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________________ इन्द्रभूति गौतम यही समाचारी थी ऐसा उत्तराध्ययन आदि आगमों से प्रतीत होता है । एक प्रहर की नींद सामान्य व्यक्ति के लिये अपर्याप्त है, किन्तु उस समय जिस प्रकार के शरीर संगठन, बल, क्षमता आदि के वर्णन मिलते हैं उसमें उनके स्वास्थ्य की सहन-क्षमता भी सुदृढ़ होनी चाहिए और उसी दृष्टि से हो सकता है यह सभी सामान्य श्रमणों की चर्या विधि रही हो। किन्तु धीरे धीरे और बहुत ही अल्प समय में जब परिस्थितियाँ बदली, शारीरिक क्षमताओं में अन्तर आया तो जैन श्रमण ऐसे भी नहीं थे कि लकीर के फकीर बने रहे। आचार्य शय्यंभव द्वारा संकलित दर्शवकालिक में भिक्षा का समय बदलने के सम्बन्ध में स्पष्ट निर्देश है कि-"भिक्षु ! गहस्थ के घर पर भिक्षा का उपयुक्त समय देखकर ही जाये, यदि अकाल--असमय में उसके घर पर जाएगा तो भिक्षा भी प्राप्त न होगी जिससे स्वयं उसे भी क्लेश होगा और गृहस्थ को भी लज्जा का अनुभव होगा। वृहत्कल्प सूत्र में भी प्रथम एवं चरम प्रहर की भिक्षाचरी का समर्थन किया गया। और नियुक्ति काल में आने तक तो दो एवं तीन बार की भिक्षा विधि भी मान्य हो चुकी थी। इसी प्रकार निद्राविधि भी एक प्रहर के स्थान पर बिचके दो प्रहर की मान ली गई । समयानुसार आचार विधि में परिवर्तन करना जैन श्रमणों एवं आचार्यों की समयज्ञता का सूचक है, इसे दुर्बलता नहीं माना जा सकता । चूंकि जैन धर्म अनेकांतवादी हैं, उत्सर्ग-अपवाद मार्ग में विश्वास करता है । वहाँ कहा गया है-खेत कालं च विन्नाय तहप्पाणं निउजए क्षेत्र, समय एवं क्षमता आदि को देखकर शक्ति का नियोजन करना चाहिए । “जिन शासन में किसी विधि का एकांत निषेध भी नहीं है और न एकांत विधान ही है । परिस्थिति को देखकर ही निषेध या विधान किया जाता है जैसा कि रोग में चिकित्सा के लिए।"३५ अस्तु, गौतम स्वामी ३०. अकाले चरसि भिक्खू, कालं न पडिलेहसि ? अप्पाणं च किलामेसि, सन्निवेसं च गरिहसि । –दशवै ५।२१५ ३१. बृहद्कल्प ५।६ ३२. ओधनियुक्ति भाष्य गा. १४९ ३३. ओधनियुक्ति गा. ६६० ३४. दशवकालिक ५१ ३५. एगतेण निसेहो जोगेसु न देसिओ विहीवाऽवि । दलियं पप्प निसेहो होज्ज विही वा जहा रोगे । -ओपनियुक्ति ५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003429
Book TitleIndrabhuti Gautam Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1970
Total Pages178
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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