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भारतीय चिन्तन की पृष्ठभूमि
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विविध मत
सूत्र कृतांग में आत्मा के सम्बन्ध में विविध विचारधाराओं का दिग्दर्शन कराया गया है । कुछ दार्शनिक इस जगत के मूल में पाँच महाभूतों की सत्ता मानते थे। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश के संमिलन से ही आत्मा नामक तत्व की निष्पत्ति होती है ।' पालि ग्रन्थों में भी इसी प्रकार के दार्शनिकों का उल्लेख है जो चार तत्वों से आत्मा की चेतना की उत्पत्ति मानते थे। आचारांग सूत्र में आत्मा के लिए भूत, प्राण, सत्व' आदि शब्दों का प्रयोग भी आत्म सम्बन्धी इस विचारणा की एक अस्पष्ट उत्क्रांति की सूचना देते हैं। ऋग्वेद में एक ऋषि की पुकार है—जो आत्मा के सम्बन्ध में विचार करते-करते विचारों की भूलभूलैया में खो जाता है और फिर पुकार उठता है-"मैं कौन हूँ, यह भी मुझे मालूम नहीं।'६ कहीं सत् को, कहीं असत् को इस जगत का मूल माना गया, और फिर संशय हुआ तो चिंतक कह उठा---'वह न असत् था न सत्' वह क्या है यह कहना कठिन है । दार्शनिक चिन्तन की इस उलझन में कभी पुरुष को, कभी प्रकृति को, कभी आत्मा को, कभी प्राण को, कभी मन को आत्मा के रूप में देखा गया फिर भी चिंतन को समाधान नहीं मिला और वह निरंतर आत्म-विचारणा में आगे से आगे बढ़ता रहा।
देह-आत्मवाद
अपने भीतर जो विज्ञान एवं चेतनामय स्फूति का अनुभव होता है, वह क्या है ? यह अनुभूति यह संवेदन जो समस्त देह में व्याप्त है और अन्य जड़ पदार्थों
२. सूत्रकृतांग १-१-१-७ से ८ ३. संति पंच महन्भूया इहमगेसिमाहिया । पुढवी आउ तेऊ वा वाउ आगास पंचमा ।
-सूत्र १-१-१-७ ४. ब्रह्म जालसुत्त ५. (क) आचारांग १।१।२।१५ (ख) भगवती १।१० ६. न वा जानामि यदिव इदमस्मि ।-ऋग्वेद १. १६४.३७ ७. ऋग्वेद १०।१२९
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