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इन्द्रभूति गौतम से अपने को भिन्न अनुभव कराती है वह आखिर क्या है ? यह प्रश्न अनादि काल से बुद्धि को झकझोरता रहा है ।
___छांदोग्य उपनिषद में एक कहानी आती है कि "एक बार असुरों का स्वामी वैरोचन और सुरों (देवों) का स्वामी इन्द्र, प्रजापति के पास आत्मज्ञान लेने को गये । प्रजापति ने उन्हें पानी के एक कुड में अपना प्रतिबिम्ब दिखला कर कहा'इस जल में क्या दीख रहा है ?' उत्तर में उन्होंने कहा--'इस जल कुड में हमारा नख-शिख प्रतिबिम्ब दिखाई दे रहा है ।' प्रजापति ने कहा-“जिसे तुम देख रहे हो वही आत्मा है ।" इस उत्तर से वैरोचन ने यह जाना 'देह' यही आत्मा है और असुरों में इस 'देहात्मवाद' का उसने प्रचार किया। इन्द्र को इस उत्तर से सन्तोष नहीं हुआ। तैत्तिरीय उपनिषद में भी इसी प्रकार का एक विचार मिलता है, अन्न से पुरुष उत्पन्न होता है, अन्न से ही उसकी वृद्धि होती है और अन्न में ही वह लय हो जाता है, अतः पुरुष अन्नरस मय ही है-पुरुषोऽन्न रसमयः ।
उपरोक्त विचार को ही जैन एवं बौद्ध ग्रन्थों में-'तज्जीव तच्छरीरवाद' कहा गया है ।१० द्वितीय गणधर अग्निभूति को इसी विषय में संदेह था । बौद्ध ग्रन्थ पायासी सुत्त एवं जैनआगम रायपसेणीसूत्र में जिस नास्तिक राजा पायासी, पएसी का उल्लेख आता है वह इसी 'तज्जीव तच्छरीरवाद' देहात्मवाद का प्रबल समर्थक था । उसने अनेक तर्क एवं परीक्षाओं के आधार पर देह एवं आत्मा का ऐक्य सिद्ध करने का प्रयत्न किया था। प्रदेशी का दोदा भी इस विचार धारा का कट्टर समर्थक था, ऐसा रायपसेणी सुत्त से विदित होता है । और इसी विचार का मूल तैत्तिरीय उपनिषद् एवं ऐतरेय आरण्यक में भी प्राप्त होता है ।
इन्द्रियात्मवाद
देह को, भूत को ही आत्मा मानने से जिन चिंतकों को संतोष नहीं हुआ, उनका चिंतन आगे बढ़ा, और जब शारीरिक क्रियाओं का निरीक्षण करने लगे तो प्राण
८. छांदोग्य उपनिषद् ८।८ ९. तैत्तिरी० २।१।२० १०. सूत्रकृतांग १।१।१।११, ब्रह्मजाल सुत्त । ११. रायपसेणी सुत्त ६१–'मम अज्जए होत्था अधम्मिए'
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