है तो वे उस विषय में जानने की इच्छा करते हैं, उसके विविध पक्षों पर 'संशयात्मक चिंतन, अवलोकन करते हैं, उसको विविधता एवं विचित्रता के संबंध में मन में कुतूहल होता है और उस 'श्रद्धा' संशय एवं कुतूहल से प्रेरित होकर अपने धर्मोपदेष्टा प्रभु के चरणों में उपस्थित होकर विनय पूर्वक प्रश्न करते हैं । १०६ गौतम के प्रश्नोत्थान की शैली भी बड़ी सुन्दर एवं विनयपूर्ण है । उनके मन में जब कोई संशय या जिज्ञासा उपस्थित होती है तो वे चलकर जहाँ भगवान ७. ८. आचारांग १।१।१।१ जनन-मरणयोरहृष्टपारः न पुनरहं कपिलाह्वयं प्रवेष्टा । - बुद्धचरित (अश्वघोष ) ऋगवेद कालीन ऋषि रात्रि में तारों को देखकर कहता है— ये तारे रात्रि में दीख पड़ते हैं, वे दिन में कहाँ चले जाते हैं, यह मेरी समझ के परे है (ऋगवेद मं १ सू० २२ ) इस जगत् का आरम्भ किसने किया ? वह कौन था ? कैसा था ? आदि प्रश्न भी उसे विकल करते प्रतीत होते हैं (यजुर्वेद अ० २३) देखे दर्शन का प्रयोजनः पृष्ठ २६ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० इन्द्रभूति गौतम महावीर विराजमान हैं वहाँ आते हैं, उन्हें विनयपूर्वक वन्दन करते हैं, प्रभु के ज्ञान की स्तुति करते हैं और फिर अपनी शंका प्रस्तुत करते हुए पूछते हैं- "कहमेयं भंतेकथमेत भदन्त----भगवन ! यह बात कैसे हैं ? कभी-कभी वे उत्तर की गहराई में जाकर पुनः प्रति प्रश्न भी करते हैं----केणटुणं भंते ! ऐसा किस लिए कहा जाता है ? वे हेतु तक जाकर तर्क शैली से उसका समाधान पाना चाहते हैं । __ गौतम के प्रश्न की यह शैली तर्क पूर्ण एवं वैज्ञानिक प्रतीत होती है। विज्ञान भी ‘कथम्'–हाउ (How) और 'कस्मात्' 'केन- ह्वाई (क्यों, किस कारण) (Why) इन्हीं दो तर्कसूत्रों को पकड़ कर वस्तुस्थिति की गहराई में उतरता है, और अन्वीक्षण-परीक्षण करके रहस्यों का ज्ञान प्राप्त करता है । गौतम भी प्रायः इन्ही दो सूत्रों के आधार पर अपनी जिज्ञासाओं को प्रस्तुत करते हैं। गौतम की जिज्ञासा में एक विशेषता और है । वे केवल प्रश्न के लिए प्रश्न नहीं करते हैं, किन्तु समाधान के लिए प्रश्न करते हैं। उनकी जिज्ञासा में सत्य की बुभुक्षा है, उनके संशय में समाधान की गूंज है, उनके कौतुहल में विश्व वैचित्र्य को समझने की तड़फ है। सत्योन्मुखता उनके प्रत्येक शब्द से जैसे टपकती है। यही कारण है कि भगवान महावीर अपना अमूल्य समय देकर भी गौतम के प्रश्नों का समाधान करते हैं । और गौतम भी अपनी जिज्ञासा का समाधान पाकर कृत-कृत्य होकर भगवान के चरणों में पुन: विनयपूर्वक कह उठते हैं—'सेवं भन्ते ! सेवं भन्ते ! तहमेयं भन्ते ! प्रभु ! जैसा आपने कहा, वह ठीक है, वह सत्य है, मैं उस पर श्रद्धा एवं विश्वास करता हूँ।" प्रभु के उत्तर पर श्रद्धा की यह अनुगूज वास्तव में ही प्रश्नोत्तर की एक आदर्श पद्धति है । इससे न केवल प्रश्नकर्ता के समाधान की स्वीकृति होती है, किन्तु उत्तरदाता के प्रति कृतज्ञता एवं श्रद्धा का भाव भी व्यक्त होता है, जो कि अत्यन्त आवश्यक है। प्रश्नों का वर्गीकरण गौतम के प्रश्न, चर्चा एवं संवादों का विवरण इतना विस्तृत है कि उसका वर्गीकरण करना बहुत ही कठिन है । भगवती, औपपातिक, प्रज्ञापना, सूर्यप्रज्ञप्ति, १०. गौतम का कुतूहल कभी-कभी उसी रूप में व्यक्त होता है जैसा पूर्वोक्त ऋग्वेद एवं यजुर्वेद के ऋषियों के मन में उठता है । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसंवाद विपाक, रायपसेणी आदि आगमों में इतने विविध विषयक प्रश्न हैं कि उनकी विस्तृत सूची तैयार की जाये तो संभवतः एक स्वतंत्र ग्रन्थ का निर्माण हो जाये । मेरे मन में यह भी परिकल्पना है कि आगमों में जहाँ जहाँ भी गौतम के नाम से प्रश्नोत्तर आये हैं उनकी एक सूची और साथ ही ससंदर्भ एक स्वतंत्र ग्रंथ तैयार किया जाये। इस लघु पुस्तक में यह संभव नहीं है। फिर भी संक्षेप में गौतम के प्रश्नों को चार वर्गों में बाँटा जा सकता है १. अध्यात्म विषयक २. कर्म-फल विषयक ३. लोक विषयक ४. स्फुट विषयक प्रथम वर्ग में वे प्रश्न गिने जा सकते हैं जिनमें गौतम ने भगवान से आत्मा उसकी स्थिति, शाश्वत-अशाश्वत१२ जीव, सामायिक कर्म, कषाय, लेश्या५ ज्ञान का फल, मोक्ष, सिद्ध स्वरूप आदि विषयों पर प्रश्न किये हैं । इनमें वे संवाद भी सम्मिलित किये जा सकते हैं जो गौतम ने अपने अन्य विशिष्ट जिज्ञासुओं एवं साधकों के साथ किये हैं, जैसे उदक पेढाल ८, केशीकुमार श्रमण आदि । द्वितीय वर्ग में उन प्रश्नों का समावेश किया जा सकता है, जो किसी व्यक्ति विशेष को सुखी देखकर उसके पूर्व जन्मोपाजित शुभ कार्यों के विषय में पूछना। जैसेसुबाहु कुमार, मृगापुत्र २० आदि । तथा किसी को ऋद्धि समृद्धि देखकर उसके पूर्व जीवन के विषय में पूछना, जैसे—सूर्याभदेव के पूर्व जीव प्रदेशी राजा का वर्णन । ११. ज्ञाता सूत्र १२. भगवती १३. भगवती १४. प्रज्ञापना प्रज्ञापना १६. भगवती १७. औपपातिक (सिद्ध वर्णन) १८. सूत्र कृतांग १९. उत्तराध्ययन २०. विपाक सूत्र २१. रायपसेणी सूत्र Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ इन्द्रभूति गौतम तृतीय वर्ग में बहुत से प्रश्न आ सकते हैं, जैसे- भगवती के लोक स्थिति परमाणु, देव-नरक पृथ्वीकाय, वनस्पतिकाय, आदि, प्रज्ञापना के जीव, अजीव, भाषा, शरीर विषयों के एवं जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति के जंबूद्वीप विषयक, सूर्य प्रज्ञप्ति चंद्र प्रज्ञप्ति में सूर्य चन्द्र की गतिविषयक प्रश्न । इन प्रश्नों का विस्तार काफी किया जा सकता है । चौथे वर्ग में अन्य स्फुट प्रश्नों का समावेश हो जाता है, जो समय-समय पर किसी अन्यतीर्थिक के प्रश्न पर विलक्षण घटना के देखने पर या वैसे ही सहजतया गौतम के मन में उठे हैं और भगवान ने जिनका समाधान दिया है । हम अधिक विस्तार में न जाकर क्रमशः चारों वर्गों से संबंधित कुछ प्रश्न यहाँ आगमों के हिन्दी भावानुवाद के साथ प्रस्तुत करते हैं । C Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म विषयक प्रश्न सामायिक में भांड-अभांड भगवान महावीर एक बार राजगृह में पधारे । वहाँ गौतम स्वामी ने भगवान से पूछा- "भन्ते ! सामायिक व्रत अंगीकार करके बैठे हुए श्रावक के भंडोपकरण कोई पुरुष ले जावे और फिर सामायिक पूर्ण होने पर वह श्रावक उन भंडोपकरण की खोज करे तो क्या वह अपने भंडोपकरण की खोज करता है या दूसरे के भंडोपकरण को ? भगवान गौतम ! वह अपने भंडोपकरण की ही खोज करता है, अन्य के भंडोपकरण की नहीं ? गौतम-भन्ते ! शीलव्रत, गुणव्रत आदि प्रत्याख्यान एवं पौषधोपवास में श्रावक के भांड क्या अभांड (स्वामित्वमुक्त) नहीं होते ? भगवान गौतम ! वह अभांड हो जाते हैं । गौतम-भन्ते ! फिर ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि वह अपना भांड खोजता है, अन्य का नहीं। भगवान---गौतम ! सामायिक करनेवाले श्रावक के मन में यह भावना होती है कि-यह स्वर्ण, हिरण्य, वस्त्र आदि द्रव्य मेरे नहीं हैं, (उनके साथ ममत्व भाव नहीं रखता) किन्तु सामायिक व्रत पूर्ण होने के बाद वह ममत्व भाव से युक्त हो जाता है, Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ इन्द्रभूति गौतम इसलिए गौतम ! कहा जाता है कि वह स्वकीय भांड की अनुगवेषणा करता है, परकीय भांड की नहीं ।