________________
भारतीय चिन्तन की पृष्ठभूमि
शक्ति पर उनका चिंतन टिका होगा, और प्राण को वे आत्मा मानने लगे होंगे, इसलिए उन्होंने जीवन की समस्त क्रियाओं का आधार प्राण को ही बताया ।१२ छांदोग्य उपनिषद् में कहा है- "विश्व में जो कुछ भूत समुदाय है, वह प्राण पर ही टिका हुआ है । बृहदारण्यक के एक वचन से यह भी स्पष्ट होता है कि-'मृत्यु इन्द्रिय शक्ति को नष्ट कर देता है, इसलिए सब इन्द्रियाँ मिलकर 'प्राण' रूप में प्रतिष्ठित हो गई ।' प्राणरूपमेव आत्मत्वेन प्रतिपन्ना :-१ अतः प्राण इन्द्रिय का सामष्टिक रूप माना गया और प्राण या इन्द्रिय को ही जीवन एवं जगत का आधार मानकर एक प्रकार का समाधान प्राप्त करने का प्रयत्न किया गया । जैन आगमों में भी इस बात का संकेत मिलता है कि इन्द्रियों को प्राण मानने की प्राचीन मान्यता चल रही थी और संभवतः उसी आधार पर दश प्राणों में इन्द्रियों को 'प्राण' संज्ञा से अभिहित किया गया।
मनोमय-प्रात्मा
आत्मा को भौतिक रूप में देखने वाले विचारक इस प्रकार विभिन्न दृष्टियों से एक चिंतन धुरी पर घूम रहे थे । कुछ आत्मा को देह रूप में मानते थे, कुछ इन्द्रिय एवं प्राण रूप में । किन्तु यह प्रश्न फिर भी अटका हुआ था कि यदि आत्मा इन्द्रिय रूप ही है, तो वह मन के सम्पर्क के विना ज्ञान क्यों नहीं कर सकती ? और इन्द्रियव्यापार के अभाव में भी चितन की प्रक्रिया को चालू रखने वाली कौनसी शक्ति है ? इसो प्रश्न ने दृष्टि को आगे बढ़ाया, देह एवं इन्द्रियों से परे-मन का अस्तित्व उभरा और दार्शनिकों ने उसे 'आत्मा' की संज्ञा दी। तैत्तिरीय उपनिषद् में कहा गया है--प्राणरूप आत्मा अन्नमय आत्मा का अन्तरात्मा है, और मनोमय आत्मा प्राणमय आत्मा का अन्तरात्मा है ।१६ यह बात दूसरी है कि बाद में मन के भौतिक
१२. प्राणो हि भूतानामायु:-तैत्तिरीय उपनिषद् २।२।३ १३. प्राणो वा इदं सर्व भूतं यदिदं-छांदोग्य० ३।१५।४ १४. बृहदा० (शांकर भाष्य) १।५।२१ पृ० ३७० १५. (क) भगवती सूत्र ५११ (ख) ज्ञाताधर्म कथा २ १६. प्राणमयादन्योऽन्तरआत्मा मनोमयः । तैत्तिरीय २।३।१
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org