________________
४२
इन्द्रभूति गौतम
इन्द्रभूति—'आर्य ! जीव के अस्तित्व के सम्बन्ध में आपके तर्क मुझे मान्य हो सकते
हैं, फिर भी मैं यह कैसे विश्वास करूं कि आप सर्वज्ञ हैं ? और यदि हैं भी
तो क्यों आप का वचन सत्य ही हो, असत्य भी हो सकता है ? महावीर-इन्द्रभूति ! तुम सर्वज्ञता में विश्वास करो; या न करो; पर, तुम जानते हो कि
मैं तुम्हारे मन के समस्त संशयों का निवारण कर रहा हूँ, और फिर मुझे किसी प्रकार का भय, मोह एवं राग-द्वष नहीं है, कि जिस कारण मैं असत्य बोलू। मैंने अपने अन्तर दोषों का परिमार्जन किया है और आत्मा के सम्बन्ध में प्रत्यक्ष प्रतीति की है, अत: मैं तुम्हें कहता हूँ कि तुम तर्क एवं प्रमाण के साथ पेरे वचन पर भी विश्वास कर सकते हो, और फिर तुम्हारा
आत्म-संवेदन तो सब से मुख्य प्रमाण है ही।"
इन्द्रभूति को लगा-जैसे तीर्थंकर महावीर की वाणी से उनके समस्त संशय छिन्न हो रहे हैं, हृदय में ज्ञान का आलोक, जो अब तक एक पर्दे के पीछे छिपा हुआ था अब जैसे उभर रहा है, और उससे उद्भुत आलोक की छवि से मन-मस्तिष्क में शांत प्रकाश छा रहा है।
जीव को अनेकता
इन्द्रभूति ने भगवान महावीर से कहा-"आर्य ! आपने जिस चेतनालक्षण जीव की संसिद्धि की, उस जीव का रूप क्या है ? क्या वह अखंड व्यापक सत्ता है या भिन्न स्वरूप में हैं ? महावीर-“इन्द्रभूति ! जीव अनंत है और प्रत्येक जीव अपनी स्वतंत्र सत्ता है ।
सामान्यतः सिद्ध और संसारी जीव के दो भेद हैं । सिद्ध जीव कर्म मुक्त हैं अतः उनके स्वरूप में कोई भेद नहीं, संसारी जीव कर्म युक्त हैं, कर्मों के कारण उनमें भेद भी होता है । संसारी जीव के मूलतः दो भेद होते
हैं—त्रस और स्थावर । इन्द्रभूति-वेद एवं उपनिषद् में जीव को ब्रह्म कहा गया है, और उसे एक अखंड रूप
में माना है । संसार में जो भिन्न-भिन्न आत्माएं हैं, उनमें उसी ब्रह्म का रूप प्रतिबिम्बित होता है, जैसे कि जल में एक चन्द्रमा के विभिन्न प्रतिबिम्ब
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org