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'साहित्य समाज का दर्पण है'-यह उक्ति पुरानी होते हुए भी सर्वथा सार्थक है । जिस राष्ट्र, समाज एवं परम्परा के पास अपना साहित्य नहीं है, वह अन्य दृष्टियों से भले ही समृद्ध हो, किंतु विचार एवं इतिहास की दृष्टि से तो दरिद्र प्रायः कहे जा सकते हैं। विचार एवं चिन्तन का अक्षय कोष ही सच्ची समृद्धि है और वही साहित्य के रूप में समाज व परम्परा की प्राणप्रतिष्ठा करता है।
सौभाग्य से श्रमण परम्परा को आज साहित्य के रूप में विचार-चिन्तन का अक्षय कोष से प्राप्त है। इतिहास व साहित्य की दृष्टि से उसको समृद्धि एक गौरवास्पद विषय है । श्रमणसंस्कृति के चिन्तन का सबसे प्राचीन एवं मौलिक संग्रह 'आगम' के नाम से विश्रुत है । 'आगम साहित्य' ही श्रमण विचारधारा का प्राण कहा जा सकता है, और उस संस्कृति के संपूर्ण वाङमय का आदिस्रोत भी। 'आगम' के अर्थोपदेष्टा तीर्थंकर होते हैं, किंतु उसकी शब्द संयोजना में गणवरों की प्रखर प्रतिभा और अक्षय-श्रु त संपदा का चमत्कार भरा रहता है । इसलिए आगम का मूलाधार तीर्थकर होते हुए भी 'गणधर' के बिना उसकी आपूर्ति संभव नहीं है। इस दृष्टि से हमारे समस्त वाङमय के प्राण-प्रतिष्ठापक गणधर ही कहे जा सकते हैं। गणधरों की इस सूची में इन्द्रभूति गौतम का नाम शीर्षस्थ है । आगम साहित्य का अधिकांश भाग आज इन्द्रभूति गौतम की जिज्ञासा और भगवान महावीर के समाधान के रूप में ही है। यदि आगम वाङमय में से महावीर-गौतम के संवाद निकाल दिए जाय, तो पता नहीं फिर आगम में क्या बच पायेगा ? गौतम महावीर के संवाद जैन वाङमय का प्राण कहा जा सकता है। आगमों में गौतम एक व्यक्ति रूप में नहीं, किंतु एक प्रखर जिज्ञासा के रूप में खड़े हैं, और महावीर एक समाधान बनकर उपस्थित होते हैं।
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