________________
आत्म-विचारणा
भूत समुदाय से ही उत्पन्न होता है और पुन: उसी में विलय हो जाता है। परलोक नाम की कोई वस्तु नहीं है।"
वेद पदों की संगति
महावीर-“इन्द्रभूति ! तुमने वेद पदों का अध्ययन किया है, पारायण भी किया है, पर
मुझे लगता है तुमने अभी तक केवल शब्द पाठ किया है, वेदों के हृदय को नहीं समझा है, शब्दों में सुप्त अर्थ को जागृत नहीं किया है, तभी ऐसी भ्रांति तुम्हारे मन-मस्तिष्क को जकड़े हुए हैं । किंतु यदि तुम दृष्टि को स्पष्ट करके इन पदों का अर्थ समझने का प्रयत्न करोगे तो आत्मा विषयक
म्रांति इन्हीं पदों से दूर हो सकती है।" इन्द्रभूति-"आर्य प्रभु ! आपके हृदयस्पर्शी वचनों से मेरा हृदय प्रबुद्ध हो रहा है,
मेरो जिज्ञासा जागृत हुई है, कृपया आप ही इन वेद पदों का सही अर्थ
बतलाने की कृपा करें ।" महावीर-आयुष्मन् इन्द्रभूति ! "विज्ञानघन एवैतेभ्यो भतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानु
विनश्यति न च प्रत्य संज्ञाऽस्ति ।' यह जो वेदवाक्य (उपनिषद्) है, उसके आधार पर तुम मानते हो कि भूत समुदाय से विज्ञानघन समुद्भूत होता है, और फिर उन्हीं में लय हो जाता है, इसलिए परलोक-परभव में जाने वाला कोई नहीं है, यह अर्थ वास्तव में गलत है । विज्ञानघन शब्द से 'जीव' आत्मा का भाव ध्वनित होता है । ज्ञान आत्मा का स्वरूप है। जीव के प्रत्येक प्रदेश के साथ अनन्तानन्त ज्ञान पर्यायों का संघात है, अतः उसे विज्ञानघन कहा जाता है । भूतेभ्यः समुत्थाय'-इत्यादि पदों का तात्पर्य घट-पट आदि पदार्थ भूत हैं, वे ज्ञ य हैं, जैसे 'घट' देखने से घट विज्ञान उत्पन्न हुआ, 'पट' देखने से पट विज्ञान उत्पन्न हुआ। सिद्धान्त यह है कि ज्ञय से ज्ञान की उत्पत्ति होती है । घट आदि भूतों से घट विज्ञान उत्पन्न हुआ, वह जीव की एक विशेष पर्याय है, इसलिये यह कहा जा सकता है कि यह घट विज्ञान रूप जीव घट से उत्पन्न हुआ, इसी प्रकार अन्य अनन्त भूत-पदार्थों के ज्ञान के साथ जीव तदनुरूप पर्याय धारण कर लेता है, अतः वह उस पदार्थ से उत्पन्न हुआ ऐसा कहा जाता है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org