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इन्द्रभूति गौतम
थे। इस चितन का अंतिम स्वर था आत्मा की ब्रह्म रूप चिदात्मक स्थिति । एक ओर अद्व तजडात्मा और दूसरी ओर अद्वतचेतनात्मा-इन दो ध्रवों के बीच में निग्रन्थ विचारधारा एक सामंजस्य उपस्थित कर रही थी। उसने जड़ एवं चेतन दोनों को मौलिक तत्व माना । आत्मा को चेतन माना, पुद्गल को अचेतन ! पुद्गलकर्म आदि से संपृक्त अवस्था में चेतन मूर्त है, तथा कर्म मुक्त अवस्था में ज्ञानादि गुणों से युक्त अमूर्त !
___इन्द्रभूति की बेचैनी
__ आत्म विचारणा की इस विषम स्थिति में इन्द्रभूति जैसे विद्वान की प्रज्ञा भी किसी निर्णय पर नहीं पहुंच पा रही थी और इसी कारण कभी-कभी मन में यह प्रश्न मूल से ही अटक जाता कि-जिस आत्मा के संबंध में इतनी अटकलें लगाई जा रही हैं, वह वस्तुतः क्या है ? और कुछ है भी या नहीं ? यदि कुछ है, तो आज तक उस संबंध में किसी ने तर्कसंगत समाधान क्यों नहीं प्राप्त किया ।
जिस प्रकार सामान्य व्यापारी को अपने हिसाब-किताब की एक छोटी-सी भूल भी चैन नहीं लेने देती, उसी प्रकार विद्वान् के मन को जब तक उसका संशय निमूल न हो जाये शान्ति प्राप्त नहीं हो सकती, अपनी संपूर्ण विद्वत्ता पर एक चोट सी प्रतीत होती है, और वह विद्वान के लिए किसी भी प्रकार सह्य नहीं होती। इन्द्रभूति ने संभवतः अपने युग के बड़े-बड़े मनीषियों, विद्वानों और तर्कशास्त्रियों से वाद विवाद भी किया होगा। उनसे अपने संशय का समाधान भी चाहा होगा, पर कहीं से भी वह उत्तर नहीं मिला, जिसे प्राप्त करने को उनकी आत्मा तड़प रही थीं। वे किसी भी मूल्य पर अपनी शंका का समाधान पाना चाहते थे और आज जब श्रमण महावीर की अलौकिक महिमा, उनकी सर्वज्ञता का संवाद, देव गण द्वारा पूजा अर्चा का यह समारोह देखा तो विजिगीषा के साथ एक प्रबल जिज्ञासा भी अवश्य उठी होगी। वे या तो वाद विवाद करके महावीर को वेदानुयायी बना लेना चाहते होंगे या फिर अपनी शंका का समाधान पाकर उनका शिष्यत्व स्वीकार करने का संकल्प ले चुके हों। इस प्रकार को कुछ भावनाओं ने इन्द्रभूति को भगवान महावीर के समवशरण की ओर आगे बढ़ाया।
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