२२ आत्मा का गुरुत्व लघुत्व गौतम स्वामी ने भगवान से पूछा-भन्ते ! यह जीव-आत्मा (अरूपी होने के कारण) भारीपन-गुरुत्व कैसे प्राप्त करता है ? भगवान-गौतम ! प्राणातिपात मृषावाद यावत् मिथ्यादर्शनशल्य आदि के सेवन से आत्मा गुरुत्व प्राप्त करता है । गौतम–भन्ते ! यह आत्मा लघुत्व कैसे प्राप्त करता है ? भगवान-गौतम ! प्राणातिपात, मषावाद यावत् मिथ्यादर्शनशल्य का निरोध करने से आत्मा लघुत्व प्राप्त करता है। इसी प्रकार प्राणातिपातादि के सेवन से जीव संसार दीर्घ करता है, और उनके त्याग से संसार को कम करता लघुता प्रशस्त है गौतम स्वामी ने पूछा-भंते ! नमण निन"थों के लिए क्या लघुता, अल्पेच्छा, अममत्व, अनासक्ति एवं अप्रतिबद्धता प्रशस्त हैं ? भगवान ने कहा-गौतम ! ये श्रमण निग्रन्थों के लिए प्रशस्त है. (इन गुणों को अपनाना चाहिए)। कषाय का आधार क्या है ? एकबार गौतमस्वामी ने भगवान से पूछा-"भंते ! कषाय कितने प्रकार के हैं ?" २२. भगवती सूत्र शतक ८१५ २३. भगवती शतक १९ २४. भगवती शतक ११९ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसंवाद भगवान ने कहा - " गौतम ! कषाय चार प्रकार के हैं । क्रोध, मान, माया और लोभ । " गौतम—“भन्ते ! क्रोध आदि कषायों की प्रतिष्ठा ( आधार भूमि) क्या है ?" भगवान —- " गौतम ! कषाय आत्म-प्रतिष्ठित ( स्व - आधार से ) पर प्रतिष्ठित, तदुभय प्रतिष्ठित एवं अप्रतिष्ठित (बिना किसी कारण के ) यों चार प्रकार से कषाय की प्रतिष्ठा ( आधार -- कारण भूमि) है ।" गौतम - "भन्ते ! क्रोध आदि की उत्पत्ति के कितने कारण हैं ?" ११५ भगवान - " गौतम ! चार प्रकार से क्रोध आदि की उत्पत्ति होती है । क्षेत्र से, वस्तु से, शरीर से एवं उपधि से । १२५ एकबार भगवान महावीर कौशाम्बी से विहार करके राजगृह पधारे । गौतम स्वामी नगर में भिक्षा के लिये गए तो वहाँ उन्होंने एक चर्चा सुनी-तुरंगिका नगरी के बाहर उद्यान में भगवान पार्श्वनाथ के शिष्य - स्थविर आये हैं। उनसे श्रावकों ने पूछा- संयम का फल क्या है ? तप का फल क्या है ? इस पर स्थविरों ने उत्तर दिया- संयम का फल है आनव रहित होना और तप का फल है कर्म का नाश । इस उत्तर पर कुछ गृहस्थों ने कहा - "संयम से देवलोक की प्राप्ति होती है, इसका तात्पर्य क्या है ?" उपासना का फल स्थविरों ने उत्तर दिया – “सराग अवस्था में पाले गये संयम एवं सराग अवस्था में आचरित संयम में अन्तर की आसक्ति के कारण वह मोक्ष के बदले देवत्व को प्राप्त करता है ।' २५. प्रज्ञापना, पद १४ इस प्रकार प्रश्नोत्तरों से गौतम स्वामी को बड़ा आश्चर्य हुआ । वे भगवान महावीर के समीप आकर पूछने लगे - " भन्ते ! उन पाश्र्वापत्य श्रमणों का यह उत्तर Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रभूति गौतम क्या सत्य है ? वे इस प्रकार का यथार्थ उत्तर देने में समर्थ हैं ? क्या वे विशेष ज्ञानी हैं ?” भगवान ने कहा- "गौतम ! उन स्थविर श्रमणों ने यथार्थ बात कही है। उन्होंने अपनी बड़ाई के लिये नहीं, किन्तु सत्य तथ्य की दृष्टि से यह बात कही है, मैं भी यही बात कहता हूँ।" गौतम ने पूछा- "भन्ते ! तथा प्रकार के श्नमण ब्राह्मणों की पर्युपासनासेवा करने से मनुष्य को क्या फल मिलता है ?" . भगवान–सेवा से सद्शास्त्र का श्रवण मिलता है। गौतम-शास्त्र श्रवण का क्या फल है ? भगवान-ज्ञान ! (ज्ञय उपदेश का बोध) गौतम-ज्ञान का फल ? भगवान-विज्ञान ! (आत्म बोध) गौतम-विज्ञान का फल ? भगवान-प्रत्याख्यान । (पाप-परिहार) गौतम-प्रत्याख्यान का फल ? भगवान-प्रत्याख्यान का फल है संयम । गौतम-संयम का फल ? भगवान-आश्रव निरोध । (अनाश्रव) गौतम-अनाश्रव का फल ? भगवान-तप । गौतम-तप का फल ? भगवान-कर्म मल की शुद्धि । गौतम---शुद्धि का फल ? भगवान-सर्व क्रियाओं से मुक्ति। (निष्क्रियता) गौतम-निष्क्रियता का फल ? Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसंवाद भगवान - निष्क्रियता प्राप्त होने पर आत्मा को सिद्धि लाभ प्राप्त हो जाता ज्ञान और क्रिया गौतमस्वामी ने पूछा - " भगवन् ! कोई मनुष्य ऐसा व्रत लेता है कि मैं आज से सर्व प्राण, भूत, जीव एवं सत्वों की हिंसा का त्याग करता हूँ, तो उसका वह व्रत 'सुव्रत' कहलायेगा या 'दुर्व्रत' ? है । २६ भगवान ने कहा - " गौतम ! वह व्रत 'सुव्रत' भी हो सकता है ओर 'दुव्र' त' भी । " गौतम - "भगवन् ! इसका क्या कारण है ?" भगवान - " गौतम ! उक्त प्रकार का व्रत लेने वाला व्यक्ति जीव, अजीव, त्रसस्थावर के परिज्ञान से रहित है, तो उसका व्रत, सुव्रत नहीं, किन्तु 'दुव्रत' कहलायेगा । जीव- अजीव के ज्ञान से रहित व्यक्ति यदि कहे कि मैं हिसा का त्याग करता हूँ तो उसकी वह भाषा मिथ्या भाषा है, वह असत्यभाषी पुरुष मन-वचन कर्मणा स्वयं हिंसा करना, करवाना और उसका अनुमोदन करना इन तीनों प्रकार के संयम से रहित है, विरति से रहित है और एकांत हिंसा करने वाला अज्ञानी है ।" जिस पुरुष को जीव अजीव का ज्ञान है, वह यदि हिंसा न करने का व्रत लेता है तो उसका व्रत 'सुत्रत' है । वह सर्व प्राण- भूत - सत्वों के प्रति संयत है, विरत है, संवर युक्त एकांत अहिसक तथा ज्ञानी है । २६. ११७ गौतम स्वामी ने भगवान से पूछा - " कई इतर दर्शन वाले कहते हैं, शील ( आचार) ही श्र ेय है, दूसरे कई कहते हैं- श्रुत (ज्ञान) श्र ेय है, और एक तीसरे २७. सवणे नाणे विन्नाणे पच्चक्खाणे य संजमे । हवे तवे व वोदाणे अकिरिया सिद्धि | भगवती श० ७।३२ शील और श्रुत - भगवती श० २:३।५ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ इन्द्रभूति गौतम प्रकार के व्यक्ति कहते हैं- अन्योन्य निरपेक्ष शील और श्रुत श्रेय हैं -- भगवन् ! इनमें किसका कथन योग्य है ? भगवान-गौतम ! उन सभी का कथन मिथ्या है । (ऐकांतिक होने से) संसार में चार प्रकार के पुरुष हैं १. शील संपन्न हैं, किन्तु श्रु त संपन्न नहीं, २. श्रुत संपन्न हैं, किन्तु शील संपन्न नहीं, ३. शील संपन्न भी हैं और श्रुत संपन्न भी, ४. शील संपन्न भी नहीं और श्रुत संपन्न भी नहीं। प्रथम कोटि का पुरुष पाप से उपरत है, किन्तु ज्ञान से रहित है, वह अंशतः धर्म का आराधक है। दूसरी कोटि का पुरुष-पाप से निवृत नहीं है, किन्तु ज्ञानवान है, वह अंशतः धर्म का विराधक है। तीसरी कोटि का पुरुष-पाप से निवृत्त भी है और ज्ञानी भी है, वह सम्पूर्ण रूप से धर्म का आराधक है। चौथी कोटि का पुरुष-पाप से निवृत्त भी नहीं है और धर्म ज्ञान से रहित भी है, वह पुरुष सम्पूर्ण रूप से धर्म का विराधक है।८ दीर्घायुष्य का कारण गौतम ने पूछा- "भगवन् ! जीव किस कारण से अल्पकालिक आयुष्य बांधता है? भगवान—“गौतम ! तीन कारण से---हिंसा करने से, असत्य वचन बोलने से, श्रमण ब्राह्मण को सदोष आहार पानी देने से ।" गौतम-“भगवन् ! जीव किस कारण से दीर्घायुष्य बांधने के निमित्त भूत कर्म बांधता है ?" २८. भगवती श० ८ । उ० १० Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसंवाद ११९ भगवान गौतम ! तीन कारण से ! अहिंसा की साधना से, सत्य भाषण से, श्रमण-ब्राह्मण को निर्दोष शुद्ध आहार पानी देने से । २९ दुःखी-सुखी क्यों ? गौतम ने पूछा-भगवन् ! जीव दीर्घकाल तक दुःख पूर्वक जीने के निमित्त कर्म क्यों, व किस कारण करता है ? भगवन्—गौतम । हिंसा करने से, असत्य बोलने से तथा श्रमण-ब्राह्मणों की हीलना, निंदा, अपमान आदि करके अमनोज्ञ आहार पानी देने से जीव दुःखपूर्वक जीने योग्य अशुभ कर्म का बंधन करता है ।" गौतम-भगवन् ! जीव सुखपूर्वक दीर्घकाल तक जीने योग्य कर्म किस कारण से बांधता है ? भगवन्---गौतम ! हिंसा-निवृत्ति से, असत्य निवृत्ति से तथा श्रमण-ब्राह्मणों की वंदना उपासना करके प्रियकारी आहार पानी का दान करने से जीव शुभ दीर्घायुष्य का बंध करता है।” ३० सिद्ध स्वरूप गौतम स्वामी ने पूछा-भगवन् ! सिद्ध भगवान को सादि (आदि सहित) अपर्यवसित (अंत रहित-पुनर्जन्म से मुक्त) किसलिए और क्यों कहा जाता है ? ___ भगवान-गौतम ! जिस प्रकार अग्नि से जला देने पर बीज की प्रजनन शक्ति नष्ट हो जाती है, वह पुनः अंकुर रूप में उत्पन्न नहीं हो सकता। इसीप्रकार सिद्ध भगवान ने कर्म रूप बीजों को दग्ध कर डाला है, अतः जन्म के नये अंकुर उत्पन्न नहीं हो सकते, इसकारण सिद्ध भगवान को सादि अपर्यवसित कहा जाता है। २९. भगवती, श० ५ । उ०६ ३०. भगवती, श० ५ । उ०६ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० इन्द्रभूति गौतम गौतम - भगवन् ! सिद्ध कहाँ जाके रुक जाते हैं, कहाँ जाके ठहरते हैं, शरीर कहाँ छोड़ते हैं, और कहाँ जाकर सिद्ध होते हैं ? भगवन् –' " गौतम ! अलोक के कारण सिद्धों की गति रुक जाती है, लोकाग्र भाग पर ठहरते हैं, यहाँ (संसार में ) शरीर को छोड़कर वहाँ, (सिद्ध शिला ) पर जाकर सिद्ध होते हैं ? ११ श्रमण केशीकुमार और गौतम एकबार मिथिला से विहार करके भगवान महावीर हस्तिनापुर की ओर पधारे । गणधर गौतम अपने शिष्य समुदाय के साथ श्रावस्ती पधारे, और निकटवर्ती कोष्ठक उद्यान में ठहरे। उसी नगर के बाहर एक ओर तिन्दुक उद्यान था, जिसमें पार्श्वसंतानीय निर्ग्रन्थ श्रमण केशीकुमार अपने शिष्य समुदाय के साथ आकर ठहरे हुए थे । श्रमण केशी कुमार कुमारावस्था में ही प्रव्रजित हो गये थे । वे ज्ञान व चारित्र के पारगामी तथा मति, श्रुत व अवधि - तीन ज्ञान से युक्त पदार्थों के स्वरूप के ज्ञाता थे । १२ उस समय गौतम व केशी कुमार के शिष्यों ने एक दूसरे को देखा, तब दोनों के शिष्य समुदाय में कुछ शंकाऐं उत्पन्न हुई – “हमारा धर्म कैसा और इनका धर्म कैसा ? हमारी आचार - धर्म - प्रणिधि कैसी और इनकी कैसी ? महामुनि पार्श्वनाथ ने चतुर्याम धर्म का उपदेश किया है और तीर्थंकर वर्धमान पाँच शिक्षारूप धर्म