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इन्द्रभूति गौतम
तव महिट्ठिज्जा'२८ भगवान महावीर का यह संदेश ही उनकी समस्त तप: साधना का मूल था। दूसरे कोई गौतम के कठोर तपश्चरण की चर्चा करते तो वे रोमांचित हो जाते, इसलिए उनके तप को 'घोरतप' कहा गया है।
ऊर्ध्वरेता ब्रह्मचारी
घोर तपस्वी के साथ-साथ गौतम के लिए 'घोरवंभचेरवासी' भी एक विशेषण आता है । और यह विशेषण किसी न किसी विशिष्टता का द्योतक भी हो सकता है । साधारणतः 'घोर' शब्द 'रुद्र' अर्थ में प्रयुक्त होता है । ९ किन्तु जब उसके साथ घोर तप, घोर गुण, घोर ब्रह्मचर्य आदि विशेषण लग जाते हैं तो अर्थ में प्रसंगानुसार अन्तर भी आ जाता है । उत्तराध्ययन ९ में शकेन्द्र जब नमिराजर्षि को गृहस्थाश्रम में रहने की बात कहता है तो वहाँ 'घोरासमं घोर-आश्रम' शब्द का प्रयोग गृहस्थाश्रम की श्रेष्ठता का द्योतक भी बन गया है । सामान्यतः ब्रह्मचर्य को अन्य व्रतों से कठोर माना गया है । साधारण मनुष्य उसकी आराधना कर सकने में समर्थ नहीं हो पाते। इस आशय से ब्रह्मचर्य के साथ 'घोर ब्रह्मचर्य, शब्द का प्रयोग भी आगमों में कई स्थानों पर हुआ है।४१ गौतम के प्रकरण में भी 'घोर' शब्द व्रत की कठोरता, दुःष्पाल्यता के साथ विशिष्टता का भी द्योतक हो सकता है और इस दृष्टि से सामान्य ब्रह्मव्रतधारी से गौतम के ब्रह्मचर्य की साधना की दृष्टि से कुछ विशिष्टता हो सकती है और वह यहो कि ब्रह्म साधना का अंतिम स्तर जो ऊर्ध्वरेता ब्रह्मचारी के रूप में होता है, संभवतः उसी स्तर पर गौतम की साधना पहुँची होगी, औः उसी बात की ओर यह विशेषण एक संकेत के रूप में हो।
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३८. दशवकालिक ९ ३९. अभिधानराजेन्द्र भा० २ पृ० १०४५
घोरं च तद् ब्रह्मचर्य चाल्पसत्वदु:खेन यदनुचर्यते । तस्मिन् घोर ब्रह्मचर्य वस्तु शीलमस्येति घोरब्रह्मचर्यवासी।
-भगवती वृत्ति १११ ४१. देखिए-ज्ञातासूत्र ११ जंबूद्वीप प्र० रायपसेणी, औपपातिक, निरयावलिया
आदि।
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