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आत्म-विचारणा
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महावीर - इन्द्रभूति ! आकाश की भाँति जीव अखंड एवं एक नहीं हो सकता । ओकाश का एक ही लक्षण सर्वत्र दृष्टिगोचार होता है, जबकि जीव प्रतिपिंड में भिन्न है और उनके लक्षण भी परस्पर भिन्न हैं । सुखदुख, बंध मोक्ष प्रत्येक जीव का भिन्न है, यदि जीव एक है तो एक जीव सुखी होने पर सब जीव सुखी होने चाहिए। एक जीव को दु:ख अनुभव होने पर सब जीवों को दुःख का अनुभव होना चाहिए। एक का मोक्ष होने पर सब को मुक्ति हो जानी चाहिए। पर ऐसा कभी होता नहीं, प्रत्येक जीव का सुःख-दुःख भिन्न-भिन्न प्रतीत होता है, इसलिए यह तर्कसिद्ध बात है कि सब जीव परस्पर भिन्न हैं. चूँकि उनका लक्षण भिन्न भिन्न है ।"
१७.
झलकते हैं । १६ जिस प्रकार आकाश एक अखंड विशुद्ध एवं स्वच्छ हैं, किन्तु फिर भी जिसकी आँख रोगग्रस्त है ( तिमिररोगी) वह उसमें विभिन्न रंगों व दृश्यों की कल्पना करता है, उसी प्रकार एक ही विशुद्ध ब्रह्म अविद्या से कलुषित हृदय वालों को भिन्न-भिन्न रूपों में प्रतिभासित होता रहता है ।' इस प्रकार शास्त्र वचनों से तो जीव अखंड एवं सर्वव्यापक एक रूप सिद्ध होता है और आप उसके भेद एवं भेदान्तर की बात कर रहे हैं यह कैसे युक्तिसंगत है ?"
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आकाश की भाँति सर्वगत्व तथा एकत्व की कल्पना जीव में करने पर सुख-दुख एवं बंध-मोक्ष की व्यवस्था ही गड़बड़ा जायेगी ।"" चूँकि
एक एव हि भूतात्मा भूते-भूते प्रतिष्ठितः । एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत् ।।
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-- ब्रह्मबिन्दु उपनिषद् ११
यथा विशुद्धमाकाशं तिमिरोपप्लुतो जनः । संकीर्ण मिव मात्र भिभिन्नाभिरभिमन्यते ॥ तथेदममलं ब्रह्म निर्विकल्पमविद्यया । कलुषत्वमिवापन्नं भेदरूपं प्रकाशते ।।
- बृहदारण्यक भाष्यवार्तिक ३, ४,४३-४४
१८. यहाँ पर यह स्पष्ट जान लेना चाहिए कि भारत के प्रायः सभी प्रमुख दर्शन - न्याय - वैशेषिक, सांख्य-योग, मीमांसक, बौद्ध तथा जैन आत्मा के अनेकत्व में विश्वास रखते हैं, जबकि शांकर वेदांत आत्मा को एक मानते हैं ।
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