का ३१. औपपातिक ३ ( सिद्ध वर्णन ) ३२. श्रमण केशीकुमार के सम्बन्ध में विद्वानों में कुछ यह मत भेद है, कि ये केशी कुमार वे नहीं है जिन्होंने प्रदेशी राजा को प्रतिबोध दिया था, चूँकि राय पसेणिय में उनके सम्बंध में कहा है— चउनाणोवगए - वे चारज्ञान के धारक थे, जबकि इन केशीकुमार के लिए ओहिनाण सुए ( उत० २३ । २) श्रुतज्ञान एवं अवधि ज्ञान से युक्त विशेषण आया है । विशेष वर्णन के लिए देखें – भगवान पार्श्व: एक अनुशीलन ( देवेन्द्रमुनि) उत्तराध्ययन: एक समीक्षात्मक अध्ययन ( मुनि नथमल जी ) पृ० ४०० Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसंवाद १२१ उपदेश करते हैं । जब दोनों का लक्ष्य समान है तो, एक लक्ष्यवालों में यह भेद कैसा ? एक ने सचेलक धर्म का उपदेश दिया है और एक अचेलक भाव का उपदेश करते हैं ।" अपने शिष्यों की आशंकाओं से प्रेरित होकर दोनों गौतम व केशीकुमार ने परस्पर मिलने का विचार किया। गौतम अपने शिष्य वर्ग के साथ तिन्दुक उद्यान में आए, जहाँ कि श्रमण केशीकुमार ठहरे हुए थे । गणधर गौतम को अपने यहाँ आते हुए देखकर श्रमण केशीकुमार ने भक्ति-बहुमानपूर्वक उनका स्वागत किया । अपने द्वारा याचित पलाल, कुश, तृण आदि के आसन गौतम के सम्मुख प्रस्तुत किये। दोनों का मिलन देखने को अनेक कौतुहल प्रिय व्यक्ति भी उद्यान में उपस्थित हो गए थे। __ गौतम से अनुमति पाकर केशी कुमार ने चर्चा को आरम्भ किया-"महाभाग ! वर्धमान स्वामी ने पाँच शिक्षा रूप धर्म का उपदेश किया है, जब कि महामुनि पार्वनाथ ने चतुर्याम धर्म का प्रतिपादन किया है । मेधाविन् ! एक कार्य में प्रवृत्त होने वाले साधकों के धर्म में विशेष भेद होने का क्या कारण है ? धर्म में अन्तर हो जाने पर क्या आपको संशय नहीं होता ?' गौतम ने गंभीरतापूर्वक उत्तर दिया-"जिस धर्म में जीवादि तत्वों का निश्चय किया जाता है, उसके तत्व को प्रज्ञा ही देख सकती है। काल-स्वभाव से प्रथम तीर्थकर के मुनि ऋजु जड़ और चरमतीर्थकर के मुनि वक्रजड़ होते हैं, किन्तु मध्य-वर्ती तीर्थंकरों के मुनि ऋजुप्राज्ञ हैं । यही कारण है कि धर्म के दो भेद कहे गए हैं। प्रथम तीर्थंकर के मुनियों का कल्प दुर्विशोध्य और चरम तीर्थंकर के मुनियों का कल्प दुरनुपाल्य होता है, पर मध्यवर्ती तीर्थंकरों के मुनियों का कल्प सुविशोध्य और सुपाल्य होता है।" गौतम के उत्तर से श्रमण केशीकुमार को संतोष हुआ। वे बोले-"आयुष्मन् ! आपने मेरे एक प्रश्न का समाधान तो कर दिया, अब दूसरी जिज्ञासा को भी समाहित करें। वर्धमान स्वामी ने अचेलक धर्म का उपदेश दिया है और महामुनि पार्श्वनाथ ने सचेलक धर्म का, एक ही कार्य में प्रवृत्त होने वालों में यह अन्तर क्यों ? इसमें विशेष हेतु क्या है ? लिंग–वेष में इस प्रकार अन्तर हो जाने पर क्या आपके मन में विप्रत्यय उत्पन्न नहीं होता ?" गौतम ने धैर्य पूर्वक सुना और बोले- "भगवन् ! लोक में प्रत्यय के लिये, वर्षादि ऋतुओं में संयम की रक्षा के लिए, संयम यात्रा के निर्वाह के लिए, Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ इन्द्रभूति गौतम ज्ञानादि ग्रहण के लिए अथवा 'यह साधु है' इस पहचान के लिए जगत में लिंग (चिन्ह) का प्रयोजन है । वस्तुतः दोनों ही तीर्थंकरों का सिद्धान्त यही है कि निश्चय में मोक्ष के सद्भूत साधन तो ज्ञान, दर्शन और चारित्र ही हैं।" केशीकुमार---"महाभाग ! आप अनेक सहस्र शत्रुओं के बीच खड़े हैं । वे शत्रु आपको जीतने के लिए आपकी ओर आ रहे हैं । आपने उन शत्रुओं को किस प्रकार जीता?" गौतम—“जब मैंने एक शत्रु को जीत लिया, तो पाँच शत्रु जीत लिये गये । पाँच शत्रुओं के जीते जाने पर दस ! इसी प्रकार मैंने सहस्रों शत्र ओं को जीत लिया।" केशीकुमार-"वे शत्रु कौन हैं ?" गौतम–“महामुने ! बहिर् भाव में लीन आत्मा, चार कषाय व पाँच इन्द्रियाँ शत्र हैं । उन्हें जीत कर में कुशल पूर्वक विचरता हूँ।' श्रमण केशीकुमार बोले- "मुने ! संसार में अनेक जीव पाश-बद्ध देखे जाते हैं, किन्तु आप पाश-मुक्त और लघुभूत होकर कसे विचरते हैं ?" गौतम--"मुने ! मैंने उन पाशों का सब तरह से छेदन कर डाला है, अब उन्हें विनष्ट __ कर मुक्त-पाश और लघुभूत होकर विचरता हूँ।" केशीकुमार- "भन्ते ! वे पाश कौन से हैं ?' गौतम-भगवन् ! राग-द्वेष और स्नेहरूप तीव्र पाश हैं, जो बड़े भयंकर हैं । मैं इनका छेदन कर कुशलपूर्वक विचरता हूँ।" केशीकुमार- "गौतम ! अन्तःकरण की गहराई से समुद् भूत लता, जिसका फल परिणाम अत्यन्त विषमय है, उस लता को आपने किस प्रकार उखाड़ डाला? गौतम-"मैंने उस लता को जड़मूल से उखाड़ कर छिन्न भिन्न कर फेंक दिया है, अतः मैं उन विषमय फलों के भक्षण से सर्वथा मुक्त हो गया हूँ।" . केशीकुमार-"महाभाग ! वह लता कौन-सी है ?' Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसंवाद १२३ गौतम-महामुने ! संसार में तृष्णा रूप लता बहुत भयंकर है और दारुण फल देने वाली है । उसका विधि पूर्वक उच्छेद कर मैं विचरता हूँ। . केशीकुमार-"मेधाविन् ! इस देह में घोर तथा प्रचण्ड अग्नि प्रज्वलित हो रही है । वह सम्पूर्ण शरीर को भस्मसात् करनेवाली है। आपने उसे कैसे शान्त किया, कैसे बुझाया ?' गौतम-'तपस्विन् ! महामेघ से प्रसूत पवित्र जल को ग्रहण कर मैं उस अग्नि को बुझाता रहता हूँ, अतः वह जल-सिक्त अग्नि मुझे नहीं जलाती।" केशीकुमार--"महाभाग ! वह अग्नि क्या है और जल कौनसा है ?" गौतम–'श्रीमन् ! कषाय अग्नि है। श्र तशील और तप जल है । श्रु त-जलधारा से अभिसिंचित वह अग्नि मुझे नहीं जलाती है।" केशीकुमार--"तपस्विन् ! यह साहसिक, भीम, दुष्ट, अश्व चारों ओर भाग रहा है। उस पर चढ़ हुए आप भी उसके द्वारा उन्मार्ग में कैसे नहीं ले जाए गये ?" गौतम---"महामुने ! भागते हुए अश्व को मैं श्रतरूप-रस्सी से (लगाम) बाँध कर रखता हूँ, अतः वह उन्मार्ग में नहीं जा पाता, सदा सन्मार्ग में ही प्रवृत्त रहता है।" केशीकुमार—“यशस्विन् ! आप अश्व किसको कहते हैं।" गौतम-"व्रतिवर ! मन ही दुःसाहसिक व भीम अश्व है। वही चारों ओर भगता है । मैं कन्थक अश्व की तरह धर्म-शिक्षा के द्वारा उसका निग्रह करता केशीकुमार----"मुनिप्रवर ! संसार में ऐसे बहुत से कुमार्ग हैं, जिन पर चलने से जीव सन्मार्ग से च्युत हो जाता है। किन्तु आप सन्मार्ग में चलते हुए उनसे विचलित कैसे नहीं होते हैं ?” गौतम- "आयुष्मन् ! जो सन्मार्ग में गमन करने वाले हैं व उन्मार्ग में प्रस्थान करने वाले हैं, मैं उन्हें अच्छी तरह जानता हूँ, अतः मैं अपने सन्मार्ग से हटता नहीं हूँ।" Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ इन्द्रभूति गौतम केशीकुमार- "विज्ञवर ! वह सन्मार्ग और उन्मार्ग कौन सा है ?" गौतम-"मतिमन् ! कुप्रवचन को माननेवाले सभी पाखण्डी उन्मार्ग में चलने वाले हैं । जिन भाषित मार्ग ही सन्मार्ग है । और यह मार्ग निश्चित ही उत्तम निराबाध है।" केशीकुमार-"ऋषिवर ! महान् उदक के वेग में बहते हुए प्राणियों के लिए शरण और प्रतिष्ठारूप द्वीप आप किसे कहते हैं ?" गौतम–श्रीमन् ! एक महाद्वीप है। वह बहुत विस्तृत है। जल के महान वेग की वहाँ गति नहीं है।" केशीकुमार-प्राज्ञवर ! वह महाद्वीप कौनसा है ? गौतम-जरा-मरण के वेग से डूबते हुए प्राणियों के शिए धर्मद्वीप है, प्रतिष्ठारूप है और उत्तम शरण रूप है। केशीकुमार----''महाप्रवाह वाले समुद्र में एक नौका विपरीत दिशा में तीव्रगति से भाग रही है। आप उसमें आरूढ़ हो रहे हैं। फिर पार कैसे जा सकेंगे ?" गौतम-"जो सच्छिद्र नौका है, वह पारगामी नहीं हो सकती, किन्तु छिद्र रहित नौका अवश्य ही पार पहुंचाने में समर्थ होती है ।" केशीकुमार-'वह नौका कौनसी है ?' गौतम-'शरीर नौका है। आत्मा नाविक है । संसार समुद्र है, जिसे महर्षिजन सहज ही तैर कर पार पहुंचते हैं।' केशीकुमार----''बहुत सारे प्राणी घोर अन्धकार में पड़े हैं। इन प्राणियों के लिए लोक ___ में उद्योत कौन करता है । गौतम-"उदित हुआ सूर्य लोक में सब प्राणियों के लिए उद्योत करता है।" केशीकुमार-'वह सूर्य कौन-सा है ?' गौतम–'जिनका संसार (राग-द्वेष-मोह) क्षीण हो गया है, ऐसे सर्वज्ञ जिन भास्कर का उदय संसार में हो चुका है । वे ही सारे विश्व में उद्योत करते हैं।' Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसंवाद १२५ केशीकुमार—'आप शारीरिक और मानसिक दुःखों से पीड़ित प्राणियों के लिए क्षेम ___ और शिव रूप, बाधा रहित कौनसा स्थान मानते हैं ?' । गौतम-'लोक के अग्र भाग में एक ध्र व स्थान है, जहाँ जरा, मृत्यु, व्याधि और वेदना नहीं है । किन्तु वहाँ आरोहण करना नितान्त दुष्कर है ।' केशीकुमार-'वह कौन सा स्थान है ?' गौतम- 'महर्षियों द्वारा प्राप्त वह स्थान निर्वाण, अव्याबाध्य, सिद्धि, लोकान, क्षेम, शिव और अनाबाध, इन नामों से विश्र त है। मुने ! वह स्थान शाश्वतवास का है, लोक के अग्रभाग में स्थित है और दुरारोह है। इसे प्राप्त कर भव परम्परा का अन्त करने वाले मुनिजन चिन्तामुक्त हो जाते हैं। श्रमण केशीकुमार ने चर्चा का उपसंहार करते हुए कहा-“महामुने गौतम ! आपकी प्रज्ञा उत्तम है। आपने मेरे संशयों का उच्छेद कर दिया है, अतः हे संशयातीत ! सर्व सूत्र महोदधि के पारगामिन् ! आपको नमस्कार है।" गणधर गौतम को वन्दना करके श्रमण केशीकुमार ने अपने बृहत् शिष्य समुदाय सहित उनसे पंच महाव्रत रूप धर्म को भाव से ग्रहण किया और महावीर के भिक्षु संघ में सम्मिलित हुए ।33 उदकपेढाल और गौतम नालन्दा में लेप नामक धनाढ्य गाथापति रहता था । वह श्रमणोपासक था। नालन्दा के ईशानकोण में उसने एक सुन्दर उदकशाला बनवाई थी। उस उदकशाला के निकट ही हस्तियाम नामक उद्यान के आरामागार में भगवान गौतम स्वामी ३३. उत्तराध्ययन, २३ वं अध्ययन के आधार पर ३४. प्रो० जेकोबी ने सेक्रड बुक्स आव दि इस्ट, बाल्यूम् ४५ में, तथा गोपालदास पटेल ने 'महावीर नो संयम धर्म, (हिन्दी) पृ० १२७ में उदगसाला का अर्थ स्नान गृह किया है। जबकि आचार्य हेमचन्द्र ने अभिधानचितामणिभूमिकांड, श्लोक ६७ में 'प्रपा' (प्याऊ) अर्थ किया है। यही अर्थ मागधी कोष कार शतावधानी पं० रत्नचन्द्र जी महाराज ने किया है । अर्ध मागधी कोष भा० २ पृ० २१८ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रभूति गौतम ठहरे हुए थे । भगवान पार्श्वनाथ के शिष्य उदकपेढाल पुत्र नामक निग्रन्थ भी वहीं निकट ठहरे हुए थे। एकबार वे गणधर गौतम के निकट आये और बोले"आयुष्मन् ! कुमार पुत्र नामक श्रमण निन्थ तुम्हारी मान्यताओं का प्ररूपण करते हैं, वे हठ पूर्वक गृहपति श्रमणोपासकों को इस प्रकार का नियम दिलवाते हैं कि "मैं समस्त प्राणियों की हिंसा का त्याग नहीं कर सकता, किन्तु चलने फिरने वाले प्राणियों की हिंसा का त्याग करूंगा।" परन्तु विश्व के समस्त प्राणी त्रस व स्थावर योनियों में चक्र लगाते हैं । त्रस योनि से स्थावर में और स्थावर योनि से त्रस में अबाध गति से घूमते रहते हैं । इस कारण संसार का कोई भी प्राणी न तो मात्र त्रस है, और न मात्र स्थावर ही है , ऐसी स्थिति में उपयुक्त प्रतिज्ञा करने वाला स्थावर प्राणियों की हिंसा की छूट समझ लेता है और वह उनकी हिंसा करता है । और वह इस प्रकार अपनी प्रतिज्ञा से च्युत होता है । जो प्राणो वर्तमान में स्थावर है, वह पूर्व जन्म में त्रस भी रह चुका है। आयुष्मन् ! इस प्रकार की प्रतिज्ञा दिलाने वाले को क्या दोष नहीं लगता ?" गौतम ने समाधान करते हुए कहा--"महाभाग ! आपका यह कहना ठीक नहीं है, क्यों कि यह बिल्कुल अयथार्थ है एवं दूसरों को भुलावे में गिराने जैसा है । संसार के समस्त प्राणो एक योनि से दूसरी योनि में घूमते रहते हैं, यह ठीक है, जो प्राणी इस वक्त त्रस के रूप में उत्पन्न दिखाई देता है, उसी के सम्बन्ध में यह नियम लागू पड़ता है। आप जिसे इस समय त्रस रूप उत्पन्न मानते हैं, उसे ही हम त्रस कहते है। जिसके त्रस बनने योग्य कर्म उदय प्राप्त हो, उसे ही त्रस प्राणी कहा जाता है ।" इसी प्रकार स्थावर प्राणियों के विषय में भी समझना चाहिए। अतएव प्रतिज्ञा भंग होने तथा प्रतिज्ञा दिलाने वाले को दोष लगने की बात न्यायसंगत नहीं लगती।" ___ गौतम ने इस स्थिति को अधिक स्पष्ट करते हुए उदाहरण पूर्वक बतलाते हुए कहा-"जिस प्रकार किसी व्यक्ति ने यह नियम लिया कि मैं दीक्षित होकर जो साधु बन चुका होगा ऐसे व्यक्ति की हिंसा नहीं करूंगा, परन्तु गृहस्थ जीवन में रहते हुए व्यक्ति की हिंसा न करने का नियम मुझे नहीं है। ऐसी स्थिति में अगर कोई साधु बना और कुछ ही समय के पश्चात अपने आपको साधुता के अनुपयुक्त पाकर गृहस्थ बन गया, अब अगर उपयुक्त नियम लेने वाला व्यक्ति इस गृहस्थ बने हुए व्यक्ति की हिंसा करता है, तो उसकी प्रतिज्ञा का भंग नही होता । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसंवाद १२७ इसी प्रकार जिस व्यक्ति ने केवल त्रस प्राणियों की हिंसा का प्रत्याख्यान किया हो, उसे इस जन्म में जो प्राणी स्थावर हैं, उनकी हिंसा करने पर भी प्रतिज्ञा भंग का दोष नहीं लगता।” ___एक अन्य प्रश्न करते हुए उदकपेढालपुत्र ने कहा--"आयुष्मन् ! क्या ऐसा भी कोई समय हो सकता है जिसमें संसार के सब जंगम प्राणी स्थावर के रूप में उत्पन्न हो जावें और फिर जो जंगम प्राणियों की हिंसा न करना चाहते हों, उन्हें इस व्रत की आवश्यकता ही न रहे, अथवा उनके द्वारा जंगम प्राणियों की हिंसा न होने की संभावना ही न रहे ? ___ गौतम ने प्रश्न का समाधान करते हुए कहा-"आयुष्मन् ! ऐसा होना सम्भव नहीं, क्योंकि सभी प्राणियों की विचारधारा व क्रियापद्धति एक साथ ही इतनी हीन नहीं हो सकती है, जिसके कारण सभी स्थावर के रूप में जन्म लें। प्रत्येक समय में पृथक्-पृथक् शक्ति व पुरुषार्थ करने वाले प्राणी अपने लिए भिन्न भिन्न गतिस्थिति तैयार करते रहते हैं। जैसे कि कुछ लोग, अपने आप को दीक्षित होने में असमर्थ पाकर पोषध व अणुव्रतों के द्वारा देवता व मनुष्य आदि की शुभगति योग्य कर्म उपार्जन करते हैं। दूसरे कुछ अधिक लालसा वाले परिग्रही लोग नरक व तिर्यंच आदि की दुर्गति के योग्य कर्म उपार्जन करते हैं । कुछ दीक्षित साधु संत लोग उच्चकोटि के देवत्व के योग्य कर्मोपार्जन करते हैं । कुछ तथाकथित नामधारी कामास्कत साधु असुरयोनि व घोर पाप कर्म करने वाले अन्य स्थानों की तैयारी करते हैं । वहाँ से छूटकर भी वे अन्ध, मूक, वधिर अंगहीनरूप दुर्गति के कर्म उपार्जन करते हैं । इस प्रकार प्रत्येक प्राणी अपने अपने कर्मों के अनुसार विभिन्न गतियाँ प्राप्त करता रहता है । तब यह कैसे हो सकता है कि सभी प्राणियों को एक समान ही स्थान, व गति मिले। दूसरे जहाँ विविध प्रकार के प्राणी हैं, वहाँ उनके आयुष्य में भी विविधता है। आयुष्य की विविधता का तात्पर्य है कि उनकी मृत्यु भो भिन्न समय में होती है । भिन्न-भिन्न समय में मृत्यु होने का अर्थ है कि ऐसा कभी नहीं हो सकता कि सभी प्राणी एक ही साथ मृत्यु प्राप्त होकर एक समान गति प्राप्त करें, जिसके फलस्वरूप किसी को व्रत लेने व हिंसा करने का प्रसंग ही न आये। गौतम के द्वारा तर्क युक्त समाधान पाकर उदकपेढाल पुत्र का संशय दूर हुआ। वह कुछ क्षण किंकर्तव्यविमूढ़ सा खड़ा रहा, फिर बिना विनय सत्कार किए ही चलने लगा तो गौतम ने उसे शिक्षात्मक वाक्य कहकर विनय धर्म का Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ इन्द्रभूति गौतम उपदेश दिया। गौतम के शिक्षापद सुनकर उदकपेढाल ने क्षमा माँगी और भगवान महावीर के निकट आकर पंच महाव्रत रूप धर्म स्वीकार किया। विकास और ह्रास का कारण एक बार राजगृह के गुणशीलक उद्यान में भगवान महावीर पधारे । धर्म प्रवचन के पश्चात् गणधर गौतम के मन में जिज्ञासा उत्पन्न हुई। भगवान महावीर के निकट आकर पूछा- "भगवन् ! आत्मा का विकास और ह्रास किस कारण होता है ? भगवान ने कहा- 'गौतम' ! मैं इस तत्व को एक रूपक द्वारा तुम्हें समझाता हूँ। कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा का चन्द्रमा अपनी ज्योति, शुभ्रता और सौम्यता आदि में पूर्णिमा के चन्द्रमा से हीन होता है । द्वितीया का चन्द्रमा उससे होनतर होता हुआ अमावस्या के दिन हीनतम स्थिति को प्राप्त हो जाता है। उसकी ज्योत्स्ना, कांति और शीतलता आदि गुणों का आभास तक नहीं मिलता।" "भन्ते ! यह बिल्कुल सत्य है । ___ “गौतम ! जो साधक क्षमा, सन्तोष, गुप्ति, सरलता, लघुता-नम्रता, मृदुता सत्य, तप, ब्रह्मचर्य और त्याग---उक्त दस मुनि धर्मों के प्रति उपेक्षा करता है। असावधानी बरतता है, उनका यथाविधि पालन नहीं करता है, वह आत्मा की उज्वलता, उच्चता और समता आदि गुणों से कृष्णपक्ष की प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक के चन्द्रमा की स्थिति के समान ह्रास की स्थिति में चलता रहता है । उसके आत्मगुण हीन से हीनतर होते चले जाते हैं। ......"