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________________ इन्द्रभूति गौतम तपोपलब्धि अध्यात्म की इस चरमस्थिति पर पहुंचे हुए साधक के लिए यह सहज हो था कि तपोजन्य लब्धियाँ एवं सिद्धियाँ उनके चरणों में लौटने लगे । जैन ग्रन्थों में अनेक प्रकार की तपोजन्य लब्धियों का वर्णन आता है । विशिष्ट प्रकार के तपश्चरण एवं उत्कृष्ट शुभ अध्यवसाय के कारण आत्मा में अमुक प्रकार की शक्ति जागृत हो जाती है, जिसे लब्धि कहा जाता है । ६ उन लब्धियों में एक तेजोलब्धि भी है । इस लब्धि के कारण साधक किसी क्रोध आदि प्रसंग पर अपने अन्तर से एक प्रकार की अग्नि को निकालता है, जो कई योजन तक चली जाती है और उस क्षेत्र में रही हुई समस्त वस्तु, विशाल भवन, वृक्ष, नगर आदि को जला कर भस्मसात् कर डालती है। गोशालक के पास इस प्रकार की तेजोलब्धि थी, जिसका प्रयोग उसने भगवान महावीर पर भी किया था। गौतमस्वामी को विशिष्ट तपश्चरण के कारण जो लब्धियाँ प्राप्त हुई उनमें तेजोलब्धि (तेजोलेश्या) भी थी, और उसकी शक्ति बहुत ही तीक्ष्ण थी । एक साथ सोलह महादेशों को भस्म करने में समर्थ ! किन्तु उनकी दृष्टि तो आत्मकेन्द्रित थी, शांति एवं वैराग्य में लीन थी, संसार के प्रत्येक प्राणी को मित्र भाव से देखते थे। अतः उन्होंने इस प्रकार की विपुल तेजोलब्धि को अपने शरीर के भीतर ही संगुप्त करके रखी थी। आत्मा पर कठोर संमय की वृत्ति इस विशेषण से ध्वनित होती है, और साथ ही उनकी तपोजन्य विशिष्ट उपलब्धि का दिगदर्शन भी ! समता एवं प्रेम की वृष्टि करने वाले साधक के लिए इस प्रकार की लब्धि का प्रयोग कभा क्यों आवश्यक होता ? वह तो संसार को आग बुझाने आया था, आग लगाने नहीं, वह घर-घर में और घट-घट में महावीर का विश्वबंधुत्व, समता एवं करुणा का संदेश पहुँचाने वाला महान् साधक था, इस प्रकार को लब्धियों का संगोपन करके आत्म शक्ति का विश्व-कल्याण में नियोजन करना हो उनका ध्येय था । ४६. परिणाम तव वसेणं एमाइ हुति लद्धीओ । --प्रवचन सारोद्वार, द्वार २७० गा, १४९२-१५०८ ४७. भगवती सूत्र १५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003429
Book TitleIndrabhuti Gautam Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1970
Total Pages178
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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