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________________ इन्द्रभूति गौतम गाथा में गणधरों के मन की शंकाओं का उल्लेख किया है। जिनका समाधान भगवान महावीर ने किया, और वे अपने-अपने शिष्य परिवार के साथ प्रवजित हुए। संभवतः यह उल्लेख ही वह पहली कड़ी है जो गणधरों एवं महावीर के संवाद को दार्शनिक भूमिका से जोड़ती है । जटिल प्रश्न तत्कालीन विचार सूत्रों का परिशीलन करने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि उस युग में आध्यात्मिक एवं दार्शनिक विचार क्षेत्र में बहुत बड़ी उथल-पुथल छाई हुई थी । सैकड़ों विचारक, सैकड़ों विचारधारायें और सब अपनी अपनी विचारधारा को ही सत्य सिद्ध करने का प्रयत्न कर रहे थे। जिधर जाओ, उधर विचारों का एक कोलाहल छाया हुआ था, सामान्य श्रद्धालु ही नहीं, किन्तु बड़े से बड़ा विद्वान भी उस स्थिति में यह निर्णय नहीं कर पाता कि क्या सत्य है, क्या असत्य है ? आत्मा एवं ब्रह्म का एक ऐसा जटिल विषय था जिसको एक ओर एकान्त जड़ एवं अस्तित्वहीन सिद्ध किया जाता था तो दूसरी ओर एकांत चैतन्य एवं अद्वत सत्ता के रूप में स्वीकार किया जा रहा था। वेद एवं उपनिषद साहित्य में इस प्रकार के सैकड़ों विरोधी विचार सामने आने के कारण ही संभव है इन्द्रभूति जैसे दिग्गज विद्वान भी आत्मा के सम्बन्ध में भीतर ही भीतर संशयाकुल रहे हों, और जब भगवान महावीर द्वारा उनके संशय का समाधान हुआ तो उनका लगा हो, मन का कांटा निकल गया, हृदय सरल एवं सही स्थिति का अनुभव करने लगा है और इस कृतज्ञता में वे भगवान के पास प्रवजित हो गये हो। इन्द्रभूति गौतम के मन में संशय था, जीव है या नही ! इस प्रश्न का भगवान महावीर ने तर्क शुद्ध समाधान किया और इन्द्रभूति भगवान के शिष्य बन गये। इन्द्रभूति के इस संशय की पृष्ठभूमि क्या थी इसे समझने के लिए हमें भारतीय दर्शन में आत्मविचारणा की पृष्ठभूमि को समझना आवश्यक है, उसी पृष्ठ भूमि पर हम भगवान महावीर के ताकिक समाधान का सही महत्व समझ पायेंगे। १. जीवे 'कम्मे तज्जीव 'भूय 'तारिसय ६बंध मोक्खे य, "देवा “ोरइय या पुण्णे १०परलोय "व्वाणे । -आवश्यक नि० ५९६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003429
Book TitleIndrabhuti Gautam Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1970
Total Pages178
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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