________________
व्यक्तित्व दर्शन
६५
की कठोर चर्या वर्तमान में यदि जैन श्रमणों के लिये दुष्कर एवं दुष्पाल्य है तो उसके लिए श्रमणों की दुर्बलता का पक्ष नहीं देखकर उनकी समयज्ञता एवं विधि-निषेध मार्ग व्यवस्था को देखना चाहिये । आज भी 'गौतम स्वामी की करणी' एक उच्चतम क्रियापात्रता का सूचक है । साथ में यह भी ध्वनित होता है कि एक महान तत्वज्ञानी मात्र ज्ञान के सागर के और छोर को नापने में ही 'अलं' नहीं रहा, किन्तु आचार क्रिया का भी उच्चतम उदाहरण बन कर हजारों वर्ष के बाद आज भी जगमगा रहा है। उन्होंने जीवन भर बैले-बेले तक पारणा किया और पारणे में भी केवल एक समय भोजन । गौतम की लम्बी तपश्चर्या का वर्णन सूत्रों में नहीं मिलता है, किन्तु बेले-बेले के तप की दीर्घकालीन साधना और उसकी महिमा को देखते हुए लगता है यह किसी कठोर दीर्घ तपस्या से कम उग्न नहीं थी। इसीलिए आगमों में गौतम को 'उग्गतवे घोरतवे' आदि विभूषणों से अलंकृत किया गया है । भगवती सूत्र के टीकाकार अभयदेव सूरि ने उक्त शब्दों पर टीका करते हुए लिखा है-जिस तपश्चरण की आराधना सामान्य जन के लिए अत्यंत कठोर हो, यहाँ तक कि वे उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते ऐसे तपश्चरण को उग्रतप कहा जाता है ।३६
___ गौतम की तपश्चर्या के साथ शांति एवं सहिष्णुता का मणिकांचन संयोग था। इस शांति के कारण ही तपः ज्योति से उनका मुख मंडल सतत प्रभास्वर रहता था। तपस् की दीप्ति उनके शरीर पर छिटकती रहतो इसीकारण उनके लिए 'दित तवे' विशेषण भी उपयुक्त है । 'दित्त तवे' का अर्थ यह भी किया जाता है-तप के द्वारा उन्होंने अपने कर्म वन को भस्म कर डाला था । और इसी बात को विशेष बलपूर्वक बताने के लिए 'तत्ततवे' महातवे' आदि विशेषण आये हैं । उन्होंने तप से अपने अन्तर मल को तपा डाला था। जिस प्रकार स्वर्ण अग्नि में तप कर निखर जाता है,
और समस्त मलिनता दूर हो जाती है, उसी प्रकार गौतम ने तप कर आत्मज्योति को निखारा था । उस तप में किसी प्रकार की कामना, आशंसा, परलोक की वितृष्णा एवं यशःकीर्ति की अभिलाषा नहीं थी। वे केवल आत्म शोधन के लिए तप करते रहे। कर्म निर्जरा ही उनके तपश्चरण का एक एवं अंतिम ध्येय था 'नन्नत्थ निज्जरट्ठयाए
३६. यदन्येन प्राकृतपुसा न शक्यते चिन्तयितुमपि तद् विधेन तपसा युक्तः ।
-भगवती वृत्ति १।१ पृ० ३५ ३७. 'महातवे'-त्ति आशंसा दोष रहितत्वात् प्रशस्ततपाः ।
-भगवती वृत्ति १।१ पृ० ३५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org