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भारतीय चिन्तन की पृष्ठभूमि
भी होता है प्रतिकूल भी । अनुकूल भोग आत्मा को सुख रूप होता है और उसकी चरम स्थिति है आनंद ! 'प्रज्ञान' के साथ जब तक 'आनंद' की स्थिति नहीं है तब तक आत्म विचारणा अपूर्ण है, यह भी एक विचार उठा और कुछ दार्शनिक आत्मा को ‘आनंद रूप' मानने लगे । आनन्द आत्मा आनंद ही ब्रह्म है, वही आत्मा है, वही परमात्मा है । इस विचार ने धीरे-धीरे दर्शन को जो सिर्फ बौद्धिक व्यायाम तक ही सीमित था, धर्म, अर्थात् आत्मिक परितृप्ति की ओर उन्मुख किया, यह भी माना जा सकता है । २३
चिदात्मा
आनन्द को आत्मा मानने वाले दार्शनिकों के समक्ष भी यह प्रश्न खड़ा ही रहा कि आनन्द की अनुभूति करने वाला तत्व 'आनन्द' से भिन्न होना चाहिए । 'आनन्द का अन्तरात्मा क्या है' इस प्रश्न पर जब चिंतन धारा बढ़ी तो सम्भव है कुछ दार्शनिकों ने कहा-दह, इन्द्रिय, प्राण, मन, प्रज्ञान तथा आनन्द से भी जो परे है, वह आत्मा है। इस विचार ने आत्मा को 'चिद्' रूप में उपस्थित किया। जो चैतन्य है, जो ब्रह्म है, वही आत्मा है-सर्वं हि एतद् ब्रह्म, अयमात्मा ब्रह्म५-- इस ब्रह्म को ही चेतन पुरुष मानागया। वह स्वयं ज्योति स्वरूप, द्रष्टा विज्ञाता है। उसे किसी अन्य की अपेक्षा नहीं ।२६
इस प्रकार आत्मा सम्बन्धी विचारणा में भारतीय चितन में एक विचित्रता, बहविधमान्यता एवं पूर्वापरविरोधी विचारों का ऐसा वातावरण छाया हुआ था कि किसी भी निश्चय पर पहुंच पाना बहुत कठिन था । एक ओर आत्मा को भूतात्मक मान कर नितांत भौतिक एवं देह से अभिन्न सिद्ध करने वाले दार्शनिक अपनी विचार धारा के प्रचार-प्रसार एवं खण्डन-मण्डन में संलग्न थे, तो दूसरी ओर कुछ प्राणात्मक इन्द्रियात्मक, मनोमय, ज्ञानात्मक, आनन्दात्मक आदि रूपों पर ही विशेष बल देते
२१. आनन्द आत्मा-तैत्तिरीय २०५१ २२. Nature of Consiousness in Hindu Philosohpy-P२० २४. तैत्तिरीय उपनिषद् २।६ २५. मांडुक्य उपनिषद् २ | २६. वृहदारण्यक० ३।४।१२
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