________________
४४
इन्द्रभूति गौतम
आकाश सर्वगत व्यापक है, इसलिये न उसमें कर्तृत्व है, न भोक्तृत्व ! कर्ता, भोक्ता एवं मंता ( मनन करने वाला) जीव एक दूसरे से स्वतंत्र होता है, उसका अपना अस्तित्व अप्रतिबद्ध होता है, वह अकेला पुण्य-पाप करता है और अकेला भोक्ता है, यदि वह व्यापक है, तो न तो अकेला कुछ कर सकता है, और न अकेला भोग सकता है । अतः जीव का अनेकत्व, अनन्त पना तथा असर्वगत्व - स्वतन्त्र रूप ( शरीरव्यापी न कि सर्वव्यापी) तर्क से भी सिद्ध है और वही बंध-मोक्ष, जन्म-मरण, कर्मफल भोक्तृत्व के सिद्धान्त का मूल आधार है ।"
इन्द्रभूति - आर्य ! आपके युक्तिपूर्ण वचनों से जीव विषयक मेरा संदेह नष्ट हो रहा है । स्वयं मुझे इस विषय में प्रतीत हो रहा है कि 'जीव है ।' किन्तु फिर भी कभी - कभी वेद वाक्यों की विविधता मुझे पुनः सन्देह की ओर ढकेल देती है, जैसे कि - "विज्ञानघन एव एतेभ्यः " आदि कि यह विज्ञानघन
१९. आत्मा को व्यापक मानने के संबंध में इन्द्रभूति के मन में जो ऊहापोह उपस्थित हुआ है उसका कारण औपनिषदिक चिंतन की विविधता है । उपनिषद् में कहीं आत्मा को देह प्रमाण माना है, तो कहीं अंगुष्ठ प्रमाण एवं कहीं सर्वव्यापक | कौषीतकी उपनिषद् ( ४-२० ) में आत्मा को देह प्रमाण बताते हुए कहा है- - ' जिस प्रकार तलवार म्यान में व्याप्त है, उसी प्रकार आत्मा (प्रज्ञात्मा) शरीर में नख एवं रोम तक व्याप्त है ।' बृहदारण्यक में उसे चावल या जो जितना बड़ा कहा है-यथा ब्राहिर्वा यवो वा- - (५।६।१) कठ उपनिषद् में (२।२।१२) एवं श्वेताश्वतरोपनिषद् ( ३।१३ ) - " अगुष्ठमात्रः पुरुषोऽन्तरात्मा सदा जनानां हृदये संनिविष्ट : " में अंगुष्ठ प्रमाण माना है । मुंडक आदि अनेक उपनिषदों में उसे व्यापक भी कहा गया है - ' तदपाणि पादं नित्यं विभुं सर्वगतं ' - ( व्यापकमाकाशवत् ) – मुण्डक० शांकर भाष्य १|१|६ | कोई ऋषि उसे 'अणोरणीयान् महतो महीयान्' (मैत्र्युप० ६ । ३८ | कठोप० १।२।२० । छांदोग्य ३ | १४ | ३ | मानकर उसका ध्यान करने की बात कहते हैं । इस प्रकार के विरोधी विचार-चिंतन के कारण आत्मा के संबंध में इन्द्रभूति भी कुछ निर्णय नहीं कर पाए हों यह इससे ध्वनित होता है । न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग, मीमांसक तथा शंकराचार्य आदि ने आत्मा को व्यापक माना है, तथा जैन दर्शन ने आत्मा को देह प्रमाण माना है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org