पुनः शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा का चन्द्रमा विकास की ओर ऊर्ध्वगामी बनता है। उसकी ज्योत्स्ना और कान्ति आदि प्रतिरात्रि विकसित होते जाते हैं। प्रतिपदा के चन्द्रमा की तुलना में द्वितीया का चन्द्रमा अधिक ज्योतिर्मय होता है और इसी क्रम से अन्ततः पूर्णिमा का चन्द्रमा विकास की पूर्ण स्थिति में पहुँच जाता है । वह सब कलाओं से परिपूर्ण हो जाता है।" ३४. सूत्र कृतांग २१७ । गौतम के शिक्षा वाक्य देखें खण्ड ४ निर्भीक शिक्षक में Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९ " गौतम ! इसी प्रकार जो मुमुक्ष श्रमण-धर्म स्वीकार करके क्षमा आदि दश धर्मों का आत्मा में विकास करता जाता है, वह आत्मा की उच्च से उच्चतर और उच्चतम भूमिका को प्राप्त करता चला जाता है ।" परिसंवाद "आत्मा के विकास और ह्रास का रहस्य जान कर गौतम ने प्रभु को वन्दन सत्य है प्रभु आपका कथन । ३५ 6 करते हुए कहा - I एकबार भगवान् महावीर राजगृह नगर के गुणशील उद्यान में विराजमान थे । गणधर गौतम भगवान के पास आए, विनयपूर्वक बद्धाञ्जलि होकर पूछा, - "भन्ते ! यह आत्मा कभी गुरुत्व (भारीपन ) और कभी लघुत्व ( हल्कापन ) प्राप्त करता है, इसका क्या रहस्य है ? उत्थान और पतन का रहस्य भगवान ने इस गुरु गम्भीर प्रश्न को एक रूपक देकर समझाया - " गौतम ! कोई मनुष्य एक सूखे हुए छिद्र रहित तुम्बे को दर्भ (डाभ) आदि से वेष्टित कर उस पर मिट्टी का एक लेप करता है और उसे धूप में सुखा देता है । जब वह पहला लेप सूक जाता है, तो पुन: उसी प्रकार तुम्बे पर दूसरा लेप करता है और उसे भी सुखा ता है । इस क्रम से वह आठ लेप उस तुम्बे पर करता है और सुखा लेता है । पश्चात् वह पुरुष उस तुम्बे को किसी गहरे पानी की सतह पर छोड़ देता है तो क्या वह तुम्बा तैरेगा या डूब जाएगा ?" "भंते ! वह तो डूब ही जाएगा ।" " गौतम ! उसी प्रकार यह आत्मा जब हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्मचर्य, कषाय आदि असत् प्रवृत्ति रूप पाप कर्म करता है, तो ज्ञानावरण आदि आठ कर्म रूप पुद् गल का लेप अपने ऊपर लगा लेता है, और उसी कर्म रूपी लेप के कारण वह गुरुत्व ( भारीपन ) प्राप्त करके नरक, तिर्यच गति रूप संसार समुद्र में डूब जाता है ।" " और जब उस तुम्बे पर से दर्भ आदि के बन्धन सड़गल कर टूटने लगते हैं, मिट्टी के लेप साफ होते जाते हैं, तो वह तुम्बा जलाशय की जमीन की सतह से कुछ ३५. ज्ञाता धर्मकथा १० Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रभूति गौतम कुछ ऊपर उठने लगता है । धीरे-धीरे जब समस्त लेप उतर जाते हैं तो तुम्बा अपने मूल रूप में आ जाता है और पानी की ठीक ऊपर की सतह पर स्वतः ही तैरने लग जाता है।" __"इसी प्रकार आत्मा के कर्म जब कुछ क्षीण होते हैं, तो वह ऊपर उठने लगता है । जब समस्त कर्म-मल क्षीण हो जाते हैं, तो आत्मा संसार से सर्वतोभावेन ऊपर उठ आता है, लोकाग्र में स्थित होकर सिद्ध, बुद्ध, निरंजन, निर्विकार परमात्मा हो जाता है । यही आत्मा का लघुत्व (हल्कापन) है । गौतम की जिज्ञासा शान्त हुई । वे श्रद्धावनत होकर कह उठे-'भन्ते ! यह सत्य कहा आपने ।३६ कर्मफल विषयक __ गणधर गौतम द्वारा स्थान-स्थान पर कर्मफल-विषयक अर्थात् किसी मनुष्य या देव की समृद्धि देखकर अथवा किसी मनुष्य को घोर कष्ट पाता देखकर उसके विगत जीवन से सम्बन्धित प्रश्न किये गये हैं। प्रदेशीराजा रायपसेणी सूत्र का पूरा प्रदेशीप्रकरण गौतम के प्रश्न का उत्तर है। सूर्याभ देवता जब भगवान महावीर के समवसरण में अपनी विशाल ऋद्धि एवं दैविक ३६. ज्ञाता धर्मकथा ६ ३७. प्रदेशी राजा के वर्णन की तुलना के लिए देखें बौद्ध ग्रथ-‘पयासि राजन्य सुत्त' (दीघनिकाय २३) Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसंवाद १३१ शक्ति का अद्भुत प्रदर्शन एवं दिव्य नाटक दिखाता है तो, गौतम स्वामी के मन में जिज्ञासा उठती है--इसने पूर्व भव में ऐसा क्या पुण्य किया था, यह कौन था ? इसने क्या दान दिया, क्या रूखा-सूखा निर्दोष आहार किया, किस प्रकार का तपश्चरण किया और किन-किन विशिष्ट साधना-विधियों की आराधना को ? किस तथारूप श्रमण के पास आर्यधर्म का श्रवण कर उस पर श्रद्धा प्रतीति एवं आचरण किया, जिसके प्रभाव से इस प्रकार की विपुल दिव्य देव ऋद्धि प्राप्त की है ?" ३८ गौतम स्वामी के इसी प्रश्न के उत्तर में पूरा रायपसेणी सूत्र का व्याख्यान हो जाता है। मृगापुत्र इसी प्रकार विपाक सूत्र का पूरा वर्णन पूर्व एवं भावी जीवन के दुष्कर्मों एवं सत्कर्मों का लेखा जोखा, एवं उनके कटु एवं मधुर परिणामों की रोमांचक कहानी प्रस्तुत करते हैं। __ मृगापुत्र का वर्णन पीछे किया जा चुका है, उसकी दुःखमय बीभत्स अवस्था देखकर गौतम स्वामी के मन में वितर्क उठता है-- "इस पुरुष ने पूर्व जन्म में किस प्रकार के घोर, दुष्कर्म किये होंगे, जिनके कटु परिणामों को भोगता हुआ यह प्रत्यक्ष में ही नरक के सदृश घोर वेदना अनुभव कर रहा है ?"३० गौतम स्वामी के इसी वितर्क के उत्तर में भगवान महावीर मृगापुत्र के पूर्व जीवन की पाप-पूर्ण लोमहर्षक कहानी गौतम के समक्ष उद्घाटित कर देते हैं । इसी प्रकार उज्झित कुमार को जब अपराधी के रूप में वध्यभूमि की ओर ले जाते देखते हैं, तो उनके मन में करुणा के साथ उसके कृत्याकृत्य का विमर्श भी होता है, वे भगवान महावीर से उसके कष्ट पाने का कारण पूछते हैं और भगवान महावीर उसके ३८. पुव्वभवे के आसी ? किनामए ?..."किंवा दच्चा, किंवा भोच्चा, किंवा किच्चा, किंवा समायरित्ता जेणं सूरियाभेणं देवेणं सा दिव्वा देविड्ढी जाव देवाणु भावे लद्ध? -रायपसेणी ४२ ३९. अहो णं इमे दारए पुरा पोराणाणं दुच्चिण्णाणं ""पच्चक्खं खलु अयं पुरिसे नरग-पडिरुवियं वेयणं वेयइ त्ति। -विपाक १।१ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९३२ इन्द्रभूति गौतम दुष्कर्मों के वर्णन सुनाकर-कडाणं कम्माणं वेइयत्ता मोक्खो पत्थि अवइत्ता " के सिद्धान्त वाक्य की पुष्टि करते हैं। सुबाहुकुमार दुःख विपाक की भांति सुख विपाक में भी दस पुरुषों की जीवन गाथा है। सुबाहु कुमार की समृद्धि, सौम्यता, भव्यता आदि उत्कृष्ट मनुष्य ऋद्धि देखकर गौतम स्वामी भगवान से पूछते हैं- "भंते ! सुबाहुकुमार इतना इष्ट, प्रिय, मनोहर सौम्य, सुभग, प्रिय दर्शन लग रहा है, इस प्रकार की उत्तम मनुष्य ऋद्धि इसने प्राप्त की है वह किन शुभ कर्मों, उत्कृष्ट तपश्चरणों का फल है ?" इसके उत्तर में भगवान सुबाहु कुमार का पूर्व जीवन वृत्त सुनाते हैं । लोक विषयक लोक एवं जीव गौतम स्वामी ने पूछा--"भगवन् ! यह लोक कितना बड़ा है ?" भगवान ने कहा-गौतम ! यह लोक बहुत ही बड़ा है, पूर्व-पश्चिम आदि सभी दिशाओं में असंख्य कोटा-कोटि योजन लंबा चौड़ा है, इसका विस्तार अपरिमेय है।' ४०. भगवती सूत्र ४१. विस्तार के लिए देखिए-विपाक सूत्र २॥ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसंवाद १३३ गौतम-भगवन् ! इतने विशाल लोक में ऐसा कोई परमाणु जितना प्रदेश भी है, जहाँ यह जीव उत्पन्न न हुआ हो, और न जहाँ मरण प्राप्त किया हो ?' ___ भगवान गौतम ! यह बात यथार्थ नहीं है । (भगवान ने उदाहरण दिया) गौतम ! जिस प्रकार कोई एक पुरुष सौ बकरी रखने के लिए एक बाड़ा बनाता है। और फिर उसमें उतनी सी जगह में हजार बकरी भर देवे, उसमें खूब पानी, और घास चरने की सुविधा हो, अब छ: मास तक वे एक हजार बकरियाँ उस बाड़े में बंद रही तो, क्या यह संभव है कि उस बाड़े का एक कोई परमाणु जितना भी प्रदेश उन बकरियों के मूत्र, लींडी, सींग, पद-नख आदि के द्वारा अस्पृष्ट रहा हो ? गौतम-भगवन् ! नहीं, ऐसा नहीं हो सकता ! भगवान-गौतम ! उस बाड़े में एकाधा प्रदेश ऐसा रह भी सकता है, जहाँ बकरी की लींडी, मूत्र आदि का स्पर्श न हुआ हो, किंतु लोक के विषय में यह नहीं हो सकता । चूँकि लोक शाश्वत है, संसार अनादि है, और जीव नित्य है तथा कर्म एवं जन्म मरण की बहुलता के कारण एक भी ऐसा प्रदेश नहीं है, जहाँ जीव ने जन्म धारण न किया हो, तथा मृत्यु प्राप्त न की हो । ५२ परमाणु शाश्वत अशाश्वत गौतम स्वामी ने पूछा-"भगवन् परमाणु शाश्वत है या अशाश्वत ?” भगवान ने कहा-'गौतम ! परमाणु द्रव्य रूप में शाश्वत है, और पर्याय रूप में अशाश्वत है।०४३ अस्तित्व नास्तित्व गौतम स्वामी ने पूछा- "भगवन् ! क्या अस्तित्व अस्तित्व में परिणत होता है, और नास्तित्व नास्तित्व में ?" ४२. नत्थि केई परमाणु पोग्गल मेत्ते वि पएसे जत्थ णं अयं जीवे न जाए वा, न मए वा वि। -भगवती १२।७ ४३. भगवती सूत्र १४।४ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ इन्द्रभूति गौतम भगवान- ''हाँ गौतम ! यह ठीक है ।" गौतम-- "भगवन् ! क्या वह प्रयोग (जीव के उद्यम) से परिणमता है, या स्वभाव से ?' भगवन्---गौतम ! प्रयोग से भी परिणमता है और स्वभाव से भी ?४ देवासुर संग्राम गौतम स्वामी ने पूछा-भगवन् ! क्या देव और असुरों का संग्राम होता है ?" भगवान-“हाँ, गौतम ! होता है, जब उनमें संग्राम होता है, तब तृण, लकड़ी पत्ता और कंकर भी, जिस किसी वस्तु को देव स्पर्श करते हैं तब वह उनका शस्त्र बन जाता है, किंतु असुर कुमार के लिए तो उनके विकुर्वणा किए हुए शस्त्र मात्र ही शस्त्र होते हैं ?" ४५ देवासुर विरोध का कारण गौतम स्वामी ने पूछा- "भगवन् ! असुरकुमार सौधर्मकल्प देवलोक तक जाते हैं इसका क्या कारण है ?" भगवान-“गौतम ! उन देवों एवं असुरकुमारों में जन्मना वर (भवप्रत्ययिक वैर) होता है । वे देवों को, देवियों के साथ आनन्द भोगते हुए कष्ट देते हैं एवं उनके दिव्य रत्नों को चुराकर एकान्त में कहीं जाकर छुप जाते हैं ।"४६ देवों के भेद गौतम स्वामी ने भगवान से पूछा- "भगवन् ! देव कितने प्रकार के होते हैं ?' ४४. भगवती १।३ ४५. भगवती १८७ ४६. भगवती १८७ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसंवाद १३५ भगवान ने कहा- “गौतम ! देव पाँच प्रकार के कहे गये हैं।" (१) भव्य द्रव्य देव-भविष्य में देव योनि प्राप्त करने वाला (२) नरदेव-मनुष्यों में देव के समान पूज्य ।। (३) धर्मदेव-शास्त्र आदि का उपदेश करने वाला धर्मगुरु । (४) देवाधिदेव-मनुष्य एवं देवों के पूज्य अरिहंत । (४) भावदेव-देवगति को प्राप्त देवता । ७ क्या देवता अलोक में हाथ फैला सकता है ? गौतम ने भगवान से पूछा-'"भन्ते ! क्या महान ऋद्धि वाला देव लोकान्त पर खड़ा होकर अपना हाथ अलोक में फैलाने या खींचने में समर्थ हो सकता है ? भगवान ने कहा-“गौतम ऐसा नहीं हो सकता है ।" गौतम-."भन्ते ! किस कारण से ऐसा नहीं हो सकता ?" भगवान- “गौतम ! अलोक में धर्मास्तिकाय का अभाव है, अतः वहाँ जीव एवं पुद्गल की गति नहीं हो सकती। पुद्गल आहार रूप में, शरीर रूप में, कलेवर रूप में तथा श्वासोच्छ्वास आदि के रूप में सदा जीव के साथ उपचित (संलग्न) रहते हैं, अर्थात् पुद्गल स्वभावतः जीवानुगामी होते हैं, जहाँ जिस क्षेत्र में जीव होता है, वहीं पुद्गल गति कर सकता है, और इसी प्रकार पुद्गल का आश्रय ग्रहण कर जीव गति कर सकता है । अलोक में दोनों का अभाव होने से वहाँ हाथ आदि का संकोच विकास तथा स्पर्श नहीं किया जा सकता।"४८ नोट-सूर्य की गति आदि के सम्बन्ध में सूर्यप्रज्ञप्ति (पाहुड १ सूत्र १०) में गौतम के प्रश्न एवं भगवान के उत्तर द्रष्टव्य हैं। इसी प्रकार नरक आदि के वर्णन के लिए भगवती सूत्र के अनेक स्थल एवं प्रज्ञापना आदि में देखने चाहिए। गौतम स्वामी के विविध प्रश्नों का वर्गीकृत रूप 'भगवतीसार' (गोपालदास पटेल) में भी देखा जा सकता है। ४७. भगवती १२।९ ४८. भगवती १६८ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ गौतम ने पूछा - भगवन् ! फाणित गुड (गुड़ की कटु रस ? इसी प्रकार उसमें वर्ण, गन्ध और स्पर्श कितने भगवान ने कहा--" गौतम ! व्यवहार दृष्टि से गुड में एक मधुर रस कहा जाता है, किन्तु निश्चय दृष्टि से उसमें पांच रस, पांच वर्ण, दो गन्ध एवं आठ स्पर्श विद्यमान रहते हैं । ९ इन्द्रभूति गौतम गुड में कितने रस ? राब) में मधुर रस है या " हैं ? ४९. भगवती १८/६ ५०. भगवती १1७ गौतम ने पूछा - भगवन् ! ( गर्भगत जीव में ) माता के अंग कितने होते हैं ? भगवान ने कहा - "गौतम ! माता के तीन अंग (प्राणि में) रहते हैं - माँस, रक्त और मस्तुलु रंग - भेजा । गौतम - भगवन् ! पिता के अंग कितने होते हैं ? भगवान - गौतम ! पिता के भी तीन अंग होते हैं - 'अस्थि मज्जा तथा केश-दाढ़ी-रोम - नख ! गौतम - भगवन् ! माता के ये अंग संतान में कितने काल तक रहते हैं ? भगवान — गौतम ! जितने काल तक संतान का शरीर स्थिर रहता है, तब तक माता-पिता अंग उसमें रहते हैं । ५० ११५० माता-पिता का अंग 3 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसंवाद १३७ स्फुट - विषय उन्माद भगवान से गौतम ने पूछा--"भगवन् ! उन्माद (विवेक हीनता) कितनी प्रकार के हैं ? भगवान-गौतम ! दो प्रकार के हैं । (१) यक्षावेश रूप (२) मोहावेश रूप (अज्ञान एवं काम के आवेश) प्रथम में--यक्ष आदि के शरीर में प्रवेश करने पर चेतना का भ्रश हो जाता है, विवेक लुप्त हो जाता है। दूसरे में-मोह कर्म के उदय से अतत्व में तत्व रूप श्रद्धा होती है, विषायादि के कटु फल जानकर भी उनका सेवन करता है, और कामावेश के कारण हिताहित का भान भूल जाता है ।५१ उपधि एक बार भगवान महावीर राजगृह में पधारे । वहाँ गौतम स्वामी ने भगवान से पूछा-भगवन् ! उपधि (जीवन निर्वाह में उपयोगी साधन) कितने प्रकार की हैं ? भगवान ने कहा-गौतम ! उपधि तीन प्रकार की है। कर्मरूप उपधि. शरीर रूप उपधि तथा वस्त्र पात्र आदि सामग्री रूप उपधि । नैरयिक एवं ऐकेन्द्रिय जीवों को प्रथम दो प्रकार की उपधि होती है, बाकी सभी जीवों की तीन प्रकार की उपधि होती है ।५२ ५१. ५२. भगवती १४।३ भगवती १८१७ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ इन्द्रभूति गौतम राजगृह क्या है ? गौतम ने पूछा-भगवन् ! क्या राजगृह नगर पृथ्वी कहा जाय, जल कहा जाय, कूट कहा जाय, शैल कहा जाय अथवा अचित्त और मिश्र द्रव्य कहा जाय ? भगवान-गौतम ! इन सब का समुदाय संघात ही राजगृह है । ५३ लवरण समुद्र का पानी भगबान से गौतम ने पूछा-भगवन् ! लवण समुद्र का पानी उछाले मारता हुआ है, या अक्षुब्ध है? भगवान ने कहा-गौतम ! लवण समुद्र उछाल मारते हुए पानी वाला है ।५४ मेघ स्त्री या पुरुष ? गौतम ने पूछा-"भगवन् ! मेघ आत्म ऋद्धि से गति कर ता है या पर ऋद्धि से ? भगवान—“गौतम ! मेघ परऋद्धि (वायु अथवा देव द्वारा प्रेरित होकर) गति करता है । वह पर-कर्म, पर-प्रयोग से गतिशील है। गौतम-भगवन् ! मेघ क्या स्त्री है, पुरुष है, हाथी, है घोड़ा है, वह क्या है ? भगवान-गौतम ! वह न स्त्री है, न पुरुष है, न हाथी है, न घोड़ा है, वह मेघ है।५५ घोड़े का शब्द गौतम स्वामी ने पूछा-भगवन् ! जब घोड़ा दौड़ता है तब वह 'खु-खु' शब्द क्यों करता है ? ५३. भगवती ५९ ५४. भगवती ६८ ५५. भगवती ३।४ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसंवाद १३९ भगवान गौतम ! जब घोड़ा दौड़ता है तब उसके हृदय एवं यकृत् के बीच में 'कर्कट' नामक वायु उत्पन्न होता है, उस वायु के कारण 'खु-खु' शब्द उठता है ।५६ जम्भक देव गौतम स्वामी ने पूछा-भगवन् ! जृम्भक देव, जृम्भक (स्वच्छंदचारी) क्यों कहलाते हैं ? भगवान-गौतम ! उनका स्वभाव हमेशा प्रमोदयुक्त होता है, वे अत्यंत क्रीड़ाशील, आनंदी, कंदर्प-रतिप्रिय, एवं तीव्र काम स्वभाव वाले होने के कारण वे जृम्भक (स्वच्छंदचारी) कहलाते हैं ।५७ तीर्थ और तीर्थंकर गौतम स्वामी ने पूछा-भगवन् ! तीर्थ को तीर्थ कहा जाता है या तीर्थंकर को तीर्थ ? भगवान-गौतम ! अर्हत् तो अवश्य ही तीर्थंकर हैं, परन्तु चार प्रकार का श्रमण प्रधान संघ–साधु, साध्वी, श्रावक श्राविका रूप यह तीर्थ है ।५८ दर्शन कितने ? गौतम स्वामी-भगवन् ! समवसरण (दर्शन-मत) कितने हैं ? भगवान गौतम ! समवसरण (मत-दर्शन) चार हैं-क्रियावादी, अक्रियावादी अज्ञानवादी और विनयवादी ।५९ ५६. भगवती १०३ ५७. भगवती १४८ ५८. भगवती २०१९ ५९. विशेष विवरण के लिए देखें-सूत्र कृतांग १।१२। आचारांग १११। भगवती ३०१ आदि। