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________________ व्यक्तित्व दर्शन गौतम की ज्ञान सम्पदा जैन दर्शन की मूल आत्मा है- 'पढमं नाणं तओ दया४८ पहले ज्ञान फिर क्रिया । जब तक अन्तःकरण में ज्ञानज्योति प्रज्वलित नहीं होती, आत्म बोध की प्राप्ति नहीं होती, तब तक समस्त क्रिया कांड, 'देह दंड' से अधिक महत्वपूर्ण नहीं है। उस 'देहदंड' को जैनाचार्यों ने 'बाल तप' कहा है और वह कितना ही उग्र हो, उससे मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती —"नहु बालतवेण मुक्खुति"४९ इसलिए क्रिया से पूर्व ज्ञान, आत्मबोध प्राप्त करना अत्यन्त आवश्यक है । वैसे एकांत ज्ञान एवं एकांत क्रिया दोनों ही अपने में अधूरे हैं । ५० किन्तु क्रम की दृष्टि से पहले ज्ञान और फिर क्रिया, यही आत्म साधना की सही दृष्टि है । ५१ ज्ञान को प्रकाश माना गया है, ५२ वह प्रकाश प्राप्त करके साधक अपने साधना मार्ग पर अस्खलित एवं अप्रतिहत गति से बढ़ता चला जाता है। जैन दर्शन का यह मूल स्वर गौतम के जीवन में मुखरित हुआ है । उन्होंने पहले ज्ञान को आराधना की, इससे आत्मस्वरूप का बोध प्राप्त किया और फिर उन तपश्चरण में शरीर को झौंक डाला। वे अपने पूर्व जीवन में वैदिक परंपरा के प्रकांड पंडित थे, उसके अंग-अंग को टटोला, अनुशीलन किया और उसके सूक्ष्म से सूक्ष्म रहस्यों का अवबोध प्राप्त किया। आचार्य हेमचन्द्र के कथनानुसार वे चतुर्दश विधाओं में पारंगत थे। ५३ 'चौदह विद्या' में उस युग की समस्त विद्याओं का समावेश कर दिया गया था। चार वेद, छह वेदांग,५४ धर्म शास्त्र, पुराण, ४८. दशवकालिक ४ ४९. आचा०नि० २।४ ५०. णाणं किरिया रहियं किरियामेत्तं च दोवि एगंता। -सन्मति तर्क० ३।६८ ५१. नाणी संजम सहिओ नायव्वो भावओ समणो -~-उत्त० नि० ३८९ ५२. नाणं पयासगं । आव०नि० १०३ ५३. त्रिषष्टिः शलाका १० । ५ ५४. छह वेदांग ये हैं(क) शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष । --वैदिक कोश, पृ० ४९४ (प्रकाशक बनारस हिन्दू युनिर्वसिटी) (ख) सिक्खा-कप्पे-वागरणे-छंदे-निरुत्त -जोइसामयणे। -भगवती, २।१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003429
Book TitleIndrabhuti Gautam Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1970
Total Pages178
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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