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________________ व्यक्तित्व दर्शन विदेहभाव गौतम के लिए एक विशेषण यह भी प्रयुक्त हुआ है-“उच्छूढ सरीरे" शरीर का त्याग करने वाले । वस्तुतः गौतम शरीरधारी थे तब शरीर का त्याग करने की बात सीधेरूप में कैसे संगत बैठ सकती है ? इसका आशय है शरीर होते हुए भी शरीर के संस्कार, ममत्व एवं किसी प्रकार की आसक्ति उनमें नहीं थी। यह विशेषण गौतम की उच्चतम आध्यात्मिक स्थिति का द्योतक है । वे अध्यात्म के उस स्तर पर पहुँच गये थे जहाँ शरीर रहते हुए भी शरीर को भावना या शरीर का संस्कार नहीं रहता है । शरीर के सुख-दुःख, भूख प्यास की कोई स्थिति उन्हें अपनी साधना से विचलित नहीं कर सकती थी। भगवान महावीर का यह संदेश “एगमप्पाणं संपेहाए धुणे कम्म सरीरगं' ४२ आत्मा को शरीर से पृथक समझकर कर्म शरीर को धुन डालो, गौतम के जीवन में रम गया था और वे सतत देह मुक्त भाव में विचरण करते हुए चिन्मय विशुद्ध स्वरूप आत्मा का चिंतन करते रहते थे।" मैं केवल शक्ति-ज्योति स्वरूप हूँ । २ ज्ञान दर्शनमय ज्योति ही मेरी आत्मा का शाश्वत रूप है । वही शुद्ध शाश्वत तत्व मैं हूँ। ये परमाणु-शरीर के सुख-दुःख, वेदना संस्कार और पोड़ा मेरा अहित नहीं कर सकते । ४४ अध्यात्मयोग की यह उच्चतम भावना गौतम के जीवन में साकार हुई यह उक्त विशेषण से स्पष्ट प्रतीत होता है। उनकी दृष्टि आत्म-केन्द्रित हो गई थी, और शारीरिक संस्कार से मुक्त थी । श्रीमद् राजचन्द्र ने इसी स्थिति को देहातीत सि ति बतलाते हुए ऐसे परम योगी को नमस्कार किया है देह छता जेहनी दशा वर्ते देहातीत । ते योगी ना चरण मां वंदन छे अगणीत ।।५ ४२. आचारांग १ । ४ । ३ ४३. केवलसत्ति सहावो सोहं---नियमसार ९६ ४४. (क) एगो मे सासदोअप्पाणाणदंसणलक्खणो-नियम ०१०२-महाप्रत्याख्यान १०१ (ख) अहमिक्को खलु सुद्धो दंसण णाण मइयो सदाऽरुवी, __णवि अस्थि मज्झ किंचि वि अण्णं परमाणुमित्तंपि। ---समयसार ३८ ४५. आत्मसिद्धि-श्रीमद् राजचन्द्र, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003429
Book TitleIndrabhuti Gautam Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1970
Total Pages178
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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