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ● प्रयुक्त ग्रन्थ सूची • गणधरों का लेखा • गौतम रास • महावीर स्वामी का चौढालिया Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'इन्द्रभूति गौतम' में प्रयुक्त ग्रन्थ सूची अन्तगडसूत्र उपासकदशांग सूत्र अविस्मृति ऋग्वेद अर्धमागधी कोष (पं० रत्नचन्द्र जी म०) ओघनियुक्ति अनुयोगद्वार सूत्र --(भाष्य) अनुत्तरोपपातिक सूत्र औपपातिक सूत्र अभिधान चिन्तामणि कोश कठ उपनिषद् अभिधानराजेन्द्र कोश कल्पसूत्र आचारांग सूत्र कल्पलता आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन , कल्पार्थ प्रबोधिनी (मुनि नगराज जी डी० लिट् ०) , सुबोधिका टीका आगम युग का जैन दर्शन कर्मग्रन्थ (श्री दलसुख मालवणिया) कषाय पाहुड (टीका) आप्टे संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरी कौषितकी उपनिषद् आत्मसिद्धि शास्त्र (श्रीमद् राजचन्द्र) गणधरवाद आवश्यक चूणि गौतमधर्म सूत्र आवश्यक नियुक्ति ज्ञाता धर्म कथा सूत्र आवश्यक सूत्र (हारिभद्रीय) चार्वाक दर्शन (षड्दर्शन) उत्तराध्ययन सूत्र छांदोग्य उपनिषद् उत्तराध्ययन नियुक्ति जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज ___ (मुनि नथमल जी) (डा० जगदीशचन्द्र) उत्तरपुराण (गुणभद्र) डिक्शनरी आव फालि प्रोपर नेम्स उपदेशपद टीका त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरितम् Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ तीर्थंकर महावीर तैत्तिरीय संहिता तैत्तिरीय ब्राह्मण दर्शन का प्रयोजन (डा० भगवान दास ) दर्शन रत्न रत्नाकर दशकालिक सूत्र " - (विजयेन्द्रसूरि ) - नियुक्ति दीघ निकाय नन्दी सूत्र नियमसार निरआवलिया सूत्र निरुक्त निशीथचूर्णि Nature of conscioues Hindu Philosophy. न्याममंजरी न्यायवार्तिक न्यायसूत्र पंचास्तिकाय प्रज्ञापना सूत्र प्रवचनसारोद्धार बुद्ध चरित ब्रह्मबिन्दु उपनिषद् ब्रह्मजाल सत्त ब्रह्मसूत्र (शांकर भाष्य ) बृहद्कल्पसूत्र बृहदारण्यक उपनिषद् बृहदारण्यक (भाष्य वार्तिक) बृहदारण्यक उपनिषद् (शांकर भाष्य ) इन्द्रभूति गौतम भगवती सूत्र (पं० बेचरदास जी ) भगवती सार (गोपालदास पटेल ) भगवान पार्श्व : एक समीक्षात्मक अध्ययन ( देवेन्द्र मुनि शास्त्री ) भारतवर्ष का सामाजिक इतिहास - डा० वी० सी० पाण्डे भारतवर्षीय प्राचीन चरित्र कोश मज्झिमनिकाय मनुस्मृति महाप्रत्याख्यान महाभारत महावीर चरियं - गुणचन्द्र - नेमिचन्द्र 33 माण्डुक्य उपनिषद् ness in मीमांसा सूत्र मुण्डक उपनिषद् (शांकर भाष्य ) मंत्रायणी उपनिषद् मैत्र्युपनिषद् यजुर्वेद रायपसेणी सूत्र वाशिष्टधर्मसूत्र विनयपिटक विपाक सूत्र विष्णु पुराण विशेषावश्यक भाष्य वैदिक कोश वैशेषिकसूत्र ( सूर्यकान्त ) शतपथ ब्राह्मण पट्खंडागम (धवला ) Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसंवाद सन्मतितर्क (सिद्धसेन ) समयसार समवायांगसूत्र संयुक्त निकाय स्थानांग सूत्र सांख्य कारिका सुत्तनिपात सूर्य प्रज्ञप्ति सूत्र सूत्रकृतांग सूत्र स्मृति चन्द्रिका सौभाग्यपंचम्यादि पर्वकथा संग्रह श्वेताश्वतरोपनिषद् १४५ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गौतम रास दोहा गुण गाऊं गौतम तणा, लब्धितणां भण्डार । बड़ा शिष्य भगवन्तना, जाने सहु संसार । प्रति बुभया प्रभु जी कने, गणधर गौतम स्वाम । संजम पाली सिद्ध हुआ, लीजे नितप्रति नाम ।। ढाल तीरथनाथ त्रिभुवन धणी, प्रभु शासणना सिरदार । भक्ति कियां भगवन्त नी, जाके वांछित फल दातार । सुम- होय सकल सुखकार जी, नित बरते जय जयकार जी । प्रभु पहुंच्या मुक्ति मंझार जी, प्रभु थाप्या तीरथ-चार जी । चारों संघ मांहि सिरदार जी, गौतम नाम बड़ा गणधार जी। जाने होज्यो म्हारो नमस्कार जी, हिवडा बीच बार हजार जी। श्री गौतम स्वामी में गुण घणा....... Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गौतम रास सोलमा सोना सारखा जी, अति सुन्दर वर्ण शरीर । कंचन कसौटी चढ़ावियो, भगवती में कह्यो महावीर जी । जाने दीठा हर्षित हीर जी, स्वामी सायर जिम गम्भीर जी । बली खम दम संजम धीर जी, जांरी वाणी मीठी खांड खीर जी । मीठी क्षीर समुद्र ज्यू नीर जो, छह काय जीवांरां पीर जी । हुआ वीर तणां बजीर जी, श्री गौतम स्वामी में गुण घणा गौरा ने घणा फुटरा जी, कोमल देही जारी कंचन दिपु दिपु करे, देवता पिण कितरिक बात जी । रोग रहित काया सात हाथ जी, घणा रह्या गुरां जी रे साथ जी। सेवा कीधी दिन ने रात जी, पूछा कीधी जोडी दोनों हाथ जी । जां कहूँ कठाला बात जी, जांरे वीर दियो माथे हाथ जी । हुआ तीन भुवनरा नाथ जी, श्री गौतम स्वामी में गुण घणा" गात 1 प्रथम संघयण संठाण सु जी, गुण गहिरा भरपूर 1 में बस रह्या, बलि तपस्या घोर करूर जी । ब्रह्मचर्य १४७ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ इन्द्रभूति गौतम (परिशिष्ट) कायर कांपी जावे दूर जी, दीपे तपस्या में अतिशूर जी । आगे कर्म किया चकचूर जी, जांरो चोखो घणो छं नूर जी । जारो भजन किया दुःख दूर जी, म्हारी बन्दना उगते सूर जी । श्री गौतम स्वामी में गुण घणा" अभिग्रह कीधो आकरो जी, सूत्र भगवती रे मांय जी । चार ज्ञान चवदे पूर्व धणी, बलि तेजु लेश्या पिण्ड मांय जी । दपटी राखी छे मन मांय जी, दीनों ध्यानसु चित्त लगाय जी । उकडू बैठा शीस नमाय जी, जांरी करणी में कमीय न कांय जी । जारो भजन कियां सुख पाय जी, श्री गौतम स्वामी में गुण घणा......... पूछा जद कीधी घणी जी, आणी मन आनन्द जी । श्रद्धा में संशय नहीं उपनो, उपनो केवल उछरंग जी । वांदे श्री वीर जिनन्द जी, जाने पूछिया देश प्रदेशनास्कन्ध जो । अनन्त ज्ञानी त्रिशलाना नन्द जी, सूत्र मेल दिया संधो-संध जी । सेवे सुर नर वृन्द जी, तारा बीच बिराजे चन्द जी । श्री गौतम स्वामी में गुण घणा" Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भगवती में पूछिया जी, प्रश्न छत्तीस हजार । अंग उपांग में पूछिया जी, पूछा कीधी पहले पार जी। तीरथनाथ किया निस्तार जी। गौतम लिया हिरदा में धार जी। जारी बुद्धि रो नहीं छ पार जी, स्वामी ज्ञान तणां भण्डार जी। घणां जीवां पं कियो उपकार जी, उण पुरुषांरी जाऊं बलिहार जी। श्री गौतम स्वामी में गुण घणा...... एक दिन गौतम मन चितवे जी, मने क्यों न उपजे केवलज्ञान । खेद पाम्या प्रभु देखने, बुलाया श्रीवर्धमान जी । मन वांछित देवे दान जी, गौतम सन्मुख उभा आन जी। वीर दियो आदर सन्मान जी, गौतम गुण-रत्नां री खान जी। चित्त निर्मल राखो ध्यान जी, तजो मोह मत्सर अभिमान जी। छह काया ने दो अभय-दान जी, श्री गौतम स्वामी में गुण घणा..... थारे ने म्हारे गोयमा रे, घणा कालनी प्रीत । आगे ही आपां भेला रह्या, बलि लोहड़ बड़ाई नी रीत जी। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० इन्द्रभूति गौतम (परिशिष्ट) मोह कर्म. ने लीजो. थे जीत जी, : केवल आड़ी आई छै भींत जी । थे तो शिष्य बड़ा सुविनीत जी, थे तो राख जो रूड़ी रीत जी । थे तो पालजो पूरी प्रीत जी, राखी मोक्ष जावण रो चित्त जी । श्री गौतम स्वामी में गुण घणा अब के अणी भव आंतरे, आपां दोनू बराबर होय । अजर अमर सुख सासता, जठे जन्म मरण नहीं होय जी । भूख तृषो न लागे कोय जी, गुरु मोटा मिलिया मोय जी । म्हारे कमी रही नहीं कोय जी, वीर ने सामा रह्या छँ जोय जी । दीठा हर्षित हिवड़ो होय जी, मोहनी कर्म ने दीधो खोय जो । श्री गौतम स्वामी में गुणघणा:" जंग वीर वचन प्रभु सांभली जी, कीधो कर्मा सु करणी कोधी "निर्मली, शिष्य वीर तणां सुविनीत जी । हुआ ब्राह्मण केरा पूत जी; छोड़ी नातीला सु प्रीत जी । जारे वीर वचन आया चित्त जी, तज दीनी खोटी रीत जी । जांरे आई - सांची प्रीत जी, जोड़ी जुगत मुक्ति सु प्रीतः जी । 1 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गौतम रास.. तपसी मोटा काकड़ा भूत जी, प्रभु गया जमारो जीत जी। धर्म ध्यानी जीवांरा मीत जी, श्री गौतम स्वामी में गुण घणा......." ज्ञान, दर्शन, चारित्र भषी जी, पाले निरः अतिचार । बेले .बेले । पारणा प्रभु, जीत्या रागः ने रीस जी। जारी करणीः बिसवाबीस जी, जारो भजन कियो निशदिस जी। पूरो मननी सकल जगीस जी, जाने नमाऊँ म्हारो, शीस जी। श्री गौतम स्वामी में गुण पणा"..... स्व-मुख वीर वखाणिया जी, 'गौतम ने तिण बार । चर्चावादी .. तू... अतिघणो, हेतु युक्ति अनेक प्रकार जी । पाखण्डिया रो जीतण हार जी, - बीजा , साधु सहू थारी लार जी। सांभली हिवड़ो हर्ष अपार जी, . तीरथनाथ निकाल दियो तार जी। श्री गौतम स्वामी में मुण घणा"...." संसार समुद्र जाणने जी, मोह कर्म । कियो छार । अनित्य । भावना भायने, पायो केवल दर्शन सार जी। गौतम स्वामी बड़ा गणधार जी, आप तिर्या घणा दिया तार जी। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रभूति गौतम (परिशिष्ट) जाने बन्दना बारम्बार जी, जारो नाम लिया निस्तार जी। जपतां होवे खेवो पार जी, श्री गौतम स्वामी में गुण घणा........ कार्तिक वदी अमावस्या जी, ____ मुक्ति गया वर्धमान । गौतम स्वामी ने अनो सब, निर्मल केवलज्ञान जी। धर्म दीपायो नबर पुर ठाम जी, सिद्ध कीधा आतमकाम जी । पाया खुख अक्षय अभिसम जी, . स्वामी पहुंचा शिवपुर ठाम जी। बारम्बार करूं मुणग्राम जी, धन-धन श्री गौतम स्वाम जी । श्री गौतम स्वामी में गुण घणा"...... पूज्य जयमल जी परसाद से जी, कीधो ज्ञान अभ्यास । संवत अठारे चौतीस में नवमी सुदि भादवा मास जी । गौतम जी ने कीधो रास जी, सुणज्यो सहु चित्त उल्लास जी। पावो निल भव लील विलास जी, शहर बीकानेर चौमास जी । ऋषि रायचन्द्र कियो परकास जी, श्री गौतम स्वामी में गुण घण...... Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर स्वामी का बौढालिया ढाल-१ सिद्धारथ कुलमा जी उपन्या, त्रिशला दे थारी मात जी। वर्षीदान ज देई करी, संयम सीमो.जगन्नाथ जी॥ थे मन मोह्यो महावीर जी... थें मन मोह्यो महावीर जी, थारी कंचन वर्णीकाय जी । नयन न धापे जी निरखता, दीठा आवो छोदाय जी ॥३०॥ आप अकेला संपम आदर्यो, ऊपन्यो चौथे ज्ञान जी। उत्कृष्ट्यो तप थें आदर्यो, धरतां निर्मल ध्यान जी ॥३०।। उग्रविहार में आदर्यो, कई वासा रह्या वनवास जी।। कई वासा वस्ती में रह्या, रह्या एकण ठामे चौमास जी ॥३०॥ प्रभु पहलो चौमासो थे कियो, अस्थिगाँव मझार जी। दूजो वाणीज गाँव में, पंच चंपा सुखकार जी ॥थे। पांच पृष्ठचम्पा किया, विशाला नगरी में तीन जी। राजगृही में चवदे किया, नालन्देपाडे लवलीन जी ॥थे।। छ चौमासा मिथिला किया, भद्रिका नगरी मां दोय जी । एक कर्यो रे आलम्भिया, सावत्थि नगरी एक होय जी ॥०।। एक अनारज देश में, अपापा नगरी एक जाण जी। एक कर्यो पावापुरी, जठे प्रभु पहोंच्या निर्वाण जी ॥०॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रभूति गौतम (परिशिष्ट) हस्तीपाल राजा इम विनवे, हुँ तुम चरणां रो दास जो । एक शाला म्हारे सूझती, आप करो चौमास जी ॥३०।। चालीस चौमासा शहर में, दाख्या दश नगरी ना नाम जी ।। एक अनारज देश में, एक चौमासो वलीगाम जी ॥३०॥ प्रभु गाम नगर पुर विचरिया, भव्य जीवां रे भाग जी। मार्ग बतायो मोक्ष को, कियो उपकार अथाग जी ॥थे०॥ साढ़ा बारह बरसाँ लगे, ऊपर आधो मास जी। छद्मस्थ रह्या प्रभु एटला, पछे केवल ज्ञान प्रकाश जी ॥०॥ वर्ष बयाँलीस पालियो, संयम साहस धीर जी ।। तीस वर्ष घर माँ रह्या, मोक्षदायक महावीर जी ॥०॥ पावापुरी में पधारिया, नरनारी हुआ हुल्लास जी। . 'ऋषिरायचन्द' इम विनवे, हूँ आयो प्रभुजी ने पास जी ॥३०॥ संवत् अठारे गुण चालीस में, नागौर शहर चौमास जी । पूज्य जैमल जी के प्रसाद थी, मैं ए करी अरदास जी ॥थें। ढाल-२ राग-काची कलियां शासननायक वीर जिनन्द, तीरथनाथ जाणे पुनमचन्द । चरणे लागे ज्याँरे चौंसठ इन्द्र, सेवा करे ज्यारी सुरनर बृन्द ।। थें अब को चौमासो स्वामी जी अठे करो ज़ी, अठे करो ३ जी । चरम चौमासो स्वामी जी अठे करोजी ........ हस्तिपाल राजा विनवे कर जोड़, पूरो प्रभुजी म्हारा मनडारी कोड़ । शीश नमाय ऊभो जोड़ी जी हाथ, करुणासागर वाजो कृपा जी नाथ ॥थे०।। रायनी राणी विनव . राजलोक, पुण्य जोगे मिल्यो सेवानो संजोग । मन वांछित सहु मिलिया जी काज, में दयाकरी सामु जोवो जिनराज ॥३०॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर स्वामी का चौढालिया श्रावक श्राविका कई नरनार, मिली विनती करे बारम्बार पावापुरी में पधार्या वीतराग प्रगटी पुण्याई म्हारा मोटा जो भाग ॥०।। वली हस्तिपाल राजा विनवे भूपाल, थें छो प्रभुजी म्हारे दीन दयाल । सूझती म्हारे छे मोटी जी शाल लाग रह्यो प्रभु वर्षा जी काल थे। मानी विनती प्रभु रह्याजी चौमास, पावापुरी मां हूवो हर्ष उल्लास । गौतम गणधर गुरांजी रे पास निशदिन ज्ञान रो करे जी अभ्यास ॥०।। साधु अनेक रह्या कर जोड़, सेवा करे सदा होड़ा जी होड़ । चवदे हजार चेला रत्नांरी माल, दीक्षा लीधी छोड़ी माया जंजाल थे। बड़ी चेली चन्दनबाला जी जाण, हुई कुवारी महासती चतुर सुजाण । मोत्याँ नी माला छत्तीस हजार, सगली में बड़ी साध्वी सरदार ॥थें।। चारों ही संघ नित्य सेवा - करे, ... प्रभु जी ने देखी देखी आँख्या ठरे । नवमल्ली ने नवलच्छी :जी राय, ज्यारे दर्शनरी छे चित्त में चाय ॥थे। लाख बत्तीस विमान को राय, आया पावापुरी में प्रभु कने चलाय । दो सहस्र वर्षांरो पडसी भस्मी जी काल, एक पल आउखो आपो दोज़ो जी टाल ॥३०।। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ ढाल वलता भाखे श्री वीर जिनन्द, इण बातां रो नहीं मिले जी सम्बन्ध । हुई नहीं होवे नहीं होसी नहीं बात, आऊखो नी बधे एक समय तिलमात || थें० ॥ संघ सघला रे हुई रंग री रली, पुण्य योगे प्रभुजी री सेवा भली । 'ऋषि रायचन्द' विनवे जोड़ी हाथ, थे करुणा सागर वाजो कृपाजी नाथ ॥ थे० ॥ नागौर शहर में कियो जी चौमास, दिज्यो प्रभुजी म्हांने मुक्ति नो वास । हूँ सेबक तुम साहिब इन्द्रभूति गौतम (परिशिष्ट) स्वाम, अवर देवांसु म्हारे नहीं कोई काम || || धणी । शासन नायक श्री महावीर, तीरथनाथ त्रिभुवन पावापुरी में कियो चरम चौमास, हुई मोक्षदायक री महिमा घणी ॥ गौतम ने मेल दियो महावीर, देवशर्मा प्रतिबोधवा ||टेर || उत्तराध्ययन रा अध्ययन छत्तीस, कार्तिक वदी अमावस्ये कहाँ । एक सौ ने वली दश अध्ययन, सूत्र विपाक तणा लह्या ॥ गौ० ॥ पोसा कीधा श्रीवीर जी रे पास, देश अठारानां राजीया । नव मल्ली ने नवलच्छी जी राम, वीर ना भगता जी बाजीया ॥ गौ० ॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर स्वामी का चौढालिया प्रभु शासन ना सिरदार, सर्व संघ ने सन्तोष में । सोले प्रहर लग देशना दीध, पछे वीर विराज्या मोक्ष में ॥गौ०॥ तीन वर्ष ने साढ़ा आठ मास, चौथा आरा नां बाकी रह्या । दिन दोय तणो संथार, मौन रही मुगते गया ॥गौ०॥ इन्द्र आव्या जी चित्त उदास, देव देवी ना साथ में । जाणे जगमग लग रही ज्योत, अमावस्या नी रात में गौ०॥ मुगति पहोंच्या एकाएक, सात से हुआ ज्यारे केवली । चवदह सौ साध्वियाँ हुई सिद्ध, हूँ सहुँ ने वंदू मन रली ॥गौ०॥ रह्या तीस वर्ष घर मांय, वर्ष बैयालीस संयम पालियो। प्रभु जगतारणा जगदीश, दयामार्ग उजवालियो ।गौ०॥ होजी देव, देवी ने वली इन्द्र, निर्वाण तणो महोत्सव कियो। अरिहंत नो पडियो वियोग, सुर नर नो भरियो हियो ।गो।। साधु साध्वी करता शोक, श्रावक श्राविका पण घणा । भरत क्षेत्र मां पडियो वियोग, आज पछी अरिहंत तणो ।गौ०॥ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८. ढाल-४ पंछी बैठा सुधर्मा स्वामी पाट, चारों ही संघ चरण सेवता । ज्यांरी पालता अखण्डित आण, सेवा करे देवी ने देवता ॥ गौ० ॥ मुगते पहोंच्या श्री महावीर, प्रभु सुख पाम्या छे शाश्वता । 'ऋषिरायचन्द ' कहे एम, म्हारे अरिहंत वचन की आसता ॥ गौ० ॥ जी थें म गोडे न राख्यो, मुगति जावण रो नाम न दाख्यो || टेर || श्री महावीर पहोंच्या निर्वाणी | गौतम स्वामी ए बात ज जाणी ॥गु०॥ आप तो मुझ सू अन्तर पिण मैं म्हारा मन रो हूँ सगला पहेला हुवो थारो चेलो । इण अवसर आघो किम मेल्यो || गु० ॥ प्रभु तुम चरणें म्हांरो चित्त लागो । आप पहुँता निर्वाण मने मेल दियो आगो ||गु०॥ मने आपरा दर्शन लागता प्यारो । आप पहोंच्या निर्वाण मने मेल दियो न्यारो ॥गु ॥ इन्द्रभूति गौतम (परिशिष्ट) राग - चढो चढो लाड़ा वार म लावो राख्यो । दर्द न दाख्यो || गु०॥ पल्लो । कियो तुम भल्लो || गु० ॥ देतो । नहीं लेतो ॥ गु० ॥ काँई । में हूँ आड़ो माँडी नहीं झालतो पण शाबास काम हूँ तुमने अन्तराय न मुगती में जागा व्हेंची हूँ संकड़ाई न करतो आप साथै हूँ मोक्ष आई ॥०॥ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर स्वामी का चौढालिया अब हूँ पूछा करसु किण . आगे। प्रभु म्हारो मन एक थाँसु ही लागे ।गु०।। म्हारो साँसो कहो. कुण टाले । आप बिना पाखण्डी ना मद कुण गाले ।गु०।। हुँता चौदे पूरब ने चौनाणी। पिण मोहनीय कर्म लपेट्यो आणी ॥गु०॥ ऐसो गौतम स्वामी कियो विलापात । ए मोहनी कर्म नी अचरज बात ॥गु०॥ हवे मोहनीय कर्म दूरे टाली। गौतम स्वामी ए सुरती संभाली ॥गु०।। राग-वीतराग राग द्वष ने जीत्या ।।टेर।। वीतराग राग द्वष ने । जीत्या । म्हारों चित्त माँ आई गई चिन्ता ।।वी०॥ तिण वेला निर्मल ध्यान ज ध्यायो। केवल ज्ञान गौतम स्वामी पायो॥वी०॥ बारावर्ष रह्या केवलज्ञानी। बात ज्याँसु कोई नहीं रही छानी ।।वी।। गौतम पण कियो मुक्ति में वासो। संसार नो सर्व देखे तमासो ॥वी०।। जणी राते मुक्ति गया वर्तमान । इन्द्रभूति ने उपन्यो केवलज्ञान ।।वी।। तिण दिन थी ए बाजी दिवाली । म्होटो दिन ए मंगल माली ॥वी०॥ रात दिवाली नो शियल थे पालो । वली रात्रि भोजन नो कर दो टालो ॥वी०॥ 'ऋषि रायचन्द' कहे सुणो हो सुज्ञानी। दया रूप दिवाली थे लेज्यो मानी ॥वी०॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६.. इन्द्रभूति गौतम (परिशिष्ट) कलशश्री शासन नायक, मुक्ति दायक, दया मार्ग उजवालियो। श्री गौतम स्वामी, मुक्तिगामी, ___कियो चित्तवल्लभ चोढालियो॥ संवत् अठारे, गुण चालीसे नागौर चौमासो निर्मल मने । पूज्य जेमल जी प्रसादे, पूर्ण कियो दिवाली रे दिने । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational