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आत्म-विचारणा
गुरण-गुरगी भाव
इन्द्रभूति-."आर्य ! 'संशय रूप विज्ञान' देह में क्यों नहीं हो सकता ? जिस प्रकार
आत्मा के साथ 'अहं बुद्धि' मानी गई है, वैसे ही शरीर के साथ भी तो 'अहं बुद्धि' है । शरीर जब तक प्राण को धारण करता है तब तक 'अहं
बुद्धि' का आधार उसे ही माना जाय तो क्या आपत्ति है ?" महावीर-“इन्द्रभूति ! कोई भी गुण बिना गुणी के नहीं रह सकता। संशय स्वयं
ज्ञान रूप है, ज्ञान आत्मा का गुण है । गुण विना गुणी के कैसे रहेगा ?" इन्द्रभूति-"क्या ज्ञान देह का गुण नहीं हो सकता ?" महावीर- “नहीं ! देह-जड़ है, मूर्त है, जबकि ज्ञान अमूर्त एवं बोध रूप है । गुण
अनुरूप गुणी में ही रह सकता है। जैसा गुणी होगा, वैसा ही गुण होगा। यह नहीं कि गुणी अन्य हो, गुण अन्य । जड़ गुणी में चेतन गुण नहीं रह सकता । यद्यपि शरीर आत्मा का सहचारी होने से उपचार से उसे भी आत्मा कहा जा सकता है, किन्तु वस्तुतः शरीर एवं आत्मा के लक्षण परस्पर भिन्न हैं, शरीर घट की भाँति चाक्षुष (आँखों से दिखाई दिया जाने वाला) है, इसलिए जड़ है, आत्मा इन्द्रियों से ग्राह्य नहीं है, क्यों कि वह अमूर्त है।५ ज्ञान भी अमूर्त है, अतः वह भी इन्द्रियग्राह्य नहीं, किन्तु आत्मसंवेद्य है । अतः ज्ञान रूप गुण का आधार कोई होना चाहिए और वह ज्ञानमय आत्मा के अतिरिक्त अन्य कोई हो नहीं सकता । इन्द्रभूति ! यह सिद्धान्त तुम्हें प्रत्यक्ष अनुभव से भी सत्य प्रतीत होना चाहिए, प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से भी एवं मेरे आप्त वचन (सर्वज्ञ वचन) से भी तुम आत्मा के अस्तित्व पर विश्वास कर सकते हो ?"
१४ भारतीय दर्शनों में इस विषय पर तीन प्रकार के मत प्राप्त होते हैं । पहला
मत है न्याय-वैशेषिक दर्शन का । वे गुण-गुणी में भेद मानते हैं । दूसरा मत है सांख्य दर्शन का, वे गुण-गुणी में अभेद स्वीकार करते हैं। तीसरे मत में जैन एवं मीमांसक है। जैन दर्शन गुण-गुणी में कथंचित् भेद, कथंचित् अभेद (भेदा
भेद) मानता है । मीमांसा दर्शन भी भेदाभेद की धारणा रखता है। १५ नो इन्दियग्गेज्झ अमुत्तभावा-उत्तरा० १४।१७
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