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इन्द्रभूति गौतम
एवं अभौतिक स्वरूप के सम्बन्ध में न्याय-वैशेषिक आदि दार्शनिकों में काफी गहरा मतभेद खड़ा हो गया, " किन्तु उसके सूक्ष्म एवं सूक्ष्मतर रूप के कारण अधिकांश चितक उसे ही आत्मा मानते रहे हैं और इस संबंध में काफी पैने तर्क उपस्थित किये जाते रहे हैं । न्यायसूत्रकार ने एक तर्क दिया है कि 'जिन हेतुओं के द्वारा आत्मा को देह से भिन्न सिद्ध किया जाता है, वे समस्त हेतु आत्मा को मनोमय सिद्ध करते हैं । भिन्नभिन्न इन्द्रियों द्वारा अनुभूत ज्ञान का एकत्र संधान मन ही करता है, मन सर्व विषयक है, अत: वही आत्मा है । उससे भिन्न अन्य 'आत्मा' नामक तत्व मानने की आवश्यकता ही नहीं हैं । " संभवतः इस विचारधारा का प्रभाव उपनिषद् काल के प्रारम्भ में अधिक रहा हो और उस प्रभाव के कारण अनेक ऋषियों ने मन की महिमा गाकर उसे ही ब्रह्म एवं आत्मा का रूप दे दिया हो । "
मन को आत्मा रूप में स्वीकार कर लेने पर भी दार्शनिकों को इस प्रश्न से मुक्ति नहीं मिली कि इन्द्रिय एवं मन दोनों ही भौतिक हैं, अतः इनका संचालन करने वाला कोई अभौतिक तत्व अवश्य होना चाहिए । उस अभौतिक तत्व की खोज में कुछ दार्शनिकों ने आगे छलांग लगाई और वे मन से प्रज्ञा तक पहुँचे और 'प्रज्ञान' को 'आत्मा' के नाम से जानने लगे । 'प्रज्ञान आत्मा' के स्वरूप को जानने का उपदेश दिया जाने लगा । 'प्रज्ञा' को आत्मा स्वीकार करनेवाले दार्शनिक भौतिक से अभौतिक स्वरूप की ओर अवश्य आगे बढ़े, पर फिर भी उनके चिंतनशील मस्तिष्क शांत नहीं रह सके । एक प्रश्न बार-बार उन्हें उद्वेलित कर रहा था । ज्ञान का एक रूप वस्तुविज्ञप्ति रूप है, तो दूसरा अनुभव संवेदन रूप है । प्रज्ञा तो आत्मा का एक पहलू है, वेदन है, संवेदन के विना वह अधूरा है । ज्ञान के पश्चात् भोग होता है, भोग अनुकूल
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(क) न्यायसूत्र ३/२/६१
(ख) वैशषिक सूत्र ७।१।२३
न्यायसूत्र ३।१।१६
(क) मनो वै ब्रह्मति - वृहदा० ४|१|६
(ख) मनोह्यात्मा, मनो हि लोको, मनो हि ब्रह्म - छांदोग्य ० ७।३।१
२०. कौषीतकी उपनिषद् ३1८
प्रज्ञानात्